आशुतोष दुबे की कविताएँ |
जंगल में आग
जंगल में आग लगने पर
पेड़ जंगल छोड़ कर भाग नहीं जाते
जब आग उनका माथा चूमती है
उनकी जड़ें मिट्टी नहीं छोड़ देतीं
जब पंछियों के कातर – कलरव से
विदीर्ण हो रहा होता है आसमान
चटकती हैं डालियाँ
लपटों के महोत्सव में
धधकता है वनस्पतियों का जौहर
उसी समय घोंसले में छूट गए अंडे में
जन्म और मृत्यु से ठीक पहले की जुम्बिश होती है
धुँए, लपट, आँच
चटकती डालियों का हाहाकार
और ऊपर आसमान में पंछियों की चीख-पुकार सच है
और उतनी ही सच है
संसार के द्वार पर एक नन्हीं-सी चोंच की दस्तक.
किनारे
किनारे हमेशा इंतज़ार करते हैं
वे नदियों के दुख से टूटते हैं
और उनके विलाप में बह जाते हैं
जब सूखने लगती है नदी
किनारे भी ओझल हो जाते हैं धीरे-धीरे
वे एक लुप्त नदी के अदृश्य किनारे होते हैं
जो चुपचाप अगली बारिश की प्रतीक्षा करते हैं
लगातार बहते हुए वे अपने थमने का इंतज़ार करते हैं
जिससे वे हो सकें
वे अपने होने का इंतज़ार करते हैं.
धावक
तेज़ दौड़ता हुआ धावक
कुछ देख नहीं रहा था
सिर्फ दौड़ रहा था
उसके पीछे कई धावक थे
उससे आगे निकलने की जी-तोड़ कोशिश में
अचानक वह धीमा हो गया
फिर दौड़ना छोड़कर चलने लगा
फिर रुक गया
फिर निकल गया धीरे से बाहर
बैठ गया सीढियों पर
जो कभी उससे पीछे थे
बन्दूक की गोली की तरह सनसनाते दौड़ते रहे
उसे देखे बगैर
एक-दूसरे को पीछे छोड़ने की कोशिश में
उसने पहली बार दौड़ को देखा
दौड़ने वालों को देखा
दौड़ देखने वालों को देखा
उसने पहली बार अपने बगैर मैदान को देखा
और पहचाना.
जानना बचना नहीं है
राम जानते हैं कि
सोने का हिरण हो नहीं सकता
फिर भी उन्हें उसके पीछे – पीछे
जाना है
किससे कहें कि हिरण झूठा था
पर इच्छा सच्ची थी
थके – हाँफते, पसीने में लथपथ, सूखे गले और धड़कते हृदय से राम
खाली हाथ जब लौटेंगे
क्या जानते होंगे कि अब
प्रियाहीन
होना है
रोना है
जागना है
एक अधूरी इच्छा के प्रेत से
बचते हुए
फिर से
भागना है.
पुरानी बात
हर बार का गिरना
कुछ फर्क से गिरना होता है
पहली बार शायद वेग की वजह से
गिरकर उठ जाते हैं जल्दी ही
और कोशिश होती है
जहाँ से जितने गिरे थे
उसी के नज़दीक –
उसी के आसपास –
पहुँच जाएँ फिर
उसके बाद का गिरना
उस तेज़ी को क्रमश:
खो देना है
जो पहली बार फिर से उठ खड़े होने में थी
अंत में हम पाते हैं
उठने का हर संकल्प ही भूमिसात हो जाता है
गिरना पुरानी बात हो जाती है
लुढ़कना सहज होता जाता है
अब
बहुत दिनों से मेरी क्षमा-याचिका मेरे पास लंबित थी
आखिर ऊबकर मैंने उसे खारिज कर दिया.
अब किसी भी सुबह यह धुकपुकी खामोश हो सकती है
कि मैं अपने इंतज़ार में हूँ…
इंतज़ार
स्कूल के बच्चे की तरह
सबसे पिछली बैंच पर बैठा मैं
अपनी बेजारी और ऊब से जूझते हुए
लम्बी घंटी के इंतज़ार में हूँ
सिर्फ मौन की लिपि है यह
इबारत पूरी हो जाने के बाद भी
शेष है पँक्ति
उसमें अब अक्षर नहीं होंगे
कुछ बिन्दु होंगे…..
डगमगाते- लड़खड़ाते
वे पूर्ण विराम की खोज में हैं
हर बिन्दु का अपना अर्थ
अपनी प्रतीक्षा, अपनी पुकार
अक्षरों की इबारत के बाद और उसके बावजूद
सिर्फ मौन की लिपि है यह
ओझल हो जाएगी
जादुई स्लेट पर
देखते – देखते.
आशुतोष दुबे 1963
अंग्रेजी का अध्यापन. सम्पर्क: 6, जानकीनगर एक्सटेन्शन,इन्दौर – 452001 ( म.प्र.) |