• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » करघे से बुनी औरत : शिव किशोर तिवारी

करघे से बुनी औरत : शिव किशोर तिवारी

कविताएँ हमेशा की तरह खूब लिखी जा रही हैं, तमाम माध्यमों से उनके प्रकाशन की बहुलता २१ वीं सदी की विशेषता है. कविताओं को जितना ‘देखा’ और ‘पसंद’ किया जा रहा है क्या उन्हें उतना ही पढ़ा भी जा रहा है ? अगर वे पसंद की जा रही हैं तो उनमें ऐसा ‘अद्भुत’ और ‘अद्वितीय’ क्या है ? उच्चतर कलाकृति में विमोहित करने के जो गुण होते हैं, उनकी अंतिम व्याख्या संभव नहीं है. पर यह जो वश में कर लेता है वह क्या है ? इसे समझने की कोशिशें होती रही हैं. उनमें अंतर्निहित विचार की विवेचना भी की जाती है. काव्य सौन्दर्य और विचार-तत्व को उद्घाटित करने का यह जो उपक्रम है उसका भी अपना महत्व है.  आज पढ़ते हैं अनुराधा सिंह की कविताओं पर शिव किशोर तिवारी को.

by arun dev
July 9, 2018
in समीक्षा
A A
करघे से बुनी औरत : शिव किशोर तिवारी

S.H Raza Gods Dwell Where the Woman is Adored 1965

फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें
ईश्वर नहीं नींद चाहिए
शिव किशोर तिवारी

यह पुस्तक-समीक्षा नहीं है, न आलोचना. कुछ नया और पुरअसर दिखा तो उसे बांटना चाहता हूँ. इसे एक पाठक की मनबढ़ई समझिये. दो कविताओं से आरंभ करता हूँ. दोनों का मूड अलग-अलग है, पर दोनों एक-सी मारक हैं. पहली कविता –

अबकी मुझे चादर बनाना
मां ढक देती है देह
जेठ की तपती रात भी
‘लड़कियों को ओढ़कर सोना चाहिए’
सेहरा बांधे पतली मूंछवाला मर्द
मुड़कर आंख तरेरता
राहें धुंधला जातीं पचिया चादर के नीचे
नहीं दिखते गड्ढे पीहर से ससुराल की राह में
नहीं दिखते तलवों में टीसते कींकर
अनचीन्हे चेहरेवाली औरत खींच देतीं
बनारसी चादर पेट तक
‘बहुएं दबी ढकी ही नीकी’
चादर डाल देता देवर उजड़ी मांग पर
और वह उसकी औरत हो जाती

मां, इस बार मुझे देह से नहीं
खड्डी से बुनना
ताने बाने में
नींद का ताबीज बांध देना
चैन का मरहम लेप देना
मौज का मंतर फूंक देना
बुनते समय
रंग-बिरंगे कसीदे करना
ऐसे मीठे प्रेम गीत गाना
जिसमें खुले बालों वाली नखरैल लड़कियां
पानी में खेलती हों
धूप में चमकती हों गिलट की पायलें.

मां, अबकी मुझे देह नहीं चादर बनाना
जिसकी कम से कम एक ओर
आसमान की तरफ उघड़ी हो
हवा की तरफ
नदी की तरफ
जंगल की तरफ
सांस लेती हो
सिंकती हो मद्धम-मद्धम
धूप और वक्त की आंच पर.

गांव की लड़की, बचपन से कदम-कदम पर नसीहतें पाई हुई कि लड़कियों को कैसा होना चाहिए और क्या करना चाहिए. उसका कोई व्यक्तित्व नहीं. वह बस लड़की है. एक दिन लोग उसे बहू बना देते हैं. इस भूमिका-परिवर्तन में भी उसकी सम्मति अनावश्यक है. इस भूमिका की प्रकृति भी अपरिचित लोग निर्धारित करते हैं, जैसे, “बहुएं दबी-ढकी ही नीकी.” विवाह की दो बातें ही लड़की के चित्त को स्पर्श करती हैं – पतली मूछों वाला, आंख तरेरता दूल्हा और उसकी ओढ़नी खींचती अपरिचत औरतें. दूल्हे के प्रति लड़की के मन में भय और आशंका है. अपरिचित औरतों का उसके ऊपर इतना अधिकार होना उसे डराता है.परंतु “सेहरा बांधे पतली मूछों वाला मर्द/मुड़कर आंख तरेरता” यह चित्र कुछ हास्यास्पद भी है. लड़की को शायद भय के साथ थोड़ी हंसी भी आती है. इसी तरह अपरिचित हाथों द्वारा छुआ जाना जिस तरह लड़की को विचलित करता है उसमें प्रतिरोध की गंध है. चित्र अब जटिल दिखने लगता है.
(अनुराधा सिंह)

बिना किसी भूमिका के अचानक ये पंक्तियाँ प्रकट होती हैं –“चादर डाल देता देवर उजड़ी मांग पर/‍और वह उसकी औरत हो जाती”. उत्तर भारत के अनेक भागों में चादर डालने का रिवाज़ था. यहां भी स्त्री के ऊपर पति ही नहीं पति के परिवार का भी स्वामित्व संस्कृति का अंग है. स्त्री की इच्छा-अनिच्छा महत्त्वपूर्ण नहीं है. “उसकी औरत हो गई” में स्वामित्व बदलने की ध्वनि है.

इसके बाद का पूरा हिस्सा इस स्त्री का “इंटर्नल मोनोलॉग” है. साधारणतः इसे फ़ैंटेसी समझा जा सकता है. चादर का उसके जीवन पर इतना प्रभाव रहा है कि वह सोचती है कि चादर होना लड़की होने से अधिक काम्य है. परंतु हमें कल्पना करनी होगी कि स्त्री अपना मानसिक संतुलन खो चुकी है. मेरे विचार से इस प्रसंग को लोकगीत की तकनीक से अधिक स्वाभाविक ढंग से समझा जा सकता है. लोकगीतों में इस तरह की असंभव जल्पनाएं मन की व्यथा व्यक्त करने का सामान्य माध्यम हैं.

अंतिम नौ पंक्तियों में कुछ अतिविस्तार लग सकता है पर लोकगीत की तकनीक के हिसाब से अस्वाभाविक नहीं है.

दूसरी कविता जो मैं साझा करना चाहता हूँ उसका मूड गुस्सैल और आक्रामक है, पहली कविता से बिलकुल अलग –

सद्दाम हुसैन हमारी आखिरी उम्मीद था

लिखित लिख रहे थे
प्रयोग बनते जा रहे थे
अंकों और श्रेणियों में ढल रहे थे
रोजगार बस मिलने ही वाले थे
कि हम प्रेम हार गये
अब सद्दाम हुसैन हमारी आखिरी उम्मीद था

पिताओं की मूछें नुकीली
पितामहों की ड्योढ़ियाँ ऊँची
हम कांटेदार बाड़ों में बंद हिरनियाँ
कंठ से आर पार बाण निकालने
की जुगत नहीं जानती थीं
बस चाहती थीं कि वह आदमी
इस दुनिया को बारूद का गोला बना दे
हम युद्ध में राहत तलाशतीं
अपनी नाकामी को
तुम्हारी तबाही में तब्दील होते देखना चाहती थीं
हाथों में नियुक्ति पत्र लिए
कृत्रिम उन्माद से चीखतीं
घुसती थीं पिताओं के कमरे में
उसी दुनिया को लड्डू बांटे जा रहे थे
जिसने बामन बनिया ठाकुर बताकर
हमसे प्रेमी छीन लिये थे
सपनों में भी मर्यादानत ग्रीवाओं में चमकता
मल्टीनेशनल कंपनी का बिल्ला नहीं
बस एक हाथ से छूटता दूसरा हाथ था
ये विभाग स्केल ग्रेड क्लास
तुम्हारे लिए अहम बातें होंगी
हमने तो सरकारी नौकरी का झुनझुना बजाकर
दिल के टूटने का शोर दबाया था

हम सी कायर किशोरियों के लिए
जातिविहीन वर्गविहीन जनविहीन दुनिया
प्रेम के बच रहने की इकलौती संभावना थी
क्षमा कीजिए, पर मई 1992 में सद्दाम हुसैन हमारी आखिरी उम्मीद था.

इस कविता की वाचक एक निश्चित समय की घटनाओं का ज़िक्र कर रही है- मई 1992, अत:  यह विचार आना स्वाभाविक है कि यह आत्मकथात्मक हो सकती है. लेकिन “कांटेदार बाड़े में बंद हिरनियाँ” लिखकर और इसके बाद कई बार बहुवचन का प्रयोग करके कवि ने इस संभावना के विषय में एक द्विविधा उत्पन्न कर दी है. इससे कविता में जो ‘ऐम्बिगुइटी’ पैदा हुई वह भी उसका आकर्षण बन गई है. अर्थात् आप इसे कम से कम दो तरीक़े से व्याख्यायित कर सकते हैं.

रोष और विद्रोह की शब्दावली के पीछे जाकर ज़रा देर से समझ में आता है कि यह कविता प्रेम के बारे में है. बल्कि प्रेम की असफलता के बारे में है. किसी उच्च वर्ण के सम्पन्न कदाचित् ग्रामीण परिवेश में वाचक को किसी अन्य वर्ण के युवक से प्रेम हो जाता है. सामाजिक कारणों से यह प्रेम असफल हो जाता है. वाचक तब संभवत: किशोरी थी, अनेक बंधनों में बँधी – बाड़े में क़ैद हिरनी. जिस वाण से उसका कंठ विद्ध था उसे निकालकर मुखर होने की संभावना भी उसके लिए अज्ञात थी. विद्रोह भीतर घुटकर रह गया. बाद में सरकारी नौकरी या करियर को प्रेम में असफलता की भरपाई की तरह प्रस्तुत किया गया. किन्हीं अन्य लड़कियों को मल्टी नेशनल कंपनियों की मोटी तनख़्वाह वाली नौकरियां क्षतिपूर्ति की तरह मिलीं. पर यह क्षतिपूर्ति निरर्थक थी. अपनी मर्ज़ी से प्रेम और विवाह करने का अधिकार कविता के अंत में भी सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है. और मई 1992 में तो किशोरियों के लिए प्रेम जीवन से अधिक मूल्यवान थ. वस्तुत: यह कविता किशोर प्रेम की स्वतंत्रता की मांग है. तब की प्रतिक्रिया याद आती है – अच्छा हो कि सद्दाम हुसैन ऐसा सर्वनाशी युद्ध छेड़ दे जिसमें दुनिया ही नष्ट हो जाय.

भारतीय परिवेश में स्थित किशोर प्रेम की यह कविता इतनी देसी और सच्ची है कि इसका कोई सानी याद नहीं आता. ‘कंट्रोल्ड एक्प्लोज़न’ जैसी भाषा में लिखी हुई कविता में प्रेम की राह में बिछी बारूदी सुरंगों के विरुद्ध वाचक माँगती है जातिविहीन, वर्गविहीन, जनहीन दुनिया. प्रेम के लिए जातिविहीन और वर्गविहीन न हो सके तो दुनिया जनविहीन हो जाय !

अनुराधा सिंह के इस पहले संग्रह की ज्यादातर कविताएँ स्त्री होने के बारे में हैं. परंतु स्त्री एक निर्विशेष (undifferentiated) समूह नहीं है. स्त्रियों में भी वर्ग हैं – शहर की स्त्री और गांव की, सुरक्षा खोजती स्त्री और स्वतंत्र पहचान खोजती स्त्री, ग़रीब स्त्री और अमीर या मध्यवित्त स्त्री, शिक्षित स्त्री और अशिक्षित स्त्री, बड़ी जाति की स्त्री और छोटी जाति की – अनेक विशेषक हैं. अत: कवि के सामने दो चुनौतियाँ होती हैं – एक, कुछ सार्वभौम अनुभवों की खोज जो स्त्री होने की समरूपता दर्शाती हैं और दूसरी, विशिष्ट स्त्री-समुदाय की उन स्थितियों को रेखांकित करना जो संदर्भ बदलकर अनेक स्त्री- समुदायों पर तत्त्वत: लागू है. अनुराधा सिंह की कविताओं में स्थितियों और अनुभवों की विविधता कथ्य में एकरसता नहीं आने देती. ये अनुभव और स्थितियां कहीं वस्तु के रूप में आती हैं, कहीं उपलक्षण बनकर.

प्रेम और मातृत्व स्त्री होने के सार्वभौम अनुभव हैं. प्रेम के विषय में इस संग्रह में सबसे अधिक कविताएं हैं. ये प्रेम की कोमल कविताएँ नहीं हैं, अधिकतर मोहभंग की कविताएं हैं. मानव सभ्यता के आदि से प्रेम स्त्री के लिए घाटे का सौदा रहा है – ‘अनईक्वल एक्सचेंज’ जिसमें शोषण का तत्त्व अपरिहार्य रूप से अंतर्निहित है. संग्रह की पहली कविता ही इस unequal exchange पर तीखी टिप्पणी करती है –

“धरती से सब छीनकर मैंने तुम्हें दे दिया
कबूतर के वात्सल्य से अधिक दुलराया
बाघ के अस्तित्व से अधिक संरक्षित किया
प्रेम के इस बेतरतीब जंगल को सींचने के लिए
चुराई हुई नदी बांध रखी अपनी आंखों में
फिर भी नहीं बचा पाई कुछ कभी हमारे बीच
क्या सोचती होगी पृथ्वी
औरत के व्यर्थ गए अपराधों के बारे में.“
(‘क्या सोचती होगी धरती’)

मातृत्व के विषय में एक प्रभावोत्पादक कविता है ‘बची थीं इसलिए’. इसे ‘न दैन्यं…नामक कविता के साथ पढ़ें तो कवि की किंचित् ‘डार्क’ दुनिया को समझने में मदद मिलेगी. दूसरी कविता से एक उद्धरण –

“एक घर था जिसमें दुनिया के सारे डर मौजूद थे
फिर भी नहीं भागी मैं वहां से कभी
यह अविकारी दैन्य था
निर्विकल्प पलायन
न दैन्यं न पलायनम् कहने की
सुविधा नहीं दी परमात्मा ने मुझे.”

विराम देने के पहले स्वीकार करता हूँ कि इस टिप्पणी में संग्रह के साथ पूरा न्याय नहीं हो सका. जैसा निवेदन कर चुका हूँ, मैं समीक्षक नहीं बल्कि एक मनबढ़ू पाठक हूँ.
_______________________

शिव किशोर तिवारी
२००७ में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त. 

हिंदी, असमिया, बंगला, संस्कृत, अंग्रेजी, सिलहटी और भोजपुरी आदि भाषाओँ से अनुवाद और आलोचनात्मक लेखन.5/31, विकास खंड,गोमती नगर, लखनऊ- 226010
tewarisk@yahoocom

Tags: अनुराधा सिंहकरघे से बुनी औरतशिव किशोर तिवारी
ShareTweetSend
Previous Post

लोकधर्मिता और कुछ कविताएँ : विजेंद्र

Next Post

सबद भेद : सेवासदन : हुस्न का बाज़ार या सेवा का सदन : गरिमा श्रीवास्तव

Related Posts

मर चुके लोग : जेम्स ज्वायस : अनुवाद : शिव किशोर तिवारी
अनुवाद

मर चुके लोग : जेम्स ज्वायस : अनुवाद : शिव किशोर तिवारी

भय: होमेन बरगोहाईं: अनुवाद :  रीतामणि वैश्य
अनुवाद

भय: होमेन बरगोहाईं: अनुवाद : रीतामणि वैश्य

एक आँख में शहर, दूसरी में किताब: अनुराधा सिंह
आलेख

एक आँख में शहर, दूसरी में किताब: अनुराधा सिंह

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक