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Home » ज्योति शोभा की कविताएँ

ज्योति शोभा की कविताएँ

कवि अपनी प्रेयसियों पर कविताएँ लिखते रहें हैं. प्रिय कवियों पर भी कविताएँ लिखीं गयीं हैं. ज्योति शोभा ने पांच शहरों के अपने प्रिय कवियों पर कविताएँ लिखीं हैं. ये प्रेम की भी कविताएँ हैं और उस शहर की भी. ज्योति शोभा की कविताएँ बता देतीं हैं कि वे कलकत्ते की काव्य परम्परा से हैं, वैसा ही आवेग, सुकुमार प्रतीक और वैसा है भग्न प्रेम. समकालीन हिंदी कविता में ज्योति शोभा ने अपनी जगह बना ली है. उनकी कुछ और कविताएँ भी प्रस्तुत हैं.

by arun dev
July 11, 2022
in कविता
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ज्योति शोभा की कविताएँ
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ज्योति शोभा की कविताएँ

 

1)
पटना का प्रिय कवि

 

मैं जिसके लिए पागल हुई वह मेरे लिए नहीं हुआ
वह मिलता तो पहले दृश्यों की बात करता
फिर कविताओं की पड़ताल करता
मेरी खुली हथेली पर गिरे फूलों की तरफ उसने एक बार भी नहीं देखा

किसी बंद दरवाज़े को देखता तो खोल देता
खुले बटन देखता तो बंद करता उसे
दर्पण, कंघी, जवा का तेल नहीं खरीदता
दो रुपये के लावे लेता
और छितरा देता घाट की सीढ़ियों पर

मुझे जिस तरह मिला वह ऐसे कोई चित्रकार ही मिलता है अपने चित्रों में
बादल के दो हिस्सों के बीच छूटा हुआ
मुंह भर खाया हुआ पके सेब से
और लम्बी दूरी की ट्रेन की टिकट पर कहीं एक कोने में लिखा
छोटे से स्टेशन का नाम

जिस तरह कलकत्ते की सड़कों के विषय में
मैं जरूरत से अधिक लिखती रही
वह नहीं जान पाया
भीगे सागौन पर एक पत्ती सूखी रह गयी है
डाकघर के बक्से से झांकती
एक अधभीगी चिट्ठी

वह कवि था जिसके लिए मैंने कविता लिखी
देह पर उसकी जंगलों की निविड़ता
उसकी कलादीर्घा जैसी लम्बी उँगलियाँ
केशों में उसके अगहन के अचरज भरे दिन

जब वह कहता- गंगा पटना में भी है
मुझे विस्मय होता कि जितनी मैं रुग्ण हुई हूँ इसे देखने
उतना तो कलकत्ता का मछुआरा तक नहीं हुआ
फिर उसके संवाद की तरह पटना में तो नभ दीखता है गंगा का जल नहीं दीखता

उसके पागलपन से ६०० किलोमीटर दूर है मेरा पागलपन
मैं नहीं देख पाती
उसके चेहरे से उड़ते कुहासे में कितनी कम ठंडक है.

 

2)
अंबिकापुर का प्रिय कवि

 

तुम्हारी दुनिया में अलग क्या है

मेरे कवि तुम्हारा आकाश कितना नीला है
कितने घने हैं मेघ तुम्हारी दोपहरों के

अंबिकापुर में रहते क्या तुम्हें इतने बरस हुए
जितने में मेरी उत्कंठा गल गयी
और फ़ैल गयी है जलकुम्भी जैसी
तुम्हारा चेहरा क्या हो गया है अपनी कविताओं सरीखा तरल

तुम्हारा हाथ पकड़ कर कोई तो रोकता होगा जब तुम उच्चारते होगे
स्त्रियों को फूलों के नाम ले कर
बारिश लिखते होगे नयी लिपि में
क्या बहुत अलग है तुम्हारे शहर में होंठों से बुदबुदा कर प्रार्थना करने की रीति

किस अन्न से बनी है तुम्हारी आत्मा
क्या नहीं मिलता मेरे दुःख से तुम्हारा दुःख
मेरे कवि तुम जब बात करते हो क्या एक बार भी नहीं आती उनमें मेरे शहर के पुराने पुल की भव्यता
नहीं फिसलते तुम्हारे पाँव भादो की कीच पर
कितना समान है तुम्हारा हृदय मेरे हृदय से
जिसमें एक नदी चल कर पहुँचती है तुम्हारे तलवों से तुम्हारी पसलियों तक

अंबिकापुर इतना भी दूर नहीं
कि नहीं जाती होगी कलकत्ते की धूप और उमस
कभी तो जरूर चू आता होगा मेरी कविता का स्वेद कनपटियों पर तुम्हारी

भाव की तरह मैंने तुमसे ही सीखा है अंतर्वस्त्रों को छुपाने का विधान

मेरे कवि अलग सिर्फ तुम हो मुझसे
वरना तो तुम्हारे अंबिकापुर में भी कलकत्ते की गंध होगी.

 

3)
बनारस का प्रिय कवि

 

मैं कब आऊँगी तुम्हारे बनारस
जहाँ मसान भी उतने हैं जितने देवगृह
डोम भी उतने हैं जितने प्रेमी

जहाँ कलकत्ता से एक रत्ती कम नहीं होती वृष्टि
न ताप कम होता है सुलगती अर्थियों से

तुम्हारे लिए नहीं
उन संवादों के लिए जो गुप्त रह गए हैं अंधकार में
जो नहीं जानते शहर की गलियों में भाषा से अधिक खिड़कियां हैं
शिल्प से अधिक उपमा हैं उनमें
मैं कब कह पाऊँगी तुमसे
अपने संग एक चिह्न जरूर ले जाना चाहिए देह को अग्नि में

सुना है बीच धार तक ले जाते हैं मल्लाह फिर कहते है
अरुणाभ दीखता है बनारस डूबते सूरज की बेला
मानो प्रोज्ज्वल दीप पर झुक कर किसी मुख ने छाया कर दी हो

तुम जो गद्य पढ़ते हो उसमें सैकड़ों पाखी एक संग उड़ते हैं
हारमोनियम धरे आते हैं प्रेमी और
भटक जाते हैं शोक गीतों के रस में
भिक्षुकों की तरह मांगती हैं मृत्यु अपना चुंबन
कोई गड्ढे में पड़ा दर्पण मेरे कुण्डलों सा कौंधता है
तुम नहीं देखते
संसार देखता है परदे के पीछे से

तुम कब लौटोगे बनारस
सहमी प्रतिमाओं के गर्भ में
मेरी अस्वस्थ देह की इच्छाओं में
जिस पर ठहरी रहती है कलकत्ते की हवा
चुप रहती है लट
और लगता है सांस अपने ही पिंजर से लिपटी है

मगहर में मृत्यु होगी किन्तु जीवन बनारस में है
जहाँ शास्त्रीय संगीत की नर्तकी जैसी झूमती है इमली की टहनी

लौट रही ऋतु में कम हो रहा है तुषार
खो रही है पीली गंध
सहजन पर फूल नहीं आते
क्या बनारस में आते होंगे

मैं कब आऊंगी तुम्हारे बनारस
दूसरे प्रेम की तरह मुझे दूसरे जन्म पर संदेह है

तुमने उसी शहर को छोड़ा जहाँ मुझे मिलना था तुमसे.

 

4)
दिल्ली का प्रिय कवि

 

कितने बरस हुए
पीछे रह गयी है तुम्हारी दिल्ली
जो धूप से नहीं सैकड़ों कबूतरों के डैनों से ढकी है

मैं दूर आ गयी हूँ किन्तु भूलती नहीं है मुझे पीरों की मज़ारें
जिन पर रखा एक सफ़ेद फूल ऐसा दिखा जैसा तुम्हारा मौन दिखता है
कंठ की हड्डियों की खोह में

अनगिन ऋतुएँ बीती
पीछे छूट गयी है तुम्हारी निस्पृह उदासी
संग नहीं आयी है तुम्हारी हंसी
एक फीकी सी बारिश आयी है जो साँझ में खिड़कियां नहीं खोलने देती और
भिगोती भी नहीं है

तुम यकीन मत करना अगर कोई तुम्हें सितार से उंगलियाँ छिलने की बात कहे
मन खिंचता है तारों पर
इतनी दूरी में भी
कोई राग दूसरे पर नहीं चढ़ता
मेरे दिनों में कौंधता रहता है एक म्लान बिम्ब
जिसका रंग यमुना के पानी सा है
एक भटकी धुंध खुसरो की किताबों के पन्ने पर तिरती है
मुझे याद रहता है
इस पतझड़ तुमने अपने मन को बचाया है सूखने से

दिल्ली तुम्हें बचाना सिखाती है
कलकत्ता मुझे खर्च होना सीखा रहा है
कलकत्ते में चाहूँ भी तो नहीं सूखता हृदय
एक स्त्री बची रह जाती है कत्थे लगे
पान के पत्ते पर
बार बार झांकती है मीठी पुकार में

कम मनुष्य हैं संसार में जो सम्मोहन की कला जानते है
तुमसे मिलकर नहीं भूलती हूँ
मकबरों जैसे दिखते हैं दिल्ली के कवि
अशोक की छाया से बंधे रहते हैं
लिपटे रहते हैं लोबान की गंध से
भंगिमा से अधिक फूल गिरते हैं उनकी देह पर

तुम नहीं मानते
जो कभी नहीं खोये हैं कलकत्ते की राज बाड़ियों में
वे मनुष्य भी खोये हैं दिल्ली की धुंध में
उन्मुक्त धूल की तरह
ऐसे मनुष्यों के भीतर गूंजती है प्रेम कथाएं

यही कारण है मेरा मृत कवियों से प्रेम गाढ़ा होता जाता है
और तुम्हारी दिल्ली ऐसे अनंत कवियों से भरी है.

 

5)
उज्जयिनी का प्रिय कवि

 

उज्जयिनी मुझे शूल की तरह गड़ती है
तुम्हारी तरह उसका लावण्य सहा नहीं जाता मुझसे

जिस नगरी को तुमने छू कर देखा है उसे छूने के लिए मैं
तुम्हें छूती हैं
देखती हूँ तुम्हारे दृग
कि देख लूँ कैसे बच गए तुम इतने सुख में कलुषित होने से

कैसे मत्त घूमते हो तुम मेघदूत के स्वर्ग में
जहाँ कृष्ण पक्ष के तिमिर में भी तुम्हारी देह स्वच्छ चन्द्रमा जैसी दिखती है
और उन्मुक्त पताका जैसी लहराती है इच्छाएँ

माया रचती है उज्जयिनी को
प्रेम माया को रचता है
जिस बाण भट्ट ने उज्जयिनी को रचा वह कैसा रूपवान है कैसा गर्वीला कि स्वप्न में आता है
हाथ नहीं आता

पखवाड़े पूर्व लिखा पत्र पढ़ते तो जानते
मरूंगी तो किसी दिन क्षिप्रा में मरूंगी
तुम्हारे संग नहीं
तुम्हें देखते हुए नहीं
तुम्हें हृदय में लिए मरूंगी वहां जहाँ क्षिप्रा का जल गोपाल मंदिर पर चढ़ आता है
और दग्ध दीखता है मेरी आत्मा की तरह

अचरज होता है कालीघाट के पंडितों को जो काली के मोह हैं
कि कोई ऐसी भी स्त्री है संसार में जो ब्रह्मचर्य धारण किये
उज्जयिनी के पंडितों के मोह में है

इसी नगर से निकल कर तुम कलकत्ते आये
धवल कुरता डाले
आये थे ग्रीष्म की भोर
खीर का भोग देख कहते थे
उज्जयिनी की कार्तिक ऐसी ही दिखती है
दूध से धुली सराबोर मुकुलों से
गड़ गयी थी मुझे उज्जयिनी उसी क्षण
रोष में कालिदास को रख दिया पोथियों के नीचे
क्यों नहीं चले आये वे मुझे अपनी प्रिय नगरी में ले चलने
जैसे तुम आये थे इस कलकत्ते में

हर्ष नहीं होता जीवन का जब पूछता है कोई
क्या कभी नहीं गयी हो उज्जयिनी
जहाँ औघड़ रहते हैं
क्षिप्रा के हर घाट पर प्रेमी जैसे प्रतीक्षा में बैठे हुए.

 

 

by Pritam Biswas

नहीं मिले अच्युतानंद दास

कितनी वृष्टि हुई इस बरस
पार्थिव कितने चिह्न धुल गए हैं

कब से चल रही हूँ
सब मार्ग खत्म हो गए सब जंगल पत्थर हो गए
सब जीवित वस्तुओं के अंदर की माटी दिखने लगी है
रात की चाँदनी में कास के पुष्प ऐसे दिखने लगी हैं जैसे कभी दिखते थे तुम्हारी छाती के धवल केश
आँखें मूंदती हूँ तो दिखने लगता है तुम्हारा मुख जैसे धूल में पड़ा कांच चमकता है
पके धान की तरह खींचने लगता है तुम्हारा वर्ण
कार्तिक के सारे संकेत कहते हैं इसके आगे अक्षय हो जाता है मन, देह अरूप हो जाती है
किन्तु चलती थी हुगली की धार पकड़ कर , उस हठ में नहीं रुकती थी जो निर्विघ्न खाता है हृदय को दीमक की तरह

कब से ढूंढ़ रही हूँ
दाह से बचाने वाले कवि को
कितने मनुष्यों से भरे क़स्बे मिले, पहरेदारों से अटे द्वार, जल से लबालब कितनी नादें
नहीं मिले अच्युतानंद दास
कब से नहीं पहुंची हूँ जीवन के छोर पर

तलवे मोहाविष्ट हो गए हैं धरती से
दिगंबरों की भाँति नग्न रहते हैं चारों पहर
देह पर लिपटी हैं सब वनस्पतियां , सारे कीट
पार हो गया है नबद्वीप का मृदुल सागर और टूट गया है शंख का कठोर कंपन
घंटियों की क्षीण पुकार की तरह मृत्यु तक छूट गयी है पीछे

अब निचाट काल ही है सामने
जो विषाद नहीं जानता , मरे हुए कवि की तरह घेर लेता है हृदय को

जैसे जीवन के बाद भी जीवन बच जाता है किसी कषाय बिम्ब में.

 

क्या तुम कभी मिले हो अपनी प्रेमिका से इन शरद की रातों में

क्या तुम कभी मिले हो अपनी प्रेमिका से इन शरद की रातों में
बंधी नौका के जैसा घोर निविड़ गूंजता है जब सेमल के गाछ में

मृत कामनाओं जैसे शव बुलाते हैं
कोई नहीं पलटता
नीमतल्ला से हाथरिक्शा पर चढ़ कर लौट जाते हैं नशे में धुत्त प्रेमी

आँखों के मध्य तिलक नहीं अश्रु जमे हैं
शहद रिसता है कुम्हलायी वैजयंती से। लगातार वर्षा के कारण बहुत ऊपर तक बढ़ आयी है हुगली।

ऊपर की तरफ उठते हैं अग्नि के पतंगे
मेरी अधीरता घटती जाती है। हावड़ा का पूल सामने है और हवा बहुत कोमल। मीठी हो जाती है जिह्वा।
मुझे मृत्यु का ध्यान नहीं आता।
इस समय तुम चाहो तो खोज सकते हो जलकुम्भियाँ कुम्हलायी देह में भी।

मन में तो श्मशान की अग्नि है
तीन पहर जलती है
मंडी में बिकते रहते हैं गुलाब , मोगरे और मानसिक दोष दूर करने की औषधियाँ
संसार सामूहिक गीत गाता है , दुःख दूर करने की औषध खोजता है जो कवियों ने भी नहीं लिखी

क्या तुम नहीं जानते हो
उत्सव के अंत में प्राणों का कोलाहल बढ़ जाता है और प्रेमिकाएं तैयार हो जाती हैं
अपना शव किसी अनजान काया को सौंपने.

 

कलकत्ता में ऊष्मा पीछा नहीं छोड़ती

कलकत्ता ढका हुआ है ओस की नरम सफ़ेद चादर से
दो दिनों से धूप गुनगुनी है
ट्रामें चुपचाप सरक रही है चिकनी सड़कों पर
कोई रैली नहीं है इन दिनों
कोई भाषण नहीं
उत्तम कुमार के श्वेत श्याम गीत बजते हैं एक पान की दूकान में
जिसमें ठीक नवंबर जैसी सिहरन है

पूर्व की ओर से आया
कुर्ते से धूल झाड़ता एक कवि पूछता है
क्या तुमने देखा है कला का बाज़ार
मैं संकेत करती हूँ हुगली की तरफ

देखो इन दिनों शिथिल है कलकत्ता की वृष्टि
अगर तलवे डालो तो मौन जल में पूरा आकाश सिमट आएगा उसके गिर्द
और फूँको तो घुल जायेगी तुम्हारी देह

अनावृत देह लिए तैराक खोजते हैं खोयी हुई प्रतिमाएं
इन दिनों विक्षिप्त रहते हैं गेंदे बेचनेवाले
बीड़ी फूंकती स्त्री की छाया पर तारे तिरते हैं
बीते हुए प्रेम की तरह
कलकत्ता में ऊष्मा पीछा नहीं छोड़ती

तुम धर्मतल्ला से गर्म कपड़े खरीद लो अपने ठंडे शहर के लिए
तुम कला का क्या करोगे कवि !

 

रुखा है शरद

रुखा है शरद
रूखी हो गयी है स्मृतियाँ तुम्हारी
कोई रस नहीं किसी भी किताब में जिससे एक दिन जिया जा सके

तुम जिस ताज़े गुलाब को खोंस गए थे केशों में वह भी रुखा हो कर गड़ने लगा है गर्दन की त्वचा में

क्षण भर भी नहीं ठहरता प्रेम का माधुर्य
रुखाई इतनी है अर्धरात्रि के नभ में कि होंठ सूखते है चन्द्रमा देखते हुए

रूखी देह लिये मैं जो कविता लिखती हूँ उसमें तुम लालित्य मत खोजना
उसे निज़ाम ने अपनी कलगी पर लगा रखा है

रुखाई में जितना हो सकता है उतनी ऊपर तक उड़ती है धूल
जितनी दूर तक सम्भव था वहाँ तक गयी आंधी
किन्तु कुछ नहीं मिला रूखे संसार में

दो घूँट जल के बाद हुए कंठ की तरह
नींद में उगी कमलिनियों के डंठल तक रूखे हैं.

 

मौलिक कुछ भी नहीं

यह चेहरा तुम्हारे पूर्वजों का है
यह आग पत्थरों की है
यह भाषा हवा में नाचती तितलियों की है

यात्रा तुम्हारी नहीं नदियों की है
प्रेम और स्पर्श सब पहरों के हैं

भंगिमा तुम्हें कामना ने दी है
सौंदर्य तुम्हें चुप्पी के अंधकार ने दिया है

तुम जिस कल्पना का दम्भ भरते हो
वह भी मौलिक नहीं
दुःख भरे दिनों में वह तुम्हें दवा की पुड़िया के कागज़ पर मिली है.

‘बिखरे किस्से ‘ और  ‘चाँदनी के श्वेत पुष्प’ कविता संग्रह प्रकाशित.
jyotimodi1977@gmail.com
Tags: 20222022 कविताएँज्योति शोभानयी सदी की हिंदी कविता
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Comments 27

  1. मनोज मोहन says:
    9 months ago

    बेहतरीन कवितायें…

    Reply
    • डॉ. सुमीता says:
      9 months ago

      अहा! मनभावन कविताएँ। जिन्हें बार-बार पढ़ने का मन करे, ऐसी सुन्दर कविताओं के लिए ज्योति शोभा जी को हार्दिक बधाई।

      Reply
  2. गीता श्री says:
    9 months ago

    जादू ! कविताएँ नहीं… जादू है. मंत्रों की पुड़िया… मैंने कवियों को पहचाना.
    और मुझे ज्योति के रुप में एक अद्भुत कवि मिली.
    मैं बार -बार पढ़ना और उल्लेख करना चाहूँगी.
    आज का हासिल हैं ये कविताएँ. उन तक मेरा सलाम पहुँचे.

    Reply
  3. प्रमोद says:
    9 months ago

    बहुतसुंदर कविताएँ हैंl आभार!

    Reply
  4. विजय बहादुर सिंह says:
    9 months ago

    इस कवयित्री की कविताओं को पहली बार पढ़ रहा हूँ तो सबसे पहले वे स्थानिक सुगंधें मुझे अभिभूत कर रही हैं जो इन दिनों प्राय:सहज सुलभ नहीं रह गईं हैं।इस की प्रतिभा में वह संस्कृति बोध भी गजब का है जिससे किसी देश और भाषा की पहचान गौरवान्वित होती है।
    इसका कल्पना -बोध भी गजब है जिसमें जमीन पर पाँव पाँव चलने औरआकाश में अबाध उड़ जाने का सामर्थ्य एक साथ चकित करता है।
    वस्तुतः यह केवल प्रेम की तलाश नहीं है,उस जातीय जीवन बोध की पीड़ाभरी तलाश भी है जो इन कविताओं में किसी सांस्कृतिक संग्रहालय सा सुरक्षित कर दिया गया है।
    कृपया इन्हें मेरी ओर से खूब सारी शुभकामनाएं दें।

    Reply
  5. प्रयाग शुक्ल says:
    9 months ago

    हमेशा पढ़ता हूं उनकी कविताएँ। वे मुझे इस कारण भी अच्छी लगती हैं कि मैं कोलकाता में ही बड़ा हुआ हूँ और उनकी कविताओं में कोलकाता की भी एक मर्म भरी उपस्थिति रहती है।
    उनके बिम्ब अनूठे हैं। उनमें भाव पूर्ण चित्रात्मकता रहती ही रहती है।

    Reply
  6. Anonymous says:
    9 months ago

    अद्भुत कविताएँ।प्यार पहुँचे शोभा को।

    Reply
  7. prabhat ranjan says:
    9 months ago

    बहुत अच्छी कविताएँ हैं। ताज़गी से भरपूर

    Reply
  8. निवेदिता झा says:
    9 months ago

    कई बार पढ़ी कविताएं। कई कई बार किया प्रेम कविताओ से। ऐसी कविताएं जो आपके भीतर की सारी खिड़कियां खोल दे। हर शहर और शहर का कवि दिल में हूक पैदा करे। शुक्रिया इन कविताओं से मिलाने के लिए। ज्योति शोभा इतनी सुंदर कविताएं लिखती हैं आप। आपको सलाम

    Reply
  9. संध्या सिंह says:
    9 months ago

    अद्भुत बिंब रचती हैं …एक अचंभी-सी दुनिया है …मन को भा गई आपकी कविताएं।।

    Reply
  10. कुलजीत says:
    9 months ago

    बहुत संवेदनशील, मार्मिक कविताएं। अनूठी यात्राएं और इंद्रिय बोध लिए।

    Reply
  11. योगेश ध्यानी says:
    9 months ago

    कम मनुष्य हैं संसार मे जो सम्मोहन की कला जानते हैं….

    ज्योति जी की कविताओं मे कलकत्ता धुरी है, मगर संसार भर के अनुभव उनकी कविताओं की पंहुच मे हैं।
    प्रिय कवि को पढ़ना सदा की तरह इस बार भी सुखद है ।

    Reply
  12. विनोद पदरज says:
    9 months ago

    बहुत अच्छी कविताएं बिलकुल भिन्न स्वर कलकत्ते से कविताएं जो एक स्त्री कवि ही संभव कर सकती है
    मैं शुरू से उनकी कविताएं पढ़ता रहा हूं
    वे बीच बीच में ओझल होती रही हैं शायद सृजन रत रहने के लिए
    दिल्ली तुम्हें बचाना सिखाती है
    कलकत्ता मुझे खर्च होना सिखा रहा है
    क्या पंक्तियां हैं
    आज बहुत सारी कवि मित्र इस तरह की भाषा के संधान में लगी हैं जिसका आरंभ ज्योति शोभा से हुआ
    एक तिलिस्म हैं उनकी कविताएं बिना उनकी भाव भूमि पर जाये समझना मुश्किल
    आइए इस संसार में, अपने पुराने हथियार कवच कुंडल उतारकर प्रवेश करिए, यदि कर सकें
    बधाई प्रिय ज्योति जी

    Reply
  13. प्रदीप सैनी says:
    9 months ago

    अगर मैंने ज्योति शोभा को अपनी आँखों से न देखा होता तो मेरे लिए यह यक़ीन करना मुश्किल ही था कि इतनी दिव्य कविताओं का कवि हमारी ही तरह हाड़ और मांस का पुतला है न कि प्रेम और स्वप्न के सौंदर्य की कोई देवी।

    Reply
  14. Deependra Baghel says:
    9 months ago

    बहुत ही सुंदर, और मनोभूमि में लंबे समय तक ठहरकर लगातार सूक्ष्म क्रियाओं से उथलपुथल को रचती कविताएं।ये पात्रता की अपेक्षा रखती है और अपने खंडित पात्र को संजोने के लिए इन्हें बार बार पढ़ना होता है। और फिर भी काफी कुछ छूट ही जाता है।
    वियोग का गहरा बोध इनमे गहरे से विनयस्त है पर वियोग में यहां कोई शिकायती पीड़ा नहीं है , बस कविता मानो प्रेमी भी नहीं बल्कि प्रेमी चेतना तक पहुंचने के लिए पूल रचती दिखती है। स्थान , मृत्यु , प्रकृति के बोध यहां ऐसी परा – सूक्ष्म अनुभूतियों में रचे जाते है , जहां शब्द और उनकी छवि पूर्ण व्यंजनाएं सिहरन पैदा करते है।वे कविता में सर्वथा नई दृष्टि लेकर आई है , इसलिए उनकी कल्पनाशीलता , गहरी संलग्नता से अप्रत्याशित रचती है।।वे सचमुच पूरी तरह स्वायत्त काव्य सृष्टि रचती है, संसार तो केवल उसकी भौतिक सामग्री की तरह उसमे उपयोग होता है।प्रेम के स्थूल सामांन्य आदान – प्रदान रिश्ते से उनका फलसफा ही इतना भिन्न और विशिष्ट है की वे प्रेम की सर्वथा सूक्ष्म एंद्रिक ग्रहणशीलता का अवकाश रचती है। प्रकृति के सामान्य अर्थ बोध और छवि बोध से भिन्न वे अपनी विशिष्ट काव्य चेतना से बिलकुल ही नए अर्थ सृजित करती है ,जो अप्रत्याशित तो है ही पर सर्वथा विशिष्ट भी है। इस काव्य उत्सव में जुड़े सलग्न सबको बधाई।हिंदी कविता की यात्रा में नए पड़ाव को महसूस कराने के लिए।

    Reply
  15. सरिता कुमारी says:
    9 months ago

    बहुत ही प्रेम से सराबोर व भावपूर्ण कविताएँ । साथ ही स्थानीयता व संस्कृति की कल-कल धारा भी बह रही है। एक सुखद अहसास कराती हैं ये कविताएँ। इस कवियत्री को मैंने पहली बार पढ़ा है। उन्हें बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

    Reply
  16. Jaswinder sirat says:
    9 months ago

    कहने भर को नहीं सच में बहुत ही बेहतरीन है कविताएं और आप भी 🙂

    Reply
  17. आरसी चौहान says:
    9 months ago

    कविताएं निर्मल नदियों की तरह बहती हुई

    Reply
  18. कुमार अम्बुज says:
    9 months ago

    इन कविताओं से गुज़रना एक विलक्षण अनुभव है। वेदना, कामना और लालसा के उत्स से गुज़रना है। कई लुप्त नदियों के किनारे बस कर नष्ट हो गईं सभ्यताओं से भी। इनका तकलीफ़देह संगीत झंकृत है और उसका अनुनाद भी। शोभा ज्योति को बधाई। और शुभकामनाएँ।

    Reply
  19. Tewari Shiv Kishore says:
    9 months ago

    पहली दो कविताएं प्रेम कविता की परिधि में आ सकती हैं। इनमें पाने-खोने के एक तरल भाव-स्रोत की आहट है; जैसे: ‘उसकी कलादीर्घा जैसी लम्बी उंगलियां/केशों में उसके अगहन के अचरज भरे दिन’; ‘उसके पागलपन से 600 किलोमीटर दूर है मेरा पागलपन’; ‘मैं जिसके लिए पागल हुई वह मेरे लिए नहीं हुआ’; ‘अंबिकापुर इतना भी दूर नहीं /कि नहीं जाती होगी कलकत्ते की धूप और उमस’। मैं कवि को जानता होता तो कहता इन कविताओं में एक ‘कनफेशनल’ तत्त्व झांकता है।
    बनारस वाली कविता सभी बनारस वाली कविताओं की तरह शहर के रोमांस के बारे में है,या हो गई है, परंतु शिल्प प्रेम कविता का है। ‘दिल्ली का प्रिय कवि’ सामंती युग से आज तक की कहानी समेटती है पर उसका कथ्य स्पष्ट नहीं है। उज्जैन वाली कविता कला की दृष्टि से सुष्ठु है पर कथ्य बिखरा है (बाण भट्ट किधर से घुस गये?)। अच्युतानंद वाली कविता पर कुछ नहीं कह पाऊंगा क्योंकि स्पष्ट नहीं है कि ये अच्युतानंद ओडिशा के संत हैं या कोई और। ‘क्या तुम मिले हो…’ यह कविता बांग्ला की कविता जैसी लगती है। कुछ spooky पर असरदार।
    मैं इन कविताओं के शिल्प से बहुत प्रभावित हुआ। कवि किन्हीं कवियों से भावात्मक ही नहीं आध्यात्मिक स्तर पर एक सम्बंध बनाती हैं। यह एक दुरूह और जटिल विषय है। कवि ने इसे अभिव्यक्ति देने के लिए जो चित्र प्रस्तुत किये हैं वे सहज-अधिगम्य पर प्रभावोत्पादक हैं। देखिए :
    ‘मेरी खुली हथेली पर गिरे फूलों की तरफ
    उसने एक बार भी नहीं देखा’
    कल्पना कीजिए कि वाचिका हरसिंगार के नीचे खड़ी होकर झरते हुए फूलों के लिए हथेली फैलाए है। परंतु बगल में खड़ा नायक कवि ” कविताओं की पड़ताल” कर रहा होता है। यह इनकांग्रुइटी का क्षण किस सहज चित्र के द्वारा उद्घाटित हुआ है!
    लम्बा हो गया, क्षमा चाहता हूं।

    Reply
  20. Prabhat Milind says:
    9 months ago

    कविताओं को जैसी होना चाहिए, ठीक वैसी ही कविताएँ हैं। पाठकों के मन में जादू जगाती हुईं, भाषा के वैभव से भरी हुईं और भावों के रहस्यों में अकुंठ डूबी हुईं। चौंकाने वाले जिस बिंबलोक के कारण ज्योति शोभा उबाने लगीं थीं और उनसे थोड़ा मोहभंग हुआ था, अरसे बाद उनको फिर से पढ़ना उतना ही रुचिकर लगा। कथ्य के अन्तरलाप की तारतम्यता को पकड़े रहना और साधे रखना उनके नए कवि की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि हैं। एक पाठक के रूप में यह कहा जा सकता है कि संभवतः अब उन्होंने अपनी भाषा और वैचारिकता पा ली है। इन कविताओं को पढ़ कर उन कवियों से भी प्रेम हो गया, जिनसे अनुराग छूट चुका था। शानदार कविताएँ सचमुच। Tewari Shiv Kishore सर की टिप्पणी विशिष्ट है।

    Reply
  21. ANUP SETHI says:
    9 months ago

    इन कविताओं में है सम्मोहिनी शक्ति

    Reply
  22. अरुण कमल says:
    9 months ago

    ज्योति की कविताएँ बिलकुल अप्रत्याशित,सर्वथा पृथक और सम्मोहक हैं।अभिनंदन

    Reply
  23. रवि रंजन says:
    9 months ago

    इन कविताओं में रचनाकार ने काव्य-प्रोक्ति का जैसा रचनात्मक और प्रभावशाली इस्तेमाल किया है वह निस्पृह होकर रचित प्रेम कविता का एक बेहतर उदाहरण है। शैली वैज्ञानिक पारिभाषिक शब्दावली में कहा जाय तो इन कविताओं में संवाद की सहभागिता के अभाव में कभी कभार परिमाण-सूत्र (Maxim of Quantity) खंडित होता है और प्रोक्ति-स्तर का विचलन भी उभरता है।
    बावजूद इसके,’विनीतता के सूत्र’ ( Maxim of Polity) के तहत ये कविताएं बहुत हद तक श्रेष्ठ रचना का उदाहरण सिद्ध होती हैं।
    जाहिर है कि कविता का शैलीवैज्ञानिक अध्ययन- विश्लेषण श्रमसाध्य और समयसाध्य सारस्वत कर्म है । साथ ही यह भी कि यह काम फेसबुक पर संभव नहीं है।
    बहरहाल, रचनाकार को मुबारकबाद और अरुण जी तथा समालोचन की टीम को साधुवाद।

    Reply
  24. Samba Dhakal says:
    9 months ago

    इनकी कविताएँ जीवन्त औ मानवीय है,है साँस्कृतिक वैभव स्वीकार करने वाला आत्मा भी । कविता कि भाँती भी जिज्ञासु बनाने मे पोख्त है । यह भी कि आप कविता लिखती रहो !

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  25. Baabusha Kohli says:
    9 months ago

    इन कविताओं को पढ़ कर कई दिनों बाद पाठ का रस लौटा। आकर्षक शिल्प और विश्वसनीय कहन। फिर से पढ़ूँगी।

    Reply
  26. Pratap Singh says:
    5 months ago

    इन कविताओं में प्रेम की धड़क है। भारतीयता के दायरे में ही ग्लोबल जीवन-रस है। विस्फोटक-बिम्ब हैं।ऐसे रूपक हैं जो हमेशा स्वच्छंद रहना चाहते हैं। संग-साथ के फ्लैशब-बैक किसी को भी अपने अपने स्पर्श को फिर से जीने का अवसर देते हैं। मृत्यु और देह से मोहभंग भी संभव है ज्योति जी की कविताओं में। स्थान छूट हुए हैं पर भीतर में समाए हैं किसी स्थापत्य की तरह। बहुत दिनों बाद चिट्ठी की तरह इन कविताओं को पढ़ा और पढ़ता रहा। पर शहरों की निशानदेही वाजिब नहीं हो पाई।
    चंद प्रेमिल संबंधों की यादावरी से भी यह खेल सा रहा। शब्दों की मार्फ़त। पर एहसास भी सांस-सांस फिर से ताजा हुए। बधाई! आपको। खुद से घिरे रहकर भी उन्मुक्त रहने के लिए।।
    प्रताप सिंह/फिलहाल साहिबाबाद के वसुंधरा में प्रवास।
    pratapsingh1949@gmail.com

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