नाट्यान्वेषण
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यह जानना एक विडंबनाबोध से गुजरना है कि जिस आधुनिक हिंदी आलोचना का आरंभ नाट्यालोचन से होता है उसके लिए नाट्यालोचन अब गौण कर्म हो गया है. नाटक और रंगमंच मुख्यधारा की आलोचना से दूर हो गये हैं. स्मरण रहे, भारतेंदु के प्रसिद्ध निबंध ‘नाटक’ से सैद्धांतिक और लाला श्रीनिवासदास के नाटक ‘संयोगिता स्वयंवर’ की बालकृष्ण भट्ट और चौधरी बदरीनारायण प्रेमघन की आलोचनाओं से व्यावहारिक हिंदी आलोचना की नींव पड़ी थी. इसके पूर्व संस्कृत काव्यशास्त्र में भी नाटक और रंगमंच आलोचना के प्रमुख उपजीव्य रहे हैं. भरतमुनि के कालजयी ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्र’ के ‘पंचमवेद’ कहलाने के पीछे नाटक और रंगमंच की प्रधानता का ही पता चलता है.
पर समय बदला और नाटक हिंदी साहित्य की प्रमुख विधा रह गया और न ही नाट्यालोचना आलोचना की प्राथमिकता रह गयी. पर जैसे नाटक का लेखन और मंचन अब भी जारी हैं वैसे ही नाटक की आलोचना भी हो रही है. कभी-कभार नाट्यालोचन की ऐसी पुस्तकें आ ही जाती हैं जो यह साबित करती हैं कि नाट्यालोचना भी सभ्यता समीक्षा का एक गंभीर और जरूरी माध्यम है.
प्रतिभाशाली आलोचक और संपादक ब्रजरतन जोशी की हाल में ही प्रकाशित पुस्तक ‘नाट्यान्वेषण’ नाट्यालोचना के क्षेत्र में एक आश्वस्त करने वाली कृति है. नेमिचंद जैन, नंदकिशोर आचार्य, देवेन्द्रराज अंकुर जैसे विलक्षण नाट्यालोचकों की कड़ी में जिन नये आलोचकों ने नाटक व रंगमंच को गंभीरता से अपनी आलोचना का उपजीव्य बनाया है, उनमें ब्रजरतन जोशी भी आते हैं. उनकी यह पुस्तक भारतीय नाटक व रंगमंच की परंपरा को अत्याधुनिक वैचारिक व दार्शनिक दृष्टियों से देखने की गंभीर कोशिश है. संस्कृत नाटक व रंगमंच से लेकर लोकनाट्य तक की तमाम शैलियों को बरीकी से देखने-समझने के लिए यह पुस्तक सहायक सिद्ध होती है.
‘नाट्यान्वेषण’ के तीन हिस्से हैं- पहले में संस्कृत और हिंदी के नाटक और रंगमंच की परंपरा का मूल्यांकन किया गया है, दूसरे हिस्से में नाटक आलोचना की तीन पुस्तकों की समीक्षाएँ हैं और एक नाटक की समीक्षा है तथा तीसरे हिस्से में नाटककार नंदकिशोर आचार्य और भानु भारती के साथ ब्रजरतन जोशी के लिए गये साक्षात्कार हैं. पूरी पुस्तक आलोचक जोशी के दीर्घकालीन चिंतन, मनन और नाटक के प्रति लगाव का साक्ष्य है.
संस्कृत साहित्य के अध्येता एवं आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी की लिखी भूमिका से किताब का मूल्य और भी अधिक बढ़ जाता है. इस विस्तृत भूमिका में त्रिपाठी ने आलोचक जोशी की इस पुस्तक को समझने के सूत्र तो दिये ही हैं, उसकी दिल से व्याख्या और विश्लेषण भी करते हैं. भूमिका एक समीक्षा भी है जिसे महज औपचारिकता के लिए नहीं है बल्कि पुस्तक के महत्व–प्रकाशन के लिए लिखा गया है.
पूरी पुस्तक में जो बात विशेष रूप से ध्यान खींचती है वह है नाटक और रंगमंच के प्रति ब्रजरतन जोशी की चिंताएँ और सरोकार. वे तटस्थ अध्येता के बजाय नाटक एवं रंगमंच के प्रति प्रतिबद्ध संस्कृतिकर्मी और नाट्य परंपरा के ह्रास से चिंतित व खिन्न नाटकप्रेमी विचारक की तरह पेश आते हैं. इससे इस आलोचना पुस्तक में एक विशेष प्रकार की आंतरिकता और संलग्नता विद्यमान है. वे रंगमंच की लुप्त होती संस्कृति और उसके समानांतर इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में रूपंकर कलाओं के नाम पर बनावटी विकृति से चिंतित हैं. वे परंपरागत रंगमंच की सामाजिकता, जीवंतता और संप्रेषण के लिए मॉस मीडिया और बाजारू संस्कृति उद्योग को एक खतरे के रूप में देखते हैं. वे लिखते हैं,
“हमारे यहाँ शास्त्रीय परंपरा में रंगकर्म को एक आह्लादकारी एवं रचनात्मक आत्मसाक्षात्कार का माध्यम माना जाता रहा है. लेकिन इस उत्तर आधुनिक रंग अवस्था के चलते यह कार्य एक मनोरंजन-उद्योग में रूपांतरित हो रहा है.”
पृ 17
रंगकर्म एक सामाजिक माध्यम है. रंगकर्मी को सामाजिक कहने की परंपरा यों ही नहीं रही है. जिसमें रंगकर्मी और दर्शक आमने-सामने होते हैं. इसलिए उसमें एक ऐसी जीवंतता और विश्वसनीयता होती है जो किसी और कला माध्यम में दुर्लभ होती है. मनोरंजन उद्योग और व्यावसायिक सिनेमा ने नाटक और रंगमंच की इसी सामाजिकता और जीवंतता का अभूतपूर्व क्षरण किया है. इस स्थिति के प्रति असंतोष और चिंता प्रकट करते हुए ब्रजरतन जोशी लिखते हैं,
“चूँकि रंगमंच एक जीवंत माध्यम है, जिसमें सजीव उपस्थिति उसका विशिष्ट पहलू है, शायद रंगमंच में ही यह विशिष्ट पहलू बचा रहा है. सूचना, संप्रेषण के अधुनातन काल में सजीव उपस्थिति का विलोपन हुआ है, यह विलोपन इन्हीं उत्तर आधुनिक प्रभावों का परिणाम है कि जब मनुष्य का स्थान यंत्र लेते जा रहे हैं.”
पृ 17
नंदकिशोर आचार्य के हवाले से वे कहते हैं कि वैद्युतिक माध्यम रंगमंच की संप्रेषण प्रक्रिया में बाधा के रूप में आये हैं.
नाटक और रंगमंच का संबंध, नाटक की रंगमंचीयता की कसौटी इत्यादि मुद्दों पर हर नाटककार व रंगकर्मी को सोचना पड़ता है. नाटक एक साहित्यिक कृति है, इसलिए उसका आस्वादन पाठ से भी किया जा सकता है. जरूरी नहीं कि उसका मंचन ही हो और मंचन से पहले उसका अस्तित्व महत्वहीन और अधूरा हो. ऐसा मानना उचित है पर नाटक का मंचन उसकी एक केन्द्रीय कसौटी है और कृति की माँग भी. संभवत: इसीलिए नाटक की नियति मंचन ही मानी जाती रही है. ब्रजरतन जोशी नाटक और रंगमंच को विच्छिन्न करके नहीं देखते. उनका मानना है कि नाटक और रंगमंच में गहरा संबंध है और नाटक की ‘पूर्णाहुति’ मंचन के साथ ही होती है. वे लिखते हैं,
“कृति को केवल एक शाब्दिक आधार मात्र होती है. उस कृति में जीवन का स्पंदन तो रंगमंचीयता के जरिये ही प्रवेश पाता है. रंगमंचीयता नाटक के आलेख प्राण-प्रतिष्ठा जैसा काम करती है.”
पृ 30.
इससे स्पष्ट है कि वे नाटक के लिए रंगमंच को कितना जरूरी मानते हैं.
नाटक के समक्ष रंगमंच की शर्त को रखना निश्चय ही एक अतिरिक्त माँग हो सकती है क्योंकि रंगमंच पर उतरने के बिना भी एक साहित्यिक कृति के रूप में उसका महत्व है और सार्थकता भी. पर जोशी यह मानते हैं कि रंगमंच नाटक की नैसर्गिक माँग है, उस पर अतिरिक्त दबाव नहीं. नाटक का लेखन ही मंचन के लिए होता है,
“रंगमंचीयता का यह आग्रह पाठ में उपस्थित पाठ की अनुभूति को साक्षात करने का आग्रह है. यही पाठ जब सामाजिक रंगमंचीय उपकरणों एवं क्रिया व्यापार के संयोग से भाषा के माध्यम से ग्रहण करता है, तो उसमें साधारणीकरण की प्रक्रिया हो जाती है.”
पृ 30
इस तरह रंगमंचीयता उनकी दृष्टि में नाटक के लिए ‘अपरिहार्य’ है.
नाटक और रंगमंच के इसी सहअस्तित्व को जोशी अपनी नाट्यालोचना का भी मूल सिद्धांत बनाते हैं. इस पुस्तक में उन्होंने नाट्यालोचना की प्रगति और दशा को भी देखा है. वे पाते हैं कि हिंदी नाट्यालोचना में नाटक और रंगमंच का अलगाव परिलक्षित होता है. जहाँ नाटक को एक ओर साहित्यिक कृति के रूप में देखा गया वहीं दूसरी ओर रंग-चिंतन पाठ से दूर केवल रंगमंच और उसके तकनीकी पक्षों पर केन्द्रित रहा. निश्चय ही यह स्वस्थ प्रवृत्ति नहीं थी. जोशी यह देखते हैं कि इन दो अतिवादी द्ष्टियों के अलावा एक दृष्टि वह भी है जो नाटक और रंगमंच को एक दूसरे से अविच्छिन्न नहीं बल्कि एक ही परियोजना के रूप में देखती रही है. इसी तीसरी दृष्टि को वे नाटक आलोचना की स्वस्थ और संतुलित दृष्टि मानते हैं. स्वयं भी इसी दृष्टि से वे नाटक और रंगमंच पर विचार करते हैं.
भारतीय रंगमंच और नाटक पर कोई भी विचार-विमर्श लोकनाट्य रूपों की चर्चा के बिना अधूरा रह जाता है. भारत की सांस्कृतिक विविधता और स्थानीयता के अगणित रंग लोकनाट्यों में ही खुलकर आते हैं. नाटक और रंगमंच के तमाम सैद्धांतिक सवालों से मुखातिब यह किताब मूलत: हिंदी की नाट्य परंपराओं पर आधारित है. किंतु, डॉ भनावत के आलोचना ग्रंथ ‘भारतीय लोकनाट्य’ की समीक्षा के बहाने ब्रजरतन जोशी ने लोकनाट्य के विषय में अपने सोच-विचार और समझ को अभिव्यक्त करने का अवसर निकाल लिया है. लोक नाटक अपनी सहजता, निश्छलता और सरलता के लिए विशेष रूप से पसंद किया जाता है. वे लोक नाटक को लोकमानस और लोकसंस्कृति की रचनात्मक उपस्थिति के रूप में देखते हैं. इसी कारण वे उन्हें लोकमानस के प्रतिबिंब के रूप में रेखांकित करते हैं तथा शास्त्रीय नाटकों की तुलना में उन्हें लोकहृदय के निकट पाते हैं. लोकजीवन की काव्यात्मक भाषा में वे ‘लोक’ के बारे में लिखते हैं,
“लोक हमारे आँगन से लेकर जीवन के प्रांगण तक पसरा ऐसा बहुरंगी संसार है जिसकी रस-भीनी गंध से संस्कृति का विराट परिसर महकता-चहकता है.”
पृ 80
लोक नाटक और रंगमंच हमारे जीवन के इसी आँगन और प्रांगण की सच्ची और प्रामाणिक धकड़कनें और चित्र हैं. जोशी उन्हें उन्हीं के प्रतिमान और अभिमान के आलोक में देखते हैं. अकादमिक और बौद्धिक आभिजात्य को एक किनारे रख लोक-रस में डूबते हुए.
‘नंदकिशोर आचार्य का नाट्य संसार’ पुस्तक का एक महत्वपूर्ण लेख है. यह लेख हमारे समय के एक प्रमुख चिंतक और नाटककार नंदकिशोर आचार्य के नाटकों का एक समग्र पाठ है. इसमें उनके नाटकों की विशिष्टता और कथ्य की बारीक जाँच-पड़ताल की गयी है. इसमें उनके नाटकों के मूलतत्व और केन्द्रीय थीम की पहचान भी है. वे लिखते हैं,
“उनके संपूर्ण नाट्य साहित्य का अनुशीलन करने के पर एक थीम जो मुख्यतः: निकलकर आती है, जो उनके लगभग प्रत्येक आलेख में बरामद की जा सकती है, वह है- सत्ता, व्यक्ति स्वतंत्रता, इनके परस्पर संबंध की समस्यात्मकता और नैतिक अंतर्द्वंद्व.”
पृ 55.
आचार्य के अधिकांश नाटक ऐतिहासिक और राजनीतिक हैं. ये एक ठोस नैतिक धरातल पर राजसत्ता और व्यक्ति सत्ता के तनाव और द्वंद्व को अभिव्यंजित करते हैं. यह लेख आचार्य के नाटकों का अत्यंत आत्मीय और उपन्यस्त पाठ करता है. ऐन इसी वजह से जोशी के नाट्यालोचक रूप को भी बखूबी निखारता है.
आचार्य के नाट्य-संसार को और अधिक ग्राह्य और सगुण बनाता है इस पुस्तक में संकलित ब्रजरतन जोशी के साथ उनका एक विशद और विस्तृत साक्षात्कार. यह साक्षात्कार इस पुस्तक की एक विशिष्ट उपलब्धि है. नाटक व रंगमंच के विभिन्न पक्षों और स्वयं आचार्य के नाटकों पर आधारित यह बातचीत बहुत ज्ञानवर्द्धक और विचारोत्तेजक है. पुस्तक के करीब तीस पृष्ठों में फैली यह बातचीत इस बात का उदाहरण है कि कैसे साक्षात्कार के शिल्प को आत्मश्लाघा और परनिंदा से बचाते हुए एक गंभीर और उपयोगी संवाद-कला के रूप देखा और बरता जा सकता है. इसी तरह रंगकर्मी निर्देशक एवं नाटककार भानु भारती के साथ लेखक की बातचीत भी पठनीय है. इस बातचीत से भानु भारती के नाटकों की रचना-प्रक्रिया और उनके रंग प्रयोगों के प्रेरकों की जानकारी मिलती है. समय के साथ नये प्रयोग और कहन के नये मुहावरे की तलाश को वे स्वाभाविक दबाव के रूप में देखते हैं. वे हिंदी नाटक व रंगमंच के क्षेत्र में राजस्थान के योगदान को उचित ही रेखांकित करते हैं.
नाटक की सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक आलोचना, पुस्तक समीक्षा और साक्षात्कार की विधाओं में बँटी यह नाटक और रंगमंच पर एक व्यवस्थित किताब है. पाश्चात्य एवं संस्कृत की समृद्ध शास्त्रीय नाट्य परंपराओं पर यत्र-तत्र सुचिंतित टिप्पणियाँ तथा उनके प्रस्थान बिंदुओं का हिंदी नाटक एवं रंगमंच का विवेचन करते समय स्मरण बताता है कि ब्रजरतन जोशी लंबे समय से इस विषय में अपने को अध्ययन एवं मनन से समृद्ध करते रहे हैं. नाटक एवं रंगमंच पर गंभीर आलोचना पुस्तकों की कमी को ध्यान में रखें तो यह पुस्तक नाटक आलोचना के प्रति उम्मीद जगाती है. साथ ही नाटक एवं रंगमंच के अन्योन्याश्रय संबंध पर बल देकर दोनों की परस्परता को भी रेखांकित करती है.
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यह किताब यहाँ से प्राप्त की जा सकती है.
आनंद पाण्डेय ’पुरुषोत्तम अग्रवाल संचयिता’ का ओम थानवी के साथ सह-संपादन तथा ‘सोशल मीडिया की राजनीति’ नामक पुस्तक का संपादन. ’लिंगदोह समिति की सिफारिशें और छात्र राजनीति’ नाम से एक पुस्तिका प्रकाशित. सम्पर्क |
अपने पाठ्यक्रम में नाटकों को पढ़ते हुए नाटक के मंचन की कल्पना मन में आती है । बचपन में रामलीला के दस दिन के मंचन को देखते हुए भी दृश्यों की छवि मेरे मन में है । इसलिये नाटकों का मंचन न किया जाये तो यह अव्यवहारिक लगेगा । नाटक लिखे और खेले जाएँगे तो नाट्यशास्त्र पर आधारित आलोचनाएँ भी लिखी जाएँगीं । तब यह त्रयी पूर्ण होगी । एक वर्ष तक संगीत नाटक अकादमी से उनकी पत्रिका मँगवायी थी । यह इसलिये हुआ क्योंकि मेरे मन में इच्छा थी और भगवान दास भवन (क्या स्थान ग़लत लिख दिया है) में जाकर एक नाटक देखा था । यूँ तो खुला आँगनमंच/ मचं आँगन देखा है लेकिन नाटक एक अँधेरे कमरे में देखा । अटपटा सा लगता रहा कि वहाँ बैठने के लिये पुराने टायर रखे हुए थे । हालाँकि कुछ दर्शक खड़े होकर भी देख रहे थे ।
संस्कृत साहित्य में कालिदास के लिखे नाटकों को सुना है जबकि पढ़ा नहीं । आज समालोचन पर चर्चा पढ़कर अहसास पुख़्ता हुआ कि नाटक संपूर्ण विधा है । मुझे नाटकों के लेखकों पर गर्व है । कि किस क़दर वे कल्पना करते हुए नाटक लिखते हैं । भारतीय परंपरा में शिव को प्रथम नर्तक और नारद को प्रथम नाटक का पात्र माना माना जाता है । मैंने यह पढ़ा था । मेरी स्मृति में भूल चूक हो सकती है ।
लेखक ने नंदकिशोर आचार्य के उद्धरण में एक स्थान पर ‘बरामद’ शब्द का प्रयोग किया है । बरामद शब्द नशीले पदार्थों, अवैध संपत्तियों और संपदाओं तथा खनन माफ़ियाओं के साथ जुड़कर बदनाम हो चुका है ।
मेरा सुझाव है कि क्यों न बरामद शब्द के स्थान पर प्राप्त लिख दिया जाये ।
बहुत ही उपयोगी। ब्रजरतन जोशी जी की यह पुस्तक महत्त्वपूर्ण है।
बहुत उम्दा प्रयास । नाटक सर्वाधिक प्राचीन विधा है लेकिन तकनीक के युग मे उपेक्षित हो गई है ।ऐसी रचनाएं नाटक और समालोचना दोनों ही के लिए प्राण संचयी साबित होगी । ब्रजरत्न जोशी जी का विशेष आभार साथ ही आनंद पांडेय जो को साधुवाद कि ऐसी समग्र दृष्टि से समालोचना की ।। नाटक सब कलाओं का मूल और उदभव है ।