अविनाश मिश्र की कविताएँ |
अव्यक्त आश्चर्य
सबसे कम कीमत रह गई विचारों की
जबकि किताबें लगातार महंगी होती चली गईं
पहुंच से दूर हो गईं कुछ सबसे जरूरी चीजें
जबकि बहुत कुछ मुफ्त में भी बंटता रहा
अस्पताल इस कदर महंगे हुए कि मांएं बेइलाज़ मर गईं
इस एक समय में चीजें इतनी महंगी और इतनी सारी थीं
कि समझदार बच्चे बेआवाज रोते रहे
आसान नहीं रह गया पर्यटन व प्रवास
जो जहां था वहीँ बना रहा बगैर किसी भूमिका के
एक घर सपनों में ही बनता, बसता और उजड़ता रहा
माचिस के दाम फिर भी नहीं बढे
बीते हुए कई वर्षों से…
कोई और वजह रही होगी
कोई सिर्फ बीस रुपए के लिए कत्ल क्यों करेगा
कोई क्यों प्रेम को प्रमाणित करने के लिए
प्रेमिका के आकर्षक चेहरे पर तेजाब फेंकेगा
कोई क्यों केवल रैगिंग के कारण कलाई की नस काट लेगा
कोई क्यों परीक्षा में कम अंक आने पर सल्फास खाकर जान दे देगा
एक लाख का कर्ज है महज इसलिए कोई आत्महत्या क्यों करेगा
‘जन्नत में बहत्तर हूरें मिलती हैं सहवास के लिए’
इस इनाम के लिए कोई धरती पर बम धमाके क्यों करेगा
समझदारियां इतनी खोखली और बुराइयां इतनी सामान्य क्यों हैं आजकल
जबकि महानुभाव सब कुछ हिंदी में समझाते आए हैं
कोई कुछ बदलने के लिए मतदान
और कोई कुछ बदलने के लिए जनसंहार क्यों करेगा
कुछ गलतफहमियां हैं आइए उन्हें दूर कर लें
जीवन में बेवकूफ़ियों के ये बेरोक सिलसिले इससे शायद कुछ थम जाएं…
ये कवि हैं और कविताएं भी लिखते हैं….
कवियों को अब कविताएं कम कर देनी चाहिए
इस तथ्य से परिचित होते हुए भी
कि वे अब भी बहुत कम हैं
और समय व भाषाओँ के वर्तमान में
उनकी प्रासंगिकता पर निरंतर विमर्श बना रहता है
मैं इस तरह सोचा करता हूं कि
एक कविता पर्याप्त होगी एक कवि के लिए
और कभी-कभी कई कवियों के लिए
एक कविता भी बहुत अधिक होगी
मानवीयता के असंख्य नुमाइंदों
और उनकी कल्पनातीत नृशंसताओं के विरुद्ध
मैं इस तरह… इस तरह सोचा करता हूं कि…
हो सके तो यह शहर छोड़ दो
अपने लिए जरूरी चीजों पर एक बार गौर से निगाह डालो
हो सकता है तुम्हें सब कुछ गैरजरूरी लगे
और बाद इसके पहुंचो उन सरहदों तक
जो इस शहर से तुम्हें अलग करती हैं
तुम्हें जाते हुए छींकें सुनाई देंगी
जो भर सफर तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ेंगी
बिल्लियां अपने सारे काम छोड़कर तुम्हारा रास्ता काटेंगी
और भी कई अपशकुन है परंपराओं के तय किए हुए
लेकिन यह नकार का साहस है और घर फूंकने से पैदा होता है
द्वार को विदा-दृष्टि से देखना
( सच है ये बड़ी राहत देते थे
जब तुम हर रोज एक अपराधबोध में धंसे लौटते थे)
अब न मुस्कुराहट कोई न कोई आंख भीगी हुई
और सच है यह भी कि अब तुम्हें लौटना नहीं है
तब ले चलो उन लम्हों को अपने साथ
जो तुम्हारे मसरूफ वक्त का हिस्सा रहे
इस शहर में घर के दर के भीतर
जो तुम्हें सुकून मुहैया कराते रहे
अब तुम उन्हें अपने दिल में जगह दो
और यह जगह छोड़ दो
उनकी परियोजनाओं में प्रस्तावित है तुम्हारा दुःख
सब कुछ उसी और लिए जा रहे है वे जिससे रब्त नहीं तुम्हारा
कब तक बचाओगे खुद को इस शहर में
उनको दूसरे तरीके भी आते है
सोचो एक बार क्या करने आए थे तुम
और क्या करने लगे इस ‘उत्तर नगर’ में
जहां सबसे ज्यादा जरूरत थी तुम्हारे साहस की वहीँ सहम गए तुम
अब कोई पागल भी विश्वास नहीं करेगा तुम्हारे गलीज संस्मरणों पर
तुम एक ऐसे शहर में रहते हो
जो हर वक्त खबरों में रहता है
इस शहर में इस शहर के लिए एक खबर बन जाओ तुम
और तुम्हें खबर भी न हो इससे पहले
गर हो सके तो यह शहर छोड़ दो…
आफ्टर थर्ड बेल
वे अभिवादन में झुकते थे
जबकि इतना निर्जन हुआ करता था सभागार
कि वे लगभग खुद के लिए ही खेल रहे होते थे
एक विराट खालीपन था और उसमे एक मध्यांतर भी
जहां वे सतत प्रस्तुति के पूर्वाभ्यास में ही रहते थे
सृष्टि के सबसे प्राचीनतम नाट्य सिद्धांतों और उनमे समाहित
प्रार्थनाएं, संभावनाएं, प्रक्रियाएं, लक्ष्य और निष्कर्ष
सब कुछ को मंच पर संभव करते थे वे
एक समय में एक नगर के एक सरल नागरिकशास्त्र से बचकर
स्वयं को आश्चर्यों और कल्पनालोक के
वृहत्तर परिवेश में रद्द करते हुए
वे बहुत बहुत दुर्लभ थे
मैं नींद में चलते हुए पहुंचता था
उनकी प्रस्तुतियों के अंधकार में
जहां अभिनय वास्तविक हो उठता था
और वास्तविकताएं अश्लील
वे अपने निर्धारित समय से बहुत पीछे होने के दर्प में थे
यह उनका प्रतिभाष्य था एक वाचाल समय के विरुद्ध
जहां नाटकीयता अर्जित नहीं करनी पड़ती थी
वह जीवन में ही थी अन्य महत्वपूर्ण वास्तविकताओं की तरह….
अंतिम दो
….इस वर्ष फरवरी उनतीस की है
सत्ताईस दिन गुजर चुके हैं
अभी दो दिन और हैं
और दो दिन और भी हो सकते थे
इन गुजर गए सत्ताईस दिनों में
मैं प्रेम में बहता रहा हूं
और इस अवधि में मैंने अविश्वसनीय हो चुके संवादों
और मृतप्राय संगीत को एक बार पुन: रचा है
और आवेग में वह सब कुछ भी किया है
जो प्रेम में युगों से होता आया है
इस माह में प्रदर्शित हुई फिल्में
मेरे प्रेम की दर्शक रही हैं
मैंने उन्हें बार-बार देखा है
बार-बार प्रेम करते हुए
हालांकि मुझे अब उनके नाम याद नहीं
क्योंकि मैं बस देखता और प्रेम करता हूं
बगैर इसे कोई नाम दिए हुए
एक नितांत शीर्षकहीन और विरल स्थानीयता में ध्वस्त होते हुए
मैं पाता हूं- दखल इधर काफी बढ़ा है मेरे अंतरंग में
वे अब हर उस जगह पर मौजूद हैं
जहां मैं प्रेम कर सकता हूं
लिहाजा मैं गुलाबों से बचता हूं
कि कहीं घेर न लिया जाऊं
एक अजीब सी पोशाक में
इंतहाई सख्त और गर्म रास्तों पर चलते हुए
मैं उसे याद करता हूं
और मुसव्विर मुझे उकेरा करते हैं
और वह मुझे देखती और प्रेम करती है
बगैर इसे कोई नाम दिए हुए
देखने और प्रेम करने की संभावनाएं धीमे-धीमे
समानार्थी शीर्षकों के व्यापक में विलीन होती जा रही हैं
वे अब हर उस जगह पर मौजूद हैं
जहां वह मुझे पुकार सकती है
अभी रास्ते और सख्त और गर्म होंगे
सूर्य की अनंत यातनाएं सहते-सहते
बारिशें अतीत की तरह हो जाएंगी
और मैं उन्हें छोड़ आऊंगा
संकरी गलियों से होकर
पार्कों की तरफ खुलने वाले रास्तों पर
जहां वे हो चुकने के बाद भी बची रहती हैं
एक हरे और उजलेपन में
मेरे पीछे लगातार कुछ बरसता रहा है….
फिलहाल यह फरवरी है
और यह कविताएं लिखने के लिए एक आदर्श महीना है
और मैं आहिस्ता-आहिस्ता रच रहा हूं
अभी दो दिन और फरवरी है
अभी दो दिन और कविताएं हैं
अभी दो दिन और प्रेम है….
भारोत्तोलन
पल्सर भी लूना लगती थी जब वह उस पर बैठता था
और बोकारो की सड़कें उसका भार उठाती थीं
दारा सिंह जैसी जांघें नहीं
दारा सिंह की जांघों सी कलाइयां थीं उसकी
आंखें ऐसी दो बहुत बड़े कोयले रख दिए गए हों जैसे चेहरे पर
उसका कद आसमां को मात करता था…
वह बोकारो स्टील लिमिटेड (बीएसएल) में
एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी है
यह नौकरी उसे स्पोर्ट्स कोटे के तहत हासिल हुई है
वह आस्ट्रेलिया से खुद के खर्चे पर
वेटलिफ्टिंग के गुर सीखकर आया है
वह ‘नोकिया-2300’ हैंडसेट रखता है
और उसमें कभी भी दस रुपए से ज्यादा का रीचार्ज नहीं कराता है
‘नोकिया-2300’ यह मॉडल बहुत पहले आना बंद हो चुका है
लेकिन वह अब भी उसके पास है
और उसमें सचिन तेंदुलकर द्वारा प्रचारित एअरटेल का सिमकार्ड है
और उसमें सात रुपए का टॉकटाइम है
एक हाथी शरीर के साथ वह विदआउट बैंक बैलेंस जी रहा है
सारी तनख्वाह बस बीस दिन की खुराक है
और एकमात्र सपना बस अतंरराष्ट्रीय स्तर पर
भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए ‘भारोत्तलन’ में स्वर्ण पदक जीतना
लेकिन वह चुना नहीं जा रहा है
कोयले सी आंखें सब वक्त सुलगती रहती हैं
हाथी बराबर हल्का होता जा रहा है
घुल रहा है वह लेकिन चुना नहीं जा रहा है
और जो चुना जा रहा है
वह उससे दस किलोग्राम ज्यादा भार उठा सकता है
यह वह कई बार कह चुका है स्थानीय प्रेस में
‘आइसीआइसीआइ’ बैंक के रिकवरीमैनों को
वह बहुत बार बेतरह पीट चुका है
उनका कसूर बस इतना था कि किस्तें न जमा कर पाने की वजह से
वे उसकी पल्सर जब्त करने आए थे
वह ‘बीएसएल’ के कर्मचारियों के साथ भी मार-पीट कर चुका है
वह पड़ोसी के कुत्ते को घायल कर चुका है
एक लैंपपोस्ट बुझा चुका है
और अपने घर की दीवार तोड़ चुका है…
चूहों, बिल्लियों, कुत्तों और हाथियों व शेरों
सबमें आत्म-सम्मान बराबर होता है
लेकिन चूहे, बिल्लियां और कुत्ते
आत्म-सम्मान को प्राय: बचाकर नहीं रख पाते
ठीक यही बात चिड़ियाघरों और सर्कसों के
हाथियों और शेरों के साथ भी है
मदारी के हत्थे चढ़ गए
बंदरों और भालुओं की भी यही हालत है
और बीन की धुन पर मदमस्त सांपों की भी
व्यवस्थाएं कभी भी हाथ-पैरों से नहीं लड़तीं
यहां एक वेटलिफ्टर के संदर्भ में व्यवस्था
उसकी खुराक कम करती जा रही है
‘बीएसएल’ का वरिष्ठ स्टॉफ जो उसके एक हाथ का भी नहीं है
उसकी शैक्षणिक योग्यता और उसकी खुराक को लेकर
उसे बराबर जलील करता रहता है
रोज-रोज धर्मेन्द्र और सनी देओल नहीं हुआ जा सकता
क्योंकि यह जीवन है बाबू खेल कई घंटे का…
वह एक दिन बोकारो की किसी सड़क पर
‘रिजर्व’ में चल रही पल्सर चलाते हुए
एक ट्रक के नीचे आ जाएगा… इस दुर्घटना की तारीख
कॉमनवेल्थ गेम्स, एशियन गेम्स या ओलंपिक की तारीखों से टकरा सकती है
यह दुर्घटना किसी को भरमाएगी, चौकाएगी, डराएगी, सताएगी. जगाएगी नहीं
बस समझाएगी कि जरा समझदार बनिए, संभलकर चलिए, दाएं-बाएं देखकर
और जहां तक हो सके कम-से-कम भार उठाइए
क्योंकि यह जीवन है बाबू खेल कई घंटे का…
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अविनाश मिश्र 5 जनवरी 1986, गाजियाबादविभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित. साहित्य, सिनेमा संगीत, रंगमंच आदि में रूचि |