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समालोचन

Home » अशोक वाजपेयी: कुछ और कविताएँ

अशोक वाजपेयी: कुछ और कविताएँ

कहना न होगा कि आज हिंदी क्षेत्र की सांस्कृतिक साक्षरता और समृद्धि के लिए साहित्य, कला और विचार के क्षेत्र में काम करने वाले सैकड़ों दृष्टि सम्पन्न नवोन्मेषी प्रतिभाओं की अधिक आवश्यकता है. यह काम दशकों से अशोक वाजपेयी करते आ रहें हैं. संस्कृतिकर्म, कलाप्रेम और संस्था निर्माण में उनका योगदान अन्यतम है. रज़ा फाउंडेशन द्वारा इसमें और तीव्रता आई है. आज उनके जन्म दिन पर उनके शतायु और सकर्मक होने की कामना समा लोचन करता है. इधर उनकी कविताओं में भी बदलाव दिख रहें हैं. अपने पीड़ित समय में वह और धसी है. उनकी कुछ नयी कविताएँ इस अवसर पर प्रस्तुत हैं.

by arun dev
January 16, 2024
in कविता
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अशोक वाजपेयी: कुछ और कविताएँ
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कुछ और कविताएँ 
अशोक वाजपेयी


चिथड़ों का तकिया

वे बच्चे थे, अब नहीं हैं
राख और धुँए में तब्दील हो चुके हैं
उनकी संख्या दुनिया के लिए
शाम की ख़बर है,
दुनिया जो अपने कामों में मसरूफ़ है,
चुपचाप, शायद ऊबकर दे भी नहीं रही है.

वे बच्चे
जन्नत या जहन्नुम की किसी बही में
दर्ज़ होने लायक तक नहीं हो पाये.
ग़ज़ा में उनके चिथड़े यहाँ-वहाँ मलबे में पड़े हैं,
जल्दी ही कोई कचरागाड़ी उन्हें
किसी गड्ढे में फेंककर
मलबा हटाकर जगह साफ़ कर देगी.

किसी भाषा में उनके नाम,
किसी जगह उनके निशान,
नहीं बचेंगे.
उसके होने और न होने के बीच की दूरी
जलकर राख हो चुकी है.

ख़ुदा अपने लहू-रँगे पैरहन में छुपा हुआ
अपनी इबादत में चल रहे कनफोड़ संगीत को सुनते हुए
कहीं और से आयी कोई चीख़ नहीं सुन रहा है.
आज रात
बशीर-महमूद-आमिर के चिथड़े
उसके सिरहाने का तकिया होंगे.

 

 

कोई ईश्वर नहीं आयेगा

दरवाज़े थे, दालान थे,
बरामदे और खिड़कियाँ,
बिस्तर, तकिये, लिहाफ़ और पालने,
बरतन, पानी और आग,
दूध की बोतलें, दूध-भरे स्तन,
खिलौने, फ्राक और कमीजें,
रिबन और चोटियाँ थीं.
नन्हें जूते और जुराबें,
घर थे, कमरे थे, लोग थे,
स्त्रियाँ और उनके बच्चे थे,
रोटियाँ, पनीर और जैतून थे.

सब मलबे में तब्दील होकर,
ग़ज़ा के रहवासी थे,
यहीं ख़त्म और ग़ायब हो गये.

कोई ईश्वर रात को
हाथ में कन्दील लेकर
उनके चिथड़ों को बटोरने,
उनमें कुछ खोजने नहीं आयेगा.

 

 

चिथड़ों का गीत

मैं चिथड़ा नहीं, एक पतंग हूँ−
मैं चिथड़ा नहीं, एक चिनगारी हूँ−
मैं चिथड़ा नहीं, एक शब्द हूँ−
मैं चिथड़ा नहीं, एक समय हूँ−
मैं चिथड़ा नहीं,
ग़ज़ा में एक बच्चा था
हूँ.

 

 

चिथड़ों की चादर

अब फूलों और लोवान की दरकार नहीं
चिथड़ों से एक चादर बनाकर

ख़ुदा की कब्र ढाँप दो.

 

photo: courtesy al jazeera

रहिये अब ऐसी जगह चलकर जहाँ

बना नहीं सकते पृथ्वी पर
लेकिन नक़्शे पर एक महाद्वीप हम बना सकते हैं
जिसमें वे सब लौट आयें
जो अन्याय-अत्याचार-युद्ध से मारे गये हैं,
इसी चौथाई से कब बीती सदी में,
जो मजबूर हुए हैं भागने अपनी मातृभूमि से,
जिनके घर बुलडोज़ हुए हैं, जिनके जंगल-ज़मीन छीन लिये गये हैं−
एक महाद्वीप, जिसमें जो कुछ बलात् छीना गया,
गँवाया या हड़पा गया है, वह सब बहाल हो.

वहाँ बच्चे फिर से फुल्ल-कुसुमित बचपन में किलकारी भरें-खेलें,
स्त्रियाँ लौटें शुभ्र ज्योत्सना और पुलकित यामिनी में, प्रेम में,
बूढ़े हुक्का पीते अपने क़िस्सों की दुनिया में,
चिड़ियाँ फिर दुमदल को शोभित करें
और लोग फिर अपने-अपने काम पर….

हम सचाई का नक़्शा बारहा बनाते हैं
कभी-कभार सपने का नक़्शा भी बनाना चाहिये.

 

अशोक वाजपेयी ने छह दशकों से अधिक कविता, आलोचना, संस्कृतिकर्म, कलाप्रेम और संस्था निर्माण में बिताये हैं. उनकी  लगभग 50 पुस्तकें हैं जिनमें 17 कविता-संग्रह, 8 आलोचना पुस्तकें एवं संस्मरण, आत्मवृत्त और ‘कभी कभार’ स्तम्भ से निर्मित अनेक पुस्तकें हैं.  उन्होंने विश्व कविता और भारतीय कविता के हिन्दी अनुवाद के और अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध, भारत भूषण अग्रवाल की प्रतिनिधि कविताओं के संचयन सम्पादित किये हैं और 5 मूर्धन्य पोलिश कवियों के हिन्दी अनुवाद पुस्तकाकार प्रकाशित किये हैं। अशोक वाजपेयी को कविताओं के पुस्तकाकार अनुवाद अनेक भाषाओं में प्रकाशित हैं.

अनेक सम्मानों से विभूषित अशोक वाजपेयी ने भारत भवन भोपाल, महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, रज़ा फ़ाउण्डेशन आदि अनेक संस्थाओं की स्थापना और उनका संचालन किया है. उन्होंने साहित्य के अलावा हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत, आधुनिक चित्रकला आदि पर हिन्दी और अंग्रेजी में लिखा है.

फ्रेंच और पोलिश सरकारों ने उन्हें अपने उच्च नागरिक सम्मानों से अलंकृत किया है.

दिल्ली में रहते हैं.
ashokvajpeyi12@gmail.com

Tags: 20242024 कविताअशोक वाजपयी की कुछ नयी कविताएँअशोक वाजपेयीगज़ा के लिए अशोक वाजपेयी की कविताएँगाजा
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Comments 13

  1. मनोज मोहन says:
    1 year ago

    हम एक ऐसे नक़्शे की कल्पना करें
    जहाँ राज़ा और सिपहसालार
    एक सौ आठ सुहागिनों का पैर छू
    न खुद शाप मुक्त हो न उद्घाटित जगह

    न वहाँ ईश्वर का पुनर्वास हो
    न वहाँ बच्चों के चिथड़े उड़े
    न वहाँ सनकी हो
    न वहाँ घृणा से बजबजाता चेहरा हो

    काश ऐसा होता

    अशोकजी जैसा कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है जो अपने समय के साथ चलता हो और हमेशा बेहतर भविष्य के लिए प्रयासरत हों,

    हम सचाई का नक़्शा बारहा बनाते हैं
    कभी-कभार सपने का नक़्शा भी बनाना चाहिए
    उन्हें जन्मदिन की शुभकामनायें

    Reply
  2. विजय कुमार says:
    1 year ago

    अशोक जी को जन्मदिन दिन पर हार्दिक शुभकामनायें।उनकी सृजनात्मक सक्रियता और साथ ही असहमति का साहस मूल्यवान है।

    Reply
  3. स्वप्निल श्रीवास्तव says:
    1 year ago

    अशोक जी के कविताओं में इधर तब्दीली आई है
    सौंदर्यबोध में परिवर्तन आया है ।
    उनकी इन कविताओं को पढ़ते हुए
    जन्मदिन की शुभकामनाएं

    Reply
  4. Anonymous says:
    1 year ago

    आदरणीय अशोक जी को जन्मदिन की बहुत बहुत बधाई।

    बहुत मार्मिक कविताएँ।

    Reply
  5. Vrinda Pandey says:
    1 year ago

    इन कविताओं में वर्तमान का यथार्थ अत्यन्त मार्मिकता के साथ अभिव्यक्त हुआ है।कविवर को जन्मदिन की बहुत शुभकामना🙏💐

    Reply
  6. रमेश अनुपम says:
    1 year ago

    अशोक वाजपेयी जी को जन्मदिन की ढेर सारी बधाई और मंगलकामनाएं। वे इसी तरह अपनी कविताओं के माध्यम से हमारे समय में हस्तक्षेप करते रहें। वे इसी तरह देश और दुनिया में हो रहे अन्याय का प्रतिकार करते रहें। उनका होना और निरंतर सृजनरत होना हम सबके लिए महत्व रखता है।

    Reply
  7. अरुण कमल says:
    1 year ago

    जन्मदिन की हार्दिक बधाई और शुभकामना ।नव गति नवं लय …

    Reply
  8. आमिर हमज़ा says:
    1 year ago

    मुझे फ़ैज़ याद हो आए…उनकी नज़्म ‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मिरे महबूब न मांग’ याद हो आई। याने एक कवि शायर का शिफ्ट करना याद हो आया। अशोक जी का यह कहन वक्त की मांग है। इन कविताओं को पढ़ना अपने वक्त को पढ़ना लगा। अशोक जी को ख़ूब प्यार पहुंचे….।

    Reply
  9. Jaswinder Sirat says:
    1 year ago

    बहुत सुन्दर रचनाएं

    Reply
  10. डॉ. भूपेंद्र बिष्ट says:
    1 year ago

    जी. आपने जो इंट्रो में कहा है कि बाजपेयी जी की कविताएं इधर बदली भी हैं और अपने समय में और धसी हैं, वाजिब है. ग़ज़ा के परिदृश्य पर इन कविताओं की बात ही क्या ! एक – एक शब्द से सरोकार झर रहा है, पीड़ा बयां हो रही है.

    एक साल पहले आपकी कोरोना महामारी को लेकर “वागर्थ” में कुछ कविताएं आई थी. वे कविताएं भी इसी तरह जिंदगी के बुनियादी रंग और जरूरी ध्वनियों को बचाती हुई हालात को कन्फेस कर लेने की विवशता की कविताएं थी :
    देवता पहले से दिए हुए हैं/ प्रार्थना हम चुन सकते हैं . …. ( देवता बहुत हो गए थे )
    सच है, “कभी – कभार सपने का नक्शा भी बनाना चाहिए.” ..…
    हमारे समय के बड़े कवि को जन्म दिन पर मंगलकामनाएं.

    Reply
  11. डॉ. सुमीता says:
    1 year ago

    वर्तमान समय में ज़रूरी हस्तक्षेप करती मार्मिक कविताएँ। आदरणीय कवि को जन्मदिन पर सतत सृजनशील और स्वस्थ, दीर्घजीवन की शुभकामनाएँ।

    Reply
  12. चंद्रशेखर साकल्ले says:
    1 year ago

    समय को रेखांकित करती कविताएं

    Reply
  13. Naveen says:
    1 year ago

    आदरणीय अशोक जी को जन्मदिन पर सतत सृजनशील और स्वस्थ, दीर्घजीवन की शुभकामनाएँ

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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