चांगदेव चतुष्टय और राग दरबारी: स्वतंत्र भारत की सभ्यता समीक्षा
चंद्रभूषण
मराठी के बृहत उपन्यास ‘चांगदेव चतुष्टय’ का हिंदी में होना एक दिलचस्प बात है. महाराष्ट्र का समाज उत्तर भारत से ज्यादातर मामलों में मिलता-जुलता और कुछ थोड़े-से पहलुओं में ही अलग है. भिन्नता का पहलू इस मामले में अनूठा है कि समाज के फैसलों में श्रमशील जातियों का दखल बहुत पहले से, शिवाजी महाराज के दौर से ही बना हुआ है और संस्कृतनिष्ठ भाषाई शिष्टाचार का आग्रह काफी पहले वहाँ से जा चुका है.
यह रचना अपने माहौल में इतनी डूबी हुई है कि इसे पढ़ते हुए अपनी सुपरिचित दुनिया को थोड़ा हटकर देखने का आनंद मिलता है. चार खंडों में बंटे लगभग एक हजार पृष्ठों के इस उपन्यास के पहले हिस्से में मुंबई का महानगरीय परिवेश अपनी सारी छटाओं के साथ मौजूद है लेकिन इसके बाद वाले हिस्से पढ़ते हुए कभी-कभी बड़ी शिद्दत से ‘राग दरबारी’ की याद आती है.
दोनों किताबें पचास-साठ साल से भारत में एक साथ मौजूद हैं लेकिन दोनों को जोड़कर कोई बात अभी तक नहीं हो पाई है. अलग-अलग भाषाई स्पेस में स्थित होने के अलावा एक वजह इसकी यह हो सकती है कि दोनों बहुत अलग मिजाज के उपन्यास हैं. भालचंद्र नेमाड़े का चांगदेव चतुष्टय अंततः एक नायक के इर्दगिर्द घूमता है, जिसकी दृष्टि में दार्शनिक न सही, परिस्थितिजन्य अस्तित्ववाद समाया हुआ है. जबकि श्रीलाल शुक्ल का राग दरबारी पूरी तरह से एक माहौल की कहानी है और अपने दौर की वैश्विक प्रवृत्ति के रूप में उसपर कहीं-कहीं थोड़ा प्रभाव ऐब्सर्डिज्म का नजर आता है.
साठ के दशक तक शाश्वत लगने वाले ‘एग्जिस्टेंशियलिज्म’ और ऐब्सर्डिज्म अब कहीं खोजे नहीं मिलते लेकिन ये दोनों देसी मौलिक कृतियाँ न सिर्फ कायम हैं बल्कि उनका हर वाक्य कल का लिखा जान पड़ता है.
एक का दायरा पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गाँव तक, उसके भी रोजमर्रा ब्योरों तक सीमित है. कभी विरले ही लेखक को वहाँ से बाहर निकलने की जरूरत महसूस होती है. दूसरा मुंबई से लेकर महाराष्ट्र के कई सारे गाँव-कस्बों में ही नहीं, साहित्य, सिनेमा, संगीत, थिएटर, प्रकाशन जगत और संस्कृति-सभ्यता के तमाम उलझे हुए सवालों में भी टहलता है. साझा बात यह कि दोनों कृतियों में एक युवा नरेटर खुली नजर से समाज को देखना चाहता है. कार्यकर्ता वह नहीं है. दुनिया बदलने नहीं निकला है. समाज के दुख उसे दुखी करते हैं. अति न हो जाए तो परिवेश को उसकी शर्तों के साथ मंजूर करता है.
रंगनाथ को छह महीने ही शिवपालगंज रहना है, जबकि चांगदेव जहाँ भी सींग समाए, घुस जाने और ठीक न लगे तो निकल लेने वाला जीव है. कहीं बंधकर रहना दोनों किताबों के प्रेक्षक-नायकों के मिजाज में नहीं है. इसके चलते इंसानों और रिश्तों के ऐसे-ऐसे पेच उन्हें दिख जाते हैं कि पढ़कर हैरानी होती है.
यहाँ दोनों किताबों पर एक साथ बात करने का मकसद उनके बारे में कोई मूल्य-निर्णय सुनाना या दोनों में से एक को किसी पहलू से कमजोर, दूसरे को मजबूत बताना नहीं है. आधी सदी का लोकप्रिय जीवन बिता चुकी दो किताबों को लेकर ऐसी कोई मशक्कत अपनी मूर्खता का परिचय देने जैसी ही होगी. बात सिर्फ इतनी है कि 1960 के दशक में, जब स्वतंत्रता आंदोलन का आवेग थम गया था और भारतीय समाज अपने असल मिजाज में लौट रहा था, तब इन दोनों उपन्यासों में सिर पर कम से कम बोझा लेकर इसको निहारने की कोशिश की गई थी. यह प्रयास फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के ‘मैला आंचल’ में भी कुछ कम नहीं है, लेकिन विचारधाराओं, आदर्शों को लेकर कुछ उम्मीद वहाँ बची हुई है. कई बदरूप सच्चाइयाँ इससे उपजे लालित्य में अपना सिर छुपा लेती हैं, या कालातीत होती हुई जान पड़ती हैं.
क्या ‘राग दरबारी’ और ‘चांगदेव चतुष्टय’ भारतीय समाज के बारे में दूर तक चलने वाली कोई बात भी बताते हैं? क्या कुछ खूंटियाँ इनमें ऐसी गड़ी हुई दिखती हैं, जो समाज में तेजी से आ रहे बदलावों के बावजूद टिकी रह जाने वाली हैं? मात्र दस साल का फासला जहाँ संवाद ही असंभव बना दे रहा हो, वहाँ ऐसी कोई खूंटी क्या संभव भी है? क्या इन दोनों किताबों को साथ-साथ पढ़ते हुए हम ‘स्वतंत्र भारत की सभ्यता समीक्षा’ जैसी कोई कसरत शुरू कर सकते हैं? एक फिक्र और इन किताबों को एक साथ पढ़ना रुचिकर बनाती है. वह यह कि कोई चार दशकों से हम भारत में धर्म और जाति से जुड़े हुए जागरण देख रहे हैं. दोनों से समाज का कायाकल्प हो जाने के दावे किए जाते रहे हैं. हिंदुत्व आधारित विचारधारा का राज अभी देश में चल रहा है, जबकि उसे चुनौती देने की संभावना पिछड़ों-दलितों और अल्पसंख्यकों की गोलबंदी में देखी जा रही है. क्या इन बवंडरों में घुसने का कोई सुराग भी इन किताबों में है?
इन्हें अब तक न पढ़ पाए, या हल्का-फुलका ही पढ़ सके लोगों के लिए दोनों किताबों का एक खाका आगे रखा जाएगा. लेकिन जिन्होंने राग दरबारी पढ़ा है, वे उसके धुरी-चरित्र वैद्यजी को ठीक से जानते होंगे. कोई कह सकता है कि यह चरित्र उत्तर भारतीय समाज में उस दौर का प्रतिनिधित्व करता है, जब समाज का बहुत बड़ा हिस्सा एकक्षत्र ब्राह्मण वर्चस्व का आदी था और कांग्रेस की एकदलीय व्यवस्था यहाँ चल रही थी. राजनीतिक ढांचा तब से अबतक सिर के बल खड़ा हो चुका है और महीन किस्म के सवर्ण प्रभुत्व के लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं बची है. ऐसे में वैद्यजी उतनी ही पुरानी, अप्रासंगिक चीज हो चुके हैं, जितने गोदान के होरी महतो या मैला आंचल के बावनदास.
क्या सचमुच ऐसा है? गौर से देखने पर लगता है कि यह हमारी गलतफहमी है. तकनीकी में युग बदल चुका है. राजनीतिक परिवेश कुछ का कुछ हो चुका है. संस्थाएँ पूंजी से लदकर चौंधा मारने लगी हैं. विचारधाराओं के अंधड़ उठकर काफी कूड़ा-करकट अपने साथ लेकर जा चुके हैं. लेकिन दूसरी तरफ समाजवाद, पिछड़ावाद, दलितवाद, हिंदुत्व और कहीं-कहीं कम्युनिज्म के भी अपने-अपने ‘वैद्यजी’ खड़े हो चुके हैं. इतना ही नहीं, बिना शर्माए रातोंरात एक टोपी फेंककर दूसरी पहन लेने वाले नूतन वैद्यजी भी अब हर गली हर गाँव में नजर आने लगे हैं. निष्कर्ष यह कि ये सभी मिलकर उस प्राचीन, पुरातन, पवित्र कूड़े-करकट की ही सेवा कर रहे हैं, जिसे हटाने की कसमें खाई जाती थीं. सिर्फ हिम्मत करके स्वीकारने की देर है.
राग दरबारी का छोटा सा लेकिन प्रसिद्ध वाक्य है- ‘वैद्यजी थे, हैं और रहेंगे.’ सभ्यता का खाका देर तक चलने वाली चीजों से ही खींचा जाता है. क्या ऐसी कुछ चीजें यहाँ और भी हैं?
खानदेश से उठी खोजबीन
ज्यादा महत्वाकांक्षी काम लटक जाते हैं, सो जितना हो पाए, तड़ातड़ी में उतना कर डालना चाहिए. पाँच-सात साल पहले मराठी उपन्यासकार भालचंद्र नेमाड़े का उपन्यास ‘हिंदू : जीने का समृद्ध कबाड़’ पढ़ा तो उसपर दबाकर कुछ लिखने का मन हुआ. फिर दो-चार दिन उमंगें उठती रहीं और पता भी नहीं चला कि भवसागर के थपेड़ों में कब वे गोता खा गईं. उनकी दूसरी उपन्यासावली ‘चांगदेव चतुष्टय’ के साथ भी ऐसा हो गया तो मेरे लिए बड़ी नाइंसाफी हो जाएगी. कोई कल्पना का विस्फोट नहीं. ठेठ जमीनी ब्यौरे. लेकिन इंटेंसिटी ऐसी कि छोड़ने का दिल न करें. चार किताबों का सेट कुछ महीने पहले विश्व पुस्तक मेले में खरीदा और इन्हें निपटाने से पहले कुछ और नहीं उठाया.
नेमाड़े एक बुजुर्ग लेखक हैं लेकिन ‘चांगदेव चतुष्टय’ उन्होंने जवानी में लिखा था. उनका आग्रह हमेशा ‘देशीवाद’, नेटिविज्म पर रहा. नतीजा यह कि मराठी के बाहर उनके बारे में उपलब्ध जानकारियाँ उनकी अकेडमिक्स से आगे नहीं जातीं. उत्तरी-पश्चिमी महाराष्ट्र के खानदेश इलाके में धुर देहात की खेतिहर कुणबी मराठा पृष्ठभूमि. पुणे और मुंबई की पढ़ाई. देश-विदेश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में मराठी और अंग्रेजी का उच्चस्तरीय शिक्षण और शोध.
खानदेश मध्य भारत की एक पुरानी रियासत रही है. उसकी राजधानी बुरहानपुर थी, जो अभी मध्य प्रदेश में है. परंपरा से खानदेश को अहीरों का इलाका माना जाता रहा है. इसका जो हिस्सा महाराष्ट्र में गया, वहाँ के अहीरों में खुद को ‘यादव’ लिखने का चलन आज भी नहीं है. शायद ‘जाधव’ मराठों से घालमेल की आशंका को देखते हुए. खानदेश की बोली ‘अहिराणी’ कहलाती है. मराठों का जोर इस इलाके में शेष महाराष्ट्र की तुलना में बहुत बाद में दिखा, लेकिन एक बार यह बन गया तो खेती-बाड़ी से लेकर सामाजिक वर्चस्व तक में वे बाकी महाराष्ट्र की तरह यहाँ भी नंबर वन हो गए.
पेशवाई ऐंठ वाले ब्राह्मणों से सिर्फ लिखत-पढ़त में पीछे रहे और सालोंसाल दोनों में होड़ चलती रही. इस होड़ का कोई गहरा अर्थ भी हो सकता है, इसका अंदाजा आप नेमाड़े को पढ़कर ही लगा पाएँगे.
खानदेश इलाके और उसके जन-जीवन के बारे में, वहाँ की विभिन्न जातियों और कबीलों के बारे में कहीं ज्यादा दिलचस्प बातें, किस्से-कहानियाँ, उसे लेकर बाकी महाराष्ट्र के लोगों की राय नेमाड़े की बाद की रचना ‘हिंदू’ में पढ़ने को मिलती है, जिसे पढ़कर लगता है जैसे खानदेश विविध धर्मों और सांस्कृतिक आंदोलनों का एक चौराहा है. ‘चांगदेव चतुष्टय’ में स्मृतियों की एक रेलगाड़ी खानदेश के उदली गाँव को छूकर चली जाती है. इतने में ही उसके सघन दृश्यों का जो बाइस्कोप यहाँ दिखता है, उससे रचना में आगे बहुत सारी फिल्में देखने की आशा बंध जाती है.
किताब पर बात करने के पहले कुछ जरूरी जानकारियाँ. चांगदेव चतुष्टय के चार हिस्से हैं- बिढार, हूल, जरीला और झूल. इन शब्दों का सही मतलब कोई मराठी मित्र ही बता सकता है. इनमें ‘जरीला’ एक बछड़े का नाम है (आगे उसका जिक्र आया है), जो एक शानदार बधिया बैल बनकर बीस साल कथानायक के घर पर बंधा रहा. हिंदी में इन किताबों के अनुवाद का सिलसिला कुछ उजड़ा-बिखरा सा रहा. बिढार का हुआ पड़ा था, फिर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने के बाद दूसरे खंड हूल को छोड़कर तीसरे-चौथे खंड यानी जरीला और झूल का हो गया. हूल का नंबर अंत में आया. पूरा सेट तो अभी हाल की बात है लेकिन पचास साल पुरानी ये किताबें पढ़ने में नई लगती हैं.
राग दरबारी के साथ इसको पढ़ने की जो प्रस्थापना ऊपर आई है, उसका एक ठोस तिथिगत आधार भी है. ‘बिढार’ का प्रकाशन 1967 में हुआ था, फिर श्रृंखला के हिस्से की तरह यह 1975 में दोबारा छपा. इधर हिंदी में श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ‘राग दरबारी’ का प्रकाशन वर्ष 1968 है. दोनों किताबों का लगभग एक साथ आना यह देखते हुए और मानीखेज हो जाता है कि तटस्थ मिज़ाज वाले एक प्रेक्षक द्वारा अपने समाज को इसके ऊबड़-खाबड़पन में देखने की इच्छा दोनों जगह काफी-कुछ एक-सी है. बिढार में ऐसी तुलना की गुंजाइश जरा कम है, चतुष्टय की बाकी तीन किताबों में इसके दर्शन ज्यादा होते हैं. कॉलेज पॉलिटिक्स भी शुरू में एक सी लगती है, बाद में फर्क वाला पहलू बढ़ता जाता है. खैर, यह तुलना अभी चखने के स्तर पर ही रखी जाय, जरूरत के मुताबिक आगे आती रहेगी.
सरकारी पैसे को लावारिस भैंस की तरह दुहते जाने का रुझान निजी, सरकारी और सहकारी, हर तरह की भारतीय संस्था के कर्णधारों में आजादी के समय से एक जैसा ही रहा है. दोनों किताबें भिन्न शैली में, पर एक सी तटस्थ बेचारगी से इसे देखती हैं. ‘चांगदेव चतुष्टय’ के चौथे खंड ‘झूल’ में पुराणिक कॉलेज के मैनेजर माठूराम और प्रिंसिपल भल्ला की जोड़ी ‘राग दरबारी’ में छंगामल विद्यालय इंटरमीजिएट कॉलेज, शिवपालगंज के मैनेजर वैद्यजी और प्रिंसिपल साहब जैसी ही है. अलबत्ता नेमाड़े के शाहकार में मैनेजर ज्यादा ऊंचा खिलाड़ी और प्रिंसिपल थोड़ा गब्दू-सा है. राग दरबारी वाली जुगलजोड़ी के ब्राह्मण जाति से ही आने के उलट यहाँ प्रिंसिपल के गैर-मराठी और गैर-ब्राह्मण होने के पीछे एक साफ मकसद है. यहाँ कामकाज में संस्था की बहुजातीय छवि पेश करना जरूरी है.
दरबार और राग
प्लॉट का ख्याल छोड़कर की गई हिंदी की रचनात्मक लिखाई में ‘राग दरबारी’ का मुकाम बहुत ऊंचा है. कहानियाँ इसमें कई सारी हैं, प्लॉट जैसा कुछ भी नहीं. इसका असल कमाल यह है कि जहाँ कहानी सुनाने का कोई जतन तक नहीं है, वे जगहें भी पाठक को बुरी तरह बांधती हैं.
‘माय नेम इज रेड’ में ओरहान पामुक पूरब और पच्छिम की (मुख्यतः तुर्की और इटली की) चित्रकला का बुनियादी फर्क यह बताते हैं कि पूरब के चित्र किसी कहानी का हिस्सा होते हैं, कोई प्रसंग बयान करते हैं, जबकि पच्छिम में हर चित्र अपनी ही कहानी कहता है. इस उद्धरण की यहाँ इतनी ही प्रासंगिकता है कि राग दरबारी पढ़ते हुए मन में बनने वाले चित्रों का प्रायः कथाक्रम से स्वतंत्र लगने लगना एक सहज, शास्त्रीय बात है. कई पाठकों को ये चित्र ही याद रहते हैं, उपन्यास के बड़े किस्से इधर-उधर हो जाते हैं.
एक शोधछात्र रंगनाथ स्वास्थ्य लाभ के लिए अपने मामा के घर जाता है. शहर से गाँव. वहाँ छह महीने रहकर वह जो कुछ देखता है, वही इस उपन्यास की कथा है. लेकिन रंगनाथ इस उपन्यास का नरेटर नहीं है. किस्सा उसके मुँह से नहीं कहलवाया गया है. उसका व्यवहार किताब के बहुत सारे पात्रों में से एक जैसा ही है. लेकिन ज्यादातर घटनाएँ उसके आसपास घटित होती हैं और आम तौर पर उन्हें देखा भी उसी के नजरिये से जाता है. लगभग छह दशक पहले आए उपन्यास पर समीक्षा के लहजे में कुछ कहना बेतुकी बात होगी, लेकिन कहन के चटपटेपन के चलते इसमें आए किस्से सिद्ध पाठकों को भी अक्सर भूल जाते हैं, सो एक बार उन्हें दोहरा देने में कोई हर्ज नहीं है.
किताब वैद्यजी के इर्दगिर्द घूमती है जो रंगनाथ के मामा हैं. बहुधंधी व्यक्ति. मर्दानगी की दवा बेचने से लेकर गर्भपात कराने तक तमाम खुले और गुप्त धंधे उनके पेशे से जुड़े हैं. लेकिन प्रकटतः वे एक स्थानीय गांधीवादी नेता हैं. एक इंटरमीजिएट कॉलेज और एक कोऑपरेटिव चलाते हैं. ग्राम पंचायत में टांग फंसाए रहते हैं. अपराधियों को संरक्षण देते हैं और राजनीति से लेकर नौकरशाही तक के संपर्कों के जरिये ‘शिवपालगंज’ के हर सुकर्म-कुकर्म को छत्रछाया भी दिए रहते हैं. गाँव में रामाधीन भीखमखेड़वी नाम के एक सज्जन, जो गुप्त ढंग से अफीम का कारोबार करते हैं, वैद्यजी के विपक्ष की भूमिका निभाते हैं, हालांकि दोनों में कोई झगड़ा कभी खुलकर नहीं होता.
इन दोनों के अलावा ब्याज पर पैसे चलाने वाले महाजन गयादीन शिवपालगंज के सत्ता त्रिकोण का तीसरा कोना बनाते हैं. लेकिन उपन्यास पूरा होने पर उनकी छवि बदमाशों से भरे गाँव में एक जवान लड़की के मृदुभाषी बाप की ही बनती है.
‘राग दरबारी’ में जो राग सबसे देर तक बजता है, यूं कहें कि जो किस्सा सबसे देर तक चलता है, वह वैद्यजी के बड़े बेटे बद्री पहलवान और गयादीन की इकलौती बेटी बेला की प्रेम कहानी है. प्राचीन काल से कही-सुनी जा रही और फिल्मों में दिखने वाली प्रेम कहानियों से शायद ही इसका कोई मेल बने. बद्री पहलवान जिले भर में उचक्कों के नेटवर्क से जुड़े हैं, जबकि पूरी किताब में परछाईं जैसी दिखने वाली बेला के लिए यौन संसर्ग ही प्रेम है.
भदेस का उपयोग मनोहर श्याम जोशी के रोमैंटिक उपन्यास ‘कसप’ में भी बहुत हुआ है, लेकिन श्रीलाल शुक्ल की इस रचना में प्रेम पूरा का पूरा ही भदेस है. इसका प्रतीक वे गयादीन के दरवाजे पर खूंटा तुड़ाने को उतारू भैंस के जरिये खींचते हैं, जो इतनी बुरी तरह हीट में है, गरमाई हुई है, कि लगता है, जमीन छोड़कर आसमान में उड़ जाएगी. इसके बावजूद प्रेमी और प्रेमिका की जातियाँ अलग-अलग होने, और थोड़ी देर के लिए हुए वैद्यजी के मतलबी हृदय परिवर्तन के कारण रत्ती भर आदर्शवाद भी इस प्रेम के साथ जुड़ जाता है और इसका असफल होना बुरा लगता है.
मजबूरी और बग़ावत
तीन चरित्र इस किताब में बहुत तेजी से विकसित होते हैं और इन्हें सुसंगत माना जाए या नहीं, कभी-कभी यह सवाल मन में खड़ा होने लगता है. इनमें एक हैं रुप्पन बाबू. वैद्यजी के छोटे बेटे. उपन्यास में एँट्री लेने तक वे अट्ठारह साल की उम्र में तीन बार हाई स्कूल में फेल हो चुके हैं. जिस कॉलेज की ख्याति थोकभाव में नकल कराने की हो, उसके मैनेजर के लड़के का इतनी बार फेल होना किसी जिद का ही नतीजा हो सकता है. उम्र से कुछ ज्यादा ही समझदार यह लड़का बेला का एकतरफा प्रेमी भी है. लेकिन जैसे ही बड़े भाई बद्री पहलवान से बेला की शादी के चर्चे उठते हैं, उसके मिजाज में तीखा बदलाव दिखता है. स्कूल में कुछ शिक्षकों से हो रहे अन्याय के खिलाफ वह अपने बाप के खिलाफ बगावत की मुद्रा अपना लेता है और कहानी के अंत में वैद्यजी उसे अपनी संपत्ति से बेदखल कर देते हैं.
जिन शिक्षकों के प्रति अन्याय की बात ऊपर कही गई है, वे, यानी मुख्यतः खन्ना मास्टर और मालवीय मास्टर कॉलेज के प्रिंसिपल से दुखी हैं, जो वैद्यजी का टहलुआ है. स्कूल का स्टाफ, शिक्षक से लेकर चपरासी तक, ज्यादातर प्रिंसिपल और वैद्यजी की रिश्तेदारी में आते हैं. ये एक ही क्षेत्र, एक ही बिरादरी के लोग हैं और खन्ना-मालवीय उनके लिए पराये हैं. ऊपर से खन्ना ने अपनी योग्यता के आधार पर स्कूल की वाइस-प्रिंसिपली पाने का दावा भी कर रखा है. निजी संस्थानों में सत्ता के सारे धागे किसी एक ही स्रोत से निकलते हैं. ऐसे में समझदार लोग इमीडिएट बॉस की मार पड़ने पर अपना दुखड़ा उसी एक परम-स्रोत के सामने रोने जाते हैं. लेकिन खन्ना-मालवीय ने विरोधी गुट- रामाधीन और गयादीन के जरिये स्कूल प्रबंधन पर दबाव बनाने की कोशिश की और इस कोशिश में औंधे मुँह गिरे.
दो और तेजी से विकसित होने वाले चरित्र सनीचर और जोगनाथ हैं. पूरी किताब में सिर्फ जांघिया पहने सनीचर वैद्यजी के दरबार में पड़ा रहने वाला एक चिरकुट है, जिसे रामाधीन भीखमखेड़वी को सबक सिखाने के लिहाज से, उनके भाई को ग्रामप्रधानी से बेदखल कराने के लिए प्रधान बनवा दिया जाता है. प्रधानी भी उसे जांघिया छोड़कर धोती-कुर्ता या सूट-बूट अपनाने को मजबूर नहीं कर पाती. लेकिन छह महीने से भी कम वक्त में एक लाखैरे का ठीकठाक सी दुकान चला ले जाना और अपनी अक्ल से मुश्किल मौके संभालने लगना चमत्कारिक जान पड़ता है.
जोगनाथ की एँट्री किताब में एक फक्कड़ शराबी की तरह होती है, लेकिन फिर गयादीन के यहाँ चोरी के एक मामले में पुलिस सिर्फ खानापूरी के लिए उसे फंसाती है और जेल से निकलने पर वह लुटेरा और सेंधमार नजर आता है. किताब के कई अन्य खल चरित्रों की तरह जोगनाथ भी वैद्यजी का ही आदमी है और दारोगा से नाक रगड़वाने के उपक्रम में वैद्यजी उसका बखूबी इस्तेमाल भी करते हैं. लेकिन एक खतरनाक उठाईगीरे और संभावित हत्यारे का वैद्यजी जैसे महीन स्थानीय राजनेता के दरबार में सीधे उठना-बैठना किताब के आम माहौल में ठीक से नहीं खपता.
जोगनाथ से कुछ कम आपराधिक चरित्र इस किताब में छोटे पहलवान का है, जो बद्री पहलवान के चेले और उनके पारिवारिक हितों के लिए कुछ भी कर गुजरने वाले जीव हैं. अपने बाप की नियमित पिटाई उनकी स्थायी पहचान है. इस कृत्य के लिए वैद्यजी का छोटे पहलवान की सार्वजनिक निंदा करना, आगे कभी उनकी शक्ल तक न देखने का बयान देना, फिर हर मौके पर उनसे अपने लिए लठैती भी कराना उनके मिजाज से बिल्कुल ठीक मेल खाता है.
किताब का एकमात्र ट्रैजिक और सच्चा कैरेक्टर लंगड़ नाम का आदमी है, जो किसी और गाँव का है लेकिन तहसील में अपने एक छोटे से सरकारी काम को लेकर शिवपालगंज में ही टहलता रहता है. दलित पृष्ठभूमि के इस व्यक्ति को तहसील से अपनी जमीन के कागजात की नकल निकलवानी है. एक छोटी सी घूस देकर यह काम हाथोंहाथ हो सकता था. लेकिन घूस न देने को वह ‘सत्त की लड़ाई’ मानता है, छोटे-बड़े हर किसी को ‘बापू’ कहकर बात करता है और किसी दिन सहज प्रक्रिया में तहसील से कागज निकल आने की उम्मीद अंत-अंत तक बांधे रहता है. उसकी यह उम्मीद कभी पूरी नहीं होती, क्योंकि बिना पैसे के कुछ न करने का एक सैद्धांतिक प्रण तहसील के किसी बाबू ने भी ठान रखा है. गांधी की फोटो की तरह लंगड़ पूरी किताब में टंगा नजर आता है. आशावान, असफल, असहाय.
प्रेक्षक की दृष्टि
बताना जरूरी है कि इन चरित्रों के इर्दगिर्द बनने वाले किस्सों में से एक भी ‘राग दरबारी’ की मुख्य कथावस्तु नहीं बनाता. किताब में इनकी भूमिका उतनी ही है, जितनी शिवपालगंज के बस अड्डे की, या उसके थाने की, या गाँव से थोड़ी दूर साल में एक बार लगने वाले उस मेले की, जहाँ घटित होने वाली घटनाएँ छोटी-मोटी ही हैं लेकिन उपन्यास की किस्सागोई में ये मुख्य चरित्रों जितनी ही जगह घेरती हैं. किताब के नरेटर जैसी जगह पर बैठा रंगनाथ भी छह महीनों की इस किताबी अवधि में बड़े बदलावों से गुजरता है, लेकिन स्पॉटलाइट उसपर कभी बिरले ही पड़ती है.
प्राचीन भारतीय इतिहास और इंडोलॉजी का वह गंभीर अध्येता है, यह बताने के लिए मजे-मजे में उसके पास जमा किताबों की जो सूची बताई गई है, वह आज भी इस काम के लिए मानक समझी जाएगी. कनिंघम, विंटरनित्ज, कीथ, स्मिथ, राइस डेविस, पर्सी ब्राउन, काशीप्रसाद जायसवाल, भंडारकर. फील्ड वर्क को लेकर उसके जैसी उत्सुकता अभी इतिहास के छात्रों में कम ही दिखती है. सबसे बड़ी बात यह कि अपने सामने मौजूद यथार्थ को किसी किताबी चश्मे से न देखने का एक दुर्लभ खुलापन उसके पास है. लेकिन इस दृष्टि का कुल नतीजा यह निकलता है कि एक ‘देवी मूर्ति’ को किसी मध्यकालीन सिपाही की आकृति बताना उसके लिए भारी पड़ जाता है.
गनीमत समझें कि गाँव के जनजीवन में इस तरह का कोई अटपटा हस्तक्षेप वह नहीं करता. इस धैर्य के कारण शिवपालगंज में लोगबाग उसे ‘टूरिस्ट’ नहीं समझते. पढ़ा-लिखा होने के चलते स्वभावतः थोड़ा बेवकूफ भर मानकर बख्श देते हैं. गाँव की गंदगी और वहाँ के लोगों की बदनीयती उसे परेशान करती है. लेकिन एक समाज विज्ञानी की तरह वह इन दुर्गुणों को आनी-जानी चीज समझता है, इन्हें आत्यंतिक निष्कर्षों का आधार नहीं बनाता. उसका बदलाव गयादीन के घर पर लगाई गई दो बैठकियों में जाहिर होता है. पहली बार वह और रुप्पन गयादीन का मन टोहने और वैद्यजी को फिर से स्कूल का मैनेजर चुनने पर उन्हें राजी करने जाते हैं, जबकि दूसरी बार यह जोड़ी वैद्यजी के विरोधी गुट, खन्ना-मालवीय मास्टर के पक्ष में खड़ा होने के लिए उन्हें मनाने का निष्फल प्रयास करती है.
किताब के आखिरी हिस्से, यूँ कहें कि ‘एपिलॉग’ की तरह लिखा गया ‘पलायन संगीत’ यह बताता है कि शिवपालगंज की हकीकत रंगनाथ के लिए कुछ ज्यादा ही असहनीय साबित हुई है. इतनी कि इसे बदलने के नाम पर कुछ कर पाना उसकी सोच से परे है. स्कूल में खन्ना की जगह इतिहास का शिक्षक बन जाने का प्रस्ताव प्रिंसिपल उसके आगे रखता है, जिसे वह डांटकर नकार देता है. लेकिन किताब का अंतिम पैरा उसके इस प्रतिवाद को भी छूंछा बताता है. डमरू बजाते एक मैले-कुचैले मदारी के आगे दो बंदर मुँह फुलाए बैठे हैं. इस प्रतीक का जो भी अर्थ लिया जाए!
विचारधारा और पहचान
राग दरबारी को लेकर आलोचकों की सबसे बड़ी शिकायत इसमें विचारधारा के अभाव की रही है. जिस दौर में यह उपन्यास आया था- साठ के दशक के अंत में- उसे विचारधाराओं के उभार के लिए याद किया जाता है. सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट, नक्सलवाद, हिंदुत्व, रिपब्लिकन-दलित हर तरह की खलबली उस समय से जुड़ी थी. इसकी परिणति कई राज्यों में गैर-कांग्रेसवाद पर आधारित संविद सरकारों में हुई थी. लेकिन इस किताब में विचारधारा के नाम पर सिर्फ अवसरवाद के दर्शन होते हैं. ट्रेड यूनियन बनाने की कोशिशों का एक हल्का सा छौंक एक जगह जरूर मिलता है, जहाँ एक रिक्शाचालक बद्री पहलवान को बताता है कि रिक्शे पर बैठे कोई बाबू साहब रिक्शेवालों का दुखड़ा रोए जा रहे थे तो उसने मन ही मन कहा, जो बोलना है बोल लो लेकिन किराये में एक पैसा नहीं छोड़ूंगा.
विचारधारा के टोटे पर आलोचकों का आक्रोश कितना भी गहरा क्यों न हो, समय ने साबित किया है कि वैचारिक प्रतिबद्धताएँ जिस जमीन पर खड़ी होती हैं, वह भारत में, खासकर उत्तर भारत में ज्यादा जरखेज नहीं है. कुछ अलग-थलग व्यक्तियों को छोड़ दें तो समाज के स्तर पर उसकी सुनवाई कम है. एक अनपढ़, दरिद्र समाज में लोगों की पहली चिंता सिस्टम का फायदा उठाकर खुद आगे बढ़ जाने की होती है. फणीश्वरनाथ रेणु और नागार्जुन के उपन्यासों में कुछ लोग अपनी गर्दन छुड़ाने से ज्यादा कष्ट स्थितियों को बदलने के लिए झेलते हैं. लेकिन श्रीलाल शुक्ल की इस रचना में लंगड़ का अचर्चित सत्याग्रह इस कदर हास्यास्पद होता जाता है कि हताशा में उसका रोना भी हंसने जैसा लगता है. यहाँ अफसोस के साथ एक विचित्र बात को रेखांकित करना भी जरूरी है कि इस किताब का कथ्य एक भयानक ठहराव और मारक विडंबना का है, पर इसकी विनोदमय भाषा उधर का रास्ता रूंध देती है.
जैसे हमने ऊपर भालचंद्र नेमाड़े के परिचय को लेकर कुछ बातें कहीं, वैसा ही राग दरबारी के लेखक श्रीलाल शुक्ल के साथ भी हमें करना चाहिए. लेकिन हिंदी में लिखे जा रहे इस लेख में एक शीर्ष हिंदी लेखक का ज्यादा लंबा परिचय टांगना कुछ अटपटा-सा लगेगा. सभी जानते हैं कि श्रीलाल शुक्ल अलीगढ़ के पास अतरौली (पश्चिमी उत्तर प्रदेश) में जन्मे ब्राह्मण पृष्ठभूमि के एक प्रशासनिक अधिकारी थे. उनके उपन्यासों का भूगोल पूर्वी उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं है. यह सिर्फ राग दरबारी में ही दिखता है और वहाँ भी सिर्फ प्रिंसिपल की अवधी सुनाई पड़ती है. स्थानीय बोली नदारद ही रहती है. शुक्ल जी के संस्कृत ज्ञान की झलक यहाँ जड़े गए सुंदर संस्कृत फिकरों में मिलती है- ‘भयानां भयं भीषणं भीषणानां’. मेरे लिए अभी इस उपन्यास में खटकने वाली अकेली बात इसके पात्रों का परिचय जरा कम मिल पाना है. रामाधीन भीखमखेड़वी या सनीचर या जोगनाथ कौन हैं, किस बिरादरी से आते हैं?
पता होता तो इससे उनकी हरकतों का परिप्रेक्ष्य समझ में आता. उन्हें मनुष्यमात्र मानने से यह अधर में झूलता रह जाता है. क्या मेरे जैसे पाठक शुरू से ही कहानियों और उपन्यासों में पात्रों की जाति खोजते आए हैं? निजी तौर पर मेरी गति पल्प उपन्यासों में ज्यादा रही है, जहाँ किसी पात्र की जाति नहीं बताई जाती. साहित्यिक रचनाओं में भी लेखक आम तौर पर इससे बचते रहे हैं. पढ़ने में यह ठीक ही लगता था और कथा पात्रों से तादात्म्य बनाने में कोई परेशानी नहीं होती थी. इसके उलट, ‘रेणु’ के यहाँ लगभग हर जगह और उनसे पहले प्रेमचंद के यहाँ भी कुछ पात्रों की जाति दिखती है तो चीजें ज्यादा साफ होती हैं. इधर, अस्सी के दशक के मध्य से ग्रामीण और कस्बाई परिवेश में जातियों की गतिकी जितनी तीखी होती गई है, उसे देखते हुए फिक्शन में भी यह एक जरूरी सूचना लगने लगी है.
ऐसा भी नहीं है कि लेखक ने जातियों का नाम लेने से कोई परहेज कर रखा हो. वैद्यजी और गयादीन की जाति बताने के अलावा चमार बिरादरी का जिक्र यहाँ कई बार आया है. एकाध बार ठाकुरों का भी. अपनी प्रतिबद्धता जताने का मौका लेखक के पास एक ही जगह, ‘नेवादा वाली’ चुनावी तरकीब बताते हुए आया है. यह कि जहाँ जाति को आगे करके हार जाने का खतरा हो, वहाँ एक झटके में धर्म का झंडा बुलंद कर देना चाहिए. किस्से में एक जगह एक सज्जन चमार बिरादरी को गरियाते हुए ऊंची जातियों की लामबंदी के फिराक में हैं कि तभी उन्हें मार पड़ जाती है.
‘ब्राह्मण उम्मीदवार को मालूम हो गया कि पुरुष-ब्रह्म का मुख पुरुष-ब्रह्म के पैर से ज्यादा दूर नहीं है और संक्षेप में जहाँ मुँह चलता हो और जवाब में लात चलती हो, वहाँ मुँह बहुत देर तक नहीं चल सकता.’
यह ज्ञान तो ठीक है, लेकिन चुनाव में जीत इन सज्जन की ही होती है. वजह? समय रहते उन्होंने एक बाबाजी को अपनी ओर कर लिया!
धर्म को लेकर भी कुछ ऐसी ही लेखकीय दृष्टि ‘राग दरबारी’ में दिखती है. हर चीज यहाँ स्वार्थ का औजार है तो जाहिर है, धर्म से यह काम कुछ ज्यादा ही नंगे ढंग से लिया जाएगा. किताब में ऊपर दिए हुए किस्से के अलावा किसी और कर्मकांड, कथा-वार्ता, भजन-पूजन का कोई जिक्र नहीं है. एक मेले में कथित देवी मूर्ति का हवाला ऊपर दिया गया है, जिससे जुड़ी आस्था के अपने घपले हैं. अभी के अतिधार्मिक, राजनीतिक हिंदुत्व वाले माहौल की कोई गंध यहाँ मौजूद नहीं है. अन्य धर्मों में एक-दो जगह मुसलमानों का जिक्र भर आया है. एक जगह इदरीस नाम का एक अफसर कोऑपरेटिव का चुनाव कराने आया है और एक जगह कहा गया है कि मर्डर के मुकदमे से रिहा होने के बाद किसी आदमी ने ‘औरतों, अछूतों और मुसलमानों को छोड़कर पूरी मनुष्य जाति को खाने पर बुला लिया था.’
आगे आ रहे ब्यौरों से यह स्पष्ट होगा कि भालचंद्र नेमाड़े इंसान की जाति-धर्म वाली पहचान को लेकर ज्यादा सजग हैं और इस कुंजी से कुछ ताले उनके यहाँ आसानी से खुल जाते हैं. चांगदेव चतुष्टय का रचना समय और लेखन समय, दोनों कमोबेश राग दरबारी वाले ही हैं, लेकिन मराठी भाषा शिवाजी और मराठा राज से जुड़ी अपनी ऐतिहासिक विरासत के अलावा उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में जोतबा फूले और भीमराव आंबेडकर के प्रभाव से भी जातिगत पहचानों और शोषण के जाति आधारित पहलुओं को लेकर ज्यादा सजग रही है. फिर भी, पचास का दशक बीतने तक मराठी साहित्य की मुख्यधारा हिंदी से हटकर नहीं थी. यह कृति उसकी पटरी बदलने जैसी है.
चांगदेव कौन?
तेरहवीं सदी में हुए संत ज्ञानेश्वर से जुड़े मिथकों में एक किस्सा सिद्ध चांगदेव का आता है, जिसके मुताबिक उन्होंने 42 बार मृत्यु को पराजित किया और 1400 साल जिंदा रहे. पूरा किस्सा यह है कि 16 साल के ज्ञानेश्वर की प्रसिद्धि से परेशान होकर चांगदेव ने चिट्ठी के रूप में चांगदेव को एक सादा काग़ज़ भेजा. ज्ञानेश्वर की बहन मुक्ताबाई ने जवाब में उन्हें लिखा कि 1400 साल जीकर भी तुम इस काग़ज़ की तरह कोरे ही रहे. इस पर गुस्साए चांगदेव एक शेर पर सवार हुए और सांप का चाबुक लिए ज्ञानेश्वर की तरफ बढ़े. उस समय ज्ञानेश्वर अपने भाई-बहनों के साथ एक दीवार पर बैठे थे. सिद्ध से मुलाकात के लिए उन्होंने दीवार को ही चांगदेव की तरफ हाँक दिया. यह सेर को सवा सेर मिलने जैसी एक मिथकीय कथा है. चांगदेव नाम का कोई प्रतीकात्मक अर्थ नेमाड़े के उपन्यास में नहीं है.
चतुष्टय का नायक चांगदेव पाटील बीसेक साल का एक नौजवान है. बड़ी खेती-बाड़ी और ढेरों सदस्यों वाले एक कुणबी मराठा किसान परिवार का धुर देहाती लड़का, जिसे ऊंची पढ़ाई के लिए मुंबई भेजा गया है. शुरू के दो साल अच्छे नंबरों से पास हुआ, मराठी और अंग्रेजी के कुछ अखबारों में दो-चार लेख छपे, कॉलेज और हॉस्टल की सोसाइटियों में एकाध चुनाव भी जीत लिए, फिर नंबर कम आने लगे. तबीयत बिगड़ी-सी लगी तो बहुत कोंच-कांच के बाद डॉक्टर को दिखाया. वहाँ दिल और फेफड़ों की कोई ऐसी खतरनाक बीमारी निकल आई कि जिंदगी व्यर्थ लगने लगी. उसकी पढ़ाई के फेरे में ही परिवार उजड़ रहा है, घर में बंटवारा हो गया है, ऐसे माहौल में बीमारी का बोल दिया तो वज्र गिर जाएगा, यह सोचकर घर चला गया और महीनों इसकी-उसकी गालियाँ सुनता वहीं पड़ा रहा.
फिर, मरना ही है तो घर में क्यों मरें, महानगर में जाकर मरें, जहाँ किसी को पता नहीं चलेगा, ऐसा सोचकर दोबारा मुंबई आया. यहाँ एक अजीब सर्कल, जिसमें कुछ लोग बहुत अमीर हैं, कुछ के लिए पेट चलाना मुश्किल है. कोई ट्रेड यूनियन के रास्ते कम्युनिस्ट पार्टी में चला गया है तो कोई साहित्य में घुसकर दुनिया बदल देने के फिराक में है. कम्युनिस्टों से कुछ जुड़ाव चांगदेव में देर तक बचा रह गया. एक बार कहीं से दो सौ रुपये हाथ लगने पर सौ रुपये तत्काल उसने अपने होलटाइमर दोस्त ‘भैया’ के लिए रवाना कर दिए. कम्युनिस्ट और गैर-कम्युनिस्ट की बहस उसे बहुत अच्छी लगती है. अक्सर इसमें जुटा भी रहता है. लेकिन कम्युनिस्ट बनने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है.
‘बिढार’ उपन्यास मराठी के लघु पत्रिका आंदोलन की टोह लेता है, जो आर्थिक रूप से भले ही अपने पैरों पर न खड़ा हो पाया हो लेकिन मराठी को एक जिंदा भाषा बनाने में उसे अच्छी कामयाबी मिली. इस उपन्यास में चांगदेव और उसकी मित्रमंडली द्वारा निकाली गई पत्रिकाओं के नाम बड़े दिलचस्प हैं. ‘ब्र’ नाम की पत्रिका का सिर्फ एक अंक निकला. फिर ‘पण’ के दो और ‘अपन’ के तीन-चार अंक. ऐसी आखिरी कोशिश के लिए ‘उखाड़’ नाम आया, फिर ‘पटक’ पर बात रुकी. उसका एक अंक निकालते ही चांगदेव की जान पर बन आई. किसी तरह जिंदा बचा तो कुछेक अंक और निकाले. इन पत्रिकाओं का मुख्य काम उखाड़-पछाड़ ही था लेकिन कुछ अच्छी लिखाई भी आई.
सबसे बड़ी बात यह कि मराठी लघु पत्रिका आंदोलन ने दलित साहित्य को जन्म दिया. फूले-आंबेडकर की धारा ने मेहनतकश जातियों का जो जागरण पैदा किया था, साहित्य से समाज तक उसकी दावेदारी इस आंदोलन से मजबूत हुई. उपन्यास में इस बात का उल्लेख नहीं है, लेकिन सारंग नाम का एक युवा लेखक इसकी शर्तें पूरी करता है. मुंबई (पूरी किताब में ‘बंबई’) छूटने के साथ ही लघु पत्रिकाओं की यह कसरत चांगदेव के जीवन से बाहर चली गई लेकिन श्रमिक जातियों की जाग्रत चेतना ने उसका साथ कभी नहीं छोड़ा. जिन भी कॉलेजों में उसने पढ़ाया वहाँ न केवल इस मिजाज के शिक्षकों से जुड़ाव बना रहा, बल्कि हर जगह एक सार्थक जिंदादिली उसके इर्दगिर्द छाई रही.
सतह से उठा आदमी
‘बिढार’ में एक कमाल का चरित्र चांगदेव की मुंबइया मित्रमंडली के सदस्य नारायण का है, जिसका पूरा नाम किताब के अंत में ‘नारायण केलकर’ पता चलता है. मात्र बीस साल की उम्र में डॉक्टर से अपने दिल और फेफड़े की असाध्य बीमारी के बारे में जानकर जीने की उम्मीद छोड़ चुका चांगदेव गाँव से मुंबई लौटता है तो वहाँ उसके दोस्त उसका सहारा बनते हैं. कॉलेज में नाम लिखाकर हॉस्टल का जुगाड़ बनाने से पहले कुछ दिन मुफ्त में या मामूली किराये पर रहने के लिए वह नारायण के साथ एक चाल में रद्दी सा कमरा साझा करता है. इस कमरे का वर्णन देखें-
‘एक ढलान के ऊपर चढ़कर वे एक-दो चक्कर काटकर फिर गटर के ऊपर से छलांग लगाते हुए एक पुरानी चाल की सीढ़ियाँ चढ़ने लगे. वहाँ से कौन सी बस कहाँ जाती है, स्टेशन कितना पास है, वगैरह कहते हुए बीच-बीच में चांगदेव का हाथ पकड़ कर नारायण उसे जीने की टूटी सीढ़ियों पर साथ देते हुए ऊपर के एक अकेले कमरे तक पहुंचा. सामने छतनुमा कुछ था और वहाँ नीचे रहने वाले किरायेदारों का टूटा-फूटा सामान, तोते का एक खाली पिंजड़ा, टायर जैसी चीजें थीं. उसका कमरा असल में जीने से छत पर जाने का मुहाना था, लेकिन अब वह कमरे में बदल गया था. कमरा मुश्किल से दो जनों के काम में आ सकता था. जीने के नीचे जो नल था उससे पानी लाना होता. नहाना छत पर और संडास नीचे. जगह पुरानी थी, संडास की बदबू चारों ओर फैली हुई थी, कचरा पेटियाँ टूटी हुई थीं. ऐसा सब कुछ होने पर भी बीस रुपये किराये के हिसाब से जगह अच्छी थी. चांगदेव के यहाँ रहने पर किराया आधा-आधा हो जाएगा. फिर नारायण सुबह और रात बहुत देर बाहर ही रहेगा.’
खाली पेट गुजरी रातों वाले इस समय की याद की तरह, साथ में एक ताकतवर प्रतीक की तरह भी तोते का यह खाली पिंजड़ा ‘बिढार’ के अंत में एक बार वापस लौटता है. नारायण कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य है और पार्टी की ओर से टैक्सी यूनियन में काम करता है. रूसी कविताओं का अंग्रेजी से अनुवाद उसका शौक है और लड़कों की मंडली में साहित्यिक बकझक से लेकर पत्रिकाओं के आइडिया पर काम करने तक उसका बहुधंधी दखल है. बीच में किसी नामालूम से घटनाक्रम में एक दिन उसकी प्रतिबद्धता बदलने लगती है, और यह बदलाव तकलीफदेह है.
‘नारायण के लिए इन दिनों बुरे से बुरे दिन आ रहे थे. यूनियन में कुछ झमेला हो जाने से उसे निकाल दिया गया था. इसलिए वह इन दिनों कम्यूनिस्टों को भी गालियाँ बकता. तड़के जल्दी उठकर चाय-ब्रेड खाकर वह पैदल ही कोर्ट जाता और पैदल ही शाम को लौटता. आने पर थक जाता. कभी तो खाना खाकर आता. कभी-कभी कमरे पर ही कुछ खा लेता. दो घंटे चलकर जाना और दो घंटे चलकर आना, इससे वह आते ही सो जाता. भूखा सोया तो रात में जल्दी ही उठ जाता. चांगदेव ब्रेड वगैरा कुछ लाया रहता तो वही खाकर फिर सो जाता. कई बार तो सिर्फ बैठे-बैठे आँखें तरेरकर कुछ निश्चय कर रहा है ऐसा लगता. चांगदेव खास उसके लिए केले वगैरह लाता और कहता, चूहे स्साले दो-दो महीने बिना खाए-पिए रहते हैं. कई बार चांगदेव के मनुहार करने पर भी कुछ न खाता.’
फिर नारायण इस मंडली के राडार से अचानक गायब हो जाता है. दोस्तों में कभी-कभी उसके पतन के बारे में बातचीत होती है. किताब के आखिरी पन्नों में वह अचानक प्रकट होता है तो उसकी जिंदगी बदल चुकी है. इतनी ज्यादा कि बिढार के पहले पाठ में मैं भूल ही गया कि जिस दोस्त के ऐश-मौज पर इतनी बात हो रही है, जिसके यहाँ मुंबई में अपनी आखिरी रात बिताकर चांगदेव जिंदगी के अलग ही सफर पर निकलने वाला है, यह वही नारायण है!
गरीबी का पिंजड़ा
किताब का नरेटर-नायक चांगदेव अंग्रेजी का छात्र है और अंग्रेजी साहित्य की काफी पढ़ाई उसने शौकिया तौर पर भी कर रखी है. लेकिन नारायण ने सिर्फ अंग्रेजी में अखबारी लेख लिखने के लिए डिक्शनरी देख-देखकर यह भाषा सीखी है. चांगदेव से जब दूसरी बार उसकी मुलाकात होती है तो वह एक लकदक ऑफिस में बैठा किसी अमेरिकी पत्रिका का काम देख रहा है. उसकी शादी हो चुकी है और पत्नी विजू अंग्रेजीदां माहौल में अच्छी पगार पर कोई नौकरी करती है. नारायण का जीवन स्तर इतना बदल चुका है कि चांगदेव के लिए उससे बात करना मुश्किल है.
लेकिन इतने बड़े बदलाव से गुजरा यह व्यक्ति गरीबी को भूला नहीं है और दो जीवन एक साथ जीना जानता है. बातचीत के बीच चांगदेव उसके घर के अंतःपुर में प्रवेश करता है तो वहाँ उसे तोते का वही पिंजड़ा दिखाई देता है. वह कहता है-
‘नारायण, तुम्हारे बेडरूम में रखा अपने परेल के कमरे का वह पिंजड़ा इस मकान की सबसे खूबसूरत चीज है. तुम्हारा घर वैसे तो बेजोड़ है साले. बहुत ही सुंदर. यह पर्दा हटाओ तो किनारा और समंदर, ये सब सुंदर-सुंदर चीजें लेकिन फिर भी इस पिंजड़े की सुंदरता और महत्व दूसरे किसी को नहीं. तू आगे भी इसी तरह बनता-संवरता रहेगा ऐसा मेरा अनुमान है. लेकिन तुम संतोष के साथ जी सकोगे ऐसा मुझे नहीं लगता.’
‘ऐसा क्यों लगता है?’
‘तुम वह अपना पुराना पिंजड़ा ले आए इसी से. तुम्हें अपने भीतर अपनी पुरानी जिंदगी भी संजोकर रखनी है.’
‘वह पिंजड़ा मुझे अच्छा लगता है यह सच है लेकिन मैंने उसे डेकोरेशन के रूप मे रखा है. सेंटिमेंटल वैल्यू के रूप में नहीं. मेमेंटो के रूप में नहीं.’
‘वह तुम किसी भी कारण से रखो. लेकिन मुझे वह तुम्हारे पूरे जीवन का एक मजबूत हिस्सा लगता है. उसके बाद तुमने यह कैरियर का दूसरा बाजू, उससे जोड़ दिया है. और भी कुछ पहलू जोड़ोगे, लेकिन चित्र पर शुरू में तुमने वह रेखा खींची है यह मत भूलना. उस समय का तुम्हारा संघर्षमय जीवन, भूखे रहकर किए गए यूनियन के काम, चिढ़कर लिखे हुए लेख, गरीबों की फिक्र, यह बाजू तुम खुद भी भूल नहीं पाओगे. अब तुम्हें उसका जिक्र विजू के सामने भी अच्छा नहीं लगता यह भी मेरे ध्यान में आ गया है.’
‘वैसे तो मैं पहले की कोई भी बात भूल नहीं पाता. तब भी इस बात को न भूलने में विशेष कुछ नहीं है. गरीब लोगों की फिक्र करना एक मियादी उम्र में झांटें निकलने जैसा है. लेकिन कितने दिन तक खुजलाते रहें? किसलिए?’
संवाद की भाषा जरा सी खटकी हो तो खटकने दीजिए. भालचंद्र नेमाड़े जिंदा मराठी लिखते हैं. साहित्य के वर्जित शब्दों, आमफहम गालियों का इस्तेमाल उनके यहाँ खूब होता है, हालांकि राही मासूम रजा के ‘आधा गाँव’ जितनी गालियाँ यहाँ नहीं हैं. बात का यह अर्थ कतई न लिया जाए कि ‘राग दरबारी’ में श्रीलाल शुक्ल की भाषा ठस्स है, या किसी और उपन्यास से कम जिंदा है. बस, वहाँ आने वाली गालियों को कुछ ऐंठकर सभ्य अभिव्यक्ति में ढालने का प्रयास किया जाता है. यह तकनीकी जब कम समर्थ रचनाकारों के हाथ लगती है तो वे अझेल चीजें खड़ी कर देते हैं. नेमाड़े की भाषा के साथ सबसे अच्छी बात यह है कि यह मराठी साहित्य की गैर-ब्राह्मण परंपरा से दूर नहीं जाती.
बहरहाल, कुछ वर्षों के फासले पर मिले दोनों दोस्तों की यह आखिरी बहस बियर पीने की प्रक्रिया में शुरू हुई थी और चढ़ते हुए नशे के साथ अमीरी और गरीबी की दार्शनिक प्रस्थापनाओं को कुरेदने तक गई. लेकिन ‘बिढार’ के आखिरी पन्ने तक पहुंची इसकी परिणति में हम अभी नहीं जाते, थोड़ी और चर्चा के लिए इसको यहीं रोक देते हैं.
राजनीतिक कार्यकर्ताओं की दुनिया में, खासकर वाम कार्यकर्ताओं के बीच किसी न किसी मोड़ पर ऐसी बहसें जरूर देखने को मिलती हैं. ज्यादा संकीर्ण मिजाज के कार्यकर्ता नौकरी-चाकरी करने वाले साथियों को शत्रु मानते हैं. कुछ उनसे चंदा लेते हैं, कुछ कतराकर निकल जाते हैं. अभी का दौर गरीब, मेहनतकश तबकों के बीच काम करने वाले कार्यकर्ताओं के लिए बहुत कठिन है. लेकिन भारत जैसे घोर विषमताग्रस्त समाज में ऐसे संवाद धीरे-धीरे सभ्यतागत रूप लेते जा रहे हैं. लगभग हर सफल व्यक्ति के पीछे गरीबी, अभाव, संघर्ष के कुछ किस्से होते हैं. जब वह अपनी जीवनी लिखवाता है या खुद लिखता है तो ऐसी कहानियाँ कच्चे माल का काम करती हैं और उसके महत्वाकांक्षी पाठकों में किताब की बिक्री बढ़ाती हैं. इस तरह गरीबी को लेकर सजावटी विमर्श जारी रहता है, लेकिन समाज के एजेंडे से वह बाहर हुई जाती है और सत्ताधारियों के लिए स्थिति दिनोंदिन आसान होती जाती है.
खिझाने वाले फैसले
चांगदेव चतुष्टय में नायक के फैसले बार-बार चौंकाते हैं और एकाध बार खीझ भी पैदा करते हैं, लेकिन इसकी तह में यह बेचैनी मौजूद है कि नायक एक असाध्य बीमारी का शिकार है. उसकी तटस्थता अपने समाज को ज्यादा से ज्यादा देख लेने की इच्छा से जुड़ी है, लिहाजा ‘बीमार तटस्थता’ जैसा भी कोई नाम इसे नहीं दिया जा सकता. ‘बिढार’ के बीच में ही चांगदेव जब मरने-मरने की हालत में पहुंच जाता है तो सरकारी अस्पताल में किसी तरह उसके फेफड़ों की एक मेजर सर्जरी होती है. ठीक से खाना, आराम करना उसके लिए इलाज जितना ही जरूरी बना दिया जाता है. उसका एक फेफड़ा निकाल दिया गया है या नहीं, किताब में स्पष्ट नहीं है लेकिन दोस्तों में ऐसी चर्चा जरूर है. मिलने से पहले नारायण मजाक करता है- ‘निकाल दिया जाता तो हम तुझे ‘एकलंग’ कहकर बुलाते!’
बहरहाल, भालचंद्र नेमाड़े ने अपने नायक की किसानी पृष्ठभूमि से जोड़कर सर्जरी से ठीक पहले चांगदेव की मरणांतक पीड़ा का अद्भुत चित्र खींचा है- ‘खलिहान की बेरी के नीचे जरीला बछड़े के पैर बांधकर, दोनों हाथों में नहीं समाएँगे ऐसे उसके बड़े-बड़े अंडकोश को मक्खन लगाकर पत्थर पर रखकर हरी मांग (एक मजदूर का नाम) पत्थर से उसकी नसों को दे दनादन, कूट-कूटकर कुचल रहा है. जरीला आं-आं करते हुए मिट्टी में मुँह घुसेड़ रहा है. आवाज भी नहीं निकल रही… हे भगवान, हे भगवान! आदमी के लिए पशुओं का सुख-दुख कुछ है ही नहीं… बाद में जरीला बीस बरस तक हमारे घर में बैल के रूप में रहा. पोला-वृषभ पूजन के दिन उसके सफेद झक् बदन पर रंग, चादर और सींगों में चंवर, माथे पर सेहरा बंधता.
‘हे भगवान मरना है तो झट से मर जाना… यह ऐसा कब तक पीठ पर पीड़ा ढोना? चटपट जो हो जाना चाहिए वह व्यर्थ ही में लंबा होता जा रहा है. दांव नाकामयाब हो गया.… मरते-मरते जो थोड़ा-बहुत उधर की दुनिया का एहसास हो रहा था, उसमें कुछ भी नहीं लग रहा था. कुछ तो अतिमानवीय था खुला-खुला आकारहीन. इस समय जैसे सब देखी-सुनी बातों में अपने रेशे-रेशे जुड़े हुए हैं, वैसा उस ओर कुछ भी नहीं है. कुछ भी नहीं होगा. यही अगर मौत है तो इतने दिन कितनी बचकाना बातें सीने से लगाए हुए था मैं.’
आंदोलन और साहित्य, दोनों में छह साल नाक तक डूबे रहने के बाद दोनों से दूर हो जाने का संकल्प-बीज भी इन्हीं दिनों अंखुआता है. मुंबई फिर कभी नहीं आना, इस प्रतिज्ञा का ऊपरी तौर पर कोई तर्क नहीं बनता, लेकिन नायक इसे अंत-अंत तक निभाता है. क्या ऊपर आए अंश को ही इस जिद की दलील समझा जाए? किसी तयशुदा रास्ते पर चलने की गलती न करना, अधिक से अधिक अनुभूतियों को भीतर ले आना. जीवन-मृत्यु की विभाजक रेखा को छूकर लौटने के बाद, राह देख रही अंतिम विदाई से पहले अधिक से अधिक गहराई में उतरकर दुनिया से जुड़ना.
बाद के तीनों उपन्यास हूल, जरीला और झूल महाराष्ट्र के छोटे शहरों या कस्बों में मौजूद तीन अलग-अलग कॉलेजों में चांगदेव की मौजूदगी के किस्से, बल्कि कदम-कदम पर उभरते जाने वाले बहुत सारे किस्सों की श्रृंखला हैं. इन शहरों के नाम किताबों में नहीं दिए हुए हैं. हर बार इन्हें ‘गाँव’ ही कहा गया है. लेकिन यहाँ रहने वालों के रिश्ते शहराती जान पड़ते हैं. ‘हूल’ में यह ईसाइयों का कॉलेज है, ‘जरीला’ में मराठों का और ‘झूल’ में ब्राह्मणों का.
जाति, धर्म और प्रेम
ब्राह्मण-वर्चस्व का जिक्र ‘चांगदेव चतुष्टय’ में बार-बार आता है. अखबारों और साहित्य प्रकाशन जगत से लेकर कॉलेज-यूनिवर्सिटी तक पढ़ाई-लिखाई से दूर का भी कोई रिश्ता रखने वाले किसी भी कामकाज में ब्राह्मण बाकी जातियों के लोगों को खड़ा ही नहीं होने देना चाहते.अपनी जाति के भी सबसे गैर-रचनात्मक, लकीर के फकीर बने रहने वाले रंगरूटों को ही संरक्षण देते हैं. नायक की आड़ यह कि उसका ‘पाटील’ टाइटल कुणबी मराठों के अलावा ब्राह्मणों में भी चलता है. अंग्रेजी का शिक्षक होने के चलते ब्राह्मण मठाधीश उसे अपने बीच का ही बागी मान लेते हैं.
गर्मियों की एक छुट्टी से दूसरी छुट्टी तक कॉलेज में पढ़ाना, फिर अखबारों में वॉन्ट देखकर जिस भी शहर के किसी और कॉलेज में गुंजाइश दिखे वहाँ चले जाना. अंग्रेजी पढ़ाने में चांगदेव की कुशलता उसे अपने धंधे में एक ‘रेयर कमोडिटी’ बना देती है. उसके पास डॉक्ट्रेट नहीं है लेकिन अंग्रेजी साहित्य में उसकी गति अच्छी है. सबसे बड़ी बात यह कि मुंबई में कुछ साल मराठी साहित्य के लघु पत्रिका आंदोलन में गले तक धंसे रहने से कोई भी साहित्य उसके लिए सिर्फ रट्टा मारने की चीज नहीं रह गया है. वह गंभीर शिक्षक है और छात्रों से निपट लेने के दो-चार गुर शुरू में ही सीख लेने के बाद हर कॉलेज में लोग उसे पसंद करने लगते हैं. लेकिन कॉलेजों की राजनीति झेल पाना किसी के लिए भी आसान नहीं होता. इस काम में कुछ हाथ रवां हो जाने के बाद भी एक शहर उसे पानी की कमी से और दूसरा ट्रांसफॉर्मर फुंक जाने के कारण लगातार कई महीने बिना बिजली के गुजार लेने के बाद छोड़ना पड़ता है.
बीच में प्रेम और विवाह की कुछ गंभीर संभावनाएँ बनती हैं. दूसरे उपन्यास ‘हूल’ में एक ईसाई लड़की पावो सावनूर संपर्क में आती है. जिले का एक अफसर उसके साथ बलात्कार की कोशिश कर चुका है, ऐसी अफवाह उसके बारे में उड़ी हुई है. चांगदेव से उसकी गहरी दोस्ती हो जाती है, विवाह होना भी लगभग निश्चित हो जाता है. ऐन मौके पर चांगदेव ही खुद को रिश्ते से पीछे खींच लेता है. तीसरे उपन्यास ‘जरीला’ में अकेलेपन के चलते भारी विचलन में जा चुका नायक अरेंज्ड मैरिज का फैसला करता है. बुआ की कोशिशों के बाद अपनी बिरादरी के एक ध्वस्तप्राय सामंती परिवार में लड़की देखने भी वह चला जाता है. लेकिन उसी फटेहाली देखकर लड़की उसे रिजेक्ट कर देती है. चौथे खंड ‘झूल’ में विदेश से आई, थिएटर से जुड़ी, सांस्कृतिक चेतना संपन्न महिला राजेश्वरी चांगदेव से टूटकर प्रेम करने लगती है, लेकिन दोनों को शुरू से पता है कि विवाह जैसी कोई गुंजाइश दोनों तरफ से नहीं बन पाएगी.
इस यात्रा में चांगदेव भारतीय ईसाइयों और मुसलमानों की विडंबना को नजदीक से देखता है. पावो सावनूर के मातृपक्ष के पूर्वज केरल के थे. उनको किसी ने जबर्दस्ती मुसलमान बना दिया. परिवार ने उन्हें हिंदू धर्म में वापस नहीं आने दिया तो ईसाई बेहतर होंगे, ऐसा सोचकर वे ईसा के धर्म में चले गए. लेकिन यहाँ अपनी लड़कियों को उन्हें शराबी, नाकारा और असभ्य लोगों से ब्याहना पड़ा. पितृपक्ष मराठी ईसाइयों का था और उसे कुछ प्रतिष्ठा भी प्राप्त थी, लेकिन शादी-ब्याह के लिए उन्हें देश भर में घूम-घूम कर अपने स्तर के लोग खोजने पड़ते थे. ये लोग भी हर अपमान सहकर किसी अंग्रेजीभाषी मुल्क में बस जाना चाहते थे. पावो सावनूर की दिली इच्छा एक हिंदू लड़के से शादी करके हिंदू धर्म में वापस लौटने की है. यह ख्वाहिश सुरक्षा की नहीं, एक व्यर्थ का अलगाव तोड़ने की है.
मुसलमानों का जिक्र किताब में किसी न किसी संदर्भ से आता ही रहता है. अक्सर गहरी दोस्तियों से जुड़कर और कभी-कभी धार्मिक जड़ता को लेकर. इसमें 1965 के भारत-पाक युद्ध की पृष्ठभूमि भी दिखती है, जिसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा से जुड़े शिक्षक कॉलेज के मुस्लिम स्टाफ को लगातार संदेह के घेरे में रखते हैं. गरीब मुस्लिम परिवारों की बदहाली और चरम हताशा के किस्से यहाँ भरे पड़े हैं. युद्ध के तनाव में ही एक दिन जिद ठानकर चांगदेव पाटील अपने एक मुस्लिम शिक्षक दोस्त के यहाँ गोमांस खाने चला जाता है. यह उसके लिए आसान नहीं है, लेकिन अलगाव को हमेशा के लिए खत्म कर देने का इसके अलावा कोई रास्ता भी उसे नहीं सूझता.
श्रृंखला के अंतिम उपन्यास झूल में चांगदेव पाटील की मुलाकात प्रो. नामदेव भोले से होती है, जो सच्चे अर्थों में एक ऑर्गेनिक इंटेलेक्चुअल हैं. गड़रिया बिरादरी से निकले समाजशास्त्र के एक शिक्षक, जिनके पास जीवन की हर समस्या की एक मौलिक जमीनी समझ है और जो पूरी तरह एक सकर्मक व्यक्ति हैं. दलित समाज में भी उनकी गहरी पैठ है, हालांकि कुछ बिंदुओं पर दलित कार्यकर्ताओं से उनकी बहस चलती रहती है. एक जगह वे बताते हैं कि ब्राह्मणों में विधवाओं के बाल उतरवाने, केश-वपन की जो परंपरा है, उसके खिलाफ महात्मा फूले ने नाइयों की हड़ताल कराई थी. दलित कार्यकर्ताओं के इस आग्रह पर कि हिंदू कभी मनुष्यतावादी हो ही नहीं सकता, नामदेव भोले कहते हैं कि सत्यशोधक समाज भी हिंदू है, वारकरी और महानुभाव समुदाय के लोग भी हिंदू हैं, दक्षिण में ब्राह्मण वर्चस्व को सिरे से खारिज करने वाले भी हिंदू ही हैं. यानी कोशिश करके यहाँ गुंजाइश बनाई जा सकती है.
शायद यहाँ शुरू हुई बात के छूटे हुए धागों को जोड़ने के लिए ही लगभग तीस साल बाद भालचंद्र नेमाड़े को ‘हिंदू’ उपन्यास लिखना पड़ा. हिंदी पाठकों का आम जुड़ाव इस क्लासिक लेखक से हिंदू के जरिये ही हुआ. इसका केंद्रीय चरित्र खंडेराव भी अपनी पृष्ठभूमि में चांगदेव पाटील जैसा ही है लेकिन वह पचास और साठ के दशक का ही एक उभरता हुआ पुरातत्वशास्त्री है. इस कमाल की पुस्तक को चार खंड में लिखने का वादा नेमाड़े ने किया था, हालांकि एक खंड को ही पूरा उपन्यास मानकर मेरी राय इसके बारे में बन पाई है. इस किताब की सबसे कमाल बात यह लगी कि नेमाड़े बौद्ध धर्म को, खासकर डॉ. भीमराव आंबेडकर की पहल पर शुरू हुए नवयान को पूरी गंभीरता से लेते हैं. उनकी किताब का उपशीर्षक ‘जीने का समृद्ध कबाड़’ बताता है कि ‘हिंदुत्व’ के हल्ले से यह बहुत दूर है और ‘हिंदू’ यहाँ एक निरंतर बदलती रहने वाली, सर्वसमावेशी और सह-अस्तित्व में विश्वास रखने वाली धारणा है.
लगभग हजार पृष्ठ लंबे चांगदेव के किस्से के अंत पर आएँ तो इतनी लंबी लिखाई के निष्कर्ष जैसा इसमें कुछ नहीं है. श्रृंखला के चौथे उपन्यास ‘झूल’ में गुजरे एक-डेढ़ वर्षों में जिंदगी की कड़वाहट उसपर भारी पड़ने लगती है. अपनी नहीं, बाहर फैली जिंदगी की कड़वाहट. नौकरी में एडजस्ट करके चलना है, उसने तय कर लिया है. पढ़ाने के अलावा बहुत सारे फालतू काम जो उसने कभी नहीं किए, प्रिंसिपल का हुक्म मानकर वह सब करने लगता है. शायद इस ख्याल से कि जितनी सांसें बची हैं, इस झिकझिक में उन्हें क्यों गंवाना. लेकिन राजेश्वरी का साथ छूट जाने के बाद हमारा प्रेक्षक-नायक जब-तब कुछ ऐसे काम भी करने लगता है, जिनमें उसकी ‘मरणेच्छा’ जाहिर होती है.
वही मरणेच्छा, जिसका जिक्र ‘जिजीविषा’ के समानांतर एक उदास दार्शनिक धारणा की तरह पहली बार फ्रेंच-यहूदी दार्शनिक हेनरी बर्गसां के यहाँ आया था और हिंदी में अज्ञेय की कविताओं में जो कई बार प्रस्फुटित हुई. लेकिन चांगदेव के यहाँ यह मित्रों के साथ दौड़ते हुए एक पहाड़ी पर सबसे पहले चढ़ जाने जैसी उजड्ड हरकत में जाहिर होती है. इस क्रम में उसे दिल का तीसरा और फिर ‘पागल होने की संभावना वाला’ एक कुत्ता मारने की बर्बर और सुन्न-जेहन हरकत के बाद धारासार बारिश के बीच चौथा दौरा पड़ता है, जिसे देखते-सुनते हुए उसकी मौत होती है.
नई चुनौतियाँ
अरविंद अडिगा के अंग्रेजी उपन्यास ‘द वाइट टाइगर’ में किताब का मुख्य पात्र बलराम हलवाई भारत की यात्रा पर आ रहे चीनी प्रधानमंत्री वन च्यापाओ को एक लंबा पत्र लिखता है. सात खंडों में विभाजित यह पत्र ही पूरे उपन्यास की कथावस्तु है. किताब आए पांच साल भी न गुजरे थे कि खुद वन च्यापाओ चीन में ही रहते हुए पता नहीं कहाँ चले गए. 2008 में यह किताब आई, उसी साल इसे प्रतिष्ठित बुकर प्राइज मिला और इसके सात साल बाद 2015 की अपनी चीन यात्रा में अडिगा की उस पत्र वाली टेक्नीक से ही अनुप्राणित होकर मैंने अपने डिप्लोमेटिक गाइड ‘सुन’ से वन च्यापाओ के बारे में कुछ सरल प्रश्न पूछकर अनजाने में ही न केवल गाइड को बल्कि उसके मार्फत मेजबान चीनी हुकूमत को भी दुश्मन बना लिया. ऊपर दो उपन्यासों पर आधारित इतने लंबे लेख में ‘स्वतंत्र भारत की सभ्यता समीक्षा’ जैसा तो कुछ मुझसे हो नहीं पाया, लेकिन अडिगा के उपन्यास वाला पत्र ऐसे सवालों से बखूबी उलझता है.
इसके एक पैराग्राफ पर नजर डालें-
‘यह देश अपनी महानता के दिनों में, यानी तब जब यह दुनिया का सबसे अमीर मुल्क हुआ करता था, किसी चिड़ियाघर जैसा था. साफ-सुथरा, करीने से जमा एक व्यवस्थित चिड़ियाघर. तब सारे लोग यहाँ अपनी-अपनी जगह रहते थे और सभी खुश रहते थे.…और फिर दिल्ली के उन सारे नेताओं की मेहरबानी से पंद्रह अगस्त 1947 को- यानी जिस दिन अंग्रेज यहाँ से गए- सारे पिंजड़े खुल गए, जानवर बाहर निकल कर एक-दूसरे को चीरने-फाड़ने लगे और चिड़ियाघर के कानून की जगह यहाँ जंगल का कानून लागू हो गया.’
पूरा उपन्यास ग्लोबलाइज्ड दुनिया में ‘विश्वगुरु’ या अन्य मुहावरों से ऊंची दावेदारी ठोक रहे चमकीले भारत की तली में फैले अंधेरे की नक्शानवीसी जैसा है. बुद्ध की ज्ञानप्राप्ति वाले क्षेत्र, बिहार के गया जिले में भयानक गरीबी का सामना कर रहे एक हलवाई परिवार का तेज-तर्रार लड़का जिंदा रहने का जुगाड़ बनाने के लिए धनबाद में ड्राइवरी सीखता है, जो जाति-व्यवस्था के मुताबिक उसका काम नहीं है. कैसी-कैसी कोशिशों से अपने ही क्षेत्र के मूलनिवासी और ‘मिलेनियल सिटी’ गुड़गाँव के वासी एक ग्लोबट्रॉटर बिजनेसमैन का ड्राइवर बन जाता है. शोषण, अपमान और छल का लंबा दौर गुजारकर, बेरहमी से अपने मालिक की हत्या करके, उसके घर से उड़ाई गई मोटी रकम के दम पर अपने बे-चेहरा व्यक्तित्व के साथ बेंगलूरु में टैक्सियाँ चलवाने वाला उद्यमी बनने के बाद ही यह पत्र लिखा गया है.
अडिगा ने इसके बाद दो उपन्यास और लिखे लेकिन भारतीय अंग्रेजी साहित्य में उनकी स्थिति ‘वन बुक वंडर’ वाली ही बनी रही. चेतन भगत जैसी आसान और लाभप्रद राह उनके सामने थी, लेकिन यह बहुत अच्छी बात है कि बाद के दोनों उपन्यासों में भी वे अपने मुश्किल रास्ते पर बने रहे. दोनों उपन्यासों का बैकग्राउंड मुंबई को बनाया और ट्रीटमेंट डार्क ही रखा. एक में आम लोगों के इर्दगिर्द बन रही बिल्डरों की घेरेबंदी की खबर ली तो दूसरे में क्रिकेट के मायामृग का पीछा कर रही गरीब, पिछड़े समुदायों की मुक्ति-आकांक्षा की. लेकिन ‘द वाइट टाइगर’ में अपनी जहरबुझी सभ्यता-समीक्षा से जोड़कर जो ब्लैक ह्यूमर उन्होंने साधा था, इस काम के लिए जो खतरनाक भाषा ईजाद की थी, वह उनका आगे बढ़ना मुश्किल कर देने के लिए काफी थी. खैर, यहाँ मैं गलत दिशा में जा रहा हूं.
मेरी बात अरविंद अडिगा और उनके साहित्य पर नहीं, पचास साल पुराने हिंदी और मराठी के दो उपन्यासों पर ही चल रही है. वाइट टाइगर और अडिगा की भूमिका इस विषय में सिर्फ वर्तमान और अतीत, दोनों तरफ खुलने वाले एक दोतरफा दरवाजे जितनी बनती है. भारतीय सभ्यता का जो कटु यथार्थ वे बहुत साफ ढंग से देख पाए हैं, उसको देखने की शुरुआत ‘राग दरबारी’ और ‘चांगदेव चतुष्टय’ में हो चुकी थी. कितनी? इसका जायजा ऊपर लिया गया है.
आलोचना, विश्लेषण, या कुछ और
कोई चालीस साल पहले की बात है, कहानीकार शैलेश मटियानी से बातचीत में एक जगह धूमिल की कोई कविता मैंने उद्धृत की तो उन्होंने कहा, ‘धूमिल कोई पैगंबर है क्या?’ उनके इस सवाल से पहली बार मेरे मन में खटका हुआ कि किसी रचना में आई एक बहुत अच्छी पंक्ति को इस आधार पर भी कमतर कहकर खारिज किया जा सकता है कि उसे पढ़ने या सुनने वाला व्यक्ति उसको लिखने वाले के ही कद का, या उससे ज्यादा वरिष्ठ है.
साहित्य को अपने विश्वास के दायरे में सामान्य जगत व्यवहार से थोड़ा ऊपर मानना मेरी समस्या है. सीनियॉरिटी-जूनिऑरिटी को ज्यादा तवज्जोह देना यहाँ मेरे बूते से बाहर ही रहा है. चिड़ियाघर का कानून टूटने और जंगल का कानून शुरू हो जाने वाली अडिगा की यह बात मुझे हमेशा हॉन्ट करती रही है. न जाने कब से भारतीय जीवन कुछ जन्म-आधारित खांचों में ही बंटा चला आ रहा है, सो एक तरह से यह किसी आदिम सच्चाई में लौट जाने जैसा है.
हाल में दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रतिष्ठित अध्यापक का लंबा वीडियो इंटरव्यू चर्चा में रहा, जिसमें उन्होंने आलोचना को ‘धर्म’ और विश्लेषण को ‘अध्यात्म’ बताते हुए खुद को आलोचक के बजाय विश्लेषक कहा था. उनका कहना था कि आलोचना किसी रचना का पूर्व निर्धारित पाठ बनाती है और पाठक को भी उसी दिशा में ठेलती है.
हमारे समाज में आलोचनात्मक दृष्टि ही इतनी दुर्लभ है कि आलोचना यहाँ कोई सर्वप्रिय धारणा नहीं हो सकती. अतीत में हिंदी साहित्य के कुछ चर्चित शिक्षक स्वयं को आलोचक की जगह ‘टीकाकार’ कहना बेहतर समझते थे लेकिन आलोचना को वैचारिक खेमेबंदी का औजार बताने वाला यह खेमा भी औरों जितना ही आक्रामक रहा है. रचना को सामाजिक समझ के एक स्रोत की तरह देखने वाली सोच को गलत बताते हुए वह पाठ को केवल पाठ की शर्तों पर ही पढ़ने की वकालत करता है. उसका सिद्धांत है कि ‘साहित्य का रसास्वादन करने के बजाय आपको समाजशास्त्र ही पढ़ना है तो इसके लिए तथ्यों और आंकड़ों की खोजबीन करें, कविता और उपन्यास को बख्श दें.’
हमारा दुर्भाग्य कि छोटी-छोटी चीजों को लेकर समाज का रवैया जानने, उसमें आ रहे बदलावों को समझने और इस दौरान उसके स्थिर पहलुओं पर भी नजर रखने का साहित्य से बेहतर और कोई तरीका अबतक ईजाद नहीं किया जा सका है. और ये सारे काम सिर्फ शोधार्थियों के लिए जरूरी नहीं होते. कभी सपने में भी अकेडमिक्स की ओर न झांकने वालों के लिए भी इनके कुछ मायने होते हैं. मसलन, क्या आप यह गुत्थी नहीं सुलझाना चाहते कि महज पंद्रह-सत्रह साल पहले पैदा हुए सोशल मीडिया में जाति, धर्म और लिंग को लेकर इतना जहर क्यों दिखाई देता है?
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता’ का नारा हजार साल से लगाते आ रहे इस समाज में छोटी-छोटी बच्चियों से बलात्कार के वीडियो हॉटकेक की तरह क्यों बिकने लगते हैं? ऐसे ही अनुभव से गुजरने के बाद मार दी गई एक बच्ची के हत्यारों के पक्ष में धार्मिक-राजनीतिक जुलूस क्यों निकलने लगते हैं? खेलकूद से लेकर सेना तक में जाति आधारित भेदभाव जब-तब इतने तीखे ढंग से चर्चा में क्यों आ जाता है? दोस्ती के भरोसे पर साथ-साथ किसी अंधी गली में चले आए एक परदेसी आदमी को फावड़े से काटकर वहीं के वहीं जला देने वाला वीडियो चर्चा में आ जाने के बाद हत्यारे के पक्ष में चंदा जुटाने, फ्री में उसका मुकदमा लड़ने की ऐसी मारामारी क्यों दिखाई देने लगती है?
ऐसी बातें क्या सिर्फ एक छोटे हाशिये तक, फ्रिंज एलीमेंट्स तक ही सिमटी हुई हैं? इन हत्यारी प्रवृत्तियों का फैलाव कहाँ तक है? यह कहाँ से आया है? कैसे आया? कब से है? हमेशा से चला आ रहा है, या हाल में पैदा हुआ है? तथ्यों और आंकड़ों से इन सवालों का जवाब खोजने की कोशिश हमें बहुत मजबूत नतीजों तक नहीं ले जा सकती. मंटो का ‘टोबा टेक सिंह’ या मोहन राकेश का ‘मलबे का मालिक’ इस रास्ते के लिए कहीं बेहतर गाइड साबित होंगे. सिर्फ ‘काव्य-शास्त्र-विनोद’ के लिए या किसी इम्तहान का पर्चा लिखने के लिए नहीं, अपने समाज, अपने लोगों के मन का हर रग-रेशा ठीक से, नए सिरे से समझने के लिए भी साहित्य पढ़ा जाए, ऐसी एक कोशिश यहाँ की गई है.
चंद्रभूषण (जन्म: 18 मई 1964) शुरुआती पढ़ाई आजमगढ़ में, ऊंची पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय में. विशेष रुचि- सभ्यता-संस्कृति और विज्ञान-पर्यावरण. सहज आकर्षण- खेल और गणित. 12 साल पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहकर प्रोफेशनल पत्रकारिता. अंतिम ठिकाना नवभारत टाइम्स. ‘तुम्हारा नाम क्या है तिब्बत’ (यात्रा-राजनय-इतिहास) और ‘पच्छूं का घर’ (संस्मरणात्मक उपन्यास) से पहले दो कविता संग्रह ‘इतनी रात गए’ और ‘आता रहूँगा तुम्हारे पास’ प्रकाशित. इक्कीसवीं सदी में विज्ञान का ढांचा निर्धारित करने वाली खोजों पर केंद्रित किताब ‘नई सदी में विज्ञान : भविष्य की खिड़कियां’, पर्यावरण चिंताओं को संबोधित किताब ‘कैसे जाएगा धरती का बुखार’, भारत से बौद्ध धर्म की विदाई से जुड़ी ऐतिहासिक जटिलताओं को लेकर ‘भारत से कैसे गया बुद्ध का धर्म’ आदि पुस्तकें प्रकाशित. patrakarcb@gmail.com |
यह निबंध की ताक़त है कि कई हज़ार शब्द पढ़ने के बाद भी और पढ़ने की तलब हो रही है। अंत में तेज़ी से समेटा गया लगता है।
बहुत अर्सा बाद पढा गया एक बेहतरीन आलोचनात्मक लेख। आलोचना है कि विश्लेषण, इस पर जिसे सिर खपाना हो, खपाए! मुद्दों पर कुछ बातें कहना चाहता हूं, पर वह जल्दी में नहीं हो पायेगा।
आलोचना के संपादकीय में कुछ शुरू तो किया था आपने। सिलसिला आगे बढ़े तो बात बने।
मैंने भी चारों उपन्यास का यह सेट खरीदा है। शुरूआती दो पढ़ने में ही पूरी कसरत करनी पड़ी। तीसरी कड़ी जरीला तक आते यह यकीं हो गया कि यह साहित्यिक रूचि वालेअंग्रजी के एक प्राध्यापक का आत्मकथात्मक उपन्यास है। बहुत ही स्थूल विवरणों और रोजमर्रा की डायरी की तरह के विवरणों से भरा। चूंकि ‘हिन्दू’ पढ़ने का नशा अबतक हावी है, और अब इस लेख को पढ़ने के बाद तो पूरा सेट पढ़ना जरूरी है। फिर भी रागदरबारी में जो fragrance है, भाषाई चपलता और चरित्रों पर जो पकड़ है, उसकी जगह यहां सपाट इतिवृत्तात्मकता की प्रधानता दिखती है।
पढ़ चुका। बेहतरीन लेख। चंद्रभूषण जी और आपको हार्दिक बधाई। हिंदी में ऐसे लेख विरल हैं और समालोचन सरीखी दैनिक डिजिटल पत्रिका भी।
बिना अपठनीय विद्वत्ता के बोझ के, विशद और गहन, तुलनात्मक नहीं, समानांतर पाठ. नेमाड़े साहित्य में दिलचस्पी और बढ़ाने वाला यादगार लेख.
महत्वपूर्ण आलेख । तुलनात्मक विश्लेषण की पद्धति इन दिनों आलोचना से ग़ायब होती जा रही है, जबकि तुलना के जरिए न केवल भाषागत और क्षेत्रगत बैरियर तोड़कर महत्वपूर्ण कृतियां सामने आतीं हैं, और समय के भीतर खदबदाते ज्वलंत सवालों पर समग्र दृष्टि से विचार की समझ को भी प्रगाढ़ करती हैं, वरन् समान सरोकारों के बावजूद दो भिन्न रचनाकारों के वैचारिक-संवेदनात्मक-कलात्मक वैशिष्ट्य को भी स्पष्ट करती हैं। हांलाकि आलेख में दोनों कृतियों को आमने-सामने रख कर एक-दूसरे के संदर्भ में नहीं परखा गया है, फिर भी तुलनात्मक आलोचना की शुरुआत तो की ही गई है। भालचंद्र नेमाड़े “हिंदू : जीने का समृद्ध कबाड़‘ की वजह ले हिंदीभाषियों में लोकप्रिय हैं। श्रीलाल शुक्ल के ‘राग दरबारी‘ के संदर्भ में उनकी एक और कृति ‘चांगदेव चतुष्टय‘ के वैचारिक संवेदन को जानना निश्चित ही समृद्ध करता है। चंद्रभूषण जी और समालोचन को साधुवाद।
इस आलेख का आरंभ कोसला पर चर्चा से होना चाहिए था ।
padhane ke bad kitna kuch naya samjh aaya. Thanks