वैकल्पिक विन्यास
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“आज तक जितनी तारीख़ लिखी गयी है मग़रीब (पश्चिम) में, तहज़ीब की, तमदुन्न की या आर्ट की, फ़नून की. सब यूनान से, मिस्र से या रोम से शुरू होती है. मिस्र का नाम लेते हैं क्योंकि यूनान से उसका ताल्लुक़ था. लेकिन कभी चीन का ज़िक्र नहीं आता, कभी हिंदुस्तान का ज़िक्र नहीं आता, ईरान का ज़िक्र भी बहुत कम आता है. तो इस पर मेरी तबीयत बहुत झल्लाती थी कि क्या तमाशा है? सारी तहज़ीब और तमदुन्न जो है, वो सबका सब यूरोप से ही शुरू हुआ और यूरोप पर ही खत्म हुआ. और हम ग़ुलाम मुल्क के जो लोग हैं सिवाय उनसे सीखने के कुछ नहीं रह गया?”
हबीब तनवीर (पुस्तक ‘वैकल्पिक विन्यास’ में उद्धृत)
मेरी कई आदतों में एक आदत है, जिसे मैथिली भाषा में कहते हैं- लटारम्ह. यानी किसी बात के मूल पर आने से पहले लंबी भूमिका कहना. एक दफ़ा यूँ हुआ कि एक भाषा-प्रेमी विजय देव जी ने पूछा कि लटारम्ह शब्द का मूल क्या है? मुझे मालूम नहीं था, मगर आदतन कह गया कि बात को लाग-लपेट के साथ कहना लटारम्ह कहलाता होगा. उन्होंने कहा कि इसका मूल भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में है. मेरा कौतूहल जगा कि भला लोकभाषा में प्रचलित यह शब्द नाट्यशास्त्र से कैसे आया. उन्होंने कहा कि संस्कृत नाटकों में पहले एक लंबी प्रक्रिया होती थी, जिसे ‘नाट्यारंभ’ कहते थे. यह नाटक से पहले का ताम-झाम था, जो लोकभाषा में लटारम्ह बन गया.
बहरहाल पुस्तकों तक पहुँचने का भी एक आडंबर या नाट्यारंभ होता है. कई बार किताबें हमारे पास आ भी जाए, तो उसे पढ़ने का आडंबर होता है. इस पुस्तक के लेखक अमितेश कुमार के ब्लॉग ‘रंगविमर्श’ से परिचय था, और फौरी तौर पर यह जानकारी थी कि यह हिंदी रंगमंच के एक विशेषज्ञ स्तंभकार हैं. इनकी पुस्तक की तस्वीर कहीं दिखी, तो भारत से लौटते हुए लेता आया. मगर वह यात्री झोले में ही कहीं दबी रह गयी.
कुछ महीने बाद एक भारतीय रंगकर्मी-अभिनेता मानव कौल नॉर्वे आए, तो हमारी साझा अनुवादक मित्र ने परिचय कराया. वह हफ्ते भर मेरे साथ रहे और रंगमंच की दुनिया की बातें सुनायी. नुक्कड़ नाटकों की, भोपाल की, बंबई के थियटरों की. कभी वह उत्साहित होते, और कभी कुछ निराश. उन्होंने कहा कि सत्यदेव दूबे पर काम किया जाना चाहिए. मैंने यूँ ही सुनी-सुनायी बतायी कि इरफ़ान साहब की योजना तो है. गुफ़्तगू वाले इरफ़ान साहब! इब्राहीम अल्काजी की बातें चली, मैंने संजय उपाध्याय की बात जोड़ी, उन्होंने आलोक दा (चटर्जी) की तारीफ़ की, और बात घूमते-घूमते एक किरदार पर आकर रुक गयी. हबीब तनवीर!
ओस्लो के एडवर्ड मंक संग्रहालय से निकल कर एक लंबी टहल में हमारे साथ हबीब तनवीर की बातें थी, नोबेल शांति संस्थान के सामने भी वही थे, और एक इतालवी रेस्तराँ में बैठे हुए भी वही. जैसे वह हिंदी रंगमंच के आदि और अंत हों. अथवा एक ऐसे सूत्रधार जहाँ सभी डोरें जाकर मिल जाती हो. मुझे एकबारगी लगा कि यह छत्तीसगढ़-भोपाल का निजी लगाव रहा हो कि हबीब साहब पर इतनी बातें हो रही है, लेकिन बात कुछ दूर तलक जा रही थी. उन चर्चाओं का विस्तार ब्रेख़्त से लेकर छत्तीसगढ़ के पंडावनी शैली तक था.
मुझे लगा कि जिन ‘आगरा बाज़ार’ या ‘मिट्टी की गाड़ी’ से हबीब तनवीर को हमारी पीढ़ी के आम लोग पहचानते हैं, या ‘प्रहार’ जैसी हिंदी फ़िल्मों में सिगार पीते देखा है, वह उससे कहीं बड़े फ़लक के रहे होंगे. जब हमारी बात खत्म हुई, तो अगली सुबह चाय पर मैंने मानव को यह किताब निकाल कर दिखायी. यह कुछ पढ़ाकू दंभ सा मामला था कि हबीब साहब पर मैं भी सिफ़र नहीं, यह किताब तो मेरे संग्रह में है (भले अभी पढ़ी नहीं है). उन्होंने अलट-पलट कर देखा और वापस रख दिया. देखना-दिखाना खत्म हो गया, पढ़ना बाकी रह गया.
बहरहाल ग्रीष्म बीता, कुछ फुहारें आयी, शरद ऋतु की दस्तक के साथ पहाड़ी पेड़ों के पत्ते रंग बदलने लगे. एक दिन मेरी बेटी ने हेनरिक इब्सन का एक नाटक Et Dukkehjem (एक खिलौना-घर) के रियाज़ में मुझे एक पात्र के संवाद कहने कहे, और दूसरा संवाद वह कहती. चूंकि यह पुराने नॉर्वेजियन में लिखी थी, तो कुछ शब्दों के चलन अब बदल गए हैं. मगर वह काम मुश्किल नहीं था. अपने-आप ही वह शब्द हम बदल ले रहे थे. हिंदी में उदाहरण दें तो अगर संवाद में ‘गृह’ लिखा हो, तो मुमकिन है लोग उसे स्वतः ‘घर’ पढ़ लें. लेकिन, एक पूरी रचना का रूपांतरण कितना कठिन होता होगा? अगर ‘मृच्छकटिकम्’ को ‘मिट्टी का गाड़ी’ रूप में दर्शाना हो तो?
कुछ ऐसी ही ऊहापोह में ‘वैकल्पिक विन्यास’ मेरी मेज पर आ गयी. पुस्तक का उपशीर्षक है- आधुनिक हिन्दी रंगमंच और हबीब तनवीर का रंगकर्म. लेखक एक शिक्षक हैं, और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रों का रंगमंच समूह संचालित करते हैं. मेरे मन में शीर्षक स्पष्ट नहीं था कि वैकल्पिक विन्यास का अर्थ आखिर क्या?
चूँकि मेरा प्रशिक्षण चिकित्सा का रहा है, तो मैंने क़यास लगाया कि जैसे वैकल्पिक चिकित्सा (Alternative medicine) होती है, उसी तरह वैकल्पिक रंगकर्म या विन्यास भी हो सकता है. जो बनी-बनायी लीक से हट कर हो. जो पश्चिम के प्रभाव से मुक्त होने का प्रयास कर रही हो. जो रंगमंच की पारंपरिक छवि से अलग हो. जैसे साहित्य में कहते हैं- दूसरी परंपरा की खोज. कुछ उसी कड़ी में?
एक स्वीकारोक्ति यह कि हाल में कलकत्ता के एक साहित्य समूह ‘नीलांबर’ ने निबंध प्रतियोगिता आयोजित की है. शीर्षक है- ‘परंपरा की दूसरी खोज’. मुझसे एक युवक ने पूछा कि आप बहुत आसानी से क्लिष्ट चीजें समझाते हैं, क्या यह शीर्षक समझा देंगे? मैंने उनको नामवर सिंह की लिखी पुस्तक और समालोचन पर छपा एक लेख अनुमोदित कर दिया, मगर मैं समझा नहीं सका. दूसरी परंपरा और वैकल्पिक विन्यास की उलझन बरकरार रही. इन गिरहों को खोलने के लिए ही तो हम विमर्श की किताबें पढ़ते हैं.
यह किताब कुछ हिस्सों में एक शोध-ग्रंथ की तरह वागाडम्बरी है, मगर अधिकांश हिस्सों में लेखक एक शिक्षक रूप में हैं. पिछली पाँती में बैठे बच्चों का भी ख़याल रखते हैं, और तबीयत से समझाते हैं. मसलन यह किताब वहीं से शुरू होती है, जहाँ से होनी चाहिए. उन दिनों से जब हिंदी रंगमंच तो क्या, एक भाषा के रूप में हिंदी भी जन्म ही ले रही थी.
लेखक भारतेंदु हरिश्चंद्र का कथन उद्धृत करते हैं कि हिंदी का पहला नाटक उनके पिता गिरिधर दास द्वारा लिखित ‘नहुष’ है. लेकिन, वह संकेत देते हैं कि भारतेंदु उन पारंपरिक नाटकों की अनदेखी कर रहे थे, जो गाँवों में सतत खेला जाता रहा है. भारत का हिंदी रंगमंच पश्चिम की नकल करता हुआ, स्थापित पारसी थिएटर से मिलता-बिछड़ता हुआ, राष्ट्रवाद से ताल बिठाने का प्रयास करता हुआ, उर्दू से छिटकता हुआ, गिरता-लड़खड़ाता आगे बढ़ता है.
पुस्तक में तत्सम भाषा में लिखी महाभारत नाटक पर लक्ष्मीकान्त भट्ट का एक कथन उद्धृत है-
“कौन जनता दो रुपए का टिकट, दस आने की महाभारत नाटक की किताब और सवा रुपए की हिन्दी शब्दकोश खरीद कर पण्डित माधव शुक्ल का महाभारत नाटक देखने आएगी?”
आगे वह राधेश्याम कथावाचक का तर्क लिखते हैं कि नाटक की भाषा जनता की भाषा होनी चाहिए, जो सर्वगम्य हो. सभी को आसानी से समझ आए. ज़ाहिर है कि हिन्दी नाटकों को जनता से संवाद करने में एक लंबी जद्दोजहद करनी पड़ी, जबकि पारसी थिएटर अपनी कमियों के बावजूद पसंद किया जाता रहा.
आज़ादी के बाद रंगमंच का माहौल बदलना स्वाभाविक था. एक तरफ़ हिन्दी रंगमंच ने इप्टा के माध्यम से अपनी पहचान और पहुँच बनानी शुरू की, दूसरी तरफ़ सरकारी संस्थान भी खुलने लगे जहाँ रंगकर्म का प्रशिक्षण दिया जाने लगा. हबीब तनवीर इस घटनाक्रम में कहीं भीड़ में मौजूद थे, मगर लाइमलाइट में नहीं थे. उन्होंने 1954 में ‘आगरा बाज़ार’ नामक एक नाटक खेला, जो नाटक के खाँचे में पक्की तरह नहीं उतरता था. अब पीछे मुड़ कर देखने पर लगता है कि वह एक लकीर खींच गये थे.
आगरा बाज़ार में एक ककड़ी वाले की ककड़ी नहीं बिक रही होती, तो वह कुछ शायरों से मिन्नतें करता है कि ककड़ी पर शायरी लिख दें. शायरों की अकड़ ऐसी कि वे शे’र तो क्या, ऐसे लोगों के मुँह भी नहीं लगते ताकि ज़बान न बिगड़ जाए. वहीं, नज़ीर अकबराबादी नाम के एक शायर को मुशायरों में पहचान नहीं मिलती, लेकिन उनकी शायरी बाज़ार के आम लोगों की जुबाँ पर होती है. उनकी लिखी शायरी के बदौलत ककड़ी बिकने लगती है.
इस नाटक के अभिनेताओं के हवाले से अमितेश लिखते हैं-
“इस नाटक में कोई स्पष्ट कथानक नहीं था, न ही कोई मुख्य नाटक था, यथार्थवादी नाटकों का तीन अंकीय ढाँचा भी नहीं था, नाटक के वृतांत में प्रारंभिक विकास और अंत जैसी कोई स्थितियाँ भी नहीं थी. सबसे अजीब बात यह थी कि नाटक जिस किरदार को केंद्र में रखता था वह (नज़ीर अकबराबादी) किरदार मंच पर ही नहीं आता था. अब ऐसे नाटक को नाटक कैसे माना जा सकता था! दरअसल इस नाटक ने पश्चिमी यथार्थवाद और आधुनिकता द्वारा परिभाषित नाटक के पैमानों का अनुसरण ही नहीं किया.”
कहीं न कहीं हबीब तनवीर ने यह स्पष्ट बात रख दी थी कि रंगमंच को भी अभिजात्य घेरों से निकल कर लोक से संवाद की ज़रूरत है. ज़रूरत है ज़मीन से पारंपरिक कलाकारों को उठा कर मंच पर लाने की, नाटक और नौटंकी के भेद को पाटने की, संस्कृत और पारंपरिक रंगमंच को मध्य पुल बनाने की. यह ‘जड़ों के रंगमंच’ की शुरुआत थी (बकौल रंगमंच विद्वान सुरेश अवस्थी).
खैर, आगरा बाज़ार के बाद हबीब सरकारी वज़ीफ़ा पर यूरोप चले गए. जब लौटे तो उन्होंने शूद्रक के मृच्छकटिकम का रूपांतरण कर ‘मिट्टी की गाड़ी’ का मंचन किया. वह सीधे तौर पर संभ्रांत मंचों में लोक का समावेश कर रहे थे, जिसका एक स्वाभाविक प्रतिरोध था. वक्त लगा. पूरा दशक लग गया, जब उनके मॉडल को स्वीकार्यता मिलनी शुरू हुई.
सत्तर के दशक में हबीब तनवीर भारतीय रंगमंच में वह वैकल्पिक विन्यास ला चुके थे, जो भारतीय रंग में रंगा था. इसमें अगर पश्चिम की छटा होती भी तो, आकृति भारतीय होती. पुस्तक के अनुसार हबीब तनवीर अनुवाद के बजाय रूपांतरण पर बल देते, और यूरोपीय कथ्य को भारतीय लोक कथ्य में परिवर्तित करने का प्रयास करते. इससे भी रोचक यह है कि भारतीय लोक-कथाएँ जो पहले से लोक की ही है, उनके समकालीन रूपांतरण का प्रयोग भी करते.
चरणदास चोर का उदाहरण लें, तो वह राजस्थानी लोक-कथा पर आधारित थी, और छत्तीसगढ़ के लोक-कलाकारों द्वारा मंच पर प्रस्तुत की गयी. यह नाटक मैं आकाशवाणी पर दुबारा सुन रहा था. उसकी भूमिका में कहा जाता है कि यह पटकथा लिख कर नहीं दी गयी, और सिर्फ़ प्लॉट बता कर कलाकारों को विन्यास करने या इम्प्रोवाइज करने के लिए कहा गया. कई प्रदर्शनों के बाद इसका एक परिष्कृत रूप बना.
यह एक ऐसे चोर की कहानी है जिसने यह प्रण लिया कि कभी असत्य नहीं कहेगा. न ही अपनी प्रतिज्ञाएँ तोड़ेगा. उसकी प्रतिज्ञाओं का मज़ाक़ बनता है जब वह कहता है- वह कभी हाथी पर चढ़ कर जुलूस के आगे नहीं चलेगा, कभी राजा की गद्दी पर नहीं बैठेगा, कभी किसी राजकुमारी से विवाह नहीं करेगा. एक चोर के नसीब में भला यह सब कहाँ?
यह एक अद्भुत विरोधाभास है जब एक चोर भी सत्य और संकल्प की राह नहीं त्यागता. उसके सामने वे अविश्वसनीय मौके आते हैं, जब वह रानी का विवाह प्रस्ताव और राजा की गद्दी तक ठुकरा देता है. भले उसे फाँसी हो जाए. पुस्तक में एक खुलासा है कि इसके नाटकीकरण और ‘चरणदास चोर’ शीर्षक के तार सतनाम संप्रदाय के संस्थापक गुरु घासीदास से जुड़े हैं.
लेखक अमितेश कुमार की एक ख़ासियत दिखती है कि वह हबीब तनवीर पर लिखते हुए उनके प्रभामण्डल से पूरी तरह चौंधिया नहीं जाते. बल्कि वह कई स्थानों पर उनकी असफलताओं का ज़िक्र करते हैं. और-तो-और एक नाटककार के रूप में भी हबीब तनवीर की कमजोरियाँ गिनाते हैं. वह ये लिखते हुए नहीं हिचकते कि 1971 में बाक़ायदा ट्रकों पर ‘इन्दर लोकसभा’ का मंचन करते हुए, हबीब साहब कांग्रेस पार्टी का प्रचार अथवा खुला समर्थन कर रहे थे. वहीं दूसरी तरफ़, वह चरणदास चोर में रानी की निरंकुशता को इंदिरा गांधी के आपातकालीन दमन से जोड़ते हैं.
पुस्तक में लोक-संगीत के प्रचुर (और कभी-कभी अति-प्रयोग) पर भी चर्चा है. नाचा, चंदैनी, पण्डवानी, स्वांग, प्रह्लाद नाटक, गम्मत इत्यादि शैलियों का प्रयोग कर हबीब तनवीर ने लोक को गाजे-बाजे के साथ मंच पर ला दिया. प्रोसेनियम और मंच की शिष्टताओं को कुछ हद तक दर-किनार करते हुए, गाँव-देहात की चकल्लस को सामने ले आए. एक तरह से वह भारतीय रंगमंच पर से औपनिवेशिकता की चादर हटा रहे थे, और इसे एक स्वतंत्र पहचान दे रहे थे.
हबीब तनवीर तो अब नहीं रहे. उनका नया थिएटर’ (भोपाल) अब भी सक्रिय है. इसकी एक वजह बतायी गयी है कि नया थिएटर’ वाकई अपने नयेपन को बरकरार रखता है. नये कलाकार जुड़ते हैं. अमितेश की टिप्पणी है-
“भारत में, जहाँ रंगमंच के लिए अभी भी बुनियादी संरचना नहीं है, कोई स्पष्ट सांस्कृतिक नीति नहीं है, और तरह-तरह के अभाव हैं, इतनी मुश्किलों का सामना करते हुए एक पेशेवर रंग समूह के निजी प्रयासों और कलाकारों के सहयोग से लगातार साठ सालों से अधिक सफलतापूर्वक चलाया जा सकता है”
पुस्तक की सीमाओं की चर्चा करूँ तो आज के पाठक-वर्ग के लिए यह पुस्तक अधिक सर्वगम्य बन सकती थी. ख़ास कर जब हबीब तनवीर का आदर्श ही यही हो. जो रंगमंच के शौक़ीन हैं, जिनके घर ‘कला-वसुधा’ या अन्य रंगकर्म से जुड़ी पत्रिकाएँ आती हैं, उनके लिए तो यह पुस्तक सहज है. किंतु अगर कोई इसे बुनियादी समझ के लिए पढ़ना चाहे तो उसे शुरुआती 114 पृष्ठों के बाद कुछ कठिनता होगी. मैं ऐसे पाठकों को यह सुझाव दूंगा कि इस डिजिटल युग में हबीब तनवीर के कुछ लोकप्रिय नाटक यूट्यूब पर उपलब्ध हैं, पुस्तक में विराम लेकर पहले वे देख लें. मैंने ‘आगरा बाज़ार’ के रूप पहले देख रखे थे, पुनः देखे. ‘चरणदास चोर’ भी दुबारा देखा (पहले शायद रेडियो पर सुना था). ‘मिट्टी की गाड़ी’ अब तक पूरा नहीं देख सका. इसके अतिरिक्त दर्जनों नाटकों की चर्चा है, वह रसिकों ने देख रखी होगी, मेरे परिवेश ने मुझे अधिक अवसर नहीं दिए. हालाँकि यह सीमा पुस्तक या लेखक की नहीं, मेरे (जैसों) की है.
मीन-मेख निकालने की कड़ी में एक तकनीकी अड़चन युवा-वर्ग को यह हो सकती है कि अंक पुराने ढर्रे पर छपे हैं. रोमन अंकों के बजाय देवनागरी में. इसमें कम से कम एक स्थान पर (पृष्ठ 62) दिक़्क़त आयी. वहाँ कुछ ऐसा लिखा है कि 1959 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का आरंभिक स्वरूप बना, 1975 में यह नाम मिला और सत्तु सेन पहले निदेशक थे. अगली पंक्ति है कि 1962 में इब्राहीम अल्काजी निदेशक बने. यह तीनों बातें ठीक है, मगर क्रम कुछ अटपटा है. हालाँकि दो-तीन बार पढ़ कर मैं समझ गया- 1959 से 1961 तक सत्तू सेन रहे, 1962 से इब्राहीम अलकाज़ी ने कमान संभाली, जिनके कार्यकाल में 1975 में रानावि नाम मिला.
संगीत में रुचि के कारण मैंने ‘रंग-संगीत’ अध्याय को बहुत चाव से पढ़ना शुरू किया. लेखक ने इस बात पर बल दिया है कि संगीत हबीब तनवीर के नाटकों का प्रमुख अंग था, और उन्होंने लोक गायन, वादन और नृत्य तीनों को सम्मिलित किया. किंतु यह अध्याय पुस्तक का सबसे छोटा अध्याय है, इसलिए प्यास पूरी नहीं बुझी. संभव है कि पुस्तक के आखिरी तक आते-आते वह पाठकों को अधिक थकाना न चाहते हों, या यह लगा हो कि इसकी चर्चा तो टुकड़ों में पहले ही कर दी है. आखिरी अध्याय जो ‘नया थिएटर’ पर है, उसमें कुछ प्रायोगिक बातें हो सकती थी कि कोई अगर रंगकर्म से जुड़ना चाहे तो कैसे जुड़े. देखना चाहे तो कहाँ देखे? मसलन आर्थिक या अन्य तरह के सहयोग करना चाहे तो कैसे करे? हबीब तनवीर की नींव को सींचने-संवारने में पुस्तक का एक अदना पाठक क्या भूमिका निभा सकता है? मुमकिन है यह पुस्तक किसी प्रचार माध्यम की तरह नहीं लिखी गयी, तो ये बातें ग़ैर-ज़रूरी लगी होगी.
यूँ तो कोई भी काम कभी मुकम्मल नहीं कहा जा सकता, लेकिन लगभग दो-ढाई सौ व्यवस्थित संदर्भों, और सुचिंतित समालोचनाओं के साथ यह एक मील का पत्थर ज़रूर साबित होती है. ऐसी किताबें खूब लिखी और पढ़ी जानी चाहिए. पर्दा गिराते हुए एक बात कहता चलता हूँ.
‘आगरा बाज़ार’ नाटक में एक किताब नवीस होता है, जिसके पास बैठ किताबों पर चर्चाएँ चलती है. अब फौरी चर्चाएँ सोशल मीडिया पर भी होने लगी है. एक गुणी मित्र ने पूछा- ‘क्या पढ़ रहे हैं आजकल?’ मैंने इस पुस्तक की तस्वीर दिखायी तो कहा- ‘इस पुस्तक की उतनी चर्चा नहीं हुई, जितनी होनी चाहिए थी’. मुझे लगता है कि चर्चाएँ तो उन हलकों में हो ही रही होगी, जहाँ इसके क़द्रदान होंगे. मगर चर्चाओं का सिलसिला यूँ ही चलते रहने में क्या हर्ज है?
वैकल्पिक विन्यासः आधुनिक हिन्दी रंगमंच और हबीब तनवीर का रंगकर्म
लेखक- अमितेश कुमार
प्रकाशक- सेतु प्रकाशन
प्रथम संस्करण- 2021
मूल्य- 400 रुपए
यह पुस्तक यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं.
Praveen Kumar Jha is a bilingual author in Hindi and English and a Norway based superspecialist doctor by profession. He is also a social media activist with numerous articles in digital and print media, alongwith an avid bilingual blogger. His debut book ‘Chamanlal Ki Diary’ had been a best-seller, and his travelogue ‘Bhooton ke desh mein’ and ‘Nastikon ke desh mein’ were published in 2018. The pathbreaking book for Praveen is ‘Coolie lines’ published by Vani Prakashan, a historical narrative on indentured labour- the largest migration in history. Praveen has also written short Kindle books based on music of Maihar and a tale on science education called Irodov Katha. His next book ‘Wah Ustad’ is based on schools of Hindustani music (gharanas). doctorjha@gmail.com |
“लेखक अमितेश कुमार की एक ख़ासियत दिखती है कि वह हबीब तनवीर पर लिखते हुए उनके प्रभामण्डल से पूरी तरह चौंधिया नहीं जाते. बल्कि वह कई स्थानों पर उनकी असफलताओं का ज़िक्र करते हैं. और-तो-और एक नाटककार के रूप में भी हबीब तनवीर की कमजोरियाँ गिनाते हैं. वह ये लिखते हुए नहीं हिचकते कि 1971 में बाक़ायदा ट्रकों पर ‘इन्दर लोकसभा’ का मंचन करते हुए, हबीब साहब कांग्रेस पार्टी का प्रचार अथवा खुला समर्थन कर रहे थे. वहीं दूसरी तरफ़, वह चरणदास चोर में रानी की निरंकुशता को इंदिरा गांधी के आपातकालीन दमन से जोड़ते हैं”
क्या यह बात आप जजमेंटल होकर कह रहे हैं? यदि ऐसा है तो यह समीक्षा का एक बाधक तत्त्व है..
पिछले साल इस किताब के बारे में अमितेश भाई से लम्बी बात हुई जिसमें उन्होंने बताया था कि यह उनके शोध (phd) का काम था. फिर इसे पढ़ने का मौक़ा मिला. अभी कल ही Shampa Shah शम्पा जी के घर पर हम इस किताब के बारे में बात कर रहे थे. हबीब साहब पर इतना व्यवस्थित काम पहली बार इस पुस्तक में मैंने पढ़ा है और काफ़ी रोचक ढंग से बाक़ायदा हिंदुस्तानी थिएटर के सिलसिलेवार इतिहास के साथ और उसके बरक्स उनके काम को देखने की कोशिश की गई है. Praveen Jha झा साहब ने अपनी किस्सागोई से रोचक बना दिया. वाह .
हबीब साहब की तारीफ मैं नहीं कर पाऊंगा क्योंकि जिन नाटकों का यहां जिक्र है वह सब मैं देख चुका हूं । उनके जीते जी जो कलाकार उनकी टोली में होते थे उन्हें भी देखता रहा हूं । अमितेश ने उनके व्यक्तित्व पर कोई भी टिप्पणी नहीं की है जो मेरी दृष्टि में बहुत जरूरी है ।
जब तक रंग निर्देशक खुद परफॉर्म करके नहीं सिखाता तो सफल नहीं होता , इस बात को शायद हबीब साहब जानते थे , पर वे यह भी समझ रखते थे कि कलाकार ऐसे चुनें जो उनके रंगमंच अपनी सीढ़ी न बना पाएं इसलिए उन्होंने लोक कलाकारों की खोज की और उनका रंगमंच उन कलाकारों की कैद ही रही आई ।
इसे बताने की जरूरत नहीं कि यात्राओं में उनकी टोली कैसे यात्रा करती थी और वे स्वयं कैसे ! हबीब साहब को किसी विचारधारा से प्रभावित होते मैने नहीं देखा । वे व्यंग्य के रूप में अपने मंच से कॉमिक रिलीफ देते जाते थे और दर्शक खुश होता था । जैसे बंशी कौल रंगों का सहारा लेते थे ठीक उसी तरह ।
मैंने उनके व्यक्तित्व पर टिप्पणी नहीं की है यह आप किताब पढ़ कर कह रहे हैं या समीक्षा?
हबीब साहब का व्यंग्य केवल कॉमिक रिलीफ नहीं था, उसमें करुणा और तीक्ष्णता भी थी।
कलाकारों से उनका संबंध जैसा था वैसा शायद ही किसी निर्देशक का अपने कलाकारों से रहा होगा।
मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि मैंने हबीब साहब पर कोई शोध नहीं किया है, मैं सिर्फ चेतस प्रेक्षक रहा हूं । शोध अन्य स्रोतों से होता है ।
मेरे महबूब में क्या नही ..जैसी उदारता से बचना चाहिए ये मजेदार है 😊 एक बात और भी है थोड़ा आलोचक होते ही महबूब के दूसरे महबूब हंगामा करने लगते हैं। और उसे भड़का कर अहसास दिलाते हैं कि दुश्मन न करे दोस्त ने वो काम किया है।
आपकी संपादकीय टीप से पूरी तरह सहमत हूँ. किताबों की ज्यादातर समीक्षा ‘ठकुरसुहाती’ ही है
समीक्षा तब ठहर जाती है जब रचना -कर्म रीतिबद्ध हो उठता है।थोड़ी बहुत हेर फेर में समीक्षक को वह आधार और गुंजाइश नहीं मिलती कि वह कुछ नया कह सके।रचनात्मक नवोन्मेष ही नयी समीक्षा को जन्म दे सकता है।और यह इतना आसान भी कहाँ होता है।
फिर समीक्षा कोई ललित कर्म नहीं।वह अनेक स्तरों पर नये पुराने से साथ ही अपने समय से सतर्क संवाद करती हुई उस संस्कृति की भूमिका रचती है जो न केवल किसी भाषा-लोक के धुँधलके से भरे जीवन में नयी रोशनी बल्कि नयी प्राणवत्ता और गति भी पैदा करती है।पर यह तभी संभव हो पाता है
जब रचनात्मक कर्म इसका अवसर दे।
समीक्षा निश्चय ही किसी मोहाविष्ट पाठक का ललित स्तवन नहीं है।वह एक परंपराभिज्ञ किन्तु समय सजग ,मूल्यसंवेदी काव्यरसिक की चुनौती और दायित्व है।न कि किसी भावविभोर हो उठे की भावुक गवाही या व्याख्यापरकता।
इस पर बहस की भरपूर गुंजाइश तो बनती है ।
बढ़िया। दिलचस्प। पुस्तक के लिए उत्सुक बनाने वाली समीक्षा।उसी सुपरिचित बतकही के सरस अंदाज़ में।
मैंने अतिरिक्त मोहब्बत के साथ यह अंक पढ़ा है । प्रवीण कुमार जी झा गुणी व्यक्ति हैं । पेशे से डॉक्टर हैं और नार्वे में रहते हैं । मैं नहीं जानता कि हम फ़ेसबुक पर किस कारण जुड़ गये । सतत अध्ययन करते हैं ।
हबीब तनवीर पर समालोचन पर पहले भी पढ़ा था । नाटकों और नाट्यशास्त्र में मेरी गति नहीं है । इस अंक में भी हबीब तनवीर द्वारा संगीत और दो अन्य विधाओं को जोड़ा है ।
प्रवीण जी और आपका धन्यवाद ।
प्रवीण की गद्यशैली आकर्षित करती है। उन्होंने अमितेश की किताब की कई खूबियों की ओर संकेत किया है। उन्होंने बिल्कुल सही कहा है कि अमितेश की कलम हबीब साहब के प्रभामंडल से चौंधियाती नहीं है। जब किताब आयी ही थी, मैंने फेस बुक इस ओर ध्यान दिलाया था -“हबीब तनवीर के नाट्य- व्यक्तित्व को जिस गंभीरता और व्यापकता से अमितेश ने रेखांकित करने की कोशिश की है वह विलक्षण है। अन्य नाट्य- व्यक्तित्व के रेखांकन के लिए यह पुस्तक एक नजीर पेश करती है। सबसे बड़ी बात यह है कि अमितेश हबीब के नाट्यकर्म से प्रभावित हैं’ उनकी रंगदृष्टि के कायल भी हैं लेकिन वे हबीब से अभिभूत नहीं हैं। अमितेश ‘भूमिका’ में बिल्कुल सही उंगली पर स्थान रखते हुए लिखते हैं, “स्वयं हबीब ने भी नया थिएटर में किसी दूसरे को इस तरह प्रशिक्षित क्यों नहीं किया जो उनके काम को आगे बढ़ाता। वन मैन शिप होने के कारण नया थियेटर की जीवंतता को उनकी अनुपस्थिति में संभालना मुश्किल हो गया है। हबीब ने नाचा के अभिनेताओं के साथ काम किया, उन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंच पर ले गए लेकिन इससे नाचा शैली को कोई लाभ क्यों नहीं हुआ?” कुल मिलाकर भारतीय नाटक और रंगमंच से लगाव रखने वालों के लिए ‘वैकल्पिक विन्यास’ निहायत जरूरी पुस्तक है। समीक्षक प्रवीण कुमार झा और अमितेश को बहुत बहुत बधाई।
नवाचारी समीक्षा है। पठनीय और अनुकरणीय। लटारम्ह सूत्रधार और नटी की बातचीत है।