मृदुला गर्ग |
१. आहोपुरुषिका / वागीश शुक्ल
क्या यह संभव है कि एक ही पुस्तक में प्रेम रस से आप्लावित काव्य और उस पर गहन अध्ययन व ज्ञान से सज्जित टीका,दोनों मिलें. काव्य आहोपुरुषिका हो और लेखक वागीश शुक्ल, तो है. इस अद्वितीय पुस्तक के एक तिहाई भाग में पत्नी के वियोग में लिखी झंझावाती विषाद की कविताएँ हैं. मेघदूतम के सिवा, पत्नी प्रेम और वियोग में इतना आकुल आवेदन नहीं मिलेगा कि कवि खुद, कविता को झंझा का नाम दे. अद्भुत यह कि अन्य अनेक भाषाओं की उदात्त कविताओं की मीमांसा भी साथ चले. कवि कहता है, शब्द के रूप में ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त है. जब सृष्टि हो जाती है तो वह प्राणियों के देह में अर्थ के रूप में विस्तृत हो जाता है. बाकी दो तिहाई भाग में भारतीय विवाह सूक्त का शास्त्र सम्मत विवेचन है, जिसमें निर्धारित कर्मकांड के साथ उदारता का समावेश इतना सघन है और आम व्यक्ति के लिए अनजाना भी कि वह लगभग हतप्रभ कर देता है. लिव इन पद्धति भी मान्य बतलाई गई है, बशर्ते वह लोकाचार का हिस्सा बन चुकी हो.
2. गूंगी रुलाई का कोरस / रणेंद्र
आज के समय में धर्मों और सम्प्रदायों के बीच फैलाई गई नफरत और प्रायोजित हिंसा की यह ऐसी थरथराने वाली गाथा है, कि कई रात सपने में दिखती रही. आज की इस सत्य कथा को कहने के लिए साहस की जरूरत पड़ती है, इसी से जाहिर है कि हम कितने नीचे गर्त में जा गिरे हैं. पर रुकिए, उसके पासंग उतनी ही शिद्दत से उकेरा गया है, हमारी संगीत परंपरा का साझा इतिहास. शास्त्रीय व बाऊल संगीत के बीच का आवागमन और आपसी सद्भाव. आज के कट्टरपंथियों के निशाने वही साझा संस्कृति आती है. और वह अनेक पीढ़ियों के आला संगीतकारों को हलाल करके रहता है. लिहाजा रुलाई केवल लेखक को नहीं आती, संवेदी पाठक को भी आती है.
3. गंध गाथा / मृणाल पांडे
किसी भी कोण से देखें, कथ्य, शिल्प, भाषा, वैचारिकी या रस की उत्पत्ति, इस संग्रह में वैविध्य के साथ सबकुछ अद्वितीय है. सत्य का आकलन है, लालित्य है, शृंगार और व्यंग्य के साथ भयानक और वीभत्स रस भी मौजूद है. मानवीयता के प्रति लेखक का सरोकार गहन है और मेरे लिए वह लेखन की पहली शर्त है.
4. जब तक मैं बाहर आई / गगन गिल
दुख ही बुद्ध है, दुख ही ब्रह्म, दुख आराध्य है और आराधना भी. दुख काव्य भी है पर करीब-करीब मौन-सा मितभाषी, जो एकांत में वास करता है. फिर भी उसका स्वर चारों दिशाओं में गूंज जाता है. ये कविताएँ आहिस्ता-आहिस्ता दिमाग और जिगर में जगह बनाती हैं.
5. जलावतन / लीलाधर मंडलोई
ग़ज़ा सिर्फ फिलिस्तीन में नहीं हर मुल्क में है. हम उससे आँखें चुराए बैठे रहे तो जल्द हम और हमारा वतन भी जल कर खाक होगा. आज की दुनिया का सच उजागर करता काव्य संग्रह मेरे सरोकारों के बहुत करीब था.
6. सोफिया / मनीषा कुलश्रेष्ठ
वही धर्मों के बीच फैलाई गई नफरत जिसके कारण एक हंसती खेलती युवती अपने ही करीबी घरवालों के हाथों बर्बाद हो जाती है. और उसका पूरा वजूद सांगोपांग बिखर जाता है. पाठक वह अपराध बोध अनुभव करता है जो विधर्मी प्रेमी की हत्या करवाने पर असल अपराधियों ने नहीं किया था.
7. सगबग मन / दिव्या विजय
इसमें ज्यादातर अल्हड़ किस्म की कहानियाँ हैं. पर दो कहानियाँ बेहद परिपक्व जेहन और संवेदना की हैं. पहली, एक किसान औरत की खुदी की बुलंदी की कहानी “कचरा”, जिसे पढ़ कर मेरी आंखें भीगे बिना न रहीं. दूसरी है, यार ए गार, जो तानाशाही से कुचले लोगों की, दरिंदगी से राहत पाने के लिए, दूसरे को बलि चढ़ाने और ताउम्र उसके पश्चाताप में जलने की बेचारगी की नायाब कहानी है. यह कहानी लेखिका को हमेशा के लिए बड़प्पन बख़्श देती है.
8. सामा-चकवा / गीताश्री
इस उपन्यास को पढ़ना इसलिए सुखद था क्योंकि इससे मालूम पड़ता है कि आज की लेखकों की पीढ़ी पर्यावरण को ले कर कितनी सजग हो सकती है. कम-अज़-कम, उनकी एक अग्रणी कथाकार तो है ही. गीताश्री ने लोक कथा को आधार बना कर, इच्छाधारी चकवी/स्त्री के माध्यम से वनों का बचाव करने की कहानी कही है. मुझे लगता है, उन्हें ऐसे ही लोक कथाओं पर और काम करना चाहिए.
9. प्यानोपलेयर्स / एंथनी बर्जेस
एक एंथनी बर्जेस की “प्यानोपलेयर्स” यह दो नहीं, एक शब्द है, क्योंकि इसमें पियानो और प्लेयर एकमेक हुए रहते हैं, जो शास्त्रीय पियानिस्ट नहीं होता. यह एक तवायफ का लिखा उपन्यास है, जिसे वह अपनी अधकचरी अंग्रेजी में बोल कर लिखवाती है. उसका पिता मूक फिल्मों के लिए पियानो बजाया करता था. पैसे की जबरदस्त तंगी के बीच दोनों कैसे मौज मस्ती कर लेते थे, इसके अलावा जो यादगार है, वह, बिला ट्रेनिंग लिए उस पियानो बजाने वाले का संगीत की अप्रतिम नई धुनें ईजाद करना है. जिन्हें उसके मरने के दो पीढ़ी बाद बेटी का पोता, संगीत की लिपि में कलमबद्ध करता है. बेटी तवायफ बनी मजबूरी में, पर अपनी खुदी को यूं चमकाया कि सब उसकी इज़्ज़त करने लगे. अपने तवायफ होने से उसने कभी इनकार नहीं किया. आज हर हिंदुस्तानी को यह किताब पढ़नी चाहिए क्योंकि हम हर विवाद, हर नवाचार से डर कर भागते हैं. साहित्य तक में. हिंदी में होता तो मुझे डर है, इसमें अश्लीलता के सिवा कुछ न देखा जाता.
10. लेटर्स ऑफ विंसेंट वेन गॉफ टू थियो / विंसेंट वेन गॉफ
अगर आप चित्रकारी तथा कला के जादू के रहस्यों के साथ मानवीयता, आध्यात्म, वासना, हारी-बीमारी, अंधविश्वास और दोस्ती पर एक अनूठे आत्म कथन से रूबरू होना चाहते हैं, तो यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए.
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हरीश त्रिवेदी |
यह सूची बनाते हुए यह पूरा साल तो आँखों के सामने से गुज़र ही गया पर जैसे पिछले कई दशक भी दृष्टि-पथ पर दूर से झिलमिलाने लगे. युवावस्था में किसी भी नयी छपी किताब के पीछे भागता था, कुछ शुद्ध जिज्ञासा के कारण और कुछ तो सहयोगियों और समवर्तियों से होड़ के कारण भी. इसमें हिदी-अंग्रेज़ी दोनों में ही हम सबके अग्रगामी थे नामवर जी, जिनके लिए मैं जब विदेश की गोष्ठियों में वहां के महारथियों से उलझ-सुलझ के लौटता तो अक्सर एक-दो नयी पुस्तकें अवश्य लाता था, और वे परोक्ष रूप से धन्यवाद के स्वर में जैसे मेरी तरफ से शेर पढ़ते थे: “हम घूम फिर के कूचा-ए क़ातिल से आए हैं!”
पर अब वृद्धावस्था में नए की ललक मिट गयी है, वह मोह भंग हो चुका है. अब सौ नयी कविताएँ पढ़िये तो एक अच्छी लगती है. बीस नए उपन्यास पलट जाइए तो एक में लगता है कि सचमुच कुछ “नया” है. इसके बजाय पुराना पढ़ा कुछ उठाइये और उसे बीस-तीस साल बाद फिर पढ़िये तो लगता है कि इसमें मैंने पहले यह सब क्यों नहीं देखा था. “क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः.” हर क्षण जो नवता को प्राप्त होता है वही रमणीय है, उसी में तो मन रमता है.
लेकिन इन दोनों के बीच एक मज्झिमा प्रतिपदा भी है, एक मध्य मार्ग जिसमें जो पुराना है वह नए कलेवर में उपस्थित होता है. वह नए संस्करण, नए चयन व नई भूमिका के साथ आ सकता है या फिर एक भाषा से दूसरी में अनुवाद के रूप में भी. इस साल मैंने यही अधिक पढ़ा, स्वेच्छा से भी और परिस्थितिवश भी. अब पढ़ना-लिखना मिलजुल सा गया है तो जो पढ़ता हूँ उस पर कभी-कभी लिखता भी हूँ, और जिस पर लिखना होता है तो उसे और उसके इर्दगिर्द जितना बन पड़ता है जम कर पढ़ता हूँ.
बहरहाल, अब उन कुछ पुस्तकों के नाम लेना शुरू करता हूँ जो मैंने इस साल पहली बार पढ़ीं. जयपुर लिटरचर फेस्टिवल में “रामचरित मानस” के Philip Lutgendorf के सम्पूर्ण अनुवाद “The Epic of Ram” का अंतिम खंड विमोचित हुआ जिसमें वे स्वयं बोले और मैं भी बोला. लगभग इसी विषय पर फादर कामिल बुल्के की पहली जीवनी आई है रवि दत्त बाजपेयी और स्वाति पाराशर द्वारा बड़े परिश्रम से लिखित, “Camille Bulcke: The Jesuit Exponent of Ramkatha”, जो मैनें प्रूफ़ में पढ़ी क्योंकि मुझे उसकी भूमिका लिखनी थी. इसी क्रम में कुछ महीने बाद मैंने विक्रम सेठ द्वारा अनूदित “The Hanuman Chaleesa” की समीक्षा की और उसमें लिख दिया कि यह तुलसी दास की रचना नहीं है तो अंग्रेजी-भाषी पाठकों में भी हंगामा बरपा हो गया. वैसे इसका नित्य पाठ करने वाले अनेक भक्त भी शायद यह तक न बता पायें कि “हनुमान” नाम कैसे पड़ा या “बजरंगी” माने क्या होता है.
इस वर्ष का ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलना घोषित हुआ गुलज़ार को, जिनकी हर फेस्टिवल या जलसे में वैसे भी धूम रहती है. पर इस साल खुद उनकी, और उन पर, कई नयी किताबें आयीं तो जयपुर में उन पर दो सत्र हुए. एक तो केन्द्रित था “गुलज़ार साहेब: हज़ार राहें मुड़ के देखीं” शीर्षक से यतीन्द्र मिश्र की लिखी उनकी पाँच सौ पृष्ठों की जीवनी पर. और दूसरे सत्र में गुलज़ार साहेब की अपनी पुस्तक “Baal-o Par: Collected Poems” पर चर्चा हुई. यह गुलज़ार की “संचयिता” जैसी पुस्तक है जिसमें उनकी नज्मों के सभी संग्रहों से करीब 650 कविताएँ चुन कर ली गयी हैं. बाएं पृष्ठ पर मूल कविता दी हुई है नागरी लिपि में और दायें पृष्ठ पर उसका अंग्रेज़ी अनुवाद है.
“देर तक आसमाँ पे उड़ते रहे
इक परिंदे के बाल-ओ-पर सारे
बाज़ अपना शिकार लेके गया.”
इस संग्रह में केवल “नज़्में” अर्थात शुद्ध कविताएँ हैं जो गुलज़ार के बेशुमार दीवानों में बहुतों के पास पहुँची ही नहीं, क्योंकि वे तो बस उनके नग़मों से ही खुश हैं. यह संग्रह उनका सर्वथा मौलिक और लगभग अनजाना कवि-रूप हमारे सामने लाता है. रहे उनके (फ़िल्मी) नग़में, तो उनमें से भी 500 गीतों का विस्तृत चयन अभी छप कर आया है “गुनगुनाइए” शीर्षक से. गुलज़ार साहेब से मेरी वाकफियत करीब दस साल से है जब वे और मैं एक साहित्यिक शिष्ट-मंडल में जापान गए थे. ज्ञानपीठ पुरस्कार आयोजकों के कहने पर मैनें एक लेख लिखा है जिसमें मैंने उनकी छवि और उनके कवि के बीच का अंतर दर्शाया है.
फरवरी के महीने में ही हुए दिल्ली के पुस्तक मेले में बारह भक्त कवियों के लगभग सौ-सौ पृष्ठों के संग्रह माधव हाड़ा की सुचिंतित भूमिकाओं के साथ एकमुश्त प्रकाशित हुए, जिनमें कबीर, नानक, रैदास से लेकर बुल्ले शाह और लालन फ़क़ीर तक शामिल हैं. निर्मल वर्मा का नया उपन्यास “थिगलियाँ” आया, और इलाहाबादी “परिमल” के सदस्य गोपीकृष्ण “गोपेश” के रूसी से किये गए अनुवाद की एक पुस्तक पुनः प्रकाशित हुई. और अहो भाग्य कि इन तीनों विमोचन समारोहों में बोलने को मुझे भी बुलाया गया.
“हनुमान चालीसा” के अलावा मैंने हिंदी से अंग्रेज़ी में अनूदित कुछ और पुस्तकों की इस वर्ष समीक्षा की. विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं का अरविन्द कृष्ण मेहरोत्रा द्वारा अनूदित संग्रह आया है, “Treasurer of Piggy Banks” शीर्षक से, जिसकी प्रस्तावना में अरविन्द स्वयं कहते हैं कि विनोद जी की कविताएँ पढ़ कर आप दिग्भ्रांत भी हो सकते हैं और आपको चक्कर भी आ सकते हैं (“disorienting and vertiginous”)! मैंने कहा कि विनोद जी ने तो अति-आधुनिकता के मुहावरे को झारखण्ड की मझोली पहाड़ियों और वृक्ष-पक्षियों और आदिवासियों के बीच रोपा है.
उषा प्रियंवदा के उपन्यास “रुकोगी नहीं राधिके” की अंग्रेजी अनुवादिका डेज़ी रॉकवेल ने लिखा कि नायिका “ennui” या अनमनेपन और निष्क्रियता से ग्रस्त है, तो मैंने अपनी समीक्षा में समझाया कि असल में वह तो उसका गहन ऊहापोह है कि परिवार और रुग्ण पिता के पास रुके या प्रेमी और अमेरिका का वरण करे. और अभी मैंने प्रतिरोधी बुद्धिजीवी जी.एन. देवी की नयी पुस्तक “India: A Linguistic Civilization” की समीक्षा में लिखा कि जहाँ सैकड़ों भाषाएँ होंगी तो कुछ का तो ह्रास होता ही चलेगा.
आत्म-विवेचन की दो नयी पुस्तकें उल्लेखनीय हैं. एक है हिंदी के उद्भट अँगरेज़ विद्वान Rupert Snell द्वारा संकलित 51 आत्मकथाओं से चुने अंश “आपबीती और जगबीती.” दूसरी है विख्यात मनोविश्लेषक सुधीर कक्कड़ (जो उपन्यासकार भी थे) की मरणोपरांत आई पुस्तक “The Indian Jungle.” जिसमें उन्होंने सिग्मंड फ्रॉयड की इस उक्ति का प्रतिकार किया है कि किसी भारतीय के मन में प्रवेश करना उतना ही दुष्कर है जितना भारत के किसी जंगल में!
अंत में, मेरे अनेक पूर्व शिष्यों ने इस वर्ष भांति-भांति की पुस्तकें छपा कर नाम कमाया, जो मेरे लिए हर्ष ही नहीं गर्व का भी विषय है. निवेदिता निश्रा ने, जो अब स्वयं त्रिनिदाद में रहती हैं, “V.S. Naipaul of Trinidad” पुस्तक में इन वैश्विक लेखक की उनके स्थानीय सन्दर्भ में विवेचना की. गौतम चौबे का पहला उपन्यास “चक्का-जाम” खासी चर्चा में है. सेंट स्टीफेंस कॉलेज में सैंतालीस वर्ष पहले मेरे छात्र रहे उपमन्यु चैटर्जी ने इस वर्ष का 25 लाख रुपये का JCB साहित्य पुरस्कार अपने नए उपन्यास “Lorenzo Searches for the Meaning of Life” के लिये जीता. और ललित कुमार ने मेरे साथ मिलकर “Amaranatha Jha: Selected Essays” का संपादन किया.
मेरी दो और पुस्तकें भी इस वर्ष आयी हैं पर मैंने उन्हें पढ़ा नहीं, क्योंकि पढ़कर और अनेक त्रुटियाँ पाकर क्लेश ही होगा. उनको पढ़ कर अन्य लोग ही दुखी या सुखी हों यही बेहतर होगा.
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मदन सोनी |
यूँ तो इस वर्ष में मैंने दो दर्जन से ज़्यादा पुस्तकें पढ़ी हैं, जिनमें से अभी कुछ पाण्डुलिपि की शक्ल में भी हैं, लेकिन मुझे चूँकि केवल 10 पुस्तकों का ही उल्लेख करने को कहा गया है, मैं फ़िलहाल नीचे अंकित पुस्तकों का ही ज़िक्र कर रहा हूँ (हालाँकि, इसका यह अर्थ क़तई नहीं कि मेरे द्वारा पढ़ी गयी अन्य पुस्तकें क़ाबिले-ज़िक्र नहीं हैं). ज़ाहिर है, यह ज़िक्र-मात्र ही है, कोई समीक्षात्मक टिप्पणी नहीं है. तब भी जो एक-दो वाक्य इस ज़िक्र में मुझे नत्थी करने पड़े हैं, उनमें निहित ज़ाहिर सरलीकरणों और उनमें प्रयुक्त विशेषणों (जिनसे बचने की अपने लेखन में मैं भरसक कोशिश करता हूँ) के लिए मैं क्षमा चाहता हूँ.
खुली आँख और अन्य कविताएँ : यह उदयन वाजपेयी का नया कविता-संग्रह है. इस संग्रह के माध्यम से उदयन हमें एक बार फिर एक संश्लिष्ट और मूलत: विषण्ण मानस के अप्रत्याशित कक्षों में ले जाते हैं.
रुक्मणी हरण और अन्य कविताएँ : यह अम्बर पाण्डेय का नया कविता-संग्रह है जिसमें भाषा, भावभूमि, शिल्प और शैली आदि विभिन्न स्तरों पर अद्वितीय नवाचार किया गया है. यह संग्रह अम्बर पाण्डेय को उनकी अपनी पीढ़ी के अनन्य कवि के रूप में प्रस्तुत करता है.
मैं पृथ्वी से बिछुड़ गया था : यह रुस्तम सिंह का नया कविता-संग्रह है जो हमारा साक्षात्कार मनुष्य से विरक्त हो चुके, लड़ चुके, और अन्तत: प्रकृति में लय होने को उद्यत मनुष्य से कराता है.
नेमतखाना : उर्दू कथाकार खालिद जावेद का उपन्यास जिसके चरितनायक के माध्यम से हम मनुष्य के नितान्त ‘मॉर्बिड’ और स्याह अन्त:करण की विचलित कर देने वाली दुनिया का साक्षात्कार करते हैं.
द पोर्ट्रेट ऑफ अ लेडी : उन्नीसवीं सदी के अन्तिम वर्षों में लिखे गये, अमेरिकी कथाकार हेनरी जेम्स के इस वैश्विक क्लासिक्स का यह मेरा दूसरा पाठ है (पहली बार इस उपन्यास को मैंने लगभग 45 साल पहले, सम्भवत: मोहन राकेश के, हिन्दी अनुवाद में पढ़ा था). यह एक स्वतन्त्रचेता स्त्री के आत्मसंघर्ष और अपने मानवीय परिवेश से जूझने की विलक्षण दास्तान है.
द सिटी एण्ड इट्स अनसर्टेन बाउण्ड्रीज़ : जापानी उपन्यासकार हारुकी मुराकामी का नया उपन्यास. गल्प के अतिरेक से भरा हुआ. यथार्थ और कल्पना के सीमान्तों के सन्धिस्थल पर उभरा हुआ एक ऐसा भूदृश्य जिसमें हमारी मुलाक़ात उन मनुष्यों से होती है जो अपनी परछाईं गँवा चुके हैं.
एक क़स्बे के नोट्स : कवि-कथाकार नीलेश रघुवंशी का उपन्यास जिसमें बुन्देलखण्ड अंचल के एक छोटे-से क़स्बे में स्थित एक ढाबे के इर्दगिर्द सक्रिय और उसे संचालित करते एक परिवार की मार्मिक किन्तु निर्मम यथार्थवादी कथा कही गयी है.
अ ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ़ अर्थ : दुनिया के एक अग्रणी भूविज्ञानी एण्ड्र्यू एच. नॉल द्वारा लिखी गयी यह पुस्तक पृथ्वी के इतिहास का विलक्षण तत्त्वान्वेषण करती है. जैसाकि पुस्तक के नाम से स्पष्ट है, यह हमारी पृथ्वी के जन्म लेने की कथा कहने के साथ-साथ उसके भौतिक, रासायनिक, जैविक, मानवीय आदि विभिन्न पक्षों के विकास का लोमहर्षक वृत्तान्त प्रस्तुत करती है. (इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद भी मैंने किया है.)
नेक्सस : इज़रायली इतिहासकार और सेपियन्स नामक पुस्तक के लिए वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय युवाल नोआ हरारी की नयी पुस्तक जो सूचना-तन्त्र के प्राचीनतम से लेकर आधुनिक इतिहास तक के परिप्रेक्ष्य में हमारे समय की अद्वितीय सूचना-क्रान्ति, विशेष रूप से आर्टिफ़िसियल इण्टेलिजेंस, के सम्भावित और सर्वथा अप्रत्याशित खतरों की ओर संकेत करती है. (इस पुस्तक का भी हिन्दी अनुवाद मैंने किया है.)
कुछ दरवाज़े, कुछ दस्तकें : वरिष्ठ कहानीकार जयशंकर के गल्पेतर गद्य की दूसरी पुस्तक, जिसमें हम अन्तोन चेख़व, निर्मल वर्मा, कुँवरनारायण, ज्योत्स्ना मिलन, ‘साहित्य में स्त्री-दृष्टि’, तथा ‘भाषा और सर्जना’ आदि पर जयशंकर के अनूठी वैचारिकता के साथ लिखे गये निबन्ध, उनके कुछ साक्षात्कार, उनकी डायरियाँ आदि पढ़ते हैं.
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ज्योतिष जोशी |
वर्ष 2024 हिन्दी में प्रकाशित पुस्तकों की दृष्टि से अच्छा रहा. इस वर्ष आलोचना, कविता, कहानी, उपन्यास, संस्मरण आदि विधाओं में विपुल साहित्य सृजन हुआ. पर कोई भी एक व्यक्ति इन सभी पुस्तकों को न देख सकता है, न पढ़ सकता है. मैं भी इनमें से कुछ ही पुस्तकों से गुजरा हूँ और जो उल्लेखनीय लगीं, उन पर अपनी राय रख रहा हूँ.
शुरूआत आलोचना से करूँ तो सबसे पहले उल्लेखनीय पुस्तक सुभाष राय की ‘दिगम्बर विद्रोहिणी : अक्क महादेवी’ लगती है. इस पुस्तक में लेखक ने अक्क महादेवी से सम्बंधित शोध समालोचनाएँ, उनके वचनों के अनुवाद तथा अपनी छाया कविताएँ दी हैं. यह पुस्तक हिन्दी में एक बड़े अभाव की पूर्ति है, क्योंकि दक्षिण भारतीय जनजीवन को प्रभावित करनेवाली मध्ययुगीन संत कवयित्री महादेवी से हिन्दी समाज का अब तक अपरिचय ही रहा है.
इस कड़ी में दिवंगत मैनेजर पाण्डेय की पुस्तक -‘दारा शुकोह : संगम संस्कृति का साधक‘ भी उल्लेखनीय है जो वर्तमान समय में दारा शुकोह की प्रासंगिकता को नए सिरे से स्थापित करती है और विभिन्न धर्मों, विशेषकर इस्लाम और सनातन के मध्य अंतरवर्ती सूत्रों की खोज की दिशा में दारा शुकोह के प्रयासों को सामने लाती है. इसमें दारा के जीवन का संघर्ष भी है तो औरंगजेब की सत्तालिप्सा की भेंट चढ़े दारा की त्रासद कथा भी.
‘कहानी का हिरामन: रेणु’ भी इस वर्ष प्रकाशित पुस्तकों में उल्लेखनीय है जो युवा आलोचक मृत्युंजय पाण्डेय की पुस्तक है. इसमें मृत्युंजय ने कथाकार रेणु की कहानियों का सुचिन्तित मूल्यांकन किया है. पुस्तक में उनकी कहानियों के तीनों चरणों को उनकी पृष्ठभूमि के साथ आकलन करने की कोशिश की गई है जिसमें रेणु की प्रायः सभी कहानियाँ आ गयी हैं.
इस कड़ी में ‘नवां दशक’ भी महत्वपूर्ण पुस्तक है जो नवें दशक की हिन्दी कविता पर एकाग्र है. इसके लेखक कवि-आलोचक अविनाश मिश्र हैं. यह पुस्तक बीसवीं सदी के अंतिम दशक के नौ महत्वपूर्ण कवियों पर विस्तार से बात करती हुई काव्यालोचन के नए निकषों को सम्भव करती है जो निश्चय ही आवश्यक पहल है.
‘भारतीय नारी: स्थिति और गति’ भी उल्लेखनीय स्त्री-वैचारिकी की पुस्तक है जिसे सान्त्वना श्रीकान्त ने लिखा है. इसमें पुराकाल से लेकर स्त्री के समकाल तक स्त्री-विमर्श है. चार अध्यायों में विभाजित यह पुस्तक पश्चिमी नारीवाद के समानांतर भारतीय चिन्तन को सामने रखते हुए जीवन के शाश्वत और सनातन मूल्यों को प्रतिष्ठित कर महत्वपूर्ण पहल करती है.
इस वर्ष उपन्यास भी बहुत आए, जिनमें हमें दो ही उपन्यासों को पढ़ने का अवसर मिला. इसमें पहला है सन्तोष दीक्षित का ‘बैल की आँख’ और दूसरा प्रभात रंजन का ‘किस्साग्राम’. ‘बैल की आँख’ पटना के पड़ोस में स्थित एक गांव को आधार बनाकर लिखा गया उल्लेख्य उपन्यास है जिसमें यह गांव समग्र गांवों के सामाजिक परिवेश का प्रतिरूप बन जाता है. जातिगत दम्भ किस तरह सामुदायिक जीवन को नरक में बदल देता है, इसे बहुत जीवंतता के साथ उपन्यास में अंकित किया गया है.
‘किस्साग्राम’ में प्रभात रंजन ने पारम्परिक किस्सागोई को जीवंत करते हुए बहुत सधी भाषा में गंवई कथा को क्रमबद्ध किया है और उसमें ग्राम्य जीवन की विडंबनाओं को पूरी तन्मयता से चित्रित भी. इस दृष्टि से यह कथारचना बहुत प्रभावित करती है.
मेरे पढ़ने में दो कहानी संग्रह इस वर्ष आए- श्रद्धा श्रीवास्तव का ‘धूप नीचे नहीं उतरती’ तथा कुणाल सिंह का ‘अन्य कहानियाँ तथा झूठ’. ‘धूप नीचे नहीं उतरती’ की कहानियाँ अपनी भाषा और शिल्प के साथ कथ्य में भी नवीन हैं. इनमें मनुष्य की भीड़भाड़ से भिन्न ऐसे परिवेश की कहानियाँ हैं जिनमें संघर्षरत मनुष्य अपने एकाकी जीवन को स्मृतियों के सहारे जीते हुए सबमें अपने को बांटते चलते हैं. जनाक्रान्त गांव और नगर से दूर जंगल, पहाड़ और सुनसान एकांत कैसे हमारे जीवन में रंगत पैदा करते हैं और वहां के लोग किस तरह हमारी अपदस्थ मनुष्यता को नया स्वर दे सकते हैं, इसे आकतीं श्रद्धा इस संग्रह से बहुत उम्मीद जगाती हैं. कुणाल सिंह युवा कहानीकारों में अलग से पहचाने जाते हैं. ‘अन्य कहानियाँ तथा झूठ’ अपनी आख्यानपरकता, कथ्य की सघनता तथा संवेदनात्मक गहराई के स्तर पर विलक्षण प्रभाव छोड़ता संग्रह है. इसमें संकलित कहानियों के कथ्य हमारे जीवन से बाहर नहीं, पर वे जाने-अनजाने हमारे बोध से अलग-थलग ही रहते आए हैं. कुणाल उनका उनका पुनर्वास कर एक ऐसे संसार को रचते हैं जो पहचाना होते हुए भी नया लगता है और हम नए जीवनबोध से गुजर पाते हैं. इस दृष्टि से यह उल्लेखनीय संग्रह है.
इसी वर्ष कवि विनय कुमार का काव्य नाटक ‘आत्मज’ भी प्रकाशित हुआ जो अपने कथ्य और शिल्प, दोनों में आकर्षित करता है. यह काव्य-नाटक ‘अप्प पिता भव’ की केन्द्रीय स्थापना का नाटक है जिसमें पितृहीन राहुल, विमल, अजातशत्रु, अभय और जीवक ; किसी को भी अपना पिता नहीं मिलता. पितृहीन पुत्रों के माध्यम से यह काव्य-नाटक आज के समय की प्रेरणाहीन वास्तविकताओं से परिचित कराता है.
इस वर्ष संस्मरणों की दृष्टि से दो पुस्तकें बेहद विचारोत्तेजक लगीं-अशोक भौमिक की –‘खोये हुए लोगों का शहर‘ तथा यतीश कुमार का ‘बोरसी भर आंच’. ‘खोये हुए लोगों का शहर’ खो चुके पुराने इलाहाबाद से परिचित कराता है जिसकी सांस्कृतिक जीवंतता एक समय में पूरे देश को ऊर्जस्वित करती थी. पुस्तक उसकी जीवंतता को बनाए रखनेवाले अनेक महत्वपूर्ण लेखकों से परिचित कराती हुई लेखक के निर्माण की कथा भी बताती है. यतीश कुमार की ‘बोरसी भर आंच’ पुस्तक लेखक के बचपन के बीस वर्षों की स्मृतियों का मार्मिक अंकन है जो बहुत सम्मोहित करती है जिसे यतीश कुमार ठीक ही ‘अतीत का सैरबीन’ कहते हैं. इसकी सबसे महत्वपूर्ण खासियत अपने बीते समय को एक बच्चे की आँखों से देखना है जिसमें जीवन के सभी घात-प्रत्याघात सामने आते जाते हैं और हम एक पाठक के नाते अपने बचपन की इन्हीं सुधियों में खो से जाते हैं.
कविता संग्रहों की बात करें तो सबसे पहले दृष्टि जाती है ‘आहोपुरुषिका’ पर. इसमें वागीश शुक्ल ने दिवंगता पत्नी के प्रति 44 कविताओं का संकलन किया है. यह अपूर्व शोकगीत है जिसमें हम अपनी भाषाई सम्पदा और समृद्ध सांस्कृतिक वैभव को कविताओं के साथ सन्दर्भों में जान सकते हैं. कविताओं में जैसी मार्मिकता और हृदय-स्पर्शिता है, वह तो विरल है ही, सन्दर्भों में वागीश जी की प्रज्ञा की विलक्षणता भी प्रकट होती है. इसी कड़ी में अनिल विभाकर का कविता संग्रह ‘अवज्ञा का समय‘ भी उल्लेखनीय है जो अपने कथ्य और सजग काव्यदृष्टि के कारण प्रभावित करता है. राजनीति किस तरह कवि की अनुभूति को मार्मिक बनाती है और कैसे प्रतिरोध हमारे नैमित्तिक कर्म का हिस्सा हो सकता है, यह इस संग्रह में देखना नया अनुभव देता है. अविनाश मिश्र का कविता संग्रह ‘वक्त जरूरत’ नए कथ्य की कविताओं के साथ काव्यभाषा में प्रयोग के कारण भी उल्लेखनीय है. कविता को पहले कविता होनी चाहिए, इसकी विशेष चिन्ता कवि को है और कविता की जरूरत की भी, क्योंकि सामाजिक विद्वेष और हिंसा ने हमारे मनुष्य होने को ही प्रश्नांकित करना शुरू कर दिया है. कविता के कहन और उसके रचाव में अपनी कुशलता के साथ आकृष्ट करते अविनाश इस संग्रह तक आकर उसके परिसर को अधिक सघन और आत्मीय बनाते हैं. इस दृष्टि से उनका यह संग्रह बहुत महत्वपूर्ण है.
राधेश्याम तिवारी का संग्रह ‘ईश्वर की मातृभाषा’ अपने समय को साक्षीभाव से देखती और उसका प्रतिरोध रचती कविताओं का संकलन है. यहाँ सहज मनुष्य की खोज का यत्न भी है जो ईमानदारी से समाज के दुःख-सुख का साझीदार हो सके. इसके अतिरिक्त विमलेश त्रिपाठी का ‘दूसरे जन्म की कथा’ की कविताएँ जहां अपने समय के भयावह यथार्थ के बीच पसरे अंधेरे को चीरकर रौशनी की तलाश करती हैं, वहीं ममता जयंत का कविता संग्रह ‘मनुष्य का कहना‘ की कविताएँ अपनी सामाजिक प्रतिबद्धताओं के साथ मानवीय मूल्यों की भी चिन्ता से प्रेरित हैं. मनुष्य पर गहरी आस्था इन कविताओं का सबसे उल्लेख्य पक्ष है जिसे दुनिया को रहने लायक बनाना है. ‘रवीन्द्र की प्रेयसी’ घुंघरू परमार का कविता संकलन है जो रवीन्द्रनाथ ठाकुर की प्रेमिकाओं पर आधारित है. संग्रह की विशेषता यह है कि इनमें कादम्बरी, रतन, विनोदिनी और अन्ना जैसी स्त्रियाँ कब कविताओं में घुलमिल कर एक भरा पूरा प्रेम जगत बना जाती हैं और उनसे एक सहज आत्मीय परिसर निर्मित हो जाता है, यह भान ही नहीं रहता.
इस वर्ष की प्रकाशित पुस्तकों की कड़ी में मधुकर उपाध्याय और कुमुद उपाध्याय द्वारा सम्पादित ‘रामचरितमानस’ पर आधारित ‘अवधी-हिन्दी कोश’ की चर्चा अवश्य की जानी चाहिए जिसका हिन्दी में अभाव था. मानस के अवधी शब्दों का अर्थ और उनका भाव इस कोश में आ जाने से एक बड़े अभाव की पूर्ति हुई है जिसे सम्पादक द्वय ने बड़ी मिहनत से तैयार किया है. कुल मिलाकर सैकड़ों पुस्तकों की भीड़ में नए वर्ष की उपर्युक्त पुस्तकों को ही हम पढ़-समझ पाए और इनसे एक चयन बन सका.
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चंद्रभूषण |
१. इमर्जेंसी राज की अंतर्कथा
आपातकाल की घोषणा को पचास साल पूरे होने जा रहे हैं तो उसको याद करने वाली किताबों का बड़ी संख्या में बाजार में आना स्वाभाविक है. काफी संभावना है कि ऐसी ज्यादातर किताबें फर्जी होंगी और संवैधानिक मूल्यों का इस्तेमाल अपने जूते झाड़ने में ही करने वाली हुकूमत ने इन्हें प्रायोजित कर रखा होगा. ऐसे में यह बहुत अच्छी बात है कि प्रसिद्ध समाजशास्त्री और राजनीतिक विचारक प्रो. आनंद कुमार ने हल्ला शुरू होने से पहले ही ‘इमर्जेंसी राज की अंतर्कथा’ लिख डाली. इस साल हिंदी में आई किताबों में यह यकीनन काफी महत्वपूर्ण है, हालांकि इसके शीर्षक में आए अंतर्कथा शब्द से मेरी सहमति नहीं है. इमर्जेंसी की भीतरी कहानी तो उस समय का कोई सरकारी आदमी ही लिख सकता था. प्रो. आनंद कुमार तब सड़क पर रहे होंगे. इसकी बाहरी कहानी ही वे सुना सकते हैं.
बहरहाल, जो भी उन्होंने सुनाया है, करीने से सुनाया है, सुलझा कर सुनाया है और प्रामाणिक तथ्यों का हवाला देते हुए सुनाया है. यह किताब पढ़कर मेरी कुछ गलतफहमियाँ दूर हुईं. इंदिरा गांधी के अलोकतांत्रिक व्यक्तित्व को लेकर कोई भ्रम मेरे मन में कभी नहीं रहा, फिर भी लगता था कि पैट्रिस लुमुंबा और साल्वादोर अलेंदे से लेकर शेख मुजीबुर्रहमान तक जितनी राजनीतिक हत्याएँ सीआईए ने उस दौर में कराईं और कई नव-स्वतंत्र देशों को लोकतंत्र से सैनिक तानाशाही की ओर धकेल दिया था, उसे देखते हुए भारत में भी ऐसा कुछ होने की आशंका कोई दूर की कौड़ी नहीं थी. किताब में इस प्रस्थापन को काटने के लिए अलग से कुछ नहीं कहा गया है. बस यह सूचना दी गई है कि रूस से आई ऐसी एक चेतावनी को छोड़ दें तो भारत की खुफिया एजेंसियों का ऐसा कोई फीडबैक नहीं था.
प्रो. आनंद कुमार की यह किताब भारत के उस भयानक दौर को समझने की बेहतरीन कुंजी है, लेकिन इसे पढ़ते हुए आज की हकीकत भी सामने रखनी होगी. एक दौर था जब जून माह का आखिरी हफ्ता समूचे लोकतांत्रिक दायरे में इमर्जेंसी के जुल्मोसितम को याद करने का हुआ करता था. विपक्षी दलों का इसमें शामिल होना गौण बात थी. असल चीज थी पीयूसीएल, पीयूडीआर और स्थानीय जन-अधिकार संगठनों की गोलबंदी, जो इसका उपयोग सरकारी जोर-जबर्दस्ती और पुलिस दमन के विविध रूपों के खिलाफ जमीनी चेतना जागृत करने में किया करते थे.
फिर इमर्जेंसी की 25वीं बरसी आने तक बीजेपी ने ऐसे आयोजनों को बड़ी शाइस्तगी से हड़प लिया और कुछ शातिर शिखंडियों को आगे करके 26 जून को बाकायदा तीसरे राष्ट्रीय पर्व की तरह मनाने लगी. अभी हाल यह है कि ‘आपातकाल में संविधान की हत्या’ का गाना कम्युनल मॉब लिंचिंग से लेकर बुलडोजर जस्टिस तक का बैकग्राउंड म्यूजिक बना हुआ है. इमर्जेंसी में हजारों कार्यकर्ता और सैकड़ों विपक्षी नेता फर्जी आरोपों में बंदी बनाए गए और उनमें कुछेक ने डेढ़ साल से ज्यादा वक्त जेल में गुजारा. लेकिन आज की दशा यह है कि विपक्षी नेताओं को बिना किसी चार्जशीट के लंबा वक्त जेल में गुजारना पड़ रहा है और जी. एन. साईबाबा जैसे प्रतिबद्ध बुद्धिजीवियों को जेल में ही मार देने के लिए उनके पर्सनल कंप्यूटर में हत्या के षड्यंत्र वाली फाइलें डलवा देने का नुस्खा अपनाया गया है.
जाहिर है, इमर्जेंसी को सामाजिक संदर्भों के साथ समझने के लिए हमें अभी के हाल पर भी नजर बनाए रखनी होगी. गनीमत है कि इमर्जेंसी वाले दौर से जुड़ी इस साल की जो दूसरी किताब मैं देख पाया हूं, उसका संबंध भी हल्लेबाजी से नहीं है.
२. चक्का जाम
गौतम चौबे का उपन्यास ‘चक्का जाम’ एक दिलकश फिक्शन है. एक ढीले-ढाले प्लॉट के अलावा इसमें भोजपुरी डिक्शन वाली किस्सागोई की एक ऐसी भाषा सुनने को मिल रही है कि इसे ठहरकर पढ़ने को दिल करता है. आंदोलनों का वह दौर इस किताब में ठेठ देहाती घरों के भीतर तक गूंजता है. मेरे लिए यह अपने बचपन के माहौल को अलग आंख से देखने जैसा है. इसके रस में पग रहा हूं सो इसपर लिखने की अभी कोई जल्दी नहीं है.
३. हैशटैग
पटना के अद्यतन परिवेश पर लिखी गई एक हिंसक प्रेमकथा ‘हैशटैग’ का जिक्र आजकल सोशल मीडिया पर काफी देखने को मिल रहा है. नागरिक जीवन के साथ एक फौजी अफसर का इगो क्लैश. प्रेम से ज्यादा अहं. कर्नल राजऋषि गौतम की लिखी यह किताब मुझे छुटपन में पढ़े हुए पल्प उपन्यासों की याद दिलाती हुई लगी. ऐसी लिखाई, जिसमें हकीकत की रगड़ाई जरा कम ही दिखती है. लेकिन ऐसी किताबें आजकल खूब पढ़ी जा रही हैं. किताब के अंतिम पन्नों से पता चलता है कि नायक ‘समर प्रताप सिंह’ के और भी कारनामे आगे की किताबों में पढ़ने को मिलेंगे. लेखक की कश्मीर में लंबी तैनाती रह चुकी है. वहाँ के किस्सों का इंतजार मुझे हैशटैग से ज्यादा रहेगा.
४. प्रोफेसर की डायरी
एक और पतली किताब, डॉ. लक्ष्मण यादव की लिखी ‘प्रोफेसर की डायरी’ ने तो इस साल कमाल ही कर दिया. इसके कवर पर ‘50,000 कॉपीज़ सोल्ड’ की चिप्पी लगी है, जो इसको आए हुए एक साल से भी कम समय को देखते हुए एक असाधारण बात लगती है. हिंदी में किसी किताब का इतनी तेजी से इतनी बड़ी मात्रा में बिकना पहली नजर में असहज करता है. लेकिन किताब पढ़ने पर लगता है कि इसमें एक बहुत बड़े दुख पर उंगली रखी गई है. भारत की उच्च शिक्षा की दशा पर अव्वल तो हमारी भाषा में किताबें ही नहीं हैं, और कुछ हैं भी तो उनका कथ्य अकेडमिक है. एक उच्च शिक्षित युवक को 13 साल ‘ऐड हॉक’ प्रोफेसरी पर रखकर उसे सड़क पर ला देना! यह बात किताब के शीर्षक में आए ‘प्रोफेसर’ शब्द को किसी विचित्र जीव का नाम बना देती है. सबसे बड़ी बात यह कि डॉ. लक्ष्मण यादव की इस किताब से कोई आत्मदया नहीं टपकती. बाकायदा तारीखों के साथ, डायरी के ही ढांचे में लिखी इस पुस्तक के नीचे सवालों का ज्वालामुखी धधक रहा है, जिनका जवाब कभी तो हुक्मरानों को देना होगा.
मेरे लिए यह साल जीवन में सबसे ज्यादा पढ़ाई का रहा और यह अच्छी बात है कि इसका अंत भी भीषण पढ़ाई से हो रहा है. ‘समालोचन’ के स्थायी पाठक इस साल किए गए मेरे छिटपुट काम से जरूर परिचित होंगे. पिछले कुछ महीनों से मैं यहाँ अनुपस्थित हूं क्योंकि बिना किसी योजना के शुरू हो गई अपनी नई किताब ‘महाकवि अश्वघोष और उनका बुद्धचरित : एक विलुप्त काव्य का अनुशीलन’ में व्यस्त रहा. उसके पहले इधर-उधर हाथ मारने की तरह हजार-दो हजार साल पुरानी किताबें पढ़ता रहा. हजार साल पुराना अब्दुल रहमान का ‘संदेश रासक’ और शायद ढाई हजार साल पुराना ‘वाल्मीकि रामायण’. यह भटकन साल के शुरू में आई मेरी किताब ‘भारत से कैसे गया बुद्ध का धर्म’ की रचना प्रक्रिया से उपजी थी और इसका 2000 साल पुराने ‘बुद्धचरित’ तक जाना लाजमी था.
5. भारतीय चिंतन की बहुजन परंपरा
अपने देश को गहराई से जानने, इसके दबे हुए, दबाए हुए पहलुओं को समझने की एक साझा चिंता मुझे ओमप्रकाश कश्यप के ग्रंथ ‘भारतीय चिंतन की बहुजन परंपरा’ में देखने को मिली. निश्चित रूप से यह हमारे समय की एक महत्वपूर्ण किताब है और फिलहाल कदम-कदम पर चौंकता हुआ मैं इसकी अंतर्यात्रा पर निकला हूं. प्राचीन भारतीय इतिहास और उनसे ज्यादा टेक्श्चुअल एंथ्रोपॉलजी के शोधार्थियों को इस किताब में आई प्रस्थापनाओं की रोशनी में पुराने ग्रंथों को नए सिरे से पढ़ना चाहिए और तर्कों को प्रामाणिक ढंग से काटना या पुष्ट करना चाहिए.
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मुसाफ़िर बैठा |
१. मेहतरों के चार घर
दलित तबके से आने वाले बिहार से एक शानदार युवा कवि नागेन्द्र प्रसाद का पहला कविता संग्रह ’मेहतरों के चार घर’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है. कवि की कुछ कविताएँ मेरे और डा कर्मानंद आर्य के संयुक्त संपादन में आए ’बिहार–झारखंड की चुनिंदा दलित कविताएँ’ नामक साझा संग्रह में भी शामिल हैं. इस किताब की मैंने प्रूफ रीडिंग की है और इसकी भूमिका भी लिखी है. बिहार सरकार में अधिकारी इस दलित युवक की यह किसी भी विधा में पहली किताब है. इनकी कविताएँ काफी धारदार हैं और आम जीवन को संबोधित हैं. कवि की विशिष्टता मुझे इसमें लगती है कि उनकी अपनी प्रांजल काव्य भाषा है जो जनभाषा के करीब है और वे चीजों को बहुजन नजरिए से देखते हैं और अछूता एंगल रखते हैं.
२. चमरटोली से डी.एस.पी. टोला तक
’चमरटोली से डी.एस.पी. टोला तक’ एक दलित आत्मकथा है जिसे पटना में रहने वाले बिहार सरकार के पुलिस विभाग में पुलिस उपाधीक्षक पद से सेवानिवृत्त रामचंद्र राम ने लिखी है. मेरे जानते बिहार क्षेत्र से यह पहली दलित आत्मकथा जो किसी पुलिस अधिकारी द्वारा लिखी गई है. खबरदार लोगों को पता चलेगा कि किताब का नाम गोवा के पूर्व राज्यपाल और मशहूर दलित लेखक माता प्रसाद की आत्मकथा ’झोपड़ी से राजभवन तक’ के नाम पर रखा गया साउंड करता है. किताब का पहला हिस्सा काफी अच्छा बुना गया है, साहित्यिक टच और प्रवाह लिए हुए है पर इसका पश्च भाग जल्दबाजी में लिखा गया लगता है जिससे यह भाग डायरी और नोटबुक जैसा हो गया है. यही बात माता प्रसाद की आत्मकथा में भी है. आत्मकथाकार ने आत्मश्लाघा तो की है, पुस्तक में आत्मालोचना न के बराबर की है, मगर इसमें शासन प्रशासन की साहसिक आलोचना है. किताब की एक बड़ी शक्ति यह है कि यह बताती है कि लेखक रामचन्द्र ने एक समर्थ, बोल्ड और कर्तव्य चेतन आंबेडकरवादी अधिकारी की हैसियत बना कर अपना सरकारी कर्तव्य निभाते हुए जनहित के अनेक कार्य कर एक सोशल एक्टिविस्ट की तरह किया, आंबेडकर के ‘पे बैक टू सोसाइटी’ के आह्वान और इच्छा की संगति में काम किया. पुस्तक के अनुसार, आंबेडकर जयंती को अपने कार्य और प्रभाव क्षेत्र में प्रचारित करने में भी आत्मकथाकार का एक अहम रोल रहा है. पुस्तक में एक रोचक तथ्य लेखक ने रखा है कि जिस चमरटोली में एक अदना सी झोपड़ी में उसने जन्म लिया वह टोला कालांतर में लोगों के बीच ही नहीं सरकारी कागजों में भी डी एस पी टोला कहलाने लगी. यहाँ यह बात जोड़ दूं कि पिछले साल बिहार से एक और आत्मकथा आई ’एक बिहारी दलित की आत्मकथा’, जिसकी प्रूफ रीडिंग और संपादन में मेरी भी भूमिका रही है, इस पुस्तक के लेखक भी बिहार सरकार में पुलिस अधिकारी रहे हैं मगर, भूत प्रेत की धारणा में विश्वास रखते हुए तमाम तरह के धार्मिक अंधविश्वासों को ढोने वाले इस व्यक्ति में समाज निर्माण में पहलकारी भूमिका निभाने का कोई शऊर नहीं था, इनकी खुद की स्वीकारोक्ति है कि ये सरस्वती पूजा आदि मनाते रहे और इस तरह आंबेडकर विचार से कोई वास्ता न रखा.
3 प्रोफेसर की डायरी
प्रोफेसर की डायरी: संस्करण दर संस्करण निकल धूम मचाने वाली डॉ. लक्ष्मण यादव की यह संस्मरणात्मक किताब उच्च शिक्षण संस्थानों में नियुक्तियों पल रहे सवर्णवाद, भाई भतीजावाद, एन एफ एस की मनुवादी साजिश आदि का एक भुक्तभोगी या कि शिकार युवा लेक्चर द्वारा लिखा गया वृत्तांत है. बहुजन चेतना से लैस सोशल एक्टिविस्ट एवं दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व एडहॉक हिन्दी लेक्चर लक्ष्मण यादव सोशल मीडिया, फेसबुक, यूट्यूब आदि पर अपने जोशीले और धारदार भाषण के लिए ख्यात हैं और इनकी जबरदस्त फैन फॉलोइंग है.
४. शब्दों के साथ साथ– 2
’शब्दों के साथ साथ–2’ शब्दों के एक चर्चित ’शल्य–चिकित्सक’ डॉ.सुरेश पंत की बेस्टसेलर किताब है. डॉ. पंत फेसबुक पर भी व्याकरण और शब्दों की समझ अपने मित्रों और अनुसरणकर्ताओं में बांटते रहते हैं. मुख पृष्ठ पर ही उद्देश्य का इन शब्दों में कथन है – “विविध शब्दों और उनके व्यावहारिक ज्ञान को सामने लाने वाली पुस्तक.” इसमें बड़े ही सरल शब्दों में आम प्रयोग में आने वाले और भ्रम देने वाले विभिन्न शब्दों के प्रयोग को निवारक सुझावों/उपायों के साथ रोचक तरीके से सोदाहरण समझा गया है.
५. द लास्ट हीरोज
द लास्ट हीरोज : यह पुस्तक मैंने अंग्रेजी अखबार ’द हिन्दू’ में पुस्तक की रिव्यू से सम्मोहित होकर ऑनलाइन खरीदी थी. इसके लेखक हैं, मशहूर अंग्रेजी पत्रकार व लेखक पी साईनाथ. सरकार और प्रभु वर्ग द्वारा भुला दिए गए भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के नींव साबित ’अदना’ राष्ट्रप्रेमी मजदूर, किसान, शिल्पकार, ग्रामीण स्त्री आदि के योगदान पर यह ऐतिहासिक महत्व की अन्वेषणात्मक पुस्तक है. पुस्तक में इन भुला बिसरा दिए गए स्वतंत्रता आंदोलन के सेवियों को ‘भारतीय स्वतंत्रता के पैदल सैनिक’ जैसा गरिमामय मुहावरेदार नाम दिया गया है. ऐसे महनीय व्यक्तित्वों में से जीवित वयोवृद्ध लोगों से लेखक ने उनके पास जाकर बातचीत भी की है और उनके और उनके परिजनों के चित्र भी पुस्तक में शामिल किए हैं.
६.उर्दू शब्दों का गुलदस्ता–2
यह रुचिकर और भाषाई समझ को समृद्ध करने वाली पुस्तक मैंने फेसबुक पर कहानीकार और जानकीपुल के संपादक प्रभात रंजन की इस पुस्तक विषयक चर्चा से आकर्षित होकर खरीदी. अजरा नकवी द्वारा लिखित निश्चित ही यह उपादेय पुस्तक है. खासकर, उनके लिए जो हिंदी में पॉपुलर उर्दू शब्दों को फेंटकर लिखना बोलना चाहते हैं, अपनी लेखनी में उर्दू की आमद बढ़ाकर बेहतर और अधिक प्रभावोत्पादक हिंदी लिखना चाहते हैं. किताब दो भागों में है, प्रथम भाग वर्ष 2023 में ही प्रकाशित हुई थी. मैंने दोनों भाग इकट्ठे ही खरीदे.
७. Caste away
तमिल में ना. वनामामलाई द्वारा लिखी गई और जोशुआ ज्ञानसेलवन द्वारा अनूदित लगभग एक सौ पृष्ठों की यह महत्वपूर्ण अंग्रेजी किताब भी मैंने ’द हिन्दू’ में छपी पुस्तक की रिव्यू से खिंच कर ही ऑनलाइन खरीदी थी. तमिल समाज में जाति व्यवस्था के डायनेमिक्स और जाति प्रथा जनित ऊंच नीच की खाई के सर्जक और पोषक प्रभु ऊंची जातियों से दो दो हाथ करने की तमिल समाज की ’नीची’ जातियों के संघर्ष को दो लंबे निबंधों में लेखकीय और अनुवादकीय वक्तव्यों के साथ रखा गया है. चोल साम्राज्य के समय से लेकर 20 वीं शताब्दी तक का सामाजिक संघर्ष इस पुस्तक में ऐतिहासिक दस्तावेजों, कोर्ट के संबद्ध निर्णयों आदि के साथ दर्ज है.
८.यहाँ शोर बहुत है
‘यहाँ शोर बहुत है’ मराठी और हिन्दी दलित कवि किरण काशीनाथ का यह दूसरा हिन्दी संकलन 66 कविताओं वाला है. मराठी मूल के इस कवि को मशहूर दलित आलोचक और कवि कंवल भारती ने दो बड़े समकालीन हिन्दी दलित कवियों में चर्चित युवा कवि मोहन मुक्त के साथ गिना है. निश्चय ही किरण काशीनाथ व्यापक कविता फलक वाले गंभीर और बेजोड़ कवि हैं. इसी संकलन से उनकी कविता ’सरकारी संस्कृति’ की पंक्तियां देखिए–
“पहले देश की
लोक संस्कृति हुआ करती थी
वह हमारी विरासत थी.
आज देश में सरकारी संस्कृति
हुआ करती है
और
विरासत नदारद है.”
९. शंबूक युगे युगे
‘शंबूक युगे युगे’ दृष्टिवान और कल्पना के धनी विलक्षण युवा दलित कवि–कथाकार राजेन्द्र सजल की एक ही लम्बी कविता से 102 पृष्ठों की बनी पुस्तक है. कवि ने ऊंची कल्पना की है और शंबूक के प्रतिरोधी चरित्र को काव्य रूप में बांधा है. मैं तुलसी जैसे मध्यकालीन प्रतिगामी कवि द्वारा उपजाए गए अंधविश्वास के कीचड़ को धोने के लिए ‘प्रतिदानी’ कीचड़ उपजाने का पक्षधर नहीं हूं, इसलिए कवि राजेंद्र सजल के इस मानसिक श्रम को निरर्थक मानता हूँ.
१०. समकालीन दलित साहित्य का परिप्रेक्ष्य
यह पुस्तक पसंदीदा तो नहीं है मगर महत्वपूर्ण है. महत्वपूर्ण इसलिए कि इसमें आलोचना विधा की 12 दलित कविता संग्रह और दो दलित कहानी संग्रह की समीक्षा संकलित है जो समय-समय पर फौरी रूप से लिखकर फेसबुक पर डाले गए थे. 16 कहानी संग्रह, 8 उपन्यास, 3 कविता संग्रह और एक आलोचना पुस्तक के रचयिता कृतिकार विपिन बिहारी बिहार से हैं और हिन्दी दलित साहित्य में बड़ा नाम हैं. इन्हें मैं ’हिंदी दलित साहित्य का प्रेमचंद’ कहता हूं. प्रस्तुत पुस्तक में मेरे एक कविता संग्रह की भी समीक्षा है. पुस्तक की आलोचना में कहूंगा कि एक अनुभवी और गंभीर लेखक को आलोचनात्मक लेख लिखने चाहिए न कि सतही, सामान्य और प्रायः प्रशंसात्मक अथवा गैर आलोचनात्मक समीक्षा मात्र. यहाँ शामिल समीक्षालेखों में आलोचना से प्रायः बचने की कोशिश की गई है
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शुभनीत कौशिक |
इस साल के आरम्भ में मैंने प्रख्यात अभिनेत्री ज़ोहरा सहगल की संस्मरणात्मक पुस्तक ‘क्लोज़ अप’ (वीमन अनलिमिटेड, 2010) पढ़ी. जिसमें वे अभिनय और रंगमंच की दुनिया से अपने दशकों लम्बे जुड़ाव और उतार-चढ़ाव से भरे अपने बहुरंगी जीवन के बारे में बड़ी दिलचस्पी से बताती हैं. जर्मनी में नृत्य की पढ़ाई, उदय शंकर, पृथ्वीराज कपूर जैसे दिग्गजों से उनका जुड़ाव और इप्टा, पृथ्वी थिएटर, इंग्लैंड के रंग-समूहों और टेलीविजन में उनकी सक्रिय भागीदारी और बीसवीं सदी का एक पूरा दौर उनके इन संस्मरणों में दर्ज़ है.
रंगमंच और अभिनय से जुड़ी दो और शख़्सियतों के बारे में भी मैंने इस वर्ष पढ़ा. प्रख्यात नाटककार, अभिनेता गिरीश कारनाड के बहुआयामी जीवन और उनके संघर्षों का दिलचस्प वृत्तांत है उनका संस्मरण ‘दिस लाइफ़ एट प्ले’ (फ़ोर्थ एस्टेट, 2021). इसमें रंगमंच, सिनेमा, कन्नड़ साहित्य और इन विधाओं से जुड़े लोगों की बातें तो हैं ही. अपने निजी जीवन के नितांत अंधेरे कोनों के बारे में भी लिखने से गिरीश कारनाड की कलम हिचकती नहीं.
एक ऐसे ही सामर्थ्यवान रंगकर्मी थे, हबीब तनवीर, जिन्होंने अपने रंगकर्म के ज़रिए आधुनिकता और परम्परा, लोक और शास्त्र के बीच संवाद को संभव किया. जो रंगमंच की रूढ़ियों को चुनौती देते रहे और स्थापित प्रतिमानों की जगह अपना ख़ुद का विकल्प ढूँढते रहे. रंगमंच के उसी वैकल्पिक विन्यास के ताने-बाने को गहराई से विश्लेषित किया है अमितेश कुमार ने अपनी किताब ‘वैकल्पिक विन्यास : आधुनिक हिन्दी रंगमंच और हबीब तनवीर का रंगकर्म’ (सेतु प्रकाशन, 2021) में.
इसी क्रम में दिवंगत कला इतिहासकार बी.एन. गोस्वामी की पुस्तक कन्वर्सेशंस : इंडियाज़ लीडिंग आर्ट हिस्टोरियन इंगेजेज विद 101 थीम्स एंड मोर (पेंग्विन, 2022) भी मैंने पढ़ी. यह किताब ‘द ट्रिब्यून’ में प्रकाशित उनके नियमित स्तम्भ में छपे लेखों का एक संकलन है. इसमें शामिल लेखों में कुछ आनंद के. कुमारस्वामी, डबल्यू.जी. आर्चर जैसे कला-इतिहासकारों के बारे में हैं, रवींद्रनाथ ठाकुर की कलाकृतियों के बारे में हैं, तो साथ ही मुग़ल, राजपूत, जैन, पहाड़ी और कच्छ की चित्रकला शैलियों और भारतीय वस्त्रों व परिधानों के बारे में भी हैं. साथ ही इसमें दुनिया भर के कला-संग्रहालयों में मौजूद भारतीय चित्रकला के नायाब संग्रह, कला-संरक्षकों की भूमिका, कला-प्रदर्शनियों और चित्र-वीथिकाओं पर अंतर्दृष्टिपूर्ण लेख भी शामिल हैं.
कुछ महत्त्वपूर्ण विचारकों, इतिहासकारों के संस्मरण और आत्मकथाएँ भी मैंने इस साल पढ़ीं. दार्शनिक-अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के जीवन और उनकी विचार-यात्रा का जीवंत दस्तावेज है, उनकी पुस्तक ‘होम इन द वर्ल्ड : ए मेमॉयर’ (एलेन लेन, 2021). दिलचस्प और वैचारिक रूप से समृद्ध करने वाली उनकी इस यात्रा में ढाका, कलकत्ता, इंग्लैंड और अमेरिका जैसी वे जगहें हैं जहाँ उनके जीवन के शुरुआती तीन दशक बीते. वे लोग हैं जो बचपन और युवावस्था से लेकर तीस के वय तक पहुँचने तक उनके जीवन में आए और उन्हें प्रभावित किया. और सबसे बढ़कर शांति निकेतन, प्रेसीडेंसी कॉलेज, ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज, एमआईटी जैसे वे शिक्षण-संस्थान हैं जहाँ उन्होंने ज्ञान अर्जित किया और दुनिया को जाना-समझा. यह किताब एक तरह से उन नदियों, जगहों, लोगों, शिक्षण-संस्थाओं के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हुए अमर्त्य सेन का एक लंबा मार्मिक पत्र है, जिन्होंने उनके जीवन और चिंतन को गढ़ा.
अमर्त्य सेन ने अपनी उक्त पुस्तक में इतिहासकार तपन रायचौधरी की पुस्तक ‘द वर्ल्ड इन अवर टाईम’ (हार्पर कॉलिंस, 2011) का हवाला देते हुए उससे कुछ इतने दिलचस्प उद्धरण दिए थे कि तपन रायचौधरी की इस किताब को पढ़े बिना नहीं रहा गया. आज़ादी से पहले के बंगाल में पतनशील ज़मींदार वर्ग, जो अपनी आख़िरी साँसें गिन रहा था, के रहन-सहन, उसके सामाजिक जीवन, उसकी रुचियों और रोज़मर्रा जीवन के साथ ही किसानों और ज़मींदारी के अंतर्गत आने वाली प्रजा के साथ उसके शोषक व्यवहार का आँखों-देखा ब्यौरा इन संस्मरणों में दर्ज़ है. बड़े संयुक्त परिवार में बिताया गया बचपन, उसकी खट्टी-मीठी यादें और वह समूचा समय इन संस्मरणों में गहरे इतिहासबोध के साथ दर्ज़ हैं. साथ ही, इन पन्नों पर दर्ज़ है उनकी अकादमिक यात्रा भी जो उन्हें बारीसाल से कलकत्ता (स्कॉटिश चर्च कॉलेज और प्रेसीडेंसी कॉलेज) और फिर ऑक्सफ़ोर्ड तक ले जाती है. इतिहासकार सुशोभन सरकार, कॉलिन डेविस जैसे शिक्षकों से लेकर, क्रिस्टोफ़र हिल, रैफ़ेल सैमुएल, एरिक हॉब्सबाम, रंजीत गुहा सरीखे इतिहासकारों, नीरद चौधरी जैसे लेखकों और बुद्धिजीवियों से सम्पर्क में आने और उनसे सीखने के विवरण भी इस संस्मरण में शामिल हैं.
इतिहासकारों के जीवन से रूबरू होने के इस क्रम में मैंने प्रख्यात इतिहासकार एरिक हॉब्सबाम की आत्मकथा ‘इंट्रेस्टिंग टाइम्स’ (एबेकस, 2003) भी इस वर्ष पढ़ी. जिसमें हॉब्सबाम अपने जीवन और अनुभवों के हवाले से प्रथम विश्वयुद्ध के आख़िरी दिनों से लेकर नब्बे के दशक के आख़िरी वर्षों तक की बदलती हुई दुनिया की एक विहंगम तस्वीर खींचते हैं. हॉब्सबाम की जीवन-यात्रा इतनी दिलचस्प रही है कि बीसवीं सदी की अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाओं के वे साक्षी बने. इस बारे में वे लिखते भी हैं कि मेरे जीवन में कई ऐसे ऐतिहासिक संयोग बने कि सही समय पर सही जगह पर मैंने खुद को मौजूद पाया. यहूदी समुदाय से आने वाले हॉब्सबाम पिता की असमय मृत्यु, विस्थापन, यहूदी समुदाय के प्रति तत्कालीन यूरोप में बढ़ते पूर्वाग्रह जैसी तमाम मुश्किलों का सामना करते हुए कैसे इतिहासकार के रूप में खुद को स्थापित करते हैं उसकी गाथा है यह आत्मकथा.
सिद्धार्थ मुखर्जी की किताब ‘जीन : एन इंटीमेट हिस्ट्री’ (पेंग्विन, 2016) भी इसी साल मैंने पढ़ी. सिद्धार्थ की यह किताब जहाँ एक ओर वैज्ञानिकों की खोजों, उनके विचारों और विज्ञान की बदलती समझ का हवाला देती है, वहीं दूसरी ओर इसका एक निजी और बिलकुल आत्मीय पहलू भी है. जहाँ सिद्धार्थ अपने परिवार में आनुवंशिकता व जीन के प्रभाव और मनोविकार के अपने पारिवारिक इतिहास के बारे में बेबाक़ी से बताते हैं. जीन के इस इतिहास में जीव जगत को समझने की बालसुलभ ललक है, एक समय में एक ही विषय पर काम कर रहे वैज्ञानिकों के बीच प्रतिस्पर्धा और होड़ का भाव है, अपेक्षित परिणाम न मिलने या निष्कर्ष तक न पहुँच पाने की निराशा है, तोड़ कर रख देने वाली उपेक्षा है, लेकिन उसके साथ महाद्वीपों को लांघता सहयोग और मैत्री का भाव भी है, गुणसूत्र और जीन की पहेलियाँ सुलझाने की अदम्य जिजीविषा है और सारे मान-अपमान, निराशा, उपेक्षा को धता बताने वाली वैज्ञानिक अनुसंधान की प्रवृत्ति है.
हिमालय के प्रसिद्ध अध्येता, इतिहासकार शेखर पाठक की इसी वर्ष प्रकाशित पुस्तक ‘हिमांक और क्वथनांक के बीच’ (नवारुण प्रकाशन, 2024) सितंबर 2008 में सम्पन्न हुई एक ऐसी यात्रा का वृत्तांत हमारे सामने रखती है, जो बयकवक्त हिमनद क्षेत्र की साहसिक यात्रा होने के साथ ही मनुष्य की उत्कट जिजीविषा, व्यक्तिकेंद्रित होते जा रहे इस समय में सामूहिकता के बचे हुए भावों, कठिनाई और घोर निराशा के क्षणों में भी मनुष्य के अदम्य साहस की एक रोमांचक गाथा है.
गंगोत्री-कालिन्दीखाल-बद्रीनाथ की इस यात्रा को शेखर जी ने ठीक ही ‘निर्जन सौंदर्य और मौत से मुलाक़ात’ की यात्रा कहा है. इस यात्रा-वृत्तांत को पढ़ते हुए हम शेखर जी के दल के साथ गलों की यात्रा तो कर ही रहे होते हैं, इसके साथ ही वे हमें अतीत के गलियारों में भी ले जाते हैं. जहाँ विचरते हुए हम इस क्षेत्र के औपनिवेशिक इतिहास और हिमालय के अन्वेषण-सर्वेक्षण के शुरुआती प्रयासों से रूबरू होते हैं. जहाँ हमारी मुलाक़ात तेनजिंग नोर्गे, रोज़र डुप्लाँ, गिल्बर्ट विग्नेस, मैलोरी, इरविन जैसे पर्वतारोहियों, नैन सिंह रावत, राहुल सांकृत्यायन जैसे हिमालय के अन्वेषकों और स्वामी तपोवन, स्वामी प्रबोधानंद, स्वामी सुंदरानंद जैसे संन्यासियों से भी होती है.
इस साल के आख़िर में मैंने राजनयिक व इतिहासकार टी.सी.ए. राघवन की किताब ‘सर्किल्स ऑफ़ फ़्रीडम’ (जगरनॉट, 2024) पढ़ी. जिसमें राघवन राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास के संदर्भ में एक अलग दृष्टिकोण अपनाते हैं. पाँच शख़्सियतों—सरोजिनी नायडू, आसफ अली, सैयद महमूद, सय्यद हुसैन और अरुणा आसफ अली—के परस्पर सम्बद्ध जीवन पर ध्यान केंद्रित करते हुए, राघवन स्वतंत्रता आंदोलन का एक नितांत मानवीय आयाम प्रस्तुत करते हैं. इन पाँच शख़्सियतों के व्यक्तिगत और राजनीतिक जीवन के माध्यम से वे राष्ट्रीय आंदोलन की वैचारिक जटिलताओं, भावनात्मक उलझनों और अंतर्निहित विरोधाभासों का अन्वेषण करते हैं. यह पुस्तक महज़ एक राजनीतिक इतिहास नहीं है, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम को परिभाषित करने वाली मित्रता, तनाव और दुविधाओं का एक अंतरंग चित्र बन जाती है. इसका कथानक मित्रता, प्रेम और निष्ठा जैसे विषयों पर गहराई से विचार करता है, जो भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के इतिहास में शायद ही कभी प्रमुखता पाते हैं.
क्र म श:
बुझती आस्थाओं के इस दौर में आपका यह आयोजन बड़ी उम्मीद लेकर आया है, आभार.
किताबों की समीक्षा को लेकर मैं इत्तेफाक नहीं रखता। यह यह पहुंच और परस्पर संबंधों का जायज़ा ज्यादा है। यहां विनोद दास के उपन्यास ‘सुखी घर सोसायटी ‘ को शामिल करना चाहिए था। यह काम खुद अरुण देव संभालते तो ज्यादा ठीक था। बहरहाल, ‘सुखी घर सोसायटी ‘ न केवल महानगर में स्थित सोसायटी के फ्लैटों में रहनेवाले मध्यवर्गीय परिवारों की व्यथा कथा है, बल्कि मुंबई के छोटे-छोटे इलाकों में बसे गांव से भागे हुए कामकाजी स्त्री और पुरुषों के संघर्ष और हताशाओं की मर्मस्पर्शी कथा है। यह मुक्तिकामी कवि का गद्य हैं, जहां वाक्य दर वाक्य अनछुए काव्य बिंबों का नजारा देखते ही बनता है। यहां घरों में काम करनेवाली बाइयों, लोकल ट्रेन में सफर करने वाले लोग-लुगाइयों, रेड लाइट एरिया में तकलीफ झेलती सेक्स वर्कर्स, गंदगी से बजबजाते सीवर साफ करनेवाले मजदूरों के दुःखों और कष्टों के साथ उनकी जीवंतता का कोई अंत नहीं।
वर्ष की किताबों पर जांच पड़ताल की दृष्टि और अधिक व्यावहारिक और विस्तृत होती तो ज्यादा अच्छा था।
शुक्रिया. इस विश्वास के लिए. अभी इससे सम्बन्धित कुछ और अंक आयेंगे.
मुझे हरीश त्रिवेदी की विवेचना बहुत दिलचस्प लगी। फ्रायड याद आ गए। उन्होंने ऐसी किसी किताब का जिक्र नहीं किया जिससे वे स्वयं न जुड़े हों। या तो उन्होंने उस पर लिखा है, या दूसरे के लिखे को ध्वस्त किया है, या उसका अनुवाद किया है। और कुछ नहीं तो बरसों बरस पहले उनके छात्र रहे भले अब काफी ख्यात लेखक ने उसे लिखा है। और हां, हर हाल उसका अंग्रेजी से या अंग्रेजी में अनुवाद हुआ है। पर वह उतना महत्वपूर्ण नहीं है , जितना यह तथ्य कि हरीश त्रिवेदी बिन संपूर्ण पुस्तक जगत सुनसान है ।
यह सबसे बड़ा सवाल, कामन सेंस का है कि जिन किताबों का यहां जिक्र है, पाठक उन्हें कहां से हासिल करें?
यह तो आसान है। गूगल पर किताब का नाम लिखिए। अधिकतर अमेजन वगैरह पर मिल जाएंगे।
“सुखी घर सोसायटी ‘” का नाम तो बाकायदा आया है नागर जी। सिर्फ उसका नाम आए वह तो ज्यादती होगी। हर किसी ने पढ़ा भी नहीं होगा। अब पढ़ेंगे।