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समालोचन

Home » नवजागरण के परिसर में बग़ावत और वफ़ादारी : सुरेश कुमार

नवजागरण के परिसर में बग़ावत और वफ़ादारी : सुरेश कुमार

समकालीन सामाजिक-राजनीतिक संघर्षों की जड़ें औपनिवेशिक काल में फैली मिलेंगी. आज को समझने के लिए ‘नवजागरण काल’ को गहराई से देखना समझना चाहिए. वरिष्ठ आलोचक और अध्येता वीर भारत तलवार की पुस्तकें इस दिशा में अपने शोध आधारित मौलिक निष्कर्षों से बहुत मदद करती हैं. ‘किसान, राष्ट्रीय आन्दोलन और प्रेमचन्द’, ‘राष्ट्रीय आन्दोलन और साहित्य’, ‘रस्साकशी’, ‘हिन्दू नवजागरण की विचारधारा: सत्यार्थ प्रकाश’, ‘राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द’ तथा वाणी से पिछले वर्ष प्रकाशित ‘बग़ावत और वफ़ादारी: नवजागरण के इर्द-गिर्द’ आदि को इस सन्दर्भ में देखना चाहिए. सुरेश कुमार के अध्ययन का क्षेत्र नवजागरणकालीन साहित्य है. वह कृति की समीक्षा करते हुए उससे संवाद करते हैं और अपनी तरफ से विवेच्य में कुछ जोड़ते भी चलते है. एक महत्वपूर्ण पुस्तक की उतनी है आवश्यक समीक्षा.

by arun dev
June 7, 2024
in समीक्षा
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नवजागरण के परिसर में बग़ावत और वफ़ादारी : सुरेश कुमार
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नवजागरण के परिसर में बग़ावत और वफ़ादारी
सुरेश कुमार

प्रसिद्ध विद्वान वीर भारत तलवार हिंदी आलोचना की दुनिया में उन्नीसवीं सदी के नवजागरण कालीन साहित्य पर व्यापक शोध और नवीन प्रतिमान स्थापित करने के लिए जाने जाते हैं. उन्नीसवीं सदी के साहित्य पर उनका अकादमिक और आलोचनात्मक शोध सामाजिक, साहित्यिक, राजनीतिक, धार्मिक, भाषाई आंदोलन के अंतर्विरोध की गहन पड़ताल कर, हमारी दृष्टि और सोच का विस्तार प्रदान करता है. मसलन, उनकी किताब ‘रस्साकशी’ हिंदी आलोचना के नवजागरण कालीन विद्वानों की बौद्धिक चालाकियों एवं भूलों को सार्वजनिक कर उनके निष्कर्ष और कसौटी को उलट कर नए प्रतिमान स्थापित करती है.

एक दशक पहले प्रकाशित इस किताब की दलीलें और निष्कर्ष अब भी हिंदी की सार्वजनिक और अकादमिक आलोचना में बहस और विमर्श का हिस्सा बने हुए हैं. देखा जाए तो वीर भारत तलवार के अध्ययन का दायरा उन्नीसवीं सदी की साहित्यिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, भाषाई, आर्य समाजी आंदोलन के स्रोतों और संदर्भों से होते हुए, हिंदी नवजागरण कालीन अग्रदूतों के साहित्य और विचार तक फैला है.

अभी पिछले वर्ष प्रकाशित उनकी नई किताब ‘बग़ावत और वफ़ादारी : नवजागरण के इर्द-गिर्द’ पंडित श्रद्धाराम  फिल्लौरी, राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द, अयोध्या प्रसाद खत्री और सर सैयद अहमद खाँ सरीखी सार्वजनिक हस्तियों के साहित्य और विचार के विविध पहलुओं का विवेचन करती हुई, नवजागरण कालीन अवधारणा को नए सिरे से परिभाषित कर, एक बहस तलब विमर्श हमारे सामने रखती है.  यह किताब छह अध्याय में विभाजित है, जो उन्नीसवीं सदी के सामाजिक, साहित्यिक, धार्मिक, भाषाई विचारों के साथ 1857 विद्रोह के इर्दगिर्द फैले हैं.

किताब का पहला अध्याय, उन्नीसवीं सदी के लेखक पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी के साहित्यिक, सामाजिक और धार्मिक विषयक विचारों का व्यापक विश्लेषण प्रस्तुत करता है. पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी नवजागरण काल के एक दिलचस्प अध्याय थे. इस लेखक के विचारों का निर्माण वेद, पुराणों और वैदिक कोलाहल के इर्दगिर्द हुआ. इनके परिवार के लोग सनातनी संस्कृति के वाहक थे. औपनिवेशिक समाज में पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी हिन्दू धर्म के रक्षक के तौर उभर कर आते हैं. यह सवाल लाज़िम हैं कि औपनिवेशिक दौर में ऐसी कौन सी परिस्थितियाँ रही होंगी कि जिन्होंने पंडित श्रद्धाराम को धर्म रक्षक में तब्दील कर दिया. इस संबंध में वीर भारत तलवार का तर्क है कि,

“ब्राह्मसमाज, प्रार्थनासमाज और आर्यसमाज की अगु‌वाई में हुआ धार्मिक नवजागरण चले आ रहे हिन्दू धर्म में सुधार करने और हिन्दू धर्म को बुद्धि-विवेकसम्मत रूप देने के लिए हुआ था. उसके खिलाफ परम्परागत धर्म के अनुयायियों ने अपने बचाव का यानी प्रति-नवजागरण का आन्दोलन किया था.”

लेखक का यह तर्क अपनी जगह सही हो सकता है. मेरी दृष्टि में पंडित श्रद्धाराम के सनातनी रक्षक होने के और भी  तर्क हो सकते हैं. वास्तव में उन्नीसवीं सदी के नवजागरण कालीन लेखकों ने विक्टोरिया शासन को उगते हुए सूर्य के तौर पर देखा था. ऐसे लेखकों को कहना था कि इस शासन में शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पी सकते हैं. उन्नीसवीं सदी के उतरार्द्ध में जब विक्टोरिया राज भारत में कायम हुआ तो उच्च श्रेणी के हिन्दुओं को इस शासन की ओर से यह वचन दिया कि  हिन्दू धर्म की रीत-रिवाजों और कानून में किसी तरह का हस्तक्षेप या बदलाव नहीं किया जाएगा. औपनिवेशिक भारत के संपादक पंडित देवी सहाय शर्मा ने अपनी पत्रिका ‘धर्म दिवाकर’ के  सन 1878 के अंक में लिखा कि,

“सिपाही विद्रोह के बाद महारानी ने भारत वर्ष का राज भार अपने सिर पर लिया उस समय यह प्रतिज्ञा करी थी कि अंग्रेज़ राज हिन्दू धर्म के विषय में आगे कभी हस्तक्षेप न करेंगे, यह महारानी की प्रतिज्ञा आज भारत के सभी लोगों में विख्यात है.”

उन्नीसवीं सदी के बड़े-बड़े संपादक और लेखक विक्टोरिया शासन की इस उदारनीति के दीवाने हो गए थे. विक्टोरिया की इसी उदारनीति के चलते पंडित श्रद्धाराम जैसे लेखक हिन्दू धर्म के रक्षक के तौर पर उभर कर सामने आए. पंडित श्रद्धाराम  फिल्लौरी ने अपनी किताब ‘भाग्यवती’ में एक जगह विक्टोरिया शासन की तारीफ़ में लिखा कि,

“सरकार अँग्रेजी  में यही तो अच्छाई है कि प्रजा को किसी भांति रोक-टोक नहीं.”

पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी के विचारों को समग्रता में समझने के लिए आर्य समाज और ब्राह्मसमाजी आंदोलन एक महत्वपूर्ण कड़ी है. वीर भारत तलवार पंडित श्रद्धाराम के विचारों को समझने की प्रक्रिया में आर्य समाजी आंदोलन की इन कड़ियों को बड़े सलीके से एक मँजे हुए अकादमिक की तरह जोड़ते और श्रद्धाराम फिल्लौरी तथा मुंशी कन्हैयालाल अलखधारी के विवाद को बड़ी तफ़सील से हमारे सामने रखते हैं.

पंडित श्रद्धाराम, मुंशी कन्हैयालाल अलखधारी के साथ उन्नीसवीं सदी के महान लेखक नवीनचंद राय के साहित्य और विचारों के प्रबल विरोधी थे. मुंशी कन्हैयालाल अलखधारी उन्नीसवीं सदी के महान समाज सुधारक और स्त्री हितैषी लेखक थे. इनके स्त्री हितैषी होने का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक अज्ञात हिन्दू औरत की किताब ‘सीमंतनी उपदेश’ इन्होंने ही प्रकाशित करायी थी.

सीमांतनी उपदेश की लेखिका ने बड़े आदर के साथ इनका नाम अपनी किताब में लिया है. मुंशी अलखधारी विचारों से आर्य समाजी थे और स्वामी दयानंद सरस्वती से उनका घनिष्ठ संबंध था. पंडित प्रताप नारायण मिश्र ने  भी अपनी पत्रिका ‘ब्राह्मण’(15 अप्रैल, हरिश्चंद्र संवत:7) के अंक में मुंशी अलखधारी को एक महान सुधारक बताया है.

इतिहास के आलोक  में देखा जाए  तो सन् 1877 में दिल्ली दरबार का आयोजन होता है. महारानी विक्टोरिया की ताजपोशी के अवसर पर देश के कोने-कोने से राजाओं, महाराजाओं  और विद्वानों को आमंत्रित किया गया. इस अवसर पर मुंशी कन्हैयालाल अलखधारी और नवीनचंद राय  को दिल्ली दरबार में आमंत्रित किया गया.  इसी दिल्ली दरबार में मुंशी अलखधारी की मुलाकात स्वामी दयानन्द सरस्वती से हुई. कन्हैयालाल अलखधरी ने स्वामी  दयानंद सरस्वती को पंजाब में आने के लिए आमंत्रित किया. सन् 1877 में अलखधारी के बुलावे पर ही  स्वामी दयानन्द सरस्वती पहली बार लुधियाना गए.

ध्यातव्य है कि पंडित श्रद्धाराम और मुंशी अलखधारी दोनों ही हिन्दू जागरण का काम रहे थे. अब सवाल उठता है कि जब दोनों ही हिन्दू जागरण का काम कर रहे थे, तो इनके बीच विवाद का कारण क्या था?

दरअसल, सन 1867 में हिन्दुओं की सहायता से लुधियाना में संस्कृत और फारसी स्कूल खोला गया. इसका नाम ‘हिन्दू स्कूल’ रखा गया. इस स्कूल के प्रबन्धक मुंशी यमुना प्रसाद कायस्थ थे. इस स्कूल की ओर से एक ‘हिन्दू सभा’ बनाई गई. इस सभा का मकसद था कि सनातन धर्म का प्रचार-प्रसार करना. हिन्दू स्कूल की जो ‘हिन्दू सभा’ बनी इसके नियम कानून में श्रद्धाराम फिल्लौरी ने ब्राह्मणों को अधिक महत्व दिया. इस सभा का एक नियम यह था कि सभा का उपदेष्टा  ब्राह्मण होगा. मुंशी कन्हैयालाल अलखधारी ने श्रद्धाराम फिल्लौरी की इस बात का विरोध किया कि सभा का उपदेष्टा केवल ब्राह्मण होगा? उनकी दृष्टि में किसी भी जाति का विद्वान सभा का उपदेष्टा बन सकता है. यही बात दोनों के बीच बिगाड़ का कारण बनी.

कन्हैयालाल अलखधारी ‘हिन्दू सभा’ में अन्य जातियों  के व्यक्तियों को शामिल करना चाहते थे. इनका यह भी कहना था कि उपदेश कुर्सी और बेंच पर बैठकर सुना जाए जबकि फ़कीर फिल्लौरी का कहना था कि जूता-चप्पल उतार कर और जमीन पर बैठकर ही लोग उपदेश सुने. श्रद्धाराम जब कन्हैयालाल अलखधारी की बातों से सहमत नहीं हुए तो अलखधारी ‘हिन्दू स्कूल’ की ‘सभा’ से अलग हो गए. इसके बाद दोनों एक दूसरे के निंदक हो गए. दरअसल  पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी सनातन धर्म के घाट के पार नहीं जा सके जबकि कन्हैयालाल अलखधारी हिन्दू धर्म को लचीला बनाने पर जोर दे रहे थे.

हिन्दू स्कूल सभा से अलग होने के बाद मुंशी कन्हैयालाल अलखधारी ने मार्च 1873 में ‘नीति प्रकाश’ सभा की स्थापना लुधियाना में की. इस सभा का मुख्य एजेण्ड़ा हिन्दू सुधार और स्त्री समस्याओं का निवारण था. इस सभा के उत्सव अवसर पर  मुंशी अलखधारी ने श्रद्धाराम फिल्लौरी को भी आंमत्रित किया. इस अवसर पर श्रद्धाराम फिल्लोरी ने मुंशी अलखधारी की जमकर आलोचना की. यहाँ तक अलखधारी को हिन्दू मानने से ही इनकार कर दिया. श्रद्धाराम फिल्लौरी ने अलखधारी को हिन्दू धर्म विरोधी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

कन्हैयालाल अलखधारी हिन्दू सुधार और स्त्री शिक्षा के पक्षधर होने के कारण सनातनी हिन्दू उनके विरोध में थे. सनातनियों को  लग रहा था कि मुंशी अलखधारी हिन्दू और सनातनी परम्परा पर प्रहार कर रहे हैं. अलखधारी की बढ़ती लोकप्रियता को देखकर पंडित श्रद्धाराम ने इनके खिलाफ कुप्रचार करना शुरु कर दिया. यहाँ तक कह दिया कि अलखधारी तो ईसाई हो गये हैं. श्रद्धाराम फिल्लौरी ने  मुंशी अलखधारी के विचार के विरोध ‘धर्म कसौटी’ नामक किताब उर्दू भाषा में लिखी.

वीर भारत तलवार इसी अध्याय में कथावाचक श्रद्धाराम फिल्लौरी के सामाजिक और धार्मिक सुधार की भी चर्चा करते हैं. पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी, स्वामी दयानन्द सरस्वती के प्रबल विरोधी थे. वह एक साथ ही ब्राह्मसमाज और आर्यसमाजियो से लोहा ले रहे थे. जब स्वामी दयानंद सरस्वती लुधियाना गए तो पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी ने सनातन धर्म की रक्षा हेतु, उन्हें शास्त्रार्थ करने की चुनौती दे डाली. पर, स्वामी दयानन्द सरस्वती ने नियत समय पर आने से पहले यह कहते हुए इनकार कर दिया कि उनकी जान को खतरा है.

श्रद्धाराम फिल्लौरी का धार्मिक मसले पर नवीनचंद राय से भी संवाद हुआ. नवीन चंद राय के विचारों की काट में श्रद्धाराम फिल्लौरी ने ‘धर्म रक्षा’ शीर्षक किताब लिखकर ब्राह्मसमाजी विचारों का खंडन-मंडन किया.

यह सही बात है कि श्रद्धाराम फिल्लौरी ने विधवा विवाह, और स्त्री शिक्षा का समर्थन किया था. जहाँ बाबू नवीनचंद राय स्त्री शिक्षा के ज्ञान-विज्ञान के पक्षधर थे, वहीं पंडित श्रद्धाराम स्त्रियों के लिए घरेलू शिक्षा को ही सार्थक मानते थे.

पंडित श्रद्धाराम के विधवा विवाह के समर्थन  होने के कई कारण हो सकते हैं. इनमें एक कारण यह भी था कि श्रद्धाराम फिल्लौरी ने पहली पत्नी के देहांत के बाद खुद पुनर्विवाह किया था.

पंडित श्रद्धाराम अपने आचार-विचार में पक्के तौर पर सनातनी और जाति-वर्ण के पोषक थे. यह लेखक अपने विचारों में दलितों को लेकर अत्यंत पिछड़ा था. इनकी सोच इतनी पिछड़ी थी कि शादी-बारात आदि उत्सव पर दलित जातियों को आस-पास तक भटकने की इजाजत नहीं देता है. वास्तव में देखा जाए तो पंडित श्रद्धाराम की छवि उन्नीसवीं सदी के नागरिक समाज में एक वैदिक व्यवस्था के वाहक और हिन्दू धर्म के रक्षक के तौर पर उभर कर सामने आई थी.

raja_shiv_prasad

इस किताब का दूसरा अध्याय, उन्नीसवीं सदी की सार्वजनिक हस्ती राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिन्द’ के विचार-चिंतन पर केन्द्रित है. इस अध्याय में उनकी छवि एक शिक्षाविद और नवजागरण काल के प्रतिष्ठापक के तौर पर सामने आती है. वीर भारत तलवार इस अध्याय में राजा शिवप्रसाद के अंग्रेज़ परास्त और मुस्लिम विरोधी होने के अंतर्विरोध को भी सामने लाते हैं. देखा गया है कि हिंदी आलोचक और अध्येता नवजागरण कालीन विमर्श के बिन्दु भारतेन्दु और उनके मंडल लेखकों की आभा के इर्दर्गिद  तलाशते रहे हैं. ऐसे में भारतेन्दु के समानान्तर जो लेखक नवजागरण वैचारिकी को अपने लेखन और विचार से आकार दे रहे थे, उनके योगदान की न सिर्फ अनदेखी हुई  बल्कि उनके कार्यों पर धूल भी डाली जाती रही.

शिवप्रसाद सितारे हिन्द की बौद्धिकता को न सिर्फ भारतेन्दु की आभा तले ढकने का प्रयास किया गया बल्कि हिंदी आलोचकों ने उनकी उपलब्धियों पर धूल डालने की कवायद को भी अंजाम दिया. ध्यातव्य है कि हिंदी आलोचकों की बौद्धिक चालाकियों और शरारतों के शिकार के चलते शिवप्रसाद सितारे हिन्द की छवि हिंदी नवजागरण के परिसर में बतौर खलनायक की बन गयी. वीर भारत तलवार का तर्क है कि शिवप्रसाद सितारे हिन्द की खलनायक की छवि गढ़ने में भारतेन्दु मण्डल और उनके समर्थकों की भूमिका रही है. वीर भारत तलवार लिखते हैं कि,

“इस मिथक को भारतेन्दु और उनकी मंडली के लेखकों ने गढ़ा; उनके अनुयायियों और साहित्य के इतिहासकारों ने प्रचारित किया.”

यह सही बात है कि शिवप्रसाद अपने समय की बौद्धिक हस्ती थे. जितनी वफ़ादारी उनकी अंग्रेजों से थी, उतनी ही वफ़ादारी नागरी लिपि और उसके आंदोलन से भी रही है. राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने उर्दू लिपि की जगह नागरी लिपि की माँग कर हलचल पैदा कर दी थी. सन 1868 में उन्होंने  सरकार को एक मेमोरेंडम दिया,जिसमें माँग की गयी कि उर्दू लिपि को हटाकर नागरी लिपि को लागू किया जाए. पश्चिमोत्तर प्रांत में इसी मेमोरेंडम से नागरी आंदोलन को धार मिली. वीर भारत तलवार की स्थापना है कि शिवप्रसाद सितारे हिन्द के नागरी लिपि माँग वाले इसी मेमोरेंडम से नवजागरण की शुरुआत हुई .

औपनिवेशिक दौर में  हिन्दी पाठयक्रम के निर्माण में शिक्षाविद शिव प्रसाद ‘सितारे-हिन्द’ की अहम भूमिका रही है. वीर भारत तलवार इसकी चर्चा बड़ी गहनता के साथ करते हैं. सन 1856 में  शिवप्रसाद ‘सितारे-हिन्द’ को शिक्षा-विभाग में बनारस डिवीजन का जवाइंट इंस्पेक्टर नियुक्त किया गया. जब बनारस और प्रयाग डिवीजन को एक में मिला दिया गया तो शिवप्रसाद ‘सितारे-हिन्द’ को दोनों डिवीजनों का प्रधान इस्पेक्टर बना दिया गया. इस शिक्षाविद ने नौकरी के आखिरी पड़ाव में आगरा और झांसी डिवीजन के शिक्षा इंस्पेक्टर का कार्यभार भी संभाला. शिवप्रसाद ‘सितारे-हिन्द’ को उनकी सेवाओं के लिए  सन 1870 में सीएसआई की उपाधि से और सन 1883 में ‘राजा’ की पदवी से नवाजा गया.

सन 1883 में गवर्नर लार्ड रिपुन ने सितारे-हिन्द को इम्पीरियल कौंसिल का सभासद नियुक्त किया था. उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में पाठ्यक्रम की रस्साकशी में कुछ अफसरों ने उर्दू और संस्कृत को स्कूली पाठ्यक्रम में लागू करने की सिफ़ारिश पर ज़ोर दिया. जब यह बात राजा शिवप्रसाद को पता चली तो उन्होंने अपनी बुद्धि और सत्ता की हनक से हिंदी विरोधियों को बैकफुट पर धकेल दिया.

शिवप्रसाद सितारे-हिन्द के प्रयास से स्कूलों और कॉलेजों में नागरी भाषा का प्रवेश हुआ. शिवप्रसाद सितारे-हिन्द ने हिन्दी पाठ्यक्रम की अनेक पुस्तकों का निर्माण किया. उन्होंने पाठ्यक्रम की परियोजना के अंतर्गत इतिहासतिमिरनाशक (1864), विद्याङ्कुर (1855), मनबहलाव (दूसरा संस्करण 1865), छोटा भूगोलहस्तमलक (आठवाँ संस्करण,1877) यह पुस्तकें इलाहाबाद,गवर्नमेंट छापेखाने से छ्पी थी. बाबू शिवप्रसाद ने स्त्री शिक्षा को ध्यान में रखते हुए वामामनरंजन (tales for Women) नामक पुस्तक लिखी. यह किताब उन्होंने श्रीमहाराजाधिराज पश्चिमोदेशाधिकारी श्रीयुत लेफ़्टिनेट गवर्नर बहादूर की आज्ञानुसार बनाई थी.

 

अयोध्या प्रसाद खत्री

तीसरा अध्याय, उन्नीसवीं सदी की महान हस्ती और खड़ी बोली आंदोलन को आकार देने वाले अयोध्या प्रसाद खत्री पर केन्द्रित है. वीर भारत तलवार ने खत्री पर विचार करने के बहाने हिंदी आलोचकों के समक्ष जो सवाल रखे हैं, वह वाजिब और विचारणीय लगते हैं. ध्यातव्य है कि औपनिवेशिक भारत के पश्चिमोत्तर प्रांत में गद्य-पद्य की भाषा में एकरूपता नहीं थी. नवजागरण कालीन लेखक जहाँ अपना गद्य नागरी में, वहीं अपनी कविताएं ब्रज भाषा में लिखा करते थे. उन्नीसवीं सदी के उतरार्द्ध में अयोध्या प्रसाद खत्री ने गद्य-पद्य की एकरूपता का सवाल उठाकर कर बड़ी हलचल पैदा कर दी. अयोध्या प्रसाद का आग्रह था कि कविता भी खड़ी बोली में लिखी जानी चाहिए.

अयोध्या प्रसाद की यह मुहिम राधाचरण गोस्वामी, पंडित प्रताप नारायण मिश्र जैसे नवजागरण कालीन लेखकों को रास नहीं आई. इनकी ओर से खड़ी बोली आंदोलन का न सिर्फ विरोध किया गया बल्कि सरस्वती जैसी पत्रिका में कार्टून छापकर उनका मज़ाक भी उड़ाया गया.

पंडित प्रताप नारायण मिश्र ने अपनी पत्रिका ‘ब्राह्मण’ (15 फरवरी, हरिश्चंद्र संवत : 4 , खंड : 4, संख्या :7 और 15 मार्च, हरिश्चंद्र संवत : 4, खंड : 4,संख्या: 8 ) के अंक  में ‘खड़ी बोली का पद्य’ शीर्षक से दो किस्तों में लेख लिखकर अयोध्या प्रसाद खत्री के खड़ी बोली आंदोलन का विरोध ही नहीं किया बल्कि उनका मज़ाक भी उड़ाया.

पंडित  प्रताप नारायण मिश्र का कहना था कि खड़ी बोली में फारसी छंद और दो तीन चाल की लावनियों के सिवाए और कोई  छंद उसमें बनना भी ऐसा ही जैसे किसी कोमलांगी सुंदरी को कोट-बूट पहनना. पंडित प्रताप नारायण मिश्र ने खड़ी बोली में कविता लिखी जा सकती है, इस संभावना से ही इंकार कर दिया. वह आगे कहते हैं कि आधुनिक कवियों के शिरोमणि भारतेन्दु जी से बढ़के हिंदी भाषा का आग्रही दूसरा न होगा. जब उन्हीं से यह न हो सका तो दूसरों का यत्न निष्फल है. आम को चूसने से यदि रस का स्वाद मिल सके तो ईख बनाने का परमेश्वर को क्या काम था.

पंडित प्रताप नारायण मिश्र ने खड़ी बोली पद्य का मज़ाक उड़ते हुए  कहा कि, ‘हाँ, उर्दू  शब्द अधिक न भर के उर्दू के ढंग का सा मज़ा हम पा सकते हैं.’ पंडित प्रताप नारायण मिश्र का दावा था कि जैसा लालित्य और माधुर्य ब्रज, बुंदेलखंडी और बैसवारी बोली की कविता में है वैसा, खड़ी और पड़ी बोली के पद्य में कहा हैं?

अयोध्या प्रसाद के खड़ी बोली आंदोलन पर पंडित प्रताप नारायण मिश्र की यह टिप्पणी देखने लायक है-

“जो लालित्य जो माधुर्य  जो लावण्य कवियों की उस स्वतंत्र भाषा में  है जो ब्रज भाषा बुंदेलखंडी बैसवारी और अपने  ढंग पर लाई गई  संस्कृत व फारसी से बन गयी है जिसे चंद्र से लेके  हरिश्चद तक प्राय: सभी कवियों ने आदर दिया है  उसका-सा अमृतमय  चित्तचालक रस खड़ी और बैठी  बोलियों में ला सके यह किसी कवि के बाप की मजाल नहीं!”

प्रताप नारायण मिश्र ने खड़ी बोली आंदोलन को ब्रज बोली के मान-अभिमान और स्वत्व पर छुरी चलाने के तौर पर देखा था. उनका मत था कि ब्रज भाषा नागरी देवी की सगी बहिन है, उसका  निज स्वत्व दूसरी  बहिन को सौंपना सहृदयता के गले पर छुरी फेरना है. वह अपने लेख में आगे कहते हैं कि ब्रज भाषा की कोमलता और स्वतन्त्रता किसी भी तरह नष्ट नहीं होने  देंगे, जिन्हें भाषा की समझ नहीं है, वे अपनी बोली चाहें  ‘उड़ी रखें’ ‘चाहें कूदावें’.
(स्रोत : सरस्वती : सितम्बर 1902, भाग: 3, संख्या : 9)

औपनिवेशिक दौर में नवजागरण कालीन लेखकों ने गद्य-पद्य की एकरूपता वाले मसले को सामाजिक, धार्मिक और हिन्दू सांस्कृतिक विरोधी के तौर देखा गया. पश्चिमोत्तर प्रांत के लेखकों ने कविता की कोमलता, सौंदर्य और लयात्मकता से अधिक इसे धार्मिक मसला बना दिया था. उन्हें अपने पद्य में  किसी कीमत पर उर्दू का शब्द स्वीकार नहीं था. यहाँ तक भारतेन्दु जैसे लेखक को भी धार्मिक मामलों  में उर्दू शब्द स्वीकार नहीं था.

वीर भारत तलवार इस सिलसिले में एक बड़ी ही दिलचस्प घटना का जिक्र करते हुए बताते हैं कि जब जगन्नाथ पुरी में पहले से मौजूद भैरो की मूर्ति उखाड़ कर विष्णु की मूर्ति लगायी गई और उससे विवाद उठ खड़ा हुआ तो एक सज्जन ने इस विवाद की जांच करते हुए  ‘तहक़ीक़ात पुरी’ नाम से एक किताब लिखी. उसका भारतेन्दु ने विरोध करते हुए पहला वाक्य यही लिखा कि धर्म के विषय में ‘तहक़ीक़ात’ जैसे  शब्द का प्रयोग उचित नहीं है. वीर भारत तलवार की स्थापना है कि,

“यह सिर्फ लय और सौन्दर्य का सवाल नहीं था, सिर्फ भाषा का सवाल भी नहीं था. इसमें धर्म और राजनीति का सवाल भी शामिल था. इसमें मुसलमान समाया हुआ था. धर्म की जो कथाएँ मथुरा में बाँची जाती थीं, मुमकिन नहीं था कि उनमें एक भी शब्द उर्दू का चला जाये.”

अयोध्या प्रसाद खत्री ने खड़ी बोली आंदोलन को लेकर सिर्फ हवा-हवाई बाते नहीं की, उन्होंने ‘खड़ी बोली का पद्य’ नामक संग्रह  संपादित कर पश्चिमोत्तर प्रांत के लेखकों के सामने एक नज़ीर प्रस्तुत कर अपने आलोचकों के सामने एक चुनौती पेश कर दी. इस किताब की प्रसिद्धि का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि एफ. पिंकॉट ने सन 1889 में इसका एक संस्करण लंदन से प्रकाशित करवाया. ‘खड़ी बोली का पद्य’ संकलन का महत्व बताते हुए उन्होंने अँग्रेजी में भूमिका भी लिखी. अयोध्या प्रसाद खत्री के इस  खड़ी बोली के संकलन में विविधता दिखायी देती है. इस संकलन में उन्होंने हिन्दू और मुस्लिम दोनों कवियों की खड़ी बोली की कविताएँ शामिल की थी. इसके पहले परिच्छेद में ‘ठेठ हिन्दी’ के अंतर्गत मुंशी इंशा अलल्हा खाँ, दूसरे परिच्छेद में ‘मुंशी इस्टाइल हिन्दी’ में राय मोहन लाल, बाबू हरिश्चंद,बाबू महेश नारायण, मौलवी इलताफ हुसैन, ‘पंडित स्टाइल’ वाले  परिच्छेद में  बाबू लक्ष्मी प्रसाद मोजे, सत्यानन्द अग्निहोत्री और चंद कवि की कविताएं शामिल हैं.

किताब के अगले अध्याय में  वीर भारत तलवार ने औपनिवेशिक  भारत की  महान हस्ती सर सैयद अहमद खाँ के वैचारिक पक्ष के अंतर्विरोधों और द्वंद्व को बख़ूबी उजागर करते हुए, सन 1857 के विद्रोह के इतिहास लेखन के परिप्रेक्ष्य में उनकी भूमिकाओं को विश्लेषित किया है. उन्होंने इस आलोचनात्मक लेख के हवाले से सैयद अहमद से जुड़े विभिन्न विवादास्पद मुद्दों की अनसुलझी गुत्थियों को भी सुलझाने का प्रयास किया है.

करीब बावन पृष्ठों में फैला यह अध्याय सर सैयद अहमद के बग़ावत और वफ़ादारी के संकुचित और ढुलमुल  रवैया पर एक बहस तलब विमर्श को दिशा देता है. ध्यातव्य है कि  सैयद अहमद को औपनिवेशिक भारत के सार्वजनिक क्षेत्र में अंग्रेज़ो के वफ़ादर और सहयोगियों के तौर पर देखा जाता था. इसका संज्ञान वीर भारत तलवार ने भी लिया है. वह अपने अध्याय की शुरुआत ही इन शब्दों करते हैं कि,

“दुनिया जानती हैं कि सर सैयद अहमद खाँ अँग्रेजी राज के वफ़ादर आदमी थे. वे पहले  ईस्ट इंडिया कम्पनी के, फिर ब्रिटिश शासन के ख़ैरख़्वाह रहे.”

1857 के विद्रोह को इतिहासकार और साहित्य अध्येता विभिन्न स्रोतों, संदर्भों और नज़रिया से समझते आ रहे हैं. वीर भारत तलवार का मत है कि सर सैयद अहमद खाँ की ‘रिसाला-ए-असबाबे बग़ावत हिन्द’ किताब सन 1857 विद्रोह को समझने लिए न सिर्फ प्राथमिक दस्तावेज़ है बल्कि 1857 के विद्रोह और कारणों का व्यापक विश्लेषण करती है.

 

दो)

Syed_Ahmed_Khan

सन1857 के विद्रोह पर सैयद अहमद का नज़रिया क्या था? वीर भारत तलवार इसका गंभीर मूल्यांकन करते हैं. इस मूल्यांकन में उनकी खूबियाँ और कमजोरियाँ दोनों पर निष्पक्ष राय रखते हैं. मसलन, वह सर सैयद अहमद खाँ की इस बात के लिए तारीफ करते हैं कि  जिसमें उन्होंने 1875 विद्रोह के लिए हिंदुस्तानियों को दोषी न ठहराकर अँग्रेजी शासन की नीतियों को जिम्मेदार माना. और अंग्रेज़ो से वफ़ादारी रखने पर उनकी तीखा आलोचना कर उनके विचारों को दुविधाग्रस्त करार देते हैं. वीर भारत तलवार का दावा है कि उनकी वफ़ादारी अँग्रेज़ों और अपनी कौम अर्थात मुसलमानों के प्रति थी.  वह आगे के विवेचन में सर सैयद अहमद खाँ की इस बात से असहमति प्रकट करते हैं कि जिसमें उन्होंने अँग्रेज़ों को सुझाव दिया था कि हिन्दू और मुस्लिम फौजियों को अलग-अलग रखे जाए और जरूरत पड़ने पर एक दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल किया जाए. वीर भारत तलवार का मत है कि,

‘यह बिल्कुल चाणक्य या मैकियावेली जैसा दिया गया बेरहमी भरा सुझाव है. यहाँ सैयद निरे पेशेवर (प्रोफेशनल) वफ़ादर नज़र आते हैं जिसका राष्ट्र की भावना से कोई सम्बन्ध नहीं दिखता.’

वीर भारत तलवार अपने विवेचन में जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं, वैसे-वैसे  सैयद अहमद खाँ के व्यक्तित्व के विविध आयाम और वफ़ादारी के पहलू सामने आते हैं. वीर भारत तलवार का दावा कि ‘रिसाला-ए-असबाबे बग़ावत हिन्द’ के बाद उन्होंने ‘दी लॉयल मोहम्मडन ऑफ इंडिया’ किताब लिखी थी. इस किताब में सैयद अहमद खाँ मुसलमानों की छवि अँग्रेज़ों के सबसे सच्चे वफ़ादार के तौर पर पेश की. उनका कहना था कि वह मुसलमान ही थे, जब विद्रोह के समय अपनी जान जोखिम में डालकर अँग्रेज़ों की जान बचायी.

वीर भारत तलवार का मत है कि,

“काफी छान-बीन कर, तथ्यों को जमा कर सैयद ने साबित किया कि और किसी भी क़ौम की तुलना में मुसलमानों ने अंग्रेज़ों की सबसे ज़्यादा मदद की. उनके बीवी-बच्चों की जान बचायी और उन्हें सुरक्षित बाहर निकाला. इस तरह सैयद उस विद्रोह की तस्वीर का दूसरा, दबा हुआ पहलू सामने लेकर आये. दूसरी ओर सैयद ने अंग्रेजों के खिलाफ मुसलमानों के दिमाग़ में बैठी कुछ धारणाओं को दूर करने की कोशिश की.”

सैयद अहमद खाँ सामाजिक, धार्मिक और शैक्षिक सुधारक भी थे. प्रो. तलवार ने उनके द्वारा सार्वजनिक और शैक्षिक क्षेत्र में स्थापित संस्थाओं के योगदान को भी सामने रखा है. मसलन, सैयद अहमद खाँ  ने साइंटिफिक सोसाइटी, ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन और अलीगढ़ मोहम्मडन ओरियंटल कालेज जैसी संस्था की नींव रख शैक्षिक क्षेत्र में परिवर्तन की लहर पैदा कर दी. यही अलीगढ़ मोहम्मडन ओरियंटल कालेज आगे चलकर ‘अलीगढ़ विश्वविद्यालय’ के तौर पर विख्यात हुआ.

वीर भारत तलवार का मत है कि सैयद अहमद खाँ अलीगढ़ मोहम्मडन ओरियंटल कालेज की स्थापना के पीछे आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और शिक्षा प्रणाली से परिचित करने के साथ सरकारपरस्त पीढ़ियाँ तैयार करना चाहते थे, आगे चलकर सैयद का मकसद नाकाम हो गया. देखा जाए तो सैयद अहमद खाँ औपनिवेशिक समाज की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और वफ़ादारी जैसी रूढ़ियों के घाट पर जाकर अपने विचार-चिंतन को सृजित नहीं कर सके और वह अप्रासंगिक होते चले गए.

वीर भारत तलवार ने अपने विवेचन में ठीक ही लिखा है कि,

“सैयद अपनी पुरानी सीमाओं को तोड़ कर आगे नहीं निकल सके और इसीलिए उपनिवेशवाद विरोधी नये विचारों और आंदोलन के उभरने के साथ ही सैयद समय और समाज के लिए अप्रासंगिक होते चले गये.”

 

तीन)

किताब का अंतिम अध्याय हिंदी-उर्दू क्षेत्र में 1857 संग्राम के बाद आए बदलाओं और उनके असर पर केन्द्रित है. 1857 विद्रोह के बाद सबसे बड़ा बदलाव यह हुआ कि भारत से ईस्ट इंडिया कम्पनी की हुकूमत का खात्मा हो गया और भारत की सत्ता महारानी विक्टोरिया के हाथों आ गयी. 1857 के विद्रोह के बाद जो विक्टोरिया शासन की ओर से रणनीतियाँ बनायी गई, वह ब्रिटिश शासन और पूंजीपति वर्ग की जरूरतों का परिणाम थे, उन्हें सीधे तौर पर 1857 के विद्रोह से जोड़ा नहीं जा सकता है. वीर भारत तलवार का मत है कि उन्नीसवीं सदी के उत्त्तरार्द्ध में भारत में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्तर पर बहुत सारे बदलाव देखे गए पर यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है कि उन सभी बदलाओं का संबंध सीधे तौर पर 1857 के विद्रोह से था. मसलन, रेलवे का विकास.

वीर भारत तलवार की दलील  है कि रेल परियोजना का निर्माण 1857 विद्रोह का परिणाम नहीं थी. इसका आरंभ 1857 से पहले हो चुका था. लेखक की स्थापना है कि रेल परियोजना 1857 के विद्रोह कुचलने या नियंत्रित करने के लिए नहीं बल्कि  ब्रिटिश पूंजीवाद द्वारा भारतीय संसाधनों के आम दोहन और चुस्त प्रशासन की नज़र हुआ था. वह दूसरा उदाहरण सांस्कृतिक क्षेत्र से पेश करते हैं. ऐसा माना जाता है कि अंग्रेजों द्वारा भारतीय, रीति-रिवाजों, धर्म और सांस्कृतिक को ठीक से न समझना ही 1857 विद्रोह का एक बड़ा कारण रहा है. 1857 विद्रोह के बाद भारतीय रति-रिवाजों, धर्म, सांस्कृतिक को समझने और उसे व्यवस्थित ढंग से परिभाषित करने की परियोजना पर बल दिया गया. इस स्कीम के तहत पुरातत्व विभाग, जनगणना कार्यालय के साथ पाठ्यक्रम निर्माण की परियोजना को तरजीह दी गयी. इन परियोजनाओं का नतीजा यह हुआ कि  आधुनिक आर्य भाषाओं के गद्य पर से ब्रज भाषा का प्रभाव क्षीण हो गया.

वीर भारत तलवार का दावा है कि,

“ये सारे बदलाव कहीं न कहीं 1857 से भी जुड़े हुए थे, फिर भी इन बदलाओं को सीधे 1857 का परिणाम नहीं माना जा सकता है.”

यह सब कहने के पीछे उनका तर्क है कि,

“भारतीय धर्म, परम्पराओं, साहित्य और संस्कृति को समझने के प्रयास 1857 से काफी पहले से 18वीं सदी के आख़िरी दशकों से ही विलियम जोंस के नेतृत्व में शुरू हो चुके थे जिसमें 1794 में कायम एशियाटिक सोसायटी और 1800 ई. कायम फोर्ट विलियम कालेज ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी.”

वीर भारत तलवार की दृष्टि में पश्चिमोत्तर प्रांत के सार्वजनिक क्षेत्र में 1857 विद्रोह के बाद जो सीधे बदलाव और प्रभाव देखे गए, उनमें  फौज में सुधार, भूमि व्यवस्था में परिवर्तन, मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति, नवजागरण में रुकावट और शिक्षित वर्ग में परिवर्तन.

प्रो. तलवार ने  बदलाव के इन बिन्दुओं का  बड़ी गहनता के साथ विवेचन किया है. हिंदी आलोचकों और अध्येताओं की आम समझ है कि हिंदी नवजागरण की शुरुआत 1857 के विद्रोह से हुई है. ऐसा मानने वालों में आलोचक रामविलास  शर्मा प्रमुख हैं. इस मसले पर वीर भारत तलवार हिंदी आलोचकों और अध्येताओं से अपनी राय जुदा रखते हैं. वह नहीं मानते हैं कि 1857 विद्रोह की कोख से हिंदी-उर्दू क्षेत्र में नवजागरण का जन्म हुआ. उनकी स्पष्ट स्थापना हैं कि 1857 के विद्रोह ने  नवजागरण के रास्ते में रुकावटें और अड़चनें पैदा की. वीर भारत तलवार लिखते हैं कि,

‘रामविलास शर्मा की कृपा से हिन्दी के साहित्य जगत में एक आम धारणा फैली हुई है कि हिन्दी क्षेत्र में नवजागरण 1857 के संग्राम से शुरू हुआ. इतिहास के तथ्य इसके ठीक उलटे हैं. अगर नवजागरण से तात्पर्य बुद्धि-विवेकशीलता की कसौटी पर अपने धर्म और समाज को सुधारने के सांस्कृतिक आन्दोलन से है, तो 1857 के संग्राम से इस आन्दोलन में रुकावट पैदा हुई थी.’

Munshi_Nawal_Kishore

यह सब कहने के पीछे  उनकी अपनी दलीलें और तर्क हैं. मसलन प्रो. तलवार का दावा है कि सन 1827 से ही दिल्ली नवजागरण की चेतना का केंद्र बनने लगा था. यहाँ का देहली कॉलेज ज्ञान-विज्ञान और नयी विचारधाराओं का अड्डा बन गया था.  गणितज्ञ रामचन्द्र  इसी देहली कालेज के विद्यार्थियों में से एक थे. जिनकी सामाजिक और  सांस्कृतिक चेतना बहुत प्रखर थी. इन्होंने भारतीय रूढ़ियों और परम्पराओं का जमकर खंडन किया.

रामचंद्र की यह मुहिम हिंदूओं की रास नहीं आयी. हिंदूओं की ओर से उनका विरोध किया जाने लगा. इन बातों से तंग आकर रामचंद्र हिन्दू धर्म को त्याग कर ईसाई  हो गए. उनके साथी  चमन लाल ने भी हिन्दू धर्म छोड़कर  ईसाई धर्म अपना लिया. इसके बाद रामचन्द्र ने अपने अपनों विचारों को धार देने के लिए अपने विद्यार्थियों के साथ मिलकर एक पत्रिका निकली. इसके हवाले से वह हिन्दू धर्म की रूढ़ियों और अंध विश्वासों पर प्रहार करते रहे. जिसके चलते उनका विरोध व्यापक तौर पर होने लगा. वीर भारत तलवार लिखते हैं कि,

“जाहिर है कि ऐसे प्रयासों के कारण पारम्परिक समाज का रामचन्द्र से विरोधभाव बढ़ता गया. इसी बीच 1857 का संग्राम छिड़ा. स्थानीय विद्रोहियों ने अंग्रेजों के साथ-साथ भारतीय ईसाइयों पर भी हमले किये. इन्हीं हमलों में डॉ. चमनलाल मारे गये. रामचन्द्र किसी तरह जान बचकर भाग निकले. दिल्ली में हिन्दू या मुसलमान, जो भी पारम्परिक धर्म और रूढ़ियों की आलोचना करता था, 1857 के दौरान उसे सन्देह और शत्रुता की नज़र से देखा गया. उस माहौल में अपनी जान बचाने के लिए देहली कॉलेज से जुड़े हुए बहुतेरे प्रतिभाशाली युवक और विद्वान, जो नयी चेतना और नये ज्ञान के प्रचारक थे, दिल्ली छोड़कर भागने के लिए मजबूर हुए. इस तरह दिल्ली में हो रहे नवजागरण के आन्दोलन का अन्त हो गया.”

पश्चिमोत्तर प्रांत में 1857 संग्राम के तुरंत बाद में नवलकिशोर प्रेस का स्थापित होना एक बड़ी परिघटना थी.  सन 1858 में मुंशी नवलकिशोर ने  नवलकिशोर प्रेस की स्थापना लखनऊ में की थी. औपनिवेशिक भारत में स्थापित इस छापाखाने ने हिन्दी-उर्दू की किताबों के साथ पाठ्यक्रम की पुस्तकें छापने में क्रांति ला दी थी. देखा गया 1857 संग्राम के प्रभाव और बदलाव की चर्चा करने वाले विद्वान अक्सर नवल किशोर प्रेस को दरकिनार कर देते हैं. यह ताज्जुब वाली बात है कि वीर भरत तलवार से भी इसका जिक्र छूट गया है.

यह किताब उन्नीसवीं सदी के नवजागरणकालीन साहित्यिक और राजनीतिक अग्रदूतों के बौद्धिक विचार के साथ विक्टोरिया शासन के दौर में बग़ावत और वफ़ादारी की निर्मितियों के एक महत्वपूर्ण हिस्से को समझने के लिए जरूरी लगती है. हालांकि, विक्टोरिया शासन से हिंदी नवजागरण कालीन लेखकों की नजदीकियों और वफ़ादारी पर और नजदीकी से प्रकाश डाला जा सकता था. इस किताब में औपनिवेशिक भाषाई आंदोलन की छिटपुट छवियाँ भी उभरी हैं. यह छवियाँ इस बात की तसदीक करती हैं कि इस्लाम की तरह हिन्दू धर्म की एक भाषा बन रही थी. वीर भारत तलवार ने इस किताब के हवाले से नवजागरण कालीन और 1857 संग्राम की अवधारणाओं से संबंधित तमाम संशय और शंकाओं का माकूल जवाब देकर नवजागरण कालीन साहित्यिक अग्रदूतों के विचारों से संबंधित एक नया नज़रिया पेश किया है.

इस समीक्ष्य कृति को पढ़ने के दौरान कुछ सवाल भी उभरते हैं. मसलन, पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी के दलित विरोधी विचारों को मुखरता से पेश नहीं करना, अस्मितावादी विमर्शकारों को थोड़ा हैरान जरूर कर सकता है.

यह सही बात है कि राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द ने इतिहास, भूगोल और विज्ञान की पाठ्यक्रम पुस्तकों में निखरा हुआ गद्य लिखा. इस सिलसिले में राजा शिवप्रसाद के समकालीन नवीनचंद्र राय की भूगोल, विज्ञान और पदार्थ विषय पर आधारित ‘स्थितितत्व और गतितत्व’ (1882) लक्ष्मी सरस्वती संवाद’(1881) जैसी पुस्तकों का गद्य भी देखा जाना चाहिए.

इस किताब में कुछ तकनीकी चूकें भी नज़र आती हैं. जैसे कि बाबू महेश नारायण की कविता ‘स्वप्न’ का प्रकाशन वर्ष 1882 बताया गया है जबकि ‘खड़ी बोली का पद्य’ संकलन में इसका प्रकाशन वर्ष 1881 दर्ज है. हालांकि इससे इस किताब की उपयोगिता और महत्व पर कोई असर नहीं पड़ता है. अपने अनूठे विषय-विवेचन और गंभीर शोध दृष्टि के चलते यह पुस्तक औपनिवेशिक नागरिक समाज और हिन्दी नवजागरण कालीन अग्रदूतों के अंतर-विरोधों को समझने के लिए शोध अध्येताओं, हिंदी आलोचकों और विद्वानों के लिए बहुत उपयोगी है.

यह पुस्तक यहाँ से प्राप्त करें.


सुरेश कुमार ने लखनऊ युनिवर्सिटी से पीएचडी की है और इलाहाबाद में रहते हैं.
Suresh9kemar86@gmail.com
Tags: 20242024 आलोचनाअयोध्या प्रसाद खत्रीबग़ावत और वफ़ादारी : नवजागरण के इर्द -गिर्दवीर भारत तलवारशिव प्रसाद सितारे हिन्दश्रद्धाराम फिल्लौरीसनातनसुरेश कुमारसैयद अहमद खाँ
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Comments 3

  1. Rupa Gupta says:
    12 months ago

    रामविलास जी के कारण यह धारणा कतई नहीं फैली है , क्योंकि किसी भी जागरण- नवजागरण की कोई एक निश्चित तिथि नहीं दी जा सकती, वह एक प्रक्रिया है और इसे रामविलास जी से बढ़िया किसी और ने समझाया भी नहीं है, इसलिए रामविलास जी एक अत्यन्त परिवर्तनकारी और संभावनापूर्ण घटनाक्रम चुनते हैं।अन्यथा रामविलास जी ने फोर्ट विलियम कॉलेज के महत्त्व पर न लिखा होता।असल में रामविलास जी का फलक इतना बड़ा है कि उन्हें बिना पढ़े किसी और की बात पर उन पर निर्णय देना स्वाभाविक लगता है। रामविलास जी ने सन 57 की क्रांति को नवजागरण की ‘ बर्थ डेट’ के हिसाब से घोषित नहीं किया है।

    Reply
  2. Faqir jay says:
    12 months ago

    लेखक की समझ की इसी से पता चलता है कि जो श्रद्धाराम कर रहे थे उसे जागरण कह रहा है?जब ब्राह्मणवाद जागरण है तो हिन्दू यथा स्थितिवाद और पिछड़ापन क्या है?जागरण आखिर है क्या ? धर्म के खिलाफ सेक्युलर आदर्शो के आंदोलन को पश्चिम में जागरण कहा गया (हालांकि यह भी गलत अनुवाद है ।रेनेसां का सही अनुवाद पुनर्जन्म होना चाहिए। लेकिन देवी जागरण में लिप्त सवर्ण हिंदुओ ने आत्मकेंद्रीकता के कारण इसका अनुवाद जागरण या पुनर्जागरण किया)लेकिन सवर्ण हिंदुओ ने ब्राह्मणवाद के पुनरुत्थान को ही जागरण बता दिया।

    Reply
  3. Chandra Bhushan says:
    12 months ago

    किताब का क्रक्स रामविलास शर्मा नहीं हैं, न ही वे इस समीक्षा का केंद्रबिंदु हैं। उनपर कचकच क्यों करनी? कई जरूरी बातें निकल कर आ रही हैं, जिनपर चर्चा होनी चाहिए। नवजागरण जैसी किसी चीज को भक्ति आंदोलन से शुरू मानें या 1857 से, लेकिन यह आखिर कैसा जागरण था जो जातिभेद और वर्ण व्यवस्था की पूंछ पकड़े हुए वेद तक चला जाता था लेकिन इन मनुष्य विरोधी व्यवस्थाओं को खारिज करने वाली सिक्खी और नाथपंथ की तरफ मुंह फेर कर भी नहीं देखता था? बुद्ध का तो यह नाम भी न खोज पाया। मुझे तो लगता है, यह पहले अकबर, फिर विक्टोरिया राज द्वारा प्रायोजित कोई अतीतोन्मुख भ्रम था, जिसकी अभिव्यक्ति तुलसी से लेकर फिल्लौरी और करपात्री तक हो रही थी।

    Reply

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