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दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान मोहनदास करमचन्द गांधी ने रंगभेद का दंश भोगा. महसूस भी किया और पहचाना कि यह दंश, महारोग का एक लक्षण मात्र है. उसका सहज परिणाम. असल महारोग है- रंग-द्वेष.[1] इस महारोग की शिनाख्त के पश्चात गांधी ने मन ही मन सोचा कि मेरा कर्तव्य क्या है? मुझे यहाँ रहकर अपने हक और हुक़ूक़ के लिए संघर्ष करना चाहिए ? या अपने मुल्क लौट जाना चाहिए ? अथवा अपमान का दंश सहकर भी अपना काम (मुकद्दमा) खत्म करके, अपने देश वापस जाना चाहिए ? गांधी ने संघर्ष की राह चुनी. इस निर्णय के बाद, वे सार्वजनिक जीवन की तरफ कदम-दर-कदम बढ़ने लगे. लोगों से जुड़ते गए- संस्था बनायी. संगठन बनाया. ‘इंडियन ओपीनियन’ निकाला.[2] दोहरी चुनौती थी गांधी के सामने.
एक, रंगभेदी निजाम की नीतियों के खिलाफ संघर्ष. इससे संबद्ध एक और चुनौती भी थी. रंगभेद की मार्फ़त , जिन्हें विशेषाधिकार हासिल था, उनके नज़रिये से संघर्ष.
दो, दक्षिण अफ्रीका में रहनेवाले भारतीय जो रोज-ब-रोज रंगभेद का दंश झेलते हुए इसे वैध, सहज एवं स्वाभाविक मान चुके थे, उनकी मानसिक बुनावट से संघर्ष. इन्हें रंगभेद की अमानवीयता का अहसास कराना, यह समझाना, कि रंगभेद की मुखालफत में एकजुट होकर संघर्ष करना हमारा फर्ज है; कि इससे निजात पाया जा सकता है. संघर्ष के पक्ष में लोगों को बनाये रखने और संघर्ष को अपने नज़रिये के हिसाब से जारी रखने के साथ-साथ जिससे संघर्ष कर रहे थे, उसे अपना पक्ष समझाने के लिए गांधी को भाषण करने और लेख लिखने पड़ते थे. नतीजतन, दक्षिण अफ्रीका में हुए संघर्ष में, गांधी जी केन्द्रीय शख्सियत के रूप में उभरे. वकालत का पेशा छोड़ सार्वजनिक जीवन में गांधी ने जो कदम बढ़ाए, आगे बढ़ते ही गए.[3]
अपनी सोच को अमली रूप देने के लिए गांधीजी ने कई ‘प्रयोग’ किए. जो सोचा, अपने विचार जाहिर किए, उस मार्ग पर पहला कदम खुद बढ़ाया. अपने मूल दृष्टिकोण- सत्य और अहिंसा का पक्ष अनेक मौकों पर स्पष्ट किया. इसकी अहमियत पर अनेक दफ़े प्रकाश डाला. गांधीजी की लड़ाई जिनके पक्ष में थी, उनसे संघर्ष के रास्ते और मकसद की बाबत वाद-संवाद किया. उन्हें, संकीर्ण नहीं होने देने के लिए, बार-बार चेताया.
उनसे भी खुले और उदार दिल से संवाद किया, जिनके विरुद्ध लड़ रहे थे. उन्हें समझाने का भरपूर प्रयास किया कि वे एक नई सभ्यता की रचना के लिए संघर्ष कर रहे हैं; कोई उनका दुश्मन नहीं है.
अपने विचार को जाहिर करने के लिए गांधीजी ने ‘हिन्द स्वराज’ रचा.[4] इस किताब में हिन्दुस्तान की वास्तविक दशा बताई और अपने विचार की दिशा भी दिखाई. यह किताब, गांधीजी की चेतना व चिंतन की बुनियाद भी है और बुलन्दी भी.
भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान औपनिवेशिक दासता से जूझते हुए, जो वैचारिक सरणियाँ सामने आईं, उनमें गांधीजी कहाँ खड़े थे ? तत्कालीन नेताओं, बुद्धिधर्मियों, दार्शनिकों के बीच गांधीजी का रिश्ता किस वैचारिक जमीन से था ? समझने की सहूलियत के लिए, शिक्षा प्राप्ति के आधार पर अगर कोटि विभाजन करें तो पहली कोटि बनेगी उनकी, जिन्होंने अंग्रेजी शिक्षा- जिसे हम ‘आधुनिक शिक्षा’ के नाम से भी जानते हैं- पाई थी. दूसरी कोटि उन लोगों की, जो इससे वंचित थे. अलबत्ता इन दोनों कोटियों के अन्दर भिन्न-भिन्न वैचारिक सरणियाँ समाहित थीं. लिहाजा ये दोनों कोटियाँ भी निर्दोष और एक रेखीय नहीं हैं.
इन कोटियों के अन्दर मौजूद आवाज़ों की बहुलता और मुख्तलिफ प्रवृत्ति, दोनों कोटियों को, जटिलता प्रदान करती हैं. आशय यह कि अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों की कोटि के भीतर मौजूद बहुस्वर कभी एक-दूसरे को काटते हैं तो कभी एक-दूसरे में समाते भी दिखते हैं. यही हाल दूसरी कोटि-अंग्रेजी शिक्षा से वंचित का है, इसमें भी मौजूद विविध स्वर कभी एक-दूसरे से संगति करते हैं, तो कभी सामना.
इस सन्दर्भ में, गांधीजी की मिसाल सामने रखने पर, पता चलता है कि वे पहली कोटि में आते हैं. परन्तु अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त तत्कालीन बुद्धिधर्मियों, विचारकों, नेताओं, दार्शनिकों से निहायत अलहदा सोचते हैं. गांधीजी के शब्द और कर्म जो विचार-दर्शन प्रस्तावित व स्थापित करते हैं, वे इस कोटि के अन्य लोगों की सोच में नहीं समाते. लिहाजा, इस कोटि से संबद्ध होने के बावजूद गांधी इसका अतिक्रमण करते हैं.
‘हिन्द स्वराज’ की रचना के बाद से साफ होने लगा था कि गांधीजी की शख्सियत के प्रति अभिभूत सरीखा भाव रखने वाले, उनके वरिष्ठ और कनिष्ठ पीढ़ी के आधुनिक शिक्षा में दीक्षितों ने, इनकी अवधारणा की अहमियत को नहीं समझा था. गांधीजी के ‘राजनीतिक गुरु’ गोपालकृष्ण गोखले ने उम्मीद जाहिर की थी कि हिन्दुस्तान में कुछेक साल रहने के बाद, एम.के. गांधी खुद ही इसमें निहित धारणाओं को खारिज कर देंगे. गोखले जी की उम्मीद के विपरीत, गांधीजी का विश्वास ‘हिन्द स्वराज’ पर दृढ़तापूर्वक बरकरार रहा. गोखले की मानिंद दूसरे लोगों ने भी, गांधीजी की अवधारणाओं पर, इसी से मिलता-जुलता मत इजहार किया था. इन लोगों द्वारा प्रयुक्त शब्दों में भले ही हेर-फेर हो, परन्तु उसमें अभिव्यक्त आवाज़ की अर्थवत्ता समान-सी थी.[5]
सवाल उठता है कि गांधी के व्यक्तित्व को असाधारण मानवीय मौजूदगी माननेवाले क्यों नहीं समझ पा रहे थे, इनके शब्द और कर्म से अभिव्यक्त होते चिन्तन-दर्शन आशिस नंदी के अध्ययन से इसका जवाब मिलता है.[6]
नंदी ने बताया है कि भारतीय जमीन पर औपनिवेशिक असर की मुखालफत के, ऊपरी तौर पर सीधे और सरल प्रतीत होने वाले, तौर-तरीकों के अन्दरूनी पहलू पेचीदगियों से लबरेज था. उस दौर में, भारतीय समाज में मौजूद परंपरा प्रदत्त जड़ता और औपनिवेशिक जकड़बंदी से संघर्ष करना फिर भी आसान था; बनिस्बत उन औपनिवेशिक मूल्यों के जो, इस संघर्ष के दौरान ही अन्त:सलिला की तरह, हमारे भीतर अपनी पैठ बना रहे थे.
सिक्के का एक पहलू था भारतीय मानस का पारंपरिक जड़ताओं और औपनिवेशिक जकड़नों से, सकर्मक रूप से जूझना. और दूसरा पहलू था कि इस संघर्ष के साथ ही वह औपनिवेशिक मूल्यों को आत्मसात करता जा रहा था. भारतीय मानस में उपनिवेशवादी मूल्यों के पैठ बनाने और स्वीकृति पाने वाली प्रक्रिया से संघर्ष बेहद मुश्किल उपक्रम था.
उपनिवेशवादी मूल्य, आधुनिक शिक्षा, आधुनिकता और इससे उत्पन्न विभिन्न विचार इस दिशा में होने वाले हस्तक्षेप भी. गुरुदेव टैगोर भौतिक क्षेत्र और आध्यात्मिक क्षेत्र को एक-दूसरे से निहायत अलहदा रखना चाहते हैं. इसलिए यह प्रस्तावित करते हैं कि भौतिक मामले में हस्तक्षेप के बावजूद आध्यात्मिक क्षेत्र को स्वायत्त रखा जा सकता है और ऐसा भारत के लिए जरूरी है.
गांधीजी के मुताबिक आधुनिकता की समूची संकल्पना मानव-विरोधी है. गांधीजी भौतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र को एक-दूसरे से काटकर नहीं देखते. आधुनिकता की संकल्पना जिस मनुष्य का निर्माण करती है, उसमें स्वायत्त अध्यात्म के लिए जगह नहीं. ‘संपूर्ण मनुष्य’ की रचना के लिए भौतिक विकास के साथ ही आध्यात्मिक उन्नति भी आवश्यक है. सवाल यह है कि आधुनिकता जनित भौतिक विकास जिस भू-राजनीतिक- आर्थिक- सामाजिक वातावरण का निर्माण करता है, क्या उसमें स्वायत्त अध्यात्म के लिए जगह रहती है. कहना होगा कि उस वातावरण में अध्यात्म स्वायत्त नहीं रह सकता, जैसा कविगुरु गुरुदेव टैगोर मानते हैं.
भारतीय-स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान गांधीजी महज़ देश की आजादी के लिए प्राण-पण से नहीं जुड़े थे, अपितु इसके साथ ही अपने-आदर्श के अनुकूल लोगों का मानसिक बुनावट रचने का भी प्रयास कर रहे थे. गांधीजी प्रयासरत थे, एक ऐसे संपूर्ण मनुष्य की रचना में जो भौतिक और आध्यात्मिक रूप से विकसित हो. ऐसे मनुष्यों से ही एक नयी सभ्यता की संरचना निर्मित हो सकती थी. आध्यात्मिक रूप से श्रेष्ठ मनुष्य की रचना, गांधीजी के मुताबिक, आधुनिक-सभ्यता में मुमकिन नहीं. इसलिए गांधीजी ने आधुनिक सभ्यता के बरअक्स हर पहलू के बारे में सोचा और अपना चिन्तन इजहार किया. बड़े-बड़े कल-कारखानों के समानान्तर छोटे-छोटे उद्योग-धन्धे और नगर केन्द्रित विकास के बजाय गाँव को केन्द्र में रखकर विकेन्द्रित विकास के ढाँचा का प्रस्ताव, इसी मकसद का परिणाम था.
गांधीजी ने अपने मत के पक्ष में वाद-विवाद-संवाद किया, शत्रुता नहीं की. भारतीय-स्वाधीनता संग्राम में गांधीजी ने जितने कदम उठाए, अपनी दार्शनिक अवधारणा को पूर्णता में पाने के प्रयोग सरीखे थे. इसीलिए गांधीजी, जहाँ जरूरी लगा, अपना मत-परिवर्तन करने से घबराए नहीं. उनका चिन्तन एक जगह ठहरा हुआ नहीं, कदम-दर-कदम बढ़ता गया है; इस शर्त पर कि उनके आदर्शों पर आधारित नई मानवीय सभ्यता की रचना हो सके.
गांधीजी की अगुआई में भारतीय-स्वाधीनता आन्दोलन की प्रकृति और संस्कृति बदली. गांधीजी ने आजादी की लड़ाई से लोगों को जोड़ा. आन्दोलन का नेतृत्व भी लोगों से जुड़ा. अपने चिन्तन-दर्शन को वैचारिक और संगठनात्मक स्तर पर लागू करने के लिए, स्वराज प्राप्ति के लिए, गांधीजी ने गाँव को केन्द्रीय इकाई बनाया.
गांधीजी के शब्द और कर्म में ‘स्वराज’ का खास स्थान है. राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान गांधीजी स्वतन्त्रता के बजाय स्वराज प्राप्ति की बात करते थे. ‘स्वतन्त्रता’ शब्द के स्थान ‘स्वराज’ शब्द-प्रयोग सिर्फ शब्द चयन का मामला नहीं था. ‘स्वराज’ में निहित है, गांधीजी की चेतना, चिन्ता, चिन्तन और ख्वाहिश का निचोड़. यह गांधीजी का वैचारिक-दार्शनिक प्रत्यय है. गांधीजी ने कई मौकों पर ‘स्वराज’ को व्याख्यायित और परिभाषित किया है. अपने बीज-ग्रन्थ ‘हिन्द स्वराज’ के चौथे अध्याय- ‘स्वराज क्या है’- के आखिर में, गांधीजी (संपादक) कहते हैं-
“स्वराज को समझना आपको जितना आसान लगता है, उतना ही मुझे मुश्किल लगता है. इसलिए फिलहाल मैं आपको इतना ही समझाने की कोशिश करूँगा कि जिसे आप स्वराज कहते हैं, वह सचमुच स्वराज नहीं है.”[7]
‘हिन्द स्वराज’ की भूमिका में, इस किताब के बारे में बताते हुए, गांधीजी ने लिखा है कि
“मैं पाठकों को एक चेतावनी देना चाहता हूँ. वे ऐसा न मान लें कि इस किताब में जिस स्वराज की तस्वीर मैंने खड़ी की है, वैसा स्वराज कायम करने के लिए आज मेरी कोशिशें चल रही हैं. मैं जानता हूँ कि अभी हिन्दुस्तान उसके लिए तैयार नहीं है. ऐसा कहने में शायद ढिठाई का भास हो, लेकिन मुझे तो पक्का विश्वास है कि इसमें जिस स्वराज की तस्वीरें मैंने खींची है, वैसा स्वराज पाने की मेरी निजी कोशिश जरूर चल रही है.”[8]
‘हिन्द स्वराज’ में ‘पाठक’ का पक्ष सुनकर, गांधीजी (संपादक) ने कहा,
“इसका अर्थ यह हुआ कि हमें अँग्रेजी राज्य तो चाहिए, पर अँग्रेज (शासक) नहीं चाहिए. आप बाघ का स्वभाव तो चाहते हैं, लेकिन बाघ नहीं चाहते. मतलब यह हुआ कि आप हिन्दुस्तान को अँग्रेज बनाना चाहते हैं और हिन्दुस्तान जब अँग्रेज बन जाएगा तब वह हिन्दुस्तान नहीं कहा जाएगा, लेकिन सच्चा इंग्लिस्तान कहा जाएगा. यह मेरी कल्पना का स्वराज नहीं है.”[9]
‘स्वराज’ के सन्दर्भ में गांधीजी ने उपरोक्त तीन उद्धरणों में जो विचार प्रस्तुत किए हैं, उनके आधार पर, गांधी की स्वराज सबन्धी कल्पना के बारे में अन्दाजा लगाया जा सकता है. दो उद्धरणों में, इन्होंने साफ किया है कि ‘पाठक’ जिसे स्वराज समझते हैं, वास्तव में वह स्वराज है ही नहीं! गांधीजी तो यहाँ तक कहते हैं कि वे निजी स्तर पर जिस स्वराज को पाने की कोशिश कर रहे हैं, उसके लिए फिलहाल हिन्दुस्तान तैयार ही नहीं!
इस संदर्भ में, ‘यंग इंडिया’ में छपा गांधीजी का एक लेख काबिलेगौर है – स्वतंत्रता बनाम स्वराज. स्वराज के मायने समझाते हुए गांधीजी लिखते हैं,
“मेरा यह भी दावा है कि स्वराज के ध्येय से सबको सर्वदा पूरा संतोष मिल सकता है. हम अंग्रेजी पढ़े-लिखे हिंदुस्तानी अनजाने में यह मान लेने की भयंकर भूल अक्सर किया करते हैं कि अंग्रेजी बोलनेवाले मुट्ठी भर आदमी ही समूचा हिन्दुस्तान हैं.”[10]
आगे गांधीजी कहते हैं कि
“मैं हर किसी-को चुनौती देता हूँ कि ‘इंडिपेंडेंस – के लिए, वे एक ऐसा सर्व सामान्य भारतीय शब्द बतलाएँ, जो जनता भी समझती हो.”
आखिर हमें अपने ध्येय के लिए कोई ऐसा स्वदेशी शब्द तो चाहिए, जिसे तीस करोड़ लोग समझते हों.” गांधीजी को ऐसा शब्द दिखता है- स्वराज.
बकौल गांधीजी, स्वराज शब्द का
“राष्ट्र के नाम पर पहले-पहल प्रयोग श्री दादाभाई नौरोजी ने किया था. यह शब्द स्वतन्त्रता से काफी कुछ अधिक का द्योतक है. यह एक जीवंत शब्द है. हजारों भारतीयों के आत्म-त्याग से यह शब्द पवित्र बन गया है.”[11]
गांधीजी जिस तरह की आजादी चाहते थे, उसे व्यक्त करने के लिहाज से ‘स्वतन्त्रता’ शब्द तंग था. गांधीजी की कल्पना के अर्थवृत्त का इज़हार करने में यह शब्द अपर्याप्त था.
गांधीजी अँग्रेजी हुकूमत से महज़ राजनीतिक आजादी नहीं चाहते थे. उन्हें यह गवारा नहीं कि शासन की पद्धति, सोचने का तरीका और सारा ढाँचा तो बरकरार रहे, और फर्क आए तो सिर्फ शासन करने वालों में. राजनीतिक स्वाधीनता हासिल कर, अँग्रेजों की गद्दी पर हिन्दुस्तानी बैठ जाएं और उसी हिसाब से शासन सँभालें, जैसा अँग्रेज करते थे, इसे ‘स्वराज’ नहीं कहा जा सकता. गांधीजी को बखूबी अहसास था कि अँग्रेजी शासन के दौरान अँग्रेजीयत रच-बस गई है, भारतीय मन-मस्तिष्क में. अँग्रेजी शासक के खिलाफ लड़ने वाले लोगों में अँग्रेजीयत के प्रति गहरा मोह था. अँग्रेजीयत ने भारतीय दिल-दिमाग में गहरी पैठ बना ली थी. इससे संघर्ष बेहद कठिन था. राजनीतिक आजादी प्राप्ति के बावजूद औपनिवेशिक शासन के दौरान, पल्लवित-पुष्पित हुए वैचारिक धरातल को, चुनौती नहीं दी जा रही है, बल्कि इसे कायम रखना जरूरी समझा जा रहा है; गांधीजी यह देख-समझ रहे थे.
यह विडंबना गांधीजी के लिए तकलीफदेह थी, जिसमें आजादी हासिल कर भी हिन्दुस्तान को हारना था. कहना होगा कि उपनिवेशवाद के दोनों हाथ में लड्डू थे. जब तक हिन्दुस्तान ग़ुलाम रहेगा, अँग्रेजी शासन के रूप में उपनिवेश की जीत थी. परन्तु स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् उपनिवेश का खात्मा होने पर भी उपनिवेशवाद की हार नहीं होनी थी. ऊपरी तौर पर दिखने वाली हार में भी उसकी भावी जीत निहित थी. भारतीय जनमानस में रच-बस गया था – अँग्रेजी शासन का ढाँचा, सोचने-समझने का तरीका, कायदे-कानून, रंग-गंध, रुचि और सांस्कृतिक संरचना. यानी उपनिवेश हारकर भी जीत रहा था और हिंदुस्तान जीतकर भी हार. ऐसे हालात में हिन्दुस्तान का इंग्लिस्तान बनना निश्चित था. यही हिन्दुस्तान की सच्ची हार थी.
गांधीजी की ख्वाहिश थी, राजनीतिक आजादी पाने के साथ-साथ हिन्दुस्तान की इस हार पर जीत हासिल करना. कारण कि इस हार से निजात पाने के बाद ही शब्द के सच्चे अर्थ में औपनिवेशिक प्रभुत्व समाप्त होता, उसका असर खत्म होता. तभी मुमकिन होता गांधीजी का स्वराज. अलबत्ता गांधीजी समझ रहे थे कि हिन्दुस्तान की जनता स्वाधीनता-आन्दोलन के जरिए जिस मकसद के लिए संघर्ष कर रही है, उनके स्वराज की कल्पना उससे कई कदम आगे है. हिन्दुस्तानी जनता की मानसिक तैयारी उतने कदम आगे बढ़ाने के लिए, नहीं दिख रही थी; ‘हिन्द स्वराज’ के रचना काल के एक दशक बाद तक तो बिलकुल नहीं! इसीलिए वे अपने सपने का स्वराज पाने के लिए निजी कोशिश कर रहे थे, और हिन्दुस्तानी जनता की इच्छानुसार ‘पार्लियामेंट्री ढंग का स्वराज'[12] पाने के लिए सामूहिक प्रयास.
स्वराज प्राप्ति के लिए- गांधीजी के मुताबिक तो हर काम के लिए- सत्य और अहिंसा की राह पर चलना अपरिहार्य है. कुछेक प्रसंगों में, इन्होंने यह परखने का प्रयास किया है कि सत्य और अहिंसा कितना कारगर है ? नतीजे के तौर पर, गांधीजी ने पाया है कि यह मार्ग सर्वाधिक कारगर है. गांधीजी ने अपने साथियों की परीक्षा भी ली है – सत्य और अहिंसा की कसौटी पर – कि वे कितने खरे साबित होते हैं. दूसरे शब्दों में, अपने समक्ष आए अलग-अलग चुनौतियों के दौरान, गांधीजी ने सत्य और अहिंसा की परीक्षा ली है और इसकी श्रेष्ठता की तसदीक भी की है. साथ ही, खुद को व अपने साथियों-कार्यकर्त्ताओं को जाँचा है कि वे सत्य और अहिंसा की राह पर कब तक और कितनी दूर तलक, जा पाते हैं.
स्वराज पाने के लिए, सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए, ‘पुरुषार्थ’ आवश्यक है. गांधी-विचार-दर्शन में ‘पुरुषार्थ’ पुरुष सत्तात्मक पद नहीं है. यह पितृसत्ता का पोषक प्रत्यय भी नहीं है. गांधीजी इस शब्द का प्रयोग करते थे – बहादुरी के अर्थ में. बड़ा काम के मायने में. बगैर पुरुषार्थ के स्वराज संभव नहीं. पुरुषार्थ के साथ-साथ, गांधीजी त्याग पर भी जोर देते थे. गांधी दर्शन, उन की चेतना व चिंतन में, त्यागवृत्ति का खास स्थान है. गांधीजी प्रस्तावित करते हैं कि त्याग भी अपने आपमें पुरुषार्थ है; बशर्ते त्याग समाज के लिए हो.
सचाई और अहिंसा के रास्ते पर, बगैर पुरुषार्थ और त्याग-भावना के, चलना मुश्किल है. सत्य, अहिंसा, पुरुषार्थ और त्याग को मिलाने से हासिल होगा – स्वराज. इन चारों के समुच्चय से प्राप्त होगा – स्वराज.
स्वदेश वापसी के साथ ही गांधीजी ने देश-भ्रमण करना शुरू कर दिया था. अब वे किसी पहचान के मोहताज नहीं थे. उनकी सार्वजनिक शख्सियत बन चुकी थी. जहाँ जाते, लोगों से मिलते. आजादी के लिए चल रही गतिविधियों की जानकारी प्राप्त करते. लोग भी उनकी बातें दिलचस्पी के साथ सुनते. गांधीजी की बातों में लोगों को निर्दोष ईमानदारी महसूस होती थी.
गांधीजी के सार्वजनिक जीवन में, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में 1916 में किया गया भाषण बेहद अहम है.[13] इस भाषण में, गांधीजी के विचार अपने तेज के साथ अभिव्यक्त हुए थे. जिन मुद्दों को इन्होंने उठाया, श्रोताओं के दिल छुए थे. मातृभाषा में शिक्षा का सवाल उठाते हुए गांधी ने समझाने का प्रयास किया कि किसी भी भाषा में महान विचार अभिव्यक्त हो सकते हैं. श्रेष्ठ, तार्किक या वैज्ञानिक विचारों की अभिव्यक्ति के लिहाज से किसी भी भाषा को कमतर मानने-समझने वाली मानसिकता का इन्होंने खंडन किया. मातृभाषा की महत्ता, माध्यम के तौर पर भाषाओं को एक समान समझने की सिफारिश करते हुए, गांधीजी ने राष्ट्रभाषा का प्रश्न भी उठाया था. तत्कालीन शिक्षा की भाषा, शिक्षितों और देश के अवाम के बीच दूरी पैदा कर रही थी. पढ़े-लिखे लोग अपने ही देश में विदेशियों की तरह अजनबी होते जा रहे थे. यह प्रवृत्ति राजनीतिक और सांस्कृतिक तौर पर घातक थी; स्वराज के मार्ग में बाधक भी.
स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय संगठनों के प्रस्ताव पारित करने, हिन्दी, इंग्लिश और उर्दू में काग़ज़ी के अर्थ काग़ज़ी कार्रवाई करने मात्र से स्वराज हासिल नहीं होगा, इस पर जोर देते हुए गांधीजी ने आचरण पर बल दिया और ठोस कार्यक्रमों के निर्धारण तथा अमल को अत्यावश्यक बताया. स्वराज और इसे पाने के लिए चल रहे आन्दोलन, अपनी संरचना में महाआख्यान थे; लिहाजा छोटी और मामूली समझी जानेवाली बातों की उपेक्षा हो जाती थी, इसकी विराटता में. गांधीजी ने इन प्रश्नों को स्वराज प्राप्ति से जोड़ा. मसलन, गंदगी का प्रश्न. बनारस स्थित विश्वनाथ मन्दिर के आसपास की गलियों में गंदगी हो, रेल के डब्बों या किसी भी सार्वजनिक स्थान की गंदगी हो; गांधीजी के मुताबिक ये सभी मामले भारतवासियों की मानसिकता और आचरण उजागर करते थे. इनका रिश्ता स्वराज आन्दोलन से बिलकुल जुदा नहीं था. गंदगी का प्रश्न उठाकर, गांधीजी ने सफाई को स्वराज प्राप्ति का हथियार बनाया. दरअसल, वे गंदगी फैलानेवाले को श्रेष्ठ और उसे साफ करने वाले को हेय समझने वाले दिलोदिमाग को बदलने का प्रयास कर रहे थे. जो गंदगी फैलाता है, साफ करने की जिम्मेवारी भी उसी की है; न कि किसी और तबके की. ये विचार भारतीय सामाजिक संरचना में सफाई को लेकर, व्याप्त भेदभावमूलक मानसिकता से, जद्दोजहद की जरूरत के अहसास से पनपे थे.
बनारस के भाषण में, गांधीजी ने विलासमय जीवन जीनेवाले लोगों द्वारा की जानेवाली गरीबी की चर्चा की सीमाओं का उल्लेख किया. कहने वाले की बात का असर तब तक सामने वाले पर नहीं पड़ता, जब तक कि खुद आचरण में उसे नहीं उतारे. जिनके शरीर खुद जेवरात से लदे हों, उनके द्वारा गरीबी की चर्चा, गरीबी और गरीबों का क्रूर मजाक के सिवा क्या है ! ऐसी चर्चा बौद्धिक विलास के अलावा कुछ नहीं! शब्द और कर्म की एकरूपता में यकीन रखने वाले गांधीजी को यह हरगिज स्वीकार नहीं हो सकता था.
गांधीजी की अगुआई से पहले, भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में आम अवाम की भागीदारी न के बराबर थी. आजादी की लड़ाई में मलाईदार तबके ही सक्रिय थे. यह स्वाधीनता-आन्दोलन की एक बड़ी सीमा थी. गांधीजी ने साफ-साफ शब्दों में कहा कि जिस देश के पचहत्तर प्रतिशत से भी अधिक लोग किसान हैं, उनकी भागीदारी के बगैर आजादी मुमकिन नहीं! वकील, डॉक्टर और सम्पन्न पेशे वाले जमींदार ही जब तक स्वाधीनता-आन्दोलन से जुड़े रहेंगे, आजादी दूर ही रहेगी. गांधीजी ने तो यहाँ तक कहा कि यदि हम किसानों के परिश्रम की सारी कमाई दूसरों को उठाकर ले जाने दें तो कैसे कहा जा सकता है कि स्वराज की कोई भी भावना हमारे मन में है. यह इजहार कर गांधीजी, एक तरफ, स्वाधीनता-आन्दोलन के पाट को विस्तृत और व्यापक करने को जरूरी बता रहे थे; 1920 में काँग्रेस के नागपुर अधिवेशन की चवन्नी सदस्यता का बीज-विचार यहाँ दिखता है. दूसरी तरफ, किसानों के प्रश्न को स्वराज-भावना के साथ जोड़कर, इसे स्वाधीनता-आन्दोलन का एक अहम सवाल बनाने की वकालत कर रहे थे.
गांधीजी हिंसा करके, अराजकता फैलाकर या किसी भी तरीके से षड्यंत्र का सहारा लेकर, स्वाधीनता हासिल करना नहीं चाहते. ऐसा करने वालों के स्वदेश प्रेम के प्रति आदर-भाव रखते हुए भी, वे इसे भीरूता, कायरपन का लक्षण मानते थे. गांधीजी सभी भारतवासियों को स्वावलम्बी आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाना चाहते थे और आध्यात्मिक रूप से श्रेष्ठ भी. उनकी आत्मा से औपनिवेशिक प्रभुत्व के असर भी समाप्त करना चाहते थे. हिंसा, अराजकता या षड्यंत्र के जरिए यह संभव नहीं था. गांधीजी ने कहा था कि
“कुछ एक बमों और कारतूसों की मदद से स्वराज प्राप्ति का प्रयत्न केवल पागलपन से भरा एक विचार है. इन साधनों से जो स्वराज प्राप्त किया जाएगा, वह देश के गरीब लोगों के लिए नहीं होगा.”
सवाल पूछा जा सकता है कि क्या बम और कारतूस से प्राप्त स्वराज देश के गरीबों के लिए भी होता तो क्या वे इसे स्वीकार लेते ? जवाब होगा — हरगिज नहीं! कारतूस या बम से गांधीजी को स्पष्ट दिक्कत थी. एक, यह गरीबों को मुक्ति नहीं दे सकता था. बगैर स्वावलंबी और आर्थिक रूप से सुदृढ़ हुए गरीब सच्चे मायने में आजाद नहीं हो पाते. दो, बम के जरिए जो स्वराज आता उसमें, हिंसा के लिए जगह निश्चित रूप से रहनी थी. शक्तिशाली लोगों के वर्चस्व- संभावना रहनी थी. गांधीजी जो कल्पना करते थे, जैसा समाज बनाना चाहते थे, उसमें हिंसा के लिए जगह नहीं थी. गांधीजी हिंसा, शोषण पर टिकी पूरी ‘शैतानी सभ्यता’ का विकल्प रचने की कोशिश कर रहे थे. इसलिए हिंसा की राह को खारिज करना स्वाभाविक था उन्होंने जोर देकर कहा, अँग्रेजों के रहते हुए भारत का उद्धार कदापि नहीं हो सकता; बावजूद इसके वे सत्य और अहिंसा की राह पर चलकर ही आजादी प्राप्त करना चाहते थे, भले ही अपेक्षाकृत देरी से. भाषण का समापन करते हुए उन्होंने कहा था, कि ब्रिटिश-साम्राज्य के इतिहास पर गौर करने से पता चलता है कि यह साम्राज्य चाहे जितना स्वातंत्र्य-प्रेमी हो (ब्रिटिश सत्ता इसका झूठा दावा करती थी), बावजूद इसके स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए स्वयं उद्योग न करने वालों को वह हरगिज स्वतन्त्रता देने वाला नहीं है. गांधीजी ने यह भी कहा कि हिन्दुस्तान को अँग्रेजों से मुक्ति, अपना स्वराज, दान के रूप में कदापि नहीं मिलनेवाला; यदि किसी दिन हमें स्वराज मिलेगा तो वह अपने पुरुषार्थ से मिलेगा.[14]
स्वाधीनता आन्दोलन का नेतृत्व करते हुए गांधीजी ने भारतीय जनता के पुरुषार्थ को जगाने का सफल प्रयास किया, आम अवाम को निर्भय बनाया. वे चाहते थे कि भारतवासी भयमुक्त होकर स्वाधीनता-आन्दोलन में शिरकत करें. अठारह सौ सत्तावन के बाद अँग्रेजी हुकूमत की बर्बरता को हिन्दुस्तानियों ने झेला था. लोगों के दिल व दिमाग पर इसका खौफ कायम था. गांधीजी यह खौफ मिटाना चाहते थे. चम्पारण सत्याग्रह में इसका सकारात्मक परिणाम सामने आया. ब्रिटिश हुकूमत के कारिन्दों की लाल पगड़ी देखकर काँपने वाले किसानों ने, गांधीजी के प्रभाव से निर्भीक होकर, सिपाहियों के सामने अपना बयान दर्ज कराया. किसान अपने मकसद में सफल भी हुए.15]

गांधीजी ने जब असहयोग आन्दोलन आरम्भ कर, भारतवासियों से काउंसिल, कोर्ट और कॉलेज का बहिष्कार करने की अपील की तो गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर, महामना मदनमोहन मालवीय जैसे अनेक महत्त्वपूर्ण लोगों ने इससे अपनी असहमति जाहिर की; खासकर विद्यार्थियों से स्कूल-कॉलेज छोड़ने की अपील पर. गांधी का मानना था कि अंग्रेजी शिक्षा को त्यागे बिना मुल्क की आजादी संभव नहीं. भारतीयों में मौजूद हीनता, पामरता और भ्रम अँग्रेजी शिक्षा का ही प्रताप है. अँग्रेजी शिक्षा ग़ुलाम मानसिकता निर्मित करती है. बकौल गांधीजी, यह कहना सरासर झूठ है कि हमें अँग्रेजी शिक्षा नहीं मिली होती तो हम इस वक्त कोई हलचल न करते होते. कहना होगा कि गांधीजी अँग्रेजी शिक्षा के सिर्फ दुष्प्रभाव को देख रहे थे; उसकी सकारात्मकता का कोई पहलू नहीं. सवाल पूछा जा सकता है कि गांधीजी खुद अँग्रेजी शिक्षा में दीक्षित थे; क्या उनके शख्सियत-निर्माण में, इसका कोई योगदान नहीं था ?
गांधीजी ने जीवन में कई ऐसे फैसले किए, जिससे तत्कालीन कई महत्त्वपूर्ण लोगों की (जिन्हें गांधीजी भी आदर करते थे) रजामंदी नहीं थी; परन्तु उनके प्रति बगैर किसी कटुता के, गांधीजी अपनी राह पर डटे रहे. असहयोग आंदोलन गांधीजी का ऐसा ही एक फैसला था. असहयोग आन्दोलन के दौर में ही राष्ट्रीय शिक्षा के लिए विद्यालयों-महाविद्यालयों की स्थापना की आवश्यकता महसूस की गई. परिणामस्वरूप, गुजरात विद्यापीठ, काशी विद्यापीठ, तिलक महाविद्यालय जैसे संस्थानों की स्थापना हुई.
गुजरात विद्यापीठ के उद्घाटन के अवसर पर गांधीजी ने शिक्षा सम्बन्धी अपना मत जाहिर किया. राष्ट्रीय शिक्षा के लिए इन्होंने पारंपरिक प्रतिमानों को खारिज कर, नया मेयार स्थापित करने की बात कही. अन्य महाविद्यालयों से अलग कसौटी बनाने और उस पर इन राष्ट्रीय महाविद्यालयों को जाँचने का प्रस्ताव रखा.[16] गांधीजी ने कहा कि इनके लिए नयी कसौटी होगी – चरित्र. चरित्र की कसौटी पर, जाँचने पर नये महाविद्यालय खरा साबित होंगे. यही इनकी सार्थकता और सफलता है. गांधी का मानना था कि अँग्रेजी राज में भारतीय आत्मा शुष्क हो गई है और देश निस्तेज तथा ज्ञानहीन. आलम यह है कि हमारी आत्मा भी अँग्रेजों के अधीन हो गई है, यह सबसे दुःखद बात है; सबसे बड़ी हार है. इस पराजय से मुक्ति में गांधीजी राष्ट्रीय विद्यालयों की प्रासंगिकता देखते थे और सार्थकता भी.
‘सा विद्या या विमुक्तये’ सूत्र गांधीजी को पसन्द आया था.[17] विद्या का मतलब और मकसद, जो इस सूत्र से जाहिर होता था, पसन्दगी का कारण था. जिससे मुक्ति मिले, वही विद्या है. मुक्ति भी दो तरह की. एक, ऐसी विद्या जो देश को पराधीनता से मुक्त करे. इसी में अंतर्निहित है, भारतीय आत्मा द्वारा स्वीकृत औपनिवेशिक वर्चस्व से मुक्ति. असहयोग-आन्दोलन के अलावा भी कुछेक अवसर ऐसे आए, जब गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर और चिंतक आनन्द कुमारस्वामी जैसी महान शख्सियतें गांधीजी से असहमत थीं. आपसी रिश्ते में कोई कड़वाहट पैदा नहीं हुई. मित्रता का माधुर्य कायम रहा. ऐसे सन्दर्भों के बारे में, यह उल्लेखनीय है कि गांधीजी हर प्रसंग को राष्ट्रीय आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में आँकते थे. उपयोगितावादी नज़रिये का ही परिणाम था, कभी-कभार कला और साहित्य के खिलाफ रायशुमारी. गांधीजी की ऐसी मान्यताओं से इत्तेफाक रखना संभव नहीं. दो, ऐसी विद्या जो सदा के लिए मुक्ति प्रदान करें. यानी, मोक्ष जिसे परम-धर्म भी कहते हैं. इसे पाने के लिए सांसारिक मुक्ति अनिवार्य है. भय में रहने वाला मनुष्य मोक्ष नहीं पा सकता. इसीलिए गांधीजी ऐसी विद्या को त्याज्य मानते थे, जिससे मुक्ति नहीं मिले. गांधीजी के मुताबिक ऐसी विद्या धर्म-विरुद्ध भी है.
गांधी-मार्ग पर चलना, व्रत पालन करना सरीखा है. इसके लिए आत्मा शुद्ध और मनोबल मजबूत होना चाहिए. गांधी ने सत्याग्रहियों और असहयोग करने वालों के लिए कुछ शर्तें बताई थीं.[18]
असहयोग आन्दोलन के दौर में उन्होंने कहा था कि जिन्हें ये शर्तें स्वीकार हों, वहीं इस आन्दोलन में हिस्सा लें. शान्ति को अपने हृदय में लिखकर रखें. न शान्ति भंग करें, न किसी को गाली दें, न गुस्सा करें, न किसी को तमाचा मारें और न शर्म-शर्म की आवाज़ लगाएँ. अगर किसी ने इसका पालन करने में भूल की हो तो उसे अपनी भूल स्वीकार कर, पश्चाताप करना चाहिए. भूल स्वीकारने, पश्चाताप करने और इससे सीख लेने वाले को गांधीजी सच्चा बहादुर मानते थे.
गांधी के ‘स्वराज’ की राह में बाधा ‘शैतानी सभ्यता’ के प्रति मोहभाव रखनेवाले थे. इससे भी बड़ी बाधा पेश कर रहे थे – प्राचीन संस्कृति के नाम पर समाज में अस्पृश्यता और देवदासी जैसी घिनौनी प्रथा के समर्थक. साथ ही, मंदिर में पूजा और मस्जिद में इबादत करने वालों के बीच दुश्मनी मानने-फैलाने वाले. गांधी इन दोनों तरह के लोगों के कृत्य को धर्म विरोधी मानते थे ऐसे लोगों के खतरनाक रवैये के प्रति सचेत रहने के लिए प्रेरित करते थे. प्राचीन संस्कृति के पुनरुद्धार के एक प्रसंग में इन्होंने कहा था कि आप प्राचीन संस्कृति के उन सभी तत्वों का उपादानों का ही तो पुनरुद्धार करना चाहेंगे, जो उच्चादर्शपूर्ण हैं और जिनका स्थायी महत्त्व है. आप किसी भी ऐसे उपादान का पुनरुद्धार तो कर ही नहीं सकते, जो इनमें से किसी भी धर्म के विरुद्ध पड़ता हो.[19]
यह थी गांधी के संघर्ष की जमीन. इसी जमीन पर स्वराज का बीज अंकुरित हो सकता था, पल्लवित और पुष्पित भी हो सकता है.
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संदर्भ-संकेत एवं टिप्पणियाँ
[1] दक्षिण अफ्रीका के हालात के लिए देखें : सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा: मो.क. गांधी (काशिनाथ त्रिवेदी) नवजीवन प्रकाशन, अहमदाबाद, दिसम्बर 2019, पृ. 146-253
[2] वही, पृ. 284-287
[3] दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास-गांधीजी (अनुवादक सोमेश्वर पुरोहित) नवजीवन ट्रस्ट अहमदाबाद, संस्करण-नवम्बर 2019
[4] इस पुस्तक की रचना गांधीजी ने 13 से 22 नवम्बर 1909 को इंग्लैंड से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए, किलडोनन कैसल जहाज पर, की. मूलतः गुजराती में लिखी गई इस पुस्तक के आरंभिक बारह अध्याय ‘इंडियन ओपीनियन’ के 11 दिसम्बर 1909 के अंक में छपे और शेष सभी अध्याय 18 दिसम्बर 1909 वाले अंक में. पुस्तक के तौर पर इसका पहला संस्करण, गुजराती भाषा में, इंटरनेशनल प्रिंटिंग प्रेस, फिनीक्स, दक्षिण अफ्रीका से जनवरी 1910 में छपा. 24 मार्च 1910 को मुंबई सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगाया.
हिन्द स्वराज, नवजीवन ट्रस्ट, अहमदाबाद, संस्करण अक्टूबर 2019
[5] जवाहरलाल नेहरू सरीखे नेता भी ‘हिन्द स्वराज’ के विचारों से इत्तेफाक नहीं रखते थे. 5 अक्टूबर 1945 को गांधीजी ने नेहरूजी को एक पत्र लिखा था. गांधीजी की, ‘हिन्द स्वराज’ के प्रति, प्रतिवद्धता वाला यह पत्र महत्त्वपूर्ण है. देखें- ‘सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय’, खण्ड-इक्यासी प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, अक्टूबर 1990, पृ. 344-346; इस पत्र का जवाब नेहरूजी ने 9 अक्टूबर 1945 को भेजा. इसमें नेहरूजी ने ‘हिंद स्वराज’ के विचारों से असहमति जाहिर की. देखें: ‘गांधी : एक असम्भव सम्भावना’- सुधीर चन्द्र, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला संस्करण 2011, पृ. 27-28
[6] ‘राष्ट्रवाद बनाम देशभक्ति’ – आशिस नंदी, (अनुवाद-अभय कुमार दुबे) वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, आवृत्ति संस्करण 2015, इस पुस्तक के अनुवादक ने ‘अनुवाद और नंदी की पेचीदगियों के बारे में’ शीर्षक से भूमिका लिखी है. यह विश्लेपण इस भूमिका में शामिल है.
[7] हिन्द स्वराज- मोहनदास कमरमचंद गांधी, नवजीवन ट्रस्ट अहमदाबाद, अक्टूबर 2019, पृ. 36
[8] वही, पृ. 18
[9] वही, पृ. 36
[10] यह आलेख 12 जनवरी 1928 के यंग इंडिया में छपा था. देखें-सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय, खण्ड-35, संस्करण अप्रैल 1970, पृ. 472-475 (गांधीजी के लेखन में कहीं ‘स्वराज्य’ शब्द प्रयुक्त हुआ है तो कहीं ‘स्वराज’.)
[11] वही, पृ. 473
[12] हिन्द स्वराज, पृ. 18
[13]. सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय, खंड-13, संस्करण मार्च 1965, पृ. 212-218
[14] वही, पृ. 218
[15] सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा, पृ. 406 -427 चम्पारण की कथा विस्तार से जानने के लिए देखिए: सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय, खण्ड 13 एवं 14; ‘चम्पारण में महात्मा गांधी ‘-राजेन्द्र प्रसाद, आत्माराम एंड संस, दिल्ली, संस्करण 1955 (इस पुस्तक का पहला संस्करण1922 ई. में छपा था.)
[16]. सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय, खण्ड-18, संस्करण जुलाई 1966, पृ. 484-489; 15 नवम्बर 1920 को अहमदाबाद स्थित गुजरात महाविद्यालय के उद्घाटन के अवसर पर गांधीजी का भाषण हुआ था. यह महाविद्यालय गुजरात विद्यापीठ का अपना कॉलेज था. गुजरात विद्यापीठ की स्थापना, राष्ट्रीय शिक्षा के प्रसार के लिए, राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के तौर पर हुई थी. यह विद्यापीठ ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण से मुक्त था.
[17] सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय, खण्ड-18, संस्करण 1966, पृ. 489-494
[18] वही, पृ. 247-248 (गांधीजी ने 5 सितम्बर 1920 को असहयोग का प्रस्ताव पेश किया था. इसके पहले और पश्चात भी गांधीजी ने अपने सभी आंदोलनों के दौरान सत्याग्रहियों के लिए नियम-कायदे तय किए थे.)
[19] सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय, खण्ड-35, संस्करण अप्रैल 1970, पृ. 338-342 (श्री लंका के जफना में, छात्र-छात्राओं की सभा में, यह भापण हुआ था.)
राजीव रंजन गिरि![]() ‘अथ-साहित्य: पाठ और प्रसंग’, ‘संविधान सभा और भाषा-विमर्श’, ‘लघु पत्रिका आन्दोलन’, ‘सामन्ती ज़माने में भक्ति आन्दोलन’; ‘1857 : विरासत से जिरह’, ‘प्रेमचन्द : सम्पूर्ण बाल साहित्य’, ‘गांधीवाद रहे न रहे एवं पुरुषार्थ’, ‘त्याग और स्वराज’ आदि पुस्तकें प्रकाशित. सम्पर्क: |
सुचिंतित, सुलिखित, सुपाठ्य आलेख।
राजीव रंजन गिरि को साधुवाद।
‘स्वराज’ की भ्रष्ट की जा रही समझ के विरुद्ध और तेजी से काम करने की ज़रूरत है।
महात्मा गांधी सिर्फ व्यक्ति नहीं विचार है हमारे लिए और वो विचार आज भी प्रासंगिक हैं। सत्य, अहिंसा, आत्मनिर्भरता, सादगी और समानता पर आधारित उनका दर्शन न केवल समाज सुधार का मार्ग दिखाता है, बल्कि संपूर्ण विश्व के लिए एक उज्ज्वल उदाहरण प्रस्तुत करता है।
इस सारगर्भित आलेख के लिए धन्यवाद सर 🙏
सर द्वारा गांधी के जीवन के हर पहलू को अच्छे ढंग से बयां किया गया है जिसमें लगभग सभी सवालों के उत्तर पा सकते हैं। यह समालोचन “शब्दों और उनके मायनों” से हेराफेरी करने वालों से बचाने का काम करेगा🙏
गांधी जी के सर्वव्यापी विचार युगों- युगों तक रहेंगे बस फ़र्क इतना रहेगा कि इसे जीवित कौन- कौन रख पाएगा और कहां तक। क्योंकि समय के साथ सारी परिभाषा भी बदल रही है जैसे अमीर – (अ+ मर )जो ऐसों आरामों से झूझ रहा है या मरा जा रहा है वहीं गरीब – (ग+ रब) सामान्य स्वाभिमान, गर्भ से जीना चाह रहा है जिस पर ईश्वर की कृपा बनती है अब यह तय करना मानव के ऊपर है कि वह क्या अपनाना चाहता है खैर समस्या यह है कि सब अपने को श्रेष्ठ समझने के कारण सही -ग़लत का फर्क भूलते चले जा रहा है और अपने अनुसार दूसरों पर थोपा -थापी किए जा रहे है जिसे सारी पीढ़ियां भुगत रही है और तो ओर ज्यातर वर्तमान समय में role model ही ग़लत है😌 तो सही सीखने की प्रवृति कमतर लगती है चलो फिर भी प्रयास करते रहने में बुराई नहीं है।😊
अथक परिश्रम से लिखे इस शोध पत्र के लिए लेखक को साधुवाद.
गाँधी जी द्वारा प्रस्तावित ‘स्वराज’ भले ही अनेक आधुनिकतावादियों को व्यावहारिक न लगता हो, पर आचार व्यवहार एवं शिक्षा से लेकर अर्थनीति तक को अधिक से अधिक मानवीय बनाने का वही सही रास्ता है.
सारगर्भित और विचार समृद्ध आलेख है. बहुत बधाई!
गांधी जी के जीवन के हर पहलू को अत्यधिक गहराई से जानने और समझने का अवसर प्राप्त हुआ है..
सुचिंतित और विचारोत्तेजक आलेख है। आधुनिकता की सीमाओं को परिभाषित कर गांधीवाद की उपयोगिता सिद्ध करने वाला लेख है। राजीव जी को बधाई