बुद्धचरित
एक महाकाव्य के खोने-पाने का क़िस्सा
चंद्रभूषण
महाकवि अश्वघोष विरचित ‘बुद्धचरित’ संस्कृत का एक बहुत पुराना काव्य-ग्रंथ है. कितना पुराना, इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि चीनी भाषा में इसका अनुवाद अब से 1600 साल पहले, सन 421 ई. में हो चुका था. रचना को पल भर के लिए एक तरफ रखकर रचयिता पर आएँ तो चीनी भाषा में अश्वघोष की जीवनी भी इसी समय आ गई थी. सौ साल बाद, छठीं सदी ईसवी के प्रारंभ में भिक्षु-आचार्य हुई च्याओ ने महाग्रंथ ‘काओसेंग झ्वान’ (महान भिक्षुओं का जीवन) में इसे संकलित किया था. यह ग्रंथ आज भी सुरक्षित है और दुनिया भर में पढ़ा जाता है.
बुद्धचरित के चीनी अनुवाद का समय वही था जब भारत में गुप्त साम्राज्य अपने शीर्ष पर था. पुराने बौद्ध विद्या संस्थान नालंदा महाविहार को उसके द्वारा विश्वविद्यालय का रूप दिया जा रहा था और उसकी राज्यभाषा संस्कृत के काव्य संसार में कवि-कुलगुरु कालिदास की तूती बोल रही थी. अश्वघोष भी शत-प्रतिशत संस्कृत भाषा के ही कवि हैं और उनका समय कुषाणवंशी शासक कनिष्क से जोड़कर कालिदास से ढाई-तीन सौ साल पहले का आंका गया है.
लेकिन यहाँ पहुँचकर हमारा सामना एक सवाल से होता है. कालिदास की भाषा-शैली, उनकी कई चर्चित उपमाओं और उनके ग्रंथ ‘कुमारसंभव’ के कुछ कथा-प्रसंगों पर महाकवि अश्वघोष का स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है. कविता की धारा ऐसे ही आगे बढ़ती है. एक बड़ा कवि दस पीढ़ी पुराने पुरखे का प्रभाव न ले, यह तो संभव ही नहीं है. फिर भी बात क्या है जो कवि-कुलगुरु कालिदास अपनी लिखाई में कहीं अश्वघोष का नाम तक नहीं लेते? क्या इसको हम भारतीय संस्कृति में काफी पहले पड़ गई उसी दरार का जारी रूप समझें, जिसके असर में आकर हमारे इतने सारे संस्कृत ग्रंथ नालंदा और विक्रमशिला जैसे विश्वविख्यात प्राचीन शैक्षिक संस्थानों की ओर आंख ही बंद कर लेते हैं?
कालिदास के दो सदी बाद बाणभट्ट विरचित ‘हर्षचरित’ के प्रथम उच्छ्वास में एक जगह अश्वघोष का नाम आता है. ‘क्व तेsश्वघोषप्रभृतयः काव्यरविकुलगुरवः, येषां रश्मिरिववचांसि मोहतिमिरमपहरंति स्म.’ (किरण जैसे अपने वाक्यों से मोह का अंधेरा मिटा दें, कवियों के सूर्यवंश में अश्वघोष जैसे वे गुरु अब कहाँ.) लेकिन यह सूक्ष्म प्रसंग भी ग्रंथ के सारे संस्करणों में नहीं मिलता. सीमा से बाहर ऐसे प्रताप और घर में ऐसी अनदेखी की गुत्थी कैसे सुलझाई जाय?
तेरहवीं सदी ईस्वी में किसी समय भारत में बुद्ध के धर्म की जड़ इस कदर टूट गई कि इस देश में ऐसी कोई चीज भी कभी थी, इस तरह के कयास उन्नीसवीं सदी की पहली चौथाई पार होने के बाद सात समुंदर पार से आए विदेशी शासन में ही लगने शुरू हुए. लेकिन इस धर्म की कोख से उपजी सबसे सुंदर काव्य रचना ‘बुद्धचरित’ यहाँ के समाज में अपने संपूर्ण रूप में कब चलन से बाहर हुई, यह पक्के तौर पर आज भी नहीं जाना जा सका है. भारतीय समाज में संस्कृत की निरंतरता किसी न किसी रूप में लगातार बनी हुई है, लेकिन उसके विशाल वाङ्मय में अपनी इस कृति की कोई स्मृति नहीं मिलती. यह ग्रंथ अपने समूचेपन में अब केवल चीनी और तिब्बती अनुवाद में बचा है.
पराए घर का वासी
चीनी भिक्षु बाओयुन पाँचवीं सदी ईसवी की शुरुआत में फाह्यान के साथ भारत आए और उनसे पहले अपने वतन लौट गए. मध्य चीन के नानचिंग शहर में भारतीय भिक्षुओं का सहयोग लेते हुए उन्होंने बोलचाल की चीनी भाषा में इस ग्रंथ का अनुवाद प्रस्तुत किया. विनम्रता की इंतहा यह कि अनूदित ग्रंथ में कहीं अनुवादक का नाम भी नहीं है.
सौ साल की रगड़ के बाद बाओयुन और धर्मरक्ष के नाम, उनकी भूमिकाएँ चिह्नित करने में यूरोपीय और जापानी विद्वानों के छक्के छूट गए. चीनी बुद्धचरित में इसके रचयिता महाकवि अश्वघोष के साथ ‘बोधिसत्व’ शब्द भी जुड़ा मिलता है. शीर्षक के नीचे लेखक-नाम ‘मामिंग पूसा’. मा यानी घोड़ा. मामिंग यानी घोड़े की आवाज. पूसा एक ऐसा शब्द, जो चीनी लहजे में ‘बोधिसत्व’ का उच्चारण है. घोड़े की आवाज (वाला) बोधिसत्व, यानी ‘अश्वघोष बोधिसत्व’.
‘बोधिसत्व’ की धारणा से अपरिचित पाठक अभी तो इतना ही याद रखें कि यह शब्द पहले केवल बुद्ध के लिए या बुद्ध होने की तरफ बढ़ रहे किसी भी प्राणी के लिए इस्तेमाल होता था. लेकिन महायान पंथ के उदय के बाद से यह मुक्ति की राह में अग्रसर उन सारे साधकों के लिए आने लगा, जो अपनी मुक्ति सिर्फ इसलिए टाल जाते हैं, क्योंकि संसार के सभी प्राणियों की मुक्ति उनके लिए अपनी मुक्ति से ज्यादा जरूरी है. बौद्ध धर्म में यह एक देवतुल्य पदवी है. सरस्वती से लेकर गणेश तक कई लोकप्रिय हिंदू देवी-देवता चीन और तिब्बत में बोधिसत्व ही समझे जाते हैं.
दुनिया में बुद्धचरित की उपस्थिति और प्रचार-प्रसार आज भी सबसे ज्यादा इसके चीनी रूप के कारण ही है. चीनी भाषा से यह जापानी, कोरियाई और विएतनामी आदि भाषाओं में गया और उन्नीसवीं सदी की आखिरी चौथाई में चीनी से ही अंग्रेजी में अनूदित होकर ग्लोबल चर्चा का विषय बना. चीनी भाषा की तरह ही तिब्बती भाषा में भी बुद्धचरित के 28 सर्ग मिलते हैं. शोधकर्ताओं के अनुसार, इन दोनों भाषाओं में मौजूद इसके संस्करण संपूर्ण हैं.
भारत में बीती एक सदी में अश्वघोष पर लिखी गई कई किताबों में, मसलन भारतीय साहित्य अकेडमी से आए रोमा चौधरी के मोनोग्राफ ‘अश्वघोष’ में ऐसी एक समझ मुझे पढ़ने को मिली कि ‘बुद्धचरित’ का अनुवाद ल्हासा में बौद्ध संस्कृत के उठान के समय सातवीं-आठवीं सदी ईसवी में ही हो गया था. लेकिन हाल के शोधों में यह सोच गलत पाई गई है. तिब्बत के दोनों ग्रंथ संग्रहों कंग्यूर और तंज्यूर में यह मौजूद नहीं है. अनुवाद के ब्यौरों में हम बाद में जाएँगे, लेकिन अनूदित ग्रंथ के आमुख में परंपरा अनुसार जिस तिब्बती शासक के लिए आशीर्वचन दिखाई पड़ते हैं, वे तिब्बत के साक्यापा बौद्ध पंथ से जुड़े थे और उनका दौर तिब्बत पर मंगोलों का कब्जा हो जाने के बाद का है.
चाहें तो हम कह सकते हैं कि तेरहवीं सदी का जो दौर भारत से बौद्ध धर्म की अंतिम विदाई का है, वही ‘बुद्धचरित’ के तिब्बती भाषा में पहुँचने का भी है. यह समय 1260 से 1280 ई, ज्यादा ठोस रूप में कहें तो 1265 से 1275 ई. के बीच का है, जब चीन और तिब्बत समेत एक बहुत बड़े भूभाग पर चंगेज खां के पोते कुबलाई खां का शासन था और साक्यापा पंथ के ही बौद्ध महापंडित, तिब्बती जीनियस फाग्सपा उसके राजगुरु की भूमिका निभा रहे थे.
विश्वभारती के इंडो-तिब्बतन स्टडीज डिपार्टमेंट से जुड़े विद्वान शेडुप तेनज़िन 2019 में प्रकाशित अपने एक गहरे अध्ययन में बताते हैं कि तिब्बती भाषा में बुद्धचरित का यह अनुवाद पढ़ने में काफी कठिन था, लिहाजा वहाँ वह ज्यादा लोकप्रिय नहीं हो सका. बीसवीं सदी में तिब्बती आचार्यों को नए सिरे से इसका अनुवाद करना पड़ा.
यूरोप का दख़ल
बहरहाल, आधुनिक यूरोपीय भाषाविदों के लिए तिब्बती ग्रंथ की लोकप्रियता कोई समस्या नहीं थी. जर्मन घुमंतू स्कॉलर फ्रीडरिख वेलर ने पिछली सदी की पहली तिहाई में इसके 27 सर्गों को ही प्रासंगिक मानते हुए अपनी भाषा में इनका अनुवाद किया. पुरानी किताबों का प्रामाणिक संपादन क्रॉस-चेक के बिना संभव नहीं है. तिब्बती से जर्मन में बुद्धचरित का अवतार कैसे इस ग्रंथ के संस्कृत पाठ की भरोमंद प्रस्तुति का आधार बना, इसपर आगे बात होगी.
संस्कृत में लिखे मूल बुद्धचरित की उपस्थिति भारत में कबतक बनी रही, कब इसका संपूर्ण स्वरूप चलन से बाहर हो गया, कहना कठिन है. तेरहवीं सदी तक इसकी कम से कम एक प्रति तो किसी के पास रही ही होगी, अन्यथा तिब्बती भाषा में इसका अनुवाद कैसे होता? मगध और बंगाल के महाविहारों के विध्वंस के बाद बौद्ध आचार्यों की एक बड़ी पांत तिब्बत पहुँची थी. शायद उनके साथ ही यह प्रति वहाँ गई हो. बहरहाल, इसके तेरह सर्गों (पहला सर्ग शुरुआत से अधूरा) और चौदहवें सर्ग के एक तिहाई श्लोकों का संरक्षण नेपाल में ब्रिटिश रेजिडेंट ब्रायन हॉजसन की देखरेख में 1824 ई. से 1830 ई. के बीच आचार्य अमृतानंद ने किया, जिसपर हम बाद में विस्तार से चर्चा करेंगे.
ताड़पत्र पर लिखी इस पांडुलिपि के शुरुआती पन्ने गायब थे. जो कुछ इसमें बचा था, नमी और कीड़ों ने उसकी भी हालत खराब कर रखी थी. इसका संरक्षण किस रूप में हो पाया, बौद्धधर्म के कुछ धर्मग्रंथों के अलावा अश्वघोष की दो-तीन किताबें भी अमृतानंद ने बचाईं लेकिन इस महाकवि के बारे में उन्हें कितनी जानकारी थी, बताना मुश्किल है. इस कठिनाई का कारण यह है कि हॉजसन ने अमृतानंद के बारे में ज्यादा कुछ कहा ही नहीं है. कोलकाता स्थित एशियाटिक सोसाइटी के रिकॉर्ड हॉजसन की रुचियों का दायरा बहुत बड़ा बताते हैं. वे कई भाषाओं के ज्ञाता, धर्म-दर्शन के शास्त्रार्थी और सभ्यता-मर्मज्ञ होने के अलावा खनिजविज्ञानी और वनस्पतिविद भी थे. अपने सभी सहायकों के ब्यौरे देने की अपेक्षा उनसे नहीं की जाती थी. छिटपुट उल्लेख हों भी तो भंडार में खोजते नहीं बनते.
सन 1893 में इस अधूरी किताब को पढ़ने की हालत में लाने और 1894 में एक लंबी टिप्पणी और बहुतेरे फुटनोट्स के साथ इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित का श्रेय एडवर्ड बी. कॉवेल को जाता है. उनके बारे में भी हम आगे थोड़ी लंबी चर्चा करेंगे. लेकिन उनसे कोई दस साल पहले ईस्ट इंडिया कंपनी के फौजी पादरी रहे रेवरेंड सैमुअल बील ने सन 1883 में ही ‘फो-शो-हिङ-त्सान-चिंङ’ के मूल चीनी शीर्षक और ‘अश्वघोष बोधिसत्व’ लेखकीय नाम के साथ अंंग्रेजी में जो बुद्धचरित प्रकाशित किया था, उसका भरपूर उपयोग मैंने यहाँ किया है. इस सिलसिले में उन्होंने ब्रायन हॉजसन से पत्राचार भी किया था और सर्गों के संस्कृत शीर्षकों की फोटोकॉपी किताब के अंत में दे रखी है.
सैमुअल बील ने बुद्धिज्म पर बहुत काम किया, लेकिन बुद्ध की जीवनी के रूप में बुद्धचरित से ज्यादा तारीफ उनके द्वारा सन 1876 ई. में चीनी से ही अनूदित ‘अभिनिष्क्रमण सूत्र’ को मिली, जिसको उन्होंने ‘द रोमांटिक लीजेंड ऑफ शाक्य बुद्ध’ शीर्षक दिया. बुद्धचरित का उनका अनुवाद ज्यादा अकेडमिक है और इसका बहुत लोकप्रिय होना संभव नहीं था. जो प्रस्तुति आप यहाँ पढ़ने जा रहे हैं, वह आधे से ज्यादा इसी पर आधारित है क्योंकि अश्वघोष की इस समूची रचना की कुछ समझ हासिल करनी है तो इस रास्ते पर बढ़ने के अलावा कोई चारा हमारे पास नहीं है.
एडवर्ड बी. कॉवेल अपने संपादन में प्रकाशित अधूरे संस्कृत बुद्धचरित (1893) की प्रस्तावना में बताते हैं कि यह कार्य उन्होंने नेपाल से प्राप्त तीन पांडुलिपियों के आधार पर संपन्न किया है, जिसमें एक देवनागरी और दो नेपाली लिपियों में हैं. यह भी कि ये तीनों पांडुलिपियां जिस क्षतिग्रस्त पांडुलिपि से उतारी गई हैं, वह अब नेपाल में भी उपलब्ध नहीं है. इसके डेढ़ दशक बाद, सन 1909 ईसवी में बांग्ला और संस्कृत के खोजी विद्वान हरिप्रसाद शास्त्री ने काठमांडू के शाही पुस्तकालय में ताड़पत्रों पर लिखी बुद्धचरित की एक अधूरी पांडुलिपि खोज निकालने का दावा किया, जिसकी सामग्री उन्होंने कॉवेल द्वारा प्रकाशित बुद्धचरित जितनी ही बताई, लेकिन इसके ठीक वही ग्रंथ होने का कोई आग्रह उन्होंने नहीं रखा, जिसके नेपाल में उपलब्ध ही न होने की बात कॉवेल की किताब में कही गई है.
अंग्रेजी में कॉवेल और जर्मन में वेलर के काम का, और साथ में जापानी भाषा में अनूदित चीनी त्रिपिटक ‘ताइशो इसाइक्यो’ का भी 1930 के दशक की शुरुआत में ब्रिटिश विद्वान ई. एच. जॉन्स्टन ने सुंदर सदुपयोग किया और ताजा अंग्रेजी अनुवाद के साथ अधूरे बुद्धचरित का एक ऐसा संपादित संस्कृत संस्करण सामने ले आए, जिसे सिद्धांततः अश्वघोष की मूल रचना के बहुत करीब माना जा सकता है. इस ग्रंथ के तीनों उपलब्ध रूपों- संस्कृत, चीनी और तिब्बती को कई अलग-अलग संस्कृतियों के लेंस से देख पाना जॉन्स्टन की अलग ही उपलब्धि थी.
जॉन्स्टन का काम ग्रंथ के चौदहवें सर्ग के आधे हिस्से तक ही पहुँचता है. एडवर्ड बी. कॉवेल की ही तरह किताब की उनकी प्रस्तुति भी अधूरी है. लेकिन क्रॉस चेकिंग से गुजरकर इसका स्वरूप प्रामाणिक हो गया है और हम एक न्यूनतम आश्वस्ति के साथ यह मानकर इसे पढ़ सकते हैं कि अनुवाद की कोई छटा नहीं, बीच में गुजरी सौ पीढ़ियों के किसी कवि या आचार्य का जोड़-घटाव नहीं, महाकवि अश्वघोष की लिखी किताब ही हमारे सामने है. इसके बारे में भी हम आगे और चर्चा करेंगे, क्योंकि व्याख्या के स्तर पर मौजूदा प्रस्तुति का आधार जॉन्स्टन और बील ही हैं.
भारत में खोज-ख़बर
बहरहाल, इस किस्से का एक दिलचस्प पहलू कॉवेल की किताब छप जाने के बाद भारत में इसको लेकर मची अफरा-तफरी से भी जुड़ा है. उन्नीसवीं सदी के अंत तक प्राचीन भारत की पहचान मैक्स म्युलर और अन्य प्राच्यविदों के प्रयासों से एक सहिष्णु सभ्यता की बन चुकी थी. बौद्ध धर्म से जुड़े पालि ग्रंथों के विलोप को तेरहवीं सदी के प्रारंभ में हुए तुर्क आक्रमण के समय नालंदा और अन्य बौद्ध विहारों के विध्वंस से जोड़ा जा सकता था. लेकिन बुद्धचरित जैसे महत्वपूर्ण संस्कृत ग्रंथ का भारतभूमि पर संपूर्ण विलोप इस भाषा में काम करने वाले भारतीय विद्वानों के लिए कोई सहज सूचना नहीं हो सकती थी. संस्कृत में अगर परंपरा से कोई धर्म-आधारित विभेद नहीं चला आ रहा था तो यह कैसे हुआ कि धार्मिक-साहित्यिक हर तरह के संस्कृत ग्रंथ बचे रह गए, लेकिन बुद्धचरित बिल्कुल हवा हो गया!
उसी दौरान बॉम्बे यूनिवर्सिटी ने बुद्धचरित को अपने संस्कृत पोस्टग्रैजुएट कोर्स में लगाने का फैसला कर लिया तो संस्कृत आचार्यों की समस्या और बढ़ गई. ई. बी. कॉवेल की किताब क्लैरेंडन प्रेस, ऑक्सफोर्ड से छपकर आई थी. बॉम्बे यूनिवर्सिटी के लिए बुद्धचरित के पहले पाँच सर्गों का छात्रोपयोगी संस्करण तैयार करने वाले विद्वान के. एम. जोगलेकर अपनी इस किताब के ‘प्रिफेटरी नोट’ में इससे जुड़ी खोजबीन का सफरनामा कुछ यूं दर्ज करते हैं-
‘कोंकण के गांवों में यूं ही कर ली गई एक यात्रा के क्रम में मैं क्लैरेंडन प्रेस के संस्करण वाली कविता पढ़ रहा था, तभी गोखले परिवार के एक नौजवान के घर में मेरी नजर पोथियों के छुट्टा पन्नों के एक ढेर पर गई. उनमें मुझे बुद्धचरित के कुछ पृष्ठ दिखाई दे गए, जो सर्ग-12 के श्लोक 90 तक जाते थे. यह घटना फरवरी 1907 की है. नौजवान मुझे इस पांडुलिपि के बारे में कुछ नहीं बता पाया, सिवाय एक बात के कि यह पोथी शायद उसके परदादा की हो, जो ग्वालियर के महाराजा सिंधिया के आश्रित थे.’
यहाँ से जोगलेकर के मन में बुद्धचरित का एक देसी संस्करण लाने की इच्छा पैदा हुई और इस सिलसिले में उन्होंने क्लैरेंडन प्रेस के साथ पत्राचार किया. इस प्रकाशन ने आधिकारिक रूप से भेजे गए अपने जवाबी पत्र में कहा कि जोगलेकर जहाँ भी उसके द्वारा छापी गई किताब से कोई उद्धरण लें वहाँ इसका जिक्र करें, इस शर्त के साथ अगर वे अश्वघोष के बुद्धचरित का अपना अलग संस्करण ले आते हैं तो इससे उसको कोई परेशानी नहीं होगी.
आगे जोगलेकर लिखते हैं कि संस्कृत के एक पुराने विद्वान वामन शास्त्री इस्लामपुरकर से पत्राचार के दौरान उन्हें पता चला कि बुद्धचरित की एक प्रति एक जैन यती के पास मौजूद है. मराठी भाषा में हुए इस पत्राचार में जोगलेकर ने शास्त्री से आग्रह किया कि किसी तरह इस प्रति की एक नकल वे उन्हें उपलब्ध करा दें. लेकिन कुछ समय बाद शास्त्री का जवाब आया कि ‘श्रीपूज्यजी महाराज तो अभी मुर्शिदाबाद में चातुर्मास कर रहे हैं जबकि उनका ग्रंथागार भीलवाड़ा में है. बुद्धचरित के पहले दो सर्ग ही वे फिलहाल उपलब्ध करा सकते हैं, जो पत्र के साथ में संलग्न हैं.’
जैन यती के पास मौजूद किताब में कुल कितने सर्ग थे, इसका पता जोगलेकर नहीं लगा पाए, अलबत्ता वामन शास्त्री से प्राप्त दो सर्गों में कोंकण के गोखले परिवार से मिली पांडुलिपि से कुछ-कुछ भिन्नता है, जिसे उनके द्वारा संपादित किताब में देखा जा सकता है. ग्रंथ का तीसरा स्रोत उनके लिए मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में हरपालपुर कस्बा बना, जहाँ एक जैन परिवार अपनी पूजा पेटी में बंद इस किताब को दिखाने के लिए भी तैयार नहीं था. फिर बहुत कोशिशों से वे लोग इसके लिए राजी हुए तो पता चला कि उनके पास इस ग्रंथ के पहले दस सर्ग मौजूद हैं. बाकी दोनों स्रोतों से कुछ भिन्नता इस सामग्री में भी है, जो जोगलेकर की किताब में अलग निशान से दिखाई गई है.
यह खोजयात्रा बहुत सघन नहीं कही जा सकती. कुल दो साल ही इसमें लगाए गए थे. फिर भी, कोर्स की किताबें अभी जिस हड़बड़ी में लिखी जाती हैं, उसे देखते हुए लेखक की इतनी मेहनत भी कम नहीं कही जाएगी. बस, जोगलेकर की एक बात मेरी समझ से बाहर है कि किताब के ‘इंट्रोडक्शन’ के अंतिम निष्कर्ष के रूप में रामायण (वाल्मीकि) और रघुवंश (कालिदास) से तुलना करते हुए उन्होंने इसको ‘थर्ड क्लास पोएम’ क्यों कहा है?
एक ऐसी किताब, जो इतने पापड़ बेलकर आधी से कम ही आपको उपलब्ध हो सकी है, और जिसकी सामग्री भी आपके लिए सुपरिचित नहीं है, इतनी जल्दबाजी में निकाले गए नतीजे की हकदार तो नहीं हो सकती. चरित्र-चित्रण में संतुलन का आग्रह क्या हर तरह की रचना से किया जा सकता है? ऐसे कटुतापूर्ण नतीजे से जोगलेकर की खोजी उत्सुकता नहीं, साहित्य के कुछ तयशुदा मानदंडों में फंसे आलोचक की खीझ जाहिर होती है. या इससे भी बुरी बात यह कि कुछ मूल्यगत दुराग्रहों का पता चलता है, जो बौद्ध और वैदिक धारा के बीच हजारों वर्षों से चले आ रहे हैं!
बाद में बुद्धचरित को लेकर ऐसी ही एक प्राप्ति की सूचना कश्मीर से भी आई लेकिन भारत में इस तलाश से जुड़ी जो भी जानकारी मैं अबतक जुटा पाया हूं, उसमें इस ग्रंथ के बारहवें सर्ग से आगे की सामग्री मिलने की बात कहीं नहीं है. जैन पूजा-पाठ के दायरे में इसके अंशों का मिलना एक और दिलचस्प पहलू है, क्योंकि एक अर्से तक दोनों धर्मों के घालमेल और पुरानी किताबों को बचाए रखने की सोच के अलावा कोई प्रकट कारण इसका नहीं दिखता. खैर, इस जासूसी पर यहीं ब्रेक लगाकर हम भदंत अश्वघोष के बारे में कुछ बात करते हैं, जो इस चर्चा के केंद्र में हैं.
साकेत में उगा एक सूर्य
अयोध्या और साकेत एक ही शहर के दो नाम हैं, लेकिन इतिहास की गुत्थियां इन दोनों नामों को कुछ इस तरह लपेटे हुए हैं कि आज भी इनके लिए अलग-अलग स्रोत टटोलने पड़ते हैं. अयोध्या को हम महाकवि वाल्मीकि के काव्य-चरित्र राम से जोड़कर देखते आए हैं, जबकि साकेत (ज़ागेद) ग्रीक, यूची और चीनी स्रोतों में अपनी समृद्धि के लिए बहुप्रशंसित एक बौद्ध नगरी थी, जिसके बहुत सारे ब्यौरे अभी खोजे जाने बाकी हैं.
इस नगरी से उठा, संसार के सबसे बड़े भूगोल में चर्चित व्यक्तित्व कोई राजा या कथा-चरित्र नहीं, बाकायदा ऐतिहासिक व्यक्तित्व के रूप में दर्ज एक कवि है. भारतीय बौद्धों के बारहवें संघराज, कश्मीर संगीति के मुख्य सूत्रकार, कुषाणवंशी नरेशों कनिष्क और हुविष्क के राजगुरु और राजकवि जैसी भूमिकाओं वाले महाकवि अश्वघोष. समय- ईसा की पहली-दूसरी सदी.
आगे बढ़ने से पहले हम इस महान रचनात्मक बुद्धिजीवी के इर्दगिर्द लिखी गई राहुल सांकृत्यायन की एक कहानी पर नजर डालते हैं. यह उनकी किताब ‘वोल्गा से गंगा’ की कुल बीस कहानियों में से एक है और इसका शीर्षक ‘प्रभा’ है. यह किताब राहुल जी की अपने ढंग की अनोखी कृति है और इसमें वैश्विक नजरिये के साथ कुछ गिने-चुने काल्पनिक या वास्तविक चरित्रों के जरिये पिछले आठ हजार वर्षों में भारतभूमि के इर्दगिर्द हुए बड़े सामाजिक बदलावों का जायजा लिया गया है.
कहानी के केंद्र में अश्वघोष हैं लेकिन माहौल की रचावट ऐसी है और शीर्षक भी इतना हटकर है कि आपने जल्दी में किताब पढ़ी हो तो शायद ध्यान से ही उतर गया हो कि यह है किसके बारे में. इसके शुरू में ही बताया गया है कि साकेत लंबे अर्से तक उत्तर भारत का एक महत्वपूर्ण नगर था लेकिन राजधानी का दर्जा इसे शायद कभी नहीं मिला. माहौल का चित्र ईसा की पहली सदी के मध्य का खींचा गया है लेकिन इसको पहचानना बहुत कठिन है.
कहा गया है कि साकेत में यूनानी बहुत मजबूत स्थिति में थे और उनमें ज्यादातर नदियों से व्यापार पर निर्भर थे. उनके नाम भारतीय थे और समाज में उन्हें क्षत्रियों जैसा दर्जा प्राप्त था. वे भारतीयों के साथ घुले-मिले थे और स्त्री-पुरुष समता वाले उनके लोकाचार के प्रति भारतीय भी इतने सहज थे, जैसे खुद उनके लिए यह मामूली बात हो. कहानी में घुसने के लिए हम मान लेते हैं कि भारतीय समाज लगातार पतित ही होता गया है और अतीत में कोई दौर ऐसा भी होगा जब लड़के-लड़कियों में तैरकर सरयू पार करने की प्रतियोगिता होती रही होगी.
ब्राह्मणपुत्र अश्वघोष और यूनानी कन्या प्रभा ऐसी ही एक प्रतियोगिता में सहविजेता घोषित किए जाते हैं. एक कवि के रूप में अश्वघोष की ख्याति बन ही रही है. वे एक यूनानी नाटक देखने जाते हैं जहाँ यवन युवकों से उनकी दोस्ती हो जाती है. वे अश्वघोष से यूनानी रंगमंच के लिए संस्कृत और प्राकृत को मिलाकर एक नाटक लिखने को कहते हैं. इस नाटक ‘उर्वशी वियोग’ में नायिका की भूमिका प्रभा निभाती है और उसी समय वह और अश्वघोष, दोनों प्रेम-बंधन में बंध जाते हैं.
अश्वघोष की मां को इस रिश्ते से कोई समस्या नहीं है लेकिन पिता का कहना है कि वे श्रोत्रिय ब्राह्मण हैं और अश्वघोष उनका अकेला बेटा है. प्रभा के साथ उसके विवाह संबंध की अनुमति देकर वे अपनी कुल परंपरा का विनाश नहीं कर सकते. इस क्लेश का अंत इस ट्रैजेडी में होता है कि प्रभा अश्वघोष से हर सूरत में अपने कलाकर्म को जारी रखने का वचन लेती है और एक सघन चांदनी रात में खुद को सरयू के हवाले करके रास्ते से हट जाती है.
1942 में आए इस संग्रह में कभी भी पुराना न पड़ने वाला, सार्वभौमिकता का एक तत्व मौजूद है. भाषा और भावभूमि में ‘प्रभा’ जयशंकर ‘प्रसाद’ की आत्मबलिदानी रोमांस वाली कहानियों के करीब लगती है, हालांकि यह संग्रह की प्रतिनिधि कहानी नहीं है. अटपटे और अपरिचित परिवेश का जिक्र ऊपर किया ही जा चुका है.
अलबत्ता कहानी के बाद वाले हिस्से में बौद्ध प्रभाव काफी पहचान में आता है. बताया गया है कि साकेत के ज्यादातर यूनानी बौद्ध मतानुयायी हैं और बौद्ध संघ में जातिभेद के लिए कोई जगह नहीं है. जिन दो शीर्ष बौद्ध भिक्षुओं का जिक्र इसमें किया गया है उनमें एक, धर्मरक्षित यूनानी हैं जबकि उनसे ऊपर, स्थानीय महास्थविर के रूप में पूजित धर्मसेन चांडाल पृष्ठभूमि से आते हैं. प्रभा खुद यूनानी मूल के एक बौद्ध परिवार की लड़की है. पीछे आत्महत्या को धर्मविरुद्ध कृत्य बता चुकी है. उसके आत्मबलिदान का रास्ता पकड़ने के बाद कहानी में अश्वघोष को बुद्ध, धर्म और संघ की शरण लेते दिखाया गया है.
वास्तविकता के धरातल पर इस कहानी से अश्वघोष का इतना ही नाता जोड़ा जा सकता है कि उनके बौद्ध होने से पहले वाले दौर को लेकर कोई ठोस जानकारी अबतक नहीं जुटाई जा सकी है. ‘उर्वशी विजय’ तो क्या, गैर-बौद्ध कथाभूमि की कोई भी रचना उनसे नहीं जुड़ी है और किस्सों में उनकी बौद्ध-पूर्व छवि एक गर्वोन्नत वैदिक शास्त्रार्थी जैसी ही बनती है. लेकिन उनकी रचना-शैली सरस है, लिहाजा रूमानी तत्व उनसे जुड़कर विजातीय नहीं लगते.
दूसरी बात यह कि भारत के सबसे पुराने नाटकों में एक, ‘सारिपुत्रप्रकरण’ महाकवि अश्वघोष का ही लिखा हुआ है. इसलिए उनकी रचना प्रक्रिया की शुरुआत एक श्रृंगारिक नाटक से हुई, यह कहने में कोई ज्यादती नहीं है. अश्वघोष का लंबा समय पेशावर (पुरुषपुर) में गुजरा. वहीं उनकी मृत्यु भी हुई, सो यह भी माना जा सकता है कि सम्राट कनिष्क की यूची जाति के अलावा यूनानी, शक और पारसी जन से उनका पुराना घुलाव-मिलाव था.
यहाँ से आगे इस कवि को जानने के लिए हम उन दायरों में चलते हैं, जिन्हें प्रामाणिक ऐतिहासिक स्रोत की मान्यता प्राप्त है. चीनी यात्री ह्वेनसांग ने कहा है कि यह संसार चार सूर्यों से प्रकाशित है- नागार्जुन, आर्यदेव, अश्वघोष और कुमारलात. इन चारों पर कुछ बातें यहाँ होंगी. चीन, जापान, कोरिया, विएतनाम आदि मुल्कों में आज भी ये धूमिल नहीं पड़े हैं लेकिन हमारे यहाँ तो जड़ से ही भुला दिए गए हैं. और तो और, उनकी रचना-भाषा में भी उनकी कोई स्मृति नहीं बची है. आम धारणा संस्कृत को वैदिक परंपरा से जोड़ने और बौद्धों को उससे बाहर मान लेने की है.
भाषा की समस्या
भारत की पालि-बौद्ध कृतियां तो श्रीलंका में लगभग मूल रूप में मिल जाती हैं लेकिन यहाँ की संस्कृत-बौद्ध कृतियां अब मूल में नहीं, चीनी या तिब्बती अनुवादों में ही सुरक्षित हैं. आप किसी से कहें कि कम से कम पाँच सौ साल मुख्यधारा की तरह और यों एक हजार साल से ज्यादा, नागार्जुन (पहली सदी ईसवी) से लेकर अतीश दीपंकर (11वीं सदी ईसवी) तक संस्कृत मुख्यतः महायानी बौद्धों की ही भाषा थी, उनके लिखे संस्कृत ग्रंथों की संख्या अन्य परंपराओं में मौजूद ग्रंथों के कुल जोड़ की भी कई गुना थी, तो वह शायद इसे कोरी गप्प ही कहे.
यहाँ एक कन्फ्यूजन दूर कर लेना बहुत जरूरी है. गलती से यह मान लिया जाता है कि जैसे संस्कृत हिंदू धर्म की या अरबी इस्लाम की धार्मिक भाषा है, वैसे ही पालि भी बौद्ध धर्म की धार्मिक भाषा है. बुद्ध ने अपने वचनों को छांदस (उस समय की काव्य भाषा, जिसे संस्कृत का पूर्वरूप माना जाता है) में संकलित न करने को कहा था. ऐसा स्पष्ट उल्लेख पालि विनयपिटक के दूसरे ग्रंथ ‘खंधक’ के दूसरे भाग ‘चुल्लवग्ग’ में मिलता है. यह भी सही है कि बुद्ध वचनों का संकलन ‘त्रिपिटक’ अपने मूल रूप में पालि भाषा में ही तैयार किया गया. लेकिन यह काम बुद्ध के समय में नहीं, उनके लगभग दस पीढ़ी बाद अशोक की देखरेख में हुई तीसरी बौद्ध संगीति के दौरान संपन्न हुआ था.
कोई भाषा धार्मिक और कोई गैर-धार्मिक होती है, ऐसी किसी धारणा को बुद्ध ने हमेशा जड़ से खारिज किया था. भाषा व्यवहार की चीज है, और बातचीत के क्रम में ही यह विकसित होती है. इसका व्यवहार उसी तरह किया जाना चाहिए जिस तरह यह श्रोताओं की समझ में आ सके और पलटकर उनकी राय भी जानी जा सके. इस बुनियादी लोच के कारण अशोक के समय में ही बौद्ध भिक्षु पालि के अलावा प्राकृत, पैशाची और संस्कृत भी लिखने-बोलने लगे थे. ईसवी सदी की शुरुआत से जो संस्कृत उन्होंने अपनाई, उसे अब ‘बुधिस्ट हाइब्रिड संस्कृत’ कहा जाता है.
‘प्रज्ञापारमिता’ जैसे महायानी ग्रंथ इसी भाषा में लिखे गए हैं और ‘ललितविस्तर’, जिसके चीनी संस्करण का मोटे तौर पर किया गया काव्यानुवाद- एडविन अर्नॉल्ड की लंबी कविता ‘द लाइट ऑफ एशिया’- उन्नीसवीं सदी के अंत में ब्रिटेन में पढ़ रहे जवाहरलाल नेहरू जैसे भारतीय छात्रों को मंत्रमुग्ध किए हुए था, वह भी अपने मूल रूप में बीएचएस भाषा की ही रचना है. इस भाषा के बारे में और संस्कृत से इसकी दूरियों-नजदीकियों के बारे में अलग से भी कुछ चर्चा हमने कर रखी है. अलबत्ता अश्वघोष की एक भी रचना बीएचएस में नहीं है. अपनी धारणाओं में वे खांटी बौद्ध हैं लेकिन पालि जैसे ठेठ जमीनी लहजे के बावजूद लिखाई उनकी पूरी तरह पाणिनीय संस्कृत में है.
अश्वघोष के बारे में इतना पक्के तौर पर पता है कि वे पहली सदी ईसवी में काशी जनपद की साकेत नगरी में जन्मे थे. एक भिक्षु की तरह प्रायः यात्राओं में रहने के बावजूद उनका ठिकाना भी साकेत ही समझा जाता था, लेकिन उनकी मृत्यु पुरुषपुर (पेशावर) में हुई. बुद्ध के धर्म में दीक्षित होने से पहले उनके जीवन को लेकर कई दंतकथाएँ दुनिया भर में चलती हैं लेकिन दीक्षा से पहले मां-बाप का दिया हुआ उनका नाम क्या था, इस बारे में स्पष्टता नहीं है.
बुद्धचरित के संस्कृत, चीनी और तिब्बती, तीनों ही उपलब्ध रूपों में उनका कोई परिचय नहीं मिलता. लेकिन उनके दूसरे चर्चित ग्रंथ ‘सौंदरनंद’ में उनके नाम के साथ ‘साकेतक’ और ‘सुवर्णाक्षीपुत्र’ विशेषण जुड़े हुए मिलते हैं. इन दोनों शब्दों से तात्पर्य यही निकलता है कि वे साकेत के रहने वाले थे और उनकी मां का नाम सुवर्णाक्षी था.
एक बात पर सहमति है कि बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने से पहले वे वैदिक परंपरा के विद्वान थे. घूम-घूमकर, चुनौती देकर धर्म-दर्शन संबंधी बहसें करना और कठिन शर्तें लगाकर खासकर बौद्ध विद्वानों को परास्त करना उनका काम था. चीनी भिक्षु हुई च्याओ द्वारा छठीं सदी ईसवी में संकलित महान भिक्षुओं के जीवनी संग्रह ‘काओसेंग झ्वान’ में दर्ज अश्वघोष की जीवनी बताती है कि अश्वघोष के पिता भले ही वैदिक पृष्ठभूमि से आते थे लेकिन उनकी मां बौद्ध थीं. यह भी कि स्वयं मां ने ही यह सोचकर कि बेटे को उसके अहं से विरत करने और सच्चे धर्म के मार्ग पर लाने का अकेला तरीका यही है, उसे समझाया- ‘दुनिया भर के शास्त्रार्थों में अपना श्रम व्यर्थ करना छोड़कर तुम मगध जाओ. बौद्ध दर्शन के असली विद्वान वहीं मिलेंगे. उनको परास्त करने के बाद ही उचित प्रतिष्ठा तुम्हें मिल सकेगी.’
तिब्बती स्रोतों में अश्वघोष का दीक्षापूर्व नाम मातृचेट मिलता है. हालांकि अन्य स्रोतों में मातृचेट पूर्वनाम वाले अश्वघोष को लेकर कुछ कन्फ्यूजन है. एक परंपरा इन सज्जन को ‘अश्वघोष द्वितीय’ कहने की है, जिनका समय बुद्ध के परिनिर्वाण के 800 साल बाद का, यानी अश्वघोष से कम से कम तीन सौ साल आगे का है. बहरहाल, तिब्बती और चीनी स्रोतों के टकराव से आई इस दुविधा को हम कुछ देर के लिए किनारे रख देते हैं. वैदिक आचार्य के बौद्ध धर्म में आने और अश्वघोष बनने को लेकर तिब्बती और चीनी स्रोतों में दो अलग-अलग कहानियां सुनने को मिलती हैं.
तिब्बती भाषा से अंग्रेजी में अनूदित लामा तारानाथ की किताब ‘हिस्ट्री ऑफ बुधिज्म इन इंडिया’ (मूल प्रकाशन सन 1608 ई.) में जो कहानी मैंने पढ़ी है, उसके मुताबिक मध्यदेश (मगध) में मातृचेट का विजय-रथ घूमने की ख़बर सुनकर आर्यदेव अपने गुरु नागार्जुन की आज्ञा लेकर श्रीपर्वत (अभी आंध्र प्रदेश में) से इस तरफ आए और कई तकनीकी उपाय करके उन्होंने दार्शनिक शास्त्रार्थ में इस विधर्मी आचार्य को हरा दिया. खुद आर्यदेव श्रीलंका के राजकुमार थे और वहाँ भिक्षु होने के बाद नागार्जुन का शिष्यत्व ग्रहण करने भारत आए थे. मोटा अनुमान है कि नागार्जुन, आर्यदेव और अश्वघोष, तीनों का समय आसपास का ही है और उनकी आयु में ज्यादा अंतर भी नहीं था.
ऊपर जिस ‘तकनीकी उपाय’ का जिक्र आया है, उसकी थोड़ी व्याख्या जरूरी है. तिब्बतियों के मुताबिक, मातृचेट ने महादेव और सरस्वती को सिद्ध कर रखा था और उनके पास एक ज्ञानी तोता भी था. आर्यदेव ने कुछ-कुछ युक्तियां लगाकर मातृचेट को इनमें से किसी की भी मदद नहीं लेने दी और उन्हें हार स्वीकार करने पर मजबूर कर दिया. शर्त थी कि हारने वाला विजेता का धर्म अपना लेगा, सो ‘आचार्य मातृचेट’ को ‘भदंत अश्वघोष’ बनना पड़ा.
इससे बहुत अलग, चीनियों का क़िस्सा यह है कि इस घुमंतू शास्त्रार्थी के चुनौती देने पर उसका दार्शनिक विमर्श मगध की राजसभा में कात्यायनीपुत्र पार्श्व नाम के एक वृद्ध बौद्ध भिक्षु के साथ होना तय हुआ. बहस शुरू करते हुए पार्श्व ने ‘वाद’ के रूप में अपने धर्म की कोई प्रस्थापना प्रस्तुत करने के बजाय इतना ही कहा कि राजा के राज्य में शांति रहे, कोई आपदा न आए, विवाद उत्पन्न न हो, आक्रमण न झेलना पड़े, लोग प्रसन्न रहें. इस वाद का कोई प्रतिवाद करना संभव ही नहीं था लिहाजा विरोधी को चुपचाप हार स्वीकार कर लेनी पड़ी.
ऊपर जिस चीनी जीवनी ग्रंथ का जिक्र किया गया है, हुई च्याओ द्वारा संकलित ‘काओसेंग झ्वान’, उसमें ‘अश्वघोष’ नाम की कथा आगे बताई गई है. अश्वघोष के बौद्ध धर्म ग्रहण करने के कुछ समय बाद काशी (उस समय साकेत राज्य की राजधानी) पर कनिष्क का आक्रमण हुआ तो नगर को सर्वनाश से बचाने के उपाय के रूप में उसकी तरफ से साकेत नरेश को अपना जीवन और सम्मान बचाने के लिए तीन लाख स्वर्णमुद्राएँ देने को कहा गया.
राजा के खजाने में सोने की मोहरें एक लाख से थोड़ी ही ज्यादा थी, तो विकल्प के तौर पर साथ में उसको साकेत के संग्रहालय में रखा बुद्ध का भिक्षापात्र और इस धर्मांतरित भिक्षु को सौंपने के लिए कहा गया. कनिष्क के दरबारी शर्तों में आए इस बदलाव से संतुष्ट नहीं थे. भिक्षु में उन्हें मांग के एक तिहाई हिस्से जैसा कुछ दिख ही नहीं रहा था.
अपने लोगों को शांत करने के लिए, उन्हें अपने फैसले से संतुष्ट करने के लिए कनिष्क ने सात घोड़ों को छह दिन भूखे रखने का हुक्म दिया. सातवें दिन ये घोड़े दरबार में लाए गए और भिक्षु को दरबारियों के अलावा उन घोड़ों के सामने भी अपना काव्य पढ़ने को कहा गया. किंवदंती आगे यह बनती है कि पाठ के बीच में घोड़ों का अच्छे से अच्छा चारा दरबार में लाया गया लेकिन घोड़ों ने कविता ही सुनी, चारे की ओर देखा तक नहीं. यहीं से इस भिक्षु का नाम अश्वघोष पड़ा और चीनी भाषा में शुरू से इसे ‘मामिंग पूसा’ (घोड़े की आवाज वाला बोधिसत्व) लिखा जाता है.
इस प्रकरण से इतना स्पष्ट है कि बुद्ध की राह का राही बनने से पहले अश्वघोष ने दुनिया देखी थी. जीवन को एक निर्धारित जीवन-दृष्टि से ही जांचने-परखने की सीमा उनपर लागू नहीं होती थी. यह चीज सबसे ज्यादा उनके काव्य के शृंगारिक पक्ष में जाहिर होती है, जो कम उम्र में भिक्षु बन गए किसी व्यक्ति के बूते की बात नहीं हो सकती. इसके अलावा उनके तर्क किसी तर्कशास्त्री की तरह सिर्फ अगले को काटने के लिए प्रस्तुत नहीं किए जाते.
एक बहुत गहरी वेदना से अश्वघोष की दलीलें बनती हैं, जैसे स्वयं बुद्ध की बनती रही होंगी. वे दूसरे पक्ष को उसकी समझदारी के अंतिम बिंदु तक जाने देते हैं और कई बार बिना कुछ कहे मामला सुलझ जाता है. बुद्धचरित के चीनी भाषा में आने के थोड़े ही समय बाद उनकी जीवनी भी वहाँ पढ़ी जाने लगी, ऐसी लोकप्रियता आज भी कितने कवियों को हासिल है? और यह प्रकरण केवल सुदूर अतीत तक सीमित नहीं है. अब से कोई ढाई सौ साल पहले विएतनाम के ताय फुओंग मंदिर में लगाई गई मामिंग पूसा (अश्वघोष) की श्वेत संगमरमरी मूर्ति का सौष्ठव बताता है कि दुनिया के विशाल बौद्ध दायरे में लोग उन्हें कितना चाहते आए हैं.
अश्वघोष की किताबें और विचार
भारत में अश्वघोष के लिखे-पढ़े के अलावा उनका नाम भी भले ही मिटा दिया गया हो, लेकिन चीन और तिब्बत में उनके नाम से मिलने वाली किताबों की तादाद काफी बड़ी है. इस लंबी सूची में कुछ और नाम नेपाल में ऊपर उल्लिखित रेजिडेंट ब्रायन हॉजसन के प्रयासों से भी जुड़े. लेकिन समय बीतने के साथ इनमें से कुछ किताबें अश्वघोष के आगे से साफ हट गईं और कुछ के साथ कोई न कोई संदेह जुड़ता गया. ऐसे ग्रंथों की प्रचुरता से यह अनुमान निकलता है कि अश्वघोष (चीनी भाषा में ‘मामिंग पूसा’) एक समय बौद्ध संस्कृत साहित्य के जेनरिक लेखक मान लिए गए थे और ठेठ लेखकीय पहचान के बिना हाथ लगे किसी भी बौद्ध संस्कृत ग्रंथ का चीनी या तिब्बती भाषा में अनुवाद करते समय किताब के साथ उनका नाम जुड़ा होना अनुवाद की सफलता की गारंटी समझा जाता था.
जो भी किताबें उनके साथ जुड़ी हैं, उनका हम आगे शुरू में सरसरी तौर पर उल्लेख करते हुए बढ़ेंगे, फिर जिन किताबों के बारे में एक से ज्यादा आधिकारिक स्रोतों से यह सुनिश्चित हो चुका है कि वे अश्वघोष की ही लिखी हुई हैं, उनके बारे में अलग से कुछ चर्चा करेंगे. तिब्बत में अश्वघोष विरचित बताई जाने वाली कई सारी किताबें उनका एक स्त्रोत्र-सर्जक और तांत्रिक व्यक्तित्व प्रस्तुत करती हैं, जिसका उनकी आम छवि से कोई मेल नहीं है.
चीनी यात्री ह्वेनसांग के यहाँ भी सातवीं सदी ईसवी तक बौद्ध दायरे में बनती गई उनकी एक ऐसी छवि का जिक्र मिलता है. तिब्बत में मिली ऐसी कुछ किताबों के नाम ‘गुरुपंचशतिका’, ‘दशकुशलकर्मपटनिर्देश’ और ‘घंटिस्तोत्र’ हैं. इनमें तीसरी किताब का स्वरूप इतना गोपनीय था कि चीनी भाषा में इसका अनुवाद करने के बजाय इसकी ध्वनियों को चीनी कैरेक्टर्स में ज्यों का त्यों उतार दिया गया. मसलन, किताब पढ़ते हुए किसी ने ‘कुं’ बोला तो चीनी लिखाई में इसे कुं ही लिखा गया, भले ही कुं का अर्थ वहाँ कुछ भी क्यों न हो!
गुरुपंचशतिका का तिब्बती शीर्षक इसके तांत्रिक स्वरूप का संकेत देता है और इसके पहले छंद से ही ऐसा आभास मिलने लगता है. किताब में तंत्र-सिद्धांत और गुप्त सूत्रों का संदर्भ आता है, साथ ही इसमें वज्र, मंडल, अभिषेक आदि के बारे में बताया गया है. तिब्बती ग्रंथ संग्रह तंज्यूर में अश्वघोष के नाम से एक बड़ी किताब स्वतंत्र शीर्षक वाले दो खंडों में मौजूद है. तिब्बती से संस्कृत में लाने पर ये शीर्षक ‘संवितिबोधिचित्तभावनोपदेश’ और ‘शोकविनोदन’ बनते हैं. तिब्बती लोगों का जोर इन किताबों का लेखक अश्वघोष को ही बताने पर रहता है लेकिन न तो अश्वघोष की सिद्ध पुस्तकों में उनके लेखन का मिजाज ऐसा है, न ही उनके समय में तंत्र की इतनी मजबूती का प्रमाण मिलता है.
ऐसी दो और किताबों में एक का स्रोत तिब्बत और एक का नेपाल है. तिब्बत के धर्मग्रंथ-संग्रह तंज्यूर में मिला डेढ़ सौ छंदों का एक स्तोत्र संग्रह ‘शतपंचशतिका नमोस्तोत्र’ अश्वघोष का लिखा बताया जाता है. लेकिन ह्वेनसांग के थोड़े ही बाद भारत आए चीनी यात्री ईछिंग (यी-त्सिंग) ने अपने यात्रा विवरण में नालंदा में रहते हुए इसका संस्कृत से चीनी में अनुवाद करने की बात कही है और इसका लेखक मातृचेट को बताया है. जैसा ऊपर कहा जा चुका है, तिब्बती इतिहासकार लामा तारानाथ अश्वघोष और मातृचेट को एक ही बताते हैं, लेकिन दोनों को अलग मानने और उनमें लगभग तीन सौ वर्ष का अंतर देखने के पर्याप्त प्रमाण मौजूद हैं.
इस सिलसिले की अगली कड़ी ‘नंदीमुखाश्वघोष अवदान’ है, जो नेपाल में मिला था और जिसको ब्रायन हॉजसन ने अश्वघोष की रचना घोषित किया था. लेकिन महान बौद्ध चरित्रों पर केंद्रित अवदान ग्रंथों में इस एक के साथ ऐसी गलतफहमी इसमें वर्णित देवी वसुंधरा के एक उपासक के नाम के कारण जुड़ गई है. नंदीमुखाश्वघोष यहाँ पूरा का पूरा इसी उपासक का नाम है, अश्वघोष शब्द की इसमें अलग से कोई भूमिका नहीं है.
आगे हम अश्वघोष के नाम से चीन में काफी चर्चित तीन ऐसी किताबों के बारे में बात करेंगे, जिनकी वहाँ बहुत प्रतिष्ठा है, लेकिन बाद की कुछ खोजें इस जुड़ाव को कम पुख्ता बनाती हैं. इनमें पहली है ‘सूत्रालंकारशास्त्र’, जिसमें कुछ सरल कथाओं के जरिये बुद्ध के उपदेशों की सुग्राह्य व्याख्या की गई है. इसका संस्कृत से चीनी में अनुवाद सन 405 ई. में इन दोनों भाषाओं के महाविद्वान, कूचा के राजपरिवार में जन्मे आचार्य कुमारजीव ने किया था.
इसका लेखक अश्वघोष को ही माना जाता रहा है. लेकिन अभी थोड़े ही समय पहले मध्य एशिया में कुमारलात (ह्वेनसांग द्वारा वर्णित ‘चार सूर्यों’ में से एक) की रचना ‘कल्पनामंडीतिका’ के जो अवशेष मिले हैं, उसकी सामग्री वही है जो सूत्रालंकारशास्त्र की है. इस खोज के बाद पुरातत्वशास्त्री इस नतीजे पर पहुँच रहे हैं कि कुमारजीव को अनुवाद से पहले शायद ग्रंथ के बारे में पूरी जानकारी न मिल पाई हो. कुमारलात के बारे में समझ यह बनी है कि वे अश्वघोष के समकालीन लेकिन उमर में उनसे काफी छोटे थे.
दूसरा ग्रंथ ‘महायानश्रद्धोत्पाद’ है, जो एक चीनी ग्रंथ है. नाम को पलटकर संस्कृत में ला दिए जाने के अलावा मूल संस्कृत में इसकी कहीं कोई गंध तक नहीं मिली है. कहा जाता है कि संस्कृत से चीनी में इसका दो बार अनुवाद हुआ. एक बार 553 ई. में जिस भिक्षु ने इसका अनुवाद किया, उसका नाम चीनी से उल्था करने पर ‘परमार्थ’ बनता है, और दूसरी बार 695 से 700 ई. के बीच, जिसके अनुवादक का नाम चीनी से संस्कृत में लाने पर ‘शिक्षानंद’ जैसा कुछ बनेगा. इस सूचना के बावजूद इसकी मुहावरेदारी और अवधारणाओं के स्वरूप को देखते हुए अध्येताओं की समझ इसे संस्कृत से अनूदित अश्वघोष की रचना के बजाय एक मूल चीनी ग्रंथ ही मानने की है.
आगे बढ़ने से पहले थोड़ी सी चर्चा इस दार्शनिक ग्रंथ की महिमा पर. काफी पहले ‘महायानश्रद्धोत्पाद’ का चीनी से अंग्रेजी में अनुवाद एक ‘प्रोटो-ईसाई ग्रंथ’ के रूप में करने वाले पादरी, रेवरेंड डॉ. टिमोथी रिचर्ड चीन में इसकी ‘खोज’ का क़िस्सा कुछ यूं बयान करते हैं- ‘1884 में मैंने अपने सम्मानित मित्र डेविड हिल के साथ नानचिंग का दौरा किया, ताकि वायसराय से मिलकर ईसाइयों के लिए उत्पीड़न से मुक्ति और धार्मिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करने में उनकी रुचि जगाने का प्रयास कर सकूं. वहाँ रहते हुए, मैंने कुछ बौद्ध पुस्तकों की तलाश की, जिन्हें उत्तरी चीन में मैं नहीं प्राप्त कर सका था. ताइपिंग विद्रोह के दौरान तबाह हुए लोगों के पुनर्वास के लिए मध्य चीन के तीन प्रमुख शहरों नानचिंग, सूज़ौ और हाँग्झोउ, में एक बौद्ध पुस्तक सोसायटी शुरू की गई थी. इनका मुख्यालय नानचिंग में ही था. तीनों सोसाइटियों का प्रधान संचालक वहीं रहता था और उसका नाम यांग वेन हुई था.
‘मैंने उससे मुलाकात की और उसे अपनी मुलाकातों के दायरे में सबसे बुद्धिमान बौद्ध पाया. चीनी दूतावास के ट्रेजरार के रूप में वह कई साल यूरोप में रह चुका था. मैक्स म्युलर और जूलियन के साथ तथा टोक्यो के बुनियू नानजियो के साथ उसकी बैठकी थी. यांग कोई बौद्ध पुजारी नहीं, स्नातक (स्युत्साई) की योग्यता वाला कन्फ्यूशियन था और केवल एक सामान्य बौद्ध था. मैंने उससे कहा, ‘कन्फ्यूशियस की समझ लेकर भी आप बौद्ध कैसे बन गए?’
‘उसका जवाब चौंकाने वाला था-
‘मुझे आश्चर्य है कि एक मिशनरी होकर भी आप मुझसे यह सवाल पूछ रहे हैं. आपको पता होना चाहिए कि कन्फ्यूशियसवाद का संबंध केवल इंसानी या लौकिक मामलों से है, परामानवीय या पारलौकिक मामलों से नहीं. जीवन-मरण से जुड़े कुछ सबसे महत्वपूर्ण प्रश्नों को वह साफ टाल देता है.’
‘मैंंने टोका कि ‘क्या आपका मतलब यह है कि बौद्ध धर्म उन प्रश्नों का उत्तर देता है?’ उन्होंने कहा- ‘हाँ.’ मैंने पूछा- ‘कहाँ?’ उन्होंने कहा- ‘महायानश्रद्धोत्पाद नामक पुस्तक में. यही वह किताब है जिसने मुझे कन्फ्यूशियसवाद से खींचकर बौद्ध धर्म में ला दिया.’ ‘वह पुस्तक क्या आपके पास यहाँ बिक्री के लिए उपलब्ध है?’ मैंने पूछा. ‘हाँ’, उन्होंने कहा, और पुस्तक लाकर मेरे हाथों में रख दी. बौद्ध ग्रंथों के बारे में यांग की जानकारी देखकर मैंने उनके यहाँ से कुछ दर्जन सबसे महत्वपूर्ण किताबें चुनी, उनका भुगतान किया और अपने ठिकाने पर लौट आया.
(यहाँ स्पष्ट करना जरूरी है कि डॉ. टिमोथी रिचर्ड ने किताब के चीनी शीर्षक का अंग्रेजी रूपांतरण ‘अवेकनिंग ऑफ फेथ’ किया है, जिसकी हिंदी ‘श्रद्धा का जागरण’ ही बनेगी. ग्रंथ का संस्कृत शीर्षक ‘महायानश्रद्धोत्पाद’ कब और किसकी पहल पर सामने आया, यह जानकारी मैं नहीं जुटा सका. सिर्फ इतना पता चल पाया कि चीनी शीर्षक में एक कैरेक्टर ऐसा भी आता है, जो चीन में बौद्ध धर्म की मुख्यधारा ‘महायान’ की ओर संकेत करता है. ऊपर के पैराग्राफ में और नीचे भी, जहाँ-जहाँ किताब का संस्कृत शीर्षक आया है, उसे इस संदर्भ से जोड़कर ही पढ़ें.- चं.)
‘कुछ समय बाद, मेरी खरीददारी वाला बक्सा भी आ गया. मैंने उनकी बताई हुई पुस्तक की तलाश की और इसे पढ़ना शुरू किया तो सुबह तक पढ़ता ही रह गया. फिर मैंने अपने दोस्त हिल से कहा, जो देर रात तक काम करने के बाद उठे ही थे- ‘यह एक ईसाई पुस्तक है और ऐसी किताबों में भी सबसे दिलचस्प है!’ ‘ईसाई पुस्तक?’ मेरे दोस्त ने बड़े संदेह से कहा- ‘आप अपनी ही सोच को बरबस इस चीनी किताब में पढ़े जा रहे होंगे!’ ‘ठीक है’ मैंने उन्हें किताब के कुछ खास हिस्से दिखाए और पूछा- ‘ऐसा है तो इन अंशों की व्याख्या आप कैसे करेंगे?’
कम दुविधा वाले ग्रंथ
डॉ. टिमोथी रिचर्ड का बाकी क़िस्सा हम यहीं छोड़ देते हैं. इस सूचना के साथ कि इसके दस साल बाद, 1894 में उन्होंने पूरी तरह ईसाई धार्मिक शब्दावली में इस किताब का अंग्रेजी अनुवाद संपन्न कर लिया था, लेकिन इसे छपाने का ख्याल उन्हें काफी समय बाद, सन 1907 में आया, जब बीच में सन 1900 में ही जापानी बौद्ध विद्वान तेतारो सुजुकी ने इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया और दुनिया भर में इस ग्रंथ की चर्चा फैल गई. फिर सुजुकी और रिचर्ड के अनुवादों का ‘अंतर्सभ्यतागत’ (इंटरसिविलाइजेशनल) अध्ययन भी शुरू हुआ. टिमोथी रिचर्ड के संस्मरण का यह छोटा अंश ऐसे ही एक अध्ययन से उठाकर यहाँ प्रस्तुत किया गया है.
बहरहाल, ‘महायानश्रद्धोत्पाद’ को पुख्ता तौर पर अश्वघोष की रचना न मानने का एक कारण ऊपर बताया गया है. यह कि इसकी मुहावरेदारी और उपमाएँ ठेठ चीनी लगती हैं, अनुवाद जैसी नहीं. लिहाजा यह संभवतः एक चीनी ग्रंथ ही है. दूसरा कारण यह कि अश्वघोष के तीनों स्थापित ग्रंथों- बुद्धचरित, सौंदरनंद और सारिपुत्रप्रकरण में महायान तो क्या किसी पंथ का कोई आग्रह नहीं है. उनका जोर बुद्ध के जीवन और दर्शन पर बात करने का ही दिखता है. किसी पंथ के खंडन-मंडन में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं जान पड़ती.
संभव है, शीर्षक के चीनी भाषा से किए गए संस्कृत अनुवाद में कुछ घपला हुआ हो, जिससे सिर्फ शीर्षक पढ़कर राय बना लेने वालों को यह किताब महायान के प्रचार जैसी लगती रही है. लेकिन जिस ग्रंथ के खुलेपन का हाल यह हो कि एक पादरी उसे ईसाई किताब मान बैठा हो, उसको किसी पांथिक ग्रंथ के खाते में तो नहीं डाला जा सकता. ऐसे में अश्वघोष से इसके जुड़ाव को खारिज करने की जल्दबाजी भी नहीं की जानी चाहिए.
दुविधा वाली अश्वघोष की ऐसी तीसरी किताब ‘वज्रसूची’ है, जो पिछले दो सौ वर्षों में चर्चा के भीतर-बाहर होती रही है. निश्चित रूप से, भारतीय समाज के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण ग्रंथ है, क्योंकि जाति और वर्ण श्रेष्ठता के आग्रहों का इसमें बहुत तीखा खंडन किया गया है. इसकी खोज की प्रक्रिया बहुत दिलचस्प है और भारत में अश्वघोष को लेकर पहली सनसनी इसने ही पैदा की थी. कमाल यह कि यह क़िस्सा किताब खोजे जाने से पहले शुरू हो गया था.
सन 1800 के आसपास संस्कृत के कुछ भारतीय आचार्यों ने ‘वज्रसूची उपनिषद’ नाम का एक पुराना ग्रंथ ढूंढ निकालने का दावा किया, जिसमें आस्था को वर्ण और जाति से ऊपर बताया गया था. इसको सामवेद से जोड़ा गया और इसका लेखक शंकराचार्य को बताया गया, जो और आश्चर्य की बात थी. वर्ण और जाति जैसी इहलौकिक चीजें शंकराचार्य के लिए ‘माया’ के अंग के रूप में गौण और अविचारणीय थीं. तब तक उपलब्ध किसी भी हिंदू धर्मग्रंथ में वर्ण और जाति का खंडन तो क्या, कहीं कोई छोटी सी सामान्य आलोचना भी न मिलना एक अलग मामला था.
वॉरेन हैस्टिंग्स (1732-1818) और विलियम बेंटिक (1774-1839) के बीच का वह दौर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर भारतीय संस्कृति के महिमामंडन और उसकी तीखी आलोचना के बीच झूलने का था. इस नए उपनिषद की खोज से भारत पर लगा मनुष्यविरोधी कुलीनतावाद का कलंक धुल सकता था और ऐसी कुछ कोशिशें हुईं भी.
लेकिन ज्यादा समय नहीं गुजरा था, जब नेपाल में ईस्ट इंडिया कंपनी के रेजिडेंट ब्रायन हॉजसन ने 1829 में नेपाल में प्राप्त हुई ‘वज्रसूची’ नाम की एक बहुत पुरानी संस्कृत तालपोथी का अनुवाद आचार्य अमृतानंद की सहायता से करना शुरू किया और 1831 में अंग्रेजी में इसको प्रकाशित किया. हालांकि हॉजसन ने इस किताब में अमृतानंद को सिर्फ एक पंडित कहा, कहीं भी उनके नाम का जिक्र नहीं किया. किताब के मूल लेखक का नाम उन्होंने ‘आशुघोष’ बताया और किताब में आई वंदना से यह निष्कर्ष निकाला कि ‘मंजुघोष’ कभी विश्वगुरु हुआ करते थे. इन दोनों के देश-काल के बारे में पता लगाने की काफी कोशिश हॉजसन ने की लेकिन इसमें नाकाम रहा. यह निष्कर्ष भी बाद में निकाला जा सका कि दोनों नाम क्रमशः प्राचीन बौद्ध संस्कृत कवि अश्वघोष और बोधिसत्व मंजुश्री के हैं.
खास बात यह कि जो बात ‘वज्रसूची उपनिषद’ में केवल आस्था और अध्यात्म के संदर्भ में कही हुई बताई जा रही थी, वह इस ग्रंथ में एक लौकिक सत्य के रूप में प्रस्तुत की गई थी.
‘जाति और वर्ण झूठी, निराधार अवधारणाएँ हैं. दुष्ट लोगों ने निहित स्वार्थों के तहत इनको समाज पर थोप रखा है. मनुष्यों के बीच जन्म से कोई फर्क नहीं होता. जैसे कटहल चाहे शाखा में फले, चाहे तने में या फिर जड़ में, होता वह हर हाल में कटहल ही है. एक को ब्राह्मण कटहल, दूसरे को शूद्र कटहल कोई मूर्ख ही कहेगा.’
यह मूलतः एक बौद्ध प्रस्थापना है और इसे जबरन खींच-तान कर भारत के पारंपरिक ढांचे में लाने की कोशिश की जा रही है, यह बात भी हॉजसन की प्रस्तुति में आई.
भारत के पारंपरिक समाज में इससे इतनी प्रतिक्रिया पैदा हुई कि थोड़े ही समय बाद. सन 1839 में भोपाल में ब्रिटिश रेजिडेंट लांसलेट विल्किंसन ने सूबाजी बापू नाम के एक सज्जन की सहायता से इस किताब के अनुवाद के अलावा मूल संस्कृत में भी इसकी प्रस्तुति की. किताब का शीर्षक था- ‘वुज्र सूची ऑर रिफ्यूटेशन ऑफ द आर्गुमेंट अपॉन व्हिच द ब्राह्मनिक इंस्टीट्यूशन ऑफ कास्ट इज़ फाउंडेड बाय द लर्नेड बूधिस्ट अश्वघोषा’. इस काम में विल्किंसन का साथ देने के लिए सूबाजी बापू इस शर्त पर तैयार हुए थे कि किताब में उनके द्वारा लिखा गया इसका खंडन भी प्रकाशित होगा, और ऐसा ही हुआ. इसके काफी बाद में किताब का हिंदी अनुवाद आया, लेकिन खास चर्चा में नहीं रहा. 1990 के दशक में आलोचक मैनेजर पांडे ने ‘हंस’ में इसपर एक लेख लिखा तो कुछ बात हुई.
वज्रसूची को अश्वघोष की रचना माना जाए या नहीं, यह एक अलग बहस है और इसका आधार यह है कि इसकी प्रस्थापनाएँ भले ही अश्वघोष से मेल खाती हों लेकिन इसकी भावभूमि उनकी प्रामाणिक रचनाओं से नहीं मिलती. इसका रचना समय उत्तर-गुप्तकाल का जान पड़ता है, जब ब्राह्मणवाद अपने आक्रामक रूप में सामने आकर मुख्यधारा वाली जगह हथिया चुका था, बौद्ध हाशिये पर डाल दिए गए थे और आत्मरक्षा के लहजे में उनकी ओर से जवाबी बहसें उठ रही थीं. इस लिहाज से इसे अश्वघोष द्वितीय (मातृचेट) की रचना मानना तार्किक हो सकता है, लेकिन चीन में कहीं (जगह मैं खोज नहीं पाया) इसे बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति (600-670) की रचना कहा गया है.
रही बात अश्वघोष के प्रामाणिक ग्रंथों की तो ‘बुद्धचरित’ ग्रंथ के अलावा इसके बारे में भी यहाँ आपको काफी कुछ पढ़ने को मिलेगा. ‘सौंदरनंद’ बुद्ध के चचेरे भाई नंद के भावनात्मक रूपांतरण की कथा है. वे जोश में आकर बुद्ध के पीछे निकल तो पड़े, लेकिन अपनी पत्नी ‘सुंदरी’ के प्रति दुर्निवार आकर्षण से लाख कोशिशों के बाद भी मुक्त नहीं हो पा रहे थे. एक नजर में यह गृहत्यागी विचार और शारीरिक रसायनशास्त्र के टकराव का ऐंद्रिक वर्णन जान पड़ता है. बहरहाल, बुद्ध के निजी प्रयासों से नंद अंततः (न जाने कितने समय बाद) इस आकर्षण से उबर आते हैं.
‘सारिपुत्रप्रकरण’ नाटक बुद्ध के पट्टशिष्य दो मित्रों सारिपुत्र और मौद्गलायन के धर्मांतरण के बारे में है और यह ऐसे कुछ चुनिंदा नाटकों में है, जिसमें धारणाओं को ही पात्र बनाया गया है. जैसे ज्ञान और मोह इसके पात्रों की सूची में आते हैं. इस तरह का नाटक बहुत बाद में ग्यारहवीं सदी ईसवी में कृष्ण मिश्र ने ‘प्रबोधचंद्रोदय’ लिखा, जिसमें आस्था की अनेक धाराओं की बहस से सम्यक ज्ञान उभरने की बात है, लेकिन बौद्ध धारा उसमें हाशिये पर ही है.
रही बात अश्वघोष की अपनी वैचारिक आस्था की तो श्रीलंका, बर्मा और थाईलैंड जैसे हीनयानी प्रभुत्व वाले देश उन्हें महायानी मानकर उनसे दूरी बनाते हैं, हालांकि ईसा की सातवीं सदी में ईछिंग ने उनके ग्रंथों के इन देशों में खूब पढ़े जाने की बात कही थी. सचाई यह है कि अश्वघोष के ग्रंथों में मंत्र-तंत्र का कोई प्रभाव नहीं दिखता. बुद्ध वहाँ महामानव के रूप में पूज्य जरूर दिखते हैं लेकिन उनका महायान जैसा लगभग ईश्वरीय अमूर्तन कहीं नहीं दिखता.
बोधिसत्व शब्द भी यहाँ शाक्यमुनि बुद्ध के अलावा उनसे पहले हुए बुद्धों के लिए ही आता है, महायान जैसी पूज्य बोधिसत्वों की कतार नहीं नजर आती. दार्शनिक खोजियों ने उनकी विचारधारा को ‘सर्वास्तिवादी’ कहा है, जो एक दार्शनिक प्रस्थापना के रूप में महायान के बजाय हीनयान के ज्यादा करीब है. यूं कहें कि बाद में जैसे पांथिक विभाजन बुद्ध के धर्म की पहचान बनते गए, अश्वघोष उससे पुराने और उससे ऊपर के रचनात्मक व्यक्तित्व हैं.
बीएचएस, संस्कृत और बुद्धचरित
अश्वघोष पूरी तरह संस्कृत के कवि हैं. व्याकरण के पाणिनीय ढांचे से जहाँ-तहाँ वे थोड़ा-बहुत इधर-उधर जाते भी हैं तो उतने ही, जितने उनसे बहुत बाद में हुए कालिदास जाते दिखाई देते हैं. भारत में अभी बौद्ध साहित्य के जो भी गिने-चुने पाठक हैं, अश्वघोष के काम को लेकर उनमें कुछेक का सवाल है कि बौद्ध धर्म की भाषा तो पालि है, फिर अपने समय में इसके शीर्ष पुरुष (बारहवां संघराज) होते हुए भी पाणिनीय संस्कृत को लेखन माध्यम बनाने के पीछे अश्वघोष का क्या उद्देश्य रहा होगा?
इस विनम्र संदेह का दूसरा, किंचित उग्र छोर संस्कृत की प्राचीनता पर सवाल खड़ा करता है. इस छोर पर बैठे लोगों का कहना है कि रामायण और महाभारत व्यर्थ की दावेदारियां हैं. संस्कृत को अपेक्षाकृत नई भाषा मानने का उनका आग्रह इस ऐतिहासिक तथ्य पर टिका है कि बहुत पुराने शिलालेखों में संस्कृत का प्रयोग ही नहीं खोजा जा सका है.
भारत में इस भाषा की सबसे पुरानी लिखावटें हाथीबाड़ा और घोसुंडी नाम के दो गांवों से मिली हैं जो राजस्थान में चित्तौड़गढ़ के पास और एक-दूसरे से पाँचेक मील दूर हैं. एक ही बड़ी लिखावट के ये हिस्से ब्राह्मी लिपि में हैं और दीवारों में लगे पत्थरों पर दर्ज हैं. इनका समय पहली सदी ईसापूर्व का, हद से हद से दूसरी सदी ईसापूर्व का है. अशुद्ध संस्कृत की यह लिखावट किसी राजा की घोषणा है और इसका संबंध संकर्षण (कृष्ण) और बलराम को साक्षी मानकर किए गए एक अश्वमेध यज्ञ से है.
इसके आसपास का ही समय (पहली सदी ईसापूर्व, यानी हाथीबाड़ा-घोसुंडी अभिलेख से थोड़ा बाद का) अयोध्या के रानोपाली मठ में मिली ब्राह्मी लिखावट का भी है, जिसका कुछ टेढ़ा-मेढ़ा रिश्ता पुष्यमित्र शुंग से बनता है. अयोध्या लिखावट में इस राजा (सेनापति) द्वारा किए गए दो अश्वमेध यज्ञों का उल्लेख है. ‘कोसलाधिपेन द्विरश्वमेधयजिनः सेनापतेः पुष्यमित्रस्य षष्ठेन कौसुकी-पुत्रेन धन धर्मराज्ञ पितुः फल्गुदेवस्य केतनम करितम्.’ (कोसल के स्वामी सेनापति पुष्यमित्र, जिन्होंने दो अश्वमेध यज्ञ किए थे, उनके छठें (?) कौसुकी-पुत्र धन (?) ने धर्मराजा के पिता फल्गुदेव (की स्मृति में यह) भवन बनवाया.)
सिर्फ आखिरी शब्द को छोड़कर इस लिखावट की संस्कृत बिल्कुल शुद्ध है. ‘कृतम्’ की जगह ‘करितम्’ लिखा होना ब्राह्मी लिपि की सीमा भी दिखाता है, लेकिन उससे ज्यादा इसमें क्रियाओं के स्तर पर प्राकृत का प्रभाव दिखता है.
ये दोनों ही उदाहरण बताते हैं कि पहली सदी ईसापूर्व तक संस्कृत अपने विकास की प्रक्रिया में ही थी. इसके उलट, तीसरी सदी ईसा पूर्व में जारी अशोक के पालि शासनादेशों की भाषा एक बहुत बड़े भूगोल में एकाधिक लिपियों में मौजूद होने के बावजूद मानकीकृत जान पड़ती है. यानी कम से कम ‘मेजर एडिक्ट्स’ (मुख्य शासनादेशों में) भाषा के स्तर पर एकरूपता दिखाई पड़ती है.
अश्वघोष और अन्य बौद्ध संस्कृत आचार्यों के काम को लेकर एतराज जताने वालों का कहना है कि पालि जैसी विकसित भाषा छोड़कर संस्कृत में जाना कोई सामान्य प्रक्रिया तो नहीं हो सकती. यहाँ स्पष्ट करना जरूरी है कि अशोक के माइनर एडिक्ट्स में भाषा की बहुत भिन्नता है. लुंबिनी शिलालेख में ही अलग प्राकृत दिखती है. पालि का ‘साक्क’ और प्राकृत का ‘साक्कि’ यहाँ ‘साक्य’ है. कहीं-कहीं ‘साकिय’ भी मिलता है.
शिलालेखों को एक तरफ रख दें तो भाषा के स्तर पर बदलाव की एक और प्रक्रिया उत्तर भारत में दिखाई पड़ती है. ईसवी सन की बिल्कुल शुरुआत में या इससे थोड़ा पहले लिखे गए ऐसे कई बौद्ध ग्रंथ अभी दुनिया भर में जहाँ-तहाँ एक किस्म की निरंतरता में मिल जाते हैं, जिनकी भाषा पालि-प्राकृत और संस्कृत के बीच की है. लिंग्विस्टिक एँथ्रॉपालजी में इस भाषा को बुधिस्ट हाइब्रिड संस्कृत (बीएचएस) का नाम दिया गया है.
महायान और वज्रयान का बीजग्रंथ ‘प्रज्ञापारमिता सूत्र’ इसी भाषा में लिखा गया है. बौद्ध साधकों के गोपनीय दायरे में पूज्य समझे जाने वाले ‘गुह्यसमाज सूत्र’ की रचना बुधिस्ट हाइब्रिड संस्कृत में हुई है. ‘सद्धर्म पुंडरीक सूत्र’ भी, जिसकी प्रार्थना जापानी बौद्ध धर्म में स्वयं एक दैवी शक्ति के रूप में की जाती है, बीएचएस में ही लिखा हुआ ग्रंथ है.
और इस विकसनशील भाषा की खासियत क्या है? शब्द निर्माण से लेकर वाक्य रचना तक इसका ढांचा कमोबेश संस्कृत का ही है, लेकिन पढ़ते हुए लगता है जैसे आप शास्त्रीय ग्रंथों की नहीं, कोई घरेलू जुबान पढ़ रहे हैं. ‘भवति’ क्रियारूप के लिए आपको यहाँ ‘होति’ शब्द मिल जाता है, जो अभी जरा सा बदलकर हिंदी और उर्दू में भी चल रहा है. यहाँ आपको इसका प्रयोग ‘होती है’ या ‘होता है’ के रूप में दिखता है.
शिष्य के लिए बीएचएस में ‘श्रावक’ नहीं, पालि का ‘सावक’ शब्द ही मिलता है. भिक्षु शब्द का संबंधवाची रूप यानी षष्ठी एकवचन संस्कृत में भले ही ‘भिक्षोः’ बनता हो लेकिन बुधिस्ट हाइब्रिड संस्कृत में इसके लिए ‘भिक्षुस्य’ शब्द मिलता है, जो पालि के समानार्थी शब्द ‘भिक्खुस्स’ के ज्यादा करीब है. इस भाषा में शब्दों और वाक्यों का निर्माण सटीक पाणिनीय तरीके से नहीं किया जाता और इसपर पालि का प्रभाव बना रहता है. यह सिर्फ लकीर पीटने की तरह एक परंपरा का अनुशीलन नहीं, खुद में एक समावेशी दृष्टिकोण का परिचायक है.
संस्कृत जैसी नियमनिष्ठता लेकिन शब्द-रूपों को अपनाने में खुलापन बीएचएस की खासियत है, जो इसमें लिखे ग्रंथों के चीनी और तिब्बती भाषाओं में, फिर तमाम पूर्वी एशियाई भाषाओं में जाने में मददगार बनी. बाद में इसका ढीला-ढालापन एक शास्त्रीय भाषा के रूप में अपभ्रंश के उदय में भी सहायक सिद्ध हुआ. एक भाषा के रूप में अपभ्रंश का स्वतंत्र इतिहास है, लेकिन बौद्ध सिद्धों की अपभ्रंश, जिसे हम काठमांडू में मिले ‘चर्यापद’ की भाषा, सरहपा और कान्हपा के पदों की भाषा की तरह पहचानते हैं, उसकी जड़ें संस्कृत से ज्यादा बीएचएस से जुड़ी हैं.
बौद्ध सामग्री के बीएचएस और पाणिनीय संस्कृति में जाने के इस दौर को लेकर अभी दुनिया भर में काफी रिसर्च चल रही है. मेरे सामने ऐसी सबसे बड़ी गुत्थी अपनी तिब्बत यात्रा में पेश आई थी. वहाँ ऊंची सड़कों से गुजरते हुए हर कठिन मोड़ पर मैंने इतने सारे पत्थरों पर ‘ओम मणि पद्मे हुम्’ लिखा देखा कि तिब्बत से लौटते ही इस मंत्र की उत्पत्ति खोजने में जुट गया. चीन के चंडी मंत्रों में भी ‘ओम’ का चलन खूब मिलता है. इस ठेठ वैदिक ध्वनि का कोई जिक्र त्रिपिटक में तो नहीं मिलता, फिर यह बुधिज्म में कब आई, कैसे आई?
एकबारगी लगा कि शायद यह केवल संस्कृत बुधिज्म यानी महायान की खासियत है. फिर श्रीलंका जैसे ठेठ पालि बुधिज्म वाले हीनयानी समाज में भी इसके चलन का पता चला, हालांकि वहाँ यह उत्तरी (तिब्बती, चीनी, कोरियाई, जापानी, विएतनामी) बौद्ध पंथों जितना नहीं दिखता. पूजा-पाठ में दिव्य बोधिसत्वों के आवाहन के लिए इसका उपयोग करने के बजाय श्रीलंकाई भिक्षुगण इसे ध्यान और सुरक्षा से जुड़े कर्मकांडों की प्रार्थना में आजमाते हैं.
एक बात तय है कि बौद्ध धर्म के व्यापक दायरे में पालि, प्राकृत और संस्कृत के बीच वैसी कोई मुहावरे वाली ‘चीन की दीवार’ नहीं मौजूद है, जैसी अभी हमारे यहाँ खिंची नजर आने लगी है. बुद्ध ने धार्मिक भाषा या देवभाषा जैसी किसी अवधारणा का निषेध किया था, अलग से अपनी कोई धार्मिक भाषा नहीं बनाई थी. भाषा को वे व्यवहार की, आपसी बातचीत की उपज मानते थे और अपने साथी भिक्षुओं से उनका आग्रह सिर्फ इतना था कि वह सुनने वालों की समझ में आनी चाहिए. कभी सीखना ही पड़े तो बोलने वाले को सुनने वालों की भाषा सीखनी चाहिए. अपनी बात सुनाने के लिए उन्हें अलग से अपनी भाषा सिखाने की जिद हरगिज नहीं पकड़नी चाहिए.
इस खुलेपन के साथ ही बौद्ध भिक्षुओं और आचार्यों ने कुषाणवंशी शासन के थोड़ा पहले से बुधिस्ट हाइब्रिड संस्कृत में कदम रखा और उनमें से अश्वघोष जैसे कुछेक ऐसे भी थे जिन्होंने शुद्ध संस्कृत में अपने ग्रंथ लिखे. नालंदा विश्वविद्यालय के एक बौद्ध महाविहार होने और उसकी शिक्षण भाषा संस्कृत होने की बात खुद ह्वेनसांग ने लिखी है.
बुद्धचरित का माहौल
यहाँ से देखने पर बुद्धचरित में भाषा के स्तर पर कुछ भी अटपटा नहीं लगता. कोई चीज अलग लगती है तो सिर्फ यह कि इसका माहौल रामायण, महाभारत और बाद में आए कालिदास, भारवि, दंडी, माघ और बाणभट्ट के काव्य साहित्य से बिल्कुल मेल नहीं खाता. पूरा संस्कृत काव्य-साहित्य मुख्यतः राजाओं और ऋषियों के इर्दगिर्द घूमता है. भास और शूद्रक जैसे नाटककारों के यहाँ कुछ अलग तरह के चरित्र जरूर दिखते हैं, लेकिन महाकाव्यों और काव्य-साहित्य की तरह उनकी रचनाओं की प्रेरक शक्ति, ड्राइविंग फोर्स मुख्य पात्रों का मोह, लोभ, वासना, ईर्ष्या, सत्ताकांक्षा आदि ही हुआ करते हैं, जो इंसान का मूल स्वभाव भी है.
इसके उलट, बुद्धचरित का विमर्श इन स्वाभाविक कारकों से ऊपर उठने का है. इसमें बहुत गहरी दार्शनिक बहसें हैं और हर तरह का लगाव तोड़ने का सचेत प्रयास है. महिला पात्र नगण्य हैं. यशोधरा का चरित्र लगभग नदारद है. लेकिन लंबे तप से उठे सिद्धार्थ को किसी प्रतिदान की इच्छा के बिना भोजन कराने वाली सुजाता और अपने ऐश्वर्य को पीछे छोड़कर मुक्ति की आकांक्षा के साथ बुद्ध के शरण में जाने वाली आम्रपाली शक्तिशाली चरित्रों की तरह उभरती है. हर तरह के छोटेपन से ऊपर उठने का वैराग्य-पराक्रम इसमें झलकता है, जिसे हम बाद में भर्तृहरि से लेकर सिद्ध साहित्य, नाथपंथ और मध्यकाल के निर्गुनिया कवियों तक खिलता हुआ देखते हैं. संवेदना की कमी का आरोप इस ग्रंथ पर या तो कोई हल्का आलोचक लगा सकता है, या वह जो ग्रंथ की मूल धारणा के प्रति दुराग्रही हो.
दरअसल, संस्कृत से जुड़ी समस्याएँ बाद में पैदा हुई हैं, जिनकी प्रतिक्रिया स्वरूप संस्कृत-बुधिज्म को एक साजिश की तरह देखना अभी के भारतीय बौद्धों के लिए स्वाभाविक है. भारतीय शासक वर्ग द्वारा आठवीं-नवीं सदी के बाद से भारत की हर अवैदिक धारा को किनारे धकेलकर उसे तहस-नहस कर देना और संस्कृत को वैदिक परंपरा में मौजूद हायरार्की से जोड़ देना देश की बहुसंख्य आबादी के लिए इसे उत्पीड़क वर्ग की भाषा समझने के लिए पर्याप्त सिद्ध हुआ. इस विषय की गहराई में जाने के लिए आप मेरी किताब ‘भारत से कैसे गया बुद्ध का धर्म’ देख सकते हैं.
हिंदी में इस बात का श्रेय आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी को दिया जाना चाहिए कि 1942 में प्रकाशित अपने शोधग्रंथ ‘नाथ संप्रदाय’ में उन्होंने नाथपंथ में रचे गए अद्भुत संस्कृत श्लोकों को हिंदी पाठकों के सामने प्रस्तुत किया. इस तरह इस भाषा को लेकर बनी एकाश्मी, मोनोलिथिक धारणा को उन्होंने खंडित कर दिया. लेकिन धारणा की जकड़ इतनी मजबूत थी कि बाद में उसने पलटकर हजारीप्रसाद द्विवेदी को ही ‘संस्कृत पंडित’ वाले जमे-जमाए ढांचे में फिट कर दिया. बौद्ध संस्कृत काव्यों का अनुशीलन, जाहिर है, इतिहास की धारा के खिलाफ तैरने जैसा है.
रही बात बुद्धचरित की अंतर्वस्तु की तो यह कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ गौतम से शाक्यमुनि बुद्ध की स्थिति तक पहुँचे असाधारण मनुष्य का जन्म से मृत्यु तक और फिर उसके थोड़ा बाद तक का वर्णन करने वाला जीवन चरित है. इसमें बुद्ध की अस्थियों के बंटवारे से पहले सात राजाओं द्वारा कुशीनारा नगर की घेरेबंदी, फिर प्रथम बौद्ध संगीति और अंत में अशोक के समय में इन अस्थियों पर ही बने 84 हजार स्तूपों का भी जिक्र आता है.
आकार की दृष्टि से यह ग्रंथ मंझोला कहा जाएगा. न रामायण या महाभारत जितना बड़ा, न ही रघुवंश और हर्षचरित जैसे परवर्ती संस्कृत कथा-काव्यों जितना छोटा. इसके चीनी संस्करण में कुल 2310 अनुच्छेद हैं, जो मूल काव्य में कमोबेश इतने ही श्लोक होने का संकेत देते हैं. सटीक अनुमान इसलिए नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि नेपाल में मिले अधूरे संस्कृत संस्करण से तुलना करने पर चीनी सामग्री किसी सर्ग में कुछ कम तो कहीं ज्यादा भी दिखती है.
काव्य दृष्टि के बारे में कुछ बातें ऊपर कही जा चुकी हैं. काव्य कला को लेकर बाहरी राय का जायजा लेना बहुत कठिन है क्योंकि इसके मानक लगातार बदलते रहते हैं. एक बात पक्की है कि अश्वघोष के छंद पढ़ने में बहुत अच्छे लगते हैं. उपमाओं की झड़ी लगाना उनका स्वभाव नहीं है लेकिन जहाँ भी वे आती हैं, मन मोह लेती हैं.
केंद्रीय बात यह कि बुद्धचरित लिखने के पीछे अश्वघोष का इरादा अपने धुरी चरित्र को, और उससे भी ज्यादा उसके दार्शनिक विमर्श को सघनतम रूप में सामने रखने का है. इसके लिए खुद को और अपनी कला को भी कम प्रकट करने का प्रयास ग्रंथ में आए उनके इस अंतिम कथन में जाहिर होता है. इसका मूल श्लोक-रूप पता नहीं कैसा रहा होगा, लेकिन बीती सोलह सदियों में संस्कृत से चीनी, फिर अंग्रेजी से होते हुए हिंदी में इसे कुछ यूं पढ़ा जा सकता है-
‘अपने लिए कुछ भी खोजे बिना, आत्म-सम्मान की परवाह किए बिना, व्यक्तिगत प्रसिद्धि की रत्ती भर भी इच्छा रखे बिना, केवल ग्रंथों में दर्ज बातों का अनुसरण करते हुए संसार के भले के लिए भगवान जैसे उस भिक्षु की प्रशंसा गाना और आदि से अंत तक उसके कार्यों का वर्णन करना ही यहाँ मेरा लक्ष्य रहा है.’
बाओयुन और धर्मरक्ष
बुद्धचरित के चीनी अनुवाद का शीर्षक इस भाषा की लिखावट और उच्चारण के दो रूपों के साथ ‘फो स्वोशिंङ ज़ान’ या ‘फो-शो-हिङ-त्सान-चिङ’ है. ‘बुद्धचरित’ शब्द इन दोनों शीर्षकों के साझा कैरेक्टर्स से ही बन जाता है. ‘फो शो हिङ’ या ‘फो स्वोशिङ’ का अर्थ है- ‘बुद्ध जीवन गाथा’. ‘त्सान’ या ‘ज़ान’ का अर्थ ‘काव्य’ है. हमेशा नहीं लेकिन कुछ संस्करणों में इस नाम के साथ चिङ भी जुड़ा मिलता है, जिसका अर्थ ‘सूत्र’ होता है. सैमुअल बील ने किताब के शीर्षक में चीनी भाषा के जो पाँच कैरेक्टर्स इस्तेमाल किए हैं, उनका शब्दार्थ ‘बुद्ध जीवन गाथा काव्य सूत्र’ बनता है.
किताब का अनुवाद पूरा होने का समय सन 421 ई. दर्ज किया गया है और इसकी जगह दक्षिणी चीन में नानचिंग शहर बताई गई है, जो बीच-बीच में चीन की राजधानी भी बनता रहा है. संस्कृत से चीनी भाषा में बुद्धचरित का अनुवादक बाओयुन (376-449 ई.) को माना जाता रहा है. वे वहाँ धर्म की दूसरी लहर वाले चीनी भिक्षु थे और फाह्यान तथा कुमारजीव के समानांतर बौद्ध ग्रंथों के संस्कृत से चीनी अनुवाद के लिए उनकी भी बड़ी ख्याति थी.
सैमुअल बील ने बाओयुन के बारे में यह जानकारी भी जुटाई है कि फाह्यान की यात्रा के बीच में ही वे कहीं खोतान के आसपास उनसे जुड़ गए थे और गांधार होते हुए कुछ समय भारत में बिताकर फाह्यान से पहले चीन लौट गए थे. लेकिन बताना जरूरी है कि बुद्धचरित के चीनी अनुवादक के रूप में ज्यादातर जगहों पर धर्मवृद्धि या धर्मरक्ष का नाम मिलता है. सैमुअल बील ने भी क्रेडिट पेज पर ‘धर्मरक्ष, 420 ई.’ ही लिख रखा है. लेकिन हाल में जापानी शोधकर्ताओं का काम बताता है कि यह शब्द ठेठ चीनी लगने वाले एक नाम ‘तान वूचेन’ का संस्कृत अनुवाद है.
ग्रंथ के पुराने चीनी संस्करणों में इस नाम के लिए तीन चीनी कैरेक्टर्स वाला एक ही शब्द दिखता है- ‘तान-वू-चेन’. बाद में ग्रंथ के चीनीकरण की प्रक्रिया में इसके दो हिस्से कर दिए गए. ‘तान’ यानी धर्म और ‘वूचेन’ का मतलब बचाना या बढ़ाना. इतना पता है कि ‘तान वूचेन’ एक प्रतिष्ठित बौद्ध भिक्षु थे और वे चीनी नहीं थे. ईसा की पाँचवीं सदी की शुरुआत में उनके मध्य भारत (शायद मगध) से चीन पहुँचने की सूचना मिलती है. इस सूचना के अनुरूप ही 19वीं सदी में उनके नाम को संस्कृत में वापस लाने का प्रयास हुआ और इसे ‘धर्मरक्ष’ या ‘धर्मवृद्धि’ बनाया गया.
बाओयुन द्वारा किए गए बुद्धचरित के अनुवाद के साथ एक ही उलझन है कि इसके कुल पाँच खंडों में से पाँचवां यानी अंतिम हिस्सा ‘महापरिनिर्वाण सूत्र’ के संबंधित अंश के चीनी अनुवाद के बहुत करीब जान पड़ता है. इस दूसरे ग्रंथ के अनुवादक के रूप में ‘तान वूचेन’ का ही नाम दर्ज है और इसको लेकर कहीं कोई विवाद भी नहीं है. एक दिलचस्प तथ्य यह कि बुद्धचरित और महापरिनिर्वाण सूत्र, दोनों का अनुवाद आने का समय सन 421 ई. ही है.
सटीक तौर पर बुद्धचरित का चीनी अनुवादक किसे माना जाए, इस बारे में सबसे गंभीर काम जापानियों का है. अभी 2021 ई. में जापानी विद्वान काज़ुनोबू मात्सुदा ने ‘त्रिदंडमाला’ ग्रंथ की पांडुलिपि में से बुद्धचरित के सर्ग-15 का मूल संस्कृत पाठ खोज निकाला, जो आज तक कहीं खोजा नहीं जा सका था. दूसरे जापानी विद्वान ओमिनामी रियुशो ने थोड़ा ही समय पहले ‘बुश्शोग्योसान’ शीर्षक से चीनी बुद्धचरित का जापानी अनुवाद किया, और पर्याप्त तर्कों-प्रमाणों के साथ यह सिद्ध किया कि इसे चीनी में लाने का श्रेय धर्मरक्ष को नहीं, बाओयुन को ही जाना चाहिए.
इन दोनों अनुवादकों के बारे में ओमिनामी रियुशो ने जो ब्यौरे खोजे हैं वे इस प्रकार हैं. बाओयुन ल्यांग्झोऊ के रहने वाले थे. 397 ई. के आसपास उन्होंने खोतान की और फिर भारत की यात्रा की. वहीं उनकी मुलाकात फाह्यान और अन्य चीनी तीर्थयात्रियों से हुई. भारत में उन्होंने यहाँ की भाषाएँ सीखीं और चांगान लौटकर बुद्धभद्र (359-429 ई.) के शिष्य बन गए. बुद्धभद्र 406 ई. से 408 ई. तक चांगान में थे. वहाँ से बाओयुन बुद्धभद्र के साथ ही नानचिंग पहुँचे और वहाँ के ताओचांग विहार में ठहरे. बाद में बाओयुन नानचिंग के बाहर ल्यूहेशान विहार में चले गए. इन दोनों विहारों में रहकर ही उन्होंने बुद्धचरित को संस्कृत में सुनकर मौखिक रूप से ही उसका चीनी में अनुवाद किया.
रही बात तान वूचेन यानी धर्मरक्ष (या धर्मवृद्धि) की तो उनके मध्य भारत से आए होने का जिक्र ऊपर आ चुका है. उनकी जीवनी से आगे पता चलता है कि वे दैवी आवाहन या जादू में काफी निपुण थे और उनका पुकार का नाम दा झोऊशी (महा सम्मोहनस्वामी) था. 412 ई. में धर्मरक्ष बाओयुन के गृहनगर ल्यांगझोऊ पहुँचे, जो अभी कांसू प्रांत का वूवेई जिला है. वहाँ सन 421 ई. में उन्होंने महापरिनिर्वाण सूत्र का अपना प्रसिद्ध अनुवाद संपन्न किया, हालांकि चीन में इस अनुवाद को उत्तरी संस्करण ही कहा जाता है. इसके कुछ साल बाद नानचिंग शहर में इसका संशोधित रूप सामने आया, जो महापरिनिर्वाण सूत्र के अनुवाद का दक्षिणी संस्करण कहलाता है. ओमिनामी रियुशो के मुताबिक, आखिरी हिस्से के कथा-साम्य के अलावा ये संयोग भी धर्मरक्ष का नाम बुद्धचरित से जुड़ने की वजह बने.
बुद्धचरित के चीनी अनुवाद का स्वरूप वाचिक रचना जैसा है. शैली मूल ग्रंथ को ज्यों का त्यों उतारने के बजाय यथासंभव उसके अर्थ के करीब रहने की है. अनुवाद गद्य में नहीं, चीनी भाषा में प्रचलित एक सरल पेंटामीटर छंद में किया गया है लेकिन अनुवादक की चिंता ग्रंथ के काव्य सौष्ठव, उसकी सरसता को बचाए रखने की कम लगती है.
किसी गंभीर धर्मप्रचारक की तरह बाओयुन की कोशिश यह दिखती है कि चीन के लोग बुद्ध की जीवन यात्रा को निकट से देख सकें और किताब पढ़ते हुए उनमें किसी तरह का विचलन न आए. यह सुनिश्चित करने के लिए पद्मखंड पुरकानन में सिद्धार्थ को लुभाने के काम में जुटी स्त्रियों के सरस श्रृंगारिक वर्णन कतर दिए गए हैं और व्यभिचार को बढ़ावा देने वाली उनकी लुभावनी बातें सीधी कर दी गई हैं. ग्रंथ के संस्कृत रूप के बरक्स सैमुअल बील की प्रस्तुति थोड़ी रूखी और ज्यादा दार्शनिक लगती है तो इसके लिए कुछ हद तक बाओयुन भी जिम्मेदार हैं.
बुद्धचरित में आए वैदिक चरित्रों के जिक्र को चीनी अनुवाद में काट-छांट कर बहुत घटा दिया गया है. नामों का चीनीकरण करने के बाद उनमें जिनको भी अपनाया गया है, वे इनके प्राकृत या किसी अलग रूप की ओर इशारा करते हैं. ऐसा एक मामला उस अप्सरा का है, जिसपर विश्वामित्र मुग्ध हो गए थे. मूल बुद्धचरित में उसका नाम घृताची लिखा हुआ है लेकिन चीनी संस्करण में जो नाम है, उसे मेनका का थोड़ा बिगड़ा हुआ रूप समझा जा सकता है. इससे ऐसा लगता है कि पढ़कर अनुवाद करने के बजाय बाओयुन किसी से सुनकर ग्रंथ को चीनी रूप दे रहे थे.
चीनी ग्रंथ की मौलिकता देखना चाहें तो इसके दसवें सर्ग में राजगृह नगरी में भिक्षा मांग रहे सिद्धार्थ के ‘धर्म-वस्त्रों’ से ऐसी आभा उठ रही है, जैसी सूरज की किरणें पड़ने के बाद शहतूत की नई पत्तियों से उठती है. मूल बुद्धचरित में, या यूं कहें कि नेपाल में मिले इसके अधूरे संस्कृत संस्करण में ऐसा कोई श्लोक नहीं है. पिछले सर्गों में धूप से बचने के लिए सिद्धार्थ के चिकने पत्तों वाले पेड़ों की छाया में जाने का जिक्र जरूर आया है, लेकिन वे पेड़ जामुन के हैं.
राजगृह पहुँचने तक गृहत्यागी सिद्धार्थ उन्हीं काषाय वस्त्रों में हैं जो उन्होंने महल से निकलने की सुबह एक शिकारी से बदले थे. इनमें ऐसा दिव्य सौंदर्य दिखने की कोई वजह नहीं है. चीनी बौद्धों का कहना है, यह वर्णन वहाँ की इस मिथकीय परिकल्पना से उपजा है कि सूरज हमेशा दो तनों वाले एक विराट शहतूत के पेड़ के नीचे से ही उगता है.
आचार्य अमृतानंद शाक्य ‘बंद्य’
उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में नेपाल के गोरखा राज का फैलाव इसके मौजूदा भूगोल के अलावा दक्षिण में गोरखपुर समेत तराई के कई सारे भारतीय (फिलहाल बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में पड़ने वाले) जिलों, पूरब में सिक्किम, पश्चिम में कुमाऊं-गढ़वाल रियासतों और हिमाचल प्रदेश का एक हिस्सा समेटता था और उत्तर में तिब्बत के ठोलिंग से लेकर शिगर्ची तक की छापेमारी पर जाकर रुकता था. फिर 1816 ई. में अंग्रेजों के हाथों शिकस्त खाने के बाद न केवल यह राज सिकुड़कर मौजूदा नेपाल से भी छोटा हो गया, बल्कि काठमांडू की राजसत्ता भी अचानक बौनेपन का सामना करने लगी. इस दौर में ही वहाँ बौद्ध संस्कृति का एक अघोषित जागरण शुरू हुआ.
आचार्य अमृतानंद का जिक्र हमने ऊपर किया है. वे कौन थे, क्या थे, इस बारे में हम ज्यादा नहीं जानते. एडवर्ड कॉवेल ने अपनी किताब की प्रस्तावना में राजेंद्रलाल मित्र की किताब ‘नेपालीज बुधिस्ट लिट्रेचर’ से उनके बारे में कुछ जानकारियां दी हैं. इस किताब में अमृतानंद को अनुवादों के अलावा दो संस्कृत और एक नेवारी ग्रंथ का लेखक बताया गया है. निजी परिचय के रूप में उनको काठमांडू रेजिडेंसी के तत्कालीन (सन 1890 के आसपास) ‘हाउस पंडित’ इंद्रानंद का दादा, यानी उनके पिता गुणानंद का पिता होने की संभावना व्यक्त की गई है.
इससे पता चलता है कि आचार्य अमृतानंद की कम से कम तीन पीढ़ियां काठमांडू में ब्रिटिश रेजिडेंट के साथ जुड़ी हुई थीं. यहाँ कॉवेल ने किन्हीं डॉ. डी. राइट का नाम भी लिया है, जिनकी दी हुई सूचना के अनुसार, इस परिवार को काफी पहले से नेपाल के इतिहासकार और पांडुलिपियों के संरक्षक की प्रतिष्ठा प्राप्त थी. यह सूचना कुछ अटपटी है, क्योंकि काठमांडू घाटी में कई सदियों से बौद्धों की जो स्थिति चली आ रही थी, उसे देखते हुए बौद्ध नेवार पृष्ठभूमि के किसी व्यक्ति को राजसत्ता की ओर से ऐसी कोई आधिकारिक मान्यता मिलना लगभग असंभव जान पड़ता है. थोड़ा कन्फ्यूजन ऊपर आई ‘हाउस पंडित’ की खानदानी पदवी से भी हो सकता है, और किसी को लग सकता है कि आचार्य अमृतानंद नेपाल में मैदानी या पर्वतीय ब्राह्मण पृष्ठभूमि से आते होंगे. ऐसा होता तो यह खुद में एक कमाल की बात होती, क्योंकि 19वीं सदी में किसी ब्राह्मण का बौद्ध संस्कृति से जुड़ाव कल्पनातीत था.
अमृतानंद के साथ ऐसा कोई मामला ही नहीं था. अंग्रेजी राजसत्ता के लिए ‘पंडित’ सिर्फ एक सरकारी ओहदा था. अंग्रेजी राज के लिए तिब्बत की खोजबीन करने वाले गढ़वाली विद्वान नैनसिंह रावत का सरकारी टाइटल भी ‘पंडित’ ही था. अमृतानंद का घरेलू टाइटल ‘शाक्य’ था और विद्वान होने के कारण अपने नाम के साथ वे पंडित या आचार्य के बजाय ‘बंद्य’ शब्द जोड़ते थे. नेपाल की नेवार आबादी में लिखत-पढ़त का काम पारंपरिक रूप से वज्राचार्य और शाक्य उपसमुदायों का ही रहा है, लेकिन शुरू से उनकी जीविका गहने बनाने के हुनर (सोनारी) से चलती आई है.
ईसा की नवीं-दसवीं सदी तक नेपाल का नेवार समुदाय पूरा का पूरा बौद्ध हुआ करता था. मुख्यतः वज्रयान से प्रभावित बौद्ध धारा के लोग. फिर वहाँ शंकराचार्य की धारा का प्रभाव बढ़ा और एक के बाद एक आए राजवंशों ने बौद्ध धर्म की जड़ पर चोट करनी शुरू की. सन 1760 के दशक के अंत में उत्तर-पश्चिम से आए गोरखों ने जब काठमांडू घाटी पर कब्जा किया, तब भी नेवारों की स्थिति कुछ बेहतर नहीं थी. हमलावरों ने उनके साथ कैसा बरताव किया, यह तो पता नहीं है लेकिन सन 1816 ई. में, जब देहरादून संधि के बाद अंग्रेजों ने गोरखा राज को बहुत कमजोर कर दिया था, तब शायद नेवार बुद्धिजीवियों को काठमांडू स्थित ब्रिटिश रेजिडेंसी में कुछ उम्मीद दिखाई पड़ी हो. काफी संभावना है कि यह प्रकिया ही सन 1826 में अमृतानंद को ब्रायन हॉजसन के करीब ले गई.
अमृतानंद द्वारा संपादित और लिखित ग्रंथों में उनकी बौद्धिक सक्रियता सन 1796 ई. से 1830 ई. तक की दिखती है. आगे उनका लिखा हुआ एक हृदयग्राही श्लोक आप पढ़ सकेंगे. अगर आप संस्कृत की लंबी बहर वाले छंदों से परिचित हैं तो अर्थ में गए बिना भी इसे बांचने का आनंद ले सकते हैं. उनके द्वारा अपने शहर काठमांडू की प्रशंसा, इसकी स्थापना के मिथकीय किस्से का दोहराव, गोरखा चलन के मुताबिक ‘बोधिसत्व मंजुश्री’ की ‘मंजुनाथ’ के नाम से वंदना, मंजुश्री के भी उपास्य बुद्ध की ‘सभी जिनों (विजेताओं) में सर्वश्रेष्ठ’ कहकर स्तुति और साथ में अपने राजा की कल्याण कामना उनकी लिखी एक छोटी सी किताब ‘कल्याणपंचविंशतिका’ में आए इस श्लोक में शामिल है.
मंजुश्री को ज्ञान, कला और सौंदर्य का भंडार कहा जाता है और कुछेक परंपराओं में सरस्वती को उनकी पत्नी माना गया है. इस श्लोक में उन्हें जिस पहाड़ की चोटी से उतरा बताया गया है, वह चीन में स्थित वूताईशान पर्वत है, जिसे पवित्र मानकर मध्यकाल की चीनी हुकूमत ने उसकी ऊंची चोटियों की यात्रा वर्जित कर दी थी. तीर्थयात्रा के लिए लोग वहाँ जाते थे, फिर नीचे ही नीचे परिक्रमा करके वापस लौट जाते थे, जैसा अभी कैलाश पर्वत के साथ करते हैं.
मंजुश्री के मिथक के साथ एक मजेदार क़िस्सा यह जुड़ा है कि काठमांडू बसाने के लिए जब एक विशाल झील का सारा पानी बाहर निकालकर वे उसकी तलहटी को ऊपर उठाने में जुटे थे, तब पसीने से भरे उनके बालों में बहुत सारी जुएँ पड़ गईं. पड़ना उनके लिए स्वाभाविक था तो पड़ गईं, लेकिन मंजुश्री के साथ रहते-रहते वे अहिंसक भी हो गईं और उनका खून पीने के बजाय उनके पसीने पर ही गुजारा करने लगीं. दंतकथा यह कि अभी वे जुएँ बंदर बनकर स्वयंभू स्तूप के मंदिर पर रहती हैं और आपस में थोड़ा झगड़ भले लें, पर वहाँ आने वाले लोगों को कभी नहीं काटतीं! दो-तीन सुबहें और शामें उनके साथ बिताने का मौका मुझे भी मिला है. वाकई, अलग ही तरह के बंदर हैं.
खैर, अब आचार्य अमृतानंद की ‘कल्याणपंचविंशतिका’ का वह स्वस्ति-श्लोक देखें-
शीर्षात् प्रागत्य योSसौ सहितपरिजनश्चंद्रहासासिनाद्रिं
छित्वा शोषे हृदेस्मिन् पुरुवरमकरल्लोकवासाय रम्यं.
स्वस्थीभूताब्जसंस्थं सकलजिनवरं प्राभंजन मंजुनाथः
कल्याणं वः क्रियात्स क्वचिदपि सरतां तिष्ठतां नौम्यहं तं..
(पर्वतशीर्ष से अपने परिजनों के साथ उतरकर चंद्रमा जैसी शुभ्र चमक वाले अपने खड्ग से जिन्होंने पर्वतों को काटकर झील को सुखा डाला, उसके तल में मनुष्यों के रहने योग्य एक सुरम्य नगर खड़ा कर दिया, और इस झील में स्वतः खिले रहने वाले कमल पर विराजमान सभी जिनों (विजेताओं) में सर्वश्रेष्ठ (बुद्ध) की उपासना की, उन मंजुनाथ को मेरा नमस्कार है. आप सभी जहाँ भी जाएँ, खड़े हों या बैठे रहें, हर जगह वे आपका कल्याण करें.)
यहाँ यह सवाल उठना लाजमी है कि नेपाल की तराई में बुद्ध से जुड़े स्थलों लुंबिनी, कपिलवस्तु, रामग्राम आदि की खोज तो यह वंदना-श्लोक लिखे जाने के कम से कम सत्तर साल बाद उसी प्रक्रिया में हुई, जिसके तहत उत्तर भारत में सारनाथ, बोधगया और कुशीनगर आदि स्थान खोजे गए थे. बुद्ध से जुड़ी सारी जगहें इनसे संबंधित कथाओं का अनुसरण करते हुए भारत और नेपाल में ही खोजी जानी चाहिए, ईरान या अफ्रीका में नहीं, यह फैसला भी अंग्रेजी हुकूमत ने सन 1830 के आसपास फाह्यान और ह्वेनसांग के ग्रंथों के चीनी से फ्रांसीसी में और फिर अंग्रेजी में अनुवाद हो जाने के बाद, यानी नेपाली राजगुरु अमृतानंद के निधन के बाद ही लिया था. ऐसे में इस स्वस्ति श्लोक में बोधिसत्व मंजुश्री और उनके उपास्य के रूप में जिनवर बुद्ध की वंदना करने का औचित्य कहाँ से पैदा होता है.
इस दिलचस्प सवाल का जवाब खोजने के लिए हमें तिब्बत से सटे नेपाल के उत्तरी इलाकों और काठमांडू घाटी की धार्मिक आस्था पद्धतियों का अध्ययन करना होगा. जितना काम मैं इस बारे में कर पाया हूं वह मेरी किताब ‘भारत से कैसे गया बुद्ध का धर्म’ में मौजूद है, लेकिन वहाँ से आगे और भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है.
बोधिसत्वों की आराधना सघन कर्मकांडों से भरी, तांत्रिक प्रकृति वाली एक महायानी-वज्रयानी आस्था पद्धति का हिस्सा है. इस धर्म का उद्भव एक जीते-जागते मनुष्य से हुआ है, जिसने अब से ढाई हजार साल पहले एक अनुकरणीय जीवन जिया था और मानवजाति के कठिनतम दार्शनिक प्रश्नों का सामना किया था, यह जानकारी भारत से बुधिज्म के विलोप के बावजूद अपने धर्म की निरंतरता में बने रहे नेपाली बौद्धों के लिए भी अडेढ़ सौ साल पहले तक नई थी. हालांकि उनकी नई पीढ़ी से इस बारे में चर्चा की जाती है तो उनका मन यह मानने को राजी नहीं होता!
नेपाल में ‘बुद्धचरित’ और ‘सौंदरनंद’ को बचाने और प्रारंभिक अर्थ की दृष्टि से उसका संपादन करने वाले आचार्य अमृतानंद ही हैं. इन डेढ़ ग्रंथों के अलावा महाकवि अश्वघोष का सारा कुछ दक्षिण एशिया में किसी की कुंठा या धर्मद्वेष की आग में जल चुका है. इनकी भी निहायत गली हुई फटी-चिटी हस्तलिखित पांडुलिपियों का संरक्षण काठमांडू में ब्रिटिश रेजिडेंट ब्रायन ह्यूस्टन हॉजसन की उपस्थिति के बिना, उनकी ओर से इसकी जरूरत बताए बिना संभव नहीं हुआ होता. इस क्रम में बचाई हुई बुद्धचरित की एकमात्र मूल किंतु अधूरी देवनागरी पांडुलिपि अभी पेरिस के नेशनल म्यूजियम में सुरक्षित है. ध्यान रहे, अशोक के किसी भी स्तंभ या शिलालेख की इबारत 1830 तक पढ़ी नहीं जा सकी थी, लेकिन नेपाल में मिली बौद्ध पांडुलिपियों की भाषा और लिपि, दोनों इनके बहुत बाद की थीं.
तीन किताबें, तीन मुख्य स्रोत
दो सहस्राब्दी पुरानी एक किताब पर चर्चा का मजा इसी में है कि हम एक संस्कृति से दूसरी, फिर वहाँ से तीसरी संस्कृति तक जारी उसकी यात्रा में शामिल हों. पीछे हमने बुद्धचरित के बाओयुन जैसे प्राचीन अनुवादक और ब्रायन हॉजसन तथा अमृतानंद जैसे नए संरक्षकों पर बात की है. चर्चा का आखिरी पड़ाव उन तीन अंग्रेज अनुवादकों को थोड़ा विस्तार से याद करने का है, जिनका जिक्र हम लगातार करते आ रहे हैं. सैमुअल बील, एडवर्ड कॉवेल और ई. एच. जॉन्स्टन. इस ग्रंथ का कोई न कोई नया अनुवाद थोड़े-थोड़े समय पर आता रहता है, लेकिन ये तीनों मूल हैं.
सैमुअल बील (1825-1889 ई.) एक विद्वान पादरी विलियम बील के बेटे थे और कैंब्रिज के प्रतिष्ठित ट्रिनिटी कॉलेज से पढ़ाई करने के बाद वहीं कुछ समय एक कॉलेज में प्राचार्य की भूमिका निभाकर पूरी तरह धर्म के लिए समर्पित हो गए थे. उस दौर में धर्म एक तरह का करियर भी था लिहाजा 1856 से 1858 के बीच चले चीन-ब्रिटेन युद्ध में सैमुअल बील ब्रिटिश नेवी के समुद्री तोपखाने के चैप्लेन (समर्पित पादरी) रहे. भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम (1857) के समानांतर चले इस युद्ध को दुनिया दूसरे अफीम युद्ध के रूप में जानती है. भारत से अंग्रेजी राज की देखरेख में अपने यहाँ हो रही अफीम की आवक रोकने की आखिरी चीनी कोशिश इस लड़ाई में धराशायी हो गई.
जाहिर है, ईस्ट इंडिया कंपनी के फौजी धार्मिक अफसर के रूप में सैमुअल बील की कोई बहुत अच्छी छवि भारत में तो क्या किसी भी पूर्वी मुल्क में नहीं बन सकती. लेकिन पराई संस्कृतियों और भाषाओं के एक वैश्विक अध्येता के रूप में उनका काम असाधारण था. सरकारी काम भी इतनी गंभीरता से किया जा सकता है, सोचकर आश्चर्य होता है. चीनी भाषा ठीक से और संस्कृत तथा पालि को जरूरत भर सीखकर उन्होंने अध्ययन और अनुवाद की कसरत शुरू की. पहला कदम चीनी यात्रियों की भारत यात्रा से जुड़े ग्रंथों में रखा, फिर धीरे-धीरे बौद्ध धर्म की तह में गए.
1872 में उन्हें अंग्रेजी हुकूमत की ओर से चीनी बौद्ध ग्रंथों के अध्ययन का जिम्मा दिया गया और इस काम के लिए इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी में 72 धर्मग्रंथ चीनी भाषा के 112 वॉल्यूम्स में सौंप दिए गए. एक अजनबी भाषा की दो-चार किताबें कोई भी पढ़ लेता है, लेकिन 112 किताबें! सैमुअल बील ने अपना काम बहुत रचनात्मकता के साथ न सही, पर्याप्त लगन से किया. इतनी किताबों में से उन्होंने कुछ सबसे जरूरी चीजें चुनीं और अपने लिए सिरे से पराई रही दो सभ्यताओं- चीनी और भारतीय संस्कृतियों के बीच एक स्तर की आवाजाही के जरिये ‘अभिनिष्क्रमण सूत्र’ और ‘बुद्धचरित’ की चीनी से अंग्रेजी में ऐसी प्रस्तुति की, जो दुनिया में कहीं भी पढ़े जाने पर अटपटी नहीं लगतीं.
फो-शो-हिङ-त्सान-चिंग : अ लाइफ ऑफ बुद्धा
सैमुअल बील द्वारा चीनी ‘बुद्धचरित’ के अनुवाद के शीर्षक में यह शब्द कहीं नहीं आता. कवर देखने पर उनका ग्रंथ पूरी तरह किसी चीनी किताब का अंग्रेजी रूपांतरण जान पड़ता है- ‘फो-शो-हिङ-त्सान-चिंग : अ लाइफ ऑफ बुद्धा’. यहाँ किताब के मूल लेखक का नाम ‘अश्वघोष बोधिसत्व’ बताया गया है और सन 420 ई. में इसका संस्कृत से चीनी अनुवाद ‘धर्मरक्ष’ द्वारा किए जाने की सूचना दी गई है. इस गलतफहमी पर पीछे हम थोड़ी बात कर चुके हैं.
किताब की प्रस्तावना में यह भी बताया गया है कि मैक्स म्युलर के नेतृत्व में चल रही ‘सैक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट’ परियोजना के तहत सैमुअल बील ने सन 308 ई. में (बुद्धचरित से एक सदी पहले) संस्कृत से चीनी भाषा में गए ‘ललितविस्तर’ के अंग्रेजी अनुवाद का काम ले रखा था. (तीसरी सदी ईसवी से बिना किसी लेखकीय नाम के मौजूद बुद्ध की इस अर्ध-जीवनी में वे मनुष्य से अधिक दैवी रूप में उपस्थित हैं. 1879 में इस किताब का मुक्त-हस्त अंग्रेजी काव्यानुवाद एडविन आर्नल्ड ने ‘द लाइट ऑफ एशिया’ शीर्षक से किया. बाद में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस किताब को हिंदी में लाते हुए पता नहीं क्यों इसे ‘बुद्धचरित’ शीर्षक दे दिया!) लेकिन किताब का चीनी संस्करण बील को इतना भ्रष्ट लगा कि आधे तक पहुँचकर उन्होंने यह काम छोड़ दिया. फिर संपादक ने आग्रह किया कि बुद्ध का एक जन्म तो उनके हाथों होना ही चाहिए, तो फो-शो-हिङ-त्सान-चिङ के अनुवाद का काम हाथ में लिया.
1877 ई. में सैमुअल बील ब्रिटिश नेवी से रिटायर होकर यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में चीनी भाषा के प्रोफेसर बने और इसी भूमिका में रहकर 1883 में ‘अ लाइफ ऑफ बुद्धा’ पूरी की. एक धर्मवेत्ता होने के चलते बौद्ध धर्म को लेकर सैमुअल बील के प्रेक्षण भी अपने समय के लिए बहुत महत्वपूर्ण रहे होंगे. इस धर्म का बड़े पैमाने पर भौगोलिक विभाजन करते हुए वे इसे उत्तरी बौद्ध धर्म और दक्षिणी बौद्ध धर्म में बांटते हैं और ‘महापरिनिब्बान सुत्त’ के पालि और चीनी रूपों के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर एक बहुत बड़ा निष्कर्ष निकालते हैं.
निष्कर्ष यह कि भारत, श्रीलंका, बर्मा जैसे दक्षिणी बौद्ध समाजों में महापरिनिर्वाण से तात्पर्य ‘अस्तित्व की समाप्ति’ का है, जबकि चीन, जापान और कोरिया जैसे उत्तरी बौद्धों में इसका अर्थ ‘अस्तित्व की पूर्णता’ का है. मूल बुद्धचरित में हम ‘मोक्ष’ और इसकी व्याख्या के रूप में ‘आवागमन से मुक्ति’ का उपयोग प्रायः होते देखते हैं. लेकिन यूरोप की भाववादी दार्शनिक शब्दावली में तब शॉपेनहावर से लेकर नीत्शे तक ‘एग्जिस्टेंस’ और ‘बीइंग’ की शब्दावली चलती थी, लिहाजा बील ने अपने उपरोक्त निष्कर्ष के लिए ‘एँड ऑफ बीइंग’ और ‘परफेक्शन ऑफ बीइंग’ आजमाया है.
बहरहाल, यह बील की अपनी समझ है. थेरवाद और महायान पंथों में निर्वाण की धारणा एक-दूसरे से कुछ अलग हो सकती है लेकिन ‘अस्तित्व की समाप्ति’ से सहमत होना एक सामान्य मनुष्य की तार्किकता के लिए भी संभव नहीं है. बुद्ध की मृत्यु भले ही अब से लगभग ढाई हजार साल पहले हो चुकी हो, लेकिन उनका अस्तित्व समाप्त हो चुका है, इस बात को भला कौन स्वीकार करेगा? मनुष्य का अस्तित्व एक बड़ी चीज है. किसी के मर जाने से खुद उसके लिए इसका अंत भले हो जाता हो, बाकी दुनिया के लिए तो यह कुछ न कुछ बचा ही रहता है. और जितने स्तरों के संघर्ष के लिए बुद्ध लोगों के मन में बसे हैं, वह उनके अस्तित्व की पूर्णता जैसी किसी बात का ही संकेत देता है.
यहाँ से आगे हम एडवर्ड बाइल्स कॉवेल (1826-1903 ई.) पर थोड़ी चर्चा करते हैं. वे बौद्धिकों और कलाकारों के एक बहुत प्रतिष्ठित परिवार से आते थे और संस्कृत सीखने से पहले फारसी में उनकी अच्छी गति थी. पूर्वी भाषाओं में उनकी दिलचस्पी पंद्रह साल की उम्र में ही सर विलियम जोन्स की किताबें पढ़कर बन गई थी और उन्हीं के लिखे फारसी व्याकरण के बल पर महाकवि हाफ़िज़ का अंग्रेजी अनुवाद कम उम्र में ही करके प्रकाशित भी करा लिया था. कॉवेल परिवार का अपना एक नामी-गिरामी प्रकाशन था, जिसे 1842 में अपने पिता की मृत्यु के बाद मात्र 16 साल की उम्र से एडवर्ड खुद ही संभालने लगे थे. 24 की उम्र में उन्होंने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से फारसी की पढ़ाई की और 1856 ई. से प्रेसिडेंसी कॉलेज, कोलकाता में बतौर प्रोफेसर अंग्रेजी भाषा का इतिहास पढ़ाने लगे.
अगले दस-ग्यारह साल एडवर्ड कॉवेल ने यह नौकरी की, साथ में इसी शहर में स्थित संस्कृत कॉलेज के प्रिंसिपल भी रहे. कॉवेल की प्रतिभा की ऊंचाई ऐसी कि कोलकाता में रहते हुए ही उन्होंने वहाँ स्थित नेशनल म्यूजियम से उमर ख़य्याम का दीवान खोजा, अंग्रेजी अनुवाद के लिए उसे अपने एक मित्र के पास इंग्लैंड भेजा और बिना अपना नाम दिए इस किताब की जो प्रस्तावना लिखी उसे पश्चिम में ख़य्याम पर एक आधिकारिक राय की तरह पढ़ा जाता है.
द बुद्ध-चरित ऑफ अश्वघोष
1867 ई. में एडवर्ड कॉवेल इंग्लैंड लौटे, वहाँ कैंब्रिज में संस्कृत के पहले प्रोफेसर बनाए गए और 1903 में आखिरी सांस लेने तक इसी पद पर रहे. यह दिलचस्प है कि एक तरफ फारसी में उनका काम उसके तीन महाकवियों खय्याम, रूमी और हाफ़िज़ तक फैला हुआ है, दूसरी तरफ संस्कृत में उन्होंने ‘ऋग्वेद संहिता’ समेत विभिन्न धर्मग्रंथों के अनुवाद किए, जिनमें सबसे ज्यादा चर्चा मैक्स म्युलर द्वारा संपादित ‘द सैक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट’ श्रृंखला में उनके योगदान ‘बुधिस्ट महायान टेक्स्ट्स’ को मिली. नेपाल में अमृतानंद द्वारा संरक्षित और हॉजसन द्वारा प्रकाशित मूल बुद्धचरित के उपलब्ध अंशों का अंग्रेजी अनुवाद ‘द बुद्ध-चरित ऑफ अश्वघोष’ इसी ग्रंथ का पहला वॉल्यूम है.
कहने को बुद्धचरित पहली बार रेवरेंड सैमुअल बील द्वारा चीनी भाषा से किए गए अंग्रेजी अनुवाद की शक्ल में वैश्विक फलक पर आया था, लेकिन एक प्राचीन काव्य के रूप में जिस गरिमा का यह हकदार है, वह इसे 1993 में एडवर्ड कॉवेल द्वारा रोमन लिपि में इसके संपादन और 1994 में प्रस्तुत उपरोक्त अनुवाद से ही हासिल हुई. इन दोनों कामों के लिए सिर्फ संस्कृत और अंग्रेजी का ज्ञान काफी नहीं था. इसके लिए भारतीय दर्शन और संस्कृत काव्य परंपरा में अच्छी गति जरूरी थी, साथ ही ठेठ हिंदुस्तानी मिजाज से जुड़ाव भी होना चाहिए था. एडवर्ड कॉवेल ने ये अर्हताएँ अपनी सबसे सक्रिय आयु में 11-12 साल भारत के सबसे बौद्धिक शहर कोलकाता में बिताकर हासिल की थीं और इनका कमाल न केवल उनके फुटनोट्स में, बल्कि उनके द्वारा निकाले गए गहरे अर्थों में भी दिखता है.
संस्कृत परंपरा की उदारता के दावों के विपरीत अश्वघोष के बुद्धचरित को इससे किस कदर बाहर धकेला गया था, इसका अंदाजा आगे आई एडवर्ड कॉवेल की एक टिप्पणी से लगाया जा सकता है. साथ ही इस बात का भी कि ऐसे केवल तीन वाक्य लिखने के लिए कितने विशद अध्ययन की जरूरत है. वे कहते हैं- ‘बुद्धचरित का एक छंद (सर्ग-8, श्लोक-13) रायमुकुट द्वारा अमरकोश प्रथम खंड की टीका में उद्धृत है और उज्ज्वलदत्त द्वारा ‘उणादिसूत्र’ के प्रथम खंड की टीका में भी इसका एक श्लोक मिलता है. वल्लभदेव की ‘सुभाषितावली’ में बुद्धचरित के पाँच श्लोक हैं, जिनमें बहुत हद तक अश्वघोष की शैली झलकती है, लेकिन मूल ग्रंथ के उपलब्ध हिस्से में ये श्लोक मौजूद नहीं हैं.’
मैंने पता किया तो ये तीनों नाम मौजूदा बंगाल या इसके निकटवर्ती भूगोल के और इनका समय 13वीं से 15वीं सदी ईसवी का निकला. दूसरे शब्दों में कहें तो बौद्ध पालवंश द्वारा शासित रहते आए क्षेत्र और इसके पतन के थोड़ा समय बाद के. कवि वल्लभदेव का समय ईसा की 13वीं सदी और टीकाकार रायमुकुट का 15वीं सदी में ज्ञात हुआ.
‘उणादिकोष’ के बारे में इतना ही जान पाया कि यह पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ में आए नियमों से आसानी से न बन पाने वाले शब्दों वाला हिस्सा है. इन्हें समझने के लिए कुल 752 सूत्र पाँच खंडों में आते हैं और इन्हें उणादिसूत्र कहने का चलन रहा है. वैयाकरण उज्ज्वलदत्त द्वारा 13वीं सदी में ही इनपर लिखी गई टीका अगले कई सौ साल संस्कृत पाठ्यक्रमों का हिस्सा हुआ करती थी. इतने बड़े संस्कृत वाङ्मय में कुल तीन उद्धरण, वे भी इतने बाद के!
कॉवेल ने अपनी प्रस्तावना में बुद्धचरित के वे अंश भी चिह्नित किए हैं, जिनका वाल्मीकि रामायण और कालिदास के ग्रंथों ‘रघुवंश’ तथा ‘कुमारसंभव’ पर स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है. रामायण के सुंदरकांड में देर रात रावण के रंगमहल में सीता को खोज रहे हनुमान बाजे लिए सो रही स्त्रियों को उन्हीं मुद्राओं में देखते हैं, जो कपिलवस्तु से सदा के लिए निकलने की रात सिद्धार्थ को पिता द्वारा की गई उनकी काम-आधारित घेरेबंदी में दिखती हैं. रघुवंश में राजकुमार अज जब राजकुमारी भोज्या के स्वयंवर में जाते हैं तो सड़क के दोनों तरफ छज्जों से औरतें उन्हें देखने के लिए वैसे ही उतावलेपन में आती हैं, जो सिद्धार्थ के पहली बार पद्मखंड वन जाने के दृश्य में दर्ज है. और कुमारसंभव में शिव पर कामदेव के आक्रमण का दृश्य काफी कुछ वैसा ही है जैसा इस वन में वारवनिताओं के हाव-भाव में दिखता है.
बाद में कुछ भारतीय संस्कृत विद्वानों ने कॉवेल द्वारा चिह्नित इन प्रभावों को पलटने का प्रयास भी किया. यह संदेह जताते हुए कि क्या पता, उलटा हुआ हो. यानी अश्वघोष ने ही बुद्धचरित लिखते हुए इन ग्रंथों से प्रभाव ग्रहण किया हो. कालिदास का समय अश्वघोष से बहुत बाद का है, सो उनके बारे में कुछ कहना जरूरी नहीं है, लेकिन रामायण पर कॉवेल की दलील है कि ‘सुंदरकांड’ में यह अंश गौण महत्व का है, जबकि अश्वघोष के यहाँ यह कथा की धुरी है. बाजे लिए सो रही स्त्रियों को हटा देने से रामायण के कथा प्रवाह का कुछ नहीं बिगड़ता, लेकिन बुद्धचरित से इसको हटा दें तो कहानी ही आगे नहीं बढ़ेगी. प्रसंगों का यह अंतर ही लेन-देन में बुद्धचरित का पलड़ा भारी कर देता है.
अपनी प्रस्तावना के अंत में कॉवेल अपने काम को कमतर दिखाते हुए शास्त्र-सम्मत विनम्रता के साथ कालिदास के ‘रघुवंश’ से ही एक श्लोक की अर्धाली रोमन लिपि में प्रस्तुत करते हैं- ‘प्रांशुलभ्ये फले मोहात् उद्बाहुर् इव वामन:’. (किसी ऊंचे व्यक्ति द्वारा ही तोड़े जा सकने वाले फल के मोह में फंसे बौने की तरह मैं अपने हाथ उठाए हुए हूं!)
और अंत में एडवर्ड हैमिल्टन जॉन्स्टन (1885-1942 ई.). पीछे एडवर्ड बी. कॉवेल पर बात करते हुए एक जरूरी पहलू रह गया था. कॉवेल को पता था कि बुद्धचरित का तिब्बती अनुवाद नेपाल में मिले इसके जीर्ण-शीर्ण हस्तलिखित संस्कृत संस्करण की तरह अधूरा नहीं है और चीनी संस्करण की तरह मुक्तहस्त धार्मिक भावानुवाद के तत्व भी उसमें कम हैं. ऐसे में क्रॉस चेकिंग सोर्स मैटीरियल के रूप में उसका उपयोग संस्कृत पांडुलिपि के संपादन में किया जा सकता है. समस्या यह थी कि तिब्बती भाषा में कॉवेल की गति नहीं थी और तिब्बती बुद्धचरित का अनुवाद कर रहे डॉ. वेंजेल लंबी कोशिशों के बावजूद यह काम पूरा नहीं कर पाए थे. उनकी यह ख्वाहिश उनसे ठीक बाद की पीढ़ी में हुए संस्कृत के विद्वान ई. एच. जॉन्स्टन ने पूरी की, लेकिन कॉवेल की मृत्यु के 30 साल बाद.
अश्वघोषा’ज बुद्धचरित
जॉन्स्टन का जन्म इंग्लैंड के ही एक कुलीन परिवार में हुआ था. उनके पिता रेजिनाल्ड जॉन्स्टन बैंक ऑफ इंग्लैंड के गवर्नर थे. एडवर्ड जॉन्स्टन ने ऑक्सफोर्ड से गणित की डिग्री ली, फिर इतिहास पढ़ने लगे और भारतीय प्रशासनिक सेवा आईसीएस के लिए चुन लिए गए. इसी समय उन्हें संस्कृत की पढ़ाई के लिए बॉडेन स्कॉलरशिप प्राप्त हुई, फिर पचीसेक साल बाद वे बॉडेन प्रोफेसर भी बने. इस स्कॉलरशिप और प्रोफेसरशिप की भी एक दिलचस्प कथा है.
भारत में सेवाएँ दे चुके एक रिटायर्ड फौजी अफसर लेफ्टिनेंट कर्नल जोसेफ बॉडेन ने सन 1832 में अच्छी-खासी रकम ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के नाम इस शर्त के साथ छोड़ी कि इससे वहाँ एक ऐसी प्रोफेसरशिप और स्कॉलरशिप स्थापित की जाए, जिसका मकसद ब्रिटिश भारत के ईसाई धर्मांतरण में किया जाए. ऑक्सफोर्ड का प्रबंधन अगले पचास साल तक यह शर्त मानता रहा. एक दूसरी अजीब शर्त इस प्रोफेसरशिप के साथ जोसेफ बॉडेन ने यह जोड़ी थी कि इस पद पर किसी भी व्यक्ति की नियुक्ति ऑक्सफोर्ड के छात्रों के मतदान से की जानी चाहिए. यह शर्त सन 1860 में दूसरे बॉडेन प्रोफेसर के चयन के समय समस्या का कारण बनी, जब इसके लिए दो नाम सामने आ गए.
बहरहाल, यूरोप के संस्कृत अध्ययन में बॉडेन प्रोफेसरशिप की बड़ी प्रतिष्ठा रही है. खासकर इस पद पर आए दूसरे नाम मोनिएर-विलियम्स का उल्लेख किए बिना तो संस्कृत पर कोई गंभीर बात ही पूरी नहीं होती. भारत को ईसाई बनाने की शर्त को दिनोंदिन अपने अकेडमिक मिजाज से दूर जाते देखकर ऑक्सफोर्ड प्रशासन ने 1882 के सुधारों में इसे, साथ ही दूसरी शर्त को भी हटा दिया और प्रोफेसर को बैलिओल कॉलेज का फेलो बनाने का फैसला किया. पीछे कुल आठ बॉडेन संस्कृत प्रोफेसर हो चुके हैं, नवें अभी 2023 में बने हैं. जॉन्स्टन का नंबर इनमें पाँचवां था.
कॉवेल ने बतौर प्रोफेसर बारह साल कोलकाता में बिताए थे जबकि जॉन्स्टन को प्रशासनिक अधिकारी के रूप में विविध भारतीय क्षेत्रों में 15 साल गुजारने का मौका मिला. यहाँ रहकर उन्होंने कुछ तिब्बती और चीनी भी सीखी, जिससे बौद्ध ग्रंथों के अनुवाद और संपादन में उन्हें काफी सहायता मिली. लेकिन जैसा पीछे कहा जा चुका है, ई. एच. जॉन्स्टन को ‘बुद्धचरित’ के संपादन में सबसे ज्यादा मदद घुमंतू जर्मन स्कॉलर फ्रीडरिख वेलर द्वारा 1926 से 1928 के बीच इस ग्रंथ के तिब्बती से जर्मन में किए गए अनुवाद ‘दास लेबेन देस बुद्ध वॉन अश्वघोष’ से हासिल हुई.
संस्कृत से तिब्बती भाषा में बुद्धचरित का अनुवाद सन 1260 से 1280 ई. के बीच होने की बात ऊपर कही जा चुकी है. आम तौर पर भारतीय पंडितों और तिब्बती लोचवा की एक टीम मिलकर ल्हासा में अनुवादों को अंजाम देती थी, जिनमें सभी के नाम हमेशा उजागर नहीं होते थे. लेकिन इस मामले में दो तिब्बती अनुवादकों सवांग सांग्पो और लोडो ग्याल्पो के नाम खोजे गए हैं. फ्रीडरिख वेलर द्वारा इस ग्रंथ के तिब्बती से जर्मन अनुवाद का शीर्षक बताए बगैर जॉन्स्टन अपनी प्रस्तावना में कहते हैं कि डॉ. वेलर की सहायता उन्होंने न केवल नेपाल के संस्कृत पाठ में गायब और अधूरे श्लोकों की अंग्रेजी छाया प्रस्तुत करने में ली है, बल्कि इसकी मदद से कॉवेल द्वारा प्रस्तुत मूल ग्रंथ के इस संस्करण के अंग्रेजी अनुवाद में आ गई कुछ अर्थ-त्रुटियों को सुधारा भी है.
कोई और समय होता तो जैसे ह्वेनसांग और फाह्यान के यात्रा विवरण चीनी से फ्रेंच में पहुँचने के कुछ ही साल बाद अंग्रेजी में आ गए थे, वैसे ही वेलर का तिब्बती बुद्धचरित भी जर्मन से जल्द ही अंग्रेजी में आ जाता. लेकिन हिटलर के उदय से जुड़ी जटिलताओं ने, फिर द्वितीय विश्वयुद्ध ने इस प्रक्रिया को बाधित किया और घरेलू भाषाओं के लिए भी अंग्रेजी पर निर्भर रहने वाले हम जैसे लोगों के उपयोग में यह सीधे तौर पर नहीं आ सका.
1924 में प्रशासनिक पद से रिटायरमेंट लेने के बाद 1928 से 1936 ई. के बीच कुल आठ साल लगाकर तैयार हुई जॉन्स्टन की किताब ‘अश्वघोषा’ज बुद्धचरित’ यहाँ जारी प्रयास में भी कई स्तरों पर उपयोग में आए तीन मुख्य घटकों में एक है. अफसोस की बात यहाँ सिर्फ एक है कि जॉन्स्टन ने अपनी चिंता अश्वघोष की मूल रचना के करीब पहुँचने तक ही सीमित रखी. इस ग्रंथ का उत्तरार्ध क्या था? वही जो सैमुअल बील द्वारा चीनी बुद्धचरित के अनुवाद में है, या उससे अलग भी वहाँ कुछ था, इस उत्सुकता ने उन्हें नहीं सताया. सताया हो और तिब्बती बुद्धचरित की सीमाओं के बावजूद उसके अंत तक पहुँचकर उन्हें आश्वस्ति भी हुई हो तो इस खोज को अपनी प्रस्तुति में शामिल नहीं किया. पूरी किताब के वस्तुगत बोध के लिए आज भी हम बील पर ही निर्भर हैं, जो खुद चीनी पाठ से बहुत संतुष्ट नहीं थे.
मौजूदा किताब की कार्य-योजना
अश्वघोष और उनके बुद्धचरित को करीब से देखने की इच्छा मेरे मन में सन 2022 में पैदा हुई. उस समय काठमांडू में बौद्ध विचारकों से बात करते हुए मेरा सामना एक बहुत बड़ी फांक से हुआ. जिस इलाके ने इस प्राचीन ग्रंथ को विलुप्त हो जाने से बचा लिया, वहीं के लिखने-पढ़ने वाले दायरे में इसे लेकर जबर्दस्त दुविधा दिखाई पड़ी. एक चिंतक ने यहाँ तक संदेह जाहिर किया कि अश्वघोष भला संस्कृत में कैसे लिख सकते थे? बुद्धचरित पर दुनिया में इतना सारा काम हुआ है. लेकिन उसका क्या फायदा, जब भारत और नेपाल के बुद्धिजीवी भी इससे नावाकिफ हैं!
इसकी कई वजहें हो सकती हैं. एक तो संस्कृत को लेकर खुद इसके मठाधीशों द्वारा ही बनाई गई यह धारणा कि यह मुख्यतः ब्राह्मणों की पूजापाठी जुबान है. ऐसे में इस भाषा में दिखने वाली किसी भी चीज की आम लोगों से एक दूरी बन जाती है. यह भी कि जब बुद्ध ने खुद सोच-समझकर जनभाषा पालि की राह पकड़ी, तब उन्हीं के रास्ते पर चलने वाला कोई बौद्ध कवि संस्कृत में ‘बुद्ध का चरित’ क्यों लिखने जाएगा. इस हिचक से ऊपर उठ सकने वालों का भी बुद्धचरित से कोई लेना-देना न होने की एक वजह यह समझ में आती है कि इस ग्रंथ पर हुए काम का स्वरूप बहुत हद तक अकेडमिक रहा है. संस्कृत के किसी छात्र को अगर बुद्धचरित या अश्वघोष पर रिसर्च करने का मन हुआ तो वह इस बारे में बील, कॉवेल और जॉन्स्टन का काम देखेगा. बाकी सबके लिए वह सिर्फ एक मंबो-जंबो है.
ऐसे में इस किताब के पीछे पड़ते हुए दो मुख्य चिंताएँ मेरे सामने थीं. सबसे बड़ी यह कि ‘बुद्धचरित’ की प्रस्तुति शुरू से अंत तक हिंदी की रवानी में की जाए. प्रामाणिकता वाले पहलू की अनदेखी न हो, लेकिन जोर पहले छंद से लेकर आखिरी छंद तक किताब का कंटेंट पाठक तक पहुँचाने पर हो. दूसरी चिंता यह कि एक अलग मिजाज के संस्कृत कवि के रूप में अश्वघोष का रसास्वादन भी पाठक कर सकें. बताना जरूरी है कि एक कवि को सिर्फ उसकी कविता के औजारों में देखना काफी नहीं है. उसका छंद-विधान, भाषा-सौष्ठव, उसकी उपमाएँ और रूपक ही उसे महसूस करने के लिए काफी नहीं हैं. जीवन और संसार को लेकर उसका नजरिया भी कुछ मायने रखता है.
ऊपर बताया जा चुका है कि अश्वघोष के बुद्धचरित तक पहुँचने के लिए स्रोत कुल तीन ही हैं. पाँचवीं सदी में चीनी भाषा में और तेरहवीं सदी में तिब्बती भाषा में हुए संपूर्ण ग्रंथ के अनुवाद और उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में नेपाल में संरक्षित किया गया, संस्कृत में लिखा हुआ लगभग आधा ग्रंथ. आधुनिक संपादकों-अनुवादकों का आकर्षण नेपाल में मिले अधूरे ग्रंथ के प्रति ही ज्यादा रहा है, क्योंकि अनुमानतः यह लेखक की मूल रचना तक पहुँचाता है.
हिंदी में बुद्धचरित की जिस सबसे लंबी प्रस्तुति पर मेरी नजर गई, वह 1942 ई. में सूर्यनारायण चौधरी, एम. ए. द्वारा लाई गई थी. संस्कृत भवन, कठौतिया, जिला पूर्णिया द्वारा प्रकाशित यह किताब मुख्यतः ई. एच. जॉन्स्टन के काम पर आधारित है और इसमें देवनागरी लिपि में प्रस्तुत संस्कृत श्लोकों के साथ हिंदी अनुवाद चलता जाता है. इसी धज में यह 14वें सर्ग के 31वें श्लोक तक जाती है, फिर सर्ग का बाकी हिस्सा गद्य में पूरा करके किताब खत्म हो जाती है.
बहुत सीमित सर्गों वाली कुछ प्रस्तुतियां किसी न किसी यूनिवर्सिटी कोर्स के हिस्से के रूप में दिखीं, जिनमें पाँच सर्गों वाली के. एम. जोगलेकर की ‘अश्वघोषा’ज बुद्धचरित’ भी शामिल है. जैसा ऊपर बताया जा चुका है, जोगलेकर ने कोंकण में तालपोथी के रूप में ही इस ग्रंथ के बारह सर्ग खोजे थे. भारत में यह बुद्धचरित की सबसे लंबी प्राप्ति है. 1912 ई. में छपी इस किताब में बारहों सर्ग होते तो अच्छा रहता. कुछ कयास तो लगाया जा सकता था कि नेपाल में मिले संस्करण से यह किन मामलों में अलग है. संस्कृत के एक पारंपरिक विद्वान दत्तात्रेय शास्त्री निगुडकर द्वारा संस्कृत में ही की गई व्याख्या के साथ पेश किए गए कुल पाँच सर्ग कोई आलोचकीय दृष्टि मुहैया नहीं कराते.
बहरहाल, ज्यादा बड़ी समस्या बाकी चौदह सर्गों यानी किताब के आधे हिस्से के साथ थी, जिसके लिए सैमुअल बील के अलावा कोई स्रोत मेरे पास नहीं था. यहाँ पेचीदगी का एक पहलू यह भी है कि ग्रंथ के अनुवाद में चीनी शब्दों से जुड़ी उलझन के अलावा ईसाई धर्म प्रचारक वाला बील का नजरिया भी कई बार किताब के मिजाज से आ टकराता है. ऐसे में अर्थ के करीब पहुँचने के लिए मैंने बौद्ध दर्शन को लेकर अपनी बहुत मामूली समझदारी की मदद ली है.
यहाँ किताब में मौजूद एक मूलभूत अटपटेपन से पाठक को आगाह करना फिलहाल जरूरी लगता है. इसका प्रथमार्ध, यानी पहले 14 सर्ग मुख्यतः कॉवेल और जॉन्स्टन की व्याख्याओं पर आधारित हैं. इनमें इतनी तो समरूपता है कि नेपाल में मिली बुद्धचरित की अधूरी तालपोथी ही दोनों की बुनियाद है. लेकिन किताब का उत्तरार्ध, यानी 15वें से 28वां सर्ग पूरी तरह चीनी संस्करण की सैमुअल बील द्वारा की गई व्याख्या पर आधारित है, जिसे क्रॉस-चेक करने का कोई तरीका मेरे पास नहीं है. पढ़ने में कुछ अटपटा नहीं लगेगा, क्योंकि अंततः यह बुद्ध का जीवन-चरित है और इस समूची किताब की भाषा-शैली मेरी अपनी ही है. फिर भी कहीं कुछ लगे तो बर्दाश्त करें.
सर्गों के शीर्षक पहले आधे हिस्से में दो रखे गए हैं. एक वह जो नेपाल में मिले ग्रंथ में आया है, दूसरा वह जो चीनी संस्करण में आए शीर्षक के अंग्रेजी रूप का हिंदी अनुवाद है. बाद के चौदह अध्यायों में शीर्षक एक-एक ही हैं.
स्पष्ट कर दूं कि मौजूदा किताब न तो बुद्धचरित का अनुवाद है, न ही उसका भाषांतर है. यह हिंदी में ग्रंथ की एक रवां प्रस्तुति का प्रयास भर है. इसके पूर्वार्ध में, यानी चौदहवें सर्ग तक आपको अश्वघोष के कुछ मूल श्लोक भी पढ़ने को मिलेंगे. ज्यादा नहीं, एक पूरे सर्ग में बमुश्किल दस या बारह. केवल ऐसे श्लोक, जिनमें कोई कमाल की बात है या जो मुखसुख में अच्छे हैं. उनके भी बहुत बड़े शब्दों की संधियां तोड़ दी गई हैं. कोशिश यह है कि किताब के प्रवाह में श्लोक बाधा न बनें. उनमें आई बात पहले आ जाए, श्लोक किसी का मन हो पढ़े, न मन हो छोड़ दे.
श्लोकों की प्रस्तुति को क्रॉस-चेक करने के लिए मैंने भिक्खु आनंदजोति द्वारा 2024 से इंटरनेट पर उपलब्ध कराए गए संस्कृत संस्करण की मदद ली है. ‘बुद्धचरितम, देवनागरी में प्रस्तुति और प्रूफरीडिंग आनंदजोति भिक्खु, (2024 ई.)’. 2005 में आए एडवर्ड बी. कॉवेल की किताब के नए संस्करण की भूमिका भिक्खु आनंदजोति ने ही लिखी थी, लेकिन 2024 की प्रस्तुति में उन्होंने एक जर्मन संस्कृत सॉफ्टवेयर आजमाया है, जिससे यह बहुत शुद्ध हो गई है.
अनेक बाधाओं ने प्राचीन महाकवि अश्वघोष की इस श्रेष्ठ रचना को इसकी कई संभावित पाठक-पीढ़ियों से दूर रखा. आशा है, कई सभ्यताओं से गुज़रे शब्दों पर सवार होकर बुद्ध का यह जीवन-चरित कुछ नए पाठकों तक पहुँचेगा.
चंद्रभूषण (जन्म: 18 मई 1964) ![]() शुरुआती पढ़ाई आजमगढ़ में, ऊंची पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय में. विशेष रुचि- सभ्यता-संस्कृति और विज्ञान-पर्यावरण. सहज आकर्षण- खेल और गणित. 12 साल पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहकर प्रोफेशनल पत्रकारिता. अंतिम ठिकाना नवभारत टाइम्स. ‘तुम्हारा नाम क्या है तिब्बत’ (यात्रा-राजनय-इतिहास) और ‘पच्छूं का घर’ (संस्मरणात्मक उपन्यास) से पहले दो कविता संग्रह ‘इतनी रात गए’ और ‘आता रहूँगा तुम्हारे पास’ प्रकाशित. इक्कीसवीं सदी में विज्ञान का ढांचा निर्धारित करने वाली खोजों पर केंद्रित किताब ‘नई सदी में विज्ञान : भविष्य की खिड़कियाँ’, पर्यावरण चिंताओं को संबोधित किताब ‘कैसे जाएगा धरती का बुखार’, भारत से बौद्ध धर्म की विदाई से जुड़ी ऐतिहासिक जटिलताओं को लेकर ‘भारत से कैसे गया बुद्ध का धर्म’ आदि पुस्तकें प्रकाशित. patrakarcb@gmail.com |
गहन चिंतन के साथ अद्भुत विश्लेषण किया गया है, पढ़ते हुए लगा जैसे ट्रांस में चला गया हूं । चंद्रभूषण जी को दिल की गहराइयों से हार्दिक शुभकामनाएं। इसे पुस्तक रूप दिया जाना चाहिए। प्रणाम
अपने लेखों में अश्वघोष को उद्धृत करता रहा हूँ।
चंद्रभूषण को पढ़कर लगा कि इस महाकवि के साथ ‘सहिष्णु’ सभ्यता ने कितनी निर्ममता की है!
एक आह्लादकारी रोमांच के साथ लेखक की खोज यात्रा का दूरस्थ सहयात्री बन गया।
एक महाकवि बहुत-से समानधर्मा लघु कवियों के बीच से उठता है।
अश्वघोष के साथ के वे कवि कहाँ और कैसे छिन्न-भिन्न कर दिए गए!
आज वे सब निश्चिह्न Untraceable हैं।
यायावरीय राजशेखर ने आदिकवि (वाल्मीकि) के बाद भर्तृमेंठ का नामोल्लेख किया है और स्वयं को उनसे सम्बद्ध किया है। महावत जाति के भर्तृमेंठ के महाकाव्य ‘हयग्रीववध’ का अता-पता नहीं। उन्हें भी चंद्रभूषण जैसा कोई खोजी मिले तो बात बने।
बुद्धचरित पर यह औपन्यासिक खोज रिपोर्ट पढ़ते हुए मुझे ‘द नेम ऑफ द रोज़’ की याद आती रही।
मेरे लेखे चंद्रभूषण हमारी भाषा के अम्बर्टो इको हैं।
अद्भुत। विलक्षण। अभी पूरा पढ़ नहीं पाया हूं। आधा से अधिक पढ़ चुका हूं, लेकिन लेखक को साधुवाद देने से रोक नहीं पा रहा हूं। एक गहन शोध को चंद्रभूषण जी ने जासूसी कथा की तरह रोचक बना दिया है। इस रोचकता के बावजूद रुक रुक कर पढ़ रहा हूं। पढ़ता हूँ, सोचता हूं, सराहता हूं और फिर पढ़ता हूं। यह सुदीर्घ आलेख शोधार्थियों को अनिवार्य रूप से पढ़ना चाहिए और शोध – दृष्टि प्राप्त करनी चाहिए। किसी रिचर्च मेथाडोलॉजी के कोर्स वर्क से बेहतर है यह आलेख पढ़ लेना। चंद्रभूषण जी के ज्ञान और धैर्य को सलाम। इस तरह के बेहतरीन पाठ को पढ़ने हेतु विवश करने के लिए अरुण देव जी को धन्यवाद।
इतिहास के ऊबड़-ख़ाबड़ रास्तों पर चलना आसान नहीं। ख़ासतौर पर तब जब मामला धर्म और संस्कृति से जुड़ा हो और हाइपर सेंसिटिव अंध आस्था की कोख से उत्पन्न धर्मोन्माद किसी चमचमाते नए मूल्य की तरह समय में प्रतिष्ठित हो गया हो।
संस्कृति की विकास-यात्रा कभी भी एकरैखिक नहीं होती। बहुलता उसकी ताक़त है और प्राण-तत्व भी, जो समन्वय, सामंजस्य और संतुलन के सहारे न केवल क्रमश: उभरने वाले अपने ही अंतर्विरोधों और विकृतियों से लड़ने का जज़्बा पाती है, बल्कि समानांतर चलते कितने ही पंथों-संप्रदायों, मूल्यों-वर्जनाओं और संभावनाओं के भीतर से गुज़रकर नई दार्शनिक दृष्टि के रूप में स्वयं को अभिव्यक्त करती है। धर्म सहिष्णुता का प्रतीक है और संस्कृति व्यक्ति को बेहतर मनुष्य बनाने वाली क्रमिक साधना। इसलिए समय का निस्संग विश्लेषण समय को स्वस्थ बनाए रखने के लिए बहुत ज़रूरी है।
बुद्धचरित पर चंद्रभूषण जी के सुदीर्घ शोधपरक आलेख को पढ़ते हुए बराबर महसूसती रही कि अश्वघोष के बहाने हिन्दू धर्मावलंबियों और संस्कृतज्ञों के दुराग्रही भाषायी-धार्मिक दंभ से टकराना, और फिर पूर्वाग्रहों की लतरों से ढके अतीत को तार्किक परिणति के रूप में देखना लेखक के लिए कितना चुनौतीपूर्ण रहा होगा।
अतिदीर्घ होते हुए भी यह आलेख अपनी पूरक ध्वनियों के साथ मुझे बार-बार इसी ज़मीन से उगी अनेक पगडंडियों की ओर ले जाता रहा है। प्रतीत होता रहा कि समालोचन पर ही जून 2024 में छपा चंद्रभूषण जी का आलेख ‘नालंदा विश्वविद्यालय कैसा था’ और फ़ेसबुक पर अश्वघोष कृत बुद्धचरित के 28 सर्गों का विश्लेषणात्मक पाठ प्रस्तुत आलेख से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं।
हवा में शिगूफे छोड़ने वाले इस चुहलबाज समय में अपनी मनुष्य-अस्मिता की तलाश में इतने धैर्य, श्रम और कमिटमेंट के साथ समय का पारायण करना आज विरल होता जा रहा है।
चंद्रभूषण जी के गहन आलेख हर बार समृद्ध करते हैं।
अरुण देव जी को साधुवाद कि समालोचन में प्रकाशित वैचारिक आलेखों की गुणवत्ता को वह निरंतर उन्नततर कर रहे हैं।
सुबह सुबह चन्द्रभूषण का यह लेख पढ़ गया।अपने श्रेष्ठतम सांस्कृतिक विरासत से खुद को वंचित रखने की अद्भुत भारतीय परम्परा की पहचान करता लेख।’सीमा से बाहर ऐसे प्रताप और घर में ऐसी अनदेखी’ यह वाक्य अश्वघोष पर ही नहीं बुद्ध पर भी लागू होता है।
अश्वघोष और बुद्ध चरित को लेकर बहुत सी जिज्ञासाओं का समाधान हुआ ।बुद्ध चरित के नये रूपान्तर को पढ़ने की उत्सुक प्रतीक्षा ।
लेखक और संपादक दोनों को साधुवाद ।
सदानन्द शाही
एक उत्कृष्ट शोध आलेख से गुज़रते हुए बहुत सुख मिला।
अश्वघोष यूँ ही ना भुलाये गये होंगें , उन्हें विलुप्त करने के लिए कुछ परंपराओं ने कठिन जतन किये होंगे।
चंद्रभूषण जी का लिखा पढ़ने में रूचि हो गयी है।
समालोचन के लिए ह्रदय से शुभकामनाएँ और साधुवाद ।