२०२० में अंकित नरवाल (जन्म: ६ अगस्त १९९०) को ‘यू आर अनन्तमूर्ति: प्रतिरोध का विकल्प’ पुस्तक के लिए साहित्य अकादेमी का युवा पुरस्कार मिला था, इस वर्ष आधार प्रकाशन से ‘अनल पाखी: नामवर सिंह की जीवनी’ शीर्षक से उनकी नयी क़िताब प्रकाशित हुई है.
नामवर सिंह हिंदी आलोचना में केन्द्रीय व्यक्तित्व रहें हैं. उनके जीवन को जानने समझने की कोशिशों का यह प्रतिफल है. ख़ासकर जो नयी पीढ़ी इधर साहित्य में सक्रिय हुई है, उसके लिए भी यह बहुत उपयोगी है.
नामवर सिंह का जीवन विराट और बहुआयामी रहा है. उनके सम्पर्क में आए हर व्यक्ति के पास नामवर सिंह की इतर कथाएं हैं. यह उनके जीवन की शाखाएं प्रशाखाएं हैं.
यूरोप में लेखकों की अनेक जीवनियाँ लिखीं और प्रकाशित होती हैं. हिंदी में नामवर सिंह पर यह शुरुआत है, और अच्छी शुरुआत है.
इस जीवनी की विस्तार से चर्चा कर रहें हैं केवल कुमार.
हिन्दी साहित्य में जीवनी लेखन लंबे समय तक सबसे विवादास्पद व उपेक्षित विधा रही है. इस विधा के प्रति साहित्यकारों में उपेक्षा का भाव देखा जाता रहा है. साहित्य के इतिहास में जितनी उपन्यास, कहानी व नाटक आदि विधाएँ प्रफुलित हुई हैं, उतना जीवनी लेखन अपना फलक नहीं फैला पाया है. सृजनात्मक लेखन में लेखक की कल्पना शक्ति को विशेष महत्त्व दिया जाता है, उसमें यथार्थपरकता का अंश अगर न भी हो तो भी उपन्यास या कहानी उत्कृष्ट हो सकती है, किन्तु जीवनी लेखन में चरितनायक के जीवन प्रसंगों को जीवनीकार अपनी प्रतिभा के माध्यम से इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि वह यथार्थ से भटक न पाए. इतिहास के व्याख्यात चरित्रों एवं साहित्यकारों के सन्दर्भ में यह ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है. श्रेष्ठ जीवनी, जीवनीकार के विशुद्ध ज्ञान, उत्कृष्ट भाषा-शैली, कल्पनाशीलता और निष्पक्षता पर आधारित होती है. जीवनी और जीवनी लेखन के विषय में विष्णु प्रभाकर लिखते हैं, ‘जीवनी अनुभवों का श्रृंखलाबद्ध कलात्मक चयन है. इसमें वह ही घटनाएँ पिरोई जाती हैं, जिनमें संवेदना की गहराई हो, भावों को आलोड़ित करने की शक्ति हो, घटनाओं का चयन लेखक किसी नीति, तर्क या दर्शन से प्रभावित होकर नहीं करता. वह गोताख़ोर की तरह जीवन-सागर में डूब-डूबकर मोती चुनता है. सशक्त और सच्ची संवेदना की हर घड़ी, वही मोती है. श्रेष्ठ जीवनी–जीवनी लेखक, काल, देश, व्यक्ति और घटना की सीमाओं को तोड़कर अनुभूतियों का सौन्दर्यमय विक्षेपण करता है. विशुद्ध कला और मानदंडों के बीच संतुलन और सामंजस्य का प्रणयन करता है. ’
जीवनीकार का कार्य कठिन तब हो जाता है, जब वह किसी साहित्यकार की जीवनी लिख रहा हो, क्योंकि उसमें उसे जीवन के विभिन्न पहलुओं के साथ-साथ साहित्यिक-संघर्ष, यात्रा एवं अवदान को भी नितांत यथार्थ तरीके से प्रस्तुत करना होता है. लेखक को अपने पूर्वाग्रह और विशेष विचारधारा से मुक्त होकर जब किसी साहित्यकार की जीवनी पर कार्य करना होता है, तब उसे ऐसी घटनाओं से बचना पड़ता है, जो लेखन की प्रक्रिया को मूलभत तत्त्वों से भटका दें. अगर लेखक की विचारधारा या धार्मिक मान्यताएँ चरितनायक से मेल नहीं खातीं तो लेखक को उन्हें त्यागकर निष्ठापूर्वक अपना कार्य करना होता है. क्योंकि ‘जीवनी लेखन कोरा इतिहास-मात्र नहीं है, बल्कि उसमें लक्षित व्यक्ति के जीवन की उन घटनाओं व अनुभवों का भी कलात्मक चयन होता है, जिससे उसकी सौम्यताओं और सीमाओं का सहज ही अंकन हो सके. ’
हिंदी भाषा में साहित्यकारों की जीवनियाँ कम लिखी गयी हैं. पहले-पहल संतों, महात्माओं एवं इतिहास प्रख्यात चरित्रों की जीवनी लेखन से यह परम्परा शुरू होती है. इस परम्परा में सबसे पहले गोपाल शर्मा शास्त्री कृत दयानन्द दिग्विजय (1881 ई.), राधाकृष्णदास लिखित आर्यचरितामृत बाप्पारावल (1884 ई.), आदि जीवनियाँ मिलती हैं.
इसके बाद हिंदी साहित्य में हिंदी साहित्यकारों के जीवनी लेखन का सफर बाबू राधाकृष्ण दास कृत भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (1904 ई.) से आरम्भ होता है. बाबू शिवनन्दन सहाय कृत हरिश्चन्द्र चरित्र (1905 ई.), आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कृत बाबू राधाकृष्ण दास चरित्र (1913 ई.), शिवरानी देवी लिखित प्रेमचन्द घर में (1944 ई.), विष्णु प्रभाकर कृत आवारा मसीहा (1974 ई.) के बाद दो-तीन वर्षों के अन्तराल पर किसी-न-किसी साहित्यकार की जीवनी प्रकाशित होने का सिलसिला आरंभ हो गया. इसी क्रम में 2011 में प्रकाशित आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की जीवनी व्योमकेश दरवेश (डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी) प्रकाशित हुई है.
अब जीवनी-लेखन भी एक सशक्त विधा बन गयी है. इस विधा के इस मुकाम का श्रेय अमृतराय और मदन गोपाल को जाता है. अमृतराय और मदन गोपाल दोनों ने जीवनी लेखन में प्रेमचंद की चिट्ठी-पत्रों का उपयोग किया और साथ ही उनकी रचनाओं को भी आधार बनाया. इसी कोटि का एक प्रयत्न भगवतीप्रसाद सिंह ने ‘कविराज गोपीनाथ जी की जीवनी’- मनीषी की लोकयात्रा (1968 ई.) प्रस्तुत करके किया है. इसी कोटि में अंकित नरवाल द्वारा लिखित ‘अनल पाखी’ भी आती है.
‘अनल पाखी’ हिंदी के प्रख्यात संवादी आलोचक नामवर सिंह की जीवनी है. नामवर ने हिंदी में संवाद पर अधिक बल देकर अपनी ‘संवादी परम्परा’ को विकसित किया है. हिंदी आलोचना को शास्त्रीय बन्धनों से मुक्त कर व्यावहारिक आलोचना तक लाने का श्रेय भी नामवर को जाता है. नामवर की इस ‘वाचन-संवादी’ परम्परा की प्रशंसा 1988 ई. में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में हुए प्रगतिशील लेखक संघ के समारोह की अध्यक्षता करते हुए नागार्जुन ने मुक्त कंठ से की है-
‘अपने देश में आम जनता तक बातों को ले जाने की दृष्टि से, पुस्तकों से दूर कर दिए गए लोगों तक विचारों को पहुँचाने के लिए लिखना जितना ज़रूरी है, उससे ज़्यादा ज़रूरी है बोलना. स्थापित और स्थावर विश्वविद्यालयों की तुलना में यह जंगम विद्यापीठ ज़्यादा ज़रूरी है. नामवर इस जंगम विद्यापीठ के कुलपति हैं. इस विद्यापीठ का कोई मुख्यालय नहीं होता. यह जगह-जगह जाकर ज्ञान का वितरण-सत्र आयोजित करता है. ’
अत: नामवर संवादी आलोचक बने और अपनी वाचन परम्परा को आगे बढ़ाते रहे.
प्रस्तुत पुस्तक जहाँ नामवर के जीवन-संघर्षों को प्रस्तुत करती है, वहीं उनकी साहित्य साधना को भी उजागर करती है. यहाँ कवि नामवर से लेकर आलोचक नामवर तक के सफ़र को बड़ी सटीकता से प्रस्तुत किया गया है. यह जीवनी नामवर के सम्पूर्ण साहित्य और साहित्यिक अवदान को प्रकट करती हुई उनके जीवन के अकादमिक एवं शैक्षिक उलट-पलट को यथा रूप में वर्णित करती है. नामवर की इस जीवनी का अध्ययन तीन विशेष भागों में किया जा सकता है- संघर्षमय जीवन, शैक्षिक जीवन और साहित्य साधना.