अविनाश की कविताएँ |
1.
ऊब के दिन
पंखे के नीचे गर्म-भाप सी हवा में सर्द-गर्म की अनुनादित तर में देखते रहते हैं आंगन में उग आई चहचहाती गौरैयों को.
उनके आने से विघ्न-बाधा उपज आते हैं काम में और बमुश्किल ही सही पर उनकी चहचहाहट लीपती है भीने चिड़चिड़ेपन को.
अलस कर लोट जाते हैं, छोड़ देते हैं काफी काम जरूरी, और सर्द-गर्म सी गंध फुफकारते हुये, कोसते हैं दुपहरियों को.
खालिस बेचैनी समेटे हुये यह दुपहरी मेरे आंगन में रोजाना कुछ टुकड़े उलीचती है जिसे झाड़ पोंछ कर नया हो जाना
तरकीब भिन्न भिन्न लगाता हूँ जिसमें कभी रोना कभी सोना
आये दिनों पर लादते हुये बीते दिनों की छूटी बिवाईयाँ
पपड़ी की तरह आधे चिपके, आतुर अलग हो जाने को
ऊब सी किनारे लग जाती हैं; दोपहरिया.
2.
दुःख की नियमावली
अभी तक जो रहा है अव्यक्त
वह तुम पर आयेगा; टूटेगा उस नई भाषा में
जिसे रचा है उसने अपने अज्ञातवास के क्षणों में
दुख तो तुमने कहाँ झेला है
अपरिचित हो अभी उसकी नियमावली से
वह तुम्हारे अज्ञानता में खुद को घिस रहा था
उसकी रचनावली में भावावेग कुछ भी नहीं
सबकुछ पाई पाई के स्तर तक तयशुदा रहा
तुम्हें जब मिलेगा वह; हे अबूझ
तुम चौंधिया जाओगे
उसके होने के यथार्थ को
स्मृतियों में पाओगे
हर कदम पर,
हर अभिव्यक्ति में,
हर अछूते जगह,
हर छूटे सामान,
हर भुलाई घटनाओं में,
समग्र रूप से रहा था वह मौजूद
3.
आईने की शक्ल का प्रेम
उसकी आँखों से फूटते हैं
मेरी ही सूरत के कई आदमी
जहाँ तहाँ बिखरे बालों में उलझ गये हैं
मेरे ख़्वाब और उनकी गमक
अर्थ की खोज सदा से जूझती एक नारी रही
साहस से बीजारोपण किया है जिसने सत्य का
मिथ्या जग की सच्चाई भी एक झूठ सी लगती है
आईने में धँसी परछाईं
उकेरने लगी है मेरे पीठ पर
अब कोई सूत्र
जिसे गुनगुनाता हुआ; गुमने लगा हूँ मैं
2
आवारगी का लम्बा हाईवे था
यार दोस्त सब चुहचुहाते रहते
प्रेम की गली थी
या शायद कोई सपने का कट
मैं और वह
मूक वातावरण में
साँस की आँच पर
धीमा प्रेम पका रहे हैं
उसकी नज़र से उतरता हुआ
शीशे की एक चमक
देखता हूँ
जिसपे उभरा हुआ माथा है, जिसपे मेरे जैसा ही शिकन है
3
आईने की शक्ल का प्रेम
मुझे और मेरी परछाईं को
समेट देता है
हम
एक दूसरे के लिये आईना
हो जायें, इसकी कल्पना भर ही
भयावह है
प्रेम का भय
एक बदन से दूसरे बदन तक फैलता है
लाइलाज यह
झकझोरता है
हर ओर से
और मूँद लेता है आँखें
जिसमें स्वप्न आते हैं शक्ल के जो दरअसल आईना है
4.
बायोपिक
वह कोई नदी थी
जिसके किनारे दो प्रेमी युगल
अपनी भुरभुरी सी कल्पना में गढ़ रहे थे
सुंदर दृश्यों से हैप्पी एंडिंग वाली पटकथा
नदी उन दोनों की स्मृतियों से अब नदारद है
दोनों एक दूसरे के सपनों में आवाजाही करते हैं
उनकी इस बेरोकटोक ट्रैफिक पर कोई सिगनल नहीं है
एक का पति साइलेंट फ़िल्म का निर्देशक है
जिसमें उसकी पत्नी के सभी डायलॉग मिटा दिये गये हैं
एक की पत्नी किसी फिल्म की नैरेटर है
वह अपनी पत्नी की बताई कहानी में हाशिये का किरदार है
दोनों अपने-अपने दुःख
एक दूसरे से उन शब्दों में बयाँ करते हैं
जिन पर डिक्शनरी में कालिख पुती है
5.
जीवन यात्रा
उदास आँखें ब्लैक एंड व्हाइट सपने उकेरती हैं
मन का अँधेरापन उन्हें घोंटता है
इच्छाएं – जीवंत होने को उफनती हैं – अध्यात्म का एक अध्याय
खुला रहता है – बे-नहाये बदन पर – जैसे दीवार की फफूँदी
अप्सराएं संवेदना के गीत गढ़ती हैं
काल ड्रम बजाता है और शेषनाग करते हैं नृत्य
ह्रदय का बीज – लिजलिजा, पिलपिला – बिखेरता है अपना फ़न
समेट लेता है – देह की धूल को – एक सूखा हुआ स्टारडस्ट
निविदा पर उठाया गया है ये व्यक्तिगत काल खंड
बिंदुवार तरीके से दोनों सिरों को लपेट लेता है ब्लैक होल
अविनाश
24/07/1997, देवरिया (उत्तर-प्रदेश)
amdavinash97@gmail.com
8750622193
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अविनाशजी को बधाई….!
भाषा और कहन की कैफ़ियत यहाँ अच्छी लगी…
जो ज़िंदगी और
उसके अक्ष पर टिकी चीज़ों को समेटने की मासूमियत लिए…एक नई यात्रा पर ले जाती है…
यह यात्रा सुंदर है….
1. ऊब के दिन
कविता पढ़कर अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि प्रिय अविनाश की आयु कितनी है । रचनाकार की साधना इन्हें जन्म से मिली होगी । संवेदनशील मन और कविता लिखने की व्याकुलता परिपक्व ‘अविनाश’ बना रही है । उमस भरी बेचैनी में गौरैया आकर शांत समुद्र में तरंगों से आप्लावित कर देती है । गौरैया के विघ्न पैदा करने को वो कोसते हुए नज़र आ रहे हैं । मेरी दृष्टि से चिड़ियों के आगमन से ख़ुश 🙂 हैं । शहरों में गौरैया नहीं दिखती । शुक्र है और कविता में बची है । 1962 से 1965 के बीच मेरी आयु 7 से 10 वर्ष की थी । गर्मी की छुट्टियों में यहाँ से 12 मील दूर अपनी माँ और छोटी बहन के साथ ननिहाल जाता था । दोपहर ऊब पैदा करती थी । कड़ियों की छत में चिड़ियाँ अपने बनाये गये घोंसले में आती थीं । सन्नाटे भरी दोपहरी में रंग भर जातीं ।
2 दु:ख की नियमावली
कविता का शीर्षक आकर्षक है । कविता आगे सुगंधित फूल खिलायेगी । अज्ञातवास शक्ति देता है । शायद कुमार अंबुज या लीलाधर जगूड़ी के कविता संग्रह का नाम है ‘भय भी शक्ति देता है’ । बीज को धरती में रोप दिया जाता है । उस अज्ञातवास में बीज से कोंपलें फूटती हैं । प्रकृति के इस नियम के अनुसार यह कविता नये रंगों में फूटती है । पहले भीतर उपजती है और फिर फूटकर निकलती है । आगे की पंक्तियों में अभिव्यक्त भाव अनूठे हैं । अपने में पूर्ण । टिप्पणी करने की गुंजाइश नहीं है । विचार उमड़ घुमड़ कर आकाश में घूमते हैं । मुझे बारिश की ज़रूरत है ।
3 आईने की शक्ल का प्रेम
अच्छे शे’र और कविता की ख़ूबी है कि वह जेन्डर से मुक्त हो । कविता का आरंभ यही संकेत दे रहा है । यही उम्र है जिसमें मनुष्य कई शक्लों में दिखायी देता है । मन पर उसी की आभासी छाया पड़ती है । कभी बाल, नाक, आँखों, पलकों और गालों से वही दिखायी देता है जिसे मन देखना चाहता है । पुरुष का अहंकार नहीं मानता कि सत्य की खोज स्त्री ने की थी । परमात्मा, प्रेम और सत्य पर्यायवाची हैं । किसी संत ने कहा था कि जगत मिथ्या है । लेकिन जगत सत्य है और ब्रह्म झूठा । ब्रह्म कहीं है तो दो हृदयों में स्पंदित होता है ।
2 आवारगी का लंबा हाईवे महीन होता है । आँखों से निकलने वाली किरणों की तरह । आँखें सपने बुनती हैं । दोस्तों के साथ हम बुझे-बुझे या कहें कि सोये-सोये कहीं डूबे हुए रहते हैं । यौवनावस्था में एक-दूसरे की चुहलबाज़ी करते हैं । मज़ा ढूँढते हैं । फक्कड़ों की तरह आवारगी करते हैं । परंतु प्रेम भीतर भीतर पकता है । ख़ुद को तराशता है । इससे मज़बूत हवाई पट्टी बनती है । प्रेम का जहाज़ आकाश में उड़ जाता है ।
4 बायोपिक
बायोपिक लिखना इसलिये मुश्किल है कि इसे लिखने में ईमानदारी या प्रामाणिकता बनाये रखने की ज़रूरत है । कभी-कभी यह आत्म प्रशंसा का पोथा बन जाती है । हमारे इलाक़े में नदी नहीं है । दो नहरें थीं । एक की हत्या कर दी गयी और दूसरी अकसर सूखी हुई रहती है । नगर से दूर है । इसलिये प्रेमी स्संक या कॉलेज जाते हुए संकरी गलियों से होते हुए निकलते हैं । संसार प्रेमियों का शत्रु है । यदि प्रेमी संतुलन खो बैठे तो पुरुष प्रेमी प्रेमिका की हत्या कर देता है । आज के इंडियन एक्सप्रेस में ऐसी ख़बर छपी है । दोस्ती थी । युवती ने विवाह करने के लिये मना कर दिया तो युवक ने उसकी हत्या कर दी । प्रेम करना आसान नहीं है । प्रेम व्यक्ति के मन में उफान भर देता है । संवाद सिर्फ़ पति ही नहीं उड़ाते बल्कि नायक भी फ़िल्म निदेशक से नायिका के डॉयलॉग्स उड़ाने की शर्त रखता है । आज महिला दिवस है और यह कैसी विडंबना है ।
5 जीवन यात्रा
अविनाश की इस कविता की पहली दो पंक्तियों में जीवन की कड़वी सच्चाई है । परमात्मा ये दिन किसी को न दिखाये । मालूम नहीं कि कितनी मुश्किल से मनुष्य योनि में जन्म हुआ है । उल्लास, प्रसन्नता, गमकता, दमकता जीवन बना रहे । इच्छायें अध्यात्म में बदलें । सभी के लिये प्रेम, स्नेह और आशीर्वाद हमारे हृदय में उमगे । सकारात्मक तरंगें सभी दिशाओं में फैलें । किसी को आहत करने से बचें । यह जीवन की सार्थकता है । ओह ! जीवन को निविदा की प्रक्रिया में क्यों शामिल कर दिया । जीवन अनुपम देन है । व्यक्ति हैं तो सृजन है । अध्यापक, प्राध्यापक, वैज्ञानिक, डॉक्टर, कवि, लेखक, उपन्यासकार और नाटककार हमारे आस-पास हैं । और आलोचकों का हुजूम है । अरुण देव जी जैसे समालोचन पत्रिका के अनूठे प्रोफ़ेसर हैं । कितना जतन करते हैं । भोर होती है तो नया लिंक डाल देते हैं ।
अविनाश की कविताएँ पढ़ीं। इनका एक अलग स्वाद है। कम उम्र में अच्छी रचनात्मक पकड़। इस संभावनाशील कवि को मेरी शुभकामनाएँ !
जिस देवरिया के एक कस्बे में मेरा अधिकांश जीवन बीता है ,वहां के कवि की इतनी अच्छी कविताएं पढ़ कर मन संवेदित हो गया ।