मेरे बिरजू महाराजके. मंजरी श्रीवास्तव |
वह २००४ के अप्रैल की कोई शाम रही होगी जब मैंने दिल्ली के कमानी ऑडिटोरियम के मंच पर नीली रोशनियों के सैलाब में सफ़ेद लिबासों में कुछ जलपरियों को उड़ते देखा था. मेरा मन भी उन जलपरियों के साथ हवा में उड़ रहा था. मुझे एक पल को ऐसा लगा था कि ऑडिटोरियम में और कोई नहीं है, सारे दर्शक गायब हो चुके हैं, अकेली मैं ही हूँ वहां और उन जलपरियों के साथ मेरा मन भी झूम रहा था, नृत्य कर रहा था जबकि उस समय नृत्य का ‘न’ भी मुझे मुश्किल से समझ में आता था. ऐसा लग रहा था कि जैसा फिल्मों में होता है हो रहा था हूबहू या फिर मैं किसी परीलोक की सैर पर थी. मुझे अपनी आँखों पर यक़ीन ही नहीं हो रहा था. कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद पता चला कि यह कथक आधारित कोई कार्यक्रम था. मैं सोच रही थी कि किसी शास्त्रीय नृत्य को इतनी ख़ूबसूरती से कैसे प्रस्तुत किया जा सकता है कि दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाएँ. समझ में नहीं आ रहा था कि यह कमाल कोई कैसे कर सकता है. मौका था किसी बांग्ला कवि की कविताओं पर कथक आधारित नृत्य प्रस्तुति का. और अंत में जब इस नृत्य संरचना के कोरियोग्राफ़र का नाम अनाउंस हुआ तो मुझे अपने पापा (स्वर्गीय विजय कुमार श्रीवास्तव) की बात याद आ गई कि पंडित बिरजू महाराज कमाल करते हैं.
यह नृत्य संरचना थी पंडित बिरजू महाराज की और होश में यह पंडित बिरजू महाराज से मेरा पहला परिचय था जिनकी कोरियोग्राफ़ी देखकर मैं मदहोश हो चुकी थी कुछ मिनट पहले. हालांकि इससे पहले जब मैं क्लास ८ में थी तो एक बार पंडित बिरजू महाराज को बरौनी थर्मल पावर स्टेशन में दुर्गापूजा के दौरान मंच पर नृत्य करते देख चुकी थी पर तब उन्होंने शुद्ध शास्त्रीय कथक की प्रस्तुति दी थी और तब मेरे बाल मन को समझ में नहीं आया था कि वो कर क्या रहे हैं और मंच पर हो क्या रहा है पर ये महसूस हो रहा था कि ये जो भी मैं देख या महसूस कर रही हूँ वह कुछ तो बहुत अच्छा हो रहा है. उस प्रोग्राम में पापा भी साथ थे और मेरे पापा बहुत रसिक और कलाप्रेमी थे. वो महाराजजी की हर अदा पर वाह-वाह और कमाल कहकर उनकी तारीफ़ कर रहे थे लेकिन तब मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि वह कमाल की चीज़ है क्या इनके डांस में ?
फिर दूरदर्शन पर भी कई बार पंडित बिरजू महाराज को देखा नृत्य के अखिल भारतीय कार्यक्रम में पर वो कमाल कैसे करते हैं वो अबतक समझ नहीं आ रहा था. लेकिन २००४ में जिस दिन मैंने कविताओं पर आधारित यह प्रस्तुति देखी उस दिन समझ में आ गया कि वह कमाल क्या था और महाराज जी वह कमाल कैसे करते थे और तब पापा की बात मेरे पल्ले पड़ी और मैंने पापा को उस रात फ़ोन करके कहा था कि पापा सचमुच पंडित बिरजू महाराज कमाल करते हैं आप सही कहा करते थे.
महाराज जी की उस कोरियोग्राफी में नर्तकियों का वस्त्र विन्यास इंडो वेस्टर्न का फ्यूज़न था और उनकी केश सज़्ज़ा में इंडो यूरोपियन टच था. नीली रौशनी में सफ़ेद पोशाकों में और बालों में सफ़ेद लिली के फूल लगाए मंच पर थिरकती नर्तकियां जैसे मुझे किसी परीलोक या स्वप्नलोक की सैर पर ले गईं थी कुछ क्षणों के लिए.
महाराज जी की उस कोरियोग्राफी को देखने के बाद कई दिनों तक मुझे नींद नहीं आई थी या नींद जब कभी आई भी तो सपने में वही जलपरियां दिखाई देतीं थीं. आज भी उनकी वह कोरियोग्राफी मेरे दिलोदिमाग़, मेरे ज़ेहन में तरोताज़ा है. मुझे पहली बार यह समझ में आया कि कथक को आधुनिक युग और नयी पीढ़ी के लिए उसकी शास्त्रीयता को बरक़रार रखते हुए उसे ग्राह्य कैसे बनाया जा सकता है. वह कोरियोग्राफ़ी इतनी सुन्दर थी कि उसके आगे किसी फिल्म की कोरियोग्राफी भी शायद ही टिके. उसी दिन मैंने सोचा था कि मुझे भी ऐसे ही प्रोडक्शंस बनाने हैं और मेरे दिमाग़ में यह विचार इसलिए कौंधा क्योंकि डायरेक्टर तो मैं पैदाइशी हूँ और मेरी छोटी बहन पंखुड़ी श्रीवास्तव उन दिनों दिल्ली के कथक केंद्र में पंडित शम्भू महाराज जी के ज्येष्ठ पुत्र श्री कृष्ण मोहन मिश्रा जी से कथक की विधिवत तालीम ले रही थीं. उसी क्षण मैंने यह सोचा कि भविष्य में कविताओं और नृत्य को लेकर मुझे कुछ ऐसे ही प्रयोग करने हैं और नृत्य का डिपार्टमेंट संभालने के लिए मेरी पंखुड़ी तैयार हो रही थीं. और हाँ, महाराज जी की यह कोरियोग्राफी देखने का मौका मुझे मेरी बहन पंखुड़ी के ही सौजन्य से मिला था.
इसके कुछ दिनों बाद ही मुझे मौक़ा मिला महाराज जी का एक और अद्भुत शाहकार देखने का और वह था दुनिया की अमर प्रेम कहानी ‘रोमियो जूलियट’. रोमियो जूलिएट देखने के बाद महाराजजी से मेरा परिचय और प्रगाढ़ हो गया. यह कोरियोग्राफी भी पंखुड़ी की वजह से ही मैं देख पाई थी. पर २००४-०५ में रोमियो जूलिएट देखते समय मैंने ये नहीं सोचा था कि बरसों बाद एक दिन ज़िन्दगी मुझे मौक़ा देगी रोमियो जूलिएट पर महाराजजी से बात करने का. मैं आभारी हूँ ज़िन्दगी की कि उसने मुझे यह मौक़ा दिया भारत में हुए आठवें थिएटर ओलंपिक्स के दौरान. हालांकि इसके कुछ वर्ष पूर्व भारत रंग महोत्सव में लिविंग लीजेंड श्रृंखला के तहत मुझे महाराज जी को सुनने और उनसे संवाद करने का एक छोटा सा मौक़ा मिला था.
संवाद के बाद जब महाराजजी एनएसडी के बहुमुख सभागार से बहार निकले तो में उन्हें प्रणाम किया. उन्होंने प्रणाम का जवाब तो दिया ही और छूटते ही कहा कि- ‘ हम तुमको जानते हैं पर याद नहीं आ रहा कि तुम कौन हो और तुमसे कहाँ मिले हैं.’ (इस समय तक महाराज जी से कई कार्यक्रमों में मेरी मुलाक़ात पंखुड़ी और उनके गुरुजी पंडित कृष्ण मोहन मिश्रा जी के सौजन्य से हो चुकी थी.) मेरी तो ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा कि चलो महाराजजी को मेरा नाम भले न याद हो पर मेरी शक्ल तो याद है. मैंने बहुत विनम्रतापूर्वक कहा –
‘महाराजजी मेरा सौभाग्य कि आप मुझे जानते हैं, आपने मुझे याद रखा है जिसे पूरा विश्व जानता है.’ तब महाराजजी ने जो कहा वह आज भी मेरी पलकों के कोरों को नम कर जाता है.
उन्होंने कहा कि ‘देखो मैं भगवान कृष्ण का भक्त हूँ और जैसे भगवान अपने किसी भक्त को नहीं भूलते वैसे ही मैं भी अपने किसी भी चाहनेवाले को नहीं भूलता. तुम बच्चों में मैं खुद को देखता हूँ. ‘
इसके बाद मैं महाराजजी की फैन हो गई. फिर महाराजजी एनएसडी के विद्यार्थियों की टोली से घिर गए. उसी समय उनके साथ कोई महाशय थे जो शायद उनके पीए की भूमिका में थे या उनकी सुरक्षा के लिए नियुक्त किये गए थे उन्होंने बच्चों की भीड़ को हटाते हुए महाराज जी को आगे की और निकाला और उनसे धीरे से इतना ही कहा कि – ‘महाराजजी आप पद्मविभूषण हैं’. (उनके कहने का आशय था कि महाराजजी आप पद्मविभूषण हैं तो सबसे क्यों बात कर रहे हैं या सबके लिए क्यों आसानी से उपलब्ध हैं) महाराजजी उनका आशय ताड़ गये और छूटते ही बोले कि – ‘पद्मविभूषण हैं तो क्या लोगों से बात करना बंद कर दें’. इस बात पर हम सब बच्चों की हंसी छूट गई. पर उनकी इस बात से पता चला कि वे कितने सहज हैं. आज महाराज जी सशरीर हमारे साथ नहीं हैं पर उनकी यह सहजता आज भी मेरे मन मस्तिष्क पर अंकित है.
खैर, तो मैं बात कर रही थी महाराज जी की एक और अद्भुत कोरियोग्राफी रोमियो जूलिएट की. 8वें थिएटर ओलंपिक्स का यह बहुप्रतीक्षित नाटक था. 14 मार्च को दिल्ली के कमानी सभागार में इस भव्य नाटक की प्रस्तुति की गई. निस्संदेह थिएटर ओलंपिक्स में प्रदर्शित किए गए दस बेहतरीन नाटकों में से एक था रोमियो और जूलिएट.
मैं रोमियो जूलिएट दूसरी बार देख रही थी लेकिन बरसों पहले देखे जाने के बावजूद मेरे मानस पटल पर यह नृत्य नाटिका ज्यों के त्यों अंकित थी. मेरे लिए यह सुनहरा मौक़ा था रोमियो जूलिएट पर महाराज जी से बात करने का क्योंकि एनएसडी भारत रंग महोत्सव के दौरान एक कार्यक्रम आयोजित करता है ‘मीट द डायरेक्टर’ जिसमें नाट्य प्रस्तुति के अगले दिन नाटक के निर्देशक से बात करने के लिए हम नाट्य/कला समीक्षकों को आमंत्रित किया जाता है. थिएटर ओलंपिक्स के दौरान भी ‘मीट द डायरेक्टर’ कार्यक्रम रोज़ आयोजित किया जा रहा था और उस कार्यक्रम में मैं शिरकत कर रही थी. ‘मीट द डायरेक्टर’ की प्रोग्राम हेड थी मशहूर रंगकर्मी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की प्राध्यापक सुश्री हेमा सिंह जिन्हे मैं हेमा दीदी कहती हूँ. मैंने हेमा दीदी को बताया कि जब रोमियो जूलिएट का प्रीमियर हुआ था तब मैंने यह नाटक देखा था और थिएटर ओलंपिक्स में दुबारा देखूँगी और उनसे विशेष अनुरोध किया कि ‘मीट द डायरेक्टर’ में मुझे पंडित बिरजू महाराज से बात करने का मौक़ा दिया जाए. हेमा दीदी ने मेरा अनुरोध स्वीकार किया और मुझे महाराजजी से रोमियो जूलिएट पर बात करने का मौका दिया जिसके लिए मैं हेमा दीदी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की हमेशा आभारी रहूंगी.
रोमियो जूलिएट एक नृत्य नाटिका है. नाटक शुरू होते ही प्रथम दृश्य एक अति सुन्दर नाट्यात्मक दृश्यावली के रूप में एक शहर की तरह हमारे सामने खुलता है जिस शहर में हर्षोल्लास है और अन्य निवासियों के साथ हैं रोमियो-जूलिएट भी. इस अद्भुत शहर के निर्माता अर्थात सेट डिज़ाइनर या रूप सज्जाकार हैं अनूप गिरि. कमाल का सेट, कमाल का शहर और शहर के दरवाज़े, महल के अद्भुत नक्काशीदार ऐसे खम्भे कि आपका मुंह खुला का खुला रह जाएगा. पूरा नाटक इसी शहर के भीतर खेला जाता है जो कि उत्तर भारत की शास्त्रीय नृत्य शैली कथक पर आधारित है पर नृत्य आधारित होने के बावजूद इसमें नाटकीय तत्वों को इस कुशलता से बचाकर रखा गया है कि आप पंडित बिरजू महाराज के मुरीद हुए बिना रह ही नहीं सकते.
संकल्पना और नृत्य परिकल्पना के लिए पंडित जी की वरिष्ठ शिष्या और प्रसिद्द कथक नृत्यांगना शाश्वती सेन की जितनी भी तारीफ की जाए कम है. विलियम शेक्सपीयर की इस महान रचना को नृत्य शैली में ढालना एक दुस्साहस भरा कार्य है और इसे नृत्य शैली में ढालकर निस्संदेह शाश्वती सेन ने एक यादगार काम किया है. संगीत पंडित बिरजू महाराज और लुईस बैंक्स ने तैयार किया है.
पूरा नाटक तिश्र और चतुश्र शैली पर आधारित पाश्चात्य और हिन्दुस्तानी संगीत एवं नृत्य का अद्भुत संगम था. भाव-भंगिमाओं और अभिनय आधारित इस नाटक में पल-प्रतिपल बदलते श्रृंगार, करूण, हास्य, वीर इत्यादि रसों का समायोजन इस प्रकार किया गया था कि एक-दूसरे से विपरीत होते हुए भी वे एक-दूसरे के पूरक ही लग रहे थे और पूरी नृत्य-नाटिका को सार्थकता प्रदान कर रहे थे. कथक शैली पर आधारित इस नृत्य-नाटिका में जहाँ नाट्याभिव्यक्ति के लिए बगैर किसी संवाद के सशक्त अभिनय था वहीँ कथक की शब्दावली (टुकड़े, तिहाई, लड़ी, विभिन्न जातियों में छंद) के सुघड़ प्रयोग द्वारा इसे संगीतमय और ख़ूबसूरत बनाया गया था. नृत्य संरचना में कथक के सीधे और रूसी बैले के उलटे चक्करों का इस कुशलता से समायोजन किया गया था और नर्तक-नर्तकियों ने भी उसी कुशलता से नृत्य किया कि अगर आप ध्यान से न देखें तो आपको पता भी न चले कि कब पलक झपकते ही चक्कर बदल गए. नृत्य संरचना में एक विशेष बात यह दिखी कि कथक के टुकड़े और तिहाई को बड़ी ही कुशलता के साथ रूसी बैले नृत्य और बॉल रूम नृत्य शैली पर आधारित किया गया था. दरअसल यह नृत्य और नाटक की एक संतुलित प्रस्तुति थी. इस नाटक को देखने पर यह एहसास हुआ कि निस्संदेह नाटक गायन, वादन एवं नृत्य का सम्मिलित रूप है और एक नाटक को संगीत-नृत्यमय होना ही चाहिए.
रोमियो-जूलिएट के बारे में बतौर निर्देशक पंडित बिरजू महाराज का कहना है कि –
“रोमियो-जूलिएट असंख्य बार देखने पर इतना प्रभावित हुआ कि मैं इसे कथक के बहुमुखी शक्तिशाली टुकड़ों में ढालना चाहता था, जिसकी नृत्य परिकल्पना बैले फॉर्म में बिना शब्दों के की. इस पर कार्य करते हुए हमने प्रसिद्द बैले कलाकारों जैसे कि मर्गोट फोंटेने, नुरेयेव, अल्लेसंद्रा फेर्री एवं अन्य कई कलाकारों की गतियों, मुद्राओं और पैटर्न का विश्लेषण किया और पाया कि वे कथक से काफ़ी मिलते जुलते हैं. जूलिएट का किरदार जो उनमें से कुछ ने किया था, ने मुझे हमेशा दहला दिया है. मैंने इस सशक्त किरदार को करने का सपना देखा है.”
जूलिएट की भूमिका में इस नाटक की नृत्य संरचनाकार शाश्वती सेन स्वयं हैं और रोमियो की भूमिका में दीपक महाराज. दीपक महाराज आज भी रोमियो के रूप में उसी फ़ॉर्म में दीखते हैं जिस फॉर्म में वे बरसों पहले दिखे थे जब दस-बारह बरस पहले दिल्ली के इसी कमानी ऑडिटोरियम में रोमियो-जूलिएट का प्रीमियर हुआ था और जूलियट बनी शाश्वती सेन तो लाजवाब हैं ही. उनके नृत्य से उनकी उम्र का आप अंदाज़ा नहीं लगा सकते. साथ ही, जूलिएट की माँ की भूमिका में ममता महाराज ने अपने चिर-परिचित ग्रेसफुल नर्तकी के अंदाज़ में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई जबकि उनके हिस्से छोटी-सी भूमिका आई थी.
कथक के वरिष्ठ गुरु पंडित कृष्ण मोहन मिश्रा जो कथक में अपने पदचापों/ पाद-संचालन (फुटवर्क) और चक्करों के लिए प्रसिद्द हैं उनके लिए जूलिएट के पिता का लगभग मौन किरदार निभाना बहुत मुश्किल और चुनौतीभरा था लेकिन उन्होंने उस किरदार में अपनी ख़ामोशी से जान डाल दी है. रोमियो-जूलिएट में उनकी यह छोटी-सी मौन भूमिका इस बात का प्रमाण है कि कृष्ण मोहन जी अगर फुटवर्क और चक्करों के लिए प्रसिद्ध हैं तो अभिनय में भी वे सिद्धहस्त हैं. पंडित बिरजू महाराज की कला-संस्था कलाश्रम (जिसकी यह प्रस्तुति थी) की पूरी टीम की ऊर्जा लाजवाब थी.
वस्तुतः यह पंडित बिरजू महाराज के रोमियो-जूलिएट थे पर अगर शेक्सपीयर इस प्रस्तुति को देख पाते तो शायद उनके मुंह से अनायास ही निकल पड़ता कि वाह यही रोमियो-जूलिएट तो रचा था मैंने.
पंडित बिरजू महाराज के रोमियो- जूलिएट को आपने नहीं देखा तो क्या देखा. रोमियो जूलिएट देखने के कुछ सालों बाद जब मैंने अपनी कविता ‘एक बार फिर नाचो न इज़ाडोरा’ और ‘डांस ऑफ़ डेथ’ की रचना की और जब बाद में उन कविताओं के मंचन का ख़्याल ज़ेहन में आया तो मेरी नज़र के सामने महाराज जी का रोमियो-जूलिएट था. अगर कभी मैंने विधिवत बतौर नाट्य निर्देशक अपनी पारी शुरू की तो महाराज जी जैसा बैले (नृत्य-नाटिका) करने का प्रयास करूंगी. महाराजजी के जितने भी बैले मैंने देखे उनमे संवाद नहीं होते थे पर वह प्रस्तुति इतनी संगीतमय और नृत्यमय होती थी कि आम जनता के दिल में उतर जाए. महाराजजी के प्रोडक्शंस को देखने, जानने और समझने के लिए आपका नाट्य विशेषज्ञ होना ज़रूरी नहीं. उनकी प्रस्तुतियां जितनी विशेषज्ञों के लिए होती थीं उतनी ही आम जनता के लिए और यही बात उन्हें ख़ास बनाती थी. वे क्लास के भी महाराज जी थे और मास के भी. और दोनों वर्गों को वे उतने ही अपने लगे जिस वजह से वे व्यापक स्तर पर विश्वविख्यात भी हुए.
मैं कथक नृत्यांगना नहीं हूँ और न ही महाराज जी की शिष्या पर उनके साथ की इतनी यादें हैं कि लिखने बैठूं तो शब्द कम पड़ जाएँ या यादों का एक ग्रन्थ ही तैयार हो जाए. मुझ जैसे एक आम कलाप्रेमी, अपने एक प्रशंसक, एक दर्शक को उन्होंने जितना सहज भाव से अपना प्रेम और आशीष दिया मेरे लिए वह जीवन भर की थाती है. मैं बस इतना ही कहना चाहती हूँ कि मैं उन चंद खुशनसीबों में से हूँ जिन्होंने महाराज जी को देखा है, सुना है, उनके साथ वक़्त बिताया है. मैं अपनी आनेवाली पीढ़ियों को फ़ख्र से बता पाऊंगी कि मैंने पंडित बिरजू महाराज को देखा है.
आभार : इस आलेख में रोमियो जूलिएट के तकनीकी और समीक्षात्मक पहलुओं का विवेचन करने में मेरी छोटी बहन और मशहूर युवा कथक नृत्यांगना सुश्री पंखुड़ी श्रीवास्तव ने मेरा बहुत सहयोग किया है जिसके लिए मैं तहेदिल से उनकी आभारी हूँ.
-के. मंजरी श्रीवास्तव
नाटकों पर नियमित लेखन, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से जुड़ाव, प्रसिद्ध नाटककार रतन थियाम पर शोध कार्य. सभी पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, लेख आदि प्रकाशित.manj.sriv@gmail.com |
बहुत शानदार और आत्मीय संस्मरण। खासकर शास्त्रीय नृत्य के फॉर्म में कविता या नाटक की प्रस्तुति के तकनीकी,अभिनयात्मक पक्षों की इतनी बारीक और गहन समीक्षा चकित करती है। यह आलेख एक पाठक,श्रोता और दर्शक के रूप में कथक नृत्य की समझ और सराहना की हमारी दृष्टि को और विकसित और पल्लवित करती है। मंजरी को बहुत बहुत बधाई।
बिरजू महाराज के द्वारा निर्देशित रोमियो जूलियट के माध्यम से आपने बिरजू महाराज का आत्मीय संस्मरण उपस्थित कर दिया है। इससे उनके अनोखे व्यक्तित्व के अनेक पहलुओं को समझने का अवसर मिला। मंजरी जी आपका बहुत-बहुत आभार और समालोचन को धन्यवाद। – हरिमोहन शर्मा
संस्मरण और प्रस्तुतियों को मिलाकर मंजरी ने बढ़िया भावांजलि दी है बिरजू महाराज को। बधाई
वाह, बहुत सुंदर समालोचन, मंजरी जी को बधाई।
डॉ किशोर सिन्हा, वरिष्ठ साहित्यकार