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Home » अतीत के ताज़ा फूलों की उदासी: कुमार अम्‍बुज

अतीत के ताज़ा फूलों की उदासी: कुमार अम्‍बुज

सिनेमा हॉल जिन्हें चलचित्र मंदिर या टॉकिज आदि नामों से जाना जाता था अब अतीत की बातें हो गयीं हैं, एक समय ये कस्बे की अहम् सार्वजनिक जगहें हुआ करती थीं. १९८८ की मशहूर इटैलियन फ़िल्म ‘सिनेमा पारादीसो’ प्रोजैक्‍टर चालक और उस कस्बे के एक उत्सुक बच्चे के बीच घटित होती है. विश्व की चुनी हुई फ़िल्मों में इसे शामिल किया जाता है. ऑस्कर के अलावा इसे कई और सम्मान मिले हैं. ‘विश्व सिनेमा से कुमार अम्बुज’ की यह ग्यारहवीं कड़ी है. स्मृति और विस्थापन के बीच सिनेमा के समानांतर चलते इस गद्य का अपना ही आस्वाद है

by arun dev
July 8, 2022
in फ़िल्म
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अतीत के ताज़ा फूलों की उदासी: कुमार अम्‍बुज
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अतीत के ताज़ा फूलों की उदासी
कुमार अम्‍बुज

 

एक

यह प्रवेश-संगीत एक उदासी का प्रवेश द्वार है.
उस उदासी का जो प्रिय जगहों के बिछोह से पैदा होती है.
जो पीछे छूट गए आत्‍मीयजन के वियोग से निर्मित होती है. फिर उसका निर्माण जीवन भर जारी रहता है. समुद्र में चल रही नमक की चक्‍की की तरह. तुम समुद्र की तरफ़ देखते हो कि यह उतना ही नीला और अथाह है, जितना तुम्‍हारा उदास हृदय. जिसमें ख़ाली आकाश की नीलिमा प्रतिबिंबित है. यह ज्‍वार-भाटा से भरा है. ज्‍वार का वेग सबको दिखता है. भाटा प्रशांत है लेकिन उसका आंतरिक कोलाहल तुम्हें अकेले भुगतना पड़ता है. कोई दूसरा सहभोक्‍ता नहीं. कंधे पर रखा हुआ कोई हाथ नहीं. किसी तरह की सांत्‍वना भी असमर्थ है. प्रत्‍येक शांत समुद्र अपने भीतर अशांत होता है.

यह अपनी जगहों, अपने लोगों से विस्‍थापित होने की उदासी है. विस्‍थापन मनुष्‍य के भीतर किसी जैविक अंग की तरह रहने लगता है. जिसके बारे में कहा गया है: विस्‍थापन डरावना अनुभव है. यह मनुष्‍य और उसकी प्रिय जगहों के बीच एक अलंघ्‍य दूरी है. उसके और बिछुड़ गए घर के बीच, एक अपारगम्‍य दरार है. एक अचिकित्‍सीय घाव. एक असाध्‍य अवसाद. विस्‍थापित मनुष्‍य को अपनी तमाम सफलताओं के बीच याद आता रहता है कि ये उपलब्धियाँ उन चीज़ों के सामने कितनी तुच्‍छ हैं, जो उस से हमेशा के लिए पीछे छूट गईं हैं. उस जीवन के समक्ष जिसने उसे निर्मित किया, यह प्राप्‍य किस क़दर बौना है.

वे सारे दिन, वे सब रातें, वे सारी उत्‍कंठाएँ और व्‍यग्रताएँ उसकी मुट्ठी से पानी की तरह बह गईं. वह क़स्‍बा जिसने तुम्‍हें मिट्टी के लौंदे से किसी आड़ी-टेढ़ी लेकिन एक शिल्‍पाकृति में ढाला था, अब उधर से कोई समाचार आते हैं तो छूटे हुए में से ही कुछ और छूटने के समाचार आते हैं. टूटी हुई चीज़ें जब एक बार फिर गिरती हैं तो पूरी तरह चूर-चूर हो जाती हैं. पहले से ही ध्वस्त जगहों पर नये आघात होते हैं.
ये ज़ख्‍़म कभी नहीं भरते.

 

दो

एक माँ अपने बेटे को तीस साल से फ़ोन लगा रही है. वह बेटा जो तीस बरस पहले इस क़स्‍बे से चला गया कि जीवन में उसे कुछ बेहतर करना है. लेकिन हर बार माँ की बातचीत, बेटे के बजाय किसी स्‍त्री से होती है. वह बेटे की पत्‍नी है, मित्र है या प्रेमिका. क्‍या पता कौन. बस, बेटे से बात नहीं हो पाती. लेकिन इस बार वह बेटे से बात करके रहेगी. वह बहुत व्‍यस्‍त है. शायद हम उसकी स्‍मृति से ग़ायब हैं. परदेश जा चुके बच्‍चे, अगर वे अमीर और व्‍यस्‍त हो जाते हैं तो फिर उनसे प्रेमिल संपर्क असंभव है. वे केवल व्यावसायिक फ़ोन और मुलाकातों के लिए रह जाते हैं. इस बीच कई जवान पीढ़ियाँ, तमाम क़स्‍बों से निकलकर शहरों में बिला चुकी हैं.

नहीं, ऐसा नहीं. मैं ही उसे दुनिया में सबसे बेहतर समझ सकती हूँ. मैं उसे याद दिलाऊँगी तो उसे तत्काल सब याद आएगा. मुझे उस से बात करनी होगी. मैं उसे यह ख़बर नहीं दूँगी तो उसे बहुत अफ़सोस होगा. कि उसके बचपन का मित्र, उसका दार्शनिक, मार्गदर्शक और नायक, अल्फ्रेदो अब दुनिया में नहीं रहा, और उसे सूचना तक नहीं दी गई.

मैं जानती हूँ तुम मेरे बेटे हो. इस क़स्‍बे के बेटे हो. यह संबंध अटूट है. यह पुराना नहीं पड़ता. यह विस्‍मृत नहीं होता. स्‍मृतिलोप में, मानसिक विक्षेप में भी इसके सूत्र बचे रह जाते हैं. मुझे भरोसा है कि तुम तीस साल की दूरी से आओगे. अनिच्छा के सीमांत से आओगे. आख़‍िर एक दिन असंभव यात्राएँ संभव होती हैं. तब पता लगता है कि इच्छा ही नाम बदलकर अनिच्छा के नाम से रह रही थी. जिस यात्रा से तुम डरते हो, एक दिन वही यात्रा यथा‍र्थ में करना पड़ती है. संचित और आह्लादकारी.
एक ज्वर उतर रहा है. एक ज्‍वर चढ़ रहा है.
जीवन असमाप्‍त बुख़ार है.
स्मृति की तरह.

‘Cinema Paradiso’ फ़िल्म से एक दृश्य

 तीन

क़स्‍बे में पहला टॉकीज. इस से अधिक उत्‍तेजक, अभूतपूर्व ख़बर भला और क्‍या हो सकती है. पारादीसो. अलौकिक आनंद के लिए यही उपयुक्त नाम है. ज़न्‍नत. पूरा क़स्‍बा आतुर है. लेकिन सिनेमा में अश्‍लीलता भी कोई चीज़ है. पादरी पर अचानक नैतिकता की रक्षा का भार आन पड़ा है. सबसे पहले वह फ़‍िल्‍म देखेगा और जहाँ ज़रा भी विकार प्रेरित आलिंगन, विचलनकारी चुंबन होगा, वह रोकेगा. पूजावाली घंटी बजा देगा. ख़तरे की घंटी की तरह. तमाम सैंसर बोर्ड, आततायी, धार्मिक और पुनरुत्‍थानवादी लोग अपनी-अपनी घंटियाँ बजाते रहते हैं. उनका जन्‍म घंटी बजाने के लिए हुआ है.

युगों से चारित्रिक स्‍वच्‍छता का, नैतिकता का घंटी अभियान जारी है. यह उपक्रम कभी पूरा नहीं हो पाता. पादरी सुनिश्चित कर रहा है कि क़स्‍बे के समक्ष सैंसर उपरांत निर्मल फ़‍िल्‍में प्रदर्शित की जा सके. यह अलग बात है कि ऐसे हर रोके गए दृश्‍य पर, दर्शकों से उन्‍हें इतने भद्दे अपशब्‍द सुनाई देंगे कि उन्‍हें लगेगा कि वे दृश्‍य बने रहते तो बेहतर था. वे उतनी अनैतिक शिक्षा नहीं दे सकते थे जितने ये अपशब्‍द दे रहे हैं. हर बाधित दृश्‍य का एक संभव संस्‍करण उसी वक्‍़त मन के सेल्‍युलॉइड पर अंकित हो रहा है. काल्‍पनिक. समानांतर. अतिरेकी.
सर्जनात्‍मक और विध्‍वंसक.

तोतो, तुम अभी एक छोटे बच्चे हो, चोरी छिपे फ़‍िल्‍म देखने जाते हो. तुम नैतिकता के पहरेदारों की घंटी बजाने से काटी गई रीलों के टुकड़ों को देखते हुए असमय किशोरावस्‍था में प्रविष्‍ट हो रहे हो. तुम प्रोजैक्‍शन रूम से उन कटी हुई रीलों को उठाकर घर ले जाना चाहते हो. तुम इतने अधिक चुंबनों से भरी इन रीलों का क्‍या करोगे, भागो यहाँ से. तुम भागते हो लेकिन उन कटी-पिटी रीलों को लेकर. उन्हें देखते हुए तुम जान रहे हो कि चुंबन लेने के तरीक़ों से भी आदमी को पहचाना जा सकता है : यह चुंबन धोखेबाज़ का है, यह अधीर प्रेमी का, यह धैर्यवान मनुष्य का है. यह आसक्ति का, यह मदहोशी का और यह वासना का. यह अल्पायु रहेगा, यह चिरायु होगा. और यह अनश्वर पीड़ा देगा.
आजीवन.

तुम्‍हारे पिता युद्ध में गए हैं और लौटे नहीं हैं. तुम्‍हारा यह सवाल कोई नहीं समझता, न ही किसी के पास इसका उत्तर है कि जब युद्ध ख़त्‍म हो जाता है तो पिता घर क्‍यों नहीं लौटते? और इस जवाब पर तो बच्‍चे भी भरोसा नहीं करते कि युद्ध भूमि बहुत दूर है. वहाँ तक जाने और फिर वहाँ से वापस आने में ही बरसों-बरस बीत जाते हैं.

 

‘Cinema Paradiso’ फ़िल्म से एक दृश्य

 

चार

अब यही ‘सिनेमा पारादीसो’ तुम्हारी संस्‍कारधानी है.
तुम फ़‍िल्‍म को परदे पर ही नहीं, प्रोजैक्‍शन रूम की खिड़की से आती चौकोर रोशनी में विन्‍यस्‍त आकृतियों में भी पढ़ना चाहते हो. जैसे हवा को मुट्ठी में बाँधना चाहते हो. मगर अभी तुम हॉल में बैठे लोगों की सीत्‍कार, आक्रोश, हँसी और रुदन की सामूहिकता से, अँधेरों में कामनापूर्ति का वरदान प्राप्‍त करते दर्शकों से शिक्षित हो रहे हो. तुम धुआँ उड़ाना सीख रहे हो. अश्लीलताओं में निपुण हो रहे हो लेकिन प्रोजैक्‍शन मैन अल्फ्रेदो तुम्‍हें बचा रहा है. तुम घर के पैसे चुराकर फ़‍िल्‍म देखने पहुँच जाते हो. अल्फ्रेदो, तुम्‍हें पिटता हुआ नहीं देख सकता. वह हर स्थिति में तुम्‍हारी रक्षा करने पहुँच जाता है. वह तुम्‍हारे प्रेम में पड़ गया है. आयु का अंतर मिट गया है. तुम एक-दूसरे के अभिन्‍न मित्र हो गए हो.

लेकिन तोतो, तुम कम उम्र में अधिक महत्‍वाकांक्षी हो. चाहते हो कि वह प्रोजैक्‍टर पर तुम्‍हें फ़‍िल्‍म चलाना सिखा दे. नहीं, अल्फ्रेदो तुम्‍हें यह काम नहीं सिखाएगा. तुम मेधावी हो. तुम्‍हें जीवन में पढ़-लिखकर बेहतर काम करना है. वह बुदबुदा रहा है, तुम्‍हें बता रहा है, जैसे किसी दीवार को सुना रहा है कि प्रोजैक्‍टर चलानेवाले आदमी के अकेलेपन को, उसकी उदासी को कोई नहीं जानता. उसकी थकान, उसका अवसाद किसी को नहीं दिखता. और प्रोजैक्‍टर मैन के लिए कोई छुट्टी नहीं. कोई त्‍यौहार नहीं. उन दिनों में तो और ज्‍य़ादा शो. उसे एक ही फ़‍िल्‍म कई बार देखना पड़ती है. उसमें से ही बारम्‍बार अपने सुख, दुख चुनना पड़ते हैं. दर्शकों की उठती ध्‍वनि से, प्रतिक्रियाओं के संवेगों से अपने जीवन को धन्‍य करना पड़ता है. सोचते हुए कि यह मैं ही हूँ जो इन्हें हँसा रहा हूँ. रुला रहा हूँ. इनके ह्दय में हूक उठा रहा हूँ. इन्‍हें रोज़मर्रा के तनावों, चिंताओं से कुछ देर के लिए दूर कर रहा हूँ.
आशाओं में जीवित रहना रोमांचक काम है.
संतोष प्राप्ति भी एक अभियान है.

आख़ि‍र तुमने रोकर, गाकर, लड़कर, रूठकर, लाड़ जताकर और आड़े समय में थोड़ी-सी मदद करके, अल्फ्रेदो को विवश कर दिया है. वह तुम्‍हें प्रोजैक्‍टर पर फ़‍िल्‍म चलाना सिखा रहा है. विडंबना यह कि तुम्‍हें प्रोजैक्‍टर चलाते हुए, न्‍यूज़ रील से पता चलता है कि तुम्‍हारे पिता, जो अब तक युद्ध के लापता थे, वे तो मर चुके हैं. किसी को नहीं मालूम वे कहाँ दफ़नाए गए हैं. शहीदों की, योद्धाओं की निशानियाँ खोजना पड़ती हैं मगर मिलती नहीं. अनाम घास उन्‍हें ढाँप लेती है. मगर कायरों की, लुटेरों की  क़ब्रें मक़बरों की तरह दूर से चमकती हैं. उनके शिलालेख साइन बोर्ड की तरह दिखते हैं.

 

‘Cinema Paradiso’ फ़िल्म से एक दृश्य

पाँच

प्रोजैक्‍शन रूम में आग लग गई है. दर्शक भाग गए हैं. मालिक, गणमान्‍य और पादरी भी. केवल तोतो, तुम समझ गए हो कि तुम्‍हारा दोस्त आग से घिर गया है. तुमने उसे घसीटकर,  प्रत्‍युन्‍नमति से जैसे-तैसे बचा लिया है. लेकिन जल्‍दी ही पुराने पारादीसो की राख से ‘नया पारादीसो’ उठ खड़ा हुआ है. मनोरंजनधर्मी व्यवसाय नहीं रुकता. व्यग्र क़स्‍बे को नवीनीकृत सिनेमा हॉल मिल गया है. एक नयी सज्जा से पूरित.

अब फिर सीटियाँ गूँजेंगी. फ़‍िक़रे उठेंगे. अर्धनग्‍न और चुंबन के दृश्‍यों पर नैतिकताएँ सिसकारियाँ भरेंगी. बच्‍चे सामूहिक स्‍खलन सुख से विभोर होंगे. हिलोर उठाते संगीत पर पादरी भी मग्‍न हो जाएगा और धार्मिक छड़ी की मूठ पकड़कर थाप देगा. फिर अचानक सोचेगा कि वह यह क्‍या कर रहा है लेकिन तब तक अगला चुंबन शुरू हो जाएगा. अगला आलिंगन. मादक संगीत का नया टुकड़ा साँवले बादल की तरह बरसने लगेगा.

भावुक दर्शक, संवादों को पात्रों द्वारा बोले जाने से पहले ही बोलेंगे, दोहराएँगे और रो देंगे. आहें भरेंगे. पात्रों का दुख क़स्‍बे का दुख हो जाएगा. उनकी हँसी क़स्‍बे के होठों पर फैल जाएगी. हर कोई नायक की तरह प्रेम करना चाहेगा. नायिका की तरह समर्पित होना चाहेगा. एक अकेला पादरी इतनी नैतिकता लागू नहीं कर सकता. आख़ि‍र वह भी मनुष्‍य है. उसकी भी इच्‍छाएँ हैं. वह भी फ़‍िल्‍म देखता है. चीज़ों को भला कब तक सैंसर किया जा सकता है.

 

‘Cinema Paradiso’ फ़िल्म से एक दृश्य

 

 

छह

अल्फ्रेदो अंधा हो चुका है.
तुम्‍हारा स्कूल जाना बंद. निर्धनता के अपने फ़ैसले होते हैं. अब तुम प्रोजैक्‍टर मैन का काम करोगे. मगर अल्फ्रेदो तुमसे कह रहा है- यह जगह तुम्हारे लिए नहीं. अभी तुम्‍हारे घर की ज़रूरतें हैं लेकिन तुम्‍हें यहाँ हमेशा नहीं रहना है. तोतो कुछ समझता है, कुछ नहीं समझता है. बस, इतना जानता है कि अल्फ्रेदो से बड़ा सरपरस्‍त और विश्‍वसनीय कोई नहीं.

तोतो, तुम जवान हो रहे हो. तुमने एक मूवी कैमरा ले लिया है. और क़स्‍बे में आई उस अजनबी लड़की को वीडियो में क़ैद कर रहे हो जिससे तुम्‍हें देखते ही प्रेम हो चुका है. तुम उसकी हर चीज़ पर मोहित हो, उस अलक्षित से तिल पर भी जो होंठों के बहुत पास जाने पर दिखता है. सारी सूक्ष्‍म सुंदरताएँ प्रेम में पड़ जाने पर ही दिखती हैं. प्रेम धीरज माँगता है. फिर जीवन इस बात पर टिका रहता है कि कोई तुम्‍हारी भावनाओं को समझता है. या नहीं समझता है.
हाँ या न.

प्रतीक्षा का समय पानी में कंकड फेंकने से व्‍यतीत नहीं होता. प्रेम था या कोई बाढ़ थी. तुम्‍हारा सब कुछ बह गया. फिर जो बाक़ी रहा वह भी ढह गया. प्रेम उसी तरह डूब जाता है जैसे सफ़ेद रात के बाद चंद्रमा डूबता है. जैसे एक रात के जीवनोपरांत में दिशासूचक तारा डूबता है. तोतो, तुम संक्षिप्‍त सैन्‍य प्रशिक्षण में चले जाओगे. तुम्‍हारे लिए अब यह क़स्‍बा, प्रेमिल क्षणों की दुखित स्‍मृतियों का अभिलेखागार रह गया है. पहला प्रेम निष्‍फल हो गया है इसलिए अमर हो गया है. यह वेदना हमेशा तुम्‍हारी नाभि में रहेगी. कस्‍तूरी की तरह.
मरीचिका की तरह.
जाओ, तुम मृग हुए.

 

सात

तुम वापस लौटकर देखते हो कि ‘पारादीसो’ में तुम्‍हारी जगह कोई और रीलें घुमा रहा है. लोग तुम्‍हें लगभग भूल रहे हैं लेकिन गली का श्‍वान तुम्‍हारी गंध पहचानता है. यह एक छोटा-सा परिचय तुम्‍हें यकायक अजनबी होने से बचा लेता है. तुम्‍हारे प्रेमिल क्रीड़ा स्‍थलों पर, प्रेम‍िल स्‍मृतियों की जगहों पर कूड़ा फेंका जाने लगा है. मगर अल्फ्रेदो है अभी. उससे मिलो. वह तुम्‍हारे लिए उत्‍कंठित है और चिंतित.

उसकी बात सुनो : यही सही वक्‍त है कि तुम इस क़स्‍बे को छोड़ दो. तुम यहाँ रहकर सोचते हो कि यह पृथ्‍वी का केंद्र है. तुम कुएँ के मेढ़क मत बनो. एक दिन सबको अपना घर छोड़ना पड़ता है. मोह का सूत कच्‍चा है मगर नहीं तोड़ोगे तो नहीं टूटेगा. उस धागे को तोड़ना पड़ता है वरना वह गले से लिपट जाता है. तुम क्‍या मुझसे भी अधिक अंधे हो. क्‍या रखा है इस क़स्‍बे में. दुनिया तुम्‍हारा इंतज़ार कर रही है. यहाँ से किसी बड़े शहर में जाओ. कुछ करो. कुछ बनो. जीवन वैसा नहीं है जैसा तुम फ़‍िल्‍मों में देखते-दिखाते रहे हो. तुम अपने जीवन को संपादित करो. अपनी स्क्रिप्‍ट ख़ुद लिखो. जीवन कठिन है. लेकिन इसे चुनौती देना पड़ता है. इसकी चुनौती स्‍वीकार करना पड़ता है. जाओ.
यहाँ कभी वापस न आने के लिए जाओ.

जैसे कोई दार्शनिकता किसी आशा को सहारा देती है. जैसे कोई निराशा किसी दार्शनिकता की दीवार पर पीठ टिकाकर बैठ जाती है. यह निर्णायक शाम है. क़स्‍बे के चौगान में एक तरफ़ सीढि़यों पर बैठकर तुम सोच रहे हो. ये प्राचीन, अनुभवी सीढ़ियाँ हैं. आम आदमी की बेंच हैं. गुज़रते दिन के धुँधलके में डूबी हैं. यह विस्‍तृत चौराहा, ये घर, ये सड़कें, गलियाँ और यह अब तक का बीता जीवन. सब तुम्‍हारे सामने है. इनको देखते हुए, इनको पार करते हुए तुम्‍हें निर्णय लेना है. अब तुम बच्‍चे नहीं रहे. तुम्‍हें अपने औपचारिक नाम सल्‍वातोरे डी वीता होने तक की यात्रा करना है.

विदा.
तुम विस्‍थापित होने के लिए जा रहे हो. कुछ करने के लिए. क्‍या. क्‍या पता. कैसे. किसे मालूम. शायद प्रोजैक्‍शन रूम की शिक्षा तुम्‍हें किसी राह पर ले जाए. वही तुम्‍हारी निदेशक हो और तुम्‍हें निदेशक बनाए. शब्‍द गूँज रहे हैं: जाओ. पीछे मुड़कर मत देखो. यहाँ किसी को याद मत करना. पत्र भी मत लिखना. यह सब तुम्‍हें कमज़ोर बनाएगा. दरअसल अल्फ्रेदो कहना चाहता था कि ऐसा करोगे तो यह तुम्‍हारी माँ को, बहन को और हम सबको कमज़ोर बना देगा.

जाओ, इस प्‍लैटफ़ार्म को, क़स्‍बे को, हमारे हृदय को सूना करके जाओ.
विदा.

 

आठ

अल्फ्रेदो और तुम.
दोनों ने अपना वचन निभाया. तुम बीच में लौटकर नहीं आए. अब आए हो तो कुछ नाम कमाकर, हासिल करके आए हो. जैसा अल्फ्रेदो ने कहा था कि तुम लौटोगे तो वह तुमसे नहीं मिलेगा. तुम भी अब उसे केवल विदाई दे सकते हो. माँ एक आहट से समझ जाती है कि यह तुम आए हो. वह बुनते स्‍वेटर को अधूरा छोड़कर बाहर आ रही है. सलाई गिर पड़ी है. उलझकर अधबुने स्‍वेटर की ऊन वापस उधड़ने लगी है. एक जीवन वापस अपने ताने-बाने में जा रहा है. और तुम माँ से कहते हो कि मैं बस, एक घंटे की फ़्लाइट की दूरी पर ही रहता आया. यह तुम तीस बरस बाद बता रहे हो. कम से कम ऐसा कहो तो मत.

वह जानती थी एक दिन तुम आओगे.
तुम्‍हें अपने आने पर विश्‍वास न था.
उसे था.

तुम्‍हारे लिए तीस बरस बाद यहाँ हर तरफ़ स्‍मृतियों का कोषागार है. और यह तुम्‍हारा कमरा. माँ ने उसे संरक्षित करके रखा है. तुम्‍हारे इस क़स्‍बे में रहने तक का संग्रहालय. साइकिल, बिस्‍तर, पोस्‍टर, तस्‍वीरें, रीलें, उपकरण. अब तुम अपने ही बीत गए समय के दर्शक हो. विस्मित. और उस दीवार पर अल्फ्रेदो के साथ तुम्‍हारी तस्‍वीर. हर सफल जीवन के पीछे एक अल्फ्रेदो होता है. जो तुम्‍हें तुम्‍हारी उपस्थिति में प्‍यार करता है और अनुपस्थिति में और अधिक प्‍यार करता है. जो अपने प्रेम को अवरोध नहीं बनाता, उसका बलिदान करता है कि तुम कुछ हासिल कर सको. प्रेम की यही एक मात्र सच्‍चाई है. यही हज़ारों सालों से सारी भाषाओं में कहानियों की तरह लिखी जाती रही है. कलाओं में चित्रित की जाती रही है. संगीत में श्‍वास भरती रही है.

 

‘Cinema Paradiso’ फ़िल्म से एक दृश्य

नौ

अंतिम-यात्रा चौगान पर आ गई है. ‘सि‍नेमा पारादीसो’ सामने है : जर्जर. बुज़ुर्ग. लकवाग्रस्‍त. असहाय. जैसे टकटकी बाँधकर अपने गिरने की राह देखता हुआ. क्या पता, तुम्हारे आने की प्रतीक्षा में अंतिम साँसें लेता हुआ.  तुम्‍हें बताया जा रहा है कि ‍एक-दो दिन में यह पारादीसो टॉकीज गिरा दिया जाएगा. अब दुनिया को एकल सिनेमागृहों की ज़रूरत नहीं. यहाँ पार्किंग बनेगी. या और दुकानें निकल आएँगी. या मॉल बन जाएगा. बाज़ार बन जाएगा. यही विकास है. नयी सभ्यता है.

तुम पारादीसो के भीतर जाते हो. मानो अपने ही खण्‍डहर में. मकड़ी के जाले तुम्‍हारा स्‍वागत करते हैं. फटे पोस्‍टर. टूटी-बिखरी चीज़ें. हर चीज़ जैसे एक दर्पण है. अतीत को प्रतिबिंबित करता. एक सिनेमा दिखाता हुआ. इस हाॅल में सामने छिन्न परदे पर गतिशील तस्‍वीरों का उजास नहीं, जड़ीभूत अँधेरा है. संगीत की जगह कीड़ों, चिडि़यों, चमगादड़ों का शोर सुनाई दे रहा है. रोशनी के उस जंगले में भी जाले हैं, जिसका मुखौटा गिर चुका है. तुम एक बार फिर सीखते हो कि उज्‍ज्‍वल चीज़ें, उपेक्षित रहें तो कबाड़ बन जाती हैं. अपना ही उजाड़ देखने से अधिक तकलीफ़देह क्‍या हो सकता है.

खिड़की से बाहर यह उसी विशाल चौराहे का दृश्‍य है, जहाँ तुमने एक शाम नीली बस की प्रतीक्षा की थी. अपने प्रेम की. आशा की. वापसी की. आज भी नीली बस आई है. आसपास भीड़ है. ‘देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है, देखता हूँ तुम्‍हारे आकार के बराबर जगह सूनी है. इस महावन में फिर भी एक गौरेये की जगह खाली है.‘ जितना इस चौगान का महावन है, उससे कहीं अधिक तुम्‍हारे मन का महावन है. तुमने जो जीवन का पहला वीडियो बनाया था, अल्फ्रेदो उसे बचाकर वसीयत की तरह छोड़ गया है. उसे देखो कि वह जीवन अब केवल स्थिर या चलायमान तस्‍वीरों में रह गया है. देखो, उस पर भी समय की धारियाँ दिखती हैं.

 

 

‘Cinema Paradiso’ फ़िल्म से एक दृश्य

दस

तुम इन स्‍मृतियों के नवीनीकरण के भय से ही यहाँ आने से बचते रहे. वही सब सामने है. हर ख़ुशी, हर सुंदरता अगर बीत जाये तो एक तकलीफ़ में बदल जाती है. एक प्रसन्‍न तकलीफ़. तुम अब चाक सीने से ही मुस्‍करा सकते हो. तुम चीज़ों को स्‍मृति में पहचानते हो. सामने आने पर कुछ याद करके सोचना पड़ता है. कुछ सोचकर याद करना पड़ता है.

जैसे अब तुम समझ पा रहे हो कि तुमने माँ को किस क़दर अकेला और बूढ़ा कर दिया. उस तरह से नष्‍ट किया है जैसे कोई तीस साल दूर रहकर कर सकता है. क्‍या तुमने इस तरह ख़़ुद को भी नष्‍ट किया है. लेकिन माँ तुम्‍हारे बारे में ऐसा नहीं सोचती. उसे तुमसे कोई स्‍पष्‍टीकरण भी नहीं चाहिए. निश्‍चल प्रेम किसी कैफ़‍ियत का मोहताज नहीं होता. वह तो अब भी यही कह रही है कि तुमने इस क़स्‍बे से बाहर जाकर ठीक किया. सदियों से माँएँ अपने बच्‍चों की सफलताओं में ख़ुश रहती आई हैं. और गर्वीली.

लेकिन माँ की चिंता फिलहाल यह है कि पिछले तमाम वर्षों में उसने जितनी बार भी तुम्‍हें फ़ोन किया, तुमसे बात नहीं हुई लेकिन उधर से हमेशा एक नयी स्‍त्री की आवाज़ सुनाई दी. उनमें से उसे किसी की आवाज़ से ऐसा नहीं लगा कि वह तुम्‍हें प्‍यार करती हो. क्‍या अब भी कोई आशा है? जवाब में क्‍या तुम उस नीली बस को याद कर रहे हो.
साँझ के धुँधलके को. सीढ़‍ियों को.
और ऐलिना को??

तुम्‍हारे सामने ‘पारादीसो’ गिराया जा रहा है. तुम्‍हारा स्‍वर्ग धूल-धूसरित हो रहा है. ग़ुबार बैठता है तो एक ख़ाली जगह दिखती है. कुछ इस तरह ध्‍वस्‍त कि वहाँ अब किसी के न होने पर एकदम यक़ीन नहीं किया जा सकता. छोटा-सा आकाश धूल से भर गया है. अच्‍छा हुआ तुम जब अल्फ्रेदो को विदा करने आए तो पारादीसो को भी विदा किया. तुम दो अंतिम यात्राओं में एक साथ उपस्थित हो गए. दो मातमों में शरीक. और इस तरह अपने गुज़र गए जीवन के मातम में भी.

अब तुम, अल्फ्रेदो से अंतिम निशानी की तरह मिले उस वीडियो को अपने प्रेक्षागृह में चलाकर देखो. जैसे उसका प्री‍मियर कर रहे हो. और अकेले दर्शक हो. उन सैंसर्ड रीलों को देखो, जो उस समय के चुंबनों, आलिंगनों और उसाँसों से भरी हैं. और उस अबोध चंचल उत्‍सुकता से, जो सिर्फ़ बचपन में संभव होती है. वे श्‍वेत-श्‍याम रीलें. जो तुम्‍हें याद दिला रही हैं कि तुम कभी तुम थे. तुम सोच में पड़ गए हो कि क्‍या तुम अभी, इस ज़‍िंदगी में भी वाकई हो.
यदि हो तो कैसे हो, तोतो!
सल्‍वातोरे डी वीता!!

आभार :

पहले हिस्‍से के दूसरे पैराग्राफ़ में एडवर्ड डब्‍ल्‍यू सईद के कुछ शब्‍दों और नौवें हिस्‍से के अंतिम पैराग्राफ़ में ज्ञानेन्‍द्रपति की ‘ट्राम में एक याद’ कविता की तीन पंक्तियों के लिए.

Movie: Cinema Paradiso,1988/Director: Giuseppe Tornatore.

कुमार अंबुज
(जन्म : 13 अप्रैल, 1957, ग्राम मँगवार, गुना, मध्य प्रदेश)

कविता-संग्रह-‘किवाड़’, ‘क्रूरता’, ‘अनन्तिम’, ‘अतिक्रमण’, ‘अमीरी रेखा’, ‘उपशीर्षक’ और कहानी-संग्रह- ‘
इच्छाएँ’ और वैचारिक लेखों की दो पुस्तिकाएँ-‘मनुष्य का अवकाश’ तथा ‘क्षीण सम्भावना की कौंध’ आदि प्रकाशित.कविताओं के लिए मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी का माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर सम्मान, केदार सम्मान और वागीश्वरी पुरस्कार आदि प्राप्त.

kumarambujbpl@gmail.com
Tags: 20222022 फ़िल्मCinema ParadisoGiuseppe Tornatoreविश्व सिनेमा से कुमार अम्बुजसिनेमा पारादीसो
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Comments 13

  1. श्रीविलास सिंह says:
    9 months ago

    बहुत बढ़िया आलेख। न केवल सिनेमा को समझने की दृष्टि से बल्कि वैचारिक रूप से समृद्ध करता हुआ। लेखक और प्रस्तोता दोनों का हार्दिक आभार।

    Reply
  2. विनोद मिश्र says:
    9 months ago

    यह एक अद्भुत श्रृंखला है।हम भाषा और दृष्टिकोण से समृद्ध होते हैं हमेशा।कुमार अंबुज का बेहद सूक्ष्म और सामाजिक विश्लेषण ।बधाई।शुभकामनाएं।

    Reply
  3. बसंत त्रिपाठी says:
    9 months ago

    कुमार अंबुज की इस श्रृंखला ने सिनेमा को नए ढंग से देखने और उससे आत्मीय रिश्ता बनाने का दिलचस्प काम किया है।
    सिनेमा पैराडिसो’ पर लिखा गया यह लेख भी इसका उदाहरण है। यह फिल्म मैंने 2-3 बार देखी है। कुमार अंबुज के इस लेख को पढ़ने के बाद फिर से फिल्म को देखने की इच्छा जाग गई।
    यह अंबुज जी के लेखन की ताकत है।
    बसंत त्रिपाठी

    Reply
  4. Subodh Holkar says:
    9 months ago

    वाह ! क्या ख़ूब लिखा है ! ‘इच्छा ही नाम बदलकर अनिच्छा के नाम से रह रही थी’। मैं पढ़ता भी रहा और देखता भी। अब दिनभर इसका पागुर चलता रहेगा..

    Reply
  5. Daya Shanker Sharan says:
    9 months ago

    मन के भावों की इतनी सूक्ष्म और तात्विक अभिव्यक्ति कि सबकुछ पारदर्शी हो उठता है। एक पूरा परिवेश और उस कालखण्ड का अतीत,वर्तमान और भविष्य।यह सिनेमा के बहाने सभ्यताओं की समीक्षा है।साधुवाद !

    Reply
  6. Laxman Singh Bisht Batrohi says:
    9 months ago

    इस गद्य की खासियत यह है कि फिल्म, परिवेश और कथ्य-भाषा से परिचित न होते हुए भी यहाँ पूरी फिल्म शब्दों में बहती चली जाती है। अद्भुत!

    Reply
  7. पंकज मित्र says:
    9 months ago

    बहुत सुंदर आलेख। कुमार अंबुज ने फिल्मों की साहित्यिक समीक्षा की एक नई शैली विकसित की है। उनको और समालोचन दोनों को बधाई 🙏

    Reply
  8. रमेश अनुपम says:
    9 months ago

    सुप्रसिद्ध इटालियन फिल्म ’सिनेमा पारादीसो’ को केंद्र में रखकर लिखा गया कुमार अंबुज का ’अतीत के ताजा फूलों की उदासी’ ने मुझे अपनी बाहों में जकड़ लिया है, मुझे अवाक कर दिया है, मेरी आंखों में ढेर सारी उदासी और प्रेम के रंग उड़ेल दिया है । विश्व सिनेमा पर कुमार अंबुज को पढ़ना मुझे हमेशा चकित करता है। इतना सुंदर गद्य ,इतनी प्रांजलदृष्टि ,इतना गहरा कलाविवेक केवल कुमार अंबुज ही संभव कर सकते हैं। उनका गद्य क्या है कविता की कोई विरल पंक्ति , किशोरी अमोनकर द्वारा छेड़ा गया कोई राग या जंगल के एकांत में खिला हुआ कोई टटका फूल।
    तोतो और अल्फ्रेदो जैसे चरित्रों को भुला पाना मुश्किल है ।विश्वसिनेमा के श्रेष्ठ फिल्मों में शुमार ’सिनेमा पारादीसो’ पर कुमार अंबुज के इस सुंदर और विरल गद्य के लिए कुमार अंबुज , ’समालोचन’ और अरुण देव को ढेर सारी बधाई

    Reply
  9. Priyanka Dubey says:
    9 months ago

    एक बार शुरू किया तो सीधे दो बार पढ़ गयी – Kumar Ambuj सर के सिनेमा पर लिखी इस निबंध शृंखला की ख़ास बात यह है कि अमूमन हर निबंध का intro या opening बहुत strong है. यह निबंध भी इस बात का अपवाद नहीं है … ‘प्रत्‍येक शांत समुद्र अपने भीतर अशांत होता है’ तक पहुँचते पहुँचते पाठक बंध जाता है …एकदम स्ट्रीम ओफ़ consciousness से उपजने वाला लेखन …विचार और भावना के स्तर पर जो उठान intro से शुरू होती है वह अंत तक बनी रहती है ! इतना rewarding reading experience रहता है कि पढ़ने के बाद अजीब सा फ़ील होता है – यह विचित्र सी feeling वैसी ही है जैसी किसी भी गहरे अनुभव के बाद होती है … बहुत दुर्लभ और सुंदर pieces हैं …this one is also a brilliant essay 🙏

    Reply
  10. हीरालाल नगर says:
    9 months ago

    उन्होंने कुछ ऐसे सूत्र दिए हैं फिल्म को समझने के लिए कि पूरा दृश्य साफ हो जाता है। जैसे ये जख़्म कभी नहीं भरा। जीवन एक असमाप्त बुखार है, स्मृति की तरह। चुम्बन लेने के तरीकों से भी आदमी को पहचाना जा सकता है। यह चुम्बन धोखेबाज का है। अधीर प्रेमी का है।यह धैर्यवान मनुष्य का है, यह आसक्ति का है, यह मदहोशी का है। यह वासना का है। यह अल्पायु रहेगा। और यह अनश्वर पीड़ा देगा।
    हम पीड़ा के अनश्वर चुम्बन के मारे हुए है। सिनेमा के इन्हीं दृश्यों को लालायित बिछोह के अनंत दर्द से पीड़ित नायक की मन:स्थिति को समझना ही इस फिल्म को जानना है।
    अम्बुज जी को बहुत बधाई और शुभकामनायें।

    Reply
  11. Pankaj Agrawal says:
    9 months ago

    अद्भुत फिल्म पर अद्भुत आलेख.  फिल्म देख रखी है अत: पढ़ कर ज्यादा आनंद आया। आपके फिल्मों पर आलेख फिल्म ढूंढ कर देखने के लिए बेचैन कर देते  है. इस  आलेख ने यह फिल्म भी  फिर देखने की तीव्र इच्छा जाग्रत कर दी। सुन्दर।  धन्यवाद आपके और प्रकाशक का. 

    Reply
  12. Giriraj Kushwah says:
    9 months ago

    बहुत ही शानदार लेख।पढ़ते वक्त भावुक और भाव विभोर करने की ताकत है अंबुज जी के लेखन में

    Reply
  13. कैलाश बनवासी says:
    9 months ago

    सिनेमा पर कुमार अंबुज को पढ़ना हर बार इतनी सुखद विस्मितियां दे जाता है कि सिनेमा नहीं देखते हुए भी उन गहन मनोभावों में डूब जाते हैं जिनसे इनके पात्र गुजरते हैं। यह गद्य हिंदी का अपनी तरह का अनूठा और विरल गद्य है जो इससे
    पहले कभी नहीं देखा गया।बाज दफे इसकी काव्यात्मकता जटिल होकर दार्शनिकता या तत्वज्ञान या ऐसी ही आध्यात्मिक भावों में ले जाती है,तब वाक्य बेहद महत्वपूर्ण होते हुए भी इसे सहज आत्मसात करने में समय देना पड़ता है,उन भावों में खुद को फिर फिर डालकर उसका वास्तविक अहसास करना पड़ता है।यह गद्य किसी सर्वस्वीकार्यता और लोकप्रियता के टोटकों की कत ई कत ई नहीं है।यह जीवन के अतल गहराइयों, अंतर्द्वंदों, जटिलताओं आदि में उतरने की चुनौती को स्वीकार किया गद्य है।
    इस फिल्म पर भी इसके सभी हिस्सों पर जैसी सार्थक, सटीक और लगभग सूक्तिनुमा टिप्पणियां बेजोड़ हैं और हमें तोतो और अल्फ्रेडो, मां या उस पारदेसो को हमसे बहुत भावनात्मक स्तर पर जोड़ देता है।
    ढेर सारी बधाइयां कुमार अंबुज और इस सीरिज को सामने ला रहे अरुण देव (समालोचन) को

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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