‘मौज आएगी तो सारे जहाँ की करूंगा सैर’ दिव्यानन्द |
बस को चले आधे घंटे भर भी नहीं हुआ होगा कि रंजना अड़गड़े मैम को प्यास लगी. किसी के पास पानी नहीं था. वो बोलीं, पता चले कि पास में पानी नहीं है तो और प्यास लगती है. मेरे बगल वाली सीट पर बैठा विहाग कहता है, अभाव का प्रभाव होता है मैम! लेखक और कवि दोनों की टिप्पणी किसी सूक्ति जैसी लगी. एक साधारण-सी बात में विचार का आलोक और काव्य की ऊष्मा ! कवियों, लेखकों की दुनिया में साधारण जैसी कोई बात नहीं रह जाती. हर शै, बात को उसके अन्तिम और तात्विक रूप में देखने की तरतीब की जाती है. यह सब हमें व्यापक बनाता है. सुख देने वाला होता है. लेकिन यह भी सच है कि कई मर्तबा ये बहुत खोखला और फालतू-सा जान पड़ता है. शक़ होता है कि हर समय की गम्भीरता कितनी असली होगी !
‘चरथ भिक्खवे’ यात्रा 15 अक्टूबर 2024 को सारनाथ से शुरू हुई. मैं इसमें 17 अक्टूबर की सुबह पटने से शामिल हुआ; इसलिए इन्दराज, शामिल होने की तारीख़ के एक दिन पहले से है. यह सफ़ाई इसलिए कि इसी यात्रा डायरी की चार रोचक क़िस्ते डॉ. रमाशंकर सिंह लिख चुके हैं. और मैं कुछ भी ऐसा लिखने से बचूंगा जिसमें यात्रा के तकनीकी विवरण का दोहराव हो. यात्रा-दल में शामिल होने 16 की शाम को भागलपुर से निकला और एक दोस्त की दोस्त के यहाँ रुका. दोस्त की दोस्त ने अहसास कराया कि उनसे बरसों से वाक़िफ़ हूँ. हम साथ में दो लोग थे. हमने वहाँ पहुँचकर उनकी जिम्मेदारियों को बढ़ा दिया. अपनी बूढ़ी माँ, छोटी बच्ची, परिवार और अपनी कामकाजी दुनिया के बाद भी हमारे लिए जगह बनाती और निकालती हुई वो देर रात तक जगी रहीं और अहले सुबह जब सब सोए थे, वो दिन के इन्तिज़ाम में घिरनी बनी हुई थीं. यह भी हुआ कि उनके ही घर से हम देर से निकले और हमारे लिए सारी सहूलतों को जुटाकर वे अपने काम की जगह हमसे पहले निकल गयीं. मैं तो उनके दोस्त का दोस्त था और ऐसी मेज़बानी पाकर मैंने माना कि दुनिया में दोस्तों का सिक्का चलता है.
अभी हमारा दल केसरिया में रुका हुआ है. शाम के साढ़े चार बजने जा रहे हैं और आज यही हमारा लंच टाइम है. यात्राओं में ऐसा होता है. कुछ लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं क्योंकि उनका टाइम मैच नहीं कर रहा होता. घर छोड़ने पर भी ज़्यादातर घर को छोड़ नहीं पाते. सफ़र में उनके कंधे पर बैग नहीं घर टंगा होता है. उन्हें बाहर भी वही सुविधाएं और सब कुछ वैसा ही चाहिए होता है जबकि सफ़र एक तालमेल है जो हम घर और बाहर के बीच बनाते हैं. इस अमल की आदत धीरे-धीरे पड़ती है.
केसरिया में बौद्ध स्तूप है. कहना चाहिए कि विशाल स्तूप है. इसका व्यास ही 100 मीटर से ज़्यादा है. छह तलों से ज़्यादा में यह स्तूप बना हुआ है. इसके आसपास अभी भी खुदाई की सम्भावना बनी हुई है. इस स्तूप की खुदाई 1861 ई. में शुरू हुई. खुदाई के पहले यह एक ऊंचे, गोल टीले जैसी आकृति थी जिस पर जंगल उगे हुए थे. स्तूप का एक हिस्सा अभी भी बिना खुदाई के पड़ा हुआ है. उसको देखकर इसके ऐतिहासिक रूप का पता चलता है. स्तूप एक साथ वर्तमान और अतीत के घेरे को समेटे हुए जीवंत लगता है. स्तूप के तल में एक तरफ़ छोटा-सा मन्दिर है. वहाँ ताला पड़ा हुआ था. मन्दिर के पास ही एक विशाल और बेहद पुराना बरगद का पेड़ है. उसकी असंख्य जटाएँ धरती को तकती-सी जान पड़ती हैं. कई तो धरती में समा गयी हैं.
स्तूप के घेरे में घूमते हुए जब हम लगभग अन्त की ओर आए तो देखा एक लड़के और लड़की को होमगार्ड के दो जवानों ने घेर रखा है. वहीं दो और लड़के हैं जो शायद स्थानीय ‘जुवा’ नेता हैं. सब घेरकर उस कपल्स से पूछताछ कर रहे हैं. वे दोनों वहाँ किसी कोने में, आड़ी-तिरछी जगह पर अपने एकान्त को जीने की कोशिश में इनके हाथ लग गए हैं. होमगार्ड को पैसा चाहिए. स्थानीय जुवा नेता को अपने प्रभाव की परीक्षा करनी है और शायद पैसे में शेयर भी खाना है. यह सब उसी स्तूप के तले घट रहा था. प्रेमियों को एकान्त चाहिए लेकिन ऐसी जगहों पर एकान्त खोजना एक तरह की हताशा है. यहाँ की सरकार और व्यवस्था ने भी इसे निषिद्ध कर रखा है. कुछ देर बाद वे मुख्य मार्ग पर आए और टुकटुक पर सवार होकर अन्यत्र कहीं एकान्त की खोज में गुम हो गए. हम सब भी केसरिया से निकल कर बुद्ध के महापरिनिर्वाण स्थल कुशीनगर पहुंचे.
कुशीनगर में उत्तर प्रदेश के पर्यटन विभाग का शानदार अतिथि गृह है. इसकी संरचना में बौद्ध स्थापत्य का पुट है. कुशीनगर का वो इलाक़ा जो बुद्ध परिपथ में आता है; सफ़ाई, व्यवस्था और नगर संयोजन के लिहाज़ से बहुत सुन्दर है. हम इसके पुराने बाज़ार को नहीं देख पाए. यहीं के शाल वन में बुद्ध ने अन्तिम सांस ली थी. एक सरोवर के किनारे उनके महापरिनिर्वाण स्थल पर एक मन्दिर जैसी औसत आकार की कोठरी है. उस कोठरी की चौखट के क़रीब देर तक मैं टिका रहा. बुद्ध के महापरिनिर्वाण और मेरे दरम्यान ढाई हज़ार साल का तवील वक़्फ़ा था लेकिन उसी समय हमारा दिक् (Space) एक था. काल और दिक् के ऐसे उलझे युग्म से मुझे लगता रहा कि आज में होकर मैं कल को ऐसे देख रहा हूँ जैसे नीम बेहोशी के हाल में कोई जीवन के बिखरे और छूटे हुए हिस्से को रह-रहकर देख रहा हो ! पुल के बीच में होकर पुल के दोनों छोरों को देखना कैसा होता है ? शायद समय का बहाव कुछ देर के लिए हमारी चेतना से छिटक गया था. और यह मेरा अकेले का अनुभव नहीं था. मैंने अपने साथियों के चेहरे पर हैरानी, विषाद, श्रद्धा के मिले-जुले रंग को देखा.
हम वहाँ से धीरे-धीरे और चुप-चुप उस जगह के लिए निकलने लगे जहाँ बुद्ध का अन्तिम संस्कार सम्पन्न हुआ था. महापरिनिर्वाण स्थल के ठीक बगल में हमने ‘अज्ञेय स्मृति उपवन’ को देखा जहाँ 07 मार्च 1911 को अज्ञेय का जन्म पुरातत्व विभाग के कैम्प में हुआ था. वहाँ उनके पिता और पुरातत्व विभाग के आला अधिकारी हीरानन्द शास्त्री बौद्ध स्थलों के उत्खनन में लगे हुए थे. मुझे यह तो ध्यान में था कि अज्ञेय का जन्म कुशीनगर में हुआ है लेकिन यह नहीं पता था कि उनका जन्म स्थान बुद्ध के महापरिनिर्वाण स्थल के ठीक बगल में है. यह तथ्य किसी किताब में पढ़कर मुझे वैसा विस्मय नहीं होता जैसा उस सुबह दोनों जगहों को आसपास देख कर हुआ था. हमारी चुप्पी और गाढ़ी हो गयी. यह चुप्पी साथी पत्रकार मनोज सिंह की बातों से टूटती जो हमें रास्ते में पड़ने वाले अन्यान्य देशों के बौद्ध मन्दिरों के बारे में बताते चले जा रहे थे. बुद्ध और उनके जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्थलों के बारे में उनका ज्ञान साधिकार था. वो हमें इतिहास के बीहड़ में ले जाते और फिर आज की प्रान्तीय, केन्द्रीय और विदेशी सरकारों की वर्तमान नीतियों और योजनाओं की जानकारी के मार्फ़त वर्तमान में खींच लाते. हमारे गाइड के रूप में उनका पेशेवर सहाफ़ी व्यक्तित्व बार-बार उभर जाता और हमें इससे आश्वस्ति मिलती. मनोज जी के गाँव का नाम मुझे याद रह गया : ‘ठूठीबारी’. यह भारत-नेपाल बॉर्डर का एक सीमान्त गाँव है. गाँव के नाम के पीछे की कहानी उन्हें बतानी थी. वे बताना और हम पूछना भूल गए. अच्छा ही हुआ. कुछ कहानियाँ बची रह जानी चाहिए.
जहाँ बुद्ध का अन्तिम संस्कार हुआ था, वो स्तूप ऐतिहासिक हिरण्यवती नदी के तट पर है. लेकिन अब वो नदी नहीं किसी नहर की तरह दिखी जिसके दोनों पाटों को सीमेंटेड कर दिया गया है. कोलकाता के हमारे साथी आनन्द रूप नदी का ये हाल देखकर विषाद से भर गए. नदी के जैविक रूप का यह नाश विरासत के साथ धोखे जैसा है. इस नदी का उद्गम कुशीनगर जनपद के नेबुआ-नौरंगिया में है और बुद्ध के समय इसी नदी के तट पर मल्ल गणराज्य की राजधानी कुसीनारा स्थित थी. नदी के नामकरण के सम्बन्ध में दो मत बताए जाते हैं. पहला कि इस नदी के दोनों किनारों पर घने वन हुआ करते थे और उनमें हिरणों की बसावट बहुतायत में थी और दूसरा कि इस नदी के बालू में स्वर्ण कण पाए जाते थे. अब कारण जो हो लेकिन नदी के नाम ने मुझे मोह लिया था- हिरण्यवती ! कितनी ही बार मैं मन-ही-मन इस नाम को दुहराता रहा; लगा जैसे कोई स्वाद मिल रहा हो !
इसके बाद वहीं कुशीनगर में हमने बुद्ध की वह विश्व प्रसिद्ध प्रतिमा देखी जिसमें वे लेटे हुए हैं और अलग-अलग कोण से उनकी मुख-भंगिमा भिन्न-भिन्न दिखाई देती है. मैंने प्रतिमा के कई चक्कर लगाए. यहाँ से देखा. वहाँ से देखा. लेकिन उनकी भंगिमा-विविधता को नहीं देख पाया. फिर मैंने शाही गुरु (सर की जगह उन्हें गुरु कहना ही ठीक लग रहा है) की मदद ली. उन्होंने कन्धे पर हाथ रख मुझे उन ठिकानों पर ला खड़ा किया और शाइस्तगी से बोले, ‘यहाँ से देखो’ ! जो नहीं दिख रहा था, अब दिखने लगा. बाद में समोखन की तरह उन्होंने कहा- इसी दृश्य-विन्यास पर पंकज चतुर्वेदी की कविता है; उसे पढ़ना. शाही गुरु ने मुझे स्नातक के दिनों में काशी में पढ़ाया है. कम दिनों तक पढ़ाया लेकिन पढ़ाया है. उन दिनों वे दाढ़ी रखा करते थे और अपने हुलिए से किसी दक्षिण भारतीय प्रौढ़ अभिनेता की तरह लगते थे. हो-हल्ले से परे आरोह-अवरोह में घुली मीठी आवाज़ स्नातक की कक्षा के बाद फिर मैंने इसी यात्रा में सुनी. वे लगातार अलग-अलग शहरों में यात्रा की व्यवस्था में लगे रहे और उनका एक हाथ हमेशा कान से सटा रहा. बेचैनी, चिन्ता, हड़बड़ी, गुस्सा- ये ऐसे भाव हैं जो किसी मामूली एक-दो दिनी कार्यक्रम में व्यवस्थापक के चेहरे से टपकने लगते हैं लेकिन इस लम्बे सचल कार्यक्रम में किसी ने भी शाही गुरु को ऐसे किसी हाल में नहीं देखा. तब भी नहीं जब नेपाल-भारत बॉर्डर पर हमारी गाड़ी को भारत में उस रास्ते प्रवेश करने से रोक दिया गया. हमारा रूकना क़रीब दो घंटे का रहा. इस दरम्यान हमें नहीं मालूम था कि अब आगे क्या होगा ! उस समय भी मैंने उन्हें शान्त, निश्चल और बेचैनी से परे देखा. प्रो. रामसुधार सर और शाही सर के प्रयास से हमारा रुका हुआ कारवां वहाँ से आगे बढ़ गया और हमने वैसा ही अनुभव किया जैसे बच्चे खेल में अपनी टीम के जीत जाने पर महसूस करते हैं. तो तरह-तरह की दुश्वारियां पेश आयीं लेकिन शाही गुरु मलंग बने रहे.
कुशीनगर के बाद हमारा कारवां लुम्बिनी के लिए रवाना हुआ. लम्बा और थकाऊ रास्ता ! कुछ यात्रियों को बीच में ‘बस लग गयी’. सना और अंशु यात्रा में कई भूमिकाओं में थीं. और ऐसे समय में उन्होंने फिर किसी दक्ष नर्स की तरह ज़रूरतमन्दों को दवाइयां दी और नुस्खे बांटे. अधिकांश को लाभ हुआ और जिन्हें नहीं हुआ उनकी उन्होंने क़ायदे से काउंसलिंग की. सना और अंशुप्रिया यात्रा-व्यवस्था में शाही गुरु की अतिरिक्त आँखें और हाथ थीं- सजग और जवाबदेह ! बीच यात्रा में शाही गुरु को हमसे अलग होना पड़ा था. उस दरम्यान रामसुधार सर, प्रकाश उदय सर और सना-अंशुप्रिया ही सफ़र के कम्पास, सारथी, संरक्षक सब कुछ थे. सना ने पूरी यात्रा को डिजिटली डॉक्यूमेंटेड किया. इसमें उन्हें सुनील और नीतीश की भी मदद मिली. अंशुप्रिया कवयित्री हैं. कुशल संचालक और सौन्दर्य बोध की गुणी.
लुम्बिनी में हमने ओशो आश्रम में ठिकाना किया. विशाल, हरा-भरा, आबादी से दूर नेपाल के रुपन्देही जिले का ओशो आश्रम ! रुपन्देही जिले का मुख्यालय भैरहवा में है. भैरहवा की प्रतिष्ठा भारत के साथ तराई के महत्वपूर्ण वाणिज्यिक केन्द्र और लुम्बिनी के लिए प्रवेशद्वार के कारण है. आश्रम वीरान-सा था. हमारे अलावा उस समय वहाँ और कोई दल नहीं था. खाने के बाद हम आश्रम की पथरीली पगडंडी पर टहलने निकले. हमने पाया कि सर्पराज की हवाखोरी का भी यही वक़्त है. कवि-सम्पादक नरेन्द्र पुंडरिक की भेंट तीन साँपों से हुई. हम उनके पीछे थे. लौटते हुए उन्होंने हमें आगाह किया. एहतियात में हमने अपना चक्कर छोटा कर लिया. मेरे साथ रूपेश थे. उन्होंने मोबाइल-टॉर्च जला ली. अब हम साँपों के बारे में बातें कर रहे थे. लेकिन इस तरह सर्पराज को खुलेआम भड़काना हमें उचित नहीं लगा. सो, आकर बिस्तर से लग गए. इस यात्रा में हमारे साथ कुछ नयी बातें हुईं. मसलन, समय से भले आदमी की तरह सो जाना. सूर्योदय के साथ जग जाना या जगने की चेष्टा करना. और सुबह जग जाने पर दिन भर सबसे पूछते रहना- “वैसे आप कब जगे थे ?” ज़ोर की भूख लगे तभी खाना; ये नहीं कि बकरी की तरह हर तरफ़ की पत्तियों को चरे जा रहे हैं. कम बोलना. ज़्यादा बोलने वालों के सामने नहीं पड़ना. लेकिन सना के सामने तो आना पड़ता था. नहीं आता तो भारी-भरकम कैप्शन वाली फ़ोटो कहाँ से आती ! तो सना वाजिब मज़बूरी थी.
लुम्बिनी ! बुद्ध का जन्म स्थान. पुनः मनोज जी ने बताया कि अभी जो यहाँ का नज़ारा देख रहे हैं वो ‘प्रचण्ड’ के कार्यकाल का करिश्मा है. उसके पहले ये पूरा इलाक़ा खुला-खुला था. चारों ओर गाँव बसे थे. उनके समय में विकास प्राधिकरण बनाकर भूमि अधिग्रहण, सुदीर्घ चारदीवारी और नए-नए निर्माण शुरू किए गए. उन्होंने बताया कि पहले यहाँ नेपाल के लोग आकर विवाह करते थे. एक ऐसे ही दोस्त के विवाह में शामिल होने की बात उन्होंने बतायी. बुद्ध के जन्मस्थान को देखकर फिर वही कैफ़ियत तारी हुई जो उनके महापरिनिर्वाण स्थल को देखकर हुई थी. लेकिन यहाँ ज़्यादा वक़्त तक ठहर नहीं पाया. पीछे और पर्यटकों की लाइन थी जिसमें देशी-विदेशी दोनों थे. महापरिनिर्वाण स्थल पर कोई ख़ास भीड़ नहीं थी और वहाँ की व्यवस्था लुम्बिनी की तरह चाक-चौबन्द नहीं थी. जन्मस्थान से निकल एक अश्वत्थ के नीचे हमारी काव्य गोष्ठी जम गयी. मेरा भी मन हुआ कि कुछ कविताएँ पढूं लेकिन पढ़ने वाले कम न थे तो लगा कि सुना ही जाए ! इस पूरी यात्रा में कुछ नए कवियों से भेंट हुई. रंजना अड़गड़े जी, विशाल जी, रघुवंशमणि जी और शैलेन्द्र प्रताप सिंह जी. रंजना जी की ‘कवियों के कवि : शमशेर’ पढ़ी थी. कविता सुनी न पढ़ी थी. शैलेन्द्र जी को भी पहली दफ़ा सुना. और यहाँ लुम्बिनी में उन्होंने एक बाक़माल कविता पढ़ी जिसमें उनके भाव की ज़िद थी और बुद्ध के कुछ विचारों का प्रत्याख्यान था. यह मुझे इसलिए भी ख़ास लगी क्योंकि इस पूरी यात्रा में शैलेन्द्र जी वाहिद कवि या वक्ता थे जिन्होंने इशारे में ही सही बुद्ध के कुछ विचारों को सीमांकित करने का प्रयास किया. बुद्ध महान हैं; इसमें किसे शक़ है लेकिन महानता के भी कुछ छोर होते हैं. हमें वो भी समझना है. और युगीन आवश्यकतों के दबाव के परे जाकर भी समझना है. उनकी कविता की एक उँगली इसी ओर उठी थी.
कपिलवस्तु के बाद हमारा पड़ाव हुआ श्रावस्ती में. यहाँ हमने दो दिन व्यतीत किए. बुद्ध यहीं के जेतवन में 24 वर्षावासों तक ठहरे. उनकी देशना का अधिकांश यहीं कहा गया. यहाँ उन्हें अनाथपिण्डक जैसा शिष्य मिला ; जिसने उनके लिए विशाल विहार का निर्माण करवाया. अंगुलीमाल ध्यान कर सके उसके लिए गुफा का निर्माण भी इसी अनाथपिण्डक ने करवाया. हमने यहाँ जेतवन, अंगुलीमाल की गुफा, अनाथपिण्डक की हवेली और थाई मन्दिर का भ्रमण किया. थाई मन्दिर का संचालन थाई साधिकाओं के हाथ में है. यह मन्दिर जिस बियाबान में है; उसे देखकर हम सभी को हैरानी हुई. ऐसी ही हैरानी बुद्ध की विशालतम और सुनहली मूर्ति को देखकर हुई. इस मन्दिर को देखने का अनुभव सबसे अलग रहा. हमें लगा कि यह किसी मन्दिर से ज़्यादा सैन्य छावनी का भ्रमण है. इस दर्शन में दो और दल थे. एक तेलंगाना का यात्री दल था और दूसरा स्थानीय समूह था. श्रावस्ती में सबसे ज़्यादा आनन्द जेतवन में आया- शान्ति, हरियाली, विस्तार, एकान्त, बुद्ध की उपस्थिति की सघन अनुभूति हुई. बराबर ध्यान में बना रहा कि यहाँ पर बुद्ध 24 वर्षावास तक रहे हैं. यहाँ उनकी देशना का बड़ा हिस्सा कहा गया है.
22 की सुबह हम साढ़े आठ बजे के क़रीब कोरिया टैम्पल से निकले. टैम्पल के बीच में धान के खेत थे. पीछे एक बड़ा तालाब. हरियाली चारों ओर से नेमतों की तरह हमारी ओर झुकी हुई थीं. कोरिया टैम्पल में मुझे जो कमरा अलॉट हुआ, उसका नम्बर था 108. पढ़ाई के दरम्यान किसी मरहले पर यह मेरा रोल नम्बर हुआ करता था. मैं इस नम्बर को देख जरा भी भावुक नहीं हुआ. हाँ! पीछे की स्मृति हुई. और ऐसी स्मृति जिसे मैं आइंदा भूल जाना चाहता हूं. जीवन में सब कुछ याद रखने लायक नहीं होता.
निकलने के क़रीब 15 मिनट बाद ही बोर्ड दिखा- बलरामपुर : 04 किलोमीटर. मुझे ‘नंगातलाई का गाँव’ याद आया. बलरामपुर में रसगुल्ले खाते हुए फ़िल्म देखने वाले ‘बिसनाथ’ याद आए. आगे एक गाँव का साइन बोर्ड लगा था : दुल्हनपुर. आहा ! प्यार और दिलचस्प! बोलते हुए लोग बोलते होंगे, दुल्हिनपुर. बस अभी जिला गोण्डा से गुज़र रही है. हमारी ओर किसी शैतान बच्चे के परिचय में यह शब्द अन्त में टांक दिया जाता है, “कि क्या कहूं ! पढ़ेगा-लिखेगा ख़ाक, एकदम गोण्डा है.” मेरे गाँव के मदन बाबू की यह प्रिय गाली है. किसी पर प्यार दिखाना हो या गुस्सा ज़ाहिर करना हो; उनका पहला शब्द यही होता है. वो एक और गाली देते हैं लेकिन उसे यहाँ नहीं लिखूंगा. गोण्डा जिले में गाँव के नाम न्यारे हैं : कंचनपुर, बगाही, पाण्डेय पुरवा, बाबक पुरवा, भट पुरवा, तेलियानी, नाथ नगर आदि.
नामकरण में जाति, जीविका की गहरी भूमिका है. कोरिया मन्दिर, श्रावस्ती से चलने के बाद हमारा पहला पड़ाव गोण्डा जिले के क़स्बे इटियाथोक में था. इटियाथोक में उत्तर प्रदेश सहकारी ग्राम विकास बैंक के ठीक गिर्द में मिठाई की एक मशहूर दुकान है- ‘शुक्ला दहीबाड़ा एण्ड स्वीट्स’. आह! यहाँ के दहीबड़े! कितनी जगहों पर दहीबड़े का स्वाद लिया है, याद नहीं लेकिन ऐसे दहीबड़े से अब तलक भेंट नहीं हुई थी- बनारसी पान की तरह घुलने वाले मुलायम दहीबड़े ! मामूली ठोसपन लिए, मसालों के ओवरडोज से मुक्त, खट्टी-मीठी दही में डूबे दहीबड़े ! इन्होंने मेरा मन हर लिया. मैंने दो प्लेटें टिका दीं. भूख मिट गयी, तृष्णा जगी रही.
इसके बाद हम दोपहर में लोलपुर, साकेत…अयोध्या… फ़ैज़ाबाद पहुंचे. भगवान राम, पांच जैन तीर्थंकर, बुद्ध की शिष्या विशाखा, अश्वघोष, नवाब शुजाउद्दौला, 1857 की क्रान्ति के एक नायक मौलवी अहमदुल्लाह शाह, क्रान्तिकारी अशफ़ाक़ उल्ला खां की धरती : साकेत…अयोध्या… फ़ैज़ाबाद ! क्या ही संयोग है कि 22 अक्टूबर को अशफ़ाक़ उल्ला खां का जन्मदिन है और हम भारत के नगर-नगर से आए लोग उनकी ही धरती पर हैं. हालांकि उनका जन्म स्थान शाहजहाँपुर है. 27 साल की उमर में उन्हें इसी फ़ैजाबाद में शहादत नसीब हुई.
अब यहाँ जनवादी लेखक संघ, शहीद भगत सिंह स्मृति न्यास एवं अयोध्या-फ़ैज़ाबाद के साहित्यिक-सांस्कृतिक समाज के बैनर तले गंगाजली रसोई में बैठक चल रही है. गंगाजली रसोई राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 27 से लगा हुआ एक ढाबा है जिसके मालिक अवधी भाषा के समादृत कवि हैं. कवि और व्यवसायी का युग्म किसी विपर्यय जैसा लगता है लेकिन ये चीज़ मुझे कभी-कभी सशक्तिकरण जैसी लगती है. कविता भी करो, कुछ जनों को रोज़गार दो और लाभ भी कमाओ. लोग कहेंगे कि यह तो निहायत दुनियादारी वाली बात हुई. हाँ ! ऐसा ही है. मैं कविता या कवि को ग़ैबी नहीं समझता. व्यवसायी कवि कैसे हो सकता है ? अति में जाकर ऐसे सोचने से ज़्यादा मुझे यह सोचना सही लगता है कि उनका भी गुज़ारा कविता के बिना नहीं हो सकता. कविता के बिना मनुष्य का गुज़ारा सम्भव नहीं. और एक पेशेवर हर पहर पेशेवर नहीं रहता.
यहाँ की गोष्ठी में प्रो. रघुवंशमणि त्रिपाठी की बातें सलीकेदार लगीं. ये कवि भी हैं. इनकी एक कविता-पंक्ति जो मैंने जेतवन में सुनी थी बार-बार याद आती है : “आदमी को अच्छा होना चाहिए न बुरा होना चाहिए.”
उन्होंने जो कुछ कहा उसके कुछ टुकड़े मैं यहाँ दे रहा हूं :
I गौतम बुद्ध का जीवन यात्राओं से ही शुरू होता है. जल सम्बन्धी विवाद के कारण युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गयी थी और इसी कारण बुद्ध ने कुशीनगर को छोड़ दिया था.
II यह पूछे जाने पर कि तृष्णा की नदी को आपने कैसे पार किया; बुद्ध का जवाब कि मैंने लगातार चलते हुए तृष्णा की नदी को पार किया. और तृष्णा की नदी को मैंने सहज रूप से पार किया.
III राहुल सांकृत्यायन अपनी किताब ‘वोल्गा से गंगा’ के अध्याय ‘प्रभा’ में राम कथा को अयोध्या की न बताकर उसे ‘वाराणसेय’ कहते हैं. अर्थात् वह कथा अयोध्या की न होकर काशी से जुड़ी है.
IV सांस्कृतिक-साहित्यिक यात्राओं के लक्ष्य प्रत्यक्ष से ज़्यादा परोक्ष होते हैं. राजनीतिक यात्राओं के लक्ष्य घोषित और स्पष्ट होते हैं. और यह तो एक सचल कार्यशाला है जिसके परिणाम हमें आने वालों दिनों में मिलेंगे.
यहाँ एक सीनियर पत्रकार कृष्ण प्रताप सिंह से भेंट हुई. अयोध्या के सुदीर्घ जीवन को वे बेहतर से जानते हैं. हमारे साथ इतिहासकार डॉ. रमाशंकर सिंह भी चल रहे थे. वे साथ-साथ भी थे और अकेले-अकेले भी. उनका अध्ययन विपुल और दृष्टि पैनी है. इसका हमें लाभ मिला. उनकी फुर्ती मुझे भा गयी. जहाँ घूमना है, दल अभी आधे चक्कर में ही है कि तब तक वो अपना फेरा पूरा कर लेते थे और किसी पुरातात्विक पट्टिका को देर तलक निहारते रहते. खाना खाने की बात हो या बस में जगह लेने की वो हर तरह के आलस्य से परे दिखते. जहाँ कहीं भी किताब की दुकान दिखी, वहाँ से वे अपने मतलब का कुछ खोज लेते. इसी गंगाजली वाली बैठक में उनके दो वाक्यों ने ध्यान खींचा : “खोजने से हमारा वर्तमान हर बार समृद्ध नहीं होता है. वह कई बार ज़्यादा विरूपित हो जाता है.” मुझे इनके लिखे-बोले में संगीत जैसा महसूस होता है. राजनीतिक रूप से सही होना ज़रूरी है लेकिन उसके दबाव से बाहर आकर ग़लत को ग़लत ही कहना और ज़रूरी है. रमा जी यह करते हैं.
यहाँ की गोष्ठी में शाही गुरु ने ‘बुद्ध चरितम्’ को लेकर कुछ मानीख़ेज़ बातें कहीं : ‘बुद्ध चरितम्’ के 14 सर्ग ही उपलब्ध हैं. 15 वें से 28 वें सर्ग तक का मूल संस्कृत रूप अनुपलब्ध है. आशय कि जन्म से महाभिनिष्क्रमण तक उपलब्ध और इससे आगे गायब. जीवन की आरम्भिक घटनाओं का लेखा मौजूद है लेकिन ‘देशना’ गायब. सिद्धार्थ का जीवन चरित मिलता है लेकिन बुद्ध का नहीं. शाही गुरु का मानना है कि इस घटना से हमें कुछ अपुष्ट-सा संकेत मिलता है. यहाँ एक शायर मिले- मुज़म्मिल फ़िदा. यह जानने पर कि मैं भागलपुर से आया हूँ, उन्होंने बताया कि वे भी भागलपुर मुशायरे में गए हैं. उन्होंने मेरे शहर की तारीफ़ की लेकिन मुझे वह फ़ौरी तक़ाज़े सा लगा. हो सकता कि उन्हें भागलपुर पसन्द आया हो ! हमारे दल के स्वागत में फ़िदा साहब ने एक शे’र पढ़ा. वो शे’र था-
“मेरी जुस्तुजू मेरी तलाश मेरा ख़्वाब तुम्हीं तो हो
फूल तो सभी हैं यहाँ मगर गुलाब तुम्हीं तो हो”
वाह ! वाह ! तालियाँ…! हम थके-मांदे लोग गंगाजली के आतिथ्य से खिले गुलाब की तरह ताज़गी पा गए.
छोटी-छोटी डिटेल्स से यात्रा का रूप बनता है. अब जैसे कि मैं बस में बैठा हुआ केबिन की ओर देख रहा था कि कैसे बस का क्लीनर शरमा-शरमा कर अपनी फ़ोटो खिंचा रहा है या ड्राइवर मौज में आकर या ऊबकर अलग-अलग धुन वाली हॉर्न बजा रहा है ! उस हॉर्न वाली धुन पर रूपेश को मैंने झूमते देखा. सना कहती थी, हमारे पास चलता-फिरता ऑर्केस्ट्रा है. रंजना अड़गड़े मैम रोज़ाना फ़ोन पर घरवालों से लम्बी बात करती थीं. उन्हें बताती थीं कि अब यहाँ से निकले, वहाँ पहुंचे. यहाँ ठहरे थे, अब वहाँ मक़ाम होगा. जलपान में यह खाया और उसका स्वाद कुछ वैसा था. आज कान में मधुमालती के फूल लगाए. कल जब और फूल नहीं मिले तो मैंने मिर्च ही लगा लिया. लम्बी बातें…प्यार और लगाव भरी बातें ! मुझे लगा कि मैम कितनी समृद्ध हैं. सबको ऐसा परिवार मिले जिनसे रोज़ाना घंटों बात हो सके! यह बातचीत हिन्दी-अंग्रेज़ी-गुजराती-मराठी में फेंट कर होती थी. रंजना मैम से मेरी भी घनी-घनी बातें हुईं- उनके काम, कॅरियर, दिल्ली की हिन्दी-दुनिया, मेरे काम-काज और शमशेर जी के बारे में.
गंगाजली से निकलने पर पहली बार सरयू को पार किया. अयोध्या को हम छूते हुए निकल आए. आगे सुल्तानपुर में बारिश हुई थी. उसके आगे अमेठी में भी. बारिश से पूरी यात्रा में ये पहली भेंट थी. अमेठी के धान के खेतों को देखकर लगा, तेज़ हवा के साथ बारिश ज़ोरदार हुई है. धान के पौधे एक ओर झुक गए हैं. यह बारिश धान के लिए अब ठीक नहीं है. इससे धान खखरी में बदल जाता है. सड़कें मालूम पड़ती हैं कि अभी-अभी बस धोयी गयी हैं. रामगंज बाज़ार, अमेठी में जगह-जगह पानी के मानो घरौंदे बने हुए हैं. आगे प्रयागराज के एक टोल पर सार्वजनिक शौचालय मिला. सिर्फ़ यहीं मिला और कहीं नहीं मिला जबकि टोल कई मिले. टोल पर पैसे पूरे ही लिये जाते हैं लेकिन जन सुविधा के नाम पर आमतौर पर कुछ नहीं मिलता. तो यहाँ प्रयागराज में इस सुविधा को पाकर अच्छा लगा.
रात हमलोग कौशाम्बी में उतरे. पहले जिस बौद्ध मन्दिर में गए वहाँ द्वार पर फूलों का झुरमुट था. सिर्फ़ एक पहचान में आया- मालती. बाक़ी के नाम जानने की ग़रज़ से मैंने वहाँ के एक युवक से कहा कि यह कनेर का फूल नहीं है न ? उसका जवाब था- “नहीं, कनेर नहीं है. यह फूल है.” बोलने के बाद वह झेंप गया कि उसने कहा क्या ! और हम सबकी हँसी मालती की तरह खिल गयी. यह श्रीलंका का बौद्ध मन्दिर था. पता चला, इसके अलावे यहाँ दो और बौद्ध मन्दिर हैं : बर्मा का और थाईलैंड का. मन्दिर प्रवेश से पहले हमें सूत की मोटी माला पहनायी गयी. मुझे इसका आशय समझ नहीं आया. कवि प्रकाश उदय जी ने बताया कि ऐसा पर्यावरण हित को ध्यान में रखकर किया जाता है.
रात में ठहरने का इन्तिज़ाम राज्य सरकार के पर्यटन विभाग के गेस्ट हाउस में था. गेस्ट हाउस गाँव के सीमान्त पर था. सुबह भ्रामरी प्राणायाम की बुलन्द भ्रमरी-ध्वनि से मेरी नींद खुली. उठकर देखा, सुधीर सर (प्रो. सुधीर प्रताप सिंह, अध्यक्ष-भारतीय भाषा केन्द्र, जेएनयू) भी अपनी चौकी पर बैठे हुए हैं. हम दोनों की नज़रें मिलीं और हमारे चेहरे कार्तिक की सुबह की तरह खिल गये. हम दोनों ठठाकर हँसना चाहते थे लेकिन हमने स्मित मुस्कान से काम चलाया. भ्रमरी-ध्वनि के स्रोत कवि-सम्पादक नरेन्द्र पुंडरिक जी थे. अपनी दिनचर्या के धुनी व्यक्ति ! यहाँ हमने एक बुद्ध विहार, अशोक की लाट और यमुना किनारे राजा उदयन के क़िले के भग्नावशेष को देखा. क़िले की चौहद्दी दूर तक फैली हुई थी. दिल्ली, आगरे, इलाहाबाद के बाद यहाँ कौशाम्बी में यमुना देखी. यमुना यहाँ जितनी साफ़ दिखी, उतनी कहीं नहीं देखी थी.
विहाग ने मुझसे वादा किया था कि सुबह-सुबह यमुना की ओर जाते हुए आपको भी जगा दूँगा. और यह वादा उसने एक कॉल कर निभाया जिससे मेरी नींद क्या ही खुलती ! लेकिन दोपहर तक हम सभी यमुना के तट पर थे. लेकिन सुबह का यमुना-दर्शन रह गया. नदी हर पहर में अलग होती है. विहाग की कविताएँ पढ़ी थीं. उसको सुना पहली बार. कविता और वक्तव्य दोनों ही पके हुए. उसके पास साफ़ नज़र और तीखी अभिव्यक्ति का हुनर है. दृश्य कविता का हो या खींची गयी फ़ोटो का, वे चुने हुए फूल लगते हैं. दल के हरेक यात्री की उसने कई-कई फ़ोटो ली और उसे प्यारे कैप्शन से टांक दिया. यात्रा में कई ठिकानों पर हमारा कमरा साझा रहा. और इस साझेपन में मैंने जाना कि वो एक प्यारा आदमी है.
24 अक्टूबर, हमारी यात्रा का अन्तिम दिन ! और इस दिन हम वहीं पहुंच गए थे जहाँ से यात्रा शुरू हुई थी-सारनाथ ! यहाँ धर्मचक्र प्रवर्तन की जगह एक अश्वत्थ है जिसे सन् 1931 में यहाँ लगाया गया था. लगाने से पहले उसे बोध गया से श्रीलंका के अनुराधापुरम ले जाया गया और फिर अनुराधापुरम से वापस लाकर सारनाथ में लगाया गया. यहाँ घूमने के बाद हम सभी ‘जम्बूद्वीप-श्रीलंका बुद्ध विहार मन्दिर’ पहुंचे. वहाँ यात्रा का समापन समारोह था. हमारे अलावे वहाँ शहर के बुद्धिजीवी, कलाकार, शिक्षक, पत्रकार आदि मौजूद थे. धर्मानन्द कौशाम्बी की मराठी में लिखित आत्मकथा ‘निवेदन’ के हिन्दी अनुवाद का यहाँ लोकार्पण हुआ. यह अनुवाद अंग्रेज़ी-हिन्दी-मराठी-गुजराती की परस्पर अनुवादक प्रो. रंजना अड़गड़े ने किया है. लोकायत प्रकाशन ने इसे छापा है. मन्दिर में बुद्ध के चरणों में पुस्तक लोकार्पण का दृश्य मैं पहली बार देख रहा हूं. यहीं इसी सभा में एक तरफ़ गृहस्थ जीवन से जुड़े सामाजिक थे और दूसरी ओर घर-बार छोड़ चुके बौद्ध संन्यासी. बीच में छोटा-सा रास्ता बना हुआ है. रास्ते के दोनों ओर जीवन के दो रूप ! एक ओर रंग-बिरंगे कपड़ों में आए हुए लोग थे. दूसरी ओर गेरूए और मैरून रंग में विन्यस्त संन्यासी दल ! हॉल की तस्वीर ऐसी मालूम पड़ रही है जैसे दृश्यकाश में रंगों की होड़ हो !
रंजना मैम का वक्तव्य सधा हुआ होता है. बोलने के लिए बोलना बिल्कुल नहीं. इस अनुवाद के प्रसंग में उन्होंने बताया : ‘वागर्थ’ में छपे प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी के दो लेखों ने मुझे इस अनुवाद के लिए प्रेरित किया. एक ही लेख को पढ़कर मैंने आत्मकथा का मराठी अनुवाद मॅंगवा कर पढ़ लिया. इस पुस्तक का गुजराती अनुवाद हो चुका है. पता किया तो हिन्दी अनुवाद नहीं हुआ था. और मुझे मेरा रास्ता मिल गया. इस आत्मकथा में वो सब तत्व है जिनके लिए हम गाँधी जी की आत्मकथा को याद करते हैं. ज्ञान मूल्यवान है और ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया अत्यन्त कष्टप्रद ! सुबह उठते ही परिवारजन पूछते और बताओ, कौशाम्बी अमेरिका पहुंचे कि नहीं? कहाँ हैं वो? जीवन की कष्टमय यात्रा में सेंस ऑफ ह्यूमर एक बड़ा अवलम्ब है. इसी क्रम में मुझे यात्रा का प्रस्ताव मिला और मैंने इसे पूरक रूप में लिया. आत्मकथा में कौशाम्बी जिन जगहों पर गए और उसका वर्णन किया है, अब मैं भी वहाँ हो आयी हूँ और इससे एक तरह की पूर्णता महसूस होती है. एक जातक कथा को पढ़कर लगा कि अनुवाद की एक बौद्ध सैद्धांतिकी है. इस यात्रा का प्रसाद भी मुझे मिल गया है. वह यह कि मैं अनुवाद की बुद्धिस्ट थियरी पर काम करूं.
समापन कार्यक्रम में शाही गुरु : अपने और पराए के बीच बॅंटी दुनिया को एक करने का विकल्प बुद्ध की देशना में है. देशभक्ति की चर्चा बहुत होती है. देशप्रेम की चर्चा भी बहुत होती है. प्रेम जानने से होता है. धरती, वनस्पति, नदी, लोग आदि से परिचय देश परिचय है. यह भी देशभक्ति है. हम बुद्ध से जुड़ी जगहों का उत्खनन करते हैं उसी तरह हमारे भीतर और सामाजिक जीवन में जो बुद्ध भाव है, उसका भी उत्खनन हमें करना होगा. यात्रा में अलग-अलग विचार के लोगों ने हमारा स्वागत किया. हमें संबल दिया. हमारे लिए यह भारत दर्शन भी था.
कोलकाता से आए साथी आनन्द रूप कम लेकिन सार में बोले : मैं कभी बनारस में रहा करता था. वहीं मैंने हिन्दी सीखी. मैं ऐसी यात्रा का सपना देखता था. मैंने प्रसिद्ध बौद्ध विहारों को देखा. यह मेरे लिए मामूली अनुभव नहीं है. मैं अलग-अलग व्यक्तित्व से मिल पाया; यह भी मेरे लिए उपलब्धि है. आनन्द रूप सिनेमा और कला की दुनिया में रमने वाले व्यक्ति हैं. इनकी आँखें मोबाइल के कैमरे से लगी रही और कुछ यादगार फ़ोटो हमें मिल पायीं; हालाँकि मेरी वाली अभी तक मुझे मिली नहीं है.
हमारे साथ यात्रा में कवयित्री गगन गिल जी थीं. पूरी यात्रा में वे सबसे कम बोलीं. उनसे बात करने का मन होता था लेकिन फिर उनकी शान्त और कहीं डूबे हुए चेहरे को देखकर संकोच होता. कुशीनगर में एक बार हड़बड़ी में मैंने उनसे कुछ पूछा. और पूछने के बाद मेरा ध्यान गया कि उनकी आँखें बन्द हैं. मुझे अपनी मूढ़ता पर तरस आया. कितनी ही बार मन हुआ कि निर्मल जी के बारे में इनसे बात करूं लेकिन हर बार मन को यह समझा कर रोका कि अभी नहीं, फिर कभी. समापन सभा में वो जो बोलीं, वह गद्यमय कविता लगी : यह यात्रा एकरेखीय नहीं लगी. एक समय की नहीं लगी. मुझे लगा, हम सदियों से चले हुए हैं. बुद्ध के पहले से भी चले हुए हैं. हम सभी अपने कर्म, मनीषा, शक्ति, पुरुषार्थ के हिसाब से भव चक्र में ऊपर गए होंगे, नीचे गए होंगे लेकिन बोधिसत्व मुक्ति के सिरे तक जाकर मुक्ति को अस्वीकार कर देते हैं. वे चलते रहना चाहते हैं. हमने अपने आसपास फैले दारिद्र्य, दुःख, अभाव को देखा. ऐसे ही अभाव को देखकर कभी अवलोकितेश्वर की आंखों से आंसू बहे और कहते हैं कि उन्हीं आंसुओं से तारा का जन्म हुआ. अच्छा लगता है ये सोचकर कि हो सकता है हम नालन्दा के ध्वंस के समय रहे हों ! हो सकता है कि ह्वेनसांग के समय रहे हो ! हमारे साथ जिसकी स्मृति होती है हम उन्हें खोजते रहते हैं. इस यात्रा के पीछे मुझे पीछे के जीवन की स्मृति सी लगती हैं. इसी व्याख्यान में उन्होंने शाही गुरु को एक नया नाम दिया- गोष्ठीराम !
यात्रा के दो मोड़ों पर रामाज्ञा सर (रामाज्ञा शशिधर) का साथ मिला. उनकी वाग्मिता में विन्यस्त तर्क और ओज ने सबकी नींद भगा दी. शाही गुरु के कुछ विचारों को उन्होंने अलग नज़रिए से देखने की अपील की; हालाँकि उस अपील में आदर्श का पुट ज़्यादा था, यथार्थ का कम. प्रो. रामसुधार सिंह और कवि प्रकाश उदय (जिन्हें अधिकतर साथी उदय प्रकाश कहते रहे) की उपस्थिति एकल रूप में नहीं रही. वे युगल रूप में ही नज़र आए. कवि और वक्ता. कवि और ध्यान गुरु. भोजपुरी-भाषा-कविता और बुद्ध-पालि साहित्य. संचालन और धन्यवाद ज्ञापन. गमछी और सी-कैप. बनारसी और बनारसी. इस युग्म को और भी तरीक़े से देखा-कहा जा सकता है. मैं यही देख-समझ पाया. रामसुधार जी के ज्ञान ने दल के आत्मविश्वास को सँवारा-बढ़ाया.
इसी गोष्ठी में मन्दिर के वरिष्ठ भन्ते ने बताया कि जीसस के आने के 300 साल पहले भारत में जानवरों के लिए अस्पताल था. चिड़ियों के लिए पानी रखा जाता था. सुजाता (बकरौर ग्राम), अशोक, पद्मसम्भव, कबीर, टैगोर, कनिंघम, एडविन ऑर्नोल्ड, हरमन हेस, धर्मानन्द कौशाम्बी, राहुल सांकृत्यायन, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के यहाँ से बुद्ध को याद करते हुए उन्होंने हमें एक और यात्रा करायी.
अब यात्रा के समाप्त हो जाने पर प्रो. मृदुला सिन्हा की बात मुझे याद आती है : मेरे लिए यह यात्रा आत्मचिकित्सा जैसी रही. मिटता तो कुछ नहीं है. लेकिन कितना कुछ धुल गया ! यात्रा कई दफ़ा स्पन्ज जैसी होती है. जिन दुःखों को किसी से कह नहीं सकते, यात्रा उसे कुछ हद तक सोख लेती है. अब भागलपुर में हूँ और क़मर जलालाबादी का शे’र है-
“मौज आएगी तो सारे जहाँ की करूंगा सैर
वापस वही पुराना नगर उस के बाद क्या”
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दिव्यानन्द पत्र पत्रिकाओं में लेख आदि प्रकाशित हिंदी विभाग |
वाह क्या जिंदा अभिमत है-
हम बुद्ध से जुड़ी जगहों का उत्खनन करते हैं उसी तरह हमारे भीतर और सामाजिक जीवन में जो बुद्ध भाव है, उसका भी उत्खनन हमें करना होगा. यात्रा में अलग-अलग विचार के लोगों ने हमारा स्वागत किया. हमें संबल दिया. हमारे लिए यह भारत दर्शन भी था.गगन गिल का यह कहना भी बहुत मानीखेज़ है कि-यह यात्रा एकरेखीय नहीं लगी. एक समय की नहीं लगी. मुझे लगा, हम सदियों से चले हुए हैं. बुद्ध के पहले से भी चले हुए हैं. हम सभी अपने कर्म, मनीषा, शक्ति, पुरुषार्थ के हिसाब से भव चक्र में ऊपर गए होंगे, नीचे गए होंगे लेकिन बोधिसत्व मुक्ति के सिरे तक जाकर मुक्ति को अस्वीकार कर देते हैं.समूचा आलेख जीवंत यात्रा के चलचित्र की तरह है.
दिव्यानंद जी ने सचमुच बहुत मन से लिखा है। बहुत रोचक है।
आपने इतना रोचक और मन से लिखा है कि पढ़ते हुए पूरी यात्रा कर लिए। बहुत रोचक और प्राजंल गद्य देव भाई। इसके लिए बधाई स्वीकार कीजिए।
दिव्यानंद जी का उत्कृष्ट लेखन । बधाई
दिव्यानंद जी ने बहुत अच्छा लिखा है। उनका लिखा पढ़कर हमसब भी यात्री ही बन गये।
पढ़ते हुए कहीं लगा ही नहीं कि कोई आलेख पढ़ रहा हूं। लगा मानो शब्दों के साथ वर्णित स्थल का सैर कर रहा हूं। आदरणीय देव सर की यह खासियत रही है; वे शब्दों के साथ पाठकों या श्रोताओं के अंतर्मन में उतरते जाते हैं। यह कभी भी संभव नहीं है कि आप देव सर को पढ़े या सुने और आप खुद को उनके सम्मोहन से बचा सकें।
मैं खुद को सौभाग्यशाली समझता हूँ कि मैं उन कक्षाओं का हिस्सा रहा हूं जिनमें आदरणीय का व्याख्यान हुआ। आदरणीय के चरणों में प्रणाम।🙏🙏
इस अंक की शब्दावली मनमोहक है । यात्रा वृत्तांत का सजीव चित्रण । रंजना जी अड़गड़े का कई दफ़ा उल्लेख किया गया । उनकी बातों में रस है । फ़ेसबुक पर ढूँढकर दोस्ती का पैग़ाम भेजूँगा । यदि उनकी मित्र सूची में 5 हज़ार से अधिक व्यक्ति हुए तो यहाँ लिख देता हूँ कि स्वीकार कर लें । अज्ञेय के जन्म स्थान का ज़िक्र है । 1990 के दशक के पूर्वार्द्ध में गया और बोधगया गया था । वहाँ भी थाइलैंड, और कुछ अन्य देशों ने मठ बनाये हैं ।
कुछ यात्री अपने थैले में घर साथ लेकर चलते हैं कि पंक्ति अद्भुत है । आरंभ में दो साथियों के कम शब्दों के वाक्यों को सूक्ति कहा गया है । नेपाल की सीमा के क़रीब के स्थान पर कुछ भोजनालयों का उल्लेख है ।
बहुत ही प्यारा लगा लेख पढ़ते दौरान। लेख में आपकी साहित्यिक मौजूदगी स्पष्ट रूप से थी🙏
आपका लेखन सुंदर लगता है। पैराग्राफ के आखिर में कई उक्तियां लेख में मुझे उपयोगी लगीं, उदाहरण के लिए—
१. “जीवन में सब कुछ याद रखने लायक नहीं होता.”
२. “कुछ कहानियाँ बची रह जानी चाहिए.”
सर, आपके लेख से मुझे कई नये शब्द सीखने को मिले। 🙏🙏