कुछ और कविताएँ |
चिथड़ों का तकिया
वे बच्चे थे, अब नहीं हैं
राख और धुँए में तब्दील हो चुके हैं
उनकी संख्या दुनिया के लिए
शाम की ख़बर है,
दुनिया जो अपने कामों में मसरूफ़ है,
चुपचाप, शायद ऊबकर दे भी नहीं रही है.
वे बच्चे
जन्नत या जहन्नुम की किसी बही में
दर्ज़ होने लायक तक नहीं हो पाये.
ग़ज़ा में उनके चिथड़े यहाँ-वहाँ मलबे में पड़े हैं,
जल्दी ही कोई कचरागाड़ी उन्हें
किसी गड्ढे में फेंककर
मलबा हटाकर जगह साफ़ कर देगी.
किसी भाषा में उनके नाम,
किसी जगह उनके निशान,
नहीं बचेंगे.
उसके होने और न होने के बीच की दूरी
जलकर राख हो चुकी है.
ख़ुदा अपने लहू-रँगे पैरहन में छुपा हुआ
अपनी इबादत में चल रहे कनफोड़ संगीत को सुनते हुए
कहीं और से आयी कोई चीख़ नहीं सुन रहा है.
आज रात
बशीर-महमूद-आमिर के चिथड़े
उसके सिरहाने का तकिया होंगे.
कोई ईश्वर नहीं आयेगा
दरवाज़े थे, दालान थे,
बरामदे और खिड़कियाँ,
बिस्तर, तकिये, लिहाफ़ और पालने,
बरतन, पानी और आग,
दूध की बोतलें, दूध-भरे स्तन,
खिलौने, फ्राक और कमीजें,
रिबन और चोटियाँ थीं.
नन्हें जूते और जुराबें,
घर थे, कमरे थे, लोग थे,
स्त्रियाँ और उनके बच्चे थे,
रोटियाँ, पनीर और जैतून थे.
सब मलबे में तब्दील होकर,
ग़ज़ा के रहवासी थे,
यहीं ख़त्म और ग़ायब हो गये.
कोई ईश्वर रात को
हाथ में कन्दील लेकर
उनके चिथड़ों को बटोरने,
उनमें कुछ खोजने नहीं आयेगा.
चिथड़ों का गीत
मैं चिथड़ा नहीं, एक पतंग हूँ−
मैं चिथड़ा नहीं, एक चिनगारी हूँ−
मैं चिथड़ा नहीं, एक शब्द हूँ−
मैं चिथड़ा नहीं, एक समय हूँ−
मैं चिथड़ा नहीं,
ग़ज़ा में एक बच्चा था
हूँ.
चिथड़ों की चादर
अब फूलों और लोवान की दरकार नहीं
चिथड़ों से एक चादर बनाकर
ख़ुदा की कब्र ढाँप दो.
रहिये अब ऐसी जगह चलकर जहाँ
बना नहीं सकते पृथ्वी पर
लेकिन नक़्शे पर एक महाद्वीप हम बना सकते हैं
जिसमें वे सब लौट आयें
जो अन्याय-अत्याचार-युद्ध से मारे गये हैं,
इसी चौथाई से कब बीती सदी में,
जो मजबूर हुए हैं भागने अपनी मातृभूमि से,
जिनके घर बुलडोज़ हुए हैं, जिनके जंगल-ज़मीन छीन लिये गये हैं−
एक महाद्वीप, जिसमें जो कुछ बलात् छीना गया,
गँवाया या हड़पा गया है, वह सब बहाल हो.
वहाँ बच्चे फिर से फुल्ल-कुसुमित बचपन में किलकारी भरें-खेलें,
स्त्रियाँ लौटें शुभ्र ज्योत्सना और पुलकित यामिनी में, प्रेम में,
बूढ़े हुक्का पीते अपने क़िस्सों की दुनिया में,
चिड़ियाँ फिर दुमदल को शोभित करें
और लोग फिर अपने-अपने काम पर….
हम सचाई का नक़्शा बारहा बनाते हैं
कभी-कभार सपने का नक़्शा भी बनाना चाहिये.
अशोक वाजपेयी ने छह दशकों से अधिक कविता, आलोचना, संस्कृतिकर्म, कलाप्रेम और संस्था निर्माण में बिताये हैं. उनकी लगभग 50 पुस्तकें हैं जिनमें 17 कविता-संग्रह, 8 आलोचना पुस्तकें एवं संस्मरण, आत्मवृत्त और ‘कभी कभार’ स्तम्भ से निर्मित अनेक पुस्तकें हैं. उन्होंने विश्व कविता और भारतीय कविता के हिन्दी अनुवाद के और अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध, भारत भूषण अग्रवाल की प्रतिनिधि कविताओं के संचयन सम्पादित किये हैं और 5 मूर्धन्य पोलिश कवियों के हिन्दी अनुवाद पुस्तकाकार प्रकाशित किये हैं। अशोक वाजपेयी को कविताओं के पुस्तकाकार अनुवाद अनेक भाषाओं में प्रकाशित हैं. अनेक सम्मानों से विभूषित अशोक वाजपेयी ने भारत भवन भोपाल, महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, रज़ा फ़ाउण्डेशन आदि अनेक संस्थाओं की स्थापना और उनका संचालन किया है. उन्होंने साहित्य के अलावा हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत, आधुनिक चित्रकला आदि पर हिन्दी और अंग्रेजी में लिखा है. फ्रेंच और पोलिश सरकारों ने उन्हें अपने उच्च नागरिक सम्मानों से अलंकृत किया है. दिल्ली में रहते हैं. |
हम एक ऐसे नक़्शे की कल्पना करें
जहाँ राज़ा और सिपहसालार
एक सौ आठ सुहागिनों का पैर छू
न खुद शाप मुक्त हो न उद्घाटित जगह
न वहाँ ईश्वर का पुनर्वास हो
न वहाँ बच्चों के चिथड़े उड़े
न वहाँ सनकी हो
न वहाँ घृणा से बजबजाता चेहरा हो
काश ऐसा होता
अशोकजी जैसा कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है जो अपने समय के साथ चलता हो और हमेशा बेहतर भविष्य के लिए प्रयासरत हों,
हम सचाई का नक़्शा बारहा बनाते हैं
कभी-कभार सपने का नक़्शा भी बनाना चाहिए
उन्हें जन्मदिन की शुभकामनायें
अशोक जी को जन्मदिन दिन पर हार्दिक शुभकामनायें।उनकी सृजनात्मक सक्रियता और साथ ही असहमति का साहस मूल्यवान है।
अशोक जी के कविताओं में इधर तब्दीली आई है
सौंदर्यबोध में परिवर्तन आया है ।
उनकी इन कविताओं को पढ़ते हुए
जन्मदिन की शुभकामनाएं
आदरणीय अशोक जी को जन्मदिन की बहुत बहुत बधाई।
बहुत मार्मिक कविताएँ।
इन कविताओं में वर्तमान का यथार्थ अत्यन्त मार्मिकता के साथ अभिव्यक्त हुआ है।कविवर को जन्मदिन की बहुत शुभकामना🙏💐
अशोक वाजपेयी जी को जन्मदिन की ढेर सारी बधाई और मंगलकामनाएं। वे इसी तरह अपनी कविताओं के माध्यम से हमारे समय में हस्तक्षेप करते रहें। वे इसी तरह देश और दुनिया में हो रहे अन्याय का प्रतिकार करते रहें। उनका होना और निरंतर सृजनरत होना हम सबके लिए महत्व रखता है।
जन्मदिन की हार्दिक बधाई और शुभकामना ।नव गति नवं लय …
मुझे फ़ैज़ याद हो आए…उनकी नज़्म ‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मिरे महबूब न मांग’ याद हो आई। याने एक कवि शायर का शिफ्ट करना याद हो आया। अशोक जी का यह कहन वक्त की मांग है। इन कविताओं को पढ़ना अपने वक्त को पढ़ना लगा। अशोक जी को ख़ूब प्यार पहुंचे….।
बहुत सुन्दर रचनाएं
जी. आपने जो इंट्रो में कहा है कि बाजपेयी जी की कविताएं इधर बदली भी हैं और अपने समय में और धसी हैं, वाजिब है. ग़ज़ा के परिदृश्य पर इन कविताओं की बात ही क्या ! एक – एक शब्द से सरोकार झर रहा है, पीड़ा बयां हो रही है.
एक साल पहले आपकी कोरोना महामारी को लेकर “वागर्थ” में कुछ कविताएं आई थी. वे कविताएं भी इसी तरह जिंदगी के बुनियादी रंग और जरूरी ध्वनियों को बचाती हुई हालात को कन्फेस कर लेने की विवशता की कविताएं थी :
देवता पहले से दिए हुए हैं/ प्रार्थना हम चुन सकते हैं . …. ( देवता बहुत हो गए थे )
सच है, “कभी – कभार सपने का नक्शा भी बनाना चाहिए.” ..…
हमारे समय के बड़े कवि को जन्म दिन पर मंगलकामनाएं.
वर्तमान समय में ज़रूरी हस्तक्षेप करती मार्मिक कविताएँ। आदरणीय कवि को जन्मदिन पर सतत सृजनशील और स्वस्थ, दीर्घजीवन की शुभकामनाएँ।
समय को रेखांकित करती कविताएं
आदरणीय अशोक जी को जन्मदिन पर सतत सृजनशील और स्वस्थ, दीर्घजीवन की शुभकामनाएँ