यह दुनिया ऐसी क्यों है? (मैं वो शंख महाशंख पढ़ते हुए) निरंजन सहाय |
अरुण कमल की कविता जेठ के मौसम की पुरवाई है. इसे कोरा काव्यात्मक बयान न समझा जाये. अरुण कमल के संग्रह `मैं वो शंख महाशंख’ से गुज़र कर इस कथन की बहुरंगी भंगिमाओं को बखूबी समझा जा सकता है. विकास के पूंजीवादी फलसफे में जब विनाश को अपरिहार्य कहने की होड़ लगी हो और उसके समर्थक इसे `क्रिएटिव डेस्ट्रक्सन’ यानी सर्जनात्मक ध्वंस कहकर उचित ठहरा रहे हों, ऐसे में स्मृतियों को सहेजकर भविष्य रचने के सपने पर भरोसा कायम रखना न केवल श्रेष्ठ कला मूल्य है, अपितु मनुष्यता के पक्ष में भरोसे को कायम रखने का जज़्बा भी है. अरुण कमल इसी भरोसे और श्रेष्ठ कला मूल्यों के कवि हैं.
जब वर्तमान का क्षय दुर्दान्त रूप से सम्पन्न हो रहा हो तब प्रायः यह चिंता सताती है कि जो अपरूप अनुभव संसार है, उसकी स्मृतियों को हर दाँव लगाकर कैसे सहेजा जाये. इस अर्थ में हम अरुण कमल को स्मृतियों का अपूर्व कवि कह सकते हैं. बरास्ते `मैं वो शंख महाशंख’ अरुण कमल की काव्य भूमि के इस नए दौर को समझने की कोशिश करें.
भूमंडलीकरण और मुक्त बाज़ार की यात्रा के पहले चरण में उदारीकरण, विनिवेशीकरण और निजीकरण के एजेंडे को लागू कर राज्य के हस्तक्षेपधर्मी स्वभाव को कुंद किया गया और अब दूसरे चरण में बाज़ार सुधार यानी मार्केट रिफार्म्स के एजेंडे को पूरा करने में भारत समेत अन्य देश लग चुके हैं. इस दौर में सब्सिडी ख़त्म करने और उपभोक्ता संस्कृति को जन-जन तक पहुंचाने के लक्ष्य को हासिल करना है. राज्य और अर्थव्यवस्था के आपसी संबंध में इस व्यवस्था ने जो बदलाव किया है, उसे `राज्य का पीछे हट जाना’ ( विदड्रौल ) पदबंध से प्रकट किया गया. दरअसल यह राज्य का पीछे हट जाना नहीं है, बल्कि राज्य का परिवर्तित होना है, अब राज्य जनकल्याणकारी (वेलफेयर) की जगह शुद्ध पूंजीवादी राज्य बनने की होड़ में लग चुका है. अब राज्य ने बुनियादी जिम्मेदारियों यानी आहार, आवास, शिक्षा, चिकित्सा जैसी पारंपरिक ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने की और निकल चुका है. अब यह मान लिया गया है ये सभी सुविधाएँ बाज़ार में उपलब्ध हैं, और जिन्हें ज़रूरत है वे बाज़ार जाकर खरीद लें. सवाल है जो खरीदने में समर्थ नहीं है, वे क्या करें. उनके लिए राज्य का फैसला है वे अपनी मौत मर जाएँ.
इस दौर में कविता क्या करे ? दरअसल जो लेखन अपने दौर में पराजितों या हाशिए पर पड़े समाज की अनथक संघर्षगाथा को अपने दायरे में समाहित नहीं करता, वह यथार्थ की गति को पकड़ने में स्वाभाविक रूप से असफल या असमर्थ होता है. इस अर्थ में अरुण कमल उसी संसार की गाथा का काव्यात्मक रूपांतरण करने वाले कवि हैं, जो लगातार पराजित होने के बावजूद अपने संघर्ष की लौ को ज़िंदा रखने में सफल हैं. उनकी स्मृतियों के वृत्त में प्रेम, सरहद, यादों को सहेजने की चिंता, हिंसक सभ्यता की आक्रामकता, बाज़ार में खड़े धर्म का बाज़ारू रूप, धीमे– धीमे बजते दुःख की उदासी, संघर्ष, आस्था, व्यवस्था का संकट, किसान, वामपंथ आदि अनेक संदर्भ हैं. प्राय: इन विषयों पर आज के कवि रचनारत हैं, सवाल है कि अरुण कमल अन्य कवियों से किस अर्थ में विशिष्ट हैं? दरअसल अरुण कमल की कविता ठेठ हिन्दुस्तानी आवाज़ की बारीक से बारीक रंगतों को पकड़ने में सिद्धहस्त है. वे ठेठ देशज बिम्बों को जिस खूबसूरती से पकड़ते हैं, वह लाजवाब है. उनकी कविता में रेंगनी काँटों के पीले फूल जिस सहजता से उपस्थित हैं, उसी सहजता से धूसर गिरगिट, पुरकस भीड़ जैसे बिम्ब भी. इन बिम्बों की पुनर्रचना कवि की निजी विशिष्टता कही जा सकती है.
इसी क्रम में यह समझने का प्रयास किया जाये कि अरुण कमल की कविता का प्रस्थान बिंदु क्या है. जैसे भक्तिकाल के कवियों की कविता का प्रस्थान बिंदु समर्पण है, रीतिकाल के कवियों की कविता का प्रस्थान बिंदु प्रेम के आवेग की सघनता का चित्रण है उसी तरह आधुनिक काल के कवियों के भी अपने अपने प्रस्थान बिंदु हैं. और इस प्रस्थान बिंदु की अंतर्धारा कवि के काव्यलोक में अप्रतिहत बहती रहती है. अन्य शब्दों में उसके काव्यलोक की जड़ें वहीं से पोषण पातीं हैं. अरुण कमल की कविता की अंत:सलिला में उस आम आदमी की पक्षधरता की धारा का आवेग है जिसकी गिनती तक से संस्थाएं परहेज करती है. कवि अपनी पक्षधरता उस नायक के साथ घोषित करता है, जिसकी उम्मीदें लगातार पराजित होने के लिए अभिशप्त हैं, पर उसकी जिजीविषा अदम्य है और जो घोषित करता है– `मैं वो शंख महाशंख’. अर्थात् अपनी पूरी ऊर्जा के साथ अपने होने के सबूत के साथ. संग्रह की शुरुआत ही होती है, जनगणना कविता से जिसका नायक घोषित करता है–
जिसके वास्ते किसी अदहन में डाला नहीं जाएगा चावल
जिसके नाम की रोटी नहीं पकेगी वो मैं हूँ.
जब भी उनकी गिनती गलत होगी
जब भी वे हिसाब नहीं मिला पाएंगे
मैं हँसूँगा आंकड़ों के पीछे तालियाँ देता
वो मैं हूँ मैं वो अंक वो शंख महाशंख.
इसी पक्षधरता का सिरा जुड़ता है प्रतिरोध की असीम यात्रा से. वे हिन्दी की जातीय परंपरा के एक स्वर यानी प्रतिरोध को जब चित्रित करते हैं, तब उसे अपने विशिष्ट अंदाज़ में रचते हैं. वे अमूर्तन की कुलांचे भर, देश काल निरपेक्ष तटस्थता से अलग कवि कर्म को जीवन समर बना डालते हैं. `डासत ही गयी बीती निशा सब’ या `दुखिया दास कबीर’ की चिंताओं से लबरेज कवि जब अपना पक्ष चुनता है तब उसकी चिंताएं विकसती हुई वैश्विक सन्दर्भों तक विस्तृत हो जाती है, बकौल कवि–
नहीं मैं हारा नहीं हूँ
मैं भी वो सब करूँगा
हम सब वो सब करेंगे जो हम जैसे लोग तब से
करते आ रहे हैं जब से यह दुनिया बनी
जो अभी अभी बोलिविया कोलंबिया ने किया
जो अभी–अभी नेपाल के बांकुड़ों ने किया
और मैं बार–बार पूछता रहूँगा वही एक पुराना सवाल–
यह दुनिया ऐसी क्यों है ?
आधुनिकता ने अबाध लालच से लैस पूंजी विस्तार के अवसर और मुक्त बाज़ार को संभव किया है तो लोकतंत्र भी दिया है. और जिस लोकतंत्र के पक्ष में अरुण कमल की कविता खड़ी है, उसके सरोकार बिलकुल साफ हैं. कवि उस रूढ़िवाद से वाकिफ है जहाँ बहस, असहमति, खंडन, कलात्मक और सौन्दर्यपरक आजादी को देशप्रेम और संस्कृति के मोहक खोल में छुपाया जाता है. लोकतंत्र का मतलब है स्वतंत्रता, पारदर्शिता, जवाबदेही, खुलेपन की मौजूदगी, असहमत होने की सामर्थ्य का संसार और दूसरे पक्ष को भी सुनाने का विवेक. इस लोकतांत्रिक आधुनिकता का वैश्विक सन्दर्भ है, और इसी भूमि पर अरुण कमल दुनिया के मजलूमों का आह्वान करते हैं–
नहीं यह चुप बैठने का समय नहीं
सँभालो अपने टूटे बिखरे औजार
हमारे हथियार कमजोर हैं पर पक्ष मजबूत
चारों तरफ से फिर उठ रही है वो पुकार
नए कंठों से
केदार जी अपने संग्रह `सृष्टि पर पहरा’ में कहते हैं, `यह कैसी अनबन है कविता का सीकरी के साथ’, और हिन्दी की विरासत की स्थायी टेक का सिरा मिल जाता है. सीकरी यानी सत्ता का वैभव. इस तिलिस्म में जनसरोकारों की बलि चढ़ती है. जिन रचनाकारों ने शब्द वैभव से सत्ता की चाकरी की उसके लिए भारतीय कला संसार ने एक वर्ग बनाया, चारण कविता का. जिन्हें सत्ता की चाकरी प्यारी है वे शौक से रहें उस पाले में. जिन कवियों की रचना जन भावना के साथ हैं उनकी जनविरोधी सत्ता से असहमति की राजनीति का रिश्ता है.
जिस कवि के पास राजनीतिक विवेक नहीं होता, वह अपने अवसरवाद को कला के शाश्वत मूल्यों की आड़ में छिपाने का कुत्सित खेल खेलता है. अरुण कमल की राजनीतिक दृष्टि साफ है. वे हिंदी की जनवादी परंपरा का विस्तार करते हुए अपने अंदाज में काव्य संधान करते हैं. संग्रह की अनेक कविताओं में वामपंथी चेतना के प्रभावी दृश्य बिम्ब मौजूद हैं. संघर्ष में हार जीत का सवाल नहीं है. सवाल है उस लौ को जलाए रखने का जो अपार अन्धकार में बदलाव की बयार का सपना देखता है. इस लिहाज से संग्रह की कुछ कविताओं पर बरबस हमारा ध्यान चला जाता है. खुली मुट्ठी, थूक, सरकार और भारत के लोग, नदी और नाला जैसी कवितायेँ इस लिहाज से ख़ास तौर पर उल्लेखनीय हैं. `खुली मुट्ठी’ कविता में सर्वहारा मज़दूर की संकल्पशक्ति देखने लायक है. वे असंगठित मज़दूर हैं, भौतिक संसाधनों से हीन हैं और उनके पास असुरक्षित भविष्य है लेकिन उनका विद्रोह लाजवाब है–
वे हारे या जीते यह अलग बात है
मुख्य यह है कि दो दिहाड़ी मज़दूरों ने हड़ताल की
जो किसी यूनियन में नहीं थे
न जिनके कोई कोई था न पीछे
जिनका जीवन साल से नहीं दिन से नापा जाता है
वे असंगठित मज़दूर थे खुली हुई मुट्ठी–
देश खडा हो रहा था.
संकल्प शक्ति का सामना जब बाज़ार से होता है, तब भविष्य दृष्टि ही वह ताकत देती है, जिसके बल पर अडिग होता है, विवेक. बहुत मार्मिक दृश्य बिम्ब से सम्पन्न कविता `एक बिम्ब’ को इस लिहाज से देखा जा सकता है–
धरना से वापस घर लौट रहा था
एक बाप और बेटा उंगली पकडे
झंडा था छड़ी में लपेटा हुआ कंधे पर
और अभी भी सीने पर टंगा था बिल्ला ,
शाम हो रही थी भीड़ थी जगमग बाज़ार था
चुपचाप चला जा रहा था एकटक ताकता आगे
धरना से वापस घर , एक बाप एक बेटा.
ध्यान देने की बात है बिल्ला जहां टंगा है, उस सीने के अन्दर धड़कता दिल भी है, वह दिल जो विचार के इश्क में डूबा है. और आँखें आगे देख रहीं हैं, यानी भविष्य दृष्टि की मौजूदगी. एक साधारण दृश्य का असाधारण बिम्ब में रूपांतरण. राजनीतिक प्रतिबद्धता से जुडा हुआ मसला है, व्यवस्था के संकटों और उसके कारकों की सटीक पहचान करना.
`सरकार और भारत के लोग’ कविता इस लिहाज से उल्लेखनीय है. सरकार की भूमिका जन सरोकारों से लगातार दूर होती जा रही है, और वह अप्रासंगिक होती जा रही है. किश्तों में मरते इस लोकाविहीन लोकतंत्र की सूक्ष्मताओं को कवि दृष्टि अपने अंदाज़ में देखती है. जहां अर्थशास्त्र अपने आंकड़ों के मुल्लमे में हकीकत को नज़र अंदाज़ करने की जुगत भिड़ाए, वहाँ जनता के बुनियादी भरोसे का डांवांडोल होना स्वाभाविक है. इस तंत्र का पहला प्रभाव यह हुआ कि स्कूल और अस्पताल मरणासन्न हुए. कवि इस मसले के कुछ दृश्य बिम्बों को अपने अंदाज़ में पकड़ता है–
सरकार लगातार उदार हो रही थी
हर जगह से अपने हाँथ खींच रही थी
गलतियाँ सुधार रही थी
मैली कथरियाँ सरेआम फींच रही थी
गौर करने की बात है कि कवि ने सरकारी जुमले का काव्यात्मक संधान करते हुए अपनी राजनीतिक दृष्टि को ओझल नहीं होने देता. सरकार की उदारता पहली नज़र में मैली कथरियों को धोने का भ्रम रचती है, पर यह तिलस्म उस समय टूटने लगता है, जब इसके निहातार्थ स्पष्ट होने लगते हैं, बकौल कवि –
इसी तरह समझिए कि स्कूल थे लेकिन
कमरों में सुअर घूमते घंटी मंदिर में बजती
और मास्टर मुर्गियां गिनने के काम में लगाए गए थे
और चूंकि एक गिनती होते न होते कुछ और अंडे फूटते
सो गिनती हर बार शुरू से शुरू होती
इस भाँति ज्ञान सर्वसुलभ था शिक्षा स्वतंत्र थी पर हर विद्यार्थी पर कर्ज था.
सरकार की निरर्थकता के इन दृश्यों को साया करने के बाद, अरुण कमल बेहद मार्मिक दृश्य को अत्यंत सटीक बिम्ब के द्वारा प्रस्तुत करते हैं. वे सामंतवाद और लोकतंत्र के मौजूदा परिदृश्य में सातत्य बताते हुए कविता का समापन अपने अंदाज़ में करते हैं–
हर दो मील पर रंगदार थे
कोई भी कहीं भी मारा जा सकता था ऐसी उदारता थी
परन्तु हर नागरिक को पहचान पत्र लेकर चलना अनिवार्य था
विध्वंस का सबसे गहरा अवसाद उन्हें होता है जो सृजन करते हैं. कविता में माँ के आने के गहरे प्रतीकार्थ हैं, जो पाठक को अन्दर तक आंदोलित करते हैं. व्यवस्था के संकट के एक रूप को `वित्त मंत्री के साथ नाश्ते की मेज पर’ कविता एक अलग रूप में प्रस्तुत करती है. कवि यानी समवेदना के पूरेपन का आकंठ डूबा अहसास. कविता में वित्त मंत्री कवि को नाश्ते पर आमंत्रित करता है. इस पूरे आयोजन की तस्वीर ली जाती है. कवि को अपने इस कृत्य का अहसास सालता है. उसे लगता है तस्वीर में दर्ज कवि का चेहरा उससे मिलता नहीं. उसका चेहरा दब गया है. अन्य अर्थ में स्वाभिमान साफ तौर पर रिसता हुआ नज़र आ रहा है. जब देश का सबकुछ दांव पर लगा था, ऐसे में कोई कवि खुश कैसे रह सकता था. उसकी बेबसी उस समय और लाचार हो जाती है, जब सत्ता प्रतिनिधि सावधान रहने का तंज कसता है. परस्पर विरोधी बिम्बों का प्रभावी संयोजन इस तरह काव्य आस्वाद को रचता है–
अभी–अभी दिवालिया हुए थे बैंक
करोड़ो-करोड़ो बेरोजगार मधेपुरा में बाढ़ दिल्ली में दहशत
सड़कें भुक्खड़ों से पटीं चारों ओर एक हूक
मेरा सौभाग्य था जो मैं वित्त मंत्री के साथ था उस सुबह
नाश्ते की मेज़ पर
चलते समय उन्होंने उपहार दिया– एक छुरी एक काँटा
मेड इन अमेरिका– और प्यार से कंधा थपथपा
राष्ट्रभाषा में कहा– टेक केयर यंग मैन ! टेक केयर !
पाठक इन पंक्तियों में व्यक्त अवसाद को महसूस करते हुए उस समय सन्न रह जाता है, जब वित्तमंत्री उपहार में काँटा और चम्मच देते हुए कहते हैं `टेक केयर’. यानी सत्ता की नज़रों में ज़िंदा रहने की अब एकमात्र शर्त यही है छुरी से काटकर चम्मच से ग्रहण कर लिया जाये. यानी सार्वजनिक संसाधनों को गप्प कर लिया जाये. इस बेहद मार्मिक बिम्ब के संयोजन से कविता की अर्थवत्ता सधे अंदाज़ में प्रकट होती है. सत्ता और संवेदना के द्वंद्व पर आधारित एक बेहद मार्मिक कविता है- `संधि– पत्र’. भारतीय प्रभु वर्ग जिस दुचित्तेपन का शिकार रहा है, उसमें यह बात स्वाभाविक तौर पर उपस्थित है कि सत्ता शोषित और पीड़ित को ही अपराधी के कटघरे में खड़ा करने की अभ्यस्त रही है. मज़बूत हथियार के रूप में आहत भावना का इस्तेमाल करने का खेल बदस्तूर जारी है. गौरतलब बात यह है कि है जो सबसे ज़्यादा शोषण करते हैं ,उनकी भावनाएं सबसे ज़्यादा आहत होती है. कवि ने इस दृश्य बिम्ब को तमाशे से नवाजा है. परस्पर विरोधी दृश्यों के संयोजन के लिहाज से यह एक बेहतरीन रचना है–
`जब उन्होंने कहा कि मेरी बात से उनकी भावना को
चोट पहुंची है और उनका मर्म आहत हुआ है
तो मैंने एक बार उन सबको देखा यहाँ से वहाँ तक–
जो अपनी पत्नियों को पीटकर आए
जो अपनी बेटियों को मारकर आए
जो अपनी बहुओं को फूंककर आए
जो अपने पड़ोसियों को काटकर आए
जो लाशों पर पैर रखते जयघोष करते आए–
उधर है हृदय, इधर निष्ठुरता
कैसा तमाशा
उधर मर्म इधर हिंसा !
कविता का अंतिम हिस्सा आक्रान्ताओं के सामने एक संधि पत्र पेश करता है. यह संधिपत्र व्यवस्था की बनावट पर अलग तरह से विचार के लिए प्रेरित करता है. और वह भी बेहद सहज प्रस्ताव के साथ. जब संवेदना और संवेदनहीनता दोनों का सामना होता है, तब संवेदना कहती है, चुप रहने का एक ही उपाय है आक्रमण बंद हो. अर्थात जब तक संवेदनहीनता के कुत्सित इरादे जारी रहेंगे तबतक संवेदना उन इरादों के शिकार लोगों के पक्ष में सक्रिय रहेगी. बकौल कवि–
वे चाहते हैं मैं होंठ सी कर रहूँ
पर दहलता है मेरा दिल भुनता है कलेजा
काँपती है आत्मा , जली खाल उतरी देह सी –
तुम्हारी साँस भी मुझे दुख देती है.
तुम भी रोको आक्रमण , मैं भी चुप हो जाऊँगा-
यह रहा संधि–पत्र.
जब संधिपत्र के प्रस्ताव की बात हो रही हो तब, प्रतिरोध की याद आ जाना स्वाभाविक है. सवाल है जब संधि पत्र अनसुना कर दिया जाये, तब क्या हो. तब एकमात्र विकल्प बचता है प्रतिरोध. यह सही है, जितना दमन उतना ही प्रतिरोध. लेकिन कवि को चिंता है,प्रतिरोध के लगातार कम होते स्पेस की. एक अनंत भय और असुरक्षा के आगे सभी विवश. और डर भी कैसा जिसका स्वरूप बहुरूप है. सत्ता की चालाकियों और गलबहिंयाँ निभाती विवशताओं के आगे दम तोड़ती मनुष्यता ! मनुष्यता की परिधि में व्याप्त अभय की लगातार सिमटती दुनिया को कवि दृष्टि यूं परखती है–
वहाँ अपनी जाति से डर था
तो यहाँ अपने धर्म से
वहाँ अपनी भाषा से डर था
तो यहाँ अपने क्षेत्र से
वास्तविक डर से कई गुना अधिक खतरनाक है, वह अमूर्त भय जिसकी परिधि में वर्तमान की साँसों का क्षय हो रहा है –
निरापद कहीं न था
मेरे साथ मेरा भूत घूम रहा था उलटे पाँव से
और वर्तमान की परछाईं थी पीछे गिरती
सामने भविष्य था सूर्य
जिधर बढ़ता जा रहा था और वह लगातार सरकता
पीछे.
जब भय युगधर्म बन जाता है तो समय की आबोहवा बंजर हो जाती है. बंजर आबो हवा का बयान करती एक मार्मिक कविता है `थूक’. यह छोटी कविता अपनी प्रभावधर्मिता में लाजवाब है. सच को सच की तरह कहने और जीने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक कस्बे के महाविद्यालय के प्राचार्य और हिन्दी के प्रगतिशील कवि मानबहादुर सिंह को सच जीने और कहने की कीमत चुकानी पड़ी और उनकी हत्या कर दी गयी. पूरी घटना का मार्मिक पक्ष यह है कि हमारे समय की सभ्यता संस्कृति में लगातार सिकुड़ते जा रहे प्रतिरोध के स्पेस और विकराल होती जा रही नृशंसता को चित्रित करती हुई यह कविता एक विषाद-राग में पर्यवसित हो जाती है और एक मारक चुप्पी की चीख चतुर्दिक फैल जाती है. आइए कविता से गुज़रकर इस चीख को महसूस करें–
जब वह गुंडा प्राचार्य मान बहादुर सिंह को
उनके कक्ष से खींच घसीटे जा रहा था
तब हज़ारों विद्यार्थी जमा थे चारों तरफ़
और वह गुंडा अकेला था और मानबहादुर अकेले
कॉमरेड सुधीर ने घटना बताते हुए कहा था
अगर सब लोग थूक देते एक साथ
तो गुंडा वहीं डूब जाता
यही तो कहते रहे कवि मान बहादुर जीवन भर
पर कितना कम थूक है अब इस देश के कंठ में.
कविता की तीन पंक्तियाँ जिस मारक सच को बेनकाब करती हैं, उनकी बिम्बधर्मिता बेजोड़ है `और वह गुंडा अकेला था और मानबहादुर अकेले’ गुंडे के अकेलेपन का ज़िक्र यह बताता है कि गुंडेपन की विकरालता चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हो वह अकेलेपन के लिए अभिशप्त है. यानी बहुसंख्यक आबादी अभी भी निष्कलुष है, यह पाठकों के लिए एक हद तक आश्वस्त होने वाला मंजर है. पर यह सवाल अब भी अनुत्तरित है कि दिक्कत आख़िर है तो कहाँ है ? दरअसल वह गुंडा अकेला है तो प्रतिरोध भी अकेला ही है. अगर प्रतिरोध सामूहिक होता तो एक सुन्दर और आश्वस्तिदायक दुनिया का सपना भी पूरा होता. पर ऐसा न होना अंतहीन विषाद को जन्म देता है.
कवि मानबहादुर की जिद अकेले ही खड़ा रहने का जोखिम उठाती है. और फिर इस जिद का जबरदस्त काव्यरूपान्तारण करता हुआ बिम्ब पाठकों के सामने बिजली की कौंध की तरह आता है-
यही तो कहते रहे कवि मान बहादुर जीवन भर
पर कितना कम थूक है अब इस देश के कंठ में.
कवि अरुण कमल अकेलेपन की जिद को रचते हुए भारतीय कविता की उस जातीय परंपरा का हिस्सा बनते नज़र आते हैं, जहाँ रवीन्द्र की आवाज़ गूँजती हुयी नज़र आती है कि, `जदी तोमार डाक सुने केऊ ना आचे तबे तुमि एकला चलो रे.’
संग्रह में कवि पक्ष की अंतर्धारा के लिहाज से कुछ अन्य कविताएँ उल्लेखनीय हैं, जैसे – कुछ परिभाषाएँ, पुराना सवाल, जिसने झूठी गवाही दी, संधि–पत्र, आरामकुर्सी, हिचक, रोटी को रोटी, अमरता की खोज, एक बार, आलोचना पर निबंध और अभागा. इनमें ज़्यादातर कविताएँ उत्तम पुरुष शैली में लिखी गयी हैं, यानी काव्य नायक के रूप में कवि स्वयं है जो खुद को संबोधित कर रहा है. कुछ कविताएँ अन्य पुरुष में निबद्ध हैं पर वहाँ भी कविपक्ष की ही प्रधानता है. यानी कवि मुखर रूप से अपना पक्ष घोषित करता है. इस घोषणा की छवियाँ विविधरूपा हैं. `कुछ परिभाषाएँ’ एक छोटी कविता है, पर प्रभाव में एकदम सफल. इस कविता में मौजूदा दौर में बड़ा बनने के नुस्खे को कवि बेनकाब करते हुए कहता है –
जो जितना ज़्यादा लोगों का जितना ज़्यादा नुकसान कर सके
वो उतना ही बड़ा है.
छोटा है वो जो किसी का नुकसान न कर सके.
कविता आगे बढ़ती है और तथाकथित बड़े की दुनिया की राजनीति और उस राजनीति से निर्मित होने वाली सरकार के चरित्र का शिनाख्त करती है–
जो सरकार ऊपर से कुछ न करे
वो अमीरों का काम सबसे अच्छा करती है.
सितारा बनने से अच्छा है
गंदी गली का लैम्प पोस्ट बनना – कवि की इच्छा है.
सितारे का बिम्ब ! सितारा यानी खूब चमकदार और खूबसूरत लेकिन जिससे अन्धेरा दूर न हो और दुनिया रोशन न हो. कवि पक्ष सितारे की ख्वाहिश नहीं करता , वह किसी गंदी गली का लैम्प पोस्ट बनने के लिए तैयार है , क्योंकि उसके वहाँ होने की सार्थकता है. सुन्दर होना एक बात है और सार्थक होना दूसरी बात. भारतीय मध्यवर्ग के बदलते चरित्र पर एक बेहद मार्मिक कविता है, `आरामकुर्सी में’. इसकी गिरफ्त में जब कवि, कलाकार और बुद्धिजीवी भी आ जाये तब यथास्थिति वाद के पक्ष में भयानक चुप्पी का सिलसिला चल निकलता है. कवि पक्ष यह है कि वह केवल आदर्शों के सम्मोहन में नहीं उलझा है. वह व्यवस्था की शिनाख्त के वक्त खुद को भी नहीं बख्शता–
संकीर्णता, स्वार्थ, जातीय हिंसा. पूंजीवाद केवल
आर्थिक पद्धति नहीं है. यह जीवन के विनाश की
सर्वोत्तम पद्धति है. मैं कितना सुरक्षित हूँ, अपनी जाति,
अपने धर्म, अपने क्षेत्र में! और अपनी भाषा में!
लगातार सिकुड़ रहे आत्मीयता के वृत्त पर यह रचना मितकथन की शैली में जो सवाल छोड़ जाती है, उसमें हम सभी के चेहरे पहचाने जा सकते हैं. ठीक इसके दूसरे ध्रुव पर खडी कविता है– हिचक. यह कविता जिस सौन्दर्यदृष्टि को प्रस्तावित करती है, उससे कविपक्ष की पक्षधरता रूपाकार ग्रहण करती है–
जिसने सच-सच कह दी अपनी कहानी
उसे कैसे कहूँ कि इसे सजाकर लिखो.
जिसके पास कुछ नहीं सिवा इस देह के
उसे कैसे कहूँ आज बाज़ार का दिन है.
जो खो चुका है घर–परिवार
उसे कैसे कहूँ पानी उबालकर पियो.
यह हिचक हमें उस समाज से बावस्ता कराती है, जहाँ सभी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक, निर्मितियां सबलों के पक्ष में विकास गाथा की इबारत लिखती हैं और वंचितों को लगातार किस्तों में मारती हैं.
संग्रह की एक बेहद सुन्दर कविता है `अमरता की खोज’. इस कविता में जनता का कवि दुनियावी गोरखधंधे में उलझ जाता है. एक दिन उसे अमरता की चिंता होती है. आध्यात्मिक अमरता नहीं, कवि सत्य पाने की ललक. फिर वह कई लोगों से मिलता है. आलोचक, अकादेमी अध्यक्ष, मंत्री, प्रधानमन्त्री ! दरअसल जैसे ही कदम दर कदम वह इन लोगों की दुनिया में अमरता की तलाश में शामिल होता है. उसे रात में खाँसी आने लगती है. वह खाँसी रोकने की जीतोड़ कोशिश करता है, पर खांसी है कि रुकती ही नहीं. खाँसी का प्रतीकात्मक अर्थ है. सुन्दर और सहेजी हुयी दुनिया में जनसरोकारों का हस्तक्षेप. ख़ास बात यह है कि उस खांसी से आलोचक, अकादेमी अध्यक्ष, मंत्री और प्रधानमंत्री सबको भय लगता है. और खांसी है कि रुकती ही नहीं. कवि खूब प्रयास करता है, पर खाँसी अपनी उपस्थिति दर्ज करा ही देती है. कविता की खूबसूरत अन्विति यह है कि कवि अंततः अपना पक्ष चुन लेता है–
कवि ने तै किया आज वह खाँसेगा नहीं, अब वह कभी नहीं खाँसेगा
उसने अपने को सात सात कम्बलों में लपेटा
पर रात हुई, चाँद उगा, पुरवा बही और दबाते–दबाते भी कवि को
ज़ोर की खाँसी उखड़ी जैसे कोई उसे भीतर से कोड़ रहा हो
और प्रधानमंत्री मय लावलश्कर भागाभागाभागा आया
‘हे कविराज, मेरा कुछ तो ख़याल करो, जनता सुन लेगी तो क्या होगा’.
तब कवि को व्यापा-
चलो फिर वहीं उसी गली के टूटे घर में
जीवन का जो नरक है वहीं अमरता है.
मुक्ति का हर रास्ता जनसरोकारों से गुज़रता है. संग्रह की एक कविता नामवर सिंह के प्रति लिखी गयी है. यह कविता अरुण कमल के कवि रूप में निर्मित होने में जिन लोगों ने योगदान दिया उनके प्रति न सिर्फ शुक्राना भाव प्रकट करती है, बल्कि काव्य प्रक्रिया के कुछ आधारभूत प्रत्ययों से भी पाठकों का साक्षात्कार कराती है. कविता की भूमि बनारस है. यह कविता कवि पक्ष के लिहाज से उल्लेखनीय है. कविता के सूत्र पर काव्यात्मक टिप्पणी है–
नहीं, हर धातु कंचन नहीं होता
और कविता तो अधातु है वत्स,
कोई लिहाज मत करना न बड़े का, न नाम, न कुल गोत्र
लिहाज बस सत्य का ज़रा सा हाथ कँपा कि तस्वीर
डिग जाएगी
कहना न होगा कवि पक्ष है सत्य के लिए संघर्ष. कवि पक्ष के लिहाज से संग्रह की अंतिम कविता भी उल्लेखनीय है, `निगेटिव फोटो’. यह गद्य कविता है, अपेक्षाकृत कविता का नया रूपबंध. कविता का मजबूत पक्ष है, वह भरोसा जो दुनिया की रणभूमि को बखूबी समझती है. कवि को परिणाम पाने की हड़बड़ी नहीं है.
कवि पक्ष की बात तबतक अधूरी रहेगी जबतक कविपरंपरा की भी बात न हो जाये. परंपरा, वर्तमान और निजता के द्वंद्वों को हर दौर का संवेदनशील कवि अपने तरीक़े से देखता है. अरुण कमल अपने परिवेश के शिल्पियों से जब बावस्ता होते हैं तब एक अलग तरह का काव्य संस्कार रूपाकार ग्रहण करता है. संग्रह की एक कविता नज़ीर अकबराबादी के लिए लिखी गयी है. यह कविता इस लिहाज से भी उल्लेखनीय है कि इसमें दृश्य बिम्बों का सधा प्रयोग नज़र आता है. उदाहरण के लिए-
दिन भर खेलते वहाँ बच्चे गौरैया और मेमने
और दिन ढलते जुट आता सारा मोहल्ला
तिल के लड्डू वाले गंडे ताबीज वाले
डुगडुगी बजाता जमूरा रीछ का बच्चा लिये
और रात कोई थका हारा मँगता सो रहता सटकर.
कविता में ख़ास बात यह है कि कवि ने शायर नजीर की कब्र को एक वृहत कैनवास में तब्दील कर दिया है. नजीर अठारहवीं सदी के महान शायर नजीर को नज़्म का पिता भी कहा जाता है. उनका काव्य संसार इस लिहाज से उस दौर में और बाद के दौर में भी खासा लोकप्रिय रहा कि उन्होंने केवल इश्क और खूबसूरती पर ही नज़्म और ग़ज़लें नहीं कहीं, उन्होंने मेले, पशुओं , पक्षियों और आम आदमी के जद्दोजहद पर भी अपनी कलम चलायी. नज़ीर के मिजाज के हिसाब से ही बुना है कवि ने इस कविता का ताना– बाना. बकौल अरुण कमल–
वो सब कुछ सुनता
एक एक तलवे की धड़कन एक एक पतंगे की हरकत
हर रेशे का ख़ाक में सरकना अन्दर
हर ज़र्रे का एक रंग में खुलना और ऊपर परिंदे
हवा धुनते
वो महज एक कब्र थी ज़िन्दगी की गोद
जहाँ हर वसंत में लगते मेले
जहाँ दो पेड़ फूलते पास पास बेरी के नीम के.
भारतीय समाज में जिस तरह सत्ता के वैभव और धर्मान्धता के गठजोड़ को प्रोत्साहित किया जा रहा है, उसके अनेक वीभत्स रूप सहज ही हर ओर नज़र आते हैं. अरुण कमल की कविता में भी ऐसे दृश्य दिख जाते हैं. पर विचार करने लायक बात यह है कि उनके यहाँ अलग क्या है? इस लिहाज से दो कविताओं पर बात करना मुनासिब होगा. दरअसल अरुण कमल इस बदलते समय के अर्थशास्त्र को पकड़ने में सफल होते हैं. धार्मिक अनुष्ठानों की परम्परागत मिल्कियत के केंद्र बदल रहे हैं. पहली कविता `शोभायात्रा’ है. इस कविता में परस्पर विरोधी दो दृश्य हैं. पहला दृश्य जाहिर करता है कि धार्मिक अनुष्ठान और सत्ता के गठजोड़ के मायने क्या होते हैं –
और चल पड़ी शोभायात्रा,
छोटे हनुमान जी मिलने चले बड़े हनुमान जी से,
ऊँट-हाथी बैंड-बाजा चलंत,
गाड़ी पर रथ, रथ पर हनुमान जी.
यह कविता का पहला हिस्सा है. कविता का दृश्य बिम्ब उन सांस्कृतिक विरूपताओं की ओर पाठकों को सहज ही ले जाता है, जो अब सामाजिक जीवन का आम हिस्सा हैं. पाठकों को विमर्श का सूत्र हाथ लगता है– धर्म अनुष्ठान है या आचरण. पर यह तो कविता का वह हिस्सा है, जहाँ विवेकवान पाठकों की दृष्टि चली ही जाती है. असली दृश्य चित्रण कविता के दूसरे हिस्से में है. आइए कविता के उत्तरार्ध को देखें–
किनारे–किनारे चल रहा है अधेड़ पुजारी
कंधे पर अंगोछा धरे चलता रहेगा दस किलोमीटर
भूखा-प्यासा गठिया से त्रस्त
और जब यात्रा समाप्त होगी
तब तक ढह चुका होगा पुजारी
मंदिर की संगमरमर की सीढियों पर
उसका पोता आरती के सिक्के गिनता.
कविता के इस दूसरे हिस्से में समस्त अनुष्ठानों का कर्ता-धर्ता अधेड़ पुजारी जो गठिया से त्रस्त है, वह सर्वाधिक कष्ट सहता है. ढहना उसकी नियति है और उसके वारिस को सिक्कों से संतोष करने की नियति. कविता बेहद खूबसूरती से धर्म के चरित्रहीन आनुष्ठानिक पक्ष को चित्रित करती है. इसी तरह की एक अन्य कविता `एक भक्त का सम्वाद’ भी अपने रूपक गढ़ती है. कविता भावनाहीन वैभवपूर्ण मंदिर के बनिस्बत भावपूर्ण मंदिर की गाथा कहती हुयी इस निष्कर्ष पर पहुंचती है –
तुम्हारे ही दान को देकर दानी बन रहे हैं
माया के दास,
यह कैसा जीर्णोद्धार प्रभु,
इससे तो अच्छा था वही अपना जीर्ण मंदिर
जब केवल तुम थे और मैं तुम्हारा सेवक
बरौनियों से चौखट की धूल उठाता-
उठा लो प्रभु, इस दीन को उठा लो.
संग्रह पर बात अधूरी रह जाएगी यदि उन कविताओं पर बातचीत न हो जो अरुण कमल की कविता को देशज रंग से सराबोर करती हैं. ये कविताएँ ठेठ बिहारी परिदृश्य को पुरनूर अहसास के साथ रचती हैं और देर तक उनकी अनुगूँज पाठकों के दिलोदिमाग पर छायी रहती है. `गया’,`मोतिहारी’,`बारात दरवाजे लगी’,`उधर के मुसाफिर’ कविताएँ इसी अंदाज़ की हैं. `उधर के मुसाफिर’ कविता कवि की ही एक अन्य बेहतरीन कविता `उधर के चोर’ की याद दिलाती है. इस कविता में जिस ट्रेन का ज़िक्र है , वह सुरसा की तरह मुंह बाए पैसेंजरों की लाइफ लाइन का काम करती है. बुलेट ट्रेन के सपने को धरती पर उतारने का सपना देखने वाले नेताओं के देश के मतदाताओं का हाल. ठुंसी हुई ट्रेन में जगह बनाने के लिए आतुर पैसेंजर की हालत और दुविधा देखिए-
आज भी भीड़ थी पुरकस
लेकिन एक सीट पर केवल एक ही बैठा था
सो दूसरा मुसाफिर उधर को लपका
और लगभग बैठ ही गया था कि पहले ने टोका
`देखिए इधर दूध है पन्नी में वो भी फटा हुआ
अब सवाल है कि क्या किसी कविता में केवल सजीव चित्रण ही पर्याप्त है ! दरअसल अरुण कमल की कविता का एक और तत्त्व है जो उन्हें विशिष्ट बनाता है. वह है उनकी कविता में उपस्थित `विट’. जैसे रेणु जीवन की लय को पकड़ने में माहिर थे, वैसे ही अरुण कमल की कविता भी अपने लिए काव्य भूमि ढूँढ़ लेती है. ख़ास यह है कि अरुण कमल ऐसी कविताओं में उन बारीकियों को अपने हाथ से फिसलने नहीं देते जिनसे जीवन का विषाद पसरता है. इस अर्थ में उनकी कविताएँ ट्रेजिक अहसास की याद दिलाती हैं.
संग्रह में प्रेम पर बेहद सुन्दर कविताएँ हैं. इनमें ज़्यादातर स्मृतिधर्मी हैं. `किसी के लिए तीन कविताएँ’,`तलवे की छाप’,`वापस’ कविताएँ प्रेम के बेहद सघन बिम्बों को रचती हैं. इनमें चित्रित प्रेम महाकाव्यात्मक आख्यान की तरह धीरे-धीरे खुलते हैं , प्रेम का वैभव प्रकट होता है और अंत में अकेलेपन का अवसाद उदास , धूसर रंग की तरह कविताओं में पसर जाता है –
अपनी जाँघ से उतारो मेरा माथा और धूल पर रख दो
जाओ लौट जाओ सबि !
अरुण कमल का काव्य शिल्प अत्यंत परिष्कृत है. बिम्बों का सावधान प्रयोग, काव्यात्मक गरिमा का संधान, भाषा का विस्तृत वैभव, मितकथन, संवादधर्मिता आदि अनेक पहलू हैं जिनसे अरुण कमल का काव्य संसार आकार लेता है. गद्य कविता भी संग्रह में शामिल है, जो कविता शिल्प के एक अन्य पक्ष के लिहाज से उल्लेखनीय है. संग्रह में निराला की शैली `दूरान्तर वाक्य विधान’ का भी प्रयोग है. `आरामकुर्सी’, `निगेटिव’ कविता इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं. और भाषा के मामले में तो लाजवाब कवि हैं अरुण कमल. भाषा के अनेक रूप सहज ही कविताओं में मौजूद हैं. एक तरफ महाकाव्यात्मक गरिमा की याद दिलाने वाली भाषा तो दूसरी तरफ लोक रंग से सराबोर भाषा. जहाँ मगध और भोजपुर कविता में आए, वहाँ अरुण कमल की भाषा का खिलंदड़ापन लाजवाब है. `पुरकस’,`भेंटा गया’,`गछा गया’, `जेवनार’,`आँख का कोवा’ जैसे अनेक शब्द साक्ष्य के रूप में उद्धृत किए जा सकते हैं.
निरंजन सहाय फरवरी, 1970; आरा, बिहार प्रकाशन: ‘केदारनाथ सिंह और उनका समय’, ‘आत्मानुभूति के दायरे’, ‘प्रपद्यवाद और नलिन विलोचन शर्मा’, ‘शिक्षा की परिधि’, ‘जनसंचार माध्यम और विशेष लेखन’, ‘कार्यालयी हिन्दी और कंप्यूटर अनुप्रयोग’. महादेवी वर्मा: सृजन और सरोकार, हिन्दी गद्य : स्वरूप, इतिहास एवं चयनित रचनाएँसम्प्रति : हिंदी और अन्य भारतीय भाषा विभाग, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ |
नये स्थापित पुरस्कारों को जिस तरह उनके नाम परंपरा के प्रतिकूल लोगों को दिया गया है, उससे अलग निराला सम्मान अरुण कमल को मिलना सुखद है. निरंजन जी का यह लेख भी सहायक है कवि को समझने में. अरुण जी की कविता को निराला की परंपरा में रखकर देखें तो सामाजिक परिवर्तन में एक ठहराव का अहसास होता है… अरुण जी का समय घटिया राजनीति का दौर रहा है, शायद इसका कारण यही है…इस लेख के केंद्र में कवि-समय की भी चर्चा होनी चाहिए थी.
वंचितों के अस्तित्व की चिंता की है । अरुण कमल अपनी कविता में जनहित की नयी परिभाषा से चिंतित हैं । लोक कल्याण का दिखावा करने वाले दौर में इनकी कविताएँ विचारवान मनुष्य बनने का आह्वान करती हैं ।
पिता और पुत्र दिहाड़ी मज़दूरों की चिंता के जुलूस से घर लौट रहे हैं । शासन ने शासितों की ज़िंदा रहने के संघर्ष को उन्हीं पर छोड़ दिया है ।