२६ जनवरी १७९५ को फ़्रीदख़्रीच होल्डालीन ने हेगल को पत्र में फ़ीश्ते की आलोचना करते हुए लिखा था कि हम अपनी चेतना को संसार या वस्तु के द्वारा ही जान सकते है और फ़ीश्ते की यह स्थापना कि हमारी चेतना विशुद्धतम रूप से अस्तित्व रखती है और विषयवस्तु पर अपने अस्तित्व के लिए वह आश्रित नहीं -गलत है. . इसका अर्थ है कि हम कभी स्वयं को विशुद्ध रूप से नहीं पाते. परमब्रह्म जैसी सत्ता को होल्डालीन नकारता है किन्तु मेरे लिए वह पत्र जैसे तेल की चिमनी था जिसे घेरकर हम सब भोजन करते थे. उस पत्र को मैंने कागज पर लिखकर अपने कुर्ते की सीने पर बनी जेब में रख लिया था. वह मेरे शोक से डूबते हृदय को आशा से आलोकित करता है. डूबते हुए मनुष्य को जिस प्रकार बहुत दूर से अपने घर की जलती हुई लालटेन दिखती है. यदि फ़ीश्ते गलत है और हम संसार के द्वारा ही स्वयं को देखते है तब तो मृतकों के संसार का पुनर्निर्माण करके हम उन्हें जीवित कर सकते है.
बौद्ध दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु दूसरी पर आश्रित है. यदि मैं बत्ती बना लूँ, तेल भर दूँ और अच्छी सी चिमनी की भाँति पिताजी और गोबरगौरी के संसारों का पुनर्निर्माण कर दूँ तब उनकी चेतना की ज्योति क्यों नहीं इसमें आलोकित होगी! गोबरगौरी का संसार तो मेरी गृहस्थी में ही सिमटा था. मैं उसके शरीर से ही आसक्त रहा कभी उसके मन में झाँककर नहीं देखा, यदि देखा होता तब उसके संसार का पुनर्निर्माण सरल होता. इसलिए उसकी मृत्यु ने केवल शोक ही नहीं ग्लानि से भी हृदय भर दिया. चार वर्ष पूर्व जब वह मेरे जीवन में नहीं आई थी तब मैं सुखी था. उस समय मुझे इस बात का ज्ञान तक नहीं था कि संसार में अन्नपूर्णा नाम्नी कोई स्त्री भी है.
जिस स्त्री के संग मैं चार वर्ष तक रहा, जिसके संग संतान को जन्म दिया उसके संसार के पुनर्निर्माण के लिए मेरे पास कोई नक्शा नहीं है. वह जिन वस्तुओं का उपयोग करती थी केवल वही उसके संसार का पता देती है. गोबरगौरी के संसार का मैं स्वयं को सबसे बड़ा और सबसे महत्त्वपूर्ण भाग समझता हूँ तब क्या उसके संसार के सूत्र मैं स्वयं में पा सकता हूँ जैसे पिताजी के संसार का सबसे बड़ा भाग माँ है किन्तु तब भी माँ के द्वारा मैं पिताजी के संसार का निर्माण नहीं कर सकता. उसी प्रकार स्वयं को गोबरगौरी के संसार का भाग समझकर भी गोबरगौरी के बिना उसके संसार में मेरा प्रवेश नहीं. इसी को मृत्यु के पश्चात् पराया हो जाना कहते है जैसे किसी दिन सहसा आपकी प्रेमिका घर का किवाड़ लगा ले और आपका वहाँ प्रवेश सदैव के लिए निषिद्ध हो जाए.
पिताजी के अंतिम संस्कार के विषय में मेरी स्मृति रिक्त है. केवल इतना याद है कि उनके अंतिम संस्कार के दिन जब मैं घर लौटा तब मेरे साथ रसोइया महाराज के अलावा कोई नहीं था. उसी ने माँ और मेरे लिए भोजन बनाया था. शाम को प्लेग अस्पताल से बुआ अचानक भागकर आ गई थी और माँ और बुआ देर तक लिपट लिपटकर रोते रहे, शायद वे पूरी रात रोते रहे थे. मैंने दोनों को दूर करने का भरसक यत्न किया मगर यह हो न सका, माँ को बुआ की बीमारी लगने का डर था. दूसरे दिन सूर्योदय होने के पश्चात् सबने देखा कि बुआ की नाक गैंग्रीन के कारण डॉक्टरों ने काट दी थी किन्तु बुआ जीवित बच गई थी.
उस दिन बहुत देर तक किसी ने चिमनी नहीं जलाई थी. बहुत अन्धकार हो गया था. पिताजी के देहांत को भी दो मास बीत चुके थे. अमावस्या के कारण आकाश में भी कोई उजाला नहीं था. मैं घर में फ़र्नीचर टटोलता घुसा और “माँ माँ” पुकारता घूमने लगा. माँ ने उत्तर नहीं दिया तब मैंने बुआ को पुकारा किन्तु पता नहीं कहाँ दोनों व्यस्त थी. घर के दो सदस्यों की मृत्यु के पश्चात् यों भी सायंकाल अशुभ लगता था उसपर आज दीयाबत्ती तक नहीं हुई थी. मैंने झुँझलाहट में अपनी टोपी फ़र्श पर फेंकी और बड़बड़ाने लगा, “कहाँ चले जाते है सब घर को खुला छोड़कर यों! न बुआ है न माँ है न यज्ञदत्त ही नहीं दिखाई दे रहा है”.
मैं खड़ा हुआ. सोचा पड़ौसी से पूछूँ कि उन्हें बताकर कहीं गए है क्या सब? ऐसे किवाड़ निचाट खुले छोड़कर तो कहीं जाएँगे नहीं. क्या पता किसी रिश्तेदार की प्लेग से या किसी और रोग से मृत्यु हो गई हो तब शायद जल्दी जल्दी में किवाड़ लगाना भूल जाए. सोचता मैं चला जा रहा था कि पैर का अँगूठा मेज़ से टकरा गया. चोट ऐसी लगी कि रीढ़ तक में रड़क दौड़ गई. मैं वहीं अँगूठा पकड़कर बैठ गया. आँख में आँसू आ गया. फिर वहीं अँधेरे में अँगूठा पकड़कर मैं देर तक बैठा गया. उस दिन हमारी इमारत में बहुत कोलाहल हो रहा था. दूर बच्चों की धींगामुश्ती की आवाज़ आ रही थी. इसी मेज़ के आसपास कुमुद और मैं भी बहुत हल्ला मचाते थे. कुमुद और नर्मदादत्त जी को बर्मा गए डेढ़ वर्ष हो गए थे.
“और डालूँ क्या दादी पानी और और और?” यज्ञदत्त की मोरी से आवाज़ आई. मैं जैसे तैसे एक पाँव घसीटता मोरी की तरफ़ चला. देखा बुआ और माँ घर की दोनों चिमनियों को पुर्जे पुर्जे खोलकर बैठी है और मोरी पर दीया जलाकर चिमनियों की सफ़ाई कर रही, यज्ञदत्त पानी ढारने का काम कर रहा है. बचपन से लेकर आजतक माँ को मैं यहीं बर्तन माँजते हुए देखता आया था. आज जीवन में प्रथम बार मैंने देखा वह मोरी कितनी सुंदर थी. ऊँची छत से लगकर दीवार पर कास्ट आयरन के बेलबूटें बने हुए थे और उसका एक भाग कैंची के आकार में मोरी के अंदर तक चला आया था जिसपर एक विशाल पक्षी बना हुआ था. वहाँ पर माँ ने टोकरा बाँधकर लहसुन लटका दिए थे.
फ़र्श पर लाल पत्थरों के त्रिभुज बने हुए और दीपक की हिलती हुई ज्योति में ऐसा लगता था जैसे फ़र्श डगमगा रहा है. माँ ने मुख उठाकर मुझे देखा. उनके केश पिछले बारह महीनों में पक गए थे. मस्तक पर झाँइयाँ पड़ गई थी किन्तु शोक में शरीर का यों हो जाना आश्चर्य का विषय तो नहीं. संगीत भी भंगुर होता है, पूर्ण होकर रुक जाता है. इस संसार में संगीत सदैव नहीं बजता. आगे आगे दीया लेकर यज्ञदत्त चल रहा था और चिमनी के कलपुर्ज़े लिए बुआ और माँ पीछे.
बैठक में बुआ और मैंने मिलकर चिमनी के पुर्जे सुखाकर चिमनियाँ पुनः बाँध दी. माँ चाय बनाने चली गई थी. यह चिमनियाँ पिताजी लाए थे. कालबादेवी बाज़ार में पारसी सेठ से पिताजी ने बहुत मोलभाव करके यह चिमनियाँ ख़रीदी थी. पारसी सेठ ने दाम एक दमड़ी भी घटाया नहीं था. पिताजी वही चिमनियाँ लेना चाहते थे क्योंकि उन्हें पता था कि वे मज़बूत है और वर्षों तक हमारे जीवन में उजाला करेंगी. उसके बाद कई दिनों तक चिमनी जलाना मेरे लिए कुतूहल और आनन्द का विषय रहता था. माँ गृहदेवता के आगे दीया जलाने के बाद दोनों चिमनी में से एक चिमनी जलाती थी. दोनों चिमनियों की एक दिन के बाद बारी आती थी ताकि चिमनी ज़्यादा दिनों तक चले. पिताजी के घर लौटने और भोजन कर चुकने के बाद चिमनी बुझा दी जाती थी.
पिताजी देर से घर आते थे. टिकट संख्या से रोकड़ का मिलान करने के बाद घर आते आते इन्हें देर हो जाती थी. मैं बैंक की नौकरी से साढ़े पाँच और ज़्यादा से ज़्यादा छह बजे तक फारिग हो जाता हूँ और घर पहुँच भोजन होने, थोड़ी बातचीत करके हम लोग अब साढ़े आठ बजे तो सो ही जाते है. अब मुझे याद भी नहीं आता कि उन दिनों माँ और मैं अकेले इतनी देर तक जागते हुए पिताजी की प्रतीक्षा कैसे करते थे. बुआ बातूनी है. उनके आने के बाद बखत कटाना उतना कठिन नहीं रहा. माँ अधिकतर मौन ही रहती थी. तब भी हम दोनों कभी ऊबते नहीं थे. ईश्वर भी अंतत: मनुष्य से हार ही जाता है. मृत्यु का वश भी स्मृति के आगे नहीं चलता. स्मृति धीरे-धीरे निर्बल भी पड़ जाए तब हमारे पूर्वजीवन की यह वस्तुएँ हमारे उसी जीवन की रचना करने के यत्न करती रहती है.
इन वस्तुओं की स्मृति अधिक उज्ज्वल है. जो मर चुके वे हमारी स्मृति में मृतक की भाँति ही जीवित रहते है किन्तु यह वस्तुएँ मृत्यु को नहीं जानती. इन चिमनियों को नहीं पता कि इन्हें इस घर में लानेवाला व्यक्ति अब इन्हें कभी प्रकाशित नहीं करेगा और न ही इनके प्रकाश में कभी उसका मुख यह प्रकाशित कर पाएँगी. यह अभी भी उसी संसार में है जिसमें यह लाई गई थी और तब तक रहेंगी जब तक कि यह घर में रहेंगी. यज्ञदत्त बिस्कुट की ज़िद करने लगा और बुआ को लेकर रसोई में बिस्कुट लेने चला गया.
मैंने दोनों चिमनियाँ जला दी और अपने कमरे में आ गया. वहाँ से मैंने उन दोनों जलती चिमनियों को देखा. वह ऐसे जल रही थी कि जैसे इस घर में कोई मृत्यु हुई ही न हो और किसी भी क्षण गोबरगौरी इन्हें उठाकर रसोई में अचार ढूँढने के लिए ले जाएगी या पिताजी भोजन करने के पश्चात् इन्हें फूँक मारकर बुझा देंगे. वे ऐसे जल रही थी जैसे जब पिताजी उन्हें ख़रीदकर लाए थे वे पहली बार जलाई गई थी. निकट पड़ी कुर्सी पर खिड़की पर बनी लोहे की पत्तियों की छाया पड़ रही थी. जिस संसार को मैं लिख लिखकर प्राप्त करना चाहता था उसका माँ ने इन चिमनियों को धो पोंछकर कितनी सरलता से पुनर्निर्माण कर दिया था.
भोजन मेज़ पर करना छोड़ दिया था. अब हम लोग फ़र्श पर ही भोजन करते थे. बुआ ने उस दिन विशेष रूप से बासुंदी बनाई थी. माँ ने मीठा त्याग दिया था तब भी बुआ किसी भी भाँति उन्हें मीठा खिलाने का प्रयास करती रहती थी. उस रात भी वे कटोरे में बासुन्दी निकालकर माँ के पीछे पड़ गई, “तू खाएगी तो तेरी जिह्वा से गंगाशंकर भी खा लेगा. गोवर्धन की मुँह को वस्तु लगेगी तो गोबरगौरी को न जाएगी भला! मेरी गंगोड़िया चल एक कौर खा ले पूड़ी के संग. देख आज नवेली चिमनियाँ कैसी जगमग कर रही है जग. किसी के जाने से यह जनों से भरा जग रुकता नहीं. चलता जाता है चलता जाता है” वाक्य के अंत तक स्वयं बुआ की आँखें भर आई थी. “यह चिमनी तो पिताजी के जमाने की है न” मैंने पूछा.
“लो, अभी उसकी छहमासी भी न हुई और उसका जमाना तेरा जमाना अलग हो गया” बुआ ने मुझे डपटते हुए कहा. “यह चिमनी मैं और पिताजी लाए थे कालबादेवी के पारसी सेठ की दुकान से” मैंने ज़ोर दिया. माँ ने आँसू पोंछे और बोली, “यह चिमनी तो तेरी बुआ लाई थी एक दिन. तेरे पिताजी वाली चिमनियाँ तो प्लेग की जाँच करने आए कोतवाल ले गए थे. कहते थे इसमें प्लेग के कीड़े है”. बुआ ने कटोरा माँ के मुँह को लगा दिया, “छोड़ो अब वह दुखी दिनों की कथा. बासुन्दी खाकर बताओ कैसी है! शक्कर की बोरी उलट थी बनाने में” बुआ ने अतिशयोक्ति की. “तब आप नई चिमनियाँ धो क्यों रही थी?” मेरा मन चिमनियों पर ही अटक गया था.
“यह काले मुँह की चिमनियाँ मेरी शक्कर, दूध और काजू-बादाम की बासुन्दी से ज़्यादा ज़रूरी हो गई. बस चिमनी चिमनी चिमनी. आग लगे इन चिमनियों. में” बुआ ने जलती चिमनियों को घूरते हुए कहा. “दीदी ने कहा चिमनी में प्लेग का कीड़ा हो सकता है इसलिए जलाने से पहले धोना पड़ेगा” माँ बोली और गटागट बासुन्दी पी गई. बुआ को सन्तोष हुआ.
मस्तिष्क की असंख्य कोशिकाओं पर यदि संसार की छाया न पड़े तो हमें यह संसार दिखाई नहीं पड़ेगा. हम सीधे संसार को कहाँ देखते है और जब देखते है हमारा मस्तिष्क इन सभी वस्तुओं पर अपने रंग भी भरता जाता है. इन चिमनियों ने थोड़ी देर पहले पिताजी के संसार का पुनर्निर्माण करके मुझे ऐसे समय में पहुँचा दिया था जब वे जीवित थे. इन चिमनियों से कभी पिताजी या गोबरगौरी की आँखों की पुतलियाँ प्रकाशित नहीं हुई. इन चिमनियों ने जलकर केवल यही तथ्य प्रकाशित किया था कि हम कितने असहाय और कितने अकेले थे. शोक हमारी मज्जा तक धँस चुका था. मैं तब भी मानता था कि मर चुके मनुष्यों को पुनर्जीवित किया जा सकता है. शव मनुष्य के जीवन की केवल एक अवस्था है, जो यह जानते है उनके परिजन कभी नहीं मर सकते भले उनकी अवस्थाएँ परिवर्तित होती जाए.
_________
अम्बर पांडेय की कई कहानियाँ मैने समलोचन पर पढ़ी हैं। उनकी कहानियों की ख़ास बात उनकी लय बद्ध और सरस भाषा होती है। इतिहास और दर्शन का भी उन्हें ज्ञान है। विषय वस्तु अक्सर उच्च कुल के किसी पुरुष के जीवन की कोई घटना होती है और वही कहानी का सूत्रधार भी होता है। कहानी हम उसी के नज़रिए से देखते हैं । स्त्री पात्र अक्सर माँ या पत्नी के रूप में ही आते हैं और ज़्यादातर कहानी के अंत तक मर चुकी होती हैं। कहानी में उनकी भूमिका भोजन बनाने, परोसने, पति को रति सुख देने, बच्चा पैदा करने के अलावा कुछ ख़ास नहीं है। ऐतिहासिक किरदार, जैसे गांधी, सावरकर अक्सर इन कहानियों में विचारते दिखते हैं। हालाँकि कहानी की विषय वस्तु से उनका कोई ख़ास लेना देना होता नहीं है। वे किसी अलंकार की तरह यहाँ -वहाँ झूलते दिखाई देते हैं। प्रश्न यह है कि यदि इन किरदारों को इन कहानियों से निकाल दिया जाए तो क्या कहानी मूल रूप से बदल जाएगी?
उनकी कहानियों में भाषा के अलावा मुझे कुछ ख़ास कभी नहीं मिलता। वे एक ही शैली में एक तरह की कहानियाँ लिखते हैं।
Vijaya Singh मुझे लगता है कि सावरकर और गांधी अलंकार नहीं काल की घड़ी के पेंडुलम की तरह झूलते हैं। यह झूलना दृश्य और परिदृश्य दोनों रचता है। मुझे लगता है जैसी कहानियाँ उसके भीतर से इन दिनों आस रहीं, यह शैली उसी के ताप से है।हर रचनाकार अपनी शैली के भीतर कथ्य के अनुसार एक नयी शैली विकसित करता है। यही उम्मीद अम्बर से भी है।
एक रूपरेखा बनाकर किसी तरह शेक्सपियर की रचनाओं को भी एक दायरे में समेट सकते हैं। साहित्य के इतिहास में ऐसा करते भी हैं। पर उसको मूल्यांकन का आधार नहीं बनाते। उदाहरण के लिए हम यह नहीं कहते कि शेक्सपियर के दुखांत नाटकों मे निम्नलिखित तत्त्व काॅमन हैं, इसलिए उनका विशेष मूल्य नहीं है। मूल्यांकन के लिए हम दूसरे मानदंड इस्तेमाल करते हैं।
तथ्यात्मक रूप से भी आपका सामान्यीकरण इतना सही नहीं है। गांधी जिन टुकड़ों में आये हैं वे एक आने वाले उपन्यास के अंश हैं। अभी हम कैसे कह सकते हैं कि गांधी कथा में यों ही आ गये हैं। सावरकर वाली कहानी को फिर पढ़कर देखिए। सावरकर का चरित्र केन्द्रीय है। उस पर मेरा एक छोटा नोट भी है। दोनों समालोचन पर मिल जायेंगे।
फिर भी मुझे मानना पड़ेगा कि अबूझ भाषा में तारीफ करने वालों/वालियों की तुलना में आपकी नजर साफ और तीखी है।
जबरदस्त। अगर ये किसी उपन्यास के अंश हैं तो मेरी इच्छा इस कृति को समग्रता में एक जगह पढ़ने की है। इस हिस्से में मृत्यु, शोक, शव, मृत्यु पश्चात संसार आदि पर बहुत अर्थगर्भी और अनुभूत बातें हैं। लेखकों की आयु उनकी शारीरिक उम्र से नहीं, उनके सोचे, जिए और लिखे की व्यापकता और गहनता से समझी जानी चाहिए। अम्बर को पढ़ कर और अम्बर से मिल कर बार बार विस्मित होना पड़ता है कि वास्तविकता में गल्पस्वरूप है कौन ? जिसे हम जानते हैं वह यह सब कब देख सुन जी आया, और जो हमसे ओझल रहा , क्या हम उसी से परिचय के मुग़ालते में रहते रहे ?
इसे बार बार पढ़ना होगा, हमेशा की तरह। कविता हो या कहानी, प्रचलित जल्दबाज़, इकहरे सरल पाठ की आदतों को अम्बर की रचनाएँ अक्सर ठेस पहुंचाती हैं।
फिर कहूँगा : इस कृति को एक साथ पढ़ने की ललक बढ़ गई है।
अम्बर की कहानी तो मुझे दूसरे लोक में ले गई जहाँ मैं अपने प्रियजनों से मिल, उनकी स्मृतियों के साथ रोती, कभी चुप लगा उन्हें सुनने का प्रयत्न करती रही… यह उपन्यास का अंश है, ऐसा लगा नहीं.. उपन्यास है तो इसने बुरी तरह बेचैन कर दिया है पहले के अधूरे उपन्यास माँमुनी की तरह…. इंतज़ार बहुत मुश्किल हो गया है… अम्बर अपना स्थान बना चुके हैं… माँ सरस्वती की कृपा बनी रहे🙏💕
सोने से पहले इस गद्य को पढ़ जाना सच में ख़तरनाक सिद्ध हो सकता है. अपने घनघोर और घटाटोप obsessions को खेलना-लिखना इस लेखक को हर बार नए सिरे से करना पड़ता होगा.. मुझे नहीं लगता अम्बर जोकि भाषा का अद्भुत धनी है उसे अपनी रची हुई ऐश्वर्यशाली दुनिया में एक पल की आश्वस्ति भी महसूस होती होगी. तलवार की धार पर हर वाक्य दम साधे स्वयं को शिल्पित करता है. कभी-कभी तो अम्बर के ध्वन्य्लोक में नाद के लावा बाकी हर तत्त्व धूमिल पड़ जाता है. इसलिए एक ही बैठक में कम से कम दो बार पढने को जी चाहता है.
मुझे अम्बर की दोएक कहानियों के लेकर जिस असहजता ने आ घेरा था यहाँ बिलकुल भी महसूस नहीं हुई. वहाँ भी दृष्टि-दोष मेरा स्वयं का हो सकता है. मुझे बहुत आनंद आया इस पाठ का अम्बर. आभार, कि तुम हो, और हिन्दी के उन दिनों में प्रकट हुए जब बीच-बीच में बेहद कमतरी का एहसास होने लगा था.
यह एक बड़े आख्यान का अंश है। पिछले अंश की तुलना में कथ्य अधिक palpable और quantifiable है।
भारत और यूरोप के इतिहास पर की गयी टिप्पणी ने क़ायल कर दिया। मृत्यु के प्रसंग और उसकी उत्तरकथा का काव्य विह्वल करता है। पूरे की प्रतीक्षा !
कहानी में लेखक अपने आत्मीय जनों की मृत्यु के बाद भी उनका जीवन और संसार में पुनर्निर्माण करना चाहता है। ये बड़ा ही रोचक है। सच है मृत्यु के बाद ही मृतक ही एक अदृश्य दुनिया हमारे साथ चलती रहती है। बस संवाद् नहीं होता।