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Home » अंकिता शाम्भवी की कविताएँ

अंकिता शाम्भवी की कविताएँ

अंकिता शाम्भवी 'निर्गुण संतों और बाउलों के साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन' विषय पर शोध कार्य कर रहीं हैं, चित्रकला और संगीत में भी अभिरुचि है. उनकी कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं.

by arun dev
July 29, 2021
in कविता
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अंकिता शाम्भवी की कविताएँ
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अवसाद

रोज़,
हर घण्टे,
हर क्षण उमग आते हैं
आत्महत्या के ख़्याल
ब्रश करते वक़्त,
नहाते वक्त,
हर वक़्त चिपटे रहते हैं मुझसे

एक बेहतरीन खुशबूदार साबुन भी
उदासी की मैल नहीं छुड़ा पाता;

ख़्याल आते हैं,
बावजूद ये जानने के कि
अभी बहुत कुछ करना है
जीवन में,
लड़ना है,
सीखना है,
हज़ारों किताबें पढ़नी हैं,
तस्वीरें खींचनी हैं,
गीत गाने हैं
चित्र बनाने हैं कई

ख़ुश रहने के भी मौके होंगे
कभी तो आएंगी खुशरंग सुबहें
बुलबुल और गौरैया से
मीठी बातें हो सकेंगी
छत पर खुली हवा में
देर तक गुनगुनाऊँगी
रफ़ी साहब और मुकेश के पुराने गीत
मुसकुराऊँगी, थिरकूँगी बारिश में घण्टों तक

फिर यकायक धँस जाता है मन कहीं…
जैसे कीचड़ में हल्के भी पैर पड़ते ही
धँसने लगता है कोई

अवसाद खींचता है
गहरे भँवर बनाता है
आमंत्रण देता है डूब जाने को
कहता है जीकर क्या करोगी?
तुम्हारी इस दुनिया को ज़रूरत ही क्या है!

तुम रचनात्मक बने रहने की
लाख करो कोशिश
कविताएँ लिखो
मनपसंद चीज़ों में खूब दिल लगाओ

सजो सँवरो
कोशिश करो ख़ूबसूरत दिखने की
ठीक वैसे, जैसे ख़ुश लोग दिखा करते हैं

गहरे काजल से आँजो अपनी आँखें
मुसकुराओ, खिलखिलाओ
पहले जैसी लगती हो क्या?
सोचो तो!

चेहरे का झरता रंग,
स्ट्रेच मार्क्स और
सूखे होंठ निहारो अपने

महान लोगों की प्रेरक कहानियाँ पढ़ो,
उनकी जीवटता से प्रेरणाएँ लो
योगासन करो,
ध्यान करो,
साँसे लो लंबी, गहरी

आँखों के नीचे उदासियों के
जो काले घेरे हैं,
उँगलियों से उन्हें बार-बार टीपो,
वे कहीं नहीं जाएंगे!
लगातार पकते बालों को गिनती रहो
उदासी में सिर से पाँव तक भीगी रहो.

रोज़ रात नींद के लिए
डिप्रेशन और पैनिक अटैक्स की
नीली, पीली, हरी दवाएँ निगल कर,
नींद के बारे में सोचो
रो-रोकर तकिए भिगाओ
या फ़रीदा ख़ानम की ग़ज़लें सुनकर
भोर तक करवटें बदलती रहो

मैं तुम्हारे ही भीतर
कहीं अटका रहूँगा
सीने की फाँस बनकर
घाव देता रहूँगा तुम्हें

तुम्हारी नसों के फट जाने तक
पनपता रहूँगा तुम्हारी शिराओं में
मैं … अवसाद हूँ
तुम्हारे जीवन भर का एकमात्र संगी.

 

ईश्वर की स्वीकृति

कल रात स्वप्न में
ईश्वर से लंबी बात हुई मेरी

मृत वस्तुओं से उनकी पूजा
वर्जित रही थी अभी तक

पर अब स्वीकार है
देवताओं को
भुईं पर गिरे फूलों से
अपनी पूजा ग्रहण करना.

अमलतास के लिए

ओ प्यारे अमलतास!
कहो कहाँ सीखा तुमने यह
मन मोहने का मनहर बाना?
ऐसी कड़ी धूप में भी तुम
सदा डटे रहते हो कैसे
कहो भला!

अपना यह रूप-रस-रंग तुम
क्या उसी धूप से पाते हो ?
सोने सी यह दमक तुम्हारी
कभी न निष्प्रभ होने देते
ऋतु कोई भी आए-जाए
कभी मलिन नहीं होते ज़रा भी
सुन्दर स्वर्ण झूमर ये तुम्हारे

यूँ तपकर भी तुम आह न करते
हर राही का हाल पूछते
कैसे पाया इतना धैर्य
कैसे पाई यह जीवटता
बोलो तो?

ओ अमलतास!
सिखालाओ मुझे भी
सुख-दुःख में
यूँ सम रहना
रूप-रस-रंग बचाए रखना
सबकुछ सहकर आह न करना
हर मिलने वाले से उसका हाल पूछना

ओ अमलतास !
सिखलाओगे क्या
अविचलित रहकर
तुम जैसे ही
धीरज रखना
और
तुम-सी ही
मन मोहने की कला मुझे भी?

 

आश्वासन

कच्ची नींद में
महज़ ठंड लगने पर
नहीं ओढ़ी थी चादर मैंने
बल्कि स्वयं के प्रति ये एक
झूठा आश्वासन था
कि, कोई यहीं मेरे साथ है!

 

छूटी हुई जगह

जो कभी भरा हुआ था,
उसे रिक्त भी होना था
इस भरने और रिक्त हो जाने के बीच
जो जगह छूट जाती है
एक उदास व्यक्ति ठीक वहीं खड़ा होता है.

 

गुज़ारा

आधी कटोरी पनिऔधा दाल
ख़ूब तेल में सनी सब्ज़ी
और दो चीमड़ रोटियों में
हो जाती थी गुज़र
हॉस्टल के
छोटे से
सिंगल-सीटेड कमरे में
जिसकी ठंडी मटमैली दीवारों पर
प्रेरक कविताओं के
पोस्टर्स चिपकाकर
काट लिए मैंने
5 अदद साल

वहाँ पंखा भी धीमे-धीमे चलते हुए
कोई मर्सिया गुनगुनाता था
खौलती गर्मी के दिनों में
टेबल-फैन रखने के
300 रु. अलग से लगते

एक छोटी सी
अलमारी रखी थी
दो ताखों वाली
अँटते नहीं थे उसमें
कपड़े सारे

एक गुलाबी टीशर्ट थी
मेरे पास
उसे इतना पहना
कि घिस गयी थी
आरामदेह हो गयी ख़ूब
कोई ख़ास बात
नहीं थी उसमें

मैं बुरी दिखूँ
फिर भी उसे कोई
गिला नहीं हुआ मुझसे
बल्कि गाढ़े दिनों में
और भी नेह से
चिपटी रही वो मेरी देह में

उधर सुन्दर कपड़ों को
तलब होती
कि, उन्हें पहनूँ जब
सुन्दर दिखूँ
मृगनयनी सी
आँखों में
आंजा हो गहरा काजल
भौंहें धुनष-सी खिंची हों
पलकें गुड़िया की तरह झपकें
होंठ फटे न हों
गुलाबी, रससिक्त और
प्रिय का चुम्बन लेने को
सतत तैयार !

बावजूद इन सबके
मैं वही पुरानी
गुलाबी टीशर्ट पहनती रही
और फिर एक दिन
उसी के जैसी बन गयी

अपनी पुरानी खुशरंग तस्वीरें देखती,
उन्हें छूती और सोचती…
क्या ऐसे ही बीत जाएगी उम्र
इस त्रासद अनासक्ति में लिपटे
बिना बनाव-सिंगार के
चुपचाप,
अँधेरे में लेटी हुई
सुस्त बिल्ली के मानिंद
कहीं न दिखने की इच्छा लिए!

 

माँ जैसी हो बेटी

जब मेरी बेटी हुई
मैंने बचपन से उसकी इच्छाओं को
कोंपलों की तरह फूटने दिया
मचलने दिया
उसे हवाओं की लय के साथ

उसकी कोमल टहनियाँ
अनन्त दिशाओं में विस्तार ढूँढ सकीं

जीवन के जिन पड़ावों पर कभी मैं हिचकिचाई और डगमगाई थी
उन सभी को
बेधड़क पार कर गयी थी वो.

किसी ने चलती राह में मेरे नितम्ब पर अपना हाथ फेरा था,
मैं चीख-चिल्ला नहीं पाई थी
कुछ कर नहीं पाई थी उस वक़्त
ये घटनाएँ तबसे आम होती गईं
मेरी बेटी ने ऐसे ही किसी कुंठित शख़्स को सरे-राह चाँटा मारा था.

मुझे याद है मेरी
फ़टी जीन्स से दिखती जाँघ के हिस्सों को जब लिप्सा से निहारते थे मर्द
घृणा से बस
घूर कर रह जाती मैं उन्हें
ऐसा फिर हुआ उसके साथ भी,
किन्तु बेटी उस लोलुपता का
करारा जवाब वहीं दे आई थी
उन मर्दों को

‘आहिस्ता बोलो’,
‘ठीक से बैठो’,
‘धीमे हँसो’ जैसी घिसी-पिटी हिदायतें
कभी नहीं दी मैंने उसे

अपने पति की
‘मामूली लगने वाली भूलों’ पर भी
तलाक़ लेने का फैसला
कर बैठी थी वो
मैंने भी नहीं टोका तब उसे
मेरे भीतर का ही
कोई चुप्पा हिस्सा
ख़ुश हुआ था उस दिन

माँ जैसी ही हो बेटी
भला ये कौन स्त्री नहीं चाहती होगी!
पर, मैंने भरसक कोशिश की थी,
उसे अपने जैसा नहीं बनाने की.

 

सुहागन

वह कजली गाती है
मेहँदी रचाती है
उसकी ही सोंधी महक में
छुपा लेती है
सारी तकलीफें अपनी

काँच की हरी चूड़ियों से
भरी होती हैं कलाइयाँ उसकी
वह झूला झूलती है
पति के दीर्घ जीवन की
करती है मंगलकामनाएँ
वह सावन मनाती हुई
छिपा लेती है
कई अनकहे दुःख अपने

बड़ी सुन्दर है वह
वसंत-सी शोख
गुलमोहर झरते हैं
हँसती है जब-जब
माँ, दादी और चाची ने
कितनी बार तो समझाया है
“ऊँचे नहीं हँसना!”
“धीमे बोलना!”
“कम खाना और ग़म खाना!”

पतिव्रता है
हर आज्ञा मानती है
पर, कभी जो दाल में
नमक ज़्यादा हो जाए
या घर के व्याकरण से
बाहर निकलने लगे
उसकी चाहनाएँ
तो गहरे निशान
उकेर दिए जाते हैं
पीठ पर उसके

आधी रात जब
टूटती है नींद
असह्य पीड़ा और स्राव से
वह खामोशियों से ही
कहती है
सिर सहलाने
लिपटकर उनसे ही
वह रो लेती है चुपचाप

फिर सुबह होते ही
एक आवरण तज कर
दूसरा ओढ़ लेती है

इस तरह वह
रखती है लाज हर दिन
माँग के सिंदूर का
कि इसी में शामिल है
जीवन उसका भी
मोक्ष की कामना से विरक्त
रोज़ एक लाल चूनर ओढ़ वह
ख़ुशी से भर उठती है.

__
ankitashambhawi@gmail.com

Tags: अंकिता शाम्भवी
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Comments 22

  1. Hira lal Nagar says:
    4 years ago

    कविताएं वाकई में बहुत अच्छी हैं शाम्भवी की। कविता की इस पौद में विकास की अनंत संभावनायें हैं। बधाई और शाम्भवी को।

    Reply
    • अंकिता शाम्भवी says:
      4 years ago

      बहुत-बहुत शुक्रिया आपका.. 💐💐🙏😊

      Reply
  2. दयाशंकर शरण says:
    4 years ago

    जीवन के कई खट्टे-मिट्ठे अनुभवों को लिए ये कविताएँ पाठक से एक संवाद बनाती उसतक पहुँचती हैं और अत्यंत सहजता से अपनी संवेदना में उसे भी लपेट लेती हैं। जिंदगी का अपना देखा-भोगा सच हीं साहित्य में ज्यादा प्रभावी एवं फलीभूत होता है। इनमें जीवन की बनावटी नहीं, एक नैसर्गिक गंध है। साथ ही, इनमें स्त्री के साथ जन्म से ही लैंगिक भेदभाव और बहुस्तरीय शोषण के विरुद्ध प्रतिवाद का स्वर भी है। अंकिता को बधाई एवं समालोचन को भी।

    Reply
    • अंकिता शाम्भवी says:
      4 years ago

      दयाशंकर सर, आपने इन कविताओं को गहराई से पढ़ा, सराहा, कृतज्ञ हूँ. इस महत्वपूर्ण टिप्पणी के लिए आपका बहुत-बहुत आभार! सादर प्रणाम. 💐💐

      Reply
  3. Prof. Dinesh kushawah says:
    4 years ago

    शाम्भवी की कविताएं पहलीबार पढ़ रहा हूं. बहुत संभावना दिखती है इस कवयित्री में. इतना गहरा अहसास. इतनी तरल और सरल भाषा! कथन की भंगिमा अनोखी. मेरी बधाई और शुभकामनाएं.

    Reply
    • अंकिता शाम्भवी says:
      4 years ago

      बहुत अच्छा लगा आपने पढ़ा सर, आपकी टिप्पणी मेरे लिए अमूल्य है. आभार आपका, सादर प्रणाम 💐💐

      Reply
  4. pratyush chnadra mishra says:
    4 years ago

    अंकिता की यहाँ प्रस्तुत कविताएँ स्त्री मन की एक सहज लगती अभिव्यक्तियाँ हैं.वे हमने चमत्कृत नहीं करती बल्कि सीधे और सहज जीवन की कई अर्थछवियों को खोलते चलती हैं.शुभकामनायें अंकिता,आभार समालोचन.

    Reply
    • अंकिता शाम्भवी says:
      4 years ago

      बहुत बहुत शुक्रिया आपका, कविताएँ पढ़ने और सराहने के लिए 🙏🌻

      Reply
  5. रामप्रकाश कुशवाहा says:
    4 years ago

    अंकिता शाम्भवी की कविताओं ने एक बार फिर चौंकाया और आश्वस्त किया । वह बने-बनाए कविता-पथ को छोड़ती-तोड़ती नदी की तरह बिल्कुल नयी दिशाओं में बहने का जोखिम लेना जानती है । उसके जीने ,सोचने और रचने की भी अपनी अदा है । वह बस ऐसे ही जीवन को जीतते हुए जीती चली जाए । उसका रचा और पढने की प्रतीक्षा और शुभकामनाएँ ।

    Reply
    • अंकिता शाम्भवी says:
      4 years ago

      कितनी सुन्दर बातें लिखीं सर आपने, मुझे बेहद ख़ुशी है कि आपने इन कविताओं को बहुत बारीक़ी से पढ़ा और इतनी सुंदर टिप्पणी की. आपका आशीर्वाद यूँ ही बना रहे, ये मेरे लिए सबसे अनमोल है. आपका बहुत आभार सर, प्रणाम 🙏🌸🌸

      Reply
  6. कैलाश मनहर says:
    4 years ago

    अंकिता साम्भवी की ये कवितायें मर्म और संवेदनाओं के एक भिन्न संसार का दर्शन हैं |उदासियों में रहते हुये भी खुशियों के दृश्य निहारने की ललक इन कविताओं की खूबी है | अंकिता साम्भवी वास्तव में जीवन के अनदेखे पहलुओं की कवि हैं | उन्हें बहुत बहुत बधाई और समालोचन को साधुवाद कि ये कवितायें पढ़ने का मौका दिया |

    Reply
    • अंकिता शाम्भवी says:
      4 years ago

      प्रणाम सर, मैंने पहले भी सदानीरा पर आपकी टिप्पणियों को पढ़ा है. आप बहुत सूक्ष्मता से निरखते हैं, हर एक रचनाकार की कविताओं को. ये बहुत अच्छी बात लगती है मुझे. आप बड़ों से कितना कुछ सीखने को मिलता है हमेशा. मेरी कविताओं पर इतनी सान्द्र और सूक्ष्म टिप्पणी करने के लिए आपका बहुत आभार सर, प्रणाम. 🙏🌸🌸

      Reply
  7. Anonymous says:
    4 years ago

    भोगी हुई स्वयं की वेदना की सुंदर अभिव्यक्ति है।शब्दों को बहुत अच्छी तरह पिरोया है आपने।आपके सफल और सुंदर काव्य जीवन के लिए असीम शुभकामनाएं।

    Reply
    • अंकिता शाम्भवी says:
      4 years ago

      आपका बहुत शुक्रिया 🌻

      Reply
  8. Anupama says:
    4 years ago

    सुन्दर सृजन!
    शुभकामनायें क़लमकार को।

    पढ़वाने के लिए समालोचन का आभार!

    Reply
    • अंकिता शाम्भवी says:
      4 years ago

      आपका मन से बेहद शुक्रिया अनुपमा मैम. 🌸🌻

      Reply
  9. Seema Gupta says:
    4 years ago

    बहुत अच्छी, सच्ची अपनी सी कविताएँ

    Reply
    • अंकिता शाम्भवी says:
      4 years ago

      कितनी ख़ुशी हुई मुझे, ये कविताएँ आपको अपनी सी लगीं. बहुत बहुत शुक्रिया मैम, आह्लादित हूँ मैं. 🌻🙏

      Reply
  10. Vilas Pagar says:
    4 years ago

    प्रख्यात हिंदी कवि और आलोचक अरुण देव अपनी वेब पत्रिका ‘समलोचन’ पर नई लेखकों की रचनाओं को प्रकाशित कर उन्हें प्रकाश में लाते हैं. कल उन्होंने युवा कवयित्री अंकिता शाम्भवी की खूबसूरत कविताएं प्रकाशित की हैं, मैंने उन दो लघु लेकिन गहन कविताओं का मराठी में अनुवाद करने की कोशिश की है ।

    Reply
    • अंकिता शाम्भवी says:
      4 years ago

      पुनः आपका बहुत बहुत आभार, आपकी वजह से मेरी दो छोटी कविताएँ भाषा की एक सीमा लांघ सकीं, ये इतना सुखद है मेरे लिए कि, आकंठ प्रसन्नता में डूबी हूँ, आशीर्वाद बनाए रखें, आप बड़ों के स्नेह से आगे रचनात्मक बने रहने की ऊर्जा मिलती है मुझे. अरुण सर का पुनः-पुनः आभार. 💐💐

      Reply
  11. अंचित says:
    4 years ago

    अंकिता की कविताएँ हमेशा पसंद आती हैं। अवसाद भी खूब पसंद आयी। बार बार पढ़ने वाली कविता। अन्य भी कमाल। समालोचन का शुक्रिया पढ़वाने के लिए ।

    Reply
  12. M P Haridev says:
    4 years ago

    अंकिता शाम्भवी की कविताएँ यदि समालोचना में न छपतीं तब समालोचना की एक खिड़की बिना खुली रह जाती । चादर ओढ़कर अपने साथ किसी के होने के अहसास की ख़ूबसूरत कल्पना कविता में की गयी है । गुलाबी टी-शर्ट 👚 की कहानी का मेरा भी अनुभव है । मैं कान को उलटे हाथ से पकड़ रहा हूँ । ग़लती से कभी सिलवायी गयी क़मीज़ का कपड़ा कठोर निकल आया बेशक वह क़ीमती था, मैंने उसे एक बार पहनने के बाद कभी नहीं पहना । किसी पात्र व्यक्ति के मिल जाने पर क़मीज़ उसे दे दी । जीवन में हमेशा सूती कपड़े पहने । अरविंद मिल के बने हुए । सर्दियों में मजबूरी में पूरी बाज़ू की क़मीज़ पहननी पड़ती है । ताकि स्वेटर या कोट-पैंट पहना जा सके । मुलायम कपड़े की क़मीज़ का कालर घिसने के बाद भी उसे पहनना नहीं छोड़ा । गर्मियों में आधी बाज़ू के घिसकर हलका फट जाने पर भी बैंक में पहनकर जाता रहा । ज़िंदगी की शारीरिक और मानसिक तकलीफ़ों में घिसे हुए कालर की क़मीज़ सुकून देती है । मेरा अनुभव है कि रेमंड्स के कलर प्लस की टी-शर्टें सर्वश्रेष्ठ होती हैं । अमलतास के पीले फूल गर्मियों के मौसम में अपनी कोमलता बनाये रखते हैं । पीपल का पेड़ पतझड़ में इसलिए झड़ते हैं कि नयी कोंपलें फूट सकें ।

    Reply

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