कहानी और विचार अंजली देशपांडे |
1963 में आई फिल्म ‘दिल एक मंदिर’ में मीना कुमारी पर हसरत जयपुरी का एक मधुर गीत फिल्माया गया था, “हम तेरे प्यार में सारा आलम खो बैठे, तुम कहते हो कि ऐसे प्यार को भूल जाओ.” उसके एक अंतरे की पंक्तियाँ हैं, “पंछी से छुड़ा कर उसका घर तुम अपने घर पर ले आए, यह प्यार का पिंजरा मन भाया हम जी भर भर कर मुस्काए, जब प्यार हुआ इस पिंजरे से तुम कहने लगे आज़ाद रहो, हम कैसे भुलाएं प्यार तेरा”
इस अंतिम पंक्ति में ‘तेरा’ को ‘मेरा’ या ‘अपना प्यार’ कर दें तो पितृसत्ता की पूरी दास्तान लिख दी जाए.
अनुराधा सिंह की कहानी ‘पानी से न लिखना पत्थर पे कोई नाम’ ठीक इसी थीम पर शुरू होती है. यह एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो अपने पति के प्रेम में आकंठ डूबी उससे उतना ही आत्मविस्मृत प्यार पाने की लालसा में जीती है जो वह खुद महसूस करती है और रोज़ रोज़ की निराशा के बाद भी हथेली फैलाए रखती है. अगर कहानी ने इस थीम को ही अपना उद्देश्य रखा होता तो बेहद प्रभावकारी बन सकती थी.
विचारों की स्पष्टता के अभाव में कहानी ने अपना पैनापन तो गंवाया ही एक बेहतरीन कहानी की संभावना को कुचल दिया. इसी तरह अलग अलग विषयों पर संभावनाओं से भरपूर अनेक कहानियाँ वैचारिक स्पष्टता के अभाव में भाषाई सौष्ठव के बावजूद उत्कृष्टता का स्तर छूते छूते रह जाती हैं.
मैं तीन ऐसी ही कहानियों की चर्चा करना चाहती हूँ जिनके विवरण ज़बरदस्त हैं, खुद बहुत कुछ कह जाते हैं फिर भी वे अच्छी कहानियाँ नहीं बन पाई हैं. तीनों में ज़बान की खूबसूरती है, अंदाज़े बयां दिलचस्प है, कुछ हद तक ध्यान को अपनी गिरफ्त में भी रखती हैं लेकिन अंत तक आते आते वे साधारण सी रह कर निराश कर जाती हैं. पहली कहानी है ‘हंस’ के सितंबर 2023 अंक में छपी अनुराधा सिंह की ‘पानी से न लिखना पत्थर पे कोई नाम’. दूसरी है आकांक्षा पारे काशिव की ‘ठेकेदार की आत्मकथा’ जो 2018 में ‘हंस’ में जुलाई में छपी और जिसपर अभी अक्तूबर में ऑनलाइन चर्चा हुई. तीसरी कहानी है किंशुक गुप्ता की ‘रहस्यों के खुरदुरे पठार’ जो उनके कहानी संकलन ‘ये दिल है कि चोर दरवाज़ा’ में है जिसे पुस्तक समीक्षा करते समय मैंने हाल ही में गौर से पढ़ा.
तीनों ही कहानियों में कच्चे माल की कोई कमी नहीं है फिर भी वास्तुशिल्पी की परिकल्पना में ही इसका सही नक्शा ना हो तो भवन बनता कैसे?
(एक) |
पानी से न लिखना पत्थर पे कोई नाम
अनुराधा सिंह की कहानी का “पानी से न लिखना पत्थर पे कोई नाम” शीर्षक ही स्पष्ट कर देता है कि प्रेम की सदानीरा को ऐसे पुरुष की पीठ पर नाम लिखने से निजात पा लेना चाहिए जो उसके स्पर्श की नरमी को नहीं उसके साथ आई नाखूनों की खरोंच को ही महसूस करेगा. कहानी ऑर्थोपिडिक सर्जन पति की ज़बानी सुनाई गई है और इसका कहन शुरू में बेहद प्रभावशाली है. पति के खीझ भरे बयान में अनुराधा सिंह एक ऐसी स्त्री का विश्वसनीय चित्र खींचती है जो असुरक्षित सी रहती है, पति से हर वक्त सुनते रहना चाहती है कि वह उसे प्यार करता है, उसके आलिंगन में बंधी जीना चाहती है, खुद पर उसका भरोसा इतना कम है कि हर पल पति को रिझाने की सोचती रहती है, तरह तरह से उसके जीवन का अभिन्न अंग बने रहने का उपक्रम करती रहती है. मिनटों में स्वादिष्ट व्यंजन तैयार करके उदर और जिह्वा के रास्ते उसके दिल में प्रवेश चाहती है. यह प्रेम ही उसका रोग है.
कहीं भी बाहर जाने पर वह पति की पीठ पर उंगली से नाम लिखती रहती है. नाम भी अपना नहीं, पति का लिखती है जो लाख आग्रहों के बाद भी प्रेमी बन नहीं पाया, बनना चाहता ही नहीं था. “वह प्यार के पानी से मेरी पत्थर पीठ पर मेरा ही नाम लिखती रहती, मैं सामने सड़क और दुकानें ताकता रहता, फोन चेक करने लगता, किसी भी बात पर चिड़चिड़ाने लगता”, वाचक कहता है. ऐसा तो हुआ नहीं होगा कि बीवी को यह कतई समझ में ना आता हो पर वह अपनी फंतासी में ही जीती रही होगी कि विरोध नहीं है तो हामी ही होगी. “एकाध बार उसके इस खेल का संज्ञान लेते हुए मैंने एक संक्षिप्त, कृपण मुस्कान-सी कुछ कुछ उसे लौटानी चाही, पर वहाँ तो बहुत अनुराग भरी दो आँखें थीं…यूं अधिकांश बार मैं इस खेल से अप्रभावित रहता”. अनुराग के बदले एक कृपण मुस्कान से खुद को भुलावे में रखती स्त्री क्या कर सकती है, सिवाय और भी कोशिश करने के?
आत्मविस्मृति की हद तक पहुंचा यह प्यार पति को अपने अस्तित्व से ऊपर रखते हुए आत्मरक्षा के नैसर्गिक नियम तक को खारिज करती, प्यार को जीवितावस्था में मौत का पर्याय बना देती है, जिसमें रोज़ खुद को धीरे धीरे मारती औरत इस आस का दीप जलाए रखती है कि कल जब वह अपना एक और हिस्सा मन मंदिर के देवता को समर्पित करेगी तो वह प्रार्थना को स्वीकार करके प्रसाद देगा चाहे वह एक कृपण मुस्कान ही क्यों ना हो!
अनुराधा सिंह की नायिका, ‘बीवी’ ऐसी स्त्री है जिसके लिये बाहरी दुनिया का बिखराव अर्थहीन है क्योंकि उसके भीतर प्यार का एक तरतीबवार संसार है जिसमें एक ही आदमी है, उसका पति अमिताभ. अच्छा होता कि लेखिका ने इसे महज बीवी रहने दिया होता, कोई नाम ना दिया होता, तब तो यह और प्रतीकात्मक बन जाती लेकिन इसका नाम बाद में आ ही जाता है, मधु. शहद! शुरू में वह पति को मँगोल राजकुमारी लगती थी, जिसकी तिर्यक आँखों और विषाक्त नीले होंठों पर वह फिदा हुआ था. उसे उन नीले होंठों का वही विष चाहिए, यह मधु नहीं जो रोज़ रात को ‘आवारा पिल्ले-सी मेरे अंक में घुसकर’ सोती रही. वह पत्थर बना ही रहा. वाचक कई बार खुद के पत्थर बने रहने की बात करता है. दैहिक सुख उसे मिलता रहा पर इन सौगातों का वह क्या करता जब घर अव्यवस्थित ही रहता और बिचारे को अपने कपड़े सहेज कर खुद ही अलमारी में रखने पड़ते?
मधु कोई भी घरेलू काम मनोयोग से नहीं करती, जेनोमिक्स में डिग्री हासिल करने के बाद भी पति से पल भर भी ना बिछड़ने के आग्रह (दुराग्रह) के चलते छोटे कस्बे में रहने चली आती है, जो अमिताभ को पसंद नहीं आता, वह तो दूर रहकर कभी कभी मिलने के हक में है. दो बच्चों को जन्म देने के बाद भी मधु का यह अत्यधिक लगाव कमज़ोर नहीं पड़ता. बड़े शहर में आने पर वह विशेष क्षमता वाले बच्चों को पढ़ाने लगती है जिससे किसी को सहारा देने की उसकी अतृप्त इच्छा को कुछ राहत मिले, आखिर खुद तो वह सहारा ही खोज रही है पति का.
“वह चाहती कि मैं उससे ऐसा प्रेम करूँ जैसा और किसीसे नहीं करता. और ऐसा प्रेम करना लौंडों को किसी औपचारिक, अनौपचारिक, सिलेबस में नहीं सिखाया जाता,” पति का यह कथन सिर्फ पत्नी का नहीं प्यार की भावना तक का तिरस्कार है. अब तक उसके पुरुष दोस्त ही रहे थे, जो फौरी ज़रूरत लायक खुलें और “जब तक चाहो उनके साथ लफंदरी कर लो, कोई जवाबदेही नहीं”. अब यह स्त्री घर में आ गई है जिसे रोज़ खोलना पड़ता है, जिसकी बातें घर में बउआ के बालों की तरह उड़ते रहते हैं. और पति परमेश्वर की कितनी जवाबदेही भी है कि “मैं पान की दुकान तक भी जाता तो वह मेरा इंतजार करती मिलती”. यह बीवी चाहती है कि वे “रविवार को घर में रहें, खूब बातें करें, शाम को भी बाहर जाएँ, बातें करें, घर लौट कर प्यार करें और बातें करते करते सो जाएँ”. बीवी की रूमानियत की शिकायत करता वाचक अपना भी परिचय इसी तरह सहजता से जाता है जिससे औरत और मर्द के बीच की स्वभावगत दूरियाँ साफ होती जाती हैं. इसके विवरण प्रेम नाम के इस रोग के सारे लक्षणों की फेहरिस्त सी बनकर उसका निदान करते चलते हैं.
स्त्रियाँ लंबे अरसे तक पितृसता की कैद भोगती रही हैं, प्यार नाम की बीमारी न होती तो वे कैसे इस कैद को झेल पातीं? इसी प्यार के पिंजरे में वे खुद ही तराश कर भावना, सेवा, भक्ति और दैनंदिन सुविधाओं के छोटे छोटे रत्न जड़ती रहती हैं जैसा कि यह बीवी करती है. बस वह अपनी कल्पनाओं में डूबी घर को व्यवस्थित नहीं रखती.
पति को तो घर सुव्यवस्थित चाहिए, यह दिन रात प्यार के इज़हार के नए नए तरीके खोजने वाली ‘पालतू बिल्ली’ सी उसके चारों ओर घूमने वाली औरत नहीं जो किताबों में डूबी रहती और शायद वहीं से प्यार के इज़हार की नई तरकीबें हासिल करती रहती. “अपने बेपरवाह प्रेमी के घर में घुसते ही पल भर में उसके नरक को स्वर्ग बना देने वाली लड़कियां… मेरी बारी आने पर जाने कहाँ मर-खप गईं सारी की सारी”, उसकी पत्नी से अपेक्षाओं को साफ करता है.
अनुराधा की नायिका और कुछ करे न करे चटपट पति के लिये सुस्वादु खाना जरूर बना डालती है. बाकी कोई काम उसके बस का नहीं है. शायद हर समय वह फंतासी में जीती है. ऐसी स्त्री घर को कैसे सजा संवार कर रख सकती है? उसकी भावनात्मक ऊर्जा की बेचैनी उसे एक जगह टिक कर काम करने दे तो वह धुले कपड़ों को तहाए, या इस्तरी होके आए कपड़े अलमारी में जमाए. उसे तो घड़ी घड़ी प्रेम संदेश भेजने हैं. वह जिनोमिक्स नहीं करना चाहती जहाँ उसे प्रेम की अभिव्यक्ति का स्थान ना मिले शायद. उसके भीतर प्रेम का अथाह सागर ठाठें मार रहा है और इसे खास बच्चों पर उँड़ेलने का रास्ता भी उसने खोज लिया है.
कहीं अवचेतन में उसके, यह धारणा सुलगती रहती है कि बाहरी दुनिया व्यवस्थित है कि नहीं इससे क्या फ़र्क पड़ता है, इसकी ज़रूरत भी क्या है? “तुम्हें जाने क्या क्या चाहिए, मुझे तो बस तुम्हारा प्यार चाहिए”! उसे लगता होगा कि ‘प्यार’ शब्द वाह्य जगत को अदृश्य कर देगा. बच्चन की कविता के शब्द उधार लें तो हथेली पर लिखे ‘प्यार’ शब्द का अंगार बाहरी दुनिया को भस्म ही कर देगा.
पुरुष की फितरत है आज़ाद रहना, यही उसकी परंपरा है. स्त्री का ऐसा का काबिज़ करने वाला प्यार शुरू में कामुक प्रेम की अभिव्यक्ति के रूप में उसे लुभाता तो है लेकिन जल्दी ही यह उसे अपनी आज़ादी पर अनधिकार हस्तक्षेप लगने लगता है. इतना समय उसे रिझाने में व्यर्थ गँवाने के बजाय वह घर को क्यों सुंदर नहीं रखती? उसकी यही भूमिका है तो उसे क्यों नहीं निभाती?
वह एक बुद्धिमान पुरुष भी है शायद, उसे गुलाम नहीं चाहिए, इस तरह की गुलाम जो हर पल उसकी पुतलियों में सजना चाहे. गुलाम पर वह दया कर सकता है, उससे प्यार कैसे करे? कामुकता के पलों में उसकी मुलायमियत काफी है, पूरे जीवन को वह इस तरह कैसे डुबो दे उस प्यार में जो सब कुछ लील जाना चाहती है?
स्त्री पुरुष के बीच की यह दूरी, उनके अलग-अलग समाज-निर्मित अपेक्षाओं और स्वभावों का अनुराधा बहुत सुंदर विवरण देती है.
अंततः स्त्री इससे निजात पाएगी ही. यही उसका प्रारब्ध है. क्योंकि यह किसी व्यक्ति की लत है, किसी पदार्थ की नहीं और व्यक्ति की प्रतिक्रियाएं कभी ना कभी इसका निवारण कर ही देंगी. पति की उपेक्षाओं और खीझ की फटकार अंततः उसे दूर धकेलेगी. उसकी लत छूटेगी. असामान्य जीवन कब तक चल सकता है. उसे कोई और मिल ही जाएगा. यही इस कहानी की ताकत थी अगर इसमें एडीएचडी जैसे अनावश्यक मनोरोग को लाकर लेखिका इसे नया मोड नहीं देतीं. इस शब्द के साथ ही कहानी फलक से ज़मीन पर आ गिरती है. अब तक जो कहानी पितृसत्ता-पोषित स्त्री पुरुष के भिन्न संस्कारों में स्त्री की दासता और उसके सुंदर संज्ञा ‘प्यार’ की मीमांसा थी वह अचानक एक औरत की कमज़ोर कहानी बन जाती है.
यहाँ से कहानी अपनी विश्वसनीयता खो देती है. बेटा अभय उसके इस रोग को पहचान गया है, एक जानकार डॉक्टर के पास ले गया है, पिता को फोन करके इसकी खबर देकर कहता है कि माँ को अब कुछ मत कहना! यह भी कि वे पहले से अपने इस मनोरोग के बारे में जानती थीं. और अब डॉक्टर पति का कहना है, “एडीएचडी के लक्षणों को पहचानना बहुत मुश्किल नहीं….अति सक्रियता, अनियंत्रित संवेगशीलता, आवेगपूर्ण व्यवहार, विचारों और रहन सहन में अव्यवस्था व अस्त व्यस्तता, कैसे छिपाया होगा बीवी ने यह सब?” छिपाया होगा! सब कुछ तो सामने घट ही रहा था, उसने क्या छिपाया? कोई रोगी कब तक छिपा भी सकता है, वह भी डॉक्टर से? शायद इसलिए कि वह पत्थर था जिसने उसे देखा ही नहीं.
इसके बाद इलाज का असर होने लगता है, अब खाना सुस्वादु नहीं ठीक-ठाक बनता है, घर भी कुछ संभल जाता है. वह उसे सीधे संबोधित भी नहीं करती, दैहिक संबंध के अंतरंगतम क्षणों में उसका साथ नहीं देती, उसे बस सह लेती है. उसने बाल छँटवा लिये हैं. मधु का कायाकल्प हो गया है, भीतर से बाहर तक. शादी की रीत निभती रहेगी पर अब उसने पिंजरे से उड़ान भर ली है, लौट कर आएगी, सुरक्षित स्थली में सोने को पर बाहर के सारे रंग बटोर कर, मन में सँजो कर, आज़ादी का पूरा सुरापान कर! अब उसके मन में किसी और से ही संवाद चल रहा है. जब वह फोन घर में भूल कर निकल जाती है तो संस्थान की महिला का संदेश पत्थर पढ़ता है कि “घर में सब ठीक तो है ना, मधू. पाँच दिन से कोई खबर नहीं!” पूरे पाँच दिन वह कहाँ जाती रही?
मानव स्वभाव इस तरह अचानक और इतना नहीं बदलता. ज़ाहिर है कि अब उसे कोई और मिल गया है. उसकी लत नहीं छूटी, उसे किसी और की लत लग गई है. इसका बहुत ही सूक्ष्म संकेत कहानी में है. जब मधु खाना खाते हुए पति की बात का जवाब नहीं देती, मंद मंद मुस्कुरा रही होती है, साफ हो जाता है कि उसके अंदर से पति विस्थापित हो चुका है, किसी और को वह जगह मिल गई है!
अब पत्थर को पानी चाहिए!
काश इसमें एडीएचडी न होता.
यह समझ में नहीं आता कि अनुराधा सिंह ने ऐसा क्यों किया? क्या पितृसत्ता में स्त्री पुरुष के बीच की अलंघ्य दूरी का ऐसा विवरणात्मक उद्घाटन उन्हें काफी नहीं लगा? या अन्य पुरुष या संभवतः स्त्री का संग पा लेना उनकी नायिका के चरित्र पर उन्हीं को आक्षेप लगा जिससे वे कतरा गईं इसलिए इस नए रूमानी प्रेम को उन्होंने ऐसे अत्यंत सूक्ष्म संकेतों में बयान किया है कि नज़र से छूट ही जाए! या आज का हर मसले को मेडिकलाईज़ करने का बढ़ता चलन या ट्रेंड उन पर हावी हो गया. कुछ लोग करीने से रहते हैं, कुछ बिखरे बिखरे रहते हैं, इसे क्यों थेरपी की ज़रूरत है? इसमें अटेन्शन डेफ़िसिट हाईपर एक्टिविटी डिसॉर्डर को घुसाने की क्या जरूरत थी?
कहानी में पति की चुप्पी, उसके रीस्पान्स का अभाव पितृसत्ता से संवाद की कोशिश में उस पक्ष से मिल रही अभेद्य सी चुप्पी की दीवार का प्रतीक बन कर उभर सकती थी लेकिन लेखकीय धारणाओं की कमज़ोरी कहानी की कमर तोड़ देती है. बेटा माँ की बीमारी को पहचान कर पिता से बहसता नहीं हॉस्टल जाकर फोन करता है. यह सब इतनी हड़बड़ी में किया गया है कि नामुमकिन लगता है.
माँ के इस अदम्य प्यार के प्रति पिता की उपेक्षा देखते हुए पले बेटे को पिता का प्रतिवादी और नई पीढ़ी में संवेदना के नवांकुरण का संकेत भी तो बनाया जा सकता था. वह माँ के कान में मुक्ति का मंत्र भी फूँक सकता था. इस नई पीढ़ी के ज़रिए एक नई और बेहतर दुनिया के आगाज़ का आशावादी अंत भी हो सकता था. यह भी कहा नहीं जा सकता कि यह तमाम संभावनाएं चूक गईं क्योंकि यह कहानी की कोख में हैं ही नहीं.
पितृसत्ता के वास्तविक और पूरी तरह संवेदनहीन अचल चरित्र का एक पत्थर की ज़बानी रहस्योद्घाटन क्या अभिव्यक्ति का इतना बड़ा खतरा था जिसे अनुराधा उठा नहीं पाईं? सवाल बेमायने है पर है तो. एक बड़ी कहानी छोटी हो गई इसमें कोई शक नहीं.
(दो) |
ठेकेदार की आत्मकथा
आकांक्षा पारे काशिव की कहानी ‘ठेकेदार की आत्मकथा’ भी लेखकीय धारणाओं की अस्पष्टता की शिकार हो गई है. आकांक्षा के पास भ्रष्टाचार के एकदम वास्तविक विवरणों की कोई कमी नहीं है.
वे पत्रकार हैं और पत्रकारों को अपने ही नहीं अपने हमपेशाओं के पास एकत्रित सूचनाओं का पूरा लाभ मिलता है जो कहानियों को समृद्ध कर सकता है. पत्रकारों को सूचनाएं बटोर कर जल्दी से उन्हें एक सूत्र में बांधने का अभ्यास भी होता है और साहित्य रचना के लिये सबसे पहले इस आदत से छुटकारा पाना ही ज़रूरी होता है. लगता है कि उनका पेशा ही उनकी डिसेबिलिटी बन गई है, कहानी को भी विकलांग कर गई है. रेलवे विभाग में भ्रष्टाचार के विवरणों की इस कहानी में कोई कमी नहीं लेकिन इस कच्चे माल में से वे नैतिक दुविधाओं का विमर्श खोद नहीं पाई हैं.
प्रथम पुरुष शैली में कही गई कहानी शुरू में अपने तंज़िया अंदाज़ से बांध लेती है. “पहले मैं खुद को आम आदमी समझता था लेकिन इस धंधे में आने के बाद पता चला कि मैं कितना खास हूँ,” अमेरिका से एंजिनीयरिंग में एमएस करके आया इंजिनीयर और कहानी का नेरेटर वैभव जैन कहता है. “जो काम मैं कर रहा था, यानी ठेकेदारी, उस काम में अपना नाम भूलने की शर्त अनिवार्य थी, नाम भूलकर भी यह नहीं भूलना है कि ‘आप किसी छोटे मोटे काम के लिये नहीं भारत सरकार के काम के लिये बने हैं’. ” भारत सरकार के रेलवे विभाग में कपड़े धोने का ठेका हासिल करने वाले इस इंजिनीयर का शुरुआती बयान है.
धीरे-धीरे संदर्भ सहित कहानी बताती चलती है कि ठेकेदार इतना खास क्यों है जबकि उसका नाम तक उससे छिन चुका है, वह सिर्फ ‘ठेकेदार’ रह गया है. ऐसा लगने लगता है कि ठेकेदार के सहयोग के बिना रेलवे के पहिये ही नहीं घूमेंगे. कोई सरकारी अफसर बाहर से दौरे पर आ रहा हो, खाने पीने का इंतज़ाम कौन करेगा? अपना ठेकेदार. किसी अधिकारी को परिवार समेत कोई फिल्म देखनी है, इसका इंतज़ाम कौन करेगा, ठेकेदार. शीर्ष अधिकारी को व्यायाम के लिये साइकिल पसंद आ गई तो बिल कौन देगा, वही ठेकेदार. कहानी बहुत रोचक ढंग से कही गई है.
इंदौर में ‘मुंह उठा कर’ रेलवे विभाग में चल आया ठेकेदार इंजीनियर धीरे-धीरे वहाँ की व्यवस्था और उच्चारण तक को समझने लगता है. “हम साथ-साथ हैं टाइप के दफ्तर में सुपरिन्टेंडेंट ‘ब’ के अलावा सेक्शन इंजिनीयर, ढेरों क्लार्क, एक डिपो इंचार्ज डीएमई, सीनियर डीएमई जैसे बहुत से वरिष्ठ, कनिष्ठ थे…सबसे पहले सेक्शन इंजिनीयर के पास जाना जरूरी था ताकि रेलवे में मेरा बपतिस्मा हो सके.” इंदौरी लहज़े और बोलचाल की शैली का कहानी में प्रभावकारी उपयोग भी है.
एक-एक करके यह सारे पात्र आते हैं और ठेकेदार के मुनाफे में अपना हिस्सा पाते हैं. इस सूची में जिनका नाम नहीं है वे भी प्रकट होते हैं, एक पत्रकार, एक यूनियन नेता जो ठेकेदार से धनलाभ चाहते हैं. आकांक्षा ने सभी पात्रों को उनकी अलग- अलग पहचान भी दी है जिससे कहानी काफी दृश्यात्मक हो उठती है. किसीके उच्चारण पर बल, किसीके हर किसीको को ‘राजे’ कह कर संबोधित करने की आदत, इन पात्रों को जीवंत बना देते हैं.
इतने अधिकारियों को रिश्वत देते हुए ठेकेदार को पता लगने लगता है कि उसका मुनाफा कम होता जा रहा है. विभाग के माल की रेलवे कर्मचारियों द्वारा चोरी की तरफ भी कहानी इशारा करती. जब भी कपड़े धुल कर आते हैं कम ही गिने जाते हैं. ज़ाहिर है सौ में से दस बीस तो कर्मचारी घर ले जाते हैं, हालांकि कहानी यह साफ साफ नहीं कहती और ठेकेदार को इनकी भरपाई करनी होती है. इस तरह की व्यवस्था में कोई भी पेशेवर बेहतरीन सेवा प्रदान नहीं कर सकता. उसे घाटा ही होगा. इस ठेकेदार को भी अब कामचोरी करनी ही होगी. सारे केमिकल्स इस्तेमाल करना बंद करना होगा, महंगे केमिकल्स को छोड़ कर कामचलाऊ ढंग से ही चादरें धोनी होंगी. रेलवे का ही एक अधिकारी उसे समझाता है कि सभी चादरों और तकिये के लिहाफ़ों को धोना जरूरी नहीं होता, सारी मैली तो होती नहीं, जो मैली हों उनको धो दो, बाकी को इस्तरी करके काम चला लो.
कहानी में दो कारणों से तनाव उत्पन्न होता है. एक, यूनियन नेता को रिश्वत न देने की इस ठेकेदार की ज़िद से और दूसरे नायर नामक अधिकारी के औद्योगिक स्तर के उसके लॉन्ड्री के इंस्पेक्शन के प्रस्ताव से, जो आपस में जुड़े हैं.
इस कहानी में व्यवस्था के भीतर व्याप्त तरह-तरह के भ्रष्टाचार की पड़ताल का भरपूर मौका था. रेलवे विभाग सार्वजनिक क्षेत्र में भारत का सबसे बड़ा उद्योग है और सबसे ज्यादा रोज़गार मुहैया कराता है. इसीलिए एक ज़माने में सांसद और मंत्री अपने निर्वाचन क्षेत्र में रेलवे स्टेशन बनवाने को उत्सुक रहते थे. इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार अंततः इसके ग्राहकों, यात्रियों, को पूरा पैसा लेने के बावजूद किस तरह कम गुणवत्ता की सेवाएं प्रदान करता है इसके रहस्योद्घाटन की कोई ज़रूरत तो नहीं है, आम यात्री यह बखूबी जानते हैं, लेकिन इन सेवाओं की घटती गुणवत्ता की बारीकियाँ, सेवा प्रदान करने की राह में कदम दर कदम पेश आने वाली अड़चनों का कहानी में ब्योरा अच्छा है. और कहानी की यही असली मुश्किल है. इतनी जानकारी के बाद भी कहानी इससे आगे बढ़ नहीं पाती.
आकांक्षा की नज़र सिर्फ और सिर्फ वित्तीय भ्रष्टाचार पर है. वे इससे आगे के नैतिक भ्रष्टाचार का सवाल तक नहीं उठातीं. कहानी में कहीं भी वैभव जैन के मन में कोई दुविधा नहीं है. अभी अभी वह मुँह उठा कर चला आया है लेकिन उसका मुंह शुरू में भी कभी खुला का खुला नहीं रहा जाता जब इतने लोग इतनी रिश्वत मांगने लगते हैं. वह तो शुरू से अंत तक वही रहता है जो पाँच साल की समयावधि है. छोटा समय नहीं है यह. तंत्र में समा जाने, उसीका अंग बन जाने के लिये काफी वक्त है लेकिन जब शुरू में उसे तंत्र से बाहर का दिखाया ही नहीं गया है तो उसके इस व्यवस्था में धीरे धीरे इसका अंग बनते जाने की यात्रा लेखिका कैसे दिखा सकती थी?
इसी कारण यथास्थिति का विवरण अच्छा होने पर भी इकहरा होकर आगे चलकर उबाऊ हो जाता है.
उनका मुख्य पात्र, कहानी का ठेकेदार एक सामाजिक वैक्यूम में जीता है. जो चुनौतियाँ सामने आ रही हैं उसपर किसीसे उसकी कोई चर्चा होती ही नहीं क्योंकि न उसका कोई इंजीनियरों का नेटवर्क है, न परिवार में उसे उठते बैठते दिखाया गया है, न मज़दूरों के साथ ही कोई बातचीत है. उसमें शुरू से अंत तक कोई दुविधा है ही नहीं.
उसे लगता है कि “पहले मैं बेफिक्र था कि अच्छा काम करूँगा तो कोई क्यों मुझे परेशान करेगा? …. काम ईमानदारी से करना चाहिए तो कभी परेशानी नहीं आती. मेरा आदर्शवाद तले काजू और हर महीने लिफ़ाफ़े में रखे जाने वाली हरियाली के नीचे दब गया था.” यह आत्मकथ्य महत्वपूर्ण है लेकिन इसका असर उसकी अपनी रोज़ छह टन कपड़े धो सकने वाली मशीनों पर काम करने वालों के साथ संबंधों पर क्या असर होता है? अगर व्यवस्था में सत्ताधारी एक छोर है तो दूसरा छोर उनका है जो इस सत्ता के मातहत होते हैं. खुद वह बीच का आदमी है, एक तरफ रेलवे जैसे विराटकाय सरकारी उपक्रम की लाल फ़ीताशाही से निपट रहा है तो उसे अपनी लॉन्ड्री में मज़दूरों से काम भी तो करवाना है. उसमें यह चेतना भी है इसका कोई संकेत तक नहीं है. व्यवस्था के भीतर उसकी संरचना में ही शोषण कैसे रची बसी है और चाहने पर भी कोई न्यायपूर्ण ढंग से काम नहीं कर सकता यह कहानी में उभर ही नहीं पाता.
इसमें एक यूनियन नेता, जगदीश शुक्ला, आता तो है लेकिन उसकी भूमिका भी बड़ी है यह बात ठेकेदार को क्यों समझ में नहीं आती? यहाँ कहानी का सबसे बड़ा झोल है. इतने अधिकारियों को काजू और हरे-हरे नोट बांटने वाला ठेकेदार शुक्ला को क्यों खुश नहीं करना चाहता? क्या यह उसका वर्ग चरित्र है कि ऊपर वालों को खुश रखो तो नीचे वाले लाइन पर रहेंगे? उसकी लॉन्ड्री तो स्वतंत्र उपक्रम है इसलिए क्या वह सोचता है कि रेलवे मज़दूर यूनियन का नेता उसका क्या बिगाड़ लेगा? ऐसा तब है जब कि एक अधिकारी ने ही उसे शुक्ला से मिलवाया भी है और बताया भी है कि वह एक महत्वपूर्ण कड़ी है. जब उसके साफ धुले कपड़ों पर अचार और जूतों के दाग लगने लगते हैं, शिकायत पुस्तिका भरने लगती है और ढाई लाख की पेनल्टी लगती है तब भी वह अधिकारियों से ही मोलभाव करता रहता है. पेनल्टी लगती रहती है, कम की जाती है, मगर वह कॉमरेड शुक्ला से बात नहीं करता जो उसे सस्ता पड़ता. इतनी अकड़? किसके साथ और क्यों? जबकि उसे तो मुनाफा कमाना है और मुनाफे को अधिकतम रखने के लिये व्यापारी कुछ भी कर सकते हैं.
यही वैभव जैन करोड़ों की मशीन खरीदने के समय क्या कमीशन के बारे में नहीं जान पाया होगा? इसी तरह जब बात अखबार तक पहुँचती है और उसकी लॉन्ड्री को जल प्रदूषण के लिये ज़िम्मेदार बताया जाने लगता है बदनाम किया जाता है तो वह पत्रकार को रिश्वत देने से इन्कार कर देता है. बात धीरे-धीरे आई गई हो जाती है.
कहानी में नायर अधिकारी का आगमन पहली बार नैतिक भ्रष्टाचार का विषय लाता है लेकिन जब लेखिका की निगाह में ही भ्रष्टाचार का यह रूप नहीं है तो इसका विवेचन होता कैसे? यह कहानी में निर्णायक मोड़ बन सकता था लेकिन सिर्फ ठेकेदार के मुनाफे के रास्ते का कंकड़ बन कर रह गया है. पहली बार किसी अधिकारी ने ठेकेदार से इज्ज़त से बात की है, लेन देन की कोई बात नहीं की, उससे सिर्फ उन केमिकल्स की बाबत पूछा है जो वह लॉन्ड्री में इस्तेमाल करता है. ठेकेदार ने पूरी लिस्ट पर ही टिक मार्क लगाकर झूठ बोल दिया कि सारे इस्तेमाल करता है. अब नायर को इसकी तस्दीक के लिये उसके प्लांट में आना है. उसे अब यह एमल्सिफेयर और पर्क केमिकल खरीदने होंगे जो उसे महंगा सौदा लगता है. उसके रिश्वतखोर अधिकारी कंटेक्टस कहते हैं कि नायर ईमानदार है, जो कहेगा, करेगा.
नायर उसे बोझ लग रहा है. ठेकेदार के लिये यह इल्हाम का वक्त होना चाहिए था वरना अपने आदर्शवाद के काजू और नोटों के नीचे दब जाने की उसकी शिकायत का मतलब क्या रह जाता है? उसे अब यह एहसास होना चाहिए था कि वह किस कदर इस तंत्र का हिस्सा बन गया है कि एक ईमानदार अफसर उसे बोझ लगने लगा है, ईमानदारी से उसे शिकायत होने लगी है!
इस नायर से मुठभेड़ के बाद ही उसे इस व्यवस्था से निकल जाने का ख्याल आना चाहिए था. लेकिन ऐसा होता नहीं. यहाँ उसे कोई दुविधा है ही नहीं. उसके सामने रास्ते बहुत हैं, उसके पास करोड़ों की मशीनें हैं, वह सम्पन्न परिवार का है इसीलिए तो अमेरिका में दस साल रह सका है, उसे कहीं नौकरी भी मिल सकती है, लेकिन नायर तो एक सरकारी अधिकारी है, उसके अनेक तबादले हो चुके हैं, उसका कहीं भी लंबे समय तक टिक पाना मुश्किल है, उसे तो हमेशा अपना सूटकेस पैक्ड रखना होता होगा कि जाने कल कहाँ जाना पड़ जाए. उसके परिवार पर, बच्चों की शिक्षा पर कितना असर होता होगा? इनमें कोई सवाल ठेकेदार को नहीं सालता. न सही, लेकिन किसीसे संवाद में तो यह उभर सकता था जो व्यवस्था के भीतर पैठ चुके एक ईमानदार पेशेवर के भ्रष्ट हो जाने का रहस्योद्घाटन कर सकता था.
संवाद होता कैसे? कहानी की संरचना में ही विवाद के लिये कोई जगह नहीं है, न परिवार का कोई, न दोस्तों में कोई. इसमें सिर्फ एकतरफा बयान है और यह बयान भी अनेकानेक दृष्टिकोण संप्रेषित कर सकता था बशर्ते यह लेखिका की नज़र में होते. कहानी एक पक्ष का बयान हो सकती है, लेकिन उसे कम से कम दूसरे पक्ष का जवाब देते रहना चाहिए, तीसरे, चौथे पक्ष का भी जवाब देती चले तो वह अधिक समृद्ध हो सकती है.
आकांक्षा की कहानी में त्रुटि यह है कि ठेकेदार सिर्फ रिश्वतखोरों की शिकायत दर्ज करता चलता है, उनकी ऊपर शिकायत की कोई कोशिश या पहल की बात भी नहीं करता जबकि आदर्शवादी होने का दावा कर रहा है. उसे कम से कम इतनी जानकारी है कि कैसे यह उसके ही काम को मुश्किल बना सकता है, लेकिन कहानी इस पक्ष को अछूता छोड़ देती है.
आश्चर्य है कि सिर्फ वादी की नहीं, प्रतिवादी का भी पक्ष जानने, दूसरा वर्ज़न हासिल करने के लिये प्रशिक्षित पत्रकार लेखिका ने इसे कैसे भुला दिया? यहाँ आकांक्षा की सोच की कमी उजागर होती है.
अंत में ठेके के पाँच साल पूरे होने लगते हैं तो ठेकेदार तय करता है कि वह अगले ठेके के लिये टेन्डर नहीं भरेगा जबकि अब तक वह सीख चुका है कि किसको कितना देना है और आलतू-फालतू के लोगों को रिश्वत न देने का गुरु मंत्र भी सीख गया है. जब कोई नैतिक दुविधा है ही नहीं तो क्यों उसने यह फैसला किया समझ में नहीं आता जबकि उससे कहा भी जाता है कि अब तो तुम्हारी कमाई के दिन हैं.
खुद आकांक्षा ने ‘हंस’ की ऑनलाइन चर्चा में कहा कि उनकी निगाह सिर्फ और सिर्फ भ्रष्टाचार पर ही थी. उसको केंद्र में रखते हुए सामाजिक परिप्रेक्ष्य उनको शामिल करना ही नहीं था. ऐसी संकुचित और निकटदृष्टि होगी तो कहानी बनेगी कैसे? कहानी इकहरी और एकपक्षीय नहीं हुआ करती, उससे आगे बढ़ती है, बढ़नी चाहिए तभी वह जीवन दर्शन बन सकती है. यह अगर लेखक ही नहीं जानेंगे तो उनकी कहानी सूक्ष्म जानकारियों के बावजूद निष्प्राण होगी ही.
(तीन) |
रहस्यों के खुरदुरे पठार
वैचारिक स्पष्टता किंशुक गुप्ता की कहानियों की ताकत है, अनेक विमर्श उनके पात्रों के जीवन में, कहानी की संरचना में ही अंतर्निहित होते हैं जो थीसिस एंटीथीसिस की बेहतरीन मिसाल बन जाती हैं.
इस अद्भुत कौशल के बावजूद किंशुक गुप्ता की ‘रहस्यों के खुरदुरे पठार’ कहानी को भी वैचारिक अस्पष्टता का लकवा मार गया है.
कहानी दिल्ली से कुछ घंटे दूर किसी छोटे शहर की एक लेस्बियन जोड़े, गौरी और शालिनी, के जीवन के उतार चढ़ावों की है जिसमें दोनों की भिन्न प्रकृति और जीवन दृष्टि भयावह त्रासदी तक पहुँच कर इस रिश्ते को तोड़ देती है. एक साथ नई दुनिया बसाने दोनों दस बरस पहले दिल्ली चली गईं थीं जब गौरी को उसके परिवार ने उसकी यौन प्रकृति के कारण ठुकरा दिया था, पिता ने घोषणा भी कर दी थी कि अब उनका सिर्फ एक बेटा है. बड़े शहर में अपनी मर्ज़ी से जीने के अवसरों का लाभ दोनों ने अलग दिशा चुन कर उठाया, उनके चयन उनकी यौनिकता को भी अलग संदर्भ में देखने के उनके दृष्टि को उजागर करती है. शालिनी में सेक्शुअल डिफरेंस को विकल्प मानते हुए सामाजिक परिप्रेक्ष्य में उसे रखते, देखते, अन्यों के साथ न्याय की लड़ाई में कदम से कदम मिलाने का रुझान है और यही झुकाव उसे यौन हिंसा की शिकार बच्चियों के साथ काम कर रहे एक एनजीओ से जोड़ता है जबकि वह दिल्ली में नहीं किसी और शहर में है.
यौनिकता में विषमलिंगियों से अलग होने के अलावा गौरी को सामाजिक मान्यताओं से कोई शिकायत नहीं है. वह एक कॉर्पोरेट सेक्टर में काम करती है और सुख सुविधाओं से लैस मध्य वर्गीय जीवन चाहती है. उसकी इस परिकल्पना में उसकी अपनी कोख से जन्मा बच्चा भी है. शालिनी के बच्चा गोद लेने का सुझाव उसे कतई मंजूर नहीं. कहानी दोनों चरित्रों के बीच टकराव को अनेक घटनाओं से उभारती जाती है. ऐसे दो लोगों का रिश्ता कामुकता के शुरुआती दौर के बाद टूटेगा ही. इस तरह भी कहानी सशक्त हो सकती थी, इसके संकेत भी कहानी में हैं लेकिन कहानी यह नहीं है.
कहानी की संरचना जटिल है, खुरदुरे पठारों पर आगे पीछे दौड़ती रहती है और यही संरचना पाठक को कई घटनाओं के बीच के सूत्रों को याद नहीं रखने देती और इस तरह पात्रों की मनःस्थिति और उनके अन्तरसंबंधों को उनके सही संदर्भ में समझने से रोक कर एक सतही संतोष ज़रूर प्रदान करती है.
गौरी का चरित्र चित्रण बहुत जानदार है. वह हद दर्जे की खुदगर्ज़ औरत है और मनमानी की आदी, अपना बच्चा पैदा करने पर आमादा. जब शालिनी इसके लिये तैयार नहीं होती तो गौरी जानबूझ कर शालिनी के प्रिय, पालतू कुत्ते, ब्रुनो, का पट्टा खोल कर घर से निकल जाने के लिये गेट खुला छोड़ देती है जिससे ब्रुनो बाहर निकल कर मारा जाता है. उसकी मौत पर रो रही शालिनी से गौरी कहती है कि इतना सीन क्रीएट ना करे क्योंकि था तो वह सिर्फ एक ‘पेट’ ही! इस तरह वह अपनी ज़िद पूरी करवाती है. गौरी से कोई आत्मीयता महसूस नहीं होती और शायद लेखक की मंशा भी यही है.
शालिनी और गौरी के शुरुआती सहजीवन में प्रेम क्रीड़ा और बाद के तनाव की झलकियाँ कहानी में इधर उधर गौरी की ही स्मृतियों से मिलती है और काफी असरदार हैं. दोनों की दोस्ती के धीरे-धीरे प्रेम में बदलने की प्रक्रिया के वर्णन में गौरी कोमल भावों से ओतप्रोत लड़की है जिसे समझ में ही नहीं आ रहा कि उसके साथ और उसके भीतर क्या चल रहा है.
दस साल बाद की गौरी, जिससे सीधे मुलाकात होती है, कुछ और ही है जो उसमें समय के थपेड़ों और बढ़िया नौकरी के रूप में मिले इनामों के असर को उसके ठसक भरे व्यवहार में दर्शाते हुए परिवर्तन को रेखांकित करती है. इतनी बारीकी से लेखक ने यह किरदार गढ़ा है कि कहानी के केन्द्रीय तनाव पर से उनकी पकड़ का छूट जाना विस्मयकारी है.
शालिनी वह संगिनी है जो गौरी की हर ज़रूरत के समय उपस्थित हो जाती है मगर जो उसके प्रसव के समय अपने संस्था में रसोइये के खिलाफ एक लड़की द्वारा यौन हिंसा की शिकायत के बाद केस की जांच में फंस जाने से दिल्ली नहीं आ पाती. “गौरी उसे फोन करती रही थी, फिर उसने एक चाकू से उम्मीद का सारा शरीर गोद दिया था.” उसे इस बात से कोई वास्ता ही नहीं है कि शालिनी रोज़ रोज़ अकेले दम पुलिस चौकियों के चक्कर लगाती रही थी, वकीलों से बहस करती रही और अंततः नौकरी से निकाल दी गई, वह भी इसलिए कि सोशल मीडिया पर लगाई गई समुद्र तट पर गौरी के साथ एक तस्वीर एनजीओ के प्रबंध को अखर गई थी. यह एनजीओ के पूर्वाग्रह मुक्त और न्याय की पक्षधरता को प्रशनांकित भी करता है. किंशुक से ऐसे डीटेल्स कभी नहीं छूटते.
इस प्रेम की शालिनी ने खासी बड़ी कीमत चुकाई लेकिन आत्ममुग्ध गौरी को खुद से, अपने गिले शिकवों से ही फुर्सत नहीं है. “वह (शालिनी) रोती हुई लौटी थी. पर गौरी के पास तो अपनी ही मुसीबतों का पिटारा था, कहाँ वो उस अंदरूनी शोर और रोते जिम्मी के बीच शालिनी की बात सुन कर उसे सहारा दे पाती”.
शालिनी की प्रथमिकताएँ भी इसी तरह साफ साफ बयान की गई है. गौरी की गर्भावस्था के दौरान वह अपने एनजीओ के बच्चों को छोड़ना नहीं चाह रही थी, “न ही इस नाज़ुक हालत में गौरी को ही अकेले छोड़ना चाहती थी, पर यह सब दिमाग की तार्किक बातें थीं, मन तो बीस पच्चीस लड़कियों के भविष्य में योगदान देने के सुनहरे अवसर की बात सुनते ही कुलांचे भरने लगा था. … उसने सिक्का उछाला था, हेड माने हाँ, टेल माने न. आया टेल था पर गौरी को उसने हेड बताया था.”!
बच्चा जन्म देने भर से स्वभाव तो बदलेगा नहीं और गौरी एक दिन मुंडेर पर बच्चे को बिठा कर एक परिंदे को ताकने की अपनी फौरी इच्छा पूरी करने में लीन हो जाती है. जिम्मी मुंडेर से गिर कर मर जाता है. शालिनी उससे रिश्ता तोड़ लेती है.
इसके तीन महीनों बाद गौरी दो दिन अपने मायके में बिताने के लिए निकलती है.
कहानी इस यात्रा से शुरू होकर एक विद्रोहिणी के फिर से परंपरागत परिवार में भाई को राखी के धागों के बंधन में बांध कर अनुमोदन पाने पर समाप्त होती है जिसमें उसकी संपन्नता और अपने बनिस्बत ग़रीब भाई पर एहसान की भूमिका भी अहम है. अग्रोन्मुखी दृष्टि सम्पन्न लेखक से ऐसी प्रतिगामी कहानी की उम्मीद तो नहीं थी लेकिन गौरी के चरित्र और जीवन की स्थितियों के समुचित विवेचन पर किंशुक गुप्ता ने ध्यान दिया होता तो यह इतनी प्रतिगामी भी प्रतीत नहीं होती.
गौरी के मायके की ओर यात्रा से शुरू होती हुई कहानी बताती कि गौरी के मन में “…सबके ऊपर एक चलचित्र बरबस उसके मन में चलता रहता है – बिल्कुल साफ, स्पष्ट, सिलसिलेवार ब्योरा – पिता के माथे पर पड़ी तीन त्योरियाँ, ततैये के डंक-सा उनका एक एक शब्द.” इस ततैये के डंक को याद रखना ज़रूरी है जिन्हें पटाक्षेप या रिज़ोल्यूशन के रूप में उभारने की गुंजाइश थी लेकिन जिसे गौरी ही नहीं लेखक भी आगे चलकर भूल जाते हैं.
कहानी सिर्फ लेस्बियन होने के कारण घर से निष्कासित गौरी की घर वापसी और भाई को फिर से राखी के बंधन में बांध लेने की ही होती तो भी यह सामाजिक मान्यताओं को आमूलचूल परिवर्तन की हद तक प्रश्नांकित करने के विकल्प की खोज के बिना इस मार्ग पर चलने वाली दो संगिनियों के बीच गहरे मतभेद और भिन्न स्वभावों के कारण एक के छिटक कर अलग हो जाने की कहानी बन सकती थी.
दरअसल कहानी की दिक्कत यह है कि यह साफ ही नहीं होता कि वह कहना क्या चाह रही है. क्या यह गौरी के पश्चाताप की, हर ओर से ठुकरा दिए जाने के बाद उसी रूढ़िवादी परिवार में पुनर्स्थापना की कहानी है जिसने उसे उसकी यौनिकता के कारण बहिष्कृत कर दिया था? प्रकारांतर से क्या यह परंपरागत समाज में परंपरा को तोड़ने वालों की स्थापना की कहानी है?
माँ जब गौरी से कहती है कि “तुम अकेली अपने चॉइसेज़ की वजह से हुई हो” तो गौरी जवाब देती है, “वो चॉइस नहीं, मेरे अस्तित्व की लड़ाई है”.
गौरी अस्तित्व की लड़ाई को ‘थी’ नहीं ‘है’ कहती है. अभी भी वह लड़ाई जारी है तो क्या भाई की कलाई पर बंधी राखी के धागों से उसके अस्तित्व को मान्यता मिलेगी? लेस्बियन छोड़ दीजिए, स्त्री मुक्ति के विमर्श में भी यह कहाँ बैठता है?
असल में यह कहानी गौरी जैसी आत्मतुष्ट, आत्ममुग्ध और हद दर्जे की स्वार्थी औरत के मनोविज्ञान के पड़ताल की कहानी है जो इस उद्देश्य को न समझ पाने से भटक गई है.
पूरी कहानी पर अनुभवहीनता की गहरी छाप तथ्यात्मक भूल के रूप में प्रकट होती है. वसीयत लिखे जाने के वक्त उसके लाभार्थियों की उपस्थिति ज़रूरी नहीं होती न ही वसीयत उन्हें दिखाई जाती है. अगर वसीयत लिखी जा चुकी है तो उसे लागू करवाना वसीयत करने वाले की मौत के बाद का काम होता है और एक दिन में होता भी नहीं. माँ ने दोनों संतानों को बुलाने के लिये वसीयत का सिर्फ बहाना बनाया था ऐसा कुछ भी कहानी नहीं कहती. अगर पिता के जीते जी संपत्ति के बंटवारे की कोशिश हो रही है तो यह काम एक दिन में नहीं होता. इस तरह की अनेक भूलें और हैं. जब दस साल से गौरी अपने भाई प्रफुल्ल से मिली भी नहीं है तो उसके बेटे गौरांश का उससे ऐसा गहरा रिश्ता कैसे हो सकता है कि बुआ को देखते ही वह उसके पास दौड़ा आए? गौरांश की उम्र क्या है? अगर उसे बुआ याद है तो वह बहुत पहले पैदा हुआ था और अब उसे काफी बड़ा होना चाहिए मगर गौरी उसे गोद में उठा लेती है तो ज़ाहिर है कि इतना बड़ा भी नहीं है. भतीजे के इस व्यवहार से लगता है कि वे शायद प्रफुल्ल की पीठ पीछे छुप कर मिलते रहे हैं और अगर ऐसा है तो उसे जिम्मी की खबर कैसे नहीं है? डीटेल्स के प्रति लेखकीय लापरवाही पर इसकी जटिल संरचना के कारण ही ध्यान नहीं जाता क्योंकि यह विवरण इधर उधर लगभग असंबद्ध से बिखरे हुए हैं. इन ब्योरों को कहानीकार की अनुभवहीनता के मद्देनजर अनदेखा कर भी दिया जाए (जो कि करना नहीं चाहिए) तो भी कहानी बहुत उलझन में है.
जिम्मी की भयानक मौत का ज़िक्र भी संपत्ति में बंटवारे की बहस के बाद आता है जबकि इसका इस चर्चा पर गहरा असर होना चाहिए था. घर में जिम्मी की मौत की बात ही ना होना, किसीका गौरी से ना पूछना कि वह खालीपन कैसे झेल रही है, भी पूरी तरह अस्वाभाविक है. माँ तो उसकी क्रिया में भी गई थी उनको मालूम है कि शालिनी उसमें शरीक नहीं हुई थी, वे इस बाबत कुछ पूछती भी नहीं. खुद गौरी भी उनको बताते बताते हिचक जाती है कि “अपने सारे कपड़े फ़ाड़ कर कैसे खड़ी हो जाए? वह माँ है … उससे कैसी शर्म?” फिर भी शालिनी के बारे में बात होती ही नहीं जबकि दावा किया जा रहा है कि पिता बाद में पछताए और माफी नहीं मांग सके क्योंकि माफी मांगना आसान नहीं है, सब नहीं मांग सकते.
गौरी को अपने पिता से इतनी नफरत है कि माँ के मना करने के बावजूद उनको माँ के पति के रूप में संबोधित करती है. माँ के यह याद दिलाने पर कि पिता के पास ज़्यादा वक्त नहीं बचा है वह चिल्लाती है कि ‘इसमें भी मेरा कोई कसूर निकाल दो’. यह वही पिता हैं जिन्होंने शालिनी पर ‘लाल कांटा चस्पा’ कर दिया था, उसके ड्रेगन टैटू पर हिकारत बरसाई थी और अब दूसरी बार लकवाग्रस्त होकर मरणासन्न पिता को देखने पर, क्या गौरी को कुछ संतुष्टि नहीं मिलनी चाहिए कि उनको अच्छा सबक मिला, इस तरह निरीह, औरों पर आश्रित पड़े हैं. फिर इस भाव पर शर्मिंदगी भी होनी चाहिए जो जिम्मी की मौत में उसके कसूर से उभर रहे अपराधबोध से जाकर मिलता. लेकिन यह तब होता जब किंशुक ने गौरी की इस मनस्थिति को शुरूआती हिस्से के बाद भी कहानी में ज़्यादह जगह दी होती. इसके बजाय वे नाव की सिर, राखी खरीदते वक्त उसके चयन जैसे विवरणों को तूल देते हैं, गौरी के अंतर्मन को अधिक नहीं खोलते. यहाँ से कहानी जो लड़खड़ाना शुरू करती है तो संभलती ही नहीं.
किंशुक विमर्श को पात्रों के जीवन का हिस्सा बनाने में माहिर हैं लेकिन इस कहानी में कहीं कहीं विमर्श भी ऊपर से थोपा हुआ और अविश्वसनीय लगता है. खाने की मेज़ पर गौरी और उसके भाई प्रफुल्ल के बीच बातचीत में प्रफुल्ल उम्मीद कर रहा है कि गौरी अमीर है इसलिए अपने हिस्से की संपत्ति उसके लिये छोड़ देगी.
प्रफुल्ल कहता है, ‘ “इतनी बड़ी नौकरी से भी संतुष्टि नहीं होती? खैर तुम्हें कैसे समझ में आएंगे दिल्ली में बच्चों को पालने के खर्चे?” अंतिम बात बोलते हुए प्रफुल्ल के चेहरे पर विजयी भाव तैर गया.’
गौरी का जवाब है “ज़रूरत नहीं, हक की बात है. देखें, किस माई के लाल में दम है मुझे रोकने का!”
गौरी के लिए तो यह बच्चे पालने के खर्चे के स्वागत के दिन थे जिसे भोगने का मौका उसे मिला ही नहीं. अभी कुछ ही देर पहले गौरी ने शिकायत की थी कि वीडियो कॉल पर बच्चा दिखाने पर प्रफुल्ल ने कहा था कि क्यों प्लास्टिक का गुड्डा दिखाकर मज़ाक कर रही हो? गौरी ने कहा था कि भाई ‘जानवर है’ और प्रफुल्ल ने ताना कसा था कि गौरी की “हरकतें तो जानवर से बदतर है, मिल गया न फल?” अब तक पाठक को पता नहीं है कि क्यों जानवर से बदतर हरकत की बात हो रही है, कौनसा फल मिल गया है फिर भी ऐसे समय में बच्चे पर होने वाले खर्चे की बात सुन कर गौरी क्या हक की बात करेगी? उसकी आँखें नहीं छलछलायेंगीं? क्या वह सन्नाटे में नहीं आ जाएगी? इतनी असंवेदनशीलता क्या माँ को नहीं अखरेगी? क्या माँ को प्रतिवाद नहीं करना चाहिए? यहाँ गौरी को टूट कर बिखरना चाहिए था. लेकिन जब लेखक के विचार ही साफ नहीं तो वह उसे हक के विमर्श पर ही ले जायेगा. इसी कारण संपत्ति पर यह बहस एकदम सतही हो जाती है.
भावना से दामन छुड़ा कर कहानी एकदम से सपाट हो जाती है. बातचीत ऐसे चलती रहती है मानो भाई बहन हंसी हंसी में एक दूसरे को तौल रहे हों.
कहानी इसके बाद ही जिम्मी की मौत का राज़ खोलती है इसलिए पाठक इस चुहल को पढ़ कर शायद भुला दें यही संरचना का योगदान है.
कहानी के पूरे विखंडन के लिये इस छोटे लेख में जगह नहीं है मगर अनेकानेक प्रसंग कहानी की ऐसी ही कमज़ोरियाँ उजागर करते हैं. बेशक लेखक को हक है कि वे जिम्मी की मौत को लंबे समय तक प्रकट ना करें लेकिन उस घटना का असर वे अपने ही पात्रों पर न देख पाएं और उनसे ऐसे व्यवहार करवाएं कि मानो सब सामान्य है, यह गले नहीं उतरता.
जिम्मी की मौत का वर्णन ही लें. यह कुछ हद तक ह्रदय विदारक है पर कुछ ही हद तक. जिस बच्चे की खोपड़ी फट गई, मस्तिष्क बाहर आ गया होगा, उसपर शालिनी का बैंड ऐड लगाते जाना, ऐसे मार्मिक वर्णन उसकी स्तब्धता का प्रकटीकरण हैं. लेकिन इसके बाद गौरी का ट्रॉमा पूरी तरह गायब है. यहाँ भी तो पुलिस आई होगी. पोस्टमॉर्टम हुआ होगा, उसकी रिपोर्ट भी गौरी को दी गई होगी जिसके भावरहित शब्दों को वह दोहराती रह सकती थी. एक डॉक्टर लेखक के लिये यह मुश्किल नहीं होना चाहिए था. स्तब्ध दिमाग आत्मरक्षा में यही करता है, वह चीख को दबा कर कुछ शब्दों के दुहराव को वरीयता देता है. जिम्मी के गिरने के पल, उसके हाथ पाँवों का हिलना, उसकी चीख, और सर्वोपरि गौरी का बार बार खुद से पूछना कि रिफ्लेक्स में वह उसके पीछे कूदी क्यों नहीँ? ऐसे सूक्ष्म ब्योरे गौरी के वजूद को लगे धक्के को सामने ला सकता था? यह सब सिरे से लापता हैं. है तो बच्चे के सर का फटना और खून का ‘हेलो’ की तरह उसके सर के चारों ओर फैलना. ऐसे में प्रभामंडल न बना करते हैं न सूझते हैं. उस खून में मस्तिष्क के टुकड़े रहे होंगे, यह मौत का कीचड़ है, कोई ‘हेलो’ नहीं है. सटीक भाषा के इस्तेमाल में माहिर लेखक की अभिव्यक्ति की यह कमज़ोरी निराश करती है. कहानी में भावावेश है ही नहीं.
बाहर गाड़ियों की आवाजाही से दीवार पर बनते रोशनी के गुच्छों को देख कर कहानी कहती है कि गौरी को ‘जिम्मी की याद आ जाती’. याद आ जाती? अभी तो वह उसे पल भर को भी न भूली होगी. ऐसी सपाट बयानी उसके मानसिक आघात को उभार ही नहीं सकती. गौरी ने बच्चे के सर को चुन्नी से बांधा था. उसे याद उसे खून में लिथड़े सूख कर, अकड़ कर पपड़ी हो गई उस चुन्नी की आ सकती थी जिसे जिम्मी के अस्तित्व का अवशेष रंग गया था! कहाँ गई वह चुन्नी? क्या पुलिस ले गई? पुलिस तो आई ही होगी. शालिनी के एनजीओ में यौन हिंसा के मामले में लंबी पुलिस कार्रवाई का ज़िक्र है. इस घटना के बाद नहीं है जिसे इस कहानी के केंद्र में होना चाहिए था.
यह साफ ही नहीं है कि यह कहानी का केंद्र है या नहीं. अगर एक लेस्बियन स्त्री की अपनी संगिनी द्वारा ठुकराए जाने, अपना सर्वस्व खो देने के बाद अपने परिवार से पुनर्मिलन और पितृसता के प्रतीकों, पिता और भाई, से फिर से रागात्मक संबंध स्थापना ही कहानी का मकसद था तो जिम्मी को इतनी भयानक मौत मारने की ज़रूरत क्या थी? वह तो मलेरिया या निमोनिया से भी मर सकता था.
यही हमें रहस्य पर ले आता है. वह कौनसा रहस्य है जो गौरी को यहाँ लाया है और जिसे कहानी के शीर्षक में भी जगह मिली है? क्या यही किंशुक की पकड़ में नहीं आया जबकि गौरी के मनोविज्ञान का उन्होंने काफी हद तक बारीक अन्वेषण किया है? यही उनको समझ में आ जाता तो गौरी की वापसी के लिये वसीयत के बहाने या वजह की भी ज़रूरत नहीं पड़ती. गौरी एक बार कहने पर भले मना कर देती लेकिन खुद ही दौड़ी चली आती. इसका रहस्य उसके ट्रॉमा में है जिसे कहानी में जगह मिली ही नहीं है.
गौरी के जीवन में दो त्रासदियाँ एक साथ घटी हैं. एक जिम्मी की मौत, दूसरी शालिनी से रिश्ते की मौत.
क्योंकि गौरी इस दुर्घटना के लिये ज़िम्मेदार है और उसके अवचेतन ने अपनी रक्षा में उसके दिमाग को शट डाउन कर दिया है इसलिए जिम्मी की मौत को तथ्य के रूप में भी कबूल करने में भी उसे कुछ ज़्यादा ही समय लगेगा. शालिनी इस ज़िम्मेदारी से मुक्त है इसलिए जिम्मी के दम तोड़ देने तक तो बच्चे के साथ है लेकिन अंतिम क्रिया में नहीं है. जो नहीं रहा उसके जिस्म को अब क्या जाते देखना है? शालिनी का न आना गौरी पर उसका फैसला सुनाना है, उसे अपराधी घोषित करना है.
जिम्मी की भयानक मौत सिर्फ और सिर्फ गौरी की मनःस्थिति की पड़ताल के लिये जस्टिफ़ाई हो सकती थी. लंबे समय तक तो वह डिनायल में रहेगी. उसे यकीन ही नहीं होगा कि ऐसा सब कुछ हो गया है, जीवन रीता, घर खाली, जिम्मी का रोना नहीं, किलकारियाँ नहीं, उसके लिये कुछ न कुछ करते रहने वाले हाथों के पास अब कोई काम भी नहीं. धीरे धीरे सच को उसे कबूल करना पड़ेगा. और उसके बाद आयेगा गिल्ट का भूचाल जो उसके अस्तित्व को हिला कर रख देगा. अब जाकर उसका अपराधबोध दिमाग की खुद को बचाने की हर तरह की नैसर्गिक कोशिश को पछाड़ कर उभरेगा.
लेखक ने अपने ही विचार को पकने का मौका नहीं दिया. वह नहीं आयेगी शायद यही सोच कर लेखक ने वसीयत का तर्क खोजा जिससे तथ्यात्मक भूलों का अंबार लग गया जबकि उन्होंने अपने विचारों को स्पष्ट होने दिया होता तो गौरी को वापस लाने के लिये उनको वसीयत की बात तक करने की आवश्यकता नहीं होती.
गौरी को तो सचमुच संपत्ति में हिस्सा नहीं चाहिए, पिता तो अजनबी हो ही चुके हैं, माँ को छोड़ कोई जिम्मी की क्रिया में भी नहीं आया. क्या खोजने आई है वह यहाँ?
जिस औरत ने अपने अस्तित्व की लड़ाई के लिये घर से निष्कासित होना भी कबूल कर लिया था उसे अब अपने स्वार्थी स्वभाव की ऐसी कीमत चुकानी पड़ी है कि उस अपराधबोध से आजीवन शायद छुटकारा न मिले. जिस बच्चे को वह जन्म देने के लिये पालतू कुत्ते ब्रुनो को मरने दे सकती थी उसी बहुमूल्य उपलब्धि को उसने ऐसे भयानक तरीके से गंवा दिया और उस समय ब्रुनो की छवि उसके मन में कौंधती भी है. एक निरीह जानवर के साथ उसने जानते बूझते क्रूरता की थी, अब अपने ही बेटे को इस तरह हाथ से छूटते देखा है. शालिनी ने उसे जतला दिया है कि वह अपराधी है, लेकिन उसपर सीधे सीधे फैसला किसीने नहीं सुनाया, गे प्राइड वालों ने भी नहीं. वे उसे जैसा है वैसा ही कबूल कर रहे हैं, जिसका संकेत क्रिया में उनके झण्डा लेकर शामिल होना है.
पिता का घर ही उसे मुखर रूप से अपराधी घोषित करके इस जघन्य अपराध के बोझ से मुक्त कर सकता है. लेखक का अवचेतन गौरी को यहाँ ले तो आया है लेकिन उसके इस कदम के रहस्य को चेतन मस्तिष्क तक आने का मौका ही उन्होंने नहीं दिया है. इसलिए कहानी में गौरी का भाई को राखी बांध कर फिर से उसी रिश्ते में बांधना हड़बड़ी में किया गया पटाक्षेप सा लगता है.
इस अपराध की सस्वर स्वीकृति और अपने गिल्ट पर दहाड़ें मार कर रोने के सिवाय इससे छुटकारा नहीं है. उसे सारे कपड़े उतारने होंगे, नंगा होना ही पड़ेगा, सिर्फ माँ के सामने नहीं, पूरे परिवार के सामने, अपने सामने भी. शालिनी उसे छोड़ गई है यह सबको बताना होगा. भाई ने उसकी नब्ज तो नहीं पकड़ी है, लेकिन यह कहा ज़रूर है कि उसकी हरकतें तो जानवर से भी बदतर हैं. वही भाई जिसे देख उसे लगा था कि “उम्र का खांचा दूसरा बाप गढ़ रहा है”.
उस भाई की, एक नए बाप की, आज उसे ज़रूरत है. इस तरह राखी का बांधना भी प्रतिगामिता के खांचे से बाहर निकाल सकता था.
गौरी को अब सहानुभूति की नहीं दंड की आवश्यकता है. वह इस परिवार में आई है वह दंड प्राप्त करने जिसकी मांग उसका मन कर रहा है. मुखर दंड. फैसला सुना कर रुला देने का दंड. उसका वापस राखी और भ्रातृ प्रेम में डूबना उसके कारागार की तलाश का प्रतीक बन जाता अगर लेखक ने पात्र के मनोविज्ञान पर ध्यान दिया होता. ऐसे ही धकेले जाते हैं लोग पुराने संस्कारों की गोद में.
गौरी आई है ततैये के डंक के लिये जो लकवाग्रस्त पिता अब उसे नहीं दे सकते. यही उसका दंड है.
यह अंतर्दृष्टि इस कहानी को कालजई बना सकता थी.
किंशुक की यह कहानी संभावनाओं के चूक जाने की दर्दनाक दास्तान है.
अंजली देशपांडे पत्रकार और एक्टिविस्ट हैं. हिंदी और अँग्रेज़ी दोनों भाषाओं में लिखती हैं. इनके दो उपन्यास और एक कहानी संकलन प्रकाशित हुए हैं. हाल ही में मारुति फैक्ट्री में मज़दूर संघर्ष पर नंदिता हक्सर के साथ इनकी हिंदी और अँग्रेज़ी में पुस्तक, ‘फैक्ट्री जापानी, प्रतिरोध हिंदुस्तानी’, प्रकाशित हुई है. anjalides@gmail.com |
इन दिनों जब कहानियों पर समीक्षा के नाम पर मुंहदेखी प्रशंसा या सूचनात्मक ब्योरों से काम चलाा जा रहा है, समालोचन पर अंजलि देशपांडे की लिखी तीन कहानियों की समीक्षा पढ़ना सुखद है. कहानियों खूबियों कमियों को उन्होंने अपने तरीके से उजागकर किया है और यह भी बताने की कोशिश की है कि ये कहानियां कहां जाकर असफल हो जाती हैं.
Anjali Deshpande कहानियों को अपने सामने से गुजार देने और पढ़ने के बीच का अंतर इस आपके इस आलेख से समझ आता है।
आपने समय देकर इन्हें पढ़ा है और उनपर रुककर विचार किया है। यह आलेख समीक्षा के रटे पिटे मानकों से अलग है।
आज का दिन मेरे लिए कहानी पढ़ना सीखने का दिन रहा है। आपका धन्यवाद।
एक एक कहानी की पृथक पृथक आलोचना
आजकल नहीं होती। जबकि ऐसा ही किया जाना चाहिए। माने किसी भी एक कहानी पर उसके विभिन्न आयामों की चर्चा। और साथ में यह भी कि वह कहानी बनी भी कि नहीं।
अंजलि देशपांडे जी अपनी कुछ रचनात्मक ऊर्जा इसमें भी निवेश करेंगी तो पाठकों और समकालीन रचनाकारों को बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।
जिन्होंने अंजलि देशपांडे की कहानी हक नहीं पढ़ी है उन्हें यह कहानी पढ़नी चाहिए। क्या कमाल की कहानी है।
बेहद महत्वपूर्ण आलेख । आज जब समीक्षा प्रशस्ति और व्याख्या का पर्याय बनती जा रही है, तब इस तरह की निर्भीक आलोचनात्मक दृष्टि के साथ साहित्य का नि:संग विश्लेषण करना बड़ी बात है। यह आलेख दो वजहों से रेखांकित करने लायक है। एक, समकालीन कहानी में चुपके से घुस आई विचारहीनता और उतावलेपन का उद्घाटन। दरअसल साहित्य विश्लेषणपरक सृजनात्मक विवेक का ही दूसरा नाम है। अत: कहानी का आलोचनात्मक दृष्टि से कन्नी काट कर भावुकता की नैया पर सवार होना घातक है। दूसरे, आलोचना के लिए जरूरी है ईमानदारी, मेहनत, ढेर सा अध्ययन और परंपरा के मूल्यांकन की ललक। खेमों और गढ़ों से मुक्ति के प्रयास में अपना रास्ता आप निकालते इस समीक्षात्मक आलेख के लिए अंजलि जी को बधाई।
अनुराधा सिंह की यह पहली कहानी है और प्रथम प्रयास में हिन्दी कथा -जगत में उनकी उपस्थिति को एक वृहत पाठक समूह द्वारा सराहा गया है। मैंने यह कहानी पढ़ी है। यह बेहद स्वाभाविक कहानी है जो अपने कथ्य और शिल्प से सुसज्जित है। एक स्त्री यदि अहर्निश अपने पति से प्यार की कामना करती है तो इसमें हर्ज क्या है। फिर भी एक लंबे संघर्ष के बाद वह टूट जाती है तो इसे कहानी की कमजोरी नहीं मानी जानी चाहिए। अन्य दो कहानियाँ मैंने पढ़ी नहीं है ,अतः उन पर अपनी बात नहीं रख सकता । अनुराधा जी की कहानी को इस दृष्टिकोण से भी पढ़ा जाना उचित होगा।