अयोध्या में कालपुरुष! बोधिसत्व |
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अयोध्या की एक रुग्ण-सुबह
जिस पर प्रभाव है संध्या का.
राम अनमने खड़े हैं
चिन्तन करते अपने जीवन का
अपने जन्म की सुफल-विफलता का.
व्यथा से भर आईं आँखें
देख नहीं पाए स्वयं का मुख
जल दर्पण में
कक्ष से निकल गये
अस्थिर विकल भये
अपने आकलन से स्वयं.
राम कक्ष से तो निकल गये किंतु
निकल कर भी
विकलता से पा नहीं सके मुक्ति
वृद्ध राम खोजते रहे अपनी विकलता का कारण
वे भूल गये थे यह विकलता
उनकी ही विफलता से उपजी थी
जिसके मूल में था उनका
राग-विराग अपने कुल से
अपनी मर्यादा से उनका मोह
उनकी दुर्बलता थी.
राम समझ नहीं पा रहे थे
जीवन के चौथे पन से कुछ पहले ही
थके हारे से सोचते भटकते रहे राम.
कुछ देर रहे सरयू तट पर
कुछ देर भटके नंदि ग्राम
मिलता नहीं था
विकलता का उपचार
नहीं था उद्विग्नता पर कोई विराम.
कोई नहीं था जिससे कर पाते विमर्श
एक सम्राट कहाँ कर पाता है
मन की व्यथा पर
परामर्श!
लौट आए राम बिता कर दिन
मंथर गति क्षुब्ध मन मुख मलिन.
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दिन के अवसान पर भी
उदास रहे राम
अपने कक्ष में अकेले.
अब तक लक्ष्मण भी उनको कहने और
मानने लगे थे सम्राट.
पत्नी सीता अलोप हो गई थी
और दोनों पुत्रों लव और कुश से
इतनी कम होती थी बातचीत
कि उस स्थिति को कह सकते हैं अबोला भी.
शायद यह कुल की परम्परा रही हो
पिता के अनुसार चलने और
कैसी भी आज्ञा मानने से अधिक
नहीं रहता था पिता पुत्र में संबंध.
अन्यथा यह जानते हुए भी कि
बिछुड़ कर मरण को प्राप्त होंगे
पिता दशरथ
वन क्यों जाते राम!
राम घिरे रहे उदासी से
उनकी हंसी खो गई थी
उनका आह्लाद विलुप्त हो गया था
वे राजाज्ञा सुनाने वाले
यंत्र में परिवर्तित हो गये थे
विधान से बंध कर
बंन्ध्या हो गई थी उनकी उत्सुकता
वे एक विराट खोखल जैसे थे
अवध के राजभवन में
बंदी खोखल निस्तेज.
कभी उनको सुनाई पड़ती सीता की रुलाई
कभी पिता की करुण पुकार
कभी बालि का लांछन भरी व्यथा
कभी तारा के प्रश्न
कभी वानर युवराज अंगद की ग्लानि-कथा.
कभी पृथ्वी दिखती सर्वत्र फटी हुई
कभी उस फटी पृथ्वी से आती
किसी अनाम स्त्री के रोने की ध्वनि
जो केवल राम को ही देती सुनाई.
वे सेवकों से कहते देखो
कोई द्वार पर आया है क्या
वे गाँव-गाँव खोजते रहे शम्बूक का घर
किंतु वह मिला नहीं.
उनको प्रतीक्षा थी जैसे मात्र
अपने अवसान की
अवध में रहने का कोई प्रयोजन शेष नहीं था
अपने रामराज्य में राम खिन्न थे इतने कि
अपने तिरोहित होने के लिए खोज नहीं पा रहे थे
उपाय कोई पावन-अपावन.
और शरीर था कि स्वयं साथ छोड़ने के लिए
प्रस्तुत नहीं था राम का.
कभी-कभी फछताते
भूमिजा सीता की भांति भू में क्यों नहीं समाते?
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जो राम का मान करते थे वे
विचलित थे राम की मनोदशा से
लक्ष्मण, भरत और कुल की स्त्रियाँ
उर्मिला, माण्डवी आदि देखती राम की
दशा
विलपते थे सब
किंतु निरुपाय थे वे.
वशिष्ठ समझते राम के मन को
अवसान ही उपाय था मन की शांति का
किंतु वे वशिष्ठ भी अपनी मर्यादा के बंधक थे
बिना कहे सम्राट को परामर्श देने को
अवज्ञा माना जाता था
कोसल में.
सब देखते किन्तु कोई कुछ बोलता नहीं था
वेदना शर से बिंधे राम बिता रहे थे दुर्दिन
अपने वैभव का कंकाल-बन कर.
वशिष्ठ ही नहीं काल पुरुष देख रहा था राम की विकलता
जीवन की विफलता ने राम को सुन्न कर दिया था
वे मात्र शरीर थे
मनु-विधान के बंधक.
काल पुरुष ने सोचा
राम का अंत समय आया है
सारे लक्षण ऐसे ही हैं जैसे जीवन से
प्राण-जीव उकताया है
मन राम का अब मात्र दर्शक रह गया है
कर्म के सारे पर्व पूर्ण हुए हो जैसे.
काल पुरुष ने सोचा
अब राम को पृथ्वी से प्रस्थान करना चाहिए
स्वयं अपना अवसान करना चाहिए.
काल पुरुष ने रूप धरा
माया से
बना वह ऋषि
ऐसे ही जैसे रावण ने रूप धरा था यती का.
काल पुरुष राम से मिलने आया अयोध्या
वह आया और मिला राम से.
किन्तु सम्राट से कैसे कोई मिल सकता है
बिना राजाज्ञा के अवध में.
कालपुरुष ने लक्ष्मण से कहा कि वह
महातेजस्वी महर्षि अतिबल का दूत है
आवश्यक कार्य से मिलना है अवध के सम्राट राम से
संदेश देना है उनको महर्षि अतिबल का.
लक्ष्मण ने राम से अतिबल के दूत का आना बताया
तपस्वी का रूप धरे काल पुरुष से राम को मिलाया.
राम ने स्वागत किया छद्म तपस्वी का
जो कि पूर्ण काल था
उसे बैठाया ऊँचे आसन पर
और आने का कारण पूछा.
जब राम अकेले रह गये कालपुरुष के सामने
तापस बने कालपुरुष ने
दिखाया अपना यथार्थ रूप
बताया आने का यथार्थ उद्देश्य
और बोला राम से
चाहें तो संवंरण करें जीवन का
चाहे लोप करें स्वयं ही अपना
विकलता आपकी
विफलता आपकी
शरीर रहने तक न होगी समाप्त.
राम हंसे बहुत समय के उपरांत
मरण का स्मरण कर
उनका कक्ष हंसने की ध्वनि से भर गया
राम के मन का संचित शोक मर गया.
प्रफुल्लित हुए राम
उनको मिला जीवन का एक और पक्ष
संपराय के लिए आरम्भ किया चिंतन.
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किंतु मरण के पहले अभी
अनेक मरण की यातना सहनी थी राम को
राम से अपनी सारी बातें कहने के पहले
काल पुरुष ने सुनिश्चित किया
जब काल पुरुष से वार्ता हो राम की
वहाँ आए नहीं कोई और
राम हों और हो कालपुरुष केवल.
जो कोई राम की आज्ञा के बिना
उस वार्ता में आएगा
उसका दण्ड पहरे पर खड़े व्यक्ति या
विघ्न डालने वाले को दिया जाएगा.
राम ने स्वीकार किया कालपुरुष के प्रस्ताव को
और बोले कि जो व्यवधान डालेगा
वे राम स्वयं उसे देंगे
मरण-दण्ड.
प्रस्ताव स्वीकार के पश्चात हुआ कुछ
जो नहीं होना था
कालपुरुष और राम की वार्ता चल ही रही थी कि
अत्रि अनुसुइया के पुत्र दुर्वासा
आए अयोध्या के राजभवन
और लक्ष्मण से कहा उन्होंने कि
जा कर सूचित करो
इसी क्षण सम्राट राम को
अविलम्ब अविराम मिलना है मुझे.
शाप दूँगा तुमको
तुम्हारे कुल को
तुम्हारे कुलभूषण राम को
यदि प्रतीक्षा करनी पड़ी तो
सम्पूर्ण साकेत को वैभव
नष्ट करने का शाप दूँगा.
अभी वार्ता पूर्ण नहीं हुई थी
कालपुरुष और राम की
और आए लक्ष्मण कक्ष के भीतर
राम और रूपधारी कालपुरुष की वार्ता के
मध्य संदेश लेकर दुर्वासा का.
काल पुरुष ने लक्ष्मण को देख कर कहा राम से
अब यह अयोध्या आपके रहने
योग्य नहीं रहीं!
एक सम्राट निर्विघ्न कर नहीं सकता वार्ता
तो वह सम्राट कैसा?
आप अवसान करें स्वयं अपना
और छोड़ दें अपनी अयोध्या को.
कहता हुआ काल पुरुष प्रस्थान कर गया
लक्ष्मण चिंतित से लौट गये
दुर्वासा को राम के पास ले आने
जो खड़े थे द्वार पर
राज भवन के.
राम ने स्वीकार किया अपना अवसान
कालपुरुष की मंत्रणा पर.
किन्तु जीवन के उपरान्त के पूर्व
उन्होंने अगवानी की दुर्वासा की
और उनके दीर्घ उपवास को तुड़वा कर
राजभोग से
तृप्त किया उनको.
चले गये दुर्वासा तो मंगल कामना देते
मरण के पहले की मंगल कामना
राम ने स्वीकार कर दुर्वासा को विदा किया
फिर सोचने लगे कालपुरुष को दिये
वचन पर.
करना होगा लक्ष्मण का वध
सोचा राम ने और व्यथा से भर आया उनका मन
कांपा स्वर थर्थर
जीवन के अंतिम कुछ शेष समय में
करना होगा लक्ष्मण का वध स्वंय
सोचते बैठे रहे वे बहुत देर तक
कांपा हाथ जैसे कांपा था शम्बूक
पर उठाते समय-खड्ग प्रखर.
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आए सभासद
संचित हुआ मंत्रीपरिषद्
वृद्ध जन नगर और राज्य के.
राम ने सबको बताया अपना निर्णय़
और भेषधर कालपुरुष को दिया अपना वचन
करना होगा उनको लक्ष्मण का हनन!
मरण के पहले कई-कई मरण
किया है स्वयं राम ने वरण.
वशिष्ठ ने समझा राम की व्यथा को
और लक्ष्मण ने भी
कहा वशिष्ठ ने सभा और राम-लक्ष्मण को
संबोधित कर
लक्ष्मण का त्याग ही लक्ष्मण का वध है.
एक सम्राट जिसका त्याग कर दे
वह मृत माना जाता है.
राम ने घोषणा की
मैं त्याग करता हूँ लक्ष्मण का
इसे मेरे द्वारा लक्ष्मण का वध माना जाए.
लक्ष्मण देखते रहे राम को
फिर देखा उस सभा को
और उसके मध्य वे एक मृतक की तरह
खड़े रहे कुछ पल
फिर निकल गये भवन के बाहर
निकलते चले गये
वे नगर के बाहर.
राम ने लक्ष्मण का निष्कासन नहीं देखा
वैसे ही जैसे सीता का निष्कासन नहीं देखा था.
लक्ष्मण ने वैसी ही विदाई पाई
जैसी सीता को मिली थी
बिना स्वजनों से मिले
बिना पुत्रों से विदा वचन बोले
बिना पूर्वजों को प्रणाम किये
बिना भाइयों से गले मिले
लक्ष्मण ने छोड़ दिया अयोध्या
छोड़ दिया कुल-भवन.
उपेक्षित-मृत की भांति पहुँचे सरयू तट
और स्वांस रोक कर किया अपना अंत
साक्षी रहे उस मानरहित मरण का दिग् दिगंत.
सरयू में अभी भी है वह गोप्रतार घाट
जहाँ मारा स्वयं को लक्ष्मण ने
जल में डुबा कर
अपमानित अकेले अनीरा अंत.
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फिर आए गायक बन कर कुशीलव
उन्होंने सभा मध्य गाया राम का अवसान गान.
भीषण जीवन का जब उत्तरार्ध सम्पूर्ण हुआ
तब राम हृदय को मोक्ष भाव ने सहज छुआ
जब सीता विहीन जीवित रहते वे ऊब गए.
जब माया विमोचित वैराग्य भाव में डूब गए.
संध्या के पूर्व दिवस अंधियारा दिखता था
राजधानी में सर्वत्र अंध-प्रसारा दिखता था
राम विकल देखते राज्य को घिरते तम में
प्रजा प्रश्न आकुल रहती अपने वि-भ्रम में.
अनभिज्ञ राम, घिरता जाता था मृत्यु पाश
काल पुरुष ने अवध पुरी को लिया ग्रास
राम का पूर्ण हो रहा था यह जीवन फेरा
निकल रहे थे छोड़ परस्पर का भारी घेरा.
जीवन का बड़ा भाग था माया के आवर्त में
आभास नहीं होता जग को जाना है गर्त में
वे विलग हुए प्रिय लखन सहित अनुजों से
मंत्रियों सैनिकों समस्त प्रजा पुरुषों गुरुओं से.
एकांत लिया स्वजनों से किंतु स्वयं से दूर
कहाँ हो सका है कोई राम हों या काल क्रूर
सोचा व्यतीत को सोचा अपने निर्दय होने को
स्मरण किया नम्र सीता के भू में खोने को!
आना माया मृग का अनुनय सीता का लाएँ
यह मृग जीवित या चर्म मनोहर इसे बिछाएँ
साथ साथ बैठेंगे बोली थी सीता स्वर धीमे
हूक सी उठी राम विचलित हुए विलपे जी में.
मंद भाग्य पाया अपने जीवन को रघुवर ने
क्रम से अतीत सोपान लगे अनभिज्ञ उतरने
कैसे कोई स्त्री की ले सकता है अग्नि परीक्षा
उस पर निष्ठुर जीवन जीने की रखता है इच्छा!
सन्निपात से घिरे खड़े थे जानकी प्राण रघुनंदन
बोलना कठिन, बुदबुद करते सिय का वंदन
“क्षमा करो जानकी क्षमा करो” करते थे क्रंदन
सूख चुके थे आंसू मुरझाए थे राम नयन.
पाने खोने के क्रम में जीवन था शून्य समूचा
रह गया राम का जीवन सूखा निष्प्रभ छूछा
मर्यादा धर्म मर्म का मान महा विस्तारित
सोचने समझने भर से कब होता है निर्धारित?
स्मरण किया करते थे राम शंभु धनु भंजन
उस क्षण वह सभा और कोलाहल में मन
कैसे डूबा था आँखों से आंखों का अंकन
कैसे जानकी हृदय में हुआ राम का आरोपण.
सब जैसे कुछ पल पूर्व घटित सा झलका
रघुनाथ देखते मर्माहत पल पल का
छूटना अवध का वन प्रांतर में होना
पद पद चलना रुकना पत्तों का बिछौना.
माया का मृग दर्शन, पाने की विकट लालसा
कौन सोचता है कब क्या जादू हो मरीचिका
मिला न मृग न चर्म न केवल पुकार वह छल ना
भागते लखन रक्षा करने हरने दुःख अग्रज का.
स्मरण करते अभी-अभी त्यागे लक्ष्मण का
यह त्याग नहीं यह तो प्रतीक था वध का
सोचते सोचते विकल आया ध्यान भरत का
सौंप कर उनको राज्य वरेंगे मार्ग लखन का.
गायक कुशीलव लौट गये अपने आलय को
राम सहित सुनने वाले उत्सुक हैं
हुआ क्या राम के जीवन का कोई अंत अनहोना.
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अर्धरात्रि में बुला कर
भरत से राम ने कहा तुम सम्हालो राज्य
मैं करता हूँ तुम्हारा राजतिलक
मैं समाप्त करूँगा अपना जीवन
जैसा पहले कह चुका हूँ
पुनर्विचार की कोई संभावना नहीं कहीं.
संकलित करो राजतिलक के उपादान
अभिषेक का जल
सात नदियों और सात समुद्रों के जल
लाओ
मंगल गान करने वाली युवतियाँ
और मंगल नृत्य करने वाली गणिकाएँ आमंत्रित की जाएँ.
भरत खड़े रहे सुनते राम के साम-वचन
फिर बोले
महाराज सत्ता सौंपे आप
सीता पुत्रों को.
यह सत्ता आपकी थी
आपके पश्चात भी आपकी रहेगी.
मैं अनुसरण करूँगा आपका
जो नहीं कर पाया था पिछली निकासी पर
अब राज्य की आवश्यकता नहीं हमारी
जब राम नहीं अयोध्या में तो
जीवन क्या सुखकारी.
आप नहीं ले गये वन
सहयात्री बन कर करूँ मरण.
राम ने बहुविधि समझाया भरत को
तुम पाओ राज्य
किंतु भरत माने नहीं किसी प्रकार.
पुत्रों के मध्य विभाजित करके कोसल को
किया राजतिलक
और फिर राम ने प्रजा को सुनाया अपना मरण
मुहूर्त निश्चय.
सुना होगा पुत्रों ने भी अंत कर रहे हैं पिता
अपना
कालपुरुष के संदेश के बाद.
वे पुत्र सहमरण के लिए उत्सुक नहीं हुए
राम द्वारा छोड़ा राम राज्य विभाजित किया उन्होंने
एक ने उत्तर कोसल पाया एक ने दक्षिण कोसल
सेना हाथी घोड़े
कोष प्रजा सब विभाजित हुई
राम के राज्य का अंत होते ही.
शत्रुघ्न रहते थे बाहर अवध के
वे बुलवाए गये
मधुरा से तत्काल.
वे भी आए सत्ता अपने पुत्रों को सौंप
भाई के साथ त्यागने जीवन.
न भरत ने पूछा न शत्रुघ्न ने कि
कहाँ हैं लखन.
जिसे राजा ठुकराए
उसके प्रति निकटता प्रदर्शित करना
अवध की परम्परा नहीं थी.
किसी ने नहीं पूछा कहाँ हैं लक्ष्मण
प्रजा ने भी नहीं पूछा
कहाँ गये लखन.
एक नाविक था
सरजू में अपनी नाव लिए
पार जाने को आतुर
केवल उसने देखा लखन को डूबने के लिए
सरजू के गोप्रतार घाट पर शून्य दृष्टि से
निहारते जल को.
जैसे पहले किसी ने नहीं पूछा था सीता के
निष्कासन पर
वे मौन थे सब तब भी
मौन हैं वे अब भी.
सम्राट के आदेश पर मौन रहने की
प्रथा टूटती नहीं अयोध्या में
अभी सम्राट को कालपुरुष के कथन पर
वरण करना है मरण.
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यह अंतिम दिन है राम का अयोध्या में.
राम गए सीता के भवन में फिर
वहाँ सीता की स्मृतियों के
चिथड़े पड़े थे
राम सीता हीन भवन में
सीता-मय हो कर खड़े थे.
भांति-भांति से स्मरण आई जानकी
राम अतीत से आज तक
सोचते अवसन्न रहे.
अंतिम रात जाग कर बिताई
सूने में रघुराई.
राम ने सीता से क्षमा-याचन किया
सुनिश्चित अपना मरण किया.
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राम छोड़ देंगे अयोध्या
राम छोड़ देंगे शरीर
राम छोड़ देंगे संसार
यह कुसमाचार फैल गया राम राज्य में.
फिर वहाँ से दूर किष्किंधा तक
लंका तक पहुँच गई सूचना
राम कुछ समय के अतिथि हैं अब.
राम न बहुत वृद्ध हैं
न रुग्ण हैं
न पराजित पराधीन हैं
फिर क्यों छोड़ रहे हैं राम राज्य?
फिर क्यों शरीर राम के लिए त्याज्य?
लोग आपस में करते प्रश्न किंतु
राम से किसी ने नहीं पूछा कि
राम क्यों त्याग रहे हैं अपनी अयोध्या
राम क्यों त्याग रहे हैं अपना शरीर?
राम से न किसी ने पूछा न राम ने किसी को बताया
राम ने अपनी अयोध्या पर काल पुरुष की छाया को
और गहरी से गहरी होते पाया.
उनको दिखता था कालपुरुष
उनको दिखता था उसका विस्तृत होता अंध-घोर
राम ने पाया उनकी अयोध्या को कालपुरुष ने ढंक लिया है
वे चाह कर भी उससे मुक्त नहीं करा पाएँगे
अपनी वैभवशाली अयोध्या.
देखते-देखते
कालपुरुष घरों में बर्तनों में पैठ गया
वह अन्न में भोजन में समा गया
वह विचारों में वाणी में भाव-अर्थ पाने लगा
वह कालपुरुष आँखों में लोगों के
उतर गया भावी योजनाओं में समाने लगा.
वह नदियों के जल में बृक्ष और फल में
हर टलमल में घुलमिल गया
और राम को उसने
उनकी ही स्वीकृति से विस्थापित किया
उनकी ही अयोध्या से.
वह काल पुरुष पोथियों में अक्षर बन कर उभर आया
वह काल पुरुष यज्ञों और समिधाओं में
शाप में और क्षमा में
सुख और यातना में प्रसारा पा गया
राम को मिला निकारा फिर से
अपनी ही अयोध्या से.
राम निष्कासित हुए सर्वत्र से
तिनके-तिनके पर विराज गया कालपुरुष
पुरुषोत्तम राम अवांछित हो गये
अपने ही राज्य नगर से.
राम का गौरव समाप्त हुआ जैसे ही राम ने
सत्ता से विलग किया स्वयं को
प्रभावी हुआ कालपुरुष
रामत्व का लोप हो गया अयोध्या से
राम के राज्य से उठ गई मर्यादा
अयोध्या का वैभव मलीन हुआ
लुप्त हुई प्रभा इक्ष्वाकु वंश-शासित राज्य की.
जैसे दिन में अधियारा
जैसे बिना गूँजे गूँजता रहा
अयोध्या में कालपुरुष का जैकारा.
आए राम के प्रस्थान की बात सुन कर राम-जन
आए सुग्रीव अंगद सहित हनुमान विभीषण
जाम्बवान आए
आए कपिदल आए यक्ष-किन्नर-राक्षस
लंका पर जो राम के कहे पर करते थे राज्य
सबने कहा वे भी चलेंगे राम के साथ
राम के साथ चलना भी है एक राम काज.
राम ने कहा हनुमान से तुम रुको
कहा विभीषण से तुम करो
राज्य राक्षसों के साथ लंका पर
रहो राक्षसों के राजा बन कर
उच्छेद न हो कभी तुम्हारा
और तुम्हारे राक्षसी वैभव का.
सुग्रीव ने राज्य दिया अंगद को
राज्य जो अंगद का ही था.
वालि की पीठ पर धंसा बाण
स्मरण हुआ
प्रश्न बालि और तारा के राम ने सुने गूँजते
अपने अवसान के कुछ काल पूर्व भी.
राम घर से निकले
राम द्वार से निकले
पिता की छाया से निकले
सीता की माया से निकले
और चले सब के सब राम के पीछे
छोड़ कर अयोध्या को कालपुरुष की छाया में.
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राम को ऐसी दुविधा नहीं हुई थी
वनवास के लिए निकलते समय
यह जीवन की अंतिम निकासी है
राम फिर-फिर देख लेना चाहते हैं बहुत कुछ
वे अचानक अपने भवन से निकले तो
कोप भवन की ओर मुड़ गये.
पिता की छवि दिखी अनभुलाई
देखते रहे अपलक रघुराई
भूमि पर गिरे पड़े हैं पिता
रो कर थक गये हैं पिता
वचन से पराजित पिता
राम ने उन पिता को किया फिर से नमन
फिर से माँगी माता कैकेयी से मानसिक विदा
अयोध्या से किया आत्म निष्कासन.
अयोध्या के घर
अयोध्या के जन अब भी राम के साथ चले
राम के पुत्रों का राज्य कालपुरुष की छाया में रहे
या कालपुरुष की माया में रहे
अब नहीं रहना अवध में राम को.
एक विशाल जन समूह
राम के साथ आया सरयू तट पर
वहीं उसी गोप्रतार घाट पर
जहाँ कुछ ही समय पहले आए थे लक्ष्मण अकेले
वहीं उसी घाट पर आए राम जन समूह के साथ
मुक्ति पाने शरीर के बंधन से.
राम ने आत्म-मुक्ति के लिए संकल्प लिया
सरयू के जल से
उनका ही अनुकरण किया सब ने.
अपनी अयोध्या को छोड़ कर राम धीरे-धीरे बढ़े
सरयू की मध्य-धार की ओर
उनके पीछे भरत
उनके पीछे शत्रुघ्न
सब के सब सरयू की धारा में डूबने के लिए
बढ़े राम के पीछे.
यह शरीर त्याग का कैसा उपाय चुना राम ने
पानी में डूब कर करना अपना अंत
जबकि राम जी सकते थे और
कुछ और काल तक स्थापित रखते राम-राज्य.
किंतु कोई नहीं था
राम की अयोध्या में उस समय दशरथ जैसा जो कि
राम को रोकने के लिए करता हाहाकार
या माता कौशल्या जैसे करता अवश्य लौटने की गुहार.
दिशाएं सुन्न थीं
सुन्न थे शब्द
सुन्न था जल प्रवाह
लोग राम के पीछे डूबते रहे
कालपुरुष की छाया में छोड़ कर अयोध्या.
कुछ देर तक दिखा राम का शीश
दिखे जल पर फैले
श्वेत श्याम केश
दिखा उत्तरीय जल की सतह पर
फैलता प्रवाह के साथ बहता.
किंतु अब कोई नहीं देख रहा था राम डूबना
देख रहा था केवल कालपुरुष
राम का बहना तिरोहित होना खोना
कोई नहीं था जो राम के डूबने पर
जो करता रोना-धोना
राम का शरीर खो गया सरयू के जल-प्रवाह में.
राम को तिरोहित होते देखा मात्र कालपुरुष ने.
भरत और शत्रुघ्न भी खो गये सरयू की धारा में
सरयू निगल लेती है अपने राम को भी
नदियाँ काल की प्रतीक हैं क्या?
वशिष्ठ नहीं गये राम के साथ
वे लौट आए
कालपुरुष के अधीन रह गई
अयोध्या में.
कालपुरुष के अधीन रह गई
मंत्रीपरिषद.
पाकर राज्य विभाजित
लव-कुश भी नहीं आए सरयू तट तक
देखने पिता का अवसान
काल पुरुष का छाया था
अदृश्य विधान.
वे गाने के लिए राम-कथा रुके रहे
यही कहा जा सकता है.
स्त्रियाँ भी नहीं गईं पतियों के साथ
उर्मिला नहीं गई
माण्डवी नहीं गई
श्रुतकीर्ति नहीं गई.
बहनें तो सीता के साथ भी नहीं गईं
जबकि जा सकती थीं
लेकिन अपने से जाने का अधिकार भी नहीं था
राम की अयोध्या में स्त्रियों को.
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राम के जाने के बाद
अयोध्या में छाया रहा कालपुरुष
वह राम वाली अयोध्या
उसी पल लुप्त हुई
गोप्रतार घाट में रेत सी
बह गई छूट गई.
राम के अवसान के बाद
कालपुरुष ने राज्य किया
उसकी परछाईं में रही अयोध्या
कहने को वह लौट गया
राम को अवसान की प्रेरणा देकर
किंतु राम को विदा कर
डटा रहा कालपुरुष
विकसित होता रहा कालपुरुष!
त्रेता से अब तक
राम कहीं नहीं हैं
अयोध्या में
हर दिशा में
सर्वत्र है केवल कालपुरुष.
राम को निष्कासित कर
कालपुरुष शासन करता है अयोध्या में
राम उसके बंधन में बंधे
डूब कर करते हैं आत्म-समापन
न लव न कुश न इक्ष्वाकु कोई
मात्र कालपुरुष करता है
राम-राज्य के नाम
अयोध्या पर शासन.
बोधिसत्व 11 दिसम्बर 1968 को उत्तर प्रदेश के भदोही जिले के सुरियावाँ थाने के एक गाँव भिखारी रामपुर में जन्म. प्रकाशन- सिर्फ कवि नहीं (1991), हम जो नदियों का संगम हैं (2000), दुख तंत्र ( 2004), खत्म नहीं होती बात(2010) ये चार कविता संग्रह प्रकाशित हैं. लंबी कहानी वृषोत्सर्ग (2005) तारसप्तक कवियों के काव्य सिद्धांत ( शोध प्रबंध) ( 2016) महाभारत यथार्थ कथा नाम से महाभारत के आख्यानों का अध्ययन (2023)संपादन- गुरवै नम: (2002), भारत में अपहरण का इतिहास (2005) रचना समय के शमशेर जन्म शती विशेषांक का संपादन(2010).सम्मान- कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल सम्मान(1999), गिरिजा कुमार माथुर सम्मान (2001), संस्कृति सम्मान (2001), हेमंत स्मृति सम्मान (2002), फिराक गोरखपुरी सम्मान (2013) और शमशेर सम्मान (2014) प्राप्त है जिसे वापस कर दिया. ईमेल: abodham@gmail.com |
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बेशकीमती रचना !! आकुल राम की कथा !! आज के लिए सन्देश भी। आभार कवि का।
एक नायक के अकेलेपन और उसके अवसान की महागाथा।
बोधिसत्व जी को हार्दिक बधाई। उनकी यह असाधारण रचना है ।हमारे वर्तमान की बेचैनी को मिथक कथाओं में इस तरह उतारने का चलन अब लगभग दुर्लभ हो गया है।समालोचन को भी प्रस्तुति के लिए बधाई।
काव्य कौशल, दृष्टि और समय का सघन हासिल। बोधि भाई और समालोचन दोनों का शुक्रिया, बधाई।
बहुत दारुण भाव जगाती हुई वृद्ध राम की व्यथा समझती हुई कविता।
कालपुरुष के वर्चस्व को रेखांकित करते हुए।
बेजोड़ कविता.
राम वन गमन से भी ज्यादा मार्मिक बन पड़ी है राम की जल समाधि हेतु प्रस्थान यात्रा. यह कविता मौत की सत्ता के अंतिम सत्य का भी आख्यान है, और तमाम सत्ताओं के खोखलेपन का भी. यही इसे हमारे समय का सशक्त रूपक भी बनाती है.
राम व्यक्ति, राजा या ईश्वर नहीं, आत्म-मंथन और आत्म-परिष्कार की अनवरत साधना है. राम का रामत्व अंतिम समय में पश्चाताप के उस बिलखते पल में मौजूद है जहां सत्ता के दबाव, शास्त्र-विहित मर्यादा-पालन का यांत्रिक भाव, अ-करणीय कर्मों को कर डालने का संताप ढोल पीटते नगाड़ों का शोर बन जाता है.
रामत्व आत्मावलोकन का महत् दर्शन है. यह नासूर बन जाने वाली उस मानवीय दुर्बलता पर उंगली रख देने की निडरता है जो प्रकृति और मनुष्य से समन्वय और सामंजस्य की तमाम कोशिशों के बावजूद धीरे-धीरे उनसे कटती चलती है, और बदले में अपने चारों ओर देवत्व के विशिष्ट आभा-मंडल को रचने लगता है. रामत्व जीवन के घनघनाते अंतिम पल को भी निष्कपट भाव से जीने की कबीराई फक्कड़ी है ताकि ‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया‘ के विश्वास के साथ हवा-पानी-धूप के जरिए जन-जन, मन-मन तक मौत के बाद भी जिया जा सके.
इस गहन-संश्लिष्ट कविता के लिए बोधिसत्व जी को बहुत बधाई.
मार्मिक कविता। राम के अंतर्द्वंद्व को अत्यंत संवेदनशीलता के साथ दर्शाने में सक्षम। बहुत पूर्व में अयोध्या पर इनकी एक विलक्षण कविता पढ़ी थी-पागलदास। यह कविता उससे आगे की कविता है। इस तरह के विषयों पर कविता लिखने में बोधिसत्व को महारथ हासिल है। बहुत बहुत बधाई।
इस दौर की बेहद महत्त्वपूर्ण कविता है संवेदनशील सत्ता कै शीर्ष पर कितना अकेलापन कितना विषाद और कैसा दमघोंटू अंतर्द्वंद हैं कविता में बहुत विश्वसनीय तरीके से बोधिसत्व जी ने उसे प्रत्यक्ष किया है। राम के पूरे जीवन की व्यथा को, उनके अवसाद और बाहर से जीवंत दिखाई देने वाले व्यक्तित्व के भीतर चल रहे पराजय बोध को यह कविता आंतरिक पीड़ा की वास्तविकताओं को मार्मिक मानवीय नियति के रूप में सामने लाती है। निराला के राम का तो एक और अनथक मन था पर बोधिसत्व जी की इस कविता के राम का एक ही मन हैं जो विवादपूर्ण अवसाद का सामना कर रहा है। वहाँ तो मुख्य चिंता अपनी परिणीता के उद्धार की है पर यहाँ तो पूरे जीवन के कर्मों का लेखा जोखा है। इस लिहाज से यह कविता रामकथा काव्य परंपरा में विशिष्ट हो उठती है।
समालोचन को, अरुण देश को और बोधिसत्व को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ कि इन्होंने एक वोटखींचू राजनीति के कुत्सित दौर में एक अलग तरह के राम को, जो सत्ता के शीर्षासन और सिंहासन की व्यर्थता का प्रतिपादन करने वाले राम से मिलवाने का जतन किया।
मार्मिक आख्यान है । सीता की माया पर पुनर्विचार का आग्रह है । बेहतरीन बन पड़ी है अपनी करुणा और पीड़ा के कारण । साधुवाद
अद्भुत कविता ।
एक सांस में पढ़ गया इस लंबी कविता को , ऐसा कहना अत्युक्ति लग सकती है लेकिन कहूंगा की उसी उत्सुकता के साथ पढ़ा । बहुत ही सुंदर ।
राम की ह्रदय व्यथा और अवसान का मार्मिक चित्रण. यही जीवन नियति है अंत समय ही आभास होता है मनुष्य को, उसने क्या सही किया और क्या गलत.
सम्पूर्ण जीवन का लेखा जोखा सामने रखने पर ज्ञात होता है, हाथ में केवल शून्य ही आया और आत्मग्लानि से भर उठता है. आत्मग्लानि और पश्चाताप में मनुष्य इसी प्रकार के कदम उठाता है. वही राम ने किया. बेहद उम्दा रचना विचार करने को विवश करती है. बोधिसत्व जी को साधुवाद.