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Home » पृथ्वी की दो करवटों के मध्य: बाबुषा कोहली

पृथ्वी की दो करवटों के मध्य: बाबुषा कोहली

नई सदी की हिंदी कविता में जिन कवियों ने कथ्य और शिल्प को लेकर बड़े बदलाव संभव किये हैं उनमें बाबुषा कोहली का नाम प्रमुखता से आता है. सृजनात्मक गद्य के लिए भी जानी जाती हैं. यह संस्मरण अंश प्रस्तुत है.

by arun dev
October 12, 2021
in आत्म
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पृथ्वी की दो करवटों के मध्य: बाबुषा कोहली
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पृथ्वी की दो करवटों के मध्य

बाबुषा कोहली

एक

उस रोज़ राष्ट्रीय स्तर के एक नेता की आमद की वजह से शहर की तमाम मुख्य सड़कें डायवर्ट की गयी थीं. मैं एक सड़क छोड़ दूसरी और दूसरी छोड़ तीसरी तक पहुँच अपना रूट पकड़ने की जुगत में थी. मौसम न सुहाना था, न तीखा था. ट्रैफ़िक पुलिस न सुस्त थी, न चुस्त थी. रास्ते में मिलने वाली चिड़ियाँ न चहक रही थीं, न चुप थीं. चौराहे न ज़िन्दा जान पड़ते थे, न मुर्दा ही थे. रूट बदलते लोग न उत्साहित थे, न हलकान थे. एक निस्सार उदासीनता किसी बूढ़ी बिल्ली की तरह पूरे शहर को अपने पंजे में दबोचे हुए थी. मेरी गाड़ी की स्टीयरिंग तलत महमूद की आवाज़ के इशारे पर धीमी-धीमी दाएँ-बाएँ हो रही थी.

कि तभी स्टेशन की ओर से आने वाली पैदल भीड़ में एक जोड़ा दिखा. कोई तीस बत्तीस की वय का वह युवक होगा जिसकी पीठ पर उसकी स्त्री थी. पाँव से लाचार उस स्त्री की सांवली त्वचा धूप के मेल से जगमगा रही थी. पर नहीं, वह जगमग धूप की भर नहीं थी. और ही तरह की दमक थी उस चेहरे पर जिसका बयान करने के लिए मैंने ढेरों उपमाएँ सोचीं और लिख कर काट दीं. मैंने पाया कि मेरी भाषा उस स्त्री के चेहरे के उजास को छू सकने में असमर्थ थी. ऐसा भी नहीं कि पहले ऐसा कुछ मैंने देखा नहीं. इस देश के लगभग हर रेलवे स्टेशन या बस अड्डे के आसपास कुछ असहाय जोड़े नज़र आते हैं जहाँ एक साथी दूसरे को संभाले हुए है. तब भी इस दृश्य की बात कुछ अलग थी. जैसे उस अनमने से दिन के ऐन बीचोबीच ज़िन्दगी की बौछार पड़ी हो. उस पुरुष की गर्दन एक निश्चित कोण पर मुड़ी हुई थी और स्त्री का मुंह उसके कान के पास था. वह सुन रहा था. हाँ, शायद यही ख़ास बात थी कि वह चलते हुए पीछे मुड़-मुड़ कर अपनी स्त्री को सुन रहा था.

वह सुन रहा था. स्त्री हँस रही थी. वह सड़क पर चल रहा था और स्त्री उसके साथ इस तरह चल रही थी ज्यों ओस की बूँद पर सूर्य की किरणें चल रही हों.
पुरुष भारहीन था और स्त्री जगमग.

 

दो

उस रोज़ तक़रीबन ढाई बजे मैं स्कूल से निकली थी. सुबह आसमान कोरे काग़ज़-सा साफ़ था मगर दोपहर तक उस धवलता पर बादल के कुछ टुकड़े तैरने लगे. यूँ लगता था ज्यों काग़ज़ पर कविता झरने के पहले उसके कुछ हर्फ़ टपक गए हों. अभी मैंने विविध भारती ट्यून करने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि एक अनूठे नज़ारे ने मेरी आँखों को ट्यून कर लिया. जैसे अचानक हवा की पोटली खुली हो और उसमें से दो भूरी तितलियाँ निकल आयीं जिनके पंखों पर किसी चित्रकार ने नीला रंग छिड़का था. दोनों तितलियाँ मेरी गाड़ी के आगे यूँ चलने लगीं जैसे किसी हाकिम के आगे-आगे उसके मुहाफ़िज चलते हों. ये भी नहीं कि उड़ के दाएँ बाएँ हो लें, वे तो बस आगे-आगे चली जा रही थीं. मेरी समझ के बाहर था कि कुदरत की सबसे शोख़ शै किसी स्कूली बच्चे की तरह मेरे आगे मार्च पास्ट क्यों कर रही हैं. कुछ ही पलों में मैं उन तिलिस्मी तितलियों की माया में पड़ गयी. वे आगे-आगे मैं उनके पीछे-पीछे, यहाँ तक कि जिस मोड़ से मुझे मुड़ना था, वह भी मुझसे छूट गया. कुछ देर के लिए मेरी पूरी दुनिया ऐसे जादू में डूब गयी थी जहाँ न ये मालूम था कि कहाँ जाना है, न वक़्त का पता था. ज़ेहन में रुई बराबर तनाव नहीं था. मेरी दशा उस बच्चे की तरह थी जो तितली के पीछे भागते-भागते घर जाना भूल जाता है.

इस घटना को डायरी में दर्ज करने बैठी तो क्रिस्टोफ़र नोलन के मशहूर शाहकार ‘इंटरस्टेलर’ का ख़याल आया. डॉ. ब्रांड का यह बयान कि प्रेम ही है जो टाइम और स्पेस का अतिक्रमण कर देता है. वह शक्ति, जिसे हम बहुत समझ नहीं पाते, फिर भी हमें उस पर भरोसा करना चाहिए शायद.

नायिका मर्फ़ जब इस हक़ीक़त से रूबरू होती है कि उसके कमरे में होने वाली अजीबोग़रीब हरकतों के पीछे कोई भूत नहीं बल्कि फ़िफ़्थ डायमेंशन पार कर चुका कूपर है. उधर किताबों की शेल्फ़ के उस पार हवा-हवा से जिस्म वाला कूपर बेटी के प्रेम की डोर से बँध कर धरती पर लौटा है. पाँचवें डायमेंशन तक इवॉल्व हो चुका कूपर मर्फ़ को कुछ ज़रूरी संकेत देना चाहता है पर वह किस ज़बान में दे? आख़िर प्रेम ही काम आता है जो किसी भी डायमेंशन में सम्प्रेषित होने में समर्थ है. प्रेम को भाषा की भी क्या ज़रूरत. वह जब हो तब उसका होना ही अपने आप में पूरी बात है.

लौटते हैं उसी दिन पर जब मेरी मुहाफ़िज तितलियाँ मुझे जाने कहाँ लिए जा रही थीं और मैं उनसे राज़ी थी. याद नहीं आता कि उस रोज़ सड़क पर कोई और था भी या नहीं. एक लम्बी सांवली सड़क, आसमान पर कुलाँचे भरते हिरण जैसे छिटपुट बादल और मेरे आगे-आगे चल रही ये दो तितलियाँ. उन लम्हों में इतनी ही चीज़ें थी दुनिया में. इस संसार का सारा कोलाहल कहाँ गुम गया था, इसकी मुझे कोई ख़बर नहीं.

अभी मैं इस मायावी मंज़र के एकदम बीचोबीच ही थी कि ऐसा लगा जैसे अचानक मुझे किसी ने झिंझोड़ सा दिया हो. बीच राह में वे दोनों तितलियाँ मेरी नज़र से ओझल हो गयीं. उस पल ऐसा लगा मानो मेरी डूबने की चाह को धता बता कर समंदर की एक लहर ने मुझे ऊँचे उछाला और वापस किनारे पर फेंक दिया हो. सब कुछ इतना अनायास और अचकचाने वाला था कि इससे उबरने में मुझे कम-अज़-कम दो मिनट ज़रूर लगने थे. मैंने सड़क के किनारे कार पार्क कर दी. यह मेरे शहर की रिज रोड थी. एक नज़र मैंने घड़ी पर डाली. वक़्त अजनबी था, पर उसका वजूद था. नज़र उठाई तो सामने गुलाबी फूलों की जंगली बेल ने दरख़्तों और सड़क किनारे बीते वक़्त की गवाही देते खंडहरों को ढाँक रक्खा था. उस वक़्त हर ओर बहुत सारा गुलाबीपन था. भूरे-नीले पंखों वाली मेरी तितलियाँ उस गुलाबी हवा में मुझे छोड़ कर लापता हो चुकी थीं.

इस घटना के कुछ दिनों पहले की बात है. मैंने एक दोस्त से कहा था कि बहुत सारा गुलाबी देखने का मन हो रहा है. दोस्त ने अपने रूफ़ गार्डन के गुलाब की तस्वीर व्हाट्सएप कर दी. लेकिन मुझे व्हाट्सएप वाला गुलाबी नहीं चाहिए था, मशीनी गुलाबी नहीं. वह गुलाबी, जो दिल में हिलोर पैदा करता है, जो उन हिलोरों को आँखों में खींच लाता है और आँख समंदर करता है, जो भीतर करुणा जगाता है. ऐसा गुलाबी..

क्या उन तितलियों ने मुझे सुन लिया था ?
वे तितलियाँ कौन थीं ?

दिल किसी घने तिलिस्म के असर में हो और कुदरत अपने गुलाबी जलवे से किसी को मालामाल कर रही हो तब वह क्या करता है ? उस समां की तस्वीर लेता है ?
नहीं तो !

तब वह रो पड़ता है.

 

तीन

उस दिन मैं हड़बड़ी में थी. ऑनलाइन क्लासेज़ घर से लेने के बाद स्कूल पहुँचना था और मुझे थोड़ी देरी हो गयी थी. मौसम वैसा ही था जैसा जाती बरसात का होता है. जैसे धूप हल्के पीले रंग की सूती साड़ी हो जिसे उमस नाम की नाख़ुश औरत ने लपेट रक्खा हो.

मैंने गाड़ी स्टार्ट की ही थी कि सामने से आते उन तीनों पर नज़र पड़ी. नहीं, मैं उन्हें नहीं जानती. पर यह भी कहते नहीं बनता कि नहीं जानती. कोई सात-आठ बरस की उम्र के वे तीन लड़के रश्क़ करने लायक़ बेफ़िक्री के मालिक थे. एक ने दूसरे के काँधे पर हाथ रखा हुआ था और दूसरे ने तीसरे का हाथ पकड़ा हुआ था. मुझे शक है कि उन तीनों में से एक ने भी कभी मोबाइल हाथ में पकड़ा हो. वे तीनों एक दूसरे के स्पर्श से तो जुड़े ही थे, और इसके इतर न जाने क्या चीज़ थी जिसके चलते उनमें गहरा जोड़ नज़र आ रहा था. उनके कपड़े मैले कुचैले थे कहीं कहीं से फटे हुए भी. उनके पाँव नंगे थे और उनकी आँखें चमकदार थीं. उनकी चाल बादशाहों जैसी थी.

जैसे ही मेरे बाजू से गुज़रे, जाने किस रौ में मैंने उन्हें रोक लिया. डैशबोर्ड से मैंने टॉफ़ियाँ उठायीं और उनके सामने मुट्ठी खोल दी. तीनों ने एक एक टॉफ़ी ले ली. न उनके भीतर कोई दीनता थी, न उनकी भंगिमा में कोई शुकराना था. अना भी नहीं, ऐंठ भी नहीं, लेकिन उनके व्यक्तित्व में एक ऐसी गरिमा मैंने देखी जैसे उन्हें अपने-पराए का कोई भान ही न हो. जैसे उन्हें जो भी मिलता हो, वह उन्हीं का तो है, इसमें शुकराना कैसा.

मेरा मन हुआ कि उनसे कहूँ बैठो पीछे, शहर का एक चक्कर लगा कर आते हैं. किसी राजा के सारथी की तरह दुनिया देखने का अवसर बना था. पर उस दिन मेरी दरिद्रता का हिसाब न था कि मुझे ज़रूरी फ़ाइलें पूरी करनी थीं, मीटिंग अटेंड करना था और डेडलाइन्स का सम्मान करना था.

साल २०१५ की डायरी में लिखा था :

“पता नहीं कितनी खिंचेगी नौकरी मुझसे अब. बहुत से बहुत दो साल और ? कब से तो मन करता है कि जहान भर के बच्चों के बीच गुम जाऊँ. अलिफ़-लैला और सिंदबाद संग, अलीबाबा और चालीस चोर संग, विक्रम- बेताल संग, परियों- तितलियों संग, बादलों और नदियों संग, राजा और रानी संग, गुड़ियों और गुड्डों संग. कटनी से सिडनी तक बच्चे ही बच्चे हों, क़िस्से ही क़िस्से हों कि दुनिया की सबसे जवान दादी माँ हो जाना है मुझे.”

यह लिखने के बाद छह बरस और बीत गए पर नौकरी नहीं छोड़ी जा सकी. जब-जब नौकरी छोड़ने की इच्छा उफान मारती तब कभी परम सखा आशीष पाठक टोक देता तो कभी जिगरुआ दोस्त प्रतिभा कटियार समझाइश देती.

आशीष हमेशा चार शब्दों में कहता, “नहीं पार्टनर, अभी नहीं.”
वहीं प्रतिभा कहती, “बच्चों को तुम्हारी ज़रूरत है.”

हालाँकि असल बात यह रही कि मुझे ही बच्चों की ज़रूरत थी. इन सब के इतर यह भी है कि भले ही मुझे पैसे गिनने का शऊर न आए पर इतना तो समझ पाती ही हूँ कि गाड़ी में पेट्रोल पैसों से ही भरेगा सो कई विचलनों के बाद भी नौकरी नहीं छोड़ी जा सकी.

कितने ही बच्चों से मिलती हूँ हर दिन स्कूल में, ट्रैफ़िक सिग्नल में, खेल के मैदान पर. लेकिन इन तीनों का ख़याल करते हुए कुछ लिख रही हूँ तो महज़ इसलिए नहीं कि वो क्या हैं बल्कि इसलिए भी कि कुछ पलों की उनकी संगत में मैं क्या थी.

बेफ़िक्र, आज़ाद और खुशनसीब.

 

चार

आफ़ताब से मैं नदी किनारे मिली थी. वे बारिशों के दिन थे मगर वह शाम बारिश की राह ताकने वाले वाले किसी ग़ज़लगो सी मालूम पड़ती थी. सूरज कुछ देर पहले ही नदी में उतरा था और पानी को छू कर नारंगी कर गया था.

मैं नदी से कुछ दूरी पर लगी बेंच में बैठी पानी के बदलते रंगों पर नज़र जमाए थी. प्रसाद, फूल और ग़ुब्बारे वाले हर दिन जैसे ही जीने के जुगाड़ में लगे थे. गुरुद्वारा साहिब की ओर जाने वाले लोग मल्लाह से मोलभाव कर रहे थे. मेरी बेंच के थोड़ा आगे एक जोगी ख़ाली टिन के डिब्बे में तार खींच कर इकतारा बनाए हुए लमटेरा गा रहा था. जोगी से कुछ कदम आगे सीढ़ियों पर आफ़ताब बैठा था.

कुछ देर बाद वह मेरी बेंच के दूसरे कोने में था. हमारी बात इस तरह शुरू हुई कि जब जोगी ने लमटेरा गाना बंद किया तो मैंने कहा बाबा कुछ और सुनाओ न. और आफ़ताब ने कहा हरि दर्शन वाला गाइए और बाबा ने मन तड़पत हरि दर्शन की धुन पकड़ हरि को टेरना शुरू कर दिया.

पत्थर की उस बेंच के दो ध्रुवों की दूरी कम हुई और मुझे मालूम चला कि आफ़ताब पास ही रहता है और लगभग रोज़ नदी किनारे आता है. कुछ ही देर में हम दो बिछड़े हुए यारों की तरह बतियाने लगे. हमारी पसंद काफ़ी मिलती जुलती थी. हम दोनों को एक-दूसरे की आवाज़ और हँसी बहुत भायी. हमने जल्दी ही नाम और एक दूसरे के बाबत थोड़ी सी और बातें जान लीं. यहाँ तक कि उस शाम हम दोनों ने पंचगुट्टे भी खेल लिए. मैं कोई पच्चीस-तीस बरस बाद पाँच पत्थरों वाला बचपन का यह खेल खेल रही थी और अचरज में थी कि आफ़ताब को यह खेलना आता था. उसने बताया कि यह खेल उसकी माँ ने सिखाया था. रात धीरे धीरे पानी में उतरते हुए नदी के तट पर फैलने लगी थी. मेरा चलने का वक़्त हुआ.

मैंने आफ़ताब से ठिठोली के अंदाज़ में कहा, “अपना वक़्त मैं जहाँ लगाती हूँ वहाँ से कोई सबक़ ज़रूर उठाती हूँ. चलो, अब मुझे कोई सबक़ दो.”

कई बार जो बात भाषा में समझ नहीं आती वह भाषा के परे जाकर अपना काम करती है. मुझे नहीं लगता कि मेरे वाक्य का कोई अर्थ आफ़ताब ने समझा होगा पर वह अचानक मेरे क़रीब आया और गाल चूम लिया.

अरे ! अचानक आसमान पर बिजली चमकी जैसे ऊपरी माले पर रहने वाले बेरोज़गार फ़ोटोग्राफ़र ने फ़ुर्ती से यह लम्हा अपने कैमरे में ज़ब्त कर लिया हो. मेरे भीतर कुछ जमा हुआ पिघल गया और नदी मेरी आँखों में अपना प्रतिबिम्ब देखने लगी.

आफ़ताब, वह रोशन आँखों वाला महज़ नौ बरस का लड़का मुझे कितनी आसानी से ज़िन्दगी का मुश्किल सबक़ दे गया. पता नहीं, कितना मैं ले पायी. यूँ भी सबक़ एक बार में लेना कहाँ आ पाता है. प्रेम सबसे सरल है पर यह अपनी चेष्टाओं में कितना दुष्कर हो जाता है. आफ़ताब अपनी उपस्थिति में ही इतना प्रेमिल है कि उसे प्रेम की अन्यथा चेष्टा की ज़रूरत भी नहीं.

‘इंटरस्टेलर’ वाली डॉक्टर ब्रांड की बात मेरे ज़ेहन में इस तरह फैलने लगी जैसे ज़िन्दगी नाम के मर्ज़ से निबटने की ज़रूरी वैक्सीन हो. किसी दूसरे प्लैनेट और टाइमज़ोन से आयीं दो तितलियाँ मेरे दिल के गुलाबी फूल पर आ बैठीं और बारिश की मद्धम बूँदें उस औरत की हँसी की तरह मेरे कानों में गूँजने लगीं जिसका साथी अपनी पीठ पर ले जाते हुए उसे सुन रहा था. क़ाश! कि उस दिन हर डेडलाइन की हद तोड़ कर मैं उन तीन महाराजाओं की सारथी बन गयी होती.

पाँच बरस पहले की लिखी एक कविता याद आयी.

एक प्रश्न में
रहती हैं दो जिज्ञासाएँ सदा
प्रकट और छिपी
तुम देख लेना

उत्तर मिलता है
भाषा की देह और अ-देह के
ऐन मध्य में धुँधला-सा

तुम
उत्तर का धुँधलका खुरच लेना
दृष्टि के कोमल पैने से

एकदम से नहीं उग पड़ता सूर्य
किसी मुर्गे की बाँग सुन
रात और दिन के मध्य में है
जाग वह
सुनहरी
पृथ्वी की दो करवटों के मध्य
पूर्व में है, पूर्व से है

उत्तर है एक
तुम जाँच लेना हर प्रश्न
अच्छी तरह झाड़-पोंछ लेना
वे दो हैं सदा

जैसे दो आँखें मिलकर देखती हैं
दृश्य एक

आफ़ताब को मैंने गले से लगा लिया और ढेर सारा गुलाबी रंग अपने भीतर समेट कर घर लौट आयी.

________

बाबुषा कोहली
जबलपुर  
कविता संग्रह प्रेम गिलहरी दिल अखरोट, दसवें नवलेखन ज्ञानपीठ पुरस्कार तथा बावन चिट्ठियाँ, ‘वागीश्वरी पुरस्कार’ से सम्मानित.
दो लघु फ़िल्मों का लेखन, निर्माण व निर्देशन १. जंतर २. उसकी चिट्ठियाँ
कविताओं का पंजाबी, मराठी, तेलुगु, बांगला, अंग्रेजी, फ्रेंच और स्पैनिश में अनुवाद.
baabusha@gmail.com 
Tags: बाबुषा कोहली
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Comments 10

  1. Anonymous says:
    4 years ago

    Rich text. Stays with you.

    Reply
  2. Anonymous says:
    4 years ago

    अत्यन्त सुन्दर गद्य, दृश्यों को मूर्त करने की शक्ति से भरा।

    Reply
  3. अपर्णा says:
    4 years ago

    बाबुषा का गद्य भी तरन्नुम की तरह।

    Reply
  4. अनुपमा says:
    4 years ago

    यह पढ़ते हुए जैसे बड़े दुलार से ज़िन्दगी ने गले लगा लिया हो मुझे।
    आपको बहुत प्रेम बाबुषा दी।

    Reply
  5. अशोक अग्रवाल says:
    4 years ago

    बहुत प्रभावी और आत्मीय गद्य।

    Reply
  6. Daya Shanker Sharan says:
    4 years ago

    सुंदर-सरस-भावपूर्ण– पारदर्शी ओस की बूंदों सी अनुभूतियाँ जिंदगी के विविध राग,रंग,निश्छलता और रूमानियत से भरी । अनेक शुभकामनाएँ !

    Reply
  7. Sanjeev buxy says:
    4 years ago

    बाबुशा आपके पास एक खूबसूरत भाषा है तारतम्य है पढ़कर अच्छा लगा बधाई

    Reply
  8. arun misra says:
    4 years ago

    बाबुशा ! मेरी वाणी छीन कर टिपण्णी मत मांगो ……ना मेरी क्षमता शेष रही …ना इन्द्रियाँ …..ना कोई कामना …..बस पाया है आज , गहन मौन का अनंत साम्राज्य ……दरवाज़े पर लिख गया कोई ….मौन से सावधान….

    Reply
    • नवल पाण्डेय says:
      4 years ago

      बाबुषा को पढ़ना हमेशा एक नयापन देता है। मैं उनकी डायरी और कविताएँ बार बार पढ़ता रहता हूँ। फेसबुक पर उनकी कवितमयी पोस्ट भी ठहरकर पढ़ने की मांग करती है। बाबुषा हिंदी कविता में एक नई संभावना जगाने वाली कवयित्री है।

      Reply
  9. Anonymous says:
    4 years ago

    सुंदर

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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