आशुतोष दुबे की कविताएँ
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॥ स्पर्श ॥
मेरे आसपास का संसार
आविष्ट है
एक छुअन की स्मृति से
आकाश में से थोड़ा
आकाश लेता हूँ
पृथ्वी में से लेता हूँ
थोड़ी सी पृथ्वी
एक आवाज़ की
ओस भीगी उंगलियों से
छुआ गया हूँ
एक दृष्टि की कहन में
जैसे घोर वन में
घिरा हुआ
रास्ता ढूँढता हूँ
असमाप्त स्पन्दनों की
लगतार लय में
बह निकलने के पहले
सितार के तारों में
उत्सुक प्रतीक्षा का तनाव है
थोड़े से आकाश में उड़ता हूँ
थोड़ी सी पृथ्वी पर रहता हूँ
उसकी देह में रखे हैं मेरे पंख
मेरी देह उसके स्पर्श का घर है.
॥ मौत के बाद ॥
फिर सूरज निकलता है
हम फिर कौर तोड़ते हैं
काम पर निकलते हैं
धीरे-धीरे हँसते-मुस्कुराते हैं
बहाल होते जाते हैं
एक पल आसमान की ओर देखते हैं
सोचते हैं अब वह कहीं नहीं है
और फिर ये कि अब वह कहाँ होगा ?
यक़ीन और शक में डूबते- उतराते
हम उस कमरे की ओर धीरे-धीरे जाना बन्द कर देते हैं
जो हमारे मन में है
और जहाँ रहने वाला वहाँ अब नहीं रहता
पर ताला अभी भी उसी का लगा है.
॥ शिकायतें ॥
वे बारूद की लकीर की तरह सुलगती रहती हैं भीतर ही भीतर
हमें दुनिया से दुनिया को हमसे बेशुमार शिकायतें हैं
एक बमुश्किल छुपाई गई नाराज़गी हमें जीवित रखती है
वह मुस्कुराहट में ओट लेती है और आँख की कोर में झलकती है पल भर
वे आवाज़ के पारभासी पर्दे में खड़ी रहती हैं एक आहत अभिमान के साथ
वे महसूस होती हैं और कही नहीं जातीं
ईश्वर जिसे हमारे भय और आकांक्षाओं ने बनाया था
शिकायतों से बेज़ार शरण खोजता है हमारी क्षमा में
हममें से कुछ उन्हीं के ईंधन से चलते हैं उम्र भर
हममें से कुछ उन्हीं के बने होते हैं
मां-बाप से शिकायतें हमेशा रहीं
दोस्तों से शायद सबसे अधिक
भाई-बहनों से भी कुछ-न-कुछ रहा शिकवा
शिक्षकों और अफसरों से तो रहनी ही थीं शिकायतें
उन्हीं की धुन्ध में विलीन हुए प्रेमी-प्रेमिकाएं
बीवी और शौहर में तो रिश्ता ही शिकायतों का था
सबसे ज़्यादा शिकायतें तो अपने-आप से थीं
क्योंकि उन्हें अपने आप से कहना भी इतना मुश्किल था कि
कहते ही बचाव के लचर तर्क न जाने कहाँ से इकट्ठा होने लगते
देखते देखते हम दो फाड़ हो जाते
और अपने दोनों हिस्सों से बनी रहती हमारी शिकायतें बदस्तूर.
॥ अन्धे का सपना ॥
मैं एक अन्धे का सपना हूँ
एक रंग का दु:स्वप्न
एक रोशनी मेरे दरवाज़े पर दस्तक देते-देते थक जाती है
जो आकार मेरे भीतर भटकते हैं वे आवाज़ों के हैं
जो तस्वीरें बनतीं-बिगड़ती हैं वे स्पर्शों की हैं
मेरी स्मृतियाँ सूखे कुएँ से आतीं प्रतिध्वनियाँ हैं
वे खंडहरों में लिखे हुए नाम हैं जिनका किसी और के लिए कोई अर्थ नहीं है
मेरे भीतर जो नदी बहती है वह एक आवाज़ की नदी है
और मेरी हथेलियों में जो गीलापन उसे छूने से लगता है
वही पानी की परिभाषा है
मेरी ज़मीन पर एक छड़ी के टकराने की ध्वनि है
जो किसी जंगल में मुझे भटकने नहीं देती.
॥ धूल ॥
धूल अजेय है.
बुहार के ख़िलाफ़ वह खिलखिलाते हुए उठती है और जब उसे हटाने का इत्मीनान होने लगता है तब वह धीरे-धीरे फिर वहीं आ जाती है. वह चीज़ों पर, समय पर, सम्बन्धों पर, ज़िन्दा लोगों और चमकदार नामों पर जमती रहती है. उसमें अपार धीरज है. वह प्रत्येक कण, प्रत्येक परत की प्रतीक्षा करती है जिससे वह चीज़ों को ढँक सके. वह शताब्दियों से धीरे-धीरे छनती रहती है और शताब्दियों पर छाती रहती है.
वह कहीं नहीं जाती और हमेशा जाती हुई दिखाई देती है.
धूल उड़ाते हुए जो शहसवार गुज़रते हैं वे उसी धूल में सराबोर नज़र आते हैं.
धूल और स्त्रियों की आज तक नहीं बनी. जब एक स्त्री आँगन में धूल बुहार रही होती है तो धूल उसकी छत पर जाकर खेलने लगती है. आईने पर जमी धूल हटती है तो अपने चेहरे की रेखाओं में जमी धूल दिखाई देती है. वह तब भी रहती है जब दिखाई नहीं देती. कहीं से धूप की एक लकीर आती है और उसके तैरते हुए कण सहसा दिखाई देने लगते हैं.
एक दिन आदमी चला जाता है, उसके पीछे धूल रह जाती है.
॥ जाना ॥
जाना ही हो,
तो इस तरह जाना
कि विदा लेना बाक़ी रहे
न ली गई विदा में इस तरह ज़रा सा
हमेशा के लिए रह जाना !
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