बेजगह
अनामिका
‘अपनी जगह से गिर कर
कहीं के नहीं रहते
केश, औरतें और नाखून’-
अन्वय करते थे किसी श्लोक का ऐसे
हमारे संस्कृत टीचर.
और मारे डर के जम जाती थीं
हम लड़कियाँ
अपनी जगह पर.
जगह? जगह क्या होती है?
यह, वैसे, जान लिया था हमने
अपनी पहली कक्षा में ही!
याद था हमें एक-एक अक्षर
आरंभिक पाठों का-
‘राम, पाठशाला जा !
राधा, खाना पका !
राम, आ बताशा खा !
राधा, झाड़ू लगा !
भैया अब सोएगा,
जाकर बिस्तर बिछा !
अहा, नया घर है !
राम, देख, यह तेरा कमरा है !’
‘और मेरा ?’
‘ओ पगली,
लड़कियाँ हवा, धूप, मिट्टी होती हैं
उनका कोई घर नहीं होता !’
जिनका कोई घर नहीं होता-
उनकी होती है भला कौन-सी जगह ?
कौन-सी जगह होती है ऐसी
जो छूट जाने पर
औरत हो जाती है
कटे हुए नाखूनों,
कंघी में फँसकर बाहर आए केशों-सी
एकदम से बुहार दी जाने वाली ?
घर छूटे, दर छूटे, छूट गए लोग-बाग,
कुछ प्रश्न पीछे पड़े थे, वे भी छूटे !
छूटती गयीं जगहें.
परंपरा से छूट कर बस यह लगता है-
किसी बड़े क्लासिक से
पासकोर्स बी. ए. के प्रश्नपत्र पर छिटकी
छोटी-सी पंक्ति हूँ-
चाहती नहीं लेकिन
कोई करने बैठे
मेरी व्याख्या सप्रसंग !
सारे संदर्भों के पार
मुश्किल से उड़ कर पहुँची हूँ,
ऐसी ही समझी-पढ़ी जाऊँ
जैसे
अधूरा अभंग!
(पचास कविताएँ, अनामिका, वाणी प्रकाशन, संस्करण: २०१२, पृष्ठ : ३९
बेजगह की विडम्बना
अच्युतानंद मिश्र
किसी समय की कविता की सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि कोई समाज, कोई समूह उसे किस तरह पढ़ता है. “किसी” शब्द के इस्तेमाल से आप यह प्रश्न तमाम दिशाओं में – वे जो अस्तित्ववान हैं और वे जो काल्पनिक हैं – पूछ सकते हैं. होता यह है कि जैसे ही कविता के पारस को आप समय के लोहे से छूने की कोशिश करते हैं, आपका ध्यान दो चीज़ों पर जाता है समय रूपी (अंतर्वस्तु ) लौह तत्व और स्वर्ण. पारस तो कहीं दिखाई नहीं देता. कविता की व्याख्या और पाठ का संदर्भ मात्र तत्वगत मूल्याङ्कन नहीं है. वह तत्व की स्थूलता से अपने विवेक को ऊपर उठाने की अविराम कोशिश है.
कविता तर्क से ऊपर उठती है, ऊपर उठाती है. सामान्य मनुष्य तर्क को ही अंतिम मानता है. संसार को देखने, समझने और जानने का एक माध्यम है- तर्क. परन्तु वह स्थूल और बाहरी किस्म का माध्यम है.
कांट को तर्क की सीमाओं का एहसास था. उसने अपने दर्शन की आधारभूमि को स्पष्ट करते हुए अतीन्द्रिय और अनुभवातीत जैसे पदों का इस्तेमाल किया. क्या समग्र दर्शन के समक्ष इस अतीन्द्रिय और अनुभवातीत को व्याख्यायित करने की मुश्किल दरपेश नहीं रही?
क्या दर्शन का इतिहास यह नहीं बताता कि दार्शनिक इस व्याख्या में जिसकी सीमाओं को लेकर बार-बार उलझे -वह भाषा है. नीत्शे और विट्गेन्स्टाइन का लेखन क्या भाषा की इस स्थूलता और अक्षमता के विरुद्ध संघर्ष का प्रमाणिक दस्तावेज़ नहीं? उन्हें पढ़ते हुए कविता पढ़ने का एहसास हमारे भीतर नहीं भर जाता?
जानने समझने की उच्चतर प्रक्रिया- कविता है. वह तर्क से ऊपर उठाती है. कविता ज्ञात–काल्पनिक के वैपरीत्य का नहीं, बोध की समग्रता का प्रभाव निर्मित करती है. कविता को पढ़ते हुए सीधे बुद्धि के रास्ते प्रवेश, उसकी संभावनाओं को सीमित करना होगा. उसके अधूरे अर्थ का ही साक्षात्कार हम कर पायेंगे. कविता के अतीन्द्रिय और अनुभवातीत प्रभावों से हम विरक्त रह जायेंगे. कहना न होगा कि इस तकनीकजन्य समय में कविता के साथ ऐसी दुर्घटना, वस्तुतः मनुष्य, समाज और सभ्यता के साथ हो रही दुर्घटना ही है. कविता विपरीत युग्मों का विराट समन्वय प्रस्तुत करती है. यह समन्वय ही कविता को सभ्यता समीक्षा की दिशा में उन्मुख करता है
वर्तमान समय की यह विड़म्बना है कि जिन माध्यमों से कविता का प्रस्तुतीकरण और कविता पर विचार किया जाता है, वे शुद्ध तर्क और अमानवीय गति से उपजे हैं. जाहिर सी बात है कि वे न तो कविता के अनुकूल हैं और न कविता की किसी गंभीर विवेचना के लिए उपयुक्त. वहां निष्कर्ष और निर्णय सुनाये जा सकते हैं जो पाठकों में क्षणिक उत्तेजना और अतिरिक्त रक्तचाप का संचार भर करती हैं.
पिछले दिनों अनामिका की एक कविता के साथ भी इसी तरह की दुर्घटना हुयी. याद पड़ता है कुछ वर्ष पहले भी यही कविता थी, वही माध्यम और अधिकांश लोग भी वही. उनमे से कुछ दिवंगत भी हुए तो उतने ही बलशाली, पुरानी बहस के नये संस्करण में जुड़ गए.
कविता है- बेजगह. इसको पढ़ते हुए जो प्राथमिक (तर्क) बुद्धि है- उसका इस्तेमाल सबसे अधिक किया जाता है और कवि के ज्ञान की सीमाओं का बखान किया जाता है. अव्वल तो कवि को ज्ञान-ताकत के युग्म का प्रतिनिधि होना चाहिए – यह बात उचित नहीं है. यह तो कविता की मूल संकल्पना के ही विपरीत है. यह कहना अधिक संगत जान पड़ता है कि कवि ज्ञान-ताकत का प्रतिलोम रचता है. कविता एकमात्र ऐसी जगह है, जहाँ हर तरह के वर्चस्व का विरोध संभव है. कविता अपने मूल उत्स में ही ताकत का प्रतिलोम रचती है. वह ताकत सृजन का कार्य-व्यापर नहीं है. यही वजह है कि ताकत की तमाम संस्थाएं कविता का किसी न किसी रूप में विरोध करती हैं. सोशल मीडिया इस अर्थ में इसका सबसे ताज़ा और प्रासंगिक उदाहरण है.
कुंतक से लेकर रिचर्ड्स और इलियट तक कविता को शब्दार्थ और वाच्यार्थ में ग्रहण करने का विरोध करते रहे हैं. सोशल मीडिया, कविता को वाच्यार्थ की तरह पढने पर बल देती है, क्योंकि जो माध्यम की गति है, वही उसका सन्देश है (मार्शल मैक-लुहान). इस अति संक्षिप्त भूमिका के पश्चात् कविता पर विचार करना जरुरी जान पड़ता है जिसको लेकर हंगामा बरपा है.-
‘अपनी जगह से गिर कर
कहीं के नहीं रहते
केश, औरतें और नाखून’-
अन्वय करते थे किसी श्लोक का ऐसे
हमारे संस्कृत टीचर.
और मारे डर के जम जाती थीं
हम लड़कियाँ
अपनी जगह पर.
इस अंश को पढ़ते हुए यह दलील दी जाती है कि यह कविता हितोपदेश के एक श्लोक का भ्रष्ट और मन-मुआफिक पाठ निर्मित करती है और इसलिए यह कविता संस्कृत साहित्य का कुत्सित प्रचार कर रही है. संस्कृत साहित्य यानी ज्ञान के भारतीय श्रोत. बहुत से लोग इसे प्रमाणित करने के लिए मूल श्लोक का दृष्टान्त भी रख रहे हैं. उसमें तीन पंक्ति का श्लोक भी शामिल है. बहरहाल अगर कविता की तरफ रुख करें तो उसमें जो स्पष्ट दिख रहा है, उसी की चर्चा हो रही है. सूक्ष्म पाठ के द्वारा या तर्क की सामान्य भावभूमि से ऊपर उठकर जो देखना संभव है उसे नहीं देखा जा रहा. उसकी आवश्यकता भी किसी को नहीं है. मूल समस्या वहीं है.
जब हम किसी पाठ में यह लिखते हैं- “किसी राज्य में एक राजा राज्य करता था” तो इस पंक्ति में सारा वजन राजा और राज्य पर मान लिया जाता है लेकिन इस पंक्ति का जादू “किसी” शब्द पर टिका है. किसी शब्द कहने से वह जमीन तर्क की सामान्य भावभूमि से ऊपर उठ जाती है. उसमें तर्क और कल्पना, अतीत और वर्तमान, ज्ञात और अज्ञात ,वस्तु और भाव, ठोस और अ-ठोस आदि विपरीत से लगते विषयों का अ-विपरीतात्मक समन्वय संभव हो पाता है. संभव है कि यह वाक्य और आगे का विवरण पढने के बाद उसे किसी राज्य विशेष और राजा विशेष का स्मरण हो जाए, लेकिन यहाँ “किसी” शब्द ने असंख्य संभावनाओं की जमीन निर्मित कर दी है. लेखक वास्तविक और काल्पनिक के समन्वय से एक नया दृश्य गढ़ता है, जो प्रमाण के लिए किसी स्थूल तार्किकता की मोहताज़ नहीं. साहित्य, कला और कविता इसी जमीन पर खड़े होते हैं. इसी अर्थ में उनकी रचनाशीलता अपना व्यापक और सार्थक दायरा निर्मित करती हैं.
अनामिका की इस कविता को अगर ध्यान से पढ़ें तो वहां लिखा गया है – अन्वय करते थे किसी श्लोक को ऐसे. यहाँ संभव है कि किसी को कोई निश्चित श्लोक दिख ही जाए, पर यह तो कविता का, उसके कथ्य का, उसके कहन का एकांगी पाठ हुआ. कविता की असीमित संभावनाओं पर आक्रमण हुआ. कविता इस तरह की एकांगिकता के विरुद्ध ही मनुष्य की आत्मा की सहचर रही है.
जब “किसी श्लोक” कहा जा रहा है तो वहां वास्तविक और काल्पनिक का काव्यात्मक संयोग है. वाच्यार्थ से ऊपर उठकर, जब हम पढ़ते हैं तो महसूस करते हैं कि यह कविता विस्थापन की शक्ति संरचना की ओर ध्यान आकृष्ट करती है. क्या संस्कृत ज्ञान-सत्ता का यह अमूर्तन किसी कवि को नहीं करना चाहिए? कबीर का सारा काव्य ही उलटबांसियों पर टिका है, जो ज्ञान की ताकत संरचना के विरुद्ध खड़ी है. बुद्धि के प्रकट और निर्धारित इस्तेमाल के विरुद्ध एक रचनात्मक प्रयत्न सिर्फ और सिर्फ कविता ही करती है. कविता ही हमें बुद्धि के प्रकट और निर्धारित प्रयोग की सीमाओं के पार संभावनाओं के अतीन्द्रिय और अनुभवातीत संसार की ओर ले जाती है. लेकिन जब हम कविता पढ़ते हुए बुद्धि के कौशल पर ही सारा करतब दिखाने लगते हैं तो- वह कुपाठ बन जाता है. कवि जब ताकत के तमाम उपादानों को “किसी” जैसे शब्द से इंगित करता है – चाहे वह कोई राज्य हो, राजा हो या कोई श्लोक ही क्यों न हो – तो वह ताकत का प्रत्याख्यान रचता है. क्या हमारे संस्कृत साहित्य में स्त्री और पुरुष की सामजिक जगहें निर्धारित नहीं कर दी गयी हैं? क्या समाज का प्रभु वर्ग ताकत के बेजा इस्तेमाल के लिए, (अ)ज्ञान के उन बेजा सूत्रों का इस्तेमाल नहीं करता? अगर एक कवि उन सूत्रों को, समीकरणों को “किसी” में बदलता है तो वह कविता के रास्ते उलटबांसी की बड़ी और सार्थक परम्परा को ही साकार करता है. ताकत का बेजा इस्तेमाल सदा सर्वथा भय का सृजन करती है.
और मारे डर के जम जाती थीं
हम लड़कियाँ अपनी जगह पर
यहाँ बेजगह होने की विड़म्बना देखिये. जगह पर जमने के लिए- भय का होना यानी ताकत का इस्तेमाल होना -कहा जा रहा है.
इस कविता पर जो चर्चा देखने को मिलती है, वह इन्हीं उपरोक्त उद्धृत पंक्तियों पर आधारित है. बल्कि इस संदर्भ में यह देखना भी दिलचस्प है कि कविता पर परस्पर विरोधी राय रखने वाले भी इस बात पर सहमत हैं कि कविता के बारे में पूरी राय सिर्फ इन्हीं पंक्तियों के आधार पर संभव है. इस बिंदु पर यह एकता काबिले-गौर है और प्रकारांतर से मैक-लुहान की बात को ही सही साबित करती हैं. अगर कविता पर समूची चर्चा उन्हीं पंक्तियों के आधार पर संभव है तो फिर कवि का बाकी लिखना व्यर्थ और गैर जरूरी है. किसी ने यह प्रश्न क्यों नहीं रखा कि कविता का इस तरह पढ़ा जाना कविता के विरोध की युक्ति है?
इस कविता को पढ़ते हुए हम पाते हैं कि स्त्री को टूटे हुए केश और कटे हुए नाखून की तरह रखा जा रहा है. क्यों? क्योंकि, इनका जुड़ाव भी किसी जीवित और स्थापित सत्ता से है और उनकी दुर्गति के मूल में भी यही बात है कि ताकत की संरचना से बाहर, सत्ता के दमन से इतर, ज्ञान परंपरा के स्थापित मानदंडों से भिन्न – उनकी कोई जगह नहीं है. ये छूटी हुयी जगहें, यानी इन बेजगहों की कौन सी जगह होती है?
जिनका कोई घर नहीं होता-
उनकी होती है भला कौन-सी जगह?
कौन-सी जगह होती है ऐसी
जो छूट जाने पर
औरत हो जाती है.
क्या ये पंक्तियां उस “किसी” की संकल्पना से नहीं जुडती? क्या यहाँ औरत के अर्थ का विस्तार नहीं दिखता? क्या ताकत के विरुद्ध खड़ा एक संसार – टूटे केश, कटे नाखून और स्त्री में बदल नहीं जाता ? यह कविता की सार्थकता है, उसका जादू है. इस कविता के आरम्भ में जहां “श्लोक” के साथ “किसी” शब्द को जोड़कर अमूर्तन किया गया है ताकि अर्थ का विस्तार और व्यापकता संभव हो, वहीं अंत में तुकाराम के अभंग के द्वारा एक मूर्त संदर्भ भी रखा गया है. इस संदर्भ के बगैर इस कविता को नहीं पढ़ा जा सकता. आरम्भ का अमूर्तन, अस्पष्टता यहाँ आखिर में आकर मूर्त होती है. तुकाराम का अधूरा अभंग.
ताकत की दुनिया सदैव मूर्त, मुखर और बर्बर रही है. वह प्रश्नों के वस्तुनिष्ठ उत्तर तैयार करती है. वह ज्ञान माध्यमों को सत्ता के जिरह उत्पादन की तकनीक में बदलती है. कवि की उपस्थिति, कविता का पाठ, उसे हमेशा से समस्या-ग्रस्त लगता है, लगता रहा है, लेकिन इसके बावजूद कविता की सार्थकता का प्रमाण सिर्फ इतना है कि -अब तक की मनुष्यता का इतिहास, कविता का इतिहास भी रहा है, मनुष्य की सृजनशीलता और कल्पनाशीलता का इतिहास भी रहा है, ताकत की जड़ता के विरुद्ध मुक्ति की सतत कामना का इतिहास भी रहा है.
यह कविता और कवियों के बेजगह होने का दौर है. कविताओं की चर्चा का माध्यम सोशल मीडिया है, जो तीव्र गति से फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट की तरह निर्णय सुना देता हैं. इन आवाज़ों के बीच, शोर के बीच- सच्ची आवाज़ नहीं सुनाई दे तो बेजगह होने की सार्थकता को समझा जाना चाहिए. क्या यह विडम्बना नहीं है कि ताकत के बेजा प्रदर्शन के लिए, शक्ति की आजमाइश के लिए- हम उन छद्म बहसो को बार-बार अवतरित करते हैं ताकि हम यह बता सकें हमारी जगह कौन सी है. यह बताने में कितनी चीख, कितना शोर और कैसी चिल्लाहट सर्वथा पसरी हुई है- क्या यह बताने की जरूरत रह जाती है ?
अच्युतानंद मिश्र 27 फरवरी 1981 (बोकारो) प्रकाशन: आंख में तिनका, चिड़िया की आँख भर रौशनी में. (कविता संग्रह ,नक्सलबाड़ी आंदोलन और हिंदी कविता, कोलाहल में कविता की आवाज़ (आलोचना) देवता का बाण (चिनुआ अचेबे, ARROW OF GOD) (अनुवाद), प्रेमचंद :समाज संस्कृति और राजनीति (संपादन) आदि सम्मान: २०१७ का भारतभूषण अग्रवाल सम्मान तथा २०२१ का देवीशंकर अवस्थी सम्मान प्राप्त. anmishra27@gmail.com |
अच्छी कविता को किसी व्याख्या की ज़रूरत नहीं होती। उत्तम तो यही होता है कि पाठक कविता को अपनी आँख से देखे। पर समय ऐसा है भिन्न कारणों से कविता का कुपाठ किया जाता है। इसलिए अच्छा किया कि जो न समझें उन्हें समझा दिया। लेकिन जो न समझना चाहें, वे समझेंगे क्यों? साहित्य की दुनिया में राग-द्वेष बहुत है। बोले तो फ़तवे।
कुछ समय पूर्व मैंने कहा था कि कविता को एक बार चश्मा पहनकर और दूसरी बार चश्मा उतार कर पढ़ना चाहिए तो कुछ लोग चश्मा शब्द का अर्थ ही नहीं समझ पाएँ। यह समय ऐसा है कि कविता और कहानी का कुछ लोग कुपाठ करने लगे हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं। सबसे बड़ा कारण अज्ञानता ही है। कोई भी अच्छी रचना इतना आसान कहाँ होती है कि पच जाए। थोड़ा श्रम तो करना ही होगा। इस कविता के साथ भी ऐसा ही हुआ। यह कोई नई बात नहीं है। तुलसी ,कबीर जैसे कवि भी लपेटे में आ जाते हैं। जो भी हो,सच सब जानते हैं । ऐसे कुपाठ और कुतर्क का प्रबुद्ध जन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला है। भाई अच्युतानन्द जी ने बेहतर तरीके से सारी बातें राखी हैं। उन्हें साधुवाद।
“कविता ज्ञात काल्पनिक के वैपरीत्य का भाव नहीं बोध की समग्रता का प्रभाव निर्मित करती है ।’ अच्युतानंद ने यह महत्वपूर्ण बात कही है । यदि ऐसा नहीं होगा तो बहुत सारी कविताएं तर्क के आधार पर खारिज कर दी जाएंगी । यद्यपि कविता को हम अपनी मानसिक निर्मिती के आधार पर ही ग्रहण करते हैं एवं अर्थबोध से साक्षात्कार करते हैं । बहस को हम विभिन्न वर्गों में विभाजित करते हैं सार्थक निरर्थक और यहां सोशल मीडिया के आविर्भाव से एक छद्म बहस शब्द भी जुड़ गया है । मुझे लगता है ऐसी बहस से कविता का नुकसान नहीं होता बल्कि कविता को समझने की दिशा में यह एक प्रयास ही होता है । ऐसी बहस अन्य कविताओं को समझने के लिए एक आधार भूमि की तैयार करती है शक्ति संस्थान और कविता की भूमिका पर भी अच्युतानंद ने अच्छी बात कही है ।
हैरान हूं कि क्या इस हद तक भी किसी कविता का कुपाठ किया जा सकता है! जिन विद्वान ने चर्चित कविता में संदर्भित श्लोक को ढूंढ निकालने का दावा किया है, क्या उन्हें इतना भी दिखाई नहीं देता कि कविता में उस श्लोक की चर्चा नहीं है, उस श्लोक के किसी अध्यापक द्वारा किए गए अन्वय की बात है। पूरी कविता उस अन्वय की आलोचना करते हुए, उस पर मार्मिक व्यंग्य करते हुए लिखी गई है। इसके बावजूद कविता पर श्लोक को विकृत करने या उसे गलत उद्धृत करने का आरोप लगाया जा रहा है! और उस पर इतनी सारी चर्चा हो रही है!! लोगों की विद्वत्ता का पूरा सम्मान है, लेकिन विद्वत्ता अगर कविता की हत्या करने पर उतारू हो तो उसे रोकना जरूरी है।
सब कुछ समय और काल के सापेक्ष हैं, तद्नुसार हर कोई कविता का पाठ कर रहा है। उस श्लोक को छोड़ भी दें तो भी लोक और शास्त्र में बहुत कुछ ऐसा है जो स्त्री द्वेषी है।
हाईस्कूल में एक हिन्दी शिक्षक क्लास में घुसते ही सबसे पहले – “वृत्तं यत्नेन संरक्षेत् वित्तमेति च याति च। अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः।” का जाप करते उसका अर्थ बताते फिर विषय पर आते। यह यातना हमने लगातार दो साल सहा। इसके साथ ही “त्रिया चरित्रं, पुरुषस्य भाग्यम; देवो न जानाति कुतो मनुष्य”, यह श्लोक भी कहावतों की शक्ल में
अपने गांव जंवार में हम आये दिन सुनते- इस तरह इन श्लोक ने मेरी मनोस्थिति को तब तक कंट्रोल करके रखा, मेरी दृष्टि को संकुचित किये रखा, जब तक कि मैंने एक कहानी लिखकर इसे ध्वस्त नहीं कर दिया।
इसी तरह ऊख की खेती करते हुए, ऊख का रस निकालकर गुड़ बनाते हुए हम जब सामूहिक श्रम करते और घंटों अलाव के पास बैठते जहां किस्सों कहानियों, मुकरियाँ, बूझ बुझौवल, सवाल- जवाब के दौर पर दौर चलते जहां सामंतवादी स्त्री विरोधी चीजें हम पर एक संस्कार की तरह थोपी गयी जैसे कि-” बिना ब्याही कन्या मरै, ठाड़ी ऊख बिकाय, बिनु मारे बैरी मरै, ई सुख कहाँ समाय”।
अनामिका की कविता को पढ़कर लगा जैसे वो कविता मैंने ही लिखा हो। क्योंकि मैं भी उस यातना उस मनोदशा से गुज़रा हूं। उस कविता की रचना प्रक्रिया में वही यातना निहित है। अगर मैं उस कविता की समीक्षा लिखता उसकी मनोवैज्ञानिक समीक्षा ही करता। ख़ैर। अच्युतानंद मिश्र जी ने भी सोशियो-पोलिटिकल दृष्टि से बढ़िया समीक्षा लिखी है। हालांकि वो यत्र तत्र लोड लेते प्रतीत होते हैं। कहीं कहीं अतिरिक्त लाउड भी हो जाते हैं इससे उन्हें बचना चाहिए था.
आपकी टिप्पणी शानदार रही।आपने बिना लाग लपेट के सीधे अपनी बात रखी।ज्ञान का मतलब यह नहीं कि बात को रबड़ की तरह बढाकर पाठक को आतंकित किया जाए और उस पर अपनी सोच और विचार को जबरदस्ती थोप दिया जाए।
गज़ब!!! वैसे कहना क्या चाहते हैं..
वैसे ये भी बेहतर है कि सीधा अर्थ रखने वाली कविता में से भी ‘किसी’ को झपट्टा मार कर पकड़ लेना और बाल की खाल निकाल लेना। जो भी हो पर इतना तो अवश्य जाहिर हो रहा है कि बेहद व्यवहारिक बात को भी गोल मटोल बनाने की भरपूर कोशिश आज कल के तथाकथित आलोचकगण करते हैं। ऐसी व्याख्या कि मानो कविता उनके सर के ऊपर से गुज़र गई हो और उन्हें छू भी न सकी हो।
कविता के पूरे भाव को विकृत करने की कोशिश की, उसकी व्याख्या के नाम पर न जाने क्या क्या बेवजह बोल गए। ये सब करने से ज़्यादा ज़रूरी था कविता को पढ़ते, एक बार नहीं कई बार। समझते कि लेखक “अन्वय करते थे किसी श्लोक का ऐसे, हमारे संस्कृत टीचर” के माध्यम से जिस बात की तरफ इशारा कर रहा है क्या वो वास्तविकता से इतर है?
यह पूरी व्याख्या सिर्फ़ एक शब्द के प्रयोग पर टिकी है — ‘किसी’ के प्रयोग पर । व्याकरण ज्ञान-सत्ता के प्रभुत्व का सबसे बड़ा औज़ार होता है । उसी व्याकरण की मदद से, ‘किसी’ शब्द के सटीक प्रयोग से कविता को सही साबित करना ज्ञान सत्ता ताका विरोध नहीं, उसके सामने नतमस्तक होना है । पर यहाँ तुर्रा यह है कि एक ‘किसी’ शब्द के सही प्रयोग के सहारे इसमें कबीर की भाँति ज्ञान की ताक़त को ललकारा गया है !
कोई उलटबाँसी ऐसे व्याकरणमूलक संबलों से तैयार नहीं होती है ।
काव्यात्मक उलटबांसियों के मूल में कवि का अपना उल्लासोद्वेलन, मनोविश्लेषण की शब्दावली में जुएसॉंस (jouissance)होता है । जो व्याख्या ‘बेजगह’ के इस उल्लासोद्वेलन को संकेतित करने में व्यर्थ है, वह कोरा वाग्जाल है । इस प्रसंग में हम यहाँ अपनी उस टिप्पणी को दोहरायेंगे जो हमने कृष्ण कल्पित की फ़ेसबुक लाल पर की थी —
“‘स्थानभ्रष्ट’ होने की बात किसी को भी डरा सकती है । यह मर्यादा की लकीर अर्थात् लक्ष्मण रेखा न लांघने का आदेश है जिसके प्रति स्त्री में उद्वेलन स्वाभाविक है । उद्वेलन तमाम प्रकार की मर्यादाओं से विद्रोह का कारण बन सकता है । उनमें किसी पाठ की ऐसी-तैसी करना भी शामिल हो सकता है । हाइडेगर ने चिंतन को कविता कहा था — अनदेखी गहराइयों से अनूठी खोज का उपक्रम ।पर जब मन सामने की पहाड़ समान बाधा के अहसास से ही विकल हो तो कविता विस्फोटक हो उठती है । यह कोरी व्याख्या के अंत का समय है । विश्लेषण परिस्थितियों की व्याख्या नहीं करता है, प्रमाता के उद्वेलन का वहन करता है । इसमें कविता समग्रतः एक विध्वंस हो जाती है । ख़्याल रहें, हिस्टीरिया भी सृजन का एक लक्षण है ! “
उलटबाँसी के गोरखधंधे को भी गहराई से समझने की ज़रूरत है । प्रमाता उल्लासोद्वेलन में अपनी पहचान से कट जाता है और वह एक गूढ़ अतृप्ति में, जिसे जॉक लकान ने ऑब्जेक्ट a कहा है, उसमें बदल जाता है । अब प्रमाता मूलतः अपना प्रतिनिधित्व नहीं करता । वह आब्जेक्ट a के रूप में अपने को रखता है । इसका विधेयात्मक परिणाम यह होता है कि प्रमाता अपने खुद के अभाव को संकेतक के प्रमाता (subject of signifier) के रूप में, अन्य के अभाव से जोड़ कर प्रयोग करने लगता है । इस प्रकार यह कोई प्रतिनिधित्व नहीं है , आब्जेक्ट a के रूप में एक बिल्कुल अलग पहचान निर्मित है । उसी से उलटबाँसी तैयार होती है ।
गौर टीचर शब्द पर भी करना जरूरी है। अन्वय कौन कर रहा है? संस्कृत पढ़ाने वाला; जो प्राचीन शास्त्रों का अर्थ शास्त्र-संस्कार के रूप में नई पीढी को समझा रहा है। वह गुरुजी, आचार्य, अध्यापक या शिक्षक न होकर टीचर होगया है। इसमें भी गहरी व्यंजना है।
हम लड़कियों का जम जाना रचना को गहरे लेजाता है। जमना भी दो अर्थ देता है। दूध और पानी जमते हैं तो तरल से ठोस होजाते हैं, बीज जमता है तो पेड़ बन जाता है।
बाल और नाखून कट जाने के बाद पुनः नहीं जमते। फेंकने ही पड़ते हैं। स्त्री मेः पुनःजम जाने की संभावना है; उखाड़ कर फेंक दी गई घास की तरह।
सार्थक बौद्धिक लेख।साहित्य को समझने के लिए सहृदय की आवश्यकता होती है ।लक्षणा और व्यंजना काव्य की असीम संभावनाओं का संकेत हैं ।
ज़रूरी लेख।
विकृति को पहचानने की दृष्टि विकसित करता हुआ।
द्वेषी जनों को नहीं समझना है तो न समझें।
ऐसे लेख के लिए साधुवाद।