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Home » अनिल वाजपेयी की कविताएँ

अनिल वाजपेयी की कविताएँ

अब जब कि अनिल वाजपेयी नहीं हैं, कवि अनिल वाजपेयी, उनकी लगभग अदृश्य रह गयीं इन कविताओं को पढ़ते हुए क्षोभ हुआ कि क्यों नहीं किसी ने पहले उनकी तरफ ध्यान खींचा. समकालीन कविताओं से अलग अपने काव्य संसार में डूबे वे एक विरल कवि थे, अपनी कविताओं में सघन और संजीदा. इन कविताओं को पढ़े आप. टिप्पणी उदयन वाजपेयी की दी जा रही है.

by arun dev
September 12, 2021
in कविता
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अनिल वाजपेयी की कविताएँ
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अनिल वाजपेयी सागर के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में क़रीब 1970 से लेकर अगले चार दशकों तक भौतिक शास्त्र पढ़ाते रहे. मुझे अपने अनुभव से मालूम है कि वे अनूठे अध्यापक थे. उनकी कक्षाओं में हर ओर ऊर्जा का संचरण होता था और लगभग सभी छात्र समझ के एक ऐसे धरातल पर पहुँच जाते थे जहाँ से उन्हें अपना रोज़मर्रा का संसार भी अनोखा दिखायी देने लगता था.

उन्होंने लगभग पचास वर्ष के वकफ़े में थोड़ी सी कविताएँ और थोड़े से लेख लिखे हैं. उन्होंने कभी भी अपने कवि होने का इसरार नहीं किया जैसा कि कविगण किया करते हैं. वे चुपचाप कविताएँ लिखते रहते थे और गाहे-बगाहे उनकी कुछ कविताएँ और लेख जनसत्ता आदि में प्रकाशित होते रहते थे. मुझे याद नहीं पड़ता कि उन्होंने कभी अपने को कवि कहकर सम्बोधित किया हो. वे साहित्य के इतिहास के समानान्तर जो एक शान्त गली है उस पर निःशब्द चलते रहे.

इस वर्ष की 15 जून को भोपाल में उनकी मृत्यु हो गयी.

उसके कुछ हफ़्तों बाद उनकी एक नयी उपस्थिति को रूप देने के प्रयास में हमने उनकी कविताएँ और निबन्ध खोजकर उन्हें एक बार फिर पढ़ना शुरू किया. मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि उनकी अनेक कविताएँ मुझे बिलकुल नयी मालूम दे रही थीं. इन कविताओं में एक ऐसी अन्तर्दृष्टि आकार ले रही थी जो आधुनिक विज्ञान को त्यागे बिना उसे प्रश्नांकित करती मेधा का कार्य लग रही थी.

इन कविताओं के मूल में शायद वैज्ञानिक मन का काव्यात्मक संवेदन से संवाद है, कुछ-कुछ वैसा ही जैसा चेकोस्लोवाकिया के मिरास्लाव होलुब की कविताओं में नज़र आता है. इन कविताओं में आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि आकार ले सके इसके पहले ही उसे काव्यात्मक प्रश्नांकन छलनी-छलनी कर जाता है. यहाँ तर्कणा (रेशनेलिटी) अपनी सीमा पहचानने को बाध्य हो जाती है जिसका अर्थ यह नहीं कि ये कविताएँ तर्कणा को निरस्त करती हों. ये सिर्फ़ उसे उसका उचित स्थान याद दिलाती हैं.

उदयन वाजपेयी
udayanvajpeyi@gmail.com 

 

अनिल वाजपेयी की कविताएँ

 

1.
यह बात समझ में आये भी तो कठिनाई से

दुनिया की सभी घटनाओं-
दृश्य या अदृश्य पर
ईश्वर का लगातार नियन्त्रण होता है
सामने पड़ा पत्थर
रोटी बनने में लगातार विफल रहता है
प्यासे हम, पानी पीते हैं
और हमारा ग्रह सूर्य के गिर्द घूमना बन्द तो नहीं करता

हममें से हर एक को
हर एक मुफ़्त मिलता है
फिर दुःख आये या सुख आये
मुफ़्त हाथ आता है
दुःख असल में सुख का एक अनिवार्य पक्ष है

ये बात समझ में न आये
आये भी तो कठिनाई से
ये सब भी ईश्वर करता है
और ये कि तारा, भूतकाल से भिन्न कोई चीज़ है

जंगल में पेड़ ही पेड़ थे
जब मैं नहीं था
‘इसी’ जंगल के पेड़ों के पत्ते
ठीक वैसे हैं
जैसे मैं देख गया था
स्पष्ट है
कि ऊपर जा रहे तारों ने
अपने में से बिजली भर बहने दी,
हरा रंग नहीं.

 

२
क्या ज़रूरी था हमारा होना

क्या ज़रूरी है हम करें नौकरी
क्या इतना ज़रूरी है क्रिकेट मैच देखना
क्या बहुत ज़रूरी हम आज सोएँ ही
नहीं नहीं क़तई नहीं बिल्कुल नहीं.

आपका तो होना भी नहीं था ज़रूरी.

सत्रहवीं शताब्दी का काम चल गया न आखि़रकार
बिना आपके कुछ भी बोले, बिना आपके मौन के
बीसवीं भी रामभरोसे चल बसती
इतना भर तब लिखता ऐसा कौन.

थोड़े-से दबंग पशु बाड़ा तोड़
बहुत-सी पशुता अपने साथ लिये
थोड़े-से चिकने चुपड़े मनुष्य
बहुत-सी पशुता अपने साथ लिए
जब करेंगे प्रवेश इक्कीसवीं सदी में
हर्षित होंगे आपके न होने पर
छूट गये बाक़ी मनुष्य और शेष पशु.

जेएनयू की दीवार से

3.
दीवार पर शब्द

गुंजन की सुडौल स्वस्थ हथेलियों में
कलई पोतने वाली कुची
वैसी ही लगती है जैसे औरों के हाथ ब्रश
यह सात-आठ लोगों की टोली है
नागरिक जब सुबह जागते हैं तो
अगल-बगल की दीवारों पर
शब्द रखे मिलते हैं.

हर बुध और शनिवार
कामरेड मम्मी से आदेश पा
वे रात 11 के आसपास कलई भरी बाल्टी
छोटे बड़े ब्रश, बड़ी मेहनत से तैयार किया
लाल काला रंग छोटे बड़े डब्बों में लेकर
स्कूटर साइकिलों और पैरों पर निकलते हैं
शुरू शुरू में कहीं कहीं थोड़ा थोड़ा
रंग छलककर गिरता है.

कलई से दीवार पोतने का काम
मिश्रा जी और गुंजन के जिम्मे है
सूखकर चुपचाप वह सफ़ेद झक्क कागज में
बदल जाती है
लिखने वाले खत्री साब शर्मा जी
हेमचन्द्र पप्पू मुन्ना अमृत आदि
अक्षरों के आकार पर
थोड़ा बहुत झगड़ते हैं

पर माँगों और नारों पर वे एकमत हैं
ऊपर जिस रास्ते रंग छलककर गिरा था
उधर गुजरने वालों को बस कुछ
लाल लाल रंग-सा दिखता है

पर टोली के लोगों को लौटते हुए
सुबह 5 बजे रास्ते में पड़ा शब्द
गड़ता है ठीक वह शब्द
जो उतने रंग से लिखा जाता
उन शब्दों को रास्ते पर से उठाकर वे
झोली पड़े खाली डब्बों में नहीं भरते.

शर्मा जी ज़रूर एक शाम स्टेशनरी की दूकान पर
चार दस्ता दीवारें माँगते दिखे
फिर एक रात यह भी हुआ
कालेज के दो प्रोफ़ेसर जब दत्तचित्त
दीवार पर लिख रहे थे
तभी देर रात शायद सिनेमा से लौटते
कुछ छात्र ठिठक गये
उन दोनों ने भी प्रभाव पड़ने दिया
अगले दिन दुपहर तक
लाल रंग कुछ उड़ गया
अब शब्दों की बारी थी
वे शाम शाम तक बची हुई चमक के साथ
आते जाते लोगों की आँखों पर
अपने पूरे आकार और अर्थ सहित
पड़ रहे थे- पड़े जा रहे थे.

आज चौथी रात है
टोली में अब पन्द्रह हैं
अगली सुबह पढ़ने वालों की संख्या भी बढ़ेगी
इस तरह नगर में पढ़ने लिखने वालों की संख्या
शब्दों के साथ साथ
दीवार पर बने खतरे के निशान से
ऊपर जाने को है.

गुण्डों और दीवाली में ताज़ा पुती दीवारों
के मालिकों से तो वे बच जाते हैं
मगर रात गश्त पर निकली पुलिस जीप की
रोशनी में

शब्द धधकते हैं चलता ब्रश
थम जाता है शब्द दीवार से उछलकर
मुंह पर आ जाते हैं
वो हमारी पार्टी दिल्ली में एक जन-प्रदर्शन
करने वाली है और कुछ नहीं ये उसी के
नारे हैं ‘जागो सर्वहारा’ जैसी कुछ स्थानीय
माँगे भी हम लोगों ने रखी हैं
अच्छा-अच्छा जीप और ब्रश फिर साथ-साथ चलते हैं.

दीवार-घड़ी में पूरे बीस नारे बजकर
तीन शब्द और पाँच अक्षर का अँधेरा
सड़क पर से होता हुआ घरों में घुसकर
रात तीन बजकर सत्रह मिनिट का अन्धकार है
एक में टार्च दूसरे हाथ में कुची लिये
गुंजन दीवार पर कलई पोत रहा है

ठीक इस समय उसे किसी हमउम्र लड़की
के सपने में होना था
वो है कि अपने हिस्से की भूमिका
और अपने हाथ की कुची लिये थककर
नसेनी से उतर रहा है
दीवार सूखने में समय है
लिखने वाले आन्दोलन को आगे बढ़ाने
पर बात कर रहे हैं
अब जो नारा वे लिखेंगे
वह सुबह अस्पताल जाते हुए को
दाहिनी तरफ दिखेगा- ‘पूँजीवाद विरोधी
समाजवादी क्रान्ति ही जन मुक्ति का एकमात्र रास्ता’
उधर अस्पताल से आते हुओं के लिए
वह बाईं तरफ चला जायेगा
‘सरकार की जन विरोधी नीतियों के
विरुद्ध जन-आन्दोलनों में पुलिस हस्तक्षेप बन्द हो’

रात टोली के सदस्यों को जो शब्द
आँखों से सुनायी पड़ रहे थे
सुबह वे सबकी आँखों पर पड़ने
रात भर लगातार वहीं मौजूद रहेंगे
लिखने वाले लौटकर घर सोयेंगे
शब्दों के बारे में कह सकते हैं
जब कोई उन्हें पढ़ नहीं रहा तब
सोये हैं.

इसी बीच नगर के जानकार लोगों के सामने
एक अचरज उपस्थित हुआ

दीवार-टोली के ही कुछ लोग
शाम परचा बाँटते दिखे
कामरेड मुकर्जी का नगरपालिका सभाकक्ष में
जो भाषण हुआ उसे
छात्रों वकीलों आठ बीड़ी मज़दूरों राजनेताओं
शिक्षकों पत्रकारों ने
बहुत ध्यान से सुना
उस दिन सुबह से शनिवार था भाषण के बाद
पेट्रोमेक्स वापिस करके टोली
फिर दीवार ढूँढ़ने निकली.

नारे लिख-लिखाकर जब सब
थककर जहाँ कहीं लेट गये
आलस्य झाड़कर एक उठा
सबको मालूम है आँख खोलते ही
कालाबाज़ारियों के ‘ज’ के नीचे वह
नुक़्ता रख रहा होगा
यह वापस घर लौटने का समय है
और दीवार पर नुक़्ता रात की अन्तिम कार्रवाई है
सुबह शब्द फिर चमक दीवार पर होंगे
दीवारें लोगों के आगे आगे चली जायेंगी
अर्थ की डोर पकड़े लोग
पीछे होंगे
हम ये तो नहीं कह रहे तमाम लोग
प्रदर्शन में जायेंगे
हम तो केवल एक सही जन-आन्दोलन
के चल रहे होने की खबर प्रकाशित भर
कर रहे हैं.

 

4.
नहीं आते धड़धड़ाते एक के बाद एक मूल्यवान क्षण

देर तक निहारते रहो
फूल नहीं खिलता.

सत्तर बरस के औसत जीवन में का
बहुत सारा यूँ ही गुज़र जाता है
नहा रहे हैं तो खा रहे हैं
सो रहे हैं निढाल निःस्वप्न
तो झगड़ रहे हैं पड़ोसी से
कर रहे हैं नौकरी.

कौंधते हैं अकस्मात मूल्यवान क्षण
कौंधते हैं हर्ष के विषाद के
कर रहे होते हैं हम किसी को प्यार जब बच्चे को दुलार
भीख माँगती निरीह युवा आँखों को
देख भर ले रहे होते हैं उसके भाई की तरह
या फिर याद कर ले पा रहे होते हैं
सीता की रसोई दिवंगत माँ का झुर्री रहित
पिता का दबंग चेहरा

सबको कबाड़ लें तो भी नहीं निकलता
हफ़्ते भर से ज़्यादा का हमारा कुल होना.

ससुरे मूल्यवान नहीं आते तो नहीं ही आते
धड़धड़ाते एक के बाद एक क्षण.

फूल खिलता ही है तब
सो रहे होते हैं हम जब.

 

५.
ज़रूरत गवाह की

एक और दुनिया तलाश करो पहले एक
हाथ लगी मुफ़्त शुरू से लेकर आज तक होती हुई अभी
और किसी ग्रह के पाँच सात निवासी पकड़ लाओ उन्हें
गवाह बनाओ इस बात का यहाँ वे देख लें
हम हैं ढाई अरब लोग सबेरे सबेरे दाँत साफ़ करते हुए
बैठने से हमारा शरीर हर बार घुटने पर से मुड़ता है सीधे
तार में से होकर बिजली बहती है बेबसी नहीं
जो वियतनामी औरत के चेहरे पर मिलेगी
और अगर ढेला ठीक मारो तो चिड़िया उड़ जाता है व्याकरण की ग़लती
मिलाकर सुबह से शाम तक हमें कुछ न कुछ
करते रहना पड़ता है दोस्तों से गप्प
कप में चाय पीते हुए
अख़बार पर छपा नेता गिर जा सकता है सकते में
आना क्रिया है किसी परिचित की
चाहें तो हम आवाज़ तक याद कर सकते हैं मालूम
है अन्दर में की आँतें हमें मालूम है पर
महसूस नहीं करते हैं हाकी
एक खेल है दूसरा चालाकी
मैदान की लम्बाई नब्बे अंश का कोण बनाती है
चौड़ाई से मुहब्बत नहीं की जाती आखिर
जूलियस सीज़र रोम की गद्दी पर बैठा रहा पचास साल साला
सिनेमा नहीं देख पाया कोई ग़लती से
जो पहले छूत की बीमारी से बच गया था
अब जंग में मरता है असल में
अनाज का भाव आये दिन बढ़ता ज़रूर है
जवान होती गूँगी लड़की तक को अपने हुस्न का ग़रूर है हाल हाल में
एक हज़ार दर्शक सीज़र को सिनेमा के पर्दे पर देखते हैं मगर

क्रिकेट सिर्फ़ सात देशों के लोग खेलते हैं जहाँ जहाँ
गढ्ढे पड़ गये हैं ज़मीन पर वहाँ वहाँ
पानी भर जाता है मछली
खाने वाला आदमी कहीं भी मिल सकता है अँधेरा
सूरज उगने से पहले सूरज डूबने के बाद
हासिल होता है सिसकता हुआ
बच्चा चुप नहीं होता आसानी से
घास खुद-ब-खुद लग आती है हवा में
उछाला गया सिक्का दो तरह से गिर सकता है
दो दिन का भूखा आदमी तीन बार
कोड़े खाने के बाद सर्कस का शेर फिर भी शेर दिखता है सबको
आदमी का दर्ज़ा देने की बात चल रही है
दोनों तरह की व्यवस्थाओं में ज़ोर शोर से
पुलिस कर्फ्यू पाँच जन साथ मत खड़े हो का आदेश
चुप पड़ोसी देश पर हमले का अध्यादेश
जारी जनतन्त्र का पुराना इतिहास है मार्क्सवाद से
तरक़्की हो तो रही है नौ महीना पेट में रहने के बाद
जिसका नम्बर लगा था
राई – उसकी माँ थी
एक – उसके गला था
जो बड़ा होकर ग्रामोफ़ोन रिकार्ड पर
गाता हुआ मिलता है
यूरेनियम कहीं ज़्यादा ज़्यादा
देशों के पास अणुबम
नहीं है दो सही एक बटा तीन आँखों वाला जीव
कभी हुआ ही नहीं ऐसा मगर
सबके होती है एक एक नाक
मकान नहीं होता सबके
एक ख़ास जगह पर होता है चेहरा
जिसका मालिक हँसता है रोता है चेहरे पर
एक इधर तो एक उधर

दो आँखें एक समय पर
दो अलग अलग चीज़ें देख नहीं सकतीं
अगर सकते में आ जायें तो दो हाथ दो तरफ़
चलते हैं जाँघ पर का बाल खुद उसका
बाल होता है टेनिस का
खेल ज़रा मुश्किल है टेढ़ी मेढ़ी चीज़ हो या बातें
दूर तक नहीं
जाती हैं ट्रामें ठसाठस लोग काम पर
बीवी आराम घर पर पानी जब गिरने ही लगता है ऊपर
आसमान में छिटपुट सही बादल होना चाहिये कोई
आख़िर कोई तो पूरी तरह से जाने हमें
प्यास बीमारी का पानी इलाज बहुत पहले से मालूम है कुछ भी कहो
दूधिया रंग के बाप का कुछ भी मतलब नहीं निकलता दूधिया रंग के
चाँद की काली ज़मीन पर
जिस वक्त आर्मस्ट्रांग का क़दम पड़ रहा था
कालिन्स की बीवी ग़मगीन थी उस वक्त
भारत देश के सागर शहर की एक घनी बस्ती के चैराहे पर
रामपरसाद बढ़ई का बूढ़ा बाप हरकिसन
रेडियो सुनने की हड़बड़ी में फेंकी गयी दो जलती सिगरेटों को
टुकड़े टुकड़े सड़क पर से उठा रहा था उन्हें
ये सब बताओ फिर
ऊपर उछाल दो.

 

६
दो मिनिट का बड़प्पन

दोपहर ढाई बजे उसने उलीचे दो जीवित शिशु,
फिर रात दो बजे तक खुद को उलीचती रही.

तीन बरस दो महीने आठ दिन बाद भाई के जुड़वाँ बच्चे
आये हमारे घर.

ठण्डी हवा धूप को गुनगुना होने से रोक रही है
चमकते हैं छुटके बड़के नंगे बदन सरसों में.

छोटे-छोटे जुड़वाँ गिलासों में भर-भर के पानी
वे सींचते हैं पौधे
ज़्यादातर जो छाँह में हैं.

काँपता है मन पानी की ठण्डक से हिलते पौधे देखकर
सुदूर शाला में ताई की ऊँगली में चाक
बन्द करती है लिखना.

तभी छुटका फेंकता है बड़के पर पानी
लपकता है बड़का
गुस्से में हँसता है दो मिनिट का बड़प्पन.

 

७.
शब्ददेह

खजुराहो के मन्दिर तकते
छुटका बड़का साथ खड़े हैं
शताब्दियाँ लाँघती किलकारी एक अत्यन्त करुण मार्ग से
बदल जाने को है केलि में

एक सचमुच की थोड़ी बहुत उपलब्ध
दूसरी ताई छुटका बड़का की
तीसरी शब्दों की बनी किंचित दबंग.

मन्दिर को जब चलेगा पता
उसके कुछ नहीं पत्थर के अंग
छिटककर तुम जा गिरोगी दूर
बिखर गए शब्दों की बनाकर आँख
ढूँढ ही आखिरकार लोगी हमारी आँख.

कम से कम इस बार नज़रें झुकाने पर नहीं पाओगी
हमारी गोद में छुटका बड़का
उनके वहाँ न होने का बहुत कोमल दबाव
सचमुच की आँख को भी दीख पड़ेगा क्या.

इसी सदी में एक फेफड़े कबीर गाया कुमार ने
हल्के रंगों स्वामीनाथन ने ठेल दी आसमान में चट्टान
इसी में नेलसन मंडेला ने जवानी काटी जेल
बुढ़ापा राजभवन में.

हाँफ़ती कराहती इस शताब्दी को राहत देने
मन्दिर की विशाल छाया में
तीसरे शिखर पर से हम भी फेंक रहे हों
थोड़ी सी अपनी बड़के की बड़ी छुटके की छोटी छाया.

शब्ददेह तजकर जब हाड़-माँस की धरोगी
ताई नहीं रह जाओगी
और छुटका बड़का को किये दुलार की
एक भी खरोंच पहचानी नहीं जाएगी.

 

८
संदेह है कि संदेह नहीं

हरीसिंह गौर होने का मतलब ठीक ठीक खुद उन्हें भी पता था
इसमें सन्देह है

गाढ़ी कमाई का एक एक पैसा नाई धोबी से जिरह कर बचाते
पड़ोसियों की नज़र में कंजूस का उलाहना सहते
सन छियालीस में दो करोड़ का दान दे
बुन्देलखण्ड के पिछड़े नगर सागर में विश्वविद्यालय बनाकर
लाखों की जीवनचर्या जिस कदर बदल दी
उसका उन्हें अंदाज़ रहा होगा
इसमें सन्देह है

अंग्रेज़ी के मुक्त छन्द में कविता लिखने वाले
हालाँकि वे पहले हिन्दुस्तानी थे
पथरिया गाँव की ऊबड़ खाबड़ पहाड़ी पर
चालीस विभागों का निर्माण
असल में विविध छन्दों में रचा महाकाव्य है
इस तरह भी उन्हें कभी लगा हो
इसमें सन्देह है

ज़ाहिर है इनमें से कुछ विभाग तो छन्दबद्ध हैं
कुछ छन्दमुक्त कोई कोई गद्य-कविता जैसे
और शेष को हममें से बहुतों ने
निरे गद्य में बदल डालने की भरपूर कोशिश की है
रहे होंगे वे संविधान सभा के महत्वपूर्ण सदस्य
प्रसिद्ध विधिवेत्ता महान शिक्षाविद
पर मूलतः थे वे कवि ही

सात अगस्त दो हज़ार चार को शाम पाँच बजकर
तीन मिनट पर
या फिर तीन जुलाई दो हज़ार दस को सुबह सात बजे
दुनिया के इस हिस्से में रहने पढ़ने वाले हम
क्या कर रहे थे या फिर क्या करेंगे
बरसों पहले तय कर गये थे वे
यह कुछ इस तरह होगा उन्हें मालूम था
इसमें सन्देह है

हम सब मिलकर कुछ भी कर लें कितना भी
उनके कोमल महास्वप्न को कैंब्रिज यथार्थ में बदलने
हमेशा ही वह कम पड़ेगा
बस यही बात है एक कि जिसमें रत्तीभर सन्देह नहीं

सन्देह है कि सन्देह नहीं.
_____________________________________

(कविताएँ उदयन वाजपेयी के सौजन्य से) 

Tags: अनिल वाजपेयीउदयन वाजपेयी
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Comments 20

  1. Madhu Bala joshi says:
    4 years ago

    Apnee sapaatbayanee se stabdh kartee yeh kavitayen kahan theen ab tak?
    Der tak saath banee rahnewalee hain.

    Reply
  2. अरुण कमल says:
    4 years ago

    अनिल जी विरल कवि,गद्यकार और अध्येता थे।उनमें अद्भुत सादगी और हास्यबोध था।समकालीन कविता के सावधान पाठक उनकी विलक्षणता को जानते पहचानते थे।नमन

    Reply
  3. रमेश अनुपम says:
    4 years ago

    अनिल वाजपेयी की कविताएं एक अलग तरह की कविताएं हैं । ये एक ऐसे कवि मन की कविताएं हैं जो अपने भीतर की ताप को प्रार्थना के शिल्प में प्रकट करना जानता है। हरी सिंह गौर पर लिखी उनकी कविता चमत्कृत करती है। ’समालोचन’ ही इस तरह की अपूर्व रचनात्मक मेधा को जगह दे कर हिंदी साहित्य को समृद्ध कर सकता है । इसलिए समालोचन को बहुत बहुत बधाई।

    Reply
  4. Deepak Sharma says:
    4 years ago

    Highly philosophical and thought provoking poems.
    Thank you Arun Dev ji for presenting them here.

    Reply
  5. सुशील मानव says:
    4 years ago

    ‘क्या ज़रूरी था हमारा होना’ कविता की सदियों की राजनीति के छाये में 21वीं सदी की पूंजीवादी राजनीतिक व्यवस्था पर टिप्पणी करती है। जो उपभोग की होड़ में दौड़ा-दौड़ाकर व्यक्ति को पशु में बदल देती है।

    वहीं ” दीवार पर शब्द’ कविता वाम चेतना से संपन्न एक युवा कार्यकर्ता के बहाने मनुष्यता के हित में छोटे से छोटे अवदान का महत्व रेखांकित करती है। एक जन चेतन नारे को लिखने और लिखने के बाद लोगो के जेहन में उसकी अर्थवत्ता की निर्मिति की प्रक्रिया इस कविता को विशिष्ट बनाती है।

    ‘ नहीं आते धड़धड़ाते एक के बाद एक मूल्यवान क्षण’ 70 वर्ष के जीवन का मूल्यांकन करता आत्मबयान है।

    ”ज़रूरत गवाह की’ कविता व्यापकता लिये हुये है इसमें 21 वीं सदी की सारी विदेरूपतायें एक साथ प्रकट होती हैं की कई दृश्यों में।
    इतनी बेहतरीन कवितायें कवि के जीवित रहने न प्रकाशित हो पायीं यह दुखद है।

    Reply
  6. saloni sharma says:
    4 years ago

    आदरणीय वाजपेयी जी की कविताएं पढ़कर कुछ भिन्न ही लेखनशक्ति का ज्ञान मिलता है।बहुत बहुत आभार समालोचन

    Reply
  7. Dilip Darsh says:
    4 years ago

    वाकई अच्छी कविताएँ हैं । आपने उनकी रचनाओं को पटल पर लाकर श्लाघ्य कार्य किया है । अच्छी रचनाएँ कभी न कभी जरूर पहचानी जाती हैं । बहुत-बहुत बधाई ।

    Reply
  8. तेजी ग्रोवर says:
    4 years ago

    उदयन का आभार कोई कैसे माने? आभार जैसे शब्द आज भी पहले की तरह क्षुद्र सिद्ध हुए।

    अनिल वाजपेयी मेरे लिए रज्जन भैया थे। अगर वे न होते तो मेरी स्वयं की कविता उस रज्जन स्पेस के अभाव में थोड़ी ज़र्द रह गई होती, कमतर और रज्जन स्नेह से रिक्त और अछूती। मैं उनके इसी पक्ष से वाकिफ़ थी कि वे मेरी कविता पढ़ते थे, अपना प्यार देते थे उसे और उसी की बदौलत मुझे असीम स्नेह मिलता था उनका। मेरी कविता को इतना स्नेह शायद ही कहीं और से मिला हो।

    आज पता पड़ रहा है, मेरे रज्जन भैया, कि कुछ माह पहले अस्पताल जब आपको देखने आई थी तो आपकी आवाज़ के अभाव में आपकी आंखें मुझसे क्या कह रही थीं। “तेजी, मैं नहीं रहूँगा। अपना ख्याल रखना। और कविता का सम्बन्ध, तुम जानती हो, खून के रिश्तों से कहीं बड़ा होता है. मैं सुनता रहूँगा तुम्हें, भले ही मेरी आवाज़ तुम तक न आये”

    रज्जन भैया, आपने उस कविता के सम्बन्ध की ख़ातिर ही मुझे बताया होता कि आप भी …..

    लेकिन आप कैसे मुझसे कहते कि आप कवि हैं।

    आप तो “साहित्य के इतिहास के समानान्तर जो एक शान्त गली है उस पर निःशब्द चलते रहे” और मैं आज आपसे उस गली की कल्पना में डूबी हुई आपसे मिली हूँ।

    ये कविताएँ बुलन्दबांग नहीं हैं और केवल उसी गली में चलते हुए लिखी जा सकती थीं जिसकी ओर उदयन ने संकेत किया है।

    “दीवार पर शब्द” cortazar की महान कहानी graffiti की याद भी दिला गयी। लेकिन इस कविता में और अन्य सभी कविताओं में काव्य के जो तत्त्व हैं वे विलक्षण और दुर्लभ हैं।

    उम्मीद करती हूँ, करती रहूँगी कि आपकी समस्त कविताओं से मिलना हो पायेगा किसी दिन। उस “गली” की पावन धूल का एक कण भी मिल जाता तो!!

    कविता का असली घर वही गली है। हम सब तो पता नहीं कहाँ निकल आये हैं!

    Reply
  9. कुलजीत सिंह says:
    4 years ago

    एक साथ आदिमता और समकाल का वहन करती, अनिल वाजपेई की ये कविताएं निश्चय ही एक अनूठे बोध और राग संवेदन का संप्रेषण करती हैं। वर्तमान जीवन के साथ साथ मनुष्य के अस्तित्व मात्र को प्रश्नांकित करने का प्रयास बहुत साफ है इनमें। भाषा और शिल्प एक प्रौढ़ कवि की प्रतिभा का सूचक है।

    Reply
  10. Anupama says:
    4 years ago

    समृद्ध करने वाला अनुभव इन कविताओं से गुजरना।
    संग्रहणीय!

    नमन उनकी रचनाशीलता को।
    साधुवाद समालोचन।

    Reply
  11. दया शंकर शरण says:
    4 years ago

    पत्थरों के बीच कब किसी को कहीं हीरा पड़ा मिल जायँ, कुछ पता नहीं होता। मृत्यु ने उन्हें छीन लिया।शायद तभी इनमें से कुछ अपरिष्कृत रूप में हैं। पर जो कुछ हैं उसका श्रेय कवि के अलावे उदयन जी का है।इस सागर से कुछ मोती मैंने भी इकठ्ठे किए –जंगल में पेड़ ही पेड़ थे जब मैं नहीं था/ये अब भी ठीक वैसे ही हैं जैसे मैं देख गया था…क्या जरूरी है हम करें नौकरी/क्या इतना जरूरी है क्रिकेट मैच देखना/आपका तो होना भी नहीं था जरूरी….. अगले दिन दुपहर तक लाल रंग कुछ उड़ गया/अब शब्दों की बारी थी/गुंजन दीवार पर कलई पोत रहा है/ठीक इस समय उसे किसी हमउम्र लड़की के सपनों में होना था…… देर तक निहारते रहो/ फूल नहीं खिलता/सत्तर बरस के औसत जीवन में का/बहुत सारा यूँ ही गुज़र जाता है/नहा रहे हैं तो खा रहे हैं/फूल खिलता ही है तब/ सो रहे होते हैं हम जब-। अनिल वाजपेयी की कविताओं के लिए उदयन जी एवं समालोचन को बधाई !

    Reply
  12. Dr.pratibha sowaty says:
    4 years ago

    उनकी अब यादें ही शेष हैं…. जो कभी खत्म नही होंगी …. आभार उदयन जी

    Reply
  13. शिव किशोर तिवारी says:
    4 years ago

    पहले तो आपको और उदयन जी को बधाई और धन्यवाद की इन कवि से परिचित कराया। हिन्दी में मार्क्सवाद का पूर्ण वर्चस्व होने के बावजूद यह कवि अदृश्य रह गया इस पर आश्चर्य है। हो सकता है कि उनकी शैली – जिसे हिन्दी की मार्क्सवादी परम्मरा में कलावाद कहा जाता है- इसका कारण रही हो।

    अब प्रत्येक कविता के बारे में कुछ कहना चाहता हूँ –

    1. पहली कविता को पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे कुछ शब्द टंकण के दौरान छूट गये हों। इसी तरह सोलहवीं पंक्ति में ‘ तारा’ के बाद का अर्धविराम (,) कविता को समझने में बाधा सृष्ट करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कविता इस काल में ईश्वर की सत्ता में विश्वास करने की द्विविधा के बारे में है। विराट् सृष्टि के संदर्भ में धूलिकण सी पृथ्वी और उसके मानव निवासियों के लिए यह समझना कठिन है कि सृष्टि कैसे संचालित होती है। तारों में बिजली दौड़ाने वाला मानवीय उपक्रम उन पेड़ों की हरियाली को वहन नहीं कर पाता जो किसी और ही तत्त्व से नियमित होते हैं। मनुष्य इस समय तक इस स्थिति में नहीं पहुँचा कि वह इस सत्ता को अस्वीकार करे। साथ ही सभ्यता के विकास में मनुष्य जहां अब खड़ा है वहां हे इस सत्ता का स्वीकार भी अतार्किक लगता है –

    “यह बात समझ में न आये/आये भी तो कठिनाई से”

    2. ‘क्या जरूरी था हमारा होना’ मानव जाति के बड़े अंश की व्यर्थता के सम्बंध में है। यह व्यर्थता हाशिये पर रहने वाली, शक्तिहीन, शब्दहीन बहसंख्यकों के जीवन का सत्य है। फिलहाल मानव अर्थव्यवस्था और जीवनदृष्टि पर जिस वर्ग का वर्चस्व है वह इस अनुपयोगी बहुजन को साथ नहीं लेना चाहता क्योंकि यह उसके गले का ठकरा (गायों के गले में लटकाया जाने वाला एक काठ का टुकड़ा जो गाय को तेज भागने से रोकता है) है जो प्रगति की राह में एक रोड़ा है। बीसवीं शताब्दी के आखिरी दशकों में जिस विचारधारा ने सारे विश्व को अपनी गोद में बैठा लिया, उसका आंतरिक तर्क ही उन लोगों के पक्ष में है जो जुझारू, आत्मकेन्द्रित, संसाधनों पर कब्जा जमाने में समर्थ और पशुओं की तरह ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ के सिद्धांत को आत्मसात् कर चुके हैं। “छूट गये मनुष्य और शेष पशु” जो बीसवीं सदी में ही छूट जायेंगे वे “हर्षित होंगे”। इसका अर्थ यह है कि बहुजन की की तार्किक परिणति या तो इस अर्थव्यवस्था से कट जाना है, या फिर मृत्यु।

    3. यह कविता वर्णनात्मक है। इसमें कुछ लोग समाजवादी क्रांति के नारे दीवारों पर रात के अंधेरे में लिख रहे हैं।
    एक बार पुलिस आ जाती है। यह स्पष्ट नहीं है कि पुलिस नारों को मिटा जाती है या लड़कों की बात सुनकर चली जाती है। यह अस्पष्टता पुन: टंकण-त्रुटि का परिणाम लगती है।”अच्छा- अच्छा जीप और ब्रश फिर साथ-साथ चलते हैं”- इस पंक्ति में कोई विराम या उद्धरण चिह्न नहीं है। फिर भी लगता है कि पुलिस केवल ‘अच्छा-अच्छा’ कहकर संतुष्ट हो चली जाती है। लड़के फिर दीवारों पर लिखने लगतै हैं। उन्हें विश्वास है कि लोग, विशेषत: युवा इन नारों को कभी न कभी हृदयंगम करेंगे। तब तक नारे लिखते जाना है और समाजवाद की अंतिम विजय के स्वप्न को निराश होकर भूलना नहीं है।

    ” दीवार घड़ी में पूरे बीस नारे बजकर/तीन शब्द और पांच अक्षर का अंधेरा” ये दो पंक्तियां उलटबांसी-जैसी हैं जिनका अर्थ मुझे समझ में नहीं आया।
    कविता में में दो बार ‘कुची’ शब्द आता है। यह त्रुटिपूर्ण है। कूची या कूँची होना चाहिए था।

    तेजी जी को ‘ग्रैफिटी’ नाम की कहानी बेकार ही याद आई। उस कहानी में दमनशील सत्ता की उपस्थिति जितनी छाई रहती है वह इसमें कहीं नहीं है। इस कविता में पुलिस एक बार प्रकट होती है और लड़कों के झूठे स्पष्टीकरण को सच मान बेवकूफों की तरह चली जाती है। ‘
    ग्रैफिटी’ के दो चरित्र – एक पुरुष और एक स्त्री – हैं। यदि कामरेड मम्मी महिला हों तो नहीं कह सकते, वरना इस कविता में सारे पात्र पुरुष हैं।

    मेरे हिसाब से इस कविता की गुणवत्ता मध्यम से ज्यादा नहीं है।

    4. चौथी कविता औसत व्यक्ति के जीवन की व्यर्थता के बारे में है। वह ऐसा कुछ भी नहीं कर पाता जिसे मूल्यवान कहा जा सके।
    पहली दो और अंतिम दो पंक्तियों के बीच ‘ पैरेलेलिज्म’ और ‘ऐंटीथीसिस’
    की सुंदर झलक दिखती है। सरल संरचना के कारण यह कविता अत्यंत पठनीय है।

    5. ‘जरूरत गवाह की’ ऐबसर्डिस्ट सांचे की कविता है। इसमें कल्पना की गई है किसी और ग्रह के लोग यदि हम पृथ्वीवासियों के क्रिया-कलाप के गवाह बनें तो वे समझ पायेंगे कि हमारे व्यक्तिगत जीवन से संसार के सामूहिक जीवन तक कितनी असंगतियां और व्यर्थताएं फैली हुई है। असंगति के उदाहरण के रूप में आर्मस्ट्रांग के चंद्रमा पर उतरने की घटना का उल्लेख है। केवल आर्मस्ट्रांग की जय-जय हो रही है और काॅलिंस, जो उसी दल में था परंतु जिसे यान में रहने का कार्य दिया गया था, अनजाना रह जाता है। चांद पर उतरने की खबर सुनने की उतावली में दो लोग आधी पी हुई सिगरेटें फेंक जाते हैं। बूढ़ा हरकिसन उन टुकड़ों को इकट्ठा करता है। वह चंद्रमा पर मानव के उतरने की घटना से या तो बेखबर है या उसके प्रति निर्लिप्त।
    ऐबसर्डिटी के उदाहरण पूरी कविता में व्याप्त है। इसके अतिरिक्त ‘एनजैम्बमेंट’
    (एक बात को दो या अधिक पंक्तियों में पूरा करना) के प्रचुर प्रयोग के कारण भी कविता कुछ दुरूह हो गई है। उदाहरण –

    ” आना क्रिया है किसी परिचित की/चाहें तो हम आवाज भी याद कर सकते हैं मालूम /है अंदर में की आंतें हमें मालूम हैं पर/ महसूस नहीं करते हैं हाकी/
    एक खेल है दूसरा चालाकी”
    यहाँ एक वाक्य पहली पंक्ति के ‘किसी परिचित की’ से एक वाक्य आरंभ होता है दूसरी पंक्ति में पूर्ण होता है। फिर दूसरी पंक्ति के अंत में ‘मालूम’ शब्द से एक वाक्य आरंभ होता है। इसी तरह चौथी पंक्ति में अंतिम शब्द ‘हाकी’ से नया वाक्य शुरू होता है।

    कविता दुरूह परंतु आकर्षक है।

    यह टिप्पणी लंबी हो रही है, इसलिए यहीं समाप्त करता हूं। कुल मिलाकर, कविताओं ने मुझे प्रभावित किया।

    Reply
  14. Mithlesh Sharan Choubey says:
    4 years ago

    अध्यापन, वक्तव्य, गायन में रोचक-गहन-सूक्ष्म तत्त्वों से समृद्ध श्री अनिल वाजपेयी युवा रचनाकारों को सदैव प्रोत्साहित करते रहे। सार्वजनिक रूप से जितने बेबाक, कवि होने को लेकर उतने ही शान्त। उनकी कविताएँ निजी और सार्वजनिक के बीच की दूरी का उल्लंघन हैं। उनमें कवित्व के विरल होने के जोखिम की हद तक वर्णन का दोटूकपन है, लेकिन भाषिक कौतुक की सहज उपस्थिति सघन रसानुभूति देती है।
    हम शीघ्र ही उनकी कविता व गद्य के संयुक्त संग्रह को प्रकाशित कर रहे हैं,
    जिसमें उनकी कुछ अनूठी कविताएँ पढ़ने मिल सकेंगी साथ ही उनके वे लेख भी जो विचार, विश्लेषण, विट का ध्यानाकर्षी साक्ष्य हैं।
    शुक्रिया अरुण जी।

    Reply
  15. रुस्तम सिंह says:
    4 years ago

    ये कविताएँ हिन्दी में अब तक लिखी गयी और आज भी लिखी जा रही सभी कविताओं से भिन्न हैं और इसलिए पूर्णतया मौलिक हैं। कही-कहीं लगता है कि शिल्प में सुधार होना चाहिए या कुछ सम्पादन होना चाहिए। लेकिन ये कविताएँ शिल्प से बड़ी हैं और उसकी माँगों की परवाह किए बग़ैर आगे बढ़ती जाती हैं, उससे ऊपर उठ जाती हैं, और तब भी गहन बनी रहती हैं। इन कविताओं में प्रचलित और चलताऊ कुछ भी नहीं है, जिससे कोई-कोई कवि ही बच पाता है। इन कविताओं को बहुत पहले प्रकाशित होना चाहिए था।

    Reply
  16. ध्रुव शुक्ल says:
    4 years ago

    सागर विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए अनिल वाजपेयी से दोस्ती हुई। उन दिनों हिंदी विभाग से ‘ तेवर ‘ पत्रिका का संपादन गोविंद द्विवेदी करते थे। उसमें एक लंबी कविता अनिल जी की भी छपी थी और खूब चर्चित हुई। वे कवि गोष्ठियों में भी बहुत संकोच से कविता सुनाते थे। कम लिखी हैं पर उनमें जो व्यंग,विद्रूप और विट का तत्व एक साथ है वह अभी के अनेक कवियों की अभिव्यक्ति में ढूंढ़े नहीं मिलेगा। ये कविताएं पढ़कर मुझे अपने शहर की याद भी ताज़ा हुई।

    Reply
  17. Sangeeta Gundecha says:
    4 years ago

    हिंदी साहित्यिक – समाज की भंगिमाओं से दूर अनिल वाजपेयी यानि रज्जन भैया की ये कविताएँ वक्रोक्ति का अचूक उदाहरण हैं। यूँ तो विनोद कुमार शुक्ल हिन्दी में वक्रोक्ति के सबसे बड़े लेखक कहे जा सकते हैं और उनके प्रभाव में बाद के कई लेखकों ने उसका इस्तेमाल किया पर अनिल वाजपेयी की भाषा में उससे भिन्न किस्म की वक्रोक्ति देखने को मिलती है। वे कारकों के कल्पना शील प्रयोग से वक्रोक्ति पैदा करते हैं।

    उनका स्मरण करते हुए लगातार जो शब्द मेरे मानस में घूम रहे हैं, वे हैं; बड़प्पन, बेचैनी, तीक्ष्णता और सदाशयता। इन सबका समावेश करने से ही उनकी छवि पूरी हो पाती है , जो उनसे परिचित थे, वे यह भलीभाँति जानते हैं। जैसा कि उदयन जी ने लिखा है, वे अद्भुत शिक्षक भी थे। संयोग से मैं उस दिन सागर में थी, जब वे डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय से सेवा मुक्त हो रहे थे। मुझे पता चला, उन्हें बताए बिना मैं वहाँ पहुँच गयी, जहाँ एक बड़े-से सभागार में उनका विदाई समारोह चल रहा था। बैठने के लिए बिल्कुल भी जगह नहीं थी। अनेक विद्यार्थी खड़े हुए थे। विद्यार्थियों का अपने वक्तव्यों में उनके प्रति अपार-आदर भाव देखकर मैं विस्मित थी। अन्त में छात्रों के ही बहुत अधिक आग्रह करने पर उन्होंने सहगल का एक गीत गाया था। रज्जन भैया ने ही बताया था कि जब वे पढ़ते थे, तब सहगल के रेडियो पर सुबह सुबह गीत सुनकर जाने के कारण उनकी एक कक्षा रोज़ छूट जाया करती थी

    उनके निबन्धों और कविताओं की क़िताब उनके विद्यार्थी हिंदी कवि मिथिलेशशरण चौबे कर रहे हैं, यह जानकर गहरी सांत्वना मिल रही है।

    Reply
  18. Anonymous says:
    4 years ago

    डा.नंदिनी नाथ
    केवल एक शब्द “अनुपम”
    छंदमुक्त रचनाएँ भावों, संवेदनाओं और अनुभवों का “ अनुपम” संगम

    Reply
  19. onkar kedia says:
    4 years ago

    अच्छी कविताएँ

    Reply
  20. डाक्टर चंचला दवे says:
    4 years ago

    आपका आभार,आपने रज्जन भैया की कविताओं को इस पटल पर रखकर,नकेवल उन्हे श्रध्दांजली दी है,अपितु हम सबको अच्छी कविताएं पढने का सौभाग्य प्रदान किया.
    हमारे आत्मीय आप सब है,
    डॉ चंचला दवे

    Reply

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