‘मेरी पृष्ठभूमि वही है, जो रेणु की है’
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अपने बचपन को आप किस तरह याद करते हैं?
मेरे उपन्यास ‘चिरंजीव’ में टीपू अपनी छोटी उम्र में मर चुका है. उसके पिता ईश्वर के पास पहुँचते हैं और उनसे आग्रह करते हैं कि वे टीपू को धरती पर वापस कर दें. टीपू लौट आने से इनकार करता है और कहता है, ‘अगर कोई बच्चों की दुनिया हो तो मैं वहाँ जा सकता हूँ, ऐ ईश्वर. मैं बड़ों की दुनिया में, अन्याय, शोषण और मार-काट की दुनिया में वापस जाना नहीं चाहता, नहीं जाऊँगा.’ मैं बचपन को एक कसक के साथ याद करता हूँ, गुजरा हुआ जमाना आता नहीं दुबारा.
पुनर्जन्म में मैं विश्वास नहीं करता, इसीलिए अगले जनम के बचपन का इंतजार भी नहीं कर सकता. हम कितने पवित्र थे और किस तरह अपवित्र होते चले गये. हमारे कर्म जो भी हों, पर हम रह तो रहे हैं कुत्सित विचारों के बीच.
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क्या बचपन में साहित्य के प्रति किसी तरह का अनुराग था? तब पढ़ी गयी किसी कहानी या किताब की स्मृति क्या आपको है?
मेरे भैया साहित्यिक रुचि के थे. वे पत्रिकाओं में कुछ लिखते भी थे. मैंने जब होश सँभाला और अपने बड़े भैया की आलमारी खोली. तो उसमें ढेर सारी पत्रिकाएँ और दो कविता की पुस्तकें मिलीं, एक दिनकर की ‘रेणुका’ और दूसरी आरसी प्रसाद सिंह की ‘कलापी’.पत्रिकाओं को पढ़ने लायक मैं नहीं हुआ था, पर कविताओं को पढ़ने में मेरा मन लगा. मैं ‘शब्दार्थ पारिजात’ को सामने रखकर कविताएँ पढ़ता था. बड़े भैया कॉलेज की छुट्टियों में जब घर आते, तो कुछ बाल पत्रिकाएँ लेकर आते. फिर तो मैं ‘चुन्नू मुन्नू’ और कुछ दूसरी पत्रिकाओं के वार्षिक ग्राहक भी बन गया था. छोटे-से बिहारीगंज में किताबों की एक छोटी-सी दुकान थी, जिसमें मुझे प्रेमचंद के कहानी संग्रह दिख गये थे. पढ़ने का शौक तो मुझमें जग ही गया था, लिखने का शौक भी जागा और मैं बाल पत्रिकाओं का लेखक भी बन गया. मेरे पास कुछ बाल पत्रिकाएँ आती थीं. बच्चों की रचनाएँ मैं पढ़ता था, और तभी मुझे भी कुछ लिखने और छपने का शौक हुआ. बचपन में ही मैं लिखने और छपने लगा था और साहित्यकार बनने का सपना भी मैंने देख लिया था.
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आपने अपनी रचनाओं में पूजा-पाठ, आडंबर और दिखावे की सख्त आलोचना की है. आपके नए उपन्यास ‘दुखग्राम’ में भी ऐसा है. क्या आप व्यक्तिगत जीवन में भी ऐसे ही हैं?
लगता है, मैं अपनी रचनाओं में कुछ अधिक उपस्थित हो गया हूँ.
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आप किसी वाद से प्रभावित नहीं दिखते और फॉर्मूला लेखन से भी दूर हैं. आप सीधे-सीधे व्यवस्था पर चोट नहीं करते, बल्कि इसके बजाय जीवन की विडंबना को जस का तस सामने रखने में विश्वास करते हैं.
मैं लोगों के दुख-दर्द की कहानियाँ लिखता रहा हूँ; यह नहीं देखता कि कौन राजा है और कौन रय्यत. यह मेरी सीमा है कि मैं सिर्फ आईना दिखा पाता हूँ. मेरे साथ हमेशा समूह रहता है, कुछ भी लिखता हूँ, तो समूह में से निकाल लेता हूँ. इसलिए कोई एक व्यक्ति का चरित्र मुझ पर प्रभाव नहीं डाल पाता है. कोई एक पंक्ति मैंने सुनी… जैसे, मैं मुज़फ़्फ़रपुर में था… रिक्शे से जा रहा था. एक बूढ़ा रिक्शावाला था. उसने पैडल पर लात मारी, एक बार, दो बार, तीन बार… रिक्शा नहीं चला. वह बोल उठा, “या खुदा, अब क्या होगा?’’ यह एक पंक्ति मेरे दिमाग में, मेरे जिस्म में समा गयी और इस पर मैंने कहानी लिखी बीस साल बाद, क्योंकि वह पंक्ति मुझे छोड़ नहीं रही थी. उससे मैंने कुछ पूछा नहीं… लेकिन उसका पूरा इतिहास मुझे मिल गया- उसको घर में कोई आसरा नहीं होगा, परिवार में पतोहू एक कप चाय नहीं देती होगी, बेटे उसकी चिन्ता नहीं करते होंगे… तभी उसके मुँह से निकला, ‘‘या खुदा…’’. इस तरह के वाक्य में ही मुझे चरित्र मिलता है और उस चरित्र को मैं कहीं स्थापित करता हूँ.
मेरी साहित्यिक यात्रा ‘कहानी’ (संपादक, श्रीपत राय) से शुरू हुई जिसमें मेरी कहानी ‘एक वृत्त का अन्त’ छपी थी. मेरा आत्मविश्वास बढ़ा जब यह कहानी पत्रिका की कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कृत भी हो गयी. कहानी के साथ मेरा एक वक्तव्य भी छपा था, जो आपकी जिज्ञासा के काम आयेगा. वक्तव्य था,
‘‘मान्यवर, आपने इस बार मुझे बीच चौराहे पर अपने आत्मविश्वास से भेंट करा दी. चारों तरफ भीड़. अब तक मैं उससे बिलकुल अकेले में मिला करता था, जहाँ एक चिड़िया तक नहीं हो. रचनाओं के अतिरिक्त और क्या माध्यम हो सकता है अपने विषय में वक्तव्य देने का. शायद नये लोगों को अपना ‘मोहल्ला’ बताना जरूरी है. सच पूछिये, तो मैं एक देहाती आदमी हूँ. साहित्य-प्रदेश में अगर एक घोर देहात की कल्पना की जाये, तो मैं उसी देहात का आदमी हूँ. कभी-कभी पैदल साहित्य के शहर में जाता हूँ और वहाँ की चकाचौंध देखकर वापस लौट आता हूँ. अब तक तो यही महसूस हुआ है कि जहाँ मैं जाता हूँ वहाँ एक व्यस्त बाज़ार है, और लोग दौड़-धूप कर रहे हैं, चीख-चिल्ला रहे हैं, जुलूस निकाल रहे हैं, नारे लगा रहे हैं. मेरा तो कोई परिचित है नहीं जिसके साथ एक क्षण रुकूँ, या दो बातें कर लूँ. घंटा-आध घंटा यों ही कहीं रुककर सुस्ताता हूँ, दो-एक जूम खैनी फाँकता हूँ और फिर इतने संतोष के साथ वापस आ जाता हूँ कि चलो, किसी ने मुझे पहचाना तो नहीं, और घर वालों को तो पता ही नहीं लगने दूँगा कि मुझे खाली जेब शहर जाने की भी आदत लगी है.
मेरी राय में मानव-मन की गहराइयों में जो साहित्यकार जितना नीचे उतरता है, वह उतना ही समर्थ और सफल साहित्यकार है. उन गहराइयों में जो सौंदर्य विद्यमान है, चाहे वह दुख और पीड़ा का सौंदर्य हो अथवा तृप्ति और सुख का, सच्चे साहित्य का वही आधार है. यह सौंदर्य मूक नहीं, बहुत वाचाल है. किसी भी स्वर को यह जितना मुखरित कर सकता है उतना कुछ और नहीं-न नारे, न चोंचें. जब तक किसी पात्र के अंदर प्रवेश करने की समर्थता मुझमें नहीं होती, तब तक मैं उसे नहीं छूता. मात्र उसे छू देने भर से मैं पाठक के हृदय के किसी कोर को छू नहीं पाऊँगा और न वहाँ कोई आघात ही कर पाऊँगा. मैं इसी आघात को ढूँढ़ता रहता हूँ. सुटके हुए पेट और फटे हुए कपड़ों की नुमाइश मात्र से साहित्य पैदा नहीं हो जाता. उसके लिए तो अखबार है. जरूरत है पाठकों को हथकड़ियों में जकड़कर सामने घसीट लाने की और फिर उनके कृत्यों की सजा उन्हें सुना देने की. पाठक इसे स्वीकार करते हैं. बाद में कभी विस्तार से लिखूँगा. आपका आशीर्वाद और मार्गदर्शन चाहता हूँ.’’
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मलेरिया और कोसी के तांडव के कारण पूर्णिया की पहचान एक अस्वास्थ्यकर और खतरनाक जगह के रूप में रही है. गुलामी के दौर में कई अंग्रेज कलेक्टर तो पूर्णिया में एक साल भी नहीं रह पाते थे. बाद में अपराध के कारण इसे जाना जाने लगा. लेकिन आप लंबे समय से पूर्णिया में रहते हुए लिख रहे हैं. इस शहर को आप किस तरह से देखते हैं?
जहर-माहुर वाला पूर्णिया अब बहुत बदला हुआ है. अंग्रेज कलेक्टर ‘काला पानी’ में रहते थे. कोई मोरंगी हवा भी बहती थी उनके समय में. सब बदल गया; हवा बदली, पानी बदला. मच्छरों के साथ पहलवान भी पैदा होने लगे. यहाँ मेले लगते रहे हैं और इन मेलों में कुश्तियों का आयोजन होता रहा है. पूर्णिया में कभी जमींदारों और सामंतों का राज था. सिंहासन खाली हुआ और जनता उस पर आ बैठी. हाँ, अब सामंतों की जगह रंगबाज जरूर पैदा हो गए हैं. यहाँ बाहुबली थे कभी, अब कोई बाहुबली के रूप में नहीं जाना जाता. आप आज के कोसी साहित्य को पढ़ें; उसमें अब न तो सामंतों की चर्चा मिलेगी और न बाहुबलियों की.
अब पूर्णिया रेणु के नाम से जाना जाता है और यह एक साहित्य तीर्थ बन गया है.
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दूसरी तरफ बाहर से अनेक लेखक पूर्णिया को जानने-समझने आते रहे हैं. बीती सदी के साठ के दशक में महाराष्ट्र के दिग्गज समाजवादी नेता एस. एम. जोशी के साथ डॉक्टर अनिल अवचट यहाँ की क्रूर जमींदारी व्यवस्था के बारे में जानने आये थे. उन्होंने ‘पूर्णिया’ नाम से एक किताब भी लिखी. 80 के दशक में कोसी नदी पर ‘रिवर ऑफ सॉरो’ जैसी किताब लिखने के लिए अमेरिकी लेखक क्रिस्टोफर वी. हिल पूर्णिया आये थे. ऐसे ही, रेणु का लेखन इयान बुलफोर्ड से लेकर स्वर्गीय भारत यायावर तक को पूर्णिया आने के लिए प्रेरित करता रहा. क्या आपको लगता है कि पूर्णिया में ऐसा कुछ है, जो लोगों को यहाँ खींच लाता है? आखिर आपकी रचनाओं में भी पूर्णिया और उसके आसपास के इतिहास का बहुत कुछ है.
पूर्णिया में अभी भी रचनाकारों के लिए पर्याप्त ‘कच्चा माल’ है. गाँव-गिराम में ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं, जिसे केन्द्र में रखकर एक उपन्यास लिखा नहीं जा सकता; कई लाख लोग, तो कई लाख उपन्यास. यह सौभाग्य रहा पूर्णिया का कि उसे रेणु जैसा रसोइया मिल गया जिसने एक से एक लजीज व्यंजन तैयार कर दिये. यहाँ तो कहानियाँ किसी के गुस्से में छिपी रहती हैं, किसी की मुस्कान में. किसी को भी छूकर देखो, पाँच-दस कहानियाँ तुरंत हाथ आ जायेंगी. कहानियों की बगिया है यहाँ फुलबगिया की तरह.
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पूर्णिया देश के सबसे पुराने जिलों में से है. चार साल पहले जिले के रूप में इसके 250 साल पूरे हुए. पूर्णिया के पहले अंग्रेज कलक्टर जेम्स अगस्ट्स डुकारेल पर कभी पूर्णिया में पदस्थापित एक आई.ए.एस अधिकारी सुबोध कुमार सिंह ने एक कहानी लिखी थी, ‘यह चिट्ठी तुम्हें एक साल बाद मिलेगी’. कहते हैं कि वह कहानी आप ही के प्रयास से ‘परती पलार’ नाम की एक स्थानीय पत्रिका में छपी थी. बाद में उस कहानी को आधार बनाकर डॉ.लक्ष्मीकांत सिंह ने ‘डुकारेल की पूर्णिया’ नाम से एक उपन्यास लिखा. इस बारे में कुछ बताइये.
डॉ. लक्ष्मीकांत सिंह ने ‘डुकारेल की पूर्णिया’ नाम से जो उपन्यास लिखा है, उसमें न पूर्णिया की देह है न आत्मा. इसका एक कारण यह भी है कि वे न तो कभी पूर्णिया आये और न इसके बारे में कुछ जाना. उन्होंने तो शीर्षक में ही पूर्णिया को स्त्रीलिंग में डाल दिया. यह उपन्यास अगर सुबोध कुमार सिंह ने लिखा होता, तो बेहतर होता. मैंने ‘परती पलार’ के सम्पादक से आग्रह किया था इस कहानी को छापने के लिए.
बड़ी मीठी कहानी है और इसे रेणु की कलम चाहिये थी. सुना है कि इसका दूसरा संस्करण आने वाला है. सुबोध जी को इस उपन्यास की खामियों से अवगत करा दिया गया है.
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पूर्णिया की साहित्यिक पहचान सतीनाथ भादुड़ी और फणीश्वरनाथ रेणु के कारण है. पूरा हिन्दी समाज रेणु का मुरीद है, लेकिन आप सतीनाथ भादुड़ी के लेखन के मुरीद हैं.
मेरी यह समझ है कि अगर ‘ढोढ़ाय चरित मानस’ ‘मैला आँचल’ से पहले हिन्दी में आ गया होता, तो आज सतीनाथ भादुड़ी रेणु के ऊपर होते. रेणु सतीनाथ भादुड़ी के सम्पर्क में रहे हैं, शिष्य रहे हैं और भादुड़ी का प्रभाव रेणु पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है.
जब कभी भादुड़ी जी मेरी निगाहों में आते हैं, मैं भावुक हो उठता हूँ. सोच नहीं पाता कि उनका चरित्र बड़ा है या उनका लेखन. वे स्वतंत्रता सेनानी थे, जेल जाते रहे, गाँव-गाँव की धूल छानते रहे, फाँकते रहे. और, देश आजाद हुआ, तो…जहाँ और सारे सेनानी अपने खून-पसीने की कीमत वसूलने के लिए राजनीति में आ गये, भादुड़ी जी ने राजनीति को राम-राम कहा और अपने लेखन की ओर मुड़ गये.
ऐसा सुगंधित फूल कोसी अंचल में कहीं और नहीं खिला. मैं अल्पज्ञानी हो सकता हूँ, मगर मैं उनके उपन्यास ‘जागरी’ को विश्व के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में एक मानता हूँ. मैं नहीं जानता कि एक प्रवासी बंगाली लेखक को बांग्ला साहित्य में कितना मान मिला है.
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कोसी क्षेत्र का लेखक होने के कारण लोग अक्सर फणीश्वरनाथ रेणु से आपकी तुलना करते हैं. एक लेखक के रूप में आप रेणु से कितने प्रभावित रहे हैं?
मैंने लिखने और छपने के पहले ही सर्वान्टिस, टॉलस्टाय, समरसेट मॉम, डिकेंस, चेखव, खलील जिब्रान, सतीनाथ भादुड़ी आदि को पढ़ लिया था. मैं नहीं कह सकता कि किनका क्या या कितना प्रभाव मुझ पर पड़ा. मैंने रेणु को भी पढ़ा, मगर लिखने के दौरान रेणु कभी मेरे सामने प्रकट नहीं हुए. मेरी पृष्ठभूमि वही है, जो रेणु की है, शायद इसीलिए लोग मुझे रेणु के पास खींच ले आना चाहते हैं.
मेरा मानना है कि मेरे और रेणु के बीच बस इतनी समानता है कि उनके गाँवों में भी बकरियाँ हैं और मेरे गाँवों में भी बकरियाँ हैं.
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वर्ष 1972 में पूर्णिया के धमदाहा में जमीन पर अधिकार के मामले में आदिवासियों का संहार हुआ था. पिछले दिनों वरिष्ठ कथाकार रणेन्द्र ने धमदाहा में आदिवासियों की हत्या पर फणीश्वरनाथ रेणु समेत दूसरे स्थानीय साहित्यकारों की चुप्पी पर सवाल उठाये थे. इस पर आप क्या कहेंगे?
मुझे जानकारी मिली थी कि इस संहार पर कुछ विस्तार से जानने और लिखने के लिए रणेन्द्र पूर्णिया आने वाले थे, मगर आये नहीं. क्यों नहीं आये? जिस कारण से रणेन्द्र नहीं आये, शायद उसी कारण से उस समय के साहित्यकारों ने ‘संहार’ पर ऐसा कुछ नहीं लिखा जिस पर रणेन्द्र की नजर पड़े.
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आपकी पहली कहानी ‘नकबेसर कागा ले भागा’ पर ‘धर्मयुग’ में लगातार चिट्ठियाँ आने से सम्पादक धर्मवीर भारती को पाठकों से अनुरोध करना पड़ा था कि इस कहानी पर अब और चिट्ठी न भेजें. मुंबई में आप धर्मवीर भारती से मिलने गये थे. उस अनुभव के बारे में बतायें.
मैं अपने बड़े भैया के पास मुंबई गया था, तो भारती जी से मिलने की इच्छा हुई. तब तक मेरी दो कहानियाँ ‘हुज्जत-कठहुज्जत’ और ‘नकबेसर कागा ले भागा’ धर्मयुग में प्रकाशित हो चुकी थीं. मुंबई में मुझे सुनने को मिला कि ‘धर्मयुग’ के सम्पादक धर्मवीर भारती से मिलने का समय पा लेना काफी कठिन है. तब भी मैंने एक दिन रात के आठ बजे, यह सोचकर कि अब तक भारती जी धर्मयुग कार्यालय से घर आ गये होंगे, उनके घर फोन लगाया. जवाब आया कि मैं रात के बारह बजे फोन करूँ. मुझे लगा कि मेरे साथ मजाक हो गया. मजाक मानकर भी मैंने बारह बजे फोन लगाया. फोन भारती जी ने ही उठाया था. उन्होंने अगले दिन ही मुझे बुला लिया और यह भी बताया कि टाइम्स बिल्डिंग में कैसे-कैसे मैं उनके पास पहुँचूँगा. मैं उनसे मिलने नहीं जा सका. मेरी भाभी का ब्रेन ट्यूमर का ऑपरेशन था. ऑपरेशन सफल नहीं रहा और भाभी का देहान्त हो गया. मैं भारती जी से मिले बिना मुंबई से चला आया. मेरी कहानियाँ लगातार ‘धर्मयुग’ के पास जाती रहीं और जब तक भारती जी रहे, तब तक छपती रहीं.
सिर्फ एक पत्र आया था किन्हीं सहायक सम्पादक का कि मैं हमेशा लम्बी कहानियाँ ही न भेजूँ, कभी-कभी छोटी कहानियाँ भी भेजा करूँ.
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‘कहानी’ पत्रिका के सम्पादक श्रीपत राय से भी आपके बहुत आत्मीय सम्बन्ध रहे हैं.
लेखन के प्रारम्भ में ही मुझे श्रीपत जी का प्रश्रय और प्रोत्साहन मिलता रहा. मैं उनके पास दिल्ली जाने लगा था और वे मुझे लगातार पत्र लिखते रहे थे. उनके पत्रों से दो अंश आपको सुना देता हूँ-
‘‘दिल्ली जितनी बार आ सको, मेरे लिए वह वरदान होगा. मैं धन-धान्य से पूर्ण पर तृषित पिता हूँ. उनको मरण से बचाने का दायित्व तुम पर छोड़ता हूँ. जब मैं इतना निर्वसन हो सकता हूँ तो तुम्हें लाज किस बात की?…”
‘‘मुझे बड़ी-बड़ी बातें नहीं चाहिए. वे तो मेरे लिए अति सहज रही हैं. मुझे तो तुम्हारी और तुम्हारे पात्रों की कुशल-क्षेम चाहिए. मेरे जीते-जी जितना लिख-पढ़ लोगे, मेरे लिए शांति से मरना उतना ही सुगम हो जायेगा. …तुम्हारी ममता अभिभूत करती है. ऐसा पुत्र-रत्न जिसे मिल जाये, उसका मरण तक सुखदायी हो जाता है. अब मेरे पास अधिक समय नहीं है और यह कहते हुए मुझे लज्जा आती है कि मेरे पास धन का पारावार नहीं है. उसमें से जो कुछ मैं बाल-बच्चों पर व्यय कर लूँगा, उसका तो कुछ सदुपयोग हो जायेगा, अन्यथा सब मृत्यु-कर में चला जायेगा, इसलिए जैसे भी, जितना भी समय मेरे साथ रह सको, रह लो. संकोच का मेरा जीवन में कोई स्थान नहीं है, इसीलिए इतना मुखर हो सका हूँ. जितना धन खर्च करना चाहो, सहर्ष करो. मुझे उपकृत करो….”
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‘हंस’ में मर गया दीपनाथ, हिंगवा घाट में पानी रे! और आखिरी ईंट जैसी आपकी कई कहानियाँ छपी हैं. हंस और उसके सम्पादक राजेन्द्र यादव से आपके कैसे रिश्ते थे?
मैं राजेन्द्र जी का ‘प्रिय कथाकार’ था. वे ‘हंस’ के लिए कहानियाँ माँगते रहते थे, उन कहानियों को ससम्मान छापते थे और अच्छा लिखने के लिए उकसाते भी रहते थे. एक पत्र में उन्होंने लिखा था,
‘‘…आपके द्वारा की गई दीपनाथ की हत्या की चारों तरफ जो प्रशंसा हो रही है, उससे मुझे लगता है कि निश्चय ही आप धर्म संकट में पड़ गये होंगे, क्योंकि इससे अच्छी कहानी लिख सकने की क्षमता या संभावना मुझे फिलहाल आपमें नहीं दिखाई देती और कमजोर कहानी छापकर मैं ‘हंस’ के पाठकों को निराश नहीं करना चाहता. इस धर्म संकट से निकलने का रास्ता बताएँ.”
मैं उनका ‘प्रिय’ नहीं बन पाया, क्योंकि मैं उनका बस्ता नहीं ढो सकता था, उनके साथ दिल्ली से बाहर कहीं जाने से इनकार कर देता था, और कभी-कभी जिसे वे बहुत अच्छा बताते थे, उसे मैं बहुत बुरा बोल देता था. मैं उनके लिए लोहे का चना था. वे लोगों की गालियाँ खूब सुनते थे, ‘हंस’ में छापते थे, मगर मेरा ‘आत्मतर्पण’, जिसे जोर देकर उन्होंने मुझसे लिखवाया था और जिसमें हल्की-सी खरोंच थी, छापने से परहेज कर बैठे. मैं उनसे दूर हो गया, मगर आज भी मैं उन्हें बहुत आदर से याद करता हूँ.
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आपने अर्थशास्त्र की पढ़ाई की, इंजीनियरिंग कॉलेज में प्राध्यापक और पॉलिटेक्निक कॉलेज में प्रिंसिपल रहे. साथ ही, आपने लेखन का रास्ता चुना. क्या यह योजनाबद्ध था?
जब मैंने निर्णय लिया कि मुझे साहित्य में उतरना है, तभी मैंने यह भी निर्णय ले लिया कि उससे पहले मुझे दो रोटियों का जुगाड़ कर लेना है. अब तक मैंने बहुत साहित्यकारों की जीवनियाँ पढ़ ली थीं और जान रहा था कि जीवन में कहाँ वे फिसलते हैं, गिरते हैं और कहाँ टूट जाते हैं. मैं पूरी तैयारी के साथ साहित्य में आना चाहता था, ताकि जीवन के किसी भी पड़ाव पर मैं अपना आत्मसम्मान बचाये रखूँ. रोटी के चक्कर में ही मैं अर्थशास्त्र का विद्यार्थी बना, यह जानते हुए कि मैं अपना कीमती समय बर्बाद कर रहा हूँ. उस समय रोटी देने में अर्थशास्त्र हिन्दी से अधिक कारगर था.
एम. ए. कर लेने के बाद एक कॉलेज में अर्थशास्त्र के व्याख्याता के पद पर मेरी नियुक्ति हुई थी, मगर तब तक मेरी नियुक्ति सरकारी पॉलिटेक्निक में सहायक प्राध्यापक के पद पर हो चुकी थी. मैं पॉलिटेक्निक में यह सोचकर टिका रहा कि इस अभियंत्रण संस्थान में मुझे पढ़ने और लिखने का अधिक समय मिलेगा.
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आपकी रचनाओं में भावुकता इतनी है कि कई बार बांग्ला कथाकार शरतचंद्र की याद आती है. क्या यह माना जा सकता है कि आपकी रचनाओं में शरतचंद्र का प्रभाव है?
मैंने शरतचंद्र को पढ़ा है, मगर अब जरा भी याद नहीं कि क्या पढ़ा है. बस, इतना भर याद है कि पढ़ना अच्छा लगा था. भावुकता कहीं से उधार नहीं ली जा सकती. क्या आप यह नहीं मान सकते कि जितने भावुक शरतचंद्र थे, उतना ही भावुक मैं भी रहा हूँ? उसके बाद भी यह शब्दों का कमाल है, जो बताते हैं कि कौन कितना पिघल गया. मैं अधिक भावुक और कोमल हो सकता हूँ, मगर, सम्भव है, मेरे पास शब्द ही नहीं हैं इसे प्रकट करने के लिए.
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आपकी रचनाओं में खल और जटिल पात्र न के बराबर हैं. क्या यह जीवन को देखने की आपकी दृष्टि का नतीजा है?
मेरे पास कोई खल या जटिल पात्र आया ही नहीं अपनी कहानी लिखवाने. खल आप किसे कहेंगे? मार्क्स को आधी दुनिया पूजती थी और आधी उससे घृणा करती थी. महात्मा गाँधी ‘राष्ट्रपिता’ हैं, मगर उन्हें भी ‘खल’ साबित किया जा रहा है या नहीं? क्या वे भी खल हैं, जिन्हें समाज ने खल बनने को मजबूर कर दिया? जिन्हें आप सीधे-सीधे खल या दुष्ट कह सकते हैं, ऐसे पात्र तो हैं मेरी रचनाओं में; कहानियों में हैं, उपन्यासों में हैं. हाँ, कंस या रावण जैसा कोई पात्र नहीं है.
क्या आप ‘आघातपुष्प’ की रिमझिम को एक जटिल पात्र नहीं मानेंगे? राजेन्द्र यादव ने इस कहानी को पढ़कर लिखा था, “आघातपुष्प’ कहानी के लिए बधाई. बेहद जटिल कथ्य को उठाया है, इस बार. फूलों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के बारे में सचमुच इतना जानते हैं आप?’’
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आपकी रचनाओं में खासकर कोसी अंचल के ग्रामीण जीवन से जुड़े हुए बारीक ब्योरे तो हैं ही, पात्रों के नामकरण से लेकर संवादों तक में स्थानीय जीवन का जुड़ाव है. यह सब आप कैसे कर पाते हैं?
एक किस्सा सुन लीजिए. चीन के सम्राट ने चित्रकार ऊ को चियालिंग नदी के तटांचल के चित्रांकन का आदेश दिया था. चित्रकार ने नदी के किनारे-किनारे यात्रा की और चुपचाप लौट आया. सम्राट् ने उसकी हरकत पर अप्रसन्नता जाहिर की, तो चित्रकार ने जवाब दिया कि सारे दृश्य उसके हृदय में हैं. राजमहल के एक कक्ष में उसने आसन लगाया और फिर तटवर्ती अंचल के प्राकृतिक दृश्यों के इतने चित्र बनाये कि एक साथ जोड़ने पर उनकी लंबाई सैकड़ों मील हो सकती थी. अचरज की बात वह थी. अचरज की बात यह नहीं कि जिसकी सूरत मेरी आँखों में बस गयी, उसे बिना सामने बैठाये मैंने चित्रित कर दिया.
मैं गाँव में रहा हूँ. मैं दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में भी लंबे समय तक रहा हूँ. मगर जहाँ भी रहा हूँ, मेरे साथ मेरा गाँव भी रहा है. उपन्यास लिखने के दौरान अगर कहीं सड़क पर चलना होता है, तो मेरे साथ मेरे पात्र भी चलते हैं, बतियाते हुए चलते हैं. इस गाँव के चलते मैं मुंबई से भाग आया, दिल्ली छोड़कर चला आया. तब क्या यह अचरज की बात है कि जिनकी सूरत मेरी आँखों में बस गयी, जो नाम मेरे रटे-रटाए हो गए, जो बातें मेरे दिल के किसी कोने में बैठ गयीं, उन्हें मैं ज्यों का त्यों पाठकों को परोस देता हूँ? सच पूछिए, तो मेरे हाथ में सिर्फ कलम है, सारी कथाएँ मेरे पात्र मुझसे लिखवा रहे हैं.
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अपनी कहानियों में स्थानीय भूगोल का आप जैसा चित्रण करते हैं, वह अलग से रेखांकित करने लायक है. इस संदर्भ में अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं. ‘ग्रहण’ कहानी में पति जब पत्नी को छोड़ने जाता है, तो रास्ते में जो गाँव और मठ आदि पड़ते हैं, वे बेहद सहज रूप से सामने आते हैं. ‘अपहरण’ कहानी में एक जगह लड़के से उसके आसपास के गाँव का नाम पूछा जाता है, तो वह सहजता से कई गाँवों का नाम बताता है. ‘मर गया दीपनाथ’ में दीपनाथ जब अपने घर की ओर भागता है, तो लौटते हुए रास्ते, बांध आदि का जैसा वर्णन आपने किया है, उससे लगता है कि लिखते हुए आप उसके भूगोल पर बहुत मेहनत करते हैं. ऐसा लेखन कमरे में बैठकर संभव नहीं है.
मैं स्मृतिभ्रंश से पीड़ित रहा हूँ, इसलिए कहानी लिखना शुरू करते ही मैं नक्शा बना लेता हूँ. इलाके के सारे गाँव मेरे देखे हुए हैं. जिन गाँवों में मैं गया हुआ नहीं रहता हूँ, वहाँ का भूगोल मेरे पात्र मुझे बता देते हैं. हाँ, ऐसा कभी नहीं हुआ कि कहानी लिखने के लिए मुझे किसी पात्र के शहर या हिल स्टेशन जाना पड़े. एक बार दिल्ली में अपने एक मित्र के साथ एक सरकारी पत्रिका के कार्यालय में मेरा जाना हुआ था. मेरे मित्र ने एक कहानीकार के रूप में अपने मित्र-सम्पादक को मेरा परिचय दिया. सम्पादक ने मुझसे आग्रह किया कि मैं आलू की खेती पर एक कहानी लिखूँ और उसमें यह दिखाऊँ कि आलू की खेती से उसे अच्छी कमाई हो गयी. मेरे मित्र ने मुझसे कहा कि ऐसी एक कहानी मैं वहाँ बैठे-बैठे एक-आध घंटे में लिख डालूँ; दो-तीन सौ रुपये मिल जायेंगे.
क्या मैं ऐसी कहानी लिख डालता? लिख सकता था क्या? कहानीकार सबसे पहले उन कहानियों को लिखेगा, जिनके पात्र उसे लगातार धकिया-मुकिया रहे हैं. और जान लें, कभी-कभी तो पास से गुजर गयी किसी की पल भर की मुस्कुराहट भी बरसों पीछा नहीं छोड़ती.
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आप अपनी सर्वश्रेष्ठ कहानी किसे मानते हैं?
इस प्रश्न का सामना मुझे कितनी ही बार करना पड़ा है और हर बार मेरा एक ही उत्तर होता है. सैकड़ों कहानियाँ लिख लेने के बाद मेरे लिए (शायद किसी भी कहानीकार के लिए) यह बताना कठिन है कि मुझे कौन-सी या कौन-कौन-सी कहानियाँ पसंद हैं. राजेन्द्र जी (संपादक, हंस) को ‘मर गया दीपनाथ’ सर्वाधिक प्रिय थी. हरिनारायण जी (संपादक, कथादेश) को ‘हिंगवा घाट में पानी रे’ पसंद आयी थी. कमलेश्वर जी ने सबसे अधिक ‘आघातपुष्प’ को पसंद किया था. ‘आँख की खूँटी’ संजीव जी के मर्म को छू गयी थी. शिवमूर्ति जी अपनी हर चर्चा में ‘हुज्जत-कठहुज्जत’ का नाम लेते हैं. रामधारी सिंह दिवाकर को ‘दगाबाज’ बेहद पसंद है. विष्णु प्रभाकर जी को मेरी ‘डोर’ कहानी बहुत पसंद आयी थी. साहित्य के धुरंधर पाठक गौरीशंकर पूर्वोत्तरी जी को इस बात का बेहद दुख था कि जिस कहानी को पढ़कर उनके कई संगतिया रो पड़े हैं, उस ‘टेढ़े गाछ की छाया’ को मेरी ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’ में क्यों जगह नहीं दी गयी. ‘नाल’ कहानी सत्येन कुमार जी को मोह गयी थी. ‘प्रतिबद्ध’ में प्रकाशित ‘जहर’ को विष्णु नागर जी ने ‘शुक्रवार’ में छापा था और ‘कथाक्रम’ में प्रकाशित ‘समाधान’ को रमेश उपाध्याय जी ने साभार ‘कथन’ में छापा.
हाइडेमरी (हाइडी) पाण्डेय ने (इनके पति भारतीय प्रोफेसर, लेखक और आलोचक डा. इंदु प्रकाश पाण्डेय हैं) जर्मन भाषा में अनुवाद के लिए ‘मानबोध बाबू’ का चयन किया था. एक तेलगू भाषी लेखिका ने तेलगू में अनुवाद के लिए ‘मात’ को चुना था. ‘परदा’ कहानी अब तक परदे में रही; इधर कुछ शोधार्थियों ने परदा उठाया है. आपके प्रश्न की यात्रा पर निकलता हूँ तो मेरी अचर्चित या अल्पचर्चित कहानियों के कितने ही पात्र मुझे रोकते हैं, टोकते हैं, ‘‘क्या मेरी कहानी आपने डूबकर नहीं लिखी थी?’’
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आपके कथा लेखन की चर्चा करते हुए प्रख्यात कथाकार शिवमूर्ति ने रेखांकित किया है, कथा को आगे बढ़ाने की चन्द्रकिशोर जी की एक प्रविधि मुझे बहुत आकर्षित करती है. उनका कोई पात्र कल्पना में प्रतिद्वंद्वी से बहस करता है, झगड़ता है या सोचता है कि जब प्रतिद्वंद्वी ऐसा कहेगा, तो मैं ऐसा जवाब देकर उसे चित कर दूँगा.इस पद्धति से कहानी आगे बहुत आगे बढ़ जाती है. ‘मर गया दीपनाथ’ से लेकर ‘अभागा’ जैसी कहानियाँ इसके शानदार उदाहरण हैं. इस बारे में कुछ बताएं.
मैं किसी कर्मशाला में बैठकर किसी ‘प्रविधि’ या ‘पद्धति’ का आविष्कार नहीं करता. जिसे शिवमूर्ति ‘प्रविधि’ या ‘पद्धति’ कहते हैं, वह कहानी के पेट से पैदा होती है. कहानी में सिर्फ पात्रों के बीच संवाद नहीं होता, पात्रों का मुझसे भी संवाद होता रहता है. मैं किसी पात्र को अधूरा नहीं छोड़ता, उसे सम्पूर्णता में प्रकट हो जाने देता हूँ. कहानी लिखते हुए मैं हँसा भी हूँ, रोया भी हूँ. ये मेरे लिए आनन्द के क्षण होते हैं. मैं उन पात्रों के साथ कुछ अधिक देर टिक जाना चाहता हूँ. मैं पाठक को सामने बैठाकर कहानी लिखता हूँ और इस बात पर मेरी नज़र रहती है कि पाठक गुर्राने तो नहीं लगा है. मुझे खुशी हो रही है कि शिवमूर्ति जी को मेरी ‘चाल’ ने आकर्षित किया है. एक बार मैंने श्रीपत जी को लिखा था कि मेरी कहानियाँ लंबी हो जाती हैं; मैं क्या करूँ? उनका जवाब आया था, जरा भी चिन्ता मत करो. यह तुम्हारे अंदर की ऊर्जा है, जो कहानी को आगे बढ़ा ले जाती है.
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आपने ‘सिंहासन’ समेत कई नाटक लिखे हैं, जिनका मंचन भी हुआ है. क्या आपको लगता है कि आपके नाटककार रूप के बारे में कम बात हुई है?
मैं बचपन से नाटक-नौटंकी का प्रेमी रहा हूँ. मेरे गाँव में कई अवसरों पर नाटक होते रहते थे, कभी-कभी बाहर से आयी कंपनियों की नौटंकी भी. मैं डाक से नाटक की पुस्तकें मँगाकर पढ़ने लगा था. किशोरावस्था में ही मैंने दो-एक नाटक लिख भी डाले थे. बचपन के साथ वे नाटक भी गुम हो गये. मैं नाटककार बनते-बनते रह गया. नाट्य लेखन में सिद्ध होने के लिए मैंने विश्व साहित्य के नाटककारों को खूब पढ़ा. अगर मैं किसी नाट्य संस्था से जुड़ गया होता और नाटकों के मंचन को लेकर आश्वस्त रहता, तो मैं कविता-कहानी से पहले नाटक ही लिखता, लिखता चला जाता. ऐसा नहीं हो पाया. मैंने नाटक ही इतने कम लिखे कि इस पर अधिक बातें नहीं हो सकतीं. अब तो मैं खुद याद नहीं रख पाता हूँ कि मैंने नाटक भी लिखे हैं.
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आपके सभी उपन्यास महत्वपूर्ण हैं. ‘गवाह गैरहाजिर’ पर फिल्म बनी है, तो ‘शीर्षक’ भागलपुर दंगे पर है, जबकि ‘चिरंजीव’ संबंधों की मर्यादा के बारे में है. ‘पलटनिया’ और ‘सात फेरे’ जैसे भारी-भरकम उपन्यास पठनीय होने के साथ-साथ अपने समय के दस्तावेज भी हैं. आपका नया उपन्यास ‘दुखग्राम’ आपके पिछले उपन्यासों से इस अर्थ में अलग है कि इसके पात्र आपके जीवन के बिलकुल आसपास के हैं, जो पहचान में भी आ जाते हैं. आप अपने किस उपन्यास को सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं?
यहाँ भी मैं वही जवाब दूँगा, जो मैंने अपनी कहानियों को लेकर दिया है. बहुत सोचते हुए मैंने महसूस किया है कि ‘चिरंजीव’ मेरा दिल है और ‘सात फेरे’ मेरी दुनिया. सच बताऊँ तो मेरे सारे उपन्यास मेरे दिल और मेरी दुनिया से जुड़े हुए हैं. मेरे और उपन्यासों में औरों का दर्द है, ‘दुखग्राम’ में मेरा अपना दर्द. ‘माँ’ में मैं अपनी माँ का दर्द दूर करने में लगा हूँ, जिसे चिन्ता हो रही होगी कि मैं किसी भँवर में तो फँसा हुआ नहीं हूँ.
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क्या आप यह मानते हैं कि दिल्ली से बहुत दूर पूर्णिया में रहने के कारण हिन्दी आलोचकों और प्रकाशकों ने आपकी उपेक्षा की है?
दिल्ली से दूर रहने के कारण ऐसा हुआ है, यह मैं नहीं मानता. दिल्ली से दूर रहने वालों की किताबें भी प्रकाशक छाप रहे हैं और उन किताबों की समीक्षा हो रही है, उन पर आलेख लिखे जा रहे हैं, उन पर जहाँ-तहाँ आयोजित कार्यक्रमों में समीक्षक बढ़-चढ़कर बोल रहे हैं.
मैं तो दिल्ली बराबर जाता रहा और एक बार तो लगातार तीन साल दिल्ली में बैठा रहा. मेरे संकोच ने, मेरी सोच ने मुझे पीछे धकेला है. संक्षेप में बता दूँ कि मैं न तो किसी प्रकाशक का निहोरा करने गया और न मैंने किसी समीक्षक का दरवाजा खटखटाया. दिल्ली मुझे रास नहीं आयी. श्रीपत जी ने मुझे बहुत पहले ही आगाह कर दिया था, ‘‘तुम्हें मैं तुम्हारे असली रूप में ही देखना चाहता हूँ- बिशनपुर गाँव का चन्द्रकिशोर. वहीं लेखन की संभावनाएँ हैं या वहीं वह प्राण हैं, जहाँ से लेखन फूटता है.” लेखन के प्रारम्भ में ही मुझे यह अहसास हो गया था कि साहित्य में बाज़ार घुस आया है और इस बाज़ार में प्रकाशक के साथ आलोचक भी घुस आये हैं. मेरे लिए यह संभव नहीं हुआ कि मैं लिखूँ और फिर बाज़ार की ओर दौड़ूँ. मैं संकोची था; मुझे लज्जा आती थी.
‘गवाह गैरहाजिर’ छपने के बाद श्रीपत जी (प्रेमचंद के ज्येष्ठ पुत्र) ने एक गोष्ठी आयोजित करने की बात कही थी. मैं हाँ नहीं कह पाया और सिर्फ मुस्कराकर रह गया था. तब उन्होंने मुझसे कहा था, ‘‘किसी समीक्षक का दरवाजा कभी मत खटखटाना; कोई…पढ़ता नहीं है.” यह मेरे स्वभाव और मेरे चरित्र को भा गया. मुझे किसी समीक्षक के पास जाने की जरूरत भी कभी महसूस नहीं हुई. लेखन के प्रारम्भ में ही ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित मेरी कहानियों ने मेरे लिए एक विशाल पाठक-वर्ग तैयार कर दिया था. मेरे पास पाठकों के प्रशंसा भरे इतने पत्र आते थे कि मैं निहाल हो जाता था. और, मुझे यह अहसास भी होने लगा था कि हिन्दी में प्रबुद्ध और परिपक्व पाठकों का एक विशाल वर्ग है और उनके पास साहित्य और कहानी की वह समझ है, जो हिन्दी के सिद्ध समीक्षकों के पास भी नहीं है.
यह क्यों हुआ कि किसी समीक्षक ने भी मुझे कभी घास नहीं डाली?
‘धर्मयुग’ में मेरी कहानियाँ लगातार छप रही थीं. मेरे पन्नों को समीक्षक उलट दिया करते होंगे. ‘हंस’ में प्रकाशित ‘मर गया दीपनाथ’ ने खूब धूम मचायी; अगले तीन साल तक हर छोटी-बड़ी गोष्ठियों में उस पर चर्चा होती रही. इन गोष्ठियों में समीक्षक भी जाते ही रहे होंगे, कान खोलकर सुनते भी होंगे. ‘चिरंजीव’ पर साहित्य अकादेमी में एक बड़ी गोष्ठी हुई थी जिसमें राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, अर्चना वर्मा, ज्योतिष जोशी वगैरह शरीक हुए थे. वहाँ की भी कोई आवाज़ समीक्षकों तक नहीं पहुँची.
कभी-कभी कुछ बड़े समीक्षकों से मेरी भी मुलाकात होती रही थी. मुझसे नजर मिलते ही वे कह उठते, ‘‘हाँ, जायसवाल जी, मैं आपकी रचनाएँ पढ़ता रहा हूँ. बहुत अच्छा लिख रहे हैं आप.’’ ऐसा कहते तो थे, पर वैसा कुछ लिखने की जहमत उन्होंने कभी नहीं उठायी.
मेरे लिए यह खुशी की बात है कि जो काम सिद्ध समीक्षकों ने नहीं किया (हाथ जल जाने का डर था), उस काम में नये शोध-निर्देशकों और शोधार्थियों ने हाथ डाला है.
मैं कहानियाँ लिखता चला जा रहा था, मगर मेरे लिए यह संभव नहीं था कि संग्रह के प्रकाशन के लिए किसी प्रकाशक की चिरौरी करूँ. मदद के लिए साहित्य के किसी महंत के पास जाना भी मुझे नागवार गुजरा. तब श्री भारत भारद्वाज मेरी मदद के लिए आये और उन्होंने एक प्रतिष्ठित प्रकाशक से बात कर ली. मैंने एक पांडुलिपि उस प्रकाशक के पास भिजवा तो दी, मगर साल भर बाद तक जब पांडुलिपि यों ही पड़ी रह गयी, तब मैंने पांडुलिपि वापस मँगवा ली.
समीक्षक या सम्पादक मुझे अनमैनेजेबल समझते थे. एक बार मैं दिल्ली में था राजेन्द्र यादव जी के पास. उन्होने कहा कि, ‘‘चन्द्रकिशोर जी, कल मैं जा रहा हूँ गुजरात… कल या परसों…चलिए मेरे साथ, दो-तीन दिनों की वहाँ कोई गोष्ठी है…’’ मैंने कहा, मुझे फुरसत नहीं है, सर सीएल लेना पड़ेगा… और सरकारी नौकरी में हूँ, नहीं जा सकता हूँ. मुझे लगता था कि मै बस्ता उठाने नहीं जाऊँगा किसी सम्पादक या समीक्षक का… और वास्तव में समय भी नहीं रहता था.
एक फिल्म बन रही थी मेरी किताब पर. डायरेक्टर ने कहा, ‘‘आइए हरिद्वार”. मैं नहीं जा सका, क्योंकि मेरे पास समय नहीं था. मेरी एक कहानी ‘हिंगवा घाट में पानी रे‘ पर दूरदर्शन एक और फिल्म बना रहा था, वहाँ भी मैं नहीं जा सका…तो यह सब कुछ नुकसान हुआ है. जाने पर निश्चित रूप से कुछ परिचय होता और उस फिल्म में तो अच्छे-अच्छे ऐक्टर-पंकज कपूर, रघुवीर यादव, रीमा लागू आदि थे. इन चीजों से मैं पता नहीं क्यों, मैं कटता रहा… और भी बहुत बातें हुईं. जैसे, कभी कहानी का शीर्षक बदलने के लिए कहते, तो मैं नहीं करता था. हालाँकि कभी-कभी उनकी बात मान भी लेता था. मैं किसी लेखक संघ का सदस्य भी नहीं हूँ. मुझसे एक बार एक लेखक संघ के जनरल सेक्रेटरी ने कहा, ‘‘आप इसके सदस्य बन जाइये.” मैंने कहा, मुझे इसकी जरूरत महसूस नहीं होती.” इस पर उन्होंने कह दिया, ‘‘आप जैसे लोग ही फासिस्ट होते हैं.”
हमारे ऐसे साथी-लेखक हैं, जो एक कहानी भेजते थे, पत्रिका में छपवाते थे और सुबह से शाम तक सौ मित्रों को फोन करते थे…अभी भी वे लोग… क्या मेरी यह कहानी पढ़ी? अगर नहीं पढ़ी तो कहानी उपलब्ध है, लीजिये, नहीं तो कहिये, मैं भेज दूँगा और आप तुरंत प्रतिक्रिया भेजिये. इस तरह ढेर सारे लोग करते थे. आप भी जानते होंगे कि पत्रिकाओं को पैसे देकर अंक निकलवाये जाते हैं. मुझे भी एक ऑफर मिला… पैसे का नहीं… परंतु कहा गया कि लेख लिखवाकर भेजिये, अंक निकालना है. मैंने कहा कि मेरे पास ऐसा कोई लेखक नहीं है, जिसको मैं कहूँ लेख लिखने के लिए, आपको कोई ऐसा मिले, जिसने कुछ पढ़ा हो तो आप उससे लिखवा लें.
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लेकिन आपको पाठकों का बहुत प्यार मिला है.
मुझे अपने पाठकों से ऊर्जा मिलती रही और मैं मस्ती में लिखता चला गया. मेरे पास पाठकों के अनगिनत पत्र आते रहे. मुझे उन पत्रों से ही ऊर्जा मिलती रही. मैं तो चाहूँगा कि हर लेखक आलोचकों की ओर देखने की बजाय पाठकों की प्रतिक्रियाओं पर ध्यान दें; उनसे बहुत कुछ सीखने-समझने को मिलेगा. पूर्णिया में पाँच-छह वर्ष पहले अपने इलाज के सिलसिले में मैं एक डॉक्टर से मिला था. उन्होंने पूछा, ‘‘आप लेखक हैं?’’ मैंने कहा, ‘‘हाँ. ” बाद में उन्होंने बताया कि मेडिकल में जब वह थर्ड ईयर के स्टूडेंट थे, तब उन्होंने मेरी कहानी पढ़ी थी ‘नकबेसर कागा….” वे मुझसे फीस लेने को भी तैयार नहीं थे, बहुत कहने पर उन्होंने टोकन के रूप में एक रुपया लिया. तो, इससे उस समय मुझे काफी बल मिला था.
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आपने ‘रचनाकार प्रकाशन’ के नाम से अपना प्रकाशन शुरू किया. इसके अलावा ‘मुहिम’ नाम से एक पत्रिका भी शुरू की थी, जो बीच में स्थगित रहने के बाद फिर से शुरू हुई है. इन सबके पीछे क्या कोई खास उद्देश्य रहा है?
‘मुहिम’ पहले आयी, ‘रचनाकार प्रकाशन’ बाद में. मुहिम पूर्णिया और कटिहार के कुछ साहित्यकारों के दिमाग की उपज थी. मुझे जबरन सम्पादक बना दिया गया. मुहिम से जुड़े सारे साहित्यकार, मैं भी, सरकारी-अर्धसरकारी नौकरियों में थे. इन सबका पूर्णिया से जाना हुआ, तो मुहिम का जिंदा रह पाना संभव नहीं हुआ. जब किसी प्रकाशक का निहोरा करना मेरे लिए संभव नहीं हुआ, तब अपनी पुस्तकों के प्रकाशन का भार मैंने अपने बेटे प्रियंवद जायसवाल पर डाल दिया. इस तरह रचनाकार प्रकाशन अस्तित्व में आ गया.
चन्द्रकिशोर जायसवाल चन्द्रकिशोर जायसवाल का जन्म 15 फरवरी, 1940 को बिहार के मधेपुरा जिले के बिहारीगंज में हुआ. आपने पटना विश्वविद्यालय, पटना से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर शिक्षा हासिल की और अरसे तक अध्यापन करने के बाद भागलपुर अभियंत्रणा महाविद्यालय, भागलपुर से प्राध्यापक के रूप में सेवानिवृत्त हुए. आपकी प्रमुख कृतियाँ हैं—‘गवाह गैरहाजिर’, ‘जीबछ का बेटा बुद्ध’, ‘शीर्षक’, ‘चिरंजीव’, ‘माँ’, ‘दाह’ ‘पलटनिया’, ‘सात फेरे’, ‘मणिग्राम’, ‘भट्ठा’, ‘दुखग्राम’ (उपन्यास); ‘मैं नहिं माखन खायो’, ‘मर गया दीपनाथ’, ‘हिंगवा घाट में पानी रे!’, ‘जंग’, ‘नकबेसर कागा ले भागा’, ‘दुखिया दास कबीर’, ‘किताब में लिखा है’, ‘आघातपुष्प’, ‘तर्पण’, ‘जमीन’, ‘खट्टे नहीं अंगूर’, ‘हम आजाद हो गए!’, ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’ (कहानी-संग्रह); ‘शृंगार’, ‘सिंहासन’, ‘चीर-हरण’, ‘रतजगा’, ‘गृह-प्रवेश’, ‘रंग-भंग’ (नाटक); ‘आज कौन दिन है?’, ‘त्राहिमाम’, ‘शिकस्त’, ‘जबान की बन्दिश’ (एकांकी). आप ‘रामवृक्ष बेनीपुरी सम्मान’ (हजारीबाग), ‘बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान’ (आरा), ‘आनन्द सागर कथाक्रम सम्मान’ (लखनऊ), बिहार राष्ट्रभाषा परिषद का ‘साहित्य साधना सम्मान’ (पटना) और बिहार सरकार का जननायक ‘कर्पूरी ठाकुरी सम्मान’ (पटना) से सम्मानित हैं. आपके उपन्यास ‘गवाह गैरहाजिर’ पर राष्ट्रीय फ़िल्म विकास निगम द्वारा निर्मित फ़िल्म ‘रूई का बोझ’ और कहानी ‘हिंगवा घाट में पानी रे!’ पर दूरदर्शन द्वारा निर्मित फ़िल्में काफी चर्चित रही हैं. ‘रूई का बोझ’ नेशनल फ़िल्म फेस्टिवल पैनोरमा (1998) के लिए चयनित हुई थी और अनेक अन्तराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सवों में प्रदर्शित हो चुकी है. ई-मेल : jaiswal.chandrakishore@gmail.com |
कल्लोल चक्रवर्ती
कवि, पत्रकार और अनुवादक. |
रेणु की पृष्टभूमि का अर्थ यदि उनका भूगोल है तब तो पूर्वांचल की जमीन से अनेक लेखक हैं। नागार्जुन, राजकमल चौधरी से लेकर चंद्रकिशोर जयासवाल, रामधारी सिंह दिवाकर और कई अन्य. लेकिन रेणु की जो दृष्टि थी वह समाजवादी आंदोलन से हासिल हुई थी। रेणु सामाजिक-राजनीतिक पाखंड को जिस तरह पकड़ते वह अन्यतम है। ये उन्हें खास बनाती है. रेणु प्रेमचंद से दो कदम आगे हैं।
चन्द्रकिशोर जायसवाल अप्रतिम लेखक हैं.अपने ढंग के अकेले और अनोखे.
वे दीर्घायु हों!
हिंदी में चंद्रकिशोर जायसवाल जैसे लेखक विरल होते जा रहे हैं । साहित्य की सीमित दुनिया के दंद-फंद से अलग, नाम-इनाम-यश की ख्वाहिश से जुड़ी कसरतों से उदासीन, चश्मों से देश-दुनिया-समाज को देख कृत्रिम यथार्थ की रचना से हट सक्रिय और सकर्मक जीवन के सतत संपर्क से रचना-विधान में व्यस्त लेखक का नाम चंद्रकिशोर जायसवाल है । चर्चा इसलिए अधिक नहीं होती उसमें अधिकांश गण्यमान्यों के चेहरे विरूपित दिखेंगे । उनके तीन बड़े उपन्यास तो वाकई उपन्यास की अंतरराष्ट्रीय परंपरा में रखे जाने के अधिकारी हैं । उन्हें प्रणाम ।
चंद्रकिशोर जायसवाल पर लिखने से लाख बचा जाए या यूं कहें कि हिन्दी कहानी की असल रवानी को बयां करते समय उनका होना छोड़ दें तो बात कभी भी पूरी नहीं हो सकती.
“नकबेसर कागा ले भागा” जब धर्मयुग में प्रकाशित हुई तो उसे पढ़कर कहा जाता है कि कई कवि कहानी लेखन की ओर प्रवृत्त हुए और सफल कथाकार बन गए.
अच्छी बातचीत। समर्पित लेखन इसी तरह स्वयं आलोकित होता है, सारी स्पॉटलाइट अपने पर ही खींचे रखने से निस्पृह। हिन्दी जगत में चन्द्रकिशोर जायसवाल जी जैसे मौन उपलब्धियों वाले रचनाकार भी हैं और यह एक प्रेरक आश्वस्ति है।
बहुत सुंदर कार्य ,आपको साधुवाद, चंद्रकिशोर जी के काम को वाकई फुटेज न मिलना आश्चर्यजनक है
बहुत महत्व पूर्ण कथा कार हैं। सादर प्रणाम
मैं पूर्णिया का ही निवासी हूँ। ऐसे कथाकार को आलोचना जगत में जितनी जगह मिलनी चाहिए उतनी शायद नहीं मिली। आजकल जिस मिज़ाज की कहानियाँ लिखी जा रही हैं वे जायसवाल जी की कहानियों के मिज़ाज से भिन्न होती हैं. जायसवाल जी की कहानियाँ फार्मूला नहीं होतीं और डिजाइनर भी नहीं। कथ्य और शैली की कृत्रिमता वैसे भी कहानी की आत्मा ही मार देती है लेकिन इनकी कहानियाँ बिल्कुल जीवित मनुष्य हैं। कल्लोल चक्रवर्ती ने शानदार प्रश्न पूछे हैं। मुझे उम्मीद भी यही थी कि वे यह नहीं पूछ सकते कि आम काटकर खाते हैं कि चाटकर। उनके प्रश्न पूर्णिया और कोशी अंचल की पर्तें खोलने में सक्षम हैं। समालोचन को बधाई।
चन्द्र किशोर जायसवाल महत्वपूर्ण कथाकार हैं। एक बार उनके आवास पर मिला था,जब मैं एम.ए. का विद्यार्थी था। यह साक्षात्कार उन्हें निकट से जानने एवं उनकी रचना-दृष्टि को समझने का अवसर प्रदान कर रहा है। हिन्दी आलोचना को ऐसे वरिष्ठ साहित्यकारों पर दृष्टि डालनी चाहिए। पता नहीं अनमोल सृष्टि से दृष्टि विमुख क्यों है। कल्लोल चक्रवर्ती जी का यह प्रयास स्तुत्य है।
आप दोनों का आभार ।कल्लोल चक्रवर्ती ने कथाकार के संपूर्ण व्यक्तित्व को बड़े ही रचनात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है।हीरालाल नागर जी की जो अपेक्षा है, कथाकार स्वयं स्वीकार करता है कि वह वैसा नहीं हो सका और न बन सका। दूसरों को उन्होंने नहीं पढ़ा है, ऐसा नहीं हो सकता ।वह पारंपरिक दृष्टि से थोड़ा विलग नथर आते हैं। उनका सम्यक परिचय प्रस्तुत करने के लिए पुनः कल्लोल जी का आभार।ऐसा साक्षात्कार हाल में नहीं पढ़ा, अंत तक बाँधे रहा ।धन्यवाद, अरुण देव जी।
एक कथाकार के रूप में चन्द्रकिशोर जायसवाल प्रतिष्ठित नाम हैं। समकालीन कथा- विमर्श में उनकी चर्चा होती रहती है। वे ऐसे थोडे रचनाकारों में हैं जिन्होंने कई लंबी और यादगार कहानियाँ लिखी हैं। उनके उपन्यासों को संभवतः वैसा पाठकवर्ग नहीं मिला।
हिन्दी में स्थिति ऐसी है कि लेखन, प्रकाशन और संवाद के लिए संगठन न ही सही, एक तरह के सहकार अथवा सोलिडेरिटी में रहना होता है। यदि कोई पत्रिका संपादक आपसे पैसे नहीं ले रहा लेकिन लेख जुटाने में मदद चाहता है तो इसमें अनुचित क्या है। लेखकों को पता होता है कि किसने उन्हें पढा है और उनके लिखे को बेहतर समझते हैं। बेशक, लिखने के लिए आग्रह तो संपादक को ही करना चाहिए। किसी भी भाषा में संभवतः मूल्यांकन का कोई व्यवस्थित तंत्र संभवतः नहीं है।
काफी प्रभावी बातचीत की है कल्लोल चक्रवर्ती ने चन्द्रकिशोर जायसवाल जी से। निस्संदेह चन्द्रकिशोर जायसवाल एक बड़े कथाकार हैं। वे पिछले लगभग पचास वर्षों से लगातार लिख रहे हैं। उन्हें इफको साहित्य सम्मान मिला है, उन्हें इसकी बधाई।