आशुतोष दुबे की क वि ता एँ |
॥ अभिनेता ॥
दूसरी काया में दूसरा मन भी था
उसे उतरना था दोनों में
और फिर केंचुली की तरह
दोनों को छोड़ देना था
लौट आना था
पर कुछ कुछ निथर आता था भीतर
उससे जूझते रहना था
उसे परकाया में देख लेने वाले
उसी तरह देखते रहते थे
जब वह परिधान रुप सज्जा और आलोक वृत्त के बाहर
बस खुद की तरह होना चाहता था
पर वह एक टूटा हुआ दर्पण हुआ
जिसके किरचों में उसकी निभाई भूमिकाएँ बिखर गई थीं
उसे बच बच के निकलना पड़ा
लेकिन रक्तरंजित पैरों के निशान
देखे गए उसके मन के आंगन में
यहाँ से वहाँ तक.
॥ नेपथ्य ॥
मंच पर जितनी थी
उससे ज़्यादा थी हलचल नेपथ्य में
कोई विंग्स के अंधेरे में खड़ा हुआ था
कोई उजाले के ठीक पीछे
सही जगहों पर सही वक़्त पर रोशनी के लिए
कोई किरदार के चेहरे में रंग भरता था
किसी काग़ज़ के पन्ने फड़फड़ाते थे
डोर उधर कहीं से खिंचती थी
पात्र इधर चलते-फिरते थे
वह अंधेरे की सरहद के उस पार
ओझल दुनिया का स्पन्दन था
देखने वाला मंच देखता था
और हो पाता
तो नेपथ्य समझ लेता था.
॥ सूत्रधार ॥
अंत में सभी को मुक्ति मिली
सिर्फ उसी को नहीं
जिसे सुनानी थी कथा
कथा से बाहर आकर
अपने ही पैरों के निशान मिटाते हुए
उसे जाना होगा उन तमाम जगहों पर
जहाँ वह पहले कभी गया नहीं था
देखना और सुनना होगा वह सब
जो अब तक उसके सामने प्रगट नहीं था
और इसलिए विकट भी नहीं
इस मलबे से ऊपर उठकर
उसे नए सिरे से रचना होगा सब कुछ
उन शब्दों में जिन्हें वह पहचानेगा पहली बार
जैसे अंधे की लाठी रास्ते से टकराकर
उसे देखती है
और बढ़ते रहना होगा आगे
कथा के घावों से समय की पट्टियाँ हटाते
अंत में सभी को मुक्ति मिलेगी
सिर्फ उसी को नहीं.
॥ प्रेक्षक ॥
जैसा वह था
नहीं रहा
बत्तियाँ जल जाने के बाद
वह, जो सिर झुकाए उठ रहा है
बाहर निकलने के लिए
कहीं का कहीं निकल गया है
जल में गिरा है कंकर
बन रहे हैं वर्तुल
अंत में क्या थिरेगा
अंत में क्या रहेगा
घर जो पहुँचेगा
कौन होगा?
वह जो बोलेगा
उसमें किसकी आवाज़ होगी?
वह,जो किसी और की कथा
देख आया है अंत तक
अपनी कथा अधबीच से
बदल सकेगा?
चाहे भी,तो
सिर्फ प्रेक्षक रह सकेगा?
॥ रंगशाला ॥
इसे अंधेरे को भी आलोकित करना है. उसके अंधेरेपन को अक्षत रखते हुए.
यवनिका से इसके सम्बन्ध आज तक रहस्यपूर्ण रहे आए हैं.
हर बार रोशनी से इसे नए सिरे से राब्ता कायम करना होता है.
इसमें वही कथा हर बार नयी हो जाती है.
हर बार सबकुछ फिर से शुरु होता है,जैसे पहली बार होता है.
अपनी पीठ पर संसार, मनुष्य, नियति, ईश्वर के वेताल-रूपकों को ढोते हुए इसे थकने की इजाजत नहीं है.
यह थी, है, रहेगी. इसका कोई पटाक्षेप नहीं है.
॥ रस विपत्ति ॥
बस, यही एक क्षण था– नाज़ुक डोर की तरह
समय के आर-पार तना हुआ.
पात्र का स्थायी भाव नट के स्थायी भाव को
बेदखल करने की पुरज़ोर कोशिश के साथ
अब आहिस्ता-आहिस्ता दर्शक के स्थायी भाव पर
काबिज़ होने की तरफ बढ़ रहा था…
बस, यही एक क्षण था– जो चाहे तो अचेत समर्पण में घुल जाता
या सचेत विद्रोह में सिर उठा लेता.
और लो, विद्रोह हो गया.
स्थायी होने का आकांक्षी भाव संचारी होकर
देखते-देखते तितर-बितर हो गया.
इस तरह रस की निष्पत्ति नहीं, विपत्ति हुई.
और अब रंगशाला में अस्थायी अभाव का
रीतापन फैल रहा है…
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