पठन के चंचल और गतिशील माध्यमों के इस दौर में अगर कोई युवा लेखक कहता है कि उसने पूरी महाभारत पढ़ ली है और वह भी इसी माध्यम पर तो आश्चर्य होता है. चाहे वह वाल्मीकि कृत रामायण हो या व्यास का महाभारत; मूल को हिंदी अनुवाद की मदद से पढ़ने के लिए सिर्फ़ धैर्य नहीं, अपनी परम्पराओं को जानने की उत्कट अभिलाषा और लेखन की तैयारी के लिए कालजयी कृतियों को पढ़े लेने की गहरी ज़िम्मेदारी का भाव भी जरूरी है.
प्रचण्ड प्रवीर कथाकार के साथ-साथ विमर्शकार भी हैं. फिल्म माध्यम को भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से जोड़ते हुए उन्होंने ‘अभिनव सिनेमा: रस सिद्धांत के आलोक में विश्व सिनेमा का परिचय’ पुस्तक लिखी है.
रामायण और महाभारत पढ़ने के बाद यह लेख उन्होंने लिखा है. हिंदी का युवा लेखक कैसे अपने पूर्ववर्ती विमर्श को देखता है? यह जानना चाहिए.
महाभारत: अवलोकन
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महाभारत के ‘महाप्रस्थानिक पर्व’ में जब युधिष्ठिर अपने बाकी भाइयों, द्रौपदी और कुत्ते के साथ हिमालय को लाँघ कर आगे बढ़ रहे थे, तब सबसे पहले द्रौपदी गिरीं, उसके बाद सहदेव, नकुल, अर्जुन और भीम भी क्रमशः गिर कर मृत्यु को प्राप्त हुए. हर एक के पतन का कारण भीम धर्मराज युधिष्ठिर से पूछते हैं कि सभी अपने धर्म में प्रवृत्त थे फिर उनका पतन क्यों हुआ. युधिष्ठिर द्रौपदी के पतन का कारण अर्जुन के प्रति पक्षपात, सहदेव के पतन का कारण, अपने-जैसा किसी को विद्वान (प्राज्ञ) न समझना, नकुल का सबसे अधिक रूपवान होने की भावना, अर्जुन के पतन का कारण– शूरता का अभिमान– कि वे एक ही दिन में समस्त शत्रुओं को भस्म कर देंगे और शेष धनुर्धरों का अपमान करना बताया. जब भीमसेन स्वयं अपने पतन का कारण पूछते हैं तब युधिष्ठिर कहते हैं कि तुम बहुत खाते थे और दूसरों को कुछ भी न समझ कर अपने बल की डींग हाँका करते थे, इसी से तुम्हें धराशायी होना पड़ा.
फिर उनकी तरफ बिना देखे वे आगे चलते चले गए.
कुछ वर्ष पहले किंचित अभिमानी वाद-विवाद में एक बड़े आचार्य ने मुझसे कहा कि निश्चय ही आपने कालिदास, बाणभट्ट, भवभूति, मीर, गालिब, टैगोर, जयशंकर प्रसाद आदि की रचनाएँ किसी तरह थोड़ा बहुत पढ़ रखा है. इसलिए मैं समझता हूँ कि आपने ‘वाल्मीकि रामायण’ और ‘महाभारत’ भी मूल में पढ़ा ही होगा. मुझे यह सोच कर दोहरी लज्जा आयी कि पढ़ने की बात छोड़ो, ये पुस्तकें मेरी वरीयता में कहीं थी ही नहीं. स्वर्गीय विष्णु खरे, जो महाभारत के अध्येता भी थे, उन्होंने भी यह रेखांकित किया था कि हमारी पीढ़ी कुपढ़ों की और अभिमानियों की हैं जिन्हें यह स्वीकार करने में भी लज्जा नहीं आती कि हम अपने वाङ्मय से अपरिचित हैं.
इसका एक सरल समाधान है जैसा कि दिल्ली के कुछ हिन्दी के प्रमुख आलोचक-प्राध्यापकों का मानना है कि सेकुलर देश में रामचरितमानस, रामायण और महाभारत की कोई जगह नहीं है. उनकी आपत्ति इस तरह से शुरू होती है कि महाभारत में यह दावा किया गया है कि जो यहाँ है वह कहीं और हो भी सकता है, जो यहाँ नहीं है वो कहीं नहीं है. इसको वे इस दावे के साथ जोड़ते हैं कि वेद में सब कुछ है. फिर पूछेंगे वेदों में न्यूक्लियर बम बनाने का फार्मूला कहाँ हैं?
ऐसे प्रश्न घोर अज्ञान और ‘अज्ञानी बने रहने के प्रति प्रतिबद्धता’ से उत्पन्न और संचालित होते हैं. महाभारत में जो श्लोक कई-कई बार (आदि पर्व – ६२:५३ , स्वर्गारोहण पर्व – ५:५०) आया है, वह इस तरह है:
धर्मेचार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ l
यदि हास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न कुत्रचित्॥
(भरतश्रेष्ठ! धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के विषय में जो कुछ यहाँ कहा गया है, वही अन्यत्र है. जो इसमें नहीं है, वह कहीं नहीं है.)
इस तरह सबकुछ वेद में होने का अर्थ प्राचीन भारत की अध्ययन परम्परा से जुड़ा है. जहाँ चार संहिता (ऋक, यजु:, साम व अथर्व), ब्राह्मण, उपनिषद, आरण्यक के अतिरिक्त छह वेदांग (छन्द, निरुक्त, व्याकरण, शिक्षा, कल्प और ज्योतिष) तथा उनसे जुड़े अन्य विषय (धनुर्वेद, चिकित्सा, शिल्प, नाट्य, धर्मशास्त्र, कामशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि) जब कुछ वेद के अन्दर ही गिने जाते थे. वेद की शाखाओं में जुड़े लोग विशिष्ट विषयों का अलग-अलग स्तर पर पठन-पाठन करते थे.
सवाल यह उठता है कि क्या किया जाये? अस्तित्ववाद चिन्तक (एक्जिस्टेशिंयलिस्ट) और नैराश्यवादी चिन्तक (नाईलीज़्म) के शब्दों में जीवन का क्या अर्थ है? कुछ नहीं है जी! भाई, हमें ‘मीनिंग आफ लाइफ’ बता दो? हमें नहीं मालूम क्योंकि ‘अल्बेयर कामू’ को भी नहीं मालूम था. अच्छा, आप कुछ कहना चाहते हैं? आपके उत्तर पर सार्त्रे का प्रमाणपत्र नहीं चिपका है तो कैसे मान लें? चूकि आप ईश्वर को मानते हैं, या महाभारत को हम एक वैष्णव धर्मग्रंथ से अधिक नहीं समझते हैं इसलिए महाभारत की बात क्यों सुनें? हम तो यह मान के बैठे हैं कि जीवन का कोई अर्थ नहीं और अधिक हम सुनना नहीं चाहते हैं.
ऐसा कहने वालों ने भारत में ही प्रफुल्लित दो महान नास्तिक विचारधाराओं से कभी परिचय नहीं रखा. बौद्ध दर्शन और जैन दर्शन, दोनों ईश्वर या ब्रह्म को जगत का उपादान कारक मानने से निषेध करते हैं. साथ ही दोनों दर्शन कर्म-फल के सिद्धान्त और पुनर्जन्म को मानते हैं. न ये दोनों विचारधारा चार्वाकवादी हैं न उच्छेदवादी. इसलिए नैराश्यवादी भी नहीं हैं. यह मनुष्य होने का स्वभाव है कि वह जगत् और इसमें अपने होने का अर्थ ढूँढता है. इसी क्रम में वह अपना भी सृजन करता है और नाना प्रकार के मूल्यों का अन्वेषण करता है. वस्तुतः कोई भी विचारधारा या चिन्तन परमार्थ ही ढूँढती है. यशदेव शल्य के शब्दों में मार्क्सवादी चिन्तन का परमार्थ कुछ ‘आध्यात्मिक परतत्त्व’ न हो कर भौतिक संसाधनों का समान वितरण और समतामूलक समाज (उत्पादन-साधन-मूलक विकास-क्रम) ही है. शल्य जी के शब्दों में ही
‘धर्म मानवीय अर्थ अथवा अन्वेषण के उस रूप को कह सकते हैं जो जीवन का लक्ष्य लोकोत्तर और परम चैतन्य की स्थिति की प्राप्ति को, अथवा परम चैतन्य के बोध की योग्यता की प्राप्ति को स्वीकार करता है.’
महान् दार्शनिक कांट ने आत्मा की अमरता को नैतिक-अभिधारणा में ग्रहण किया है. उनके अनुसार नैतिक दृष्टि आत्मा की कल्पना के बिना सम्भव नहीं है. भारतीय चिन्तन में किसी भी तरह की नैतिक दृष्टि पुनर्जन्म और कर्म-फल की अवधारणा के बिना सम्भव नहीं है.
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की चतुष्टयी भारतीय संस्कृति की जीवन दृष्टि है. इसे ही पुरुषार्थ कहते हैं. इसका स्थूल अर्थ है कि मनुष्य को जीवन में ऐसा करना चाहिए जिससे काम (क्या चाहिए), अर्थ (जो चाहिए उसका साधन), धर्म (नैतिक दृष्टि) और मोक्ष (बंधन से मुक्ति) चारों का संतुलन बना रहे और परस्पर विरोध न हो. इसी से इहलोक (लौकिक सुख) और परलोक (परमार्थ– लोकोत्तर परम चैतन्य) दोनों सध जाएंगे.
धर्म: सुचरित: सद्भि: स च द्वाभ्यां नियच्छति l
अर्थश्चात्यर्थलुब्धस्य कामश्चातिप्रसङ्गिण:॥
धर्मार्थौ धर्मकामौ च कामार्थौ चाप्यपीडयन् l
धर्मार्थकामान् योऽभ्येति सोऽत्यन्तं सुखमश्नुते ॥
(अत्यन्त लोभी का अर्थ और अधिक आसक्ति रखने वाले का काम- दोनों ही धर्म को हानि पहुँचाते हैं! जो मनुष्य काम से धर्म और अर्थ को, अर्थ से धर्म और काम को तथा धर्म से अर्थ और काम को हानि न पहुँचा कर धर्म, अर्थ और काम तीनों का यथोचित रूप से सेवन करता है, वह अत्यन्त सुख का भागी होता है., अध्याय ६०, श्लोक २१-२२, गदापर्व, शल्यपर्व, महाभारत)
महाभारत पुरुषार्थ व्यवस्था का गूढ़ विश्लेषण है जो कि धर्म दृष्टि और उससे उपजने वाले बहुतेरी विसंगतियों को उजागर करता है. दर्शन के अध्येता व विचारक अम्बिकादत्त शर्मा जी अपने प्रसिद्ध लेख– ‘रामायण का सत्य और महाभारत का धर्म’ में यह स्थापित करते हैं कि भारतीय चिन्तन में ‘सत्य’ और ‘धर्म’ ही मूल प्रत्यय (शुद्ध विचार) हैं. उनके अनुसार वाल्मीकि रामायण ‘सत्य’ का प्रतिष्ठापक महाकाव्य है और महाभारत में अद्यतन ‘धर्म’ की प्रतिष्ठा की गयी है. एक में भारतीय-संस्कृति की सम्पूर्ण मूल्य-व्यवस्था और आदर्श-चेतना को सत्य में मूलित किया गया है और दूसरे में वह पूरे तौर से धर्माधारित है. रामायण में धर्म को सत्य में (सत्याधारित धर्म) और महाभारत में सत्य को धर्म में (धर्माधारित सत्य) रूपान्तरित किया गया है. इस प्रकार रामायण की फलश्रुति सत्यनिष्ठा में हैं और महाभारत का पर्यवसान धर्मनिष्ठा में होता है.
महाभारत और रामायण पर आधुनिक दृष्टि का इतना ही अर्थ है कि उन्हें यथार्थ रूप में ले कर अपने समय की उभरी विसंगतियों का निराकरण कर सकना. यदि हम इसमें सक्षम हैं तो यह हमारे लिए महत्त्वपूर्ण है अन्यथा नहीं.
वाल्मीकि रामायण में इस तरह के संकेत हैं कि सीता और राम को मांसाहार करने में गुरेज नहीं, क्योंकि राम के वनवास के समय सीता गङ्गा और सरयू पार करते समय दोनों नदियों से बारी-बारी प्रार्थना करती हैं कि वे सकुशल लौट आएँ तो देवियों को मांस-भात अर्पण किया जाएगा. रामायण में वाल्मीकि भारत के उत्तर में चीन और महाचीन का वर्णन करते हैं. वे उत्तरी ध्रुव तक की भी बात कर रहीं हैं जहाँ कई मास तक बहुत अंधेरा रहता है. लेकिन सीता की खोज में लगे सुग्रीव अपने वानरों को आदेश देते समय यह नहीं जानते कि हिन्द महासागर के अन्त में अंटार्कटिका भी है. किन्तु महाभारत के समय तक उस समय के लौकिक और सामाजिक ज्ञान का अधिक विस्तार मिलता है- इसमें सूर्य ग्रहण का वर्णन, नक्षत्रों का संयोग, और भारतीय सामाजिक मूल्य जैसे कि शाकाहार का माहात्म्य, अहिंसा को परम धर्म में निरूपित करना, व्रत-तीर्थ की महिमा, स्वर्ग-नर्क का जिक्र, पाप-पुण्य का लेखा-जोखा, सती हो जाना, उपवास की विधि, प्रायश्चित की विधि, दाहिने हाथ से दाहिने पाँव और बायें हाथ से बायें पाँव को छूने का तरीका, गाय की महत्ता, पिण्ड-तर्पण, जलदान, अतिथि सत्कार, भूमिदान की महत्ता, स्नान करने की विधि, भोजन करने की विधि, सोने का सलीका, यहाँ तक कि शौच करने की विधि, समस्त शुभ और अशुभ लोकाचार जो हम पारम्परिक तरीके से देखते-सुनते आए हैं उसे शान्ति पर्व, अनुशासन पर्व और भी यदा-कदा प्रसंगों में उस रूप में पा सकते हैं जो कि आप्त प्रमाण का विषय है.
(2)
मेरी समझ से वाल्मीकि रामायण और महाभारत को वास्तविक घटनाक्रम मानने का दुराग्रह छोड़ना चाहिए, इसलिए क्योंकि भारत में चंद्रगुप्त मौर्य से पहले के राजाओं का लिखित प्रमाण या अशोक के संदेश से उत्कीर्ण खम्भे जैसा कुछ नहीं मिलता जबकि उनसे पहले कितने ही राजाओं का प्रमाण मिलता रहा है. किन्तु जिस तरह मिस्र के राजाओं की वंशावली उनके पिरामिड और कब्र में सुरक्षित मिलती रही है, वह तथ्यों को सहेज कर हज़ार सालों का राजा विशेष का मन्दिर बनाने की परिपाटी भारत में नहीं रही. यदि ऐसा होता तो युधिष्ठिर निर्मम हो कर अर्जुन के पतन पर आगे नहीं बढ़ते चले जाते.
महाभारत के पात्रों में शठता और आत्म-श्लाघा बहुत बढ़-चढ़ कर है. भीष्म सदैव अपराजेय हैं और अपनी ही इच्छा से थक कर हार जाते हैं. द्रोण के बाणों से अर्जुन बच कर निकल जाते हैं क्योंकि उनको जीतना बहुत कठिन हैं. कर्ण के समान कोई वीर नहीं है. वह अकेले ही सबको हराने का दम रखता है. किन्तु ये तीनों भी अकेले अर्जुन से विराट पर्व में गोहरण पर्व के समय बुरी तरह पराजित होते हैं. इसी तरह अर्जुन सभी को अकेले एक दिन में भस्म करने का दम्भ करते हैं. भीम अकेले ही सारे शत्रुओं को कुचल कर मारने का हौसला रखते हैं. शल्य स्वयं को कृष्ण और अर्जुन से कई गुना बड़ा शूर-वीर समझते हैं. शल्य कर्ण का सारथी बनना भी तभी स्वीकार करते हैं जब दुर्योधन उनको यकीन दिलाता है कि सारथी बनना कई बार धनुर्धर से श्रेष्ठ है. धृष्टद्युम्न और सात्यकि भी अकेले बहुत से लोग को संहार कर सकने की क्षमता रखते हैं. इसी बात में आपस में तू-तू मैं-मैं भी करते हैं. घटोत्कच रात में अकेले ही एक अक्षौहिणी सेना का संहार कर डालता है, और अपने बल को ले कर उसमें अभिमान भी है. गीता प्रेस के प्रचलित संस्करण में बर्बरीक की चर्चा नहीं है, जो अकेले ही सबको मारने का दम भरता था.
अगर भीमसेन में नागो से मिले आशीर्वाद (कुन्ती के पिता शूरसेन के नाना वासुकि के कुण्ड का रस पीने से) के कारण दस हजार हाथियों का बल है तो दुर्योधन में कई हजार हाथियों का बल है. शल्य पर्व के अंतर्गत गदा पर्व में जब सरोवर में छुपा दुर्योधन बाहर निकल कर युद्ध करने को आता है और युधिष्ठिर यह कहते हैं कि पाँच पाण्डव में किसी से भी लड़ कर सारा राज्य ले लो, तब श्रीकृष्ण उसे भी जुआ ही बतलाते हैं. श्रीकृष्ण कहते हैं कि दुर्योधन गदा के भीषण अभ्यास से कभी भी न्याय-पूर्वक जीता ही नहीं जा सकता. उसे छल से ही जीतना होगा और भीमसेन उछले दुर्योधन की जंघा पर गदा से प्रहार करते हैं जो गदा-युद्ध के नियम के विपरीत था. इसी कारण बलराम उद्विग्न हो कर भीमसेन को मारने उठते हैं.
इतना ही नहीं अगर भीमसेन में दस हजार हाथियों का बल है तो बूढ़े धृतराष्ट्र में भी इतने ही हाथियों का बल है जब वे स्त्री पर्व में भीमसेन की लोहमयी प्रतिमा को भीमसेन समझ कर दोनों बाँहों से दबा कर तोड़ डालते हैं (श्लोक १७, अध्याय १२, स्त्री पर्व). लेकिन कोई भी अजेय नहीं है. सभी किसी न किसी मौके पर पराजित होते हैं. यहाँ तक कि अर्जुन भी अपने पुत्र ब्रभुवाहन के हाथों मारे जाते हैं और नागकन्या उलूपी के मणि से पुनर्जीवित होते हैं (अध्याय ८०, आश्वमेधिक पर्व). इतना ही नहीं मौसल पर्व में जब अर्जुन कृष्ण की मृत्यु के बाद उनकी रानियों और प्रजा को ले कर इन्द्रप्रस्थ वापस लौट रहे होते हैं, उस समय अहीरों का हमला होता है और वे डाकू स्त्रियों का अपहरण करने में सक्षम होते हैं. उस समय अर्जुन गाण्डीव भी चला नहीं पाते और दिव्य अस्त्रों को बुला नहीं पाते (अध्याय ७, मौसल पर्व).
(तीन)
जैसा कि हम जानते हैं कि वाल्मीकि रामायण के प्रचलित पाठ में “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” नहीं मिलता, किन्तु अन्य पाण्डुलिपियों में दो रूपों में मिलता है.
प्रथम रूप:
निम्नलिखित श्लोक ‘हिन्दी प्रचार सभा मद्रास’ द्वारा १९३० में सम्पादित संस्करण में आया है. इसमें भारद्वाज, राम को सम्बोधित करते हुए कहते हैं-
मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव l
जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
(“मित्र, धन्य, धान्य आदि का संसार में बहुत अधिक सम्मान है. किन्तु माता और मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर है.”)
दूसरा रूप:
इसमें राम, लक्ष्मण से कहते हैं-
अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचतेl
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
(“लक्ष्मण! यद्यपि यह लंका सोने की बनी है, फिर भी इसमें मेरी कोई रुचि नहीं है. क्योंकि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान हैं.”)
रामायण के प्रचलित पाठों में रावण वध के बाद राम का लक्ष्मण को रावण के पास भेज कर ज्ञान ग्रहण करना भी नहीं मिलता पर यह रामकथा का लोक प्रसिद्ध प्रसङ्ग है. उसी तरह गीता प्रेस की महाभारत में सभा पर्व में दुयोर्धन जब इन्द्रप्रस्थ में मयासुर के बनाये भवन में सरोवर में भ्रमित हो कर गिर जाता है तब द्रौपदी नहीं भीम उसका उपहास करते हैं. द्रोण पर्व में द्रोण वध के समय युधिष्ठिर- ‘नरो वा कुंजरो वा’ (मुझे नहीं पता कि मनुष्य मरा या हाथी)- नहीं बोलते. उस समय का श्लोक है:
तमतथ्य मग्नो जये सक्तो युधिष्ठिर:l
अश्वत्थामा हत इति शब्दमुच्चैश्चार हl
अव्यक्तमव्रवीद् राजन् हत: कुञ्जर इत्यत॥
(एक ओर तो वे असत्य के भय में डूबे हुए थे और दूसरी और विजय के प्राप्ति के लिए भी आसक्ति पूर्ण प्रयत्नशील थे, अतः राजन्! उन्होंने ‘अश्वत्थामा मारा गया’ यह बात तो उच्च स्वर से कही, परन्तु हाथी का वध हुआ है, यह बात धीरे से कही., श्लोक ५५, अध्याय १९०, द्रोणपर्व)
गीता प्रेस के इस पाठ में यह नहीं मिलता कि अभिमन्यु (जो चंद्रमा का अंश है) उसके माँ के गर्भ में चक्रव्यूह तोड़ने की विद्या सीखी है बल्कि उसने अर्जुन से यह सीखी होती है (किस प्रकार से सीखी यह नहीं मिलता). युधिष्ठिर के बचपन की प्रचलित कहानी कि द्रोणाचार्य से मिला पाठ- ‘सदा सच बोलो, क्रोध न करो’- याद करना, यह भी नहीं मिलता. कर्ण पर्व में कर्ण कहीं यह नहीं कहते कि जो काठ के योद्धा होते हैं जिन्हें डर नहीं लगता. इसी तरह दुर्योधन की प्रसिद्ध उक्ति भी नहीं मिलती –
जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिःl
केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तो अस्मि तथा करोमि.
(मैं धर्म के बारे में जानता हूं किन्तु मेरी उसमें प्रवृत्ति या रुचि नहीं है. और मैं अधर्म के बारे में भी जानता हूं किन्तु उसमें मेरी निवृत्ति( छुटकारा) नहीं है. मेरे हृदय में स्थित देव के वशीभूत होकर मैं यह अधर्म कर रहा हूं. अतः मैं अधर्म से होने वाले पाप का अधिकारी नहीं हूं.)
यह इस संस्करण में नहीं है पर सम्भवतया ‘पाण्डव गीता’ में है. दुर्योधन वध के पहले गान्धारी का आँखों से पट्टी खोल कर नेत्र ज्योति से उसके बदन को वज्र जैसे बना देना- यह प्रसङ्ग भी नहीं मिलता. सौप्तिक पर्व में अश्वत्थामा द्वारा द्रौपदी पुत्रों का और बचे शेष सभी योद्धाओं का महादेव के वरदान से वध का वर्णन है. अश्वत्थामा ने रात में आक्रमण कर के सोते से जगा कर धृष्टद्युम्न और इसी तरह द्रौपदी के पाँचों पुत्रों को मारा. यह उस तरह के प्रचलित आख्यान में नहीं है कि सोते हुए में सिर काट देना जैसा कि अन्यत्र मिलता है (अंधा युग में). दुर्योधन ने भी अश्वत्थामा की इस कृत्य प्रशंसा की, निन्दा नहीं की.
महाभारत का यह आरूप कई सदियों में जा कर तय हुआ होगा. और निश्चित तौर पर इतने पाठ भेदों से पात्रों के चरित्र का आकलन सतही और मूल रचनाकार की भावना के साथ नाइंसाफी होगी. इसलिए दुर्योधन को अच्छा या कर्ण को महान् प्रतिष्ठित करने का काम ऐसे उपजीवी काव्य से अधिक कुछ नहीं है, जिसमें धर्म और नैतिकता की मौलिक और सूक्ष्म दृष्टि का अभाव हो. महाभारत का प्रतिपाद्य युधिष्ठिर के धर्मराज होने में और दुर्योधन के खल-पात्र होने में न हो कर, धर्म की सूक्ष्म प्रतिष्ठा और विशद विवेचना में है.
महर्षि जैमिनि के शब्दों में:
‘अथातो धर्मजिज्ञासा’ (अब धर्म (करने योग्य कर्म) को जानने की लालसा है.”
(चार)
महाभारत के कथानक में दो प्रमुख चीजें गौर करने लायक है.
पहला
हर पात्र के जन्म में कुछ न कुछ अड़चन. चाहे वह भीष्म का (गङ्गा का आठ पुत्रों को जल में प्रवाहित करना), धृतराष्ट्र, पाण्डु, और विदुर का वेदव्यास द्वारा जन्म, द्रोणाचार्य का कमण्डल से पैदा होना, कृपाचार्य का सरकण्डे से पैदा होना, द्रौपदी, धृष्टद्युम्न और शिखण्डी का द्रुपद के यज्ञ से पैदा होना, या पाँचों पाण्डव और कर्ण का देवताओं से कुन्ती और माद्री से उत्पन्न होना, या गान्धारी का गर्भ विभाजित कर के अपने सौ बेटे पैदा करना आदि हो. कलियुग से पहले ही सृष्टि में अवरोध ही पापाचार को प्रकट करता है. अपने पिता जी कामुकता को तृप्त करने के लिए भीष्म की अनुचित प्रतिज्ञा ही बहुत-सी विसंगियों को स्थान देती है.
दूसरा
कथानक में कर्म फल को स्थापित करने के लिए बहुत-सी संलग्न कथाएँ और उनकी सम्यक पुनरावृत्ति. वन पर्व में नल-दमयन्ती की कथा में राजा नल के कष्ट भोगने की कथा– अपनी पत्नी से विरह और दूसरों का दासत्व– यह आगे विराट पर्व में अज्ञातवास भोगने की मानसिक तैयारी है. द्रौपदी के पाँच पति होने का औचित्य स्थापित करने के लिए द्रौपदी का पूर्वजन्म में तपस्या से प्रकट हुए महादेव से घबरा कर पाँच बार पति को माँगने का वर, जिसके फलस्वरूप उसके पाँच पति होते हैं. वन पर्व में अर्जुन स्वर्ग में पिता इन्द्र का आतिथ्य (पाँच साल का) बिता रहे होते हैं तब कामपीड़ित उर्वशी का अर्जुन के पास जाना और अर्जुन उसे माता कह कर अस्वीकार करते हैं. इसलिए उर्वशी के शाप से अर्जुन को विराट पर्व में बृहन्नला के रूप में उत्तरा को संगीत की शिक्षा देनी पड़ती है.
स्त्री पर्व में गान्धारी के शाप से महाभारत के छत्तीस साल बाद यादवों का आपस में (मौसल पर्व में) लड़-भिड़ कर नाश हो जाता है. किसी ब्राह्मण के शाप से कर्ण का रथ युद्ध भूमि में धंस जाता है, जोकि उसकी मृत्यु का कारण बनता है. द्रोणवध पर्व में द्रोण से सभी देवता मृत्यु का वरण करने के लिए निवेदन करने आते हैं क्योंकि उन्होंने ब्रह्मास्त्र का अनुचित प्रयोग किया, अत: वे बेमन से मरने को तैयार हो जाते हैं. धृष्टद्युम्न का जन्म ही इसलिए हुआ है कि वे द्रुपद के द्रोण के हाथों हुए अपमान का बदला ले सके. शिखण्डी जो पहले स्त्री रूप में पैदा हुई. लेकिन स्थूणाकर्ण यक्ष के प्रभाव से (और कुबेर द्वारा उस यक्ष के शापित हो जाने पर) हमेशा के लिए पुरुष बन जाता है, जो कि अम्बा का पुनर्जन्म है (उद्योग पर्व). आदिपर्व में खाण्डवदाह पर्व के समय एक सर्प किसी तरह बच जाता है, जोकि कर्ण पर्व में कर्ण के बाण में काल बन कर अर्जुन को मारने आता है जिससे श्रीकृष्ण को अर्जुन की रक्षा करनी पड़ जाती है. हालांकि जब दुबारा वह सर्प कर्ण की मदद करना चाहता है तो कर्ण इसे मना कर देता है. श्रीमद्भगवद्गीता निस्संदेह उपनिषदों और भारतीय चिन्तन का निचोड़ के रूप में अनुपम निधि है, यह भी आश्वमेधिक पर्व में अनुगीता के रूप छोटे से रूप मे सांख्य दर्शन की मुख्य बिन्दुओं के रूप में दुहरायी जाती है.
महाभारत जैसे महाकाव्य में यह तय करना कठिन है कि अंगी रस क्या है और इसके नायक कौन हैं? क्या पाँच पाण्डव ही नायक हैं या धर्मराज युधिष्ठिर या नर-नारायण की जोड़ी (जो कि अर्जुन और कृष्ण के रूप में फिर से आयी है) या भीष्म पितामह? लेकिन कुछ अद्भुत दृश्य ऐसे हैं जिसका प्रसंगवश वर्णन करना उचित जान पड़ता है.
हम कई अमरीकी कार्टून फिल्मों में ‘आओ खजाना ढूँढ निकालें’ जैसी चीजें देखते हैं. महाभारत में भी ऐसी स्थिति आती है. भीषण युद्ध के बाद अरबों के संख्या में दोनों पक्षों के सारे राजा-महाराजा-सैनिक मर जाते हैं. सारा पैसा तो लड़ने में चला गया, अब युधिष्ठिर राज कैसे करें? तब ऐसे में रचनाकार स्वयं उपस्थित हो कर समाधान ले आता है- आश्वमेधिक पर्व में व्यास युधिष्ठिर से कहते हैं कि शोक मत करो. प्राचीन काल में मरुत्त नाम के राजा हुए थे. उन्होंने बड़ा यज्ञ किया था और इसके फल में बहुत सोना पाया था. वह सोना हिमालय पर पड़ा है, जा कर ले आओ. युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ जा कर खजाना खोद कर ले आते हैं और फिर से धनी बन जाते हैं. आश्वमेधिक पर्व में ही उत्तरा का पुत्र अश्वत्थामा के सींक वाले बाण से पीड़ित हो कर मृत पैदा होता है. किन्तु कृष्ण अपने दैवी प्रभाव से मृत बालक को जीवित कर देते हें. आश्रमवासिक पर्व में धृतराष्ट्र, गान्धारी और कुन्ती आदि को शोक से मुक्ति देने के लिए व्यास अपने तपोबल से समस्त मृतकों को गङ्गाजल में से एक रात के लिए प्रकट कर देते हैं.
भीष्मपर्व में यह वर्णन है कि किस तरह यह युद्ध धर्मयुद्ध है. इसके नियम इस तरह होते हैं कि पैदल, पैदल सेना के साथ, घुड़सवार घुड़सवार के साथ, रथी रथी के साथ, महारथी, महारथी के साथ युद्ध करेंगे. शरण में आये हुए को नहीं मारा जाएगा. शाम में थक जाने के बाद युद्ध को विराम देना होगा. किस तरह के बाण नहीं चला जाएँगे (जैसे कि विष बुझे, हड्डी से बने, सुई जैसे आदि आदि) इसका भी वर्णन है. लेकिन अभिमन्यु वध के बाद, द्रोण पर्व में जब श्रीकृष्ण माया से अंधेरा कर के अर्जुन को जयद्रथ को मारने को प्रेरित करते हैं (ताकि सूर्यास्त से पहले जयद्रथ को मारने की अर्जुन की प्रतिज्ञा सत्य हो सके), उसके बाद संध्या में भी युद्ध रुकता नहीं और रात भर मशालों की रौशनी में युद्ध चलता रहता है. द्रोण के पाँच दिनों के युद्ध में धर्मयुद्ध धर्मयुद्ध नहीं रह जाता. घटोत्कच और कर्ण के लड़ाई में दोनों ही सूरतों में श्रीकृष्ण का लाभ ही है. कर्ण के द्वारा घटोत्कच के मारे जाने से श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न ही होते हैं कि एक तो कर्ण को वरदान में मिली इन्द्र की अमोघ शक्ति का नाश हो गया, दूसरा कि पापी घटोत्कच का अंत हो गया.
यह विचारणीय है कि क्या कभी युद्ध अपने स्वरूप में धर्मपूर्वक हो सकता है? क्या हम ऐसे समय में जी रहे हैं जो कि जैविक, छलपूर्ण और अधर्मी युद्ध कहा जा सकता है? लेकिन अधर्म का आक्षेप तब करें जब कोई पक्ष सत्यवादी या धर्मनिष्ठ युधिष्ठिर-जैसा हो? वरना सारी लड़ाइयाँ घटोत्कच और कर्ण की ही लड़ाई लगती है.
कथा सूत्रों में स्थित धर्म जिज्ञासा ही उस स्तर पर ले जा सकती है जो हमें गम्भीर विवेचना और आत्म अवलोकन के लिए तैयार कर सके! तभी धर्म की जय होगी. तभी सत्य की जय होगी.
इति
प्रचण्ड प्रवीर बिहार के मुंगेर जिले में जन्मे और पले बढ़े हैं. इन्होंने सन् २००५ में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली से रासायनिक अभियांत्रिकी में प्रौद्योगिकी स्नातक की उपाधि ग्रहण की. सन् २०१० में प्रकाशित इनके पहले उपन्यास ‘अल्पाहारी गृहत्यागी: आई आई टी से पहले‘ ने कई युवा हिन्दी लेखकों को प्रेरित किया. सन् २०१६ में प्रकाशित इनकी दूसरी पुस्तक, ‘अभिनव सिनेमा: रस सिद्धांत के आलोक में विश्व सिनेमा का परिचय‘, हिन्दी के वरिष्ठ आलोचकों द्वारा बेहद सराही गई. सन् २०१६ में ही इनका पहला कथा संग्रह ‘जाना नहीं दिल से दूर‘ प्रकाशित हुआ. इनका पहला अंग्रेजी कहानी संग्रह ‘Bhootnath Meets Bhairavi (भूतनाथ मीट्स भैरवी)’ सन् २०१७ में प्रकाशित हुआ था. कहानियों के दो संग्रह उत्तरायण और दक्षिणायन इसी वर्ष प्रकाशित हुए हैं. इन दिनों प्रचण्ड प्रवीर गुड़गाँव में एक वित्त प्रौद्योगिकी संस्थान में काम करते हैं . prachand@gmail.com |
जो यहाँ है, वह कहीं और भी हो सकता है ,पर जो यहाँ नहीं है, वह कहीं नहीं है। इस कथन की सत्यता को भारतीय वांड़्मय की पौराणिक कथाओं के संदर्भ में समझने का आग्रह इस आलेख का अभिप्रेत है। हर युग और काल में हमारी प्रगतिशीलता की जड़ें जिन तत्वों से खाद-पानी लेकर गहरी होती रही हैं, वह मिट्टी भी हमारी अपनी हीं है, कहीं से आयातीत नहीं । यह सोचकर कितना आश्चर्य होता है कि विश्व की अनेक महान सभ्यताएँ काल के गह्वर में समा गयीं। शायद इसका एक कारण यह भी है कि हमने अपने विचार और दर्शन में जीवन की विविधता और अनेक रंगों को अंगीकार किया। हमने आस्तिकता के साथ-साथ नास्तिकता को भी एक धर्म और एक दर्शन की मान्यता दी। चार्वाक दर्शन(लोकायत दर्शन) ने तो यहाँ तक कह दिया — यावत् जीवेत् सुखं जीवेत् /ॠणं कृत्वा घृतं पीबेत/भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनः कुतः/ त्रयोवेदस्य कर्तारौ भण्डधूर्तनिशाचराः। अब अगर भारतीय वांड़्मय का यह भौतिकवादी दर्शन अपनी नास्तिकता में इतना आक्रामक है कि वह तीनों वेदों के रचयिता को धूर्त और पाखंडी तक कह सकने का नैतिक साहस रखता है तो यह भी आर्य सभ्यता की मुख्य-धारा के बरक्स हाशिये की असहमति को हमारी जातीय परंपरा में पर्याप्त जगह मिलने का एक पुष्ट प्रमाण है। प्रचण्ड प्रवीर का यह आलेख एक गंभीर विमर्श की मांग करता है।उन्हें साधुवाद !
बहुत महत्त्वपूर्ण आलेख। हमारे समय में, सही मायने में, लड़ाई का कोई स्वरूप बनता ही नहीं.. बधाई !
इस ज्ञानवर्धक आलेख के आरंभ में हिंदी के अध्यापकों पर अनावश्यक टिप्पणी से लेखक का कद छोटा हुआ है।
आई.आई.टी और हिंदी के अध्यापन समेत हर क्षेत्र में छोटे, मझोले और बड़े लोगों की कमी नहीं है।
अंतिम बात यह कि कुछ माह पूर्व समालोचन में प्रकाशित महाभारत पर केंद्रित सुदीप्त कविराज के आलेख में जो रचनात्मकता है,वह यहां सिरे से गायब है।
एक सुंदर और प्रामाणिक आलेख। पढ़कर सुखद लगा। कहना न होगा, प्रचण्ड प्रवीर बहुत धीरमना अध्येता हैं। सारे कौतुक से दूर, प्रचार और खेमे से निरासक्त ऐसे रचनाकार का स्वभाव श्लाघनीय है। भारतीय वाङ्मय में उनकी अनुरक्ति मुझ जैसे पाठकों के लिए बड़े काम की है। पूरे श्रम और निष्ठा से वे पहले कृतियों का पारायण करते हैं, फिर उसकी मीमांसा करके द्विगुणित तोष देते हैं। उपनिषदों पर लिखी उनकी कहानियां भी अप्रतिम हैं। इस भागमभाग समय में महाभारत को ह्रदयंगम कर के उसका सम्यक विवेचन उनके शील और संयम को दर्शाता है। इस वृहद महाकाव्य पर थोड़ा और लिखते तो बेहतर होता।
शुभकामना।
लेख पढ़ा | बहुत उम्मीद के साथ | शायद सुदीप्त कविराज के लेख पढ़ने के बाद महाभारत पर कुछ बहुत गंभीर पढ़ने का लालच मन में घर गया था |
प्रवीर भाई ने महाभारत पढ़ा ? कई अर्थो में महाभारत बड़ी (विशद) रचना है | यहाँ तो बस थोड़ा तथ्यात्मक परिचय जैसा मिला वो भी भारतीय धर्म के उपदेश में लिपटा जैसा | उम्मीद है कि प्रवीर भाई थोड़ी और तन्मयता से फिर लिखेंगे |