कोरोना काल में चित्रकार
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१.
इसमें याद आने की बात इसलिए नहीं है कि इसके पहले कोई कोरोना नहीं फैला था. चूँकि ऐसा हुआ नहीं सो घर में समय बिताने की सीमा नहीं रही. वैसे भी कोई क़ानून रचने में बाधा नहीं डाल सकता. किसी भी कलाकार को कानूनन कलाकर्म करने का कारण नहीं दिया जा सकता. वह रचता है अपने एकान्त में. यह एकान्त बाहरी नहीं भीतर से पाया एकान्त है. जीवन जीने की उलझन और कलाकर्म का संशय दो विपरीत बातें हैं. हम अनजाने जीवन जीते हैं और वो एक वक़्त पर आकर पूरा हो जाता है. कलाकर्म हर दर्शक के साथ पूरा होता रहता है. आज जो दर्शक मोनलिसा देख रहा है उसके लिए यह कलाकृति आज पूरी हो रही है. तब यह कहना कि आज का समय जो कोरोना-काल है, जहाँ सामाजिक जीवन स्थगित है, रचनात्मक जीवन में कुछ मोहलत मिली है, तब समझ में न आने वाली बात इसलिए नहीं है कि यह कोरोना-काल आप स्वयं के लिए निर्मित करते रहे हैं.
एकान्त की खोज़ कलाकार नहीं करता, वह पाता है. बाहरी एकान्त से ज़्यादा उसे भीतरी एकान्त की ज़रूरत है. जिसे वह एकाग्रता और ध्यान से पाता है. इस तरह के रचनात्मक एकान्त के आदी कलाकार के जीवन में कृत्रिम कोरोना-काल उथल-पुथल नहीं ला सकता. यह कोई ऐसी अवस्था नहीं है जिसकी चाहना न हो. यह मन-माँगा काल है जिसे समेटकर सहेजना सामान्य प्रक्रिया है. सामाजिक रूप से इस भीषण समय में रचने का आनन्द उसी तरह का है जो अन्यथा था.
एकान्त और स्मृति का साथ स्थायी लगता है. मुझे भी ऐसी बहुत सी यादें प्रफुल्लित करती हैं और बहुत सी उस एकान्त को सार्थक कर देती हैं. प्रियजनों की स्मृति हमेशा सुख देती हैं और उनके ना होने का गम भी नहीं होने देती. हमेशा यही लगता है कि उनकी जगह मैं भी इस अबूझ संसार से जा सकता था. अबूझ इसलिए भी कह रहा हूँ कि पिछले दिनों युवाल नोउवा हरारी की तीन पुस्तकें, जिनका अनुवाद हमारे मित्र Madan Soni ने किया है, पढ़ीं और जिस क्रमबद्ध तरीके से उन्होंने मनुष्य के पतन-यत्नों का ज़िक्र किया है, वह तारीफ के काबिल है. किंतु इस कोरोना-काल में फैले वाइरस का ज़िक्र करना उनकी कल्पना से बाहर ही रहा. उन्होंने मनुष्य के पतन का एक बड़ा कारण आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर ही अपना ध्यान केंद्रित रखा, जो बहुत भयावह तस्वीर प्रस्तुत करता भी है.
उनकी तीसरी किताब “इक्कीसवीं शताब्दी के लिए इक्कीस सबक” में भी किसी वायरस से खतरे का जिक्र नहीं है. युवाल को उम्मीद ही नहीं थी कि इन सब के अलावा भी कई और रास्ते हैं, जिन पर मनुष्य चल रहा है. वह आव्हान कर चुका है बहुत से जाने-अनजाने रास्तों का, जिनसे वह नष्ट होना चाहेगा. उसे अंदाज नहीं है कि आव्हान उसी ने किया है. अपने एकान्त से आतंकित आदमी कोरोना-एकान्त में रच रहा है, नया भविष्य, जिससे निकलने के बाद दुनिया भर के मनुष्य थोड़ा सा बदलेंगे और बहुत सा संसार बदलेगा. यह थोपा हुआ एकान्त मनुष्य की आजाद ख्याली के खिलाफ बड़ा अवांछित हस्तक्षेप है. जिसको वह पकड़ नहीं सकता, धरना दे नहीं सकता, जहाँ सारी विचारधाराएं खोखली सिद्ध हो गईं, जहाँ मनुष्य को असहाय होने के अलावा कोई और अहसास नहीं बचा. उस एकान्त में रचना ही मनुष्य होने, बचे रहने की उम्मीद है
जहाँ मैं रहता हूँ, वहाँ घरबन्दी और बढ़ गई है. पर बतौर स्वतन्त्र कलाकार अपना सारा काम अब तक घर से ही संचालित होता आया है सो इस घरबन्दी का असर मुझ जैसे फ्रीलान्स कलाकार की दिनचर्या पर कम ही हुआ है. सुबह शुरू होती है स्टूडियो में फैले सूर्यप्रकाशित मौन से. छत पर दिन भर खिली धूप पसरी रहती है.अपने सोलर कुकर में दाल, भात और कुछ अन्य भोजन पकता हैं. चिड़ियों की चहचाहट भी इन दिनों खूब सुनाई दे रही हैं. सुबह शाम बिना नागा सफ़ेद छाती वाला किलकिला (white throated kingfisher) इधर से उधर उड़ते हुए खूब चहकता है वैसे यह पक्षी उड़ने के बाद बहते हुए पानी को देर तक ताकता रहता है और बिना चूके अपना शिकार करता है. उसकी इस अचूक दृष्टि के पीछे उसका धैर्य ही है जो उसे एक अचूक शिकारी बनाता है. बुलबुल भी नीम के पेड़ पर दिन भर उछल कूद करती है. जब सूरज सर के ऊपर होता है लगभग बारह बजे, तब लम्बी और नुकीली चोंच वाली पर्पल सन बर्ड अपनी छोटी और चमकीली देह में दूर से ही दिख जाती है. नीम के पेड़ पर हरियल (हरे कबूतर ) भी दिखाई देते हैं. जो कि इसी घरबन्दी काल में यहां पुनः लौट आए हैं. इन हरे कबूतरों और नीम के पेड़ के बारे में भी मैंने हाल ही में विस्तार से लिखा हैं.नीम के पेड़ पर गिलहरियाँ भी दिन भर चढ़ती उतरती हैं. इन दिनों पक्षियों और शावकों को सड़क पर वाहनों का भी डर नहीं हैं. उनकी चाल में एक ख़ुशी, अभय और संतोष है.
बमुश्किल कोई वाहन इन दिनों सड़क पर नज़र आता है. वाहन नहीं होने से हार्न और उनकी गति से उत्पन्न शोर भी नदारद हैं, न ही प्रदूषित हवा है. हमारा समाज कुछ सभ्य लग रहा है और स्वच्छ भी. इस तरह की शांति दिल्ली और उससे लगे इलाकों में पिछले बीस सालों में कभी नहीं देखी. अब लग रहा है कि यह एक पुरानी सभ्यता और संस्कृति के धनी देश की राजधानी हैं.
नीले, हरे, पीले और हलके भूरे चित्र इस दौरान बने हैं. मुझे रह रह कर याद आते हैं भीमबेटका के वे आदिम चित्रकार, पिछले कुछ वर्षों में हुई विदेश यात्राओं में मिले मित्र बने चित्रकार, नदियाँ और भाषाएं जिसे मैंने करीब से सुना है. वे खुशबुएँ भी जो अब मेरी स्मृति का स्थाई हिस्सा है.
३.
मनीष पुष्कले
II करुणा डायरी II
प्रत्यक्ष : २५-०३-२०२०
आविष्कार : २८-०३-२०२०
याद रहे, कि नए संक्रमणों से बचने के लिए नए टीकों का आविष्कार होता है और नए युद्ध के लिए नए हथियारों का. एक में मनुष्य आविष्कार के पहले मरता है और दूसरे में उसके बाद. जो युद्ध से बचे रहे आयेंगे, वे संक्रमण से मारे जायेंगे और जो संक्रमण से बचेंगे, उन्हें युद्ध में जीना होगा. हथियारों की हठ और विषाणुओं के विष के अलावा अगर मनुष्य में निर्मिति की कोई अलग संभावना बचेगी तो वह सिर्फ कला में ही होगी. लेकिन इसी बीच यह भी सुना है कि शल्यप्रक्रिया में सफलतापूर्वक स्थापना के बाद अब रोबोटिक-आर्ट पर गहन शोध हो रहा है. जब मनुष्यार्जित ज्ञान और उसकी कल्पनाशीलता उसके ही अस्तित्व का विलोम हो चुकी होगी, तब हम अपना दर्द इसलिए नहीं देख सकेंगे क्योंकि विलोमीकरण और विलोपीकरण की महान परस्परता में महीन चूक की भी कोई संभावना नहीं बचेगी.
अखबार : ०२-०४-२०२०
अवसर : ०४-०४-२०२०
स्टूडियो : ०६-०४-२०२०
माँ की याद : ०८-०४-२०२०
भण्डार : १०-०४-२०२०
प्रूफ रीडिंग : ११-०४-२०२०
४.
अवधेश यादव
II एकाकी होकर पड़ाव की खोज II
इस तरह की स्थिति में घर पर रहने का पहला ही अनुभव है. हालांकि मुझे भयानक ऊब या बाहर जाने की तीव्र उत्कंठा अभी तक महसूस नहीं हुई. यह भी अजीब अनुभव है कि सामान्य दिनों में यदि इस तरह घर में रुकना पड़े तो वह मुझे बहुत कष्टप्रद लगता था. जबकि वर्तमान परिस्थितियों में मुझे अब तक कोई विशेष अवरोध महसूस नहीं हुआ.
मेरा स्टूडियो घर से कुछ किलोमीटर दूर एक दूसरे इलाके में है. सो मेरी सारी कला सामग्री वही छूट गई और लॉक डाउन शुरू हो गया. केवल एक पेंसिल से ख़ाली बची एक छोटी स्केच बुक में कुछ रेखांकन किए हैं.
कला सामग्री उपलब्ध ना होने की स्थिति में इस ओर ध्यान गया कि अपनी कलात्मक चेष्टा किसी सामग्री विशेष पर ही निर्भर क्यों रहे, कि मुझे अपने रचनात्मक अभ्यास के लिए अपने आसपास मौजूद सामग्री को देखना और उनका उपयोग करने का प्रयास करना चाहिए. मेरी दोस्त स्मृति बहुत खूबी से ऐसा करती है. फिलहाल इस संभावना की पड़ताल जारी है.
वैसे फोन के माध्यम से फोटोग्राफी तो है ही.
ललित कला संस्थान में अपने अध्ययन के दौरान मुझे फोटोग्राफी में खासी रुचि रही है, फिल्म रोल वाली फोटोग्राफी के उस जमाने में फोटोग्राफी ठीक से जारी तो नहीं रख सका लेकिन पिछले कुछ सालों से एंड्रॉयड फोन के मार्फत लगातार फोटो खींचे हैं लगभग कुछ हजार फोटो. साल भर पहले तक एक डेस्क जॉब में था. थोड़े ही समय के लिए, लगभग 2 साल. लेकिन उसी दौरान सौभाग्य वश मेरा कार्यालय लाल बाग के बगल वाली सड़क पर था और दिन में दो-तीन बार लाल बाग में जाना होता था वहां जंगली वनस्पति और बहुत छोटे फूलों को फोटोग्राफी के कारण नजदीक से देखने का अपना अनुभव बना और इस तरह प्रकृति के सूक्ष्म बदलावों को महसूस करने का मौका मिला. यह समझ में आया कि हम सबके आसपास एक समानांतर संसार सांस लेता है और हम पूरी तरह उससे बेखबर होते हैं.
थोड़ा ध्यान और धीरज रखने पर उस संसार के स्पंदन को अनुभव किया जा सकता है. मोबाइल फोटोग्राफी मैं लगभग रोज करता हूं. कुछ मित्र मेरे इन छाया चित्रों को पसंद भी करते हैं तो हौसला बढ़ता है. पिछले कुछ दिनों में मैंने खाली सड़क, बिजली की तारें और सड़क पर बनती परछाइयों के छायाचित्र खींचे हैं. सड़क पर आसपास की वस्तुओं और बिजली के खंभों की पड़ती परछाइयाँ मुझे दृश्य रूप में आकर्षक लगती हैं और उनमें कुछ रोचक संयोजन दिखाई पड़ते हैं.
लॉक डाउन के दौरान खबरों और सोशल मीडिया से ज्ञात हुआ कि देश-दुनिया के कई शहरों में, चूंकि मानव की चहल-पहल कम है, तो बहुत से वन्य जीव जंतु शहरी परिवेश में घूमते पाए जा रहे हैं. मौसम साफ़ और प्रदूषण कम हुआ है. इस कारण यह कल्पना हुई कि यदि मनुष्य चाहे तो हर सप्ताह, हर महीने कुछ दिन घर से ना निकलने की आदत डालें तो पर्यावरण और प्रकृति पर बहुत सुखद प्रभाव पड़ सकता है, लेकिन सवाल यही है कि क्या मनुष्य सामान्य समय आ जाने पर ऐसा कुछ करेगा?
क्या मनुष्य को स्वयं को केंद्र में रखने का हठ कम नहीं करना चाहिए?
एक चित्रकार होने और मनुष्य होने के नाते एकांत महसूस करता हूं, भौतिक स्तर पर नहीं, बल्कि अनुभूति के स्तर पर. मानसिक एकांत. फिर भी भांति भांति के विचारों का घमासान मचा रहता है, किन्तु रचनात्मकता के संसार में अंततः आपको अपना पड़ाव नितांत एकाकी होकर ही खोजना पड़ता है. कई बार आसपास पर्याप्त उपस्थितियों के रहते भी एकांत का अनुभव किया है. इसलिए मुझे यह समय बहुत अलग नहीं जान पड़ रहा.
ऐसे लोगों का खयाल भी आ रहा है जो इस विवशता भरे समय में अपनी जीविका चलाने में असमर्थ हैं, इसलिए चिंता भी होती है और विवशता का अनुभव भी होता है.
मैं पढ़ाकू तो नहीं हूं लेकिन निर्मल वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद, अशोक वाजपेयी, गुंटर ग्रास, स्टीफन ज्वाईग, गैब्रियल गार्सिया मारक्वेज, दोस्तोवस्की आदि की पुस्तकें पढ़ना इस समय बखूबी हो रहा है. वरिष्ठों की ऐसी पाठकीय संगत पाना बिला शक सौभाग्य की बात है.
अभी अभी पहली बार चेखव की दो कहानियां भी पढ़ीं. लॉक डाउन के ठीक पहले लगभग 12 चित्र जल रंग से बनाए थे. उनमें कुछ नए तत्व मिलने लगे थे, या हो सकता है कि मुझे ऐसी खुशफहमी हो रही हो. उम्मीद है लॉक डाउन के बाद चित्रों में कुछ नया कर सकूंगा. फिलहाल दृश्य कल्पना में रूप-अरूप तरल रूप में कौंधते रहते हैं, उनमें से कुछ संभवतः धरातल पर आ सकें.
इस दौरान अपने आस पास के दृश्य संसार को नई दृष्टि से देखना भी हो रहा है. ऐसी बहुत सी मामूली चीज़ें जिन्हें मैंने अन्यथा लक्ष्य नहीं किया या नज़र अंदाज़ किया, जैसे घर के अक्सर उपेक्षित छोड़े गए कोने, गमले में अप्रत्याशित उग आई वनस्पति, धूप के मार्ग में आने वाली चीज़ों की परछाइयों से उद्घाटित आकार, कबूतरों की उड़ान के पैटर्न, पहले से कुछ साफ़ हो गया छत और छज्जे से दिखने वाला आकाश.
महसूस हो रहा है कि खलिश की मौजूदगी में देखना और अधिक प्रगाढ़ भी हो सकता है. खालीपन को देखते हुए कई धुंधली स्मृतियां दस्तक देने लगी हैं, जिनमें पढ़ा, सुना, देखा, अनुभव किया गया संसार और अनेक उपस्थितियों का शुमार है. इस तारतम्य में बहुत सी पुरानी तस्वीरें हाथ लगीं, जिनमें कॉलेज के शुरुआती दिनों से लेकर पिछले दशक तक की यात्राओं, प्रदर्शनियों, सहपाठियों, वरिष्ठ कलाकारों से मिलने की स्मृतियां उभर आईं. संभव है आगामी रचनाओं में उनकी अनुगूंज दिखाई दे.
कल्पना करता हूं कि एकदम खाली सड़क पर पियानो बजाया जा सकता था, यदि मुझे पियानो बजाना आता और मेरे पास पियानो होता, तो मैं घर के सामने चौराहे पर अपनी ड्यूटी निभाते पुलिस वालों के समक्ष पियानो बजाता. मैं उनके लिए “धीरे धीरे मचल ऐ दिल ऐ बेकरार” बजाता, या फिर आइजैक अल्बेनिज की रचना अस्तुरिआ का वादन करता, भले ही उन्हें उसमें रुचि ना होती. या शायद उन्हें वह पसंद आ ही जाती. यदि गा सकता तो मैं इस्पहानी गीत “नो तेंगो लुगार” गाता जिससे मुझे इज़रायली यहूदी गायिका यास्मीन लेवी को टॉवर ऑफ डेविड के परिसर में गाते हुए सुनने पर प्यार हो गया. जिसके बोलों का सार यह है कि मेरा कोई घर नहीं, मेरे पास कोई जमीन नहीं, ना ही मेरा कोई देश है. रोमा बंजारों का दर्द भरा गीत. यास्मीन के गीत ऐसे लगते हैं जैसे किसी के आर्तनाद को मेरे दिल के माध्यम से प्रकट किया जा रहा हो. कुशलता होती तो में पियानो पर मोजार्ट का टर्किश मार्च बजाता.कि यूं होता तो क्या होता..
५.
देवीलाल पाटीदार
Il अपना एकांत मैं खुद रचता हूँ II
पश्चिमी निमाड़ के धार जिले के सुंद्रेल गांव में 1960 में मेरा जन्म हुआ. जिस किसान परिवार में मेरा जन्म हुआ वहां चार पीढ़ी के कुल पैंतीस लोग एक साथ रहते है जो निमाड़ी बोली बोलते हैं. 1965 में स्कूल जाना शुरु किया. उन दिनों जमीन में बिछी टाट पट्टी पर बैठ आलती पालती मारकर ब्लैक बोर्ड पर बने अ आ इ ई को देखकर अपनी स्लेट पर हुबहू बनाना शुरू किया. मेरे लिए चित्रकला की यही से शुरुआत हुई. जिस कारण घर में, घर के बाहर या खेत खलिहान में, जो भी चीजें मेरा ध्यान आकर्षित करती थी, उन्हें उस वक्त गांव में उपलब्ध रंगों से जैसे हल्दी, कुमकुम, होली के रंग, कोयला से चित्र बनाना भी स्कूल के दिनों से लगातार चलता रहा.
स्कूली शिक्षा समाप्ति के पहले ही पूरे गांव में पारिवारिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों के कला व सजावट से संबंधित सारी आवश्यकताओं को मैंने पूरा किया. अपनी रुचि के अनुसार कला की शिक्षा के लिए परिवार के सहयोग से मैं इंदौर आ गया, जहां मैंने समकालीन चित्र रचना सीखी जिनसे में पारंपरिक रूप से पूर्व में ही परिचित था. इन पाँच वर्षों में समकालीन चित्रकला, नाटक, कविता, और साहित्य के साथ ही साथ मैंने हिंदी बोलना भी सीखा, लेकिन शुद्ध हिंदी लिखना मुझे अभी भी नहीं आता है. उन दिनों के बहुत सारे मित्र आज भी मेरे अभिन्न मित्र हैं.
भारत भवन के उद्घाटन के पूर्व भारत भवन से जुड़ने और उसके लिए काम करने का मुझे अवसर मिला, जिसके कारण अविभाजित मध्य प्रदेश के लोक व आदिवासी समाज को नजदीक से देखने व समझने और सीखने का जो अनुभव रहा उसने मेरे मानस को गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. मैं ज. स्वामीनाथन का बहुत आभारी हूं, जिनके साथ मैंने जीवन, जगत और कला की बारीकियों को देखने समझने बरतने की भी एकदम नई दृष्टि पाई. 38 वर्षों के बाद जब मैं अपने काम और जीवन दृष्टि का स्रोत खोजता हूं तो वह मुझे कहीं ना कहीं आदिवासी और लोक अंचलो में मिलता है. मैं अपने काम पर देश और विदेश में पिछले 150 साल में हुए कला आंदोलनों से किसी तरह का कोई भी संबंध और प्रभाव नहीं पाता. इस बात की मुझे खुशी है कि मैं जो भी जैसा भी हूं खुद से हूं. भारत भवन में रहते हुए देश-विदेश के विभिन्न विधाओं के शीर्षस्थ कलाकारों को नजदीक से देखने जानने का अवसर मिला जिससे मुझे अपनी कला और जीवन दृष्टि बनाने में मदद मिली.
इस पृष्ठभूमि को जान लेने के बाद मेरे लिए एकांत का क्या अर्थ है, यह बात मेरे काम करने के तरीकों में निहित है. जब भी मैं काम करने पद्मासन में बैठता हूं और अपनी गोद में कागज लेकर ब्रश की नोक पर अपने को एकाग्र करता हूं, तब मेरी सारी उंगलियों की पोर मेरी श्वास से 16 अंगुल के करीब होती हैं. जिस कारण मेरी ऊर्जा श्वास के माध्यम से एक चक्र बनाती है, जिसमें आधा चक्र अंदर और आधा चक्र बाहर बनता हैं. उस चक्र के बनते ही मेरा एकांत पहले सृजित होता है और चित्र सृजन उसके बाद संभव होता है. परंपरा से हमारे देश में सारे रचनाकार इसी तरह अपना एकांत और अपना सृजन पीढ़ी दर पीढ़ी करते रहे हैं. अपने इसी स्वभाव और रचना प्रक्रिया के कारण मैं कभी भी खड़े होकर ईज़ल पेंटिंग नहीं करता . मुझे अपना एकांत सृजित करने के लिए अपने आसन की जरूरत है जो जमीन पर संभव है. इस आसन में शरीर गुरुत्वाकर्षण के विरूद्ध संघर्षरत नहीं होता. यह स्थिति चित्त को एकाग्र करने में सहायक होती हैं.
जगह घर हो, ऑफिस हो, या बाजार या बगीचा, इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. मैं जब चाहे,जहां चाहूँ, अपना एकांत रच लेता हूं. कई दोस्तों के बीच रसरंजन की पार्टी ही क्यों ना हो, वहां भी अपना एकांत में खुद रचता हूं. दूसरे की अनुपस्थिति को मैं एकांत नहीं मानता . इस अनअपेक्षित लॉकडाउन ने कई तरह के प्रश्न और समस्याएं दुनिया के आगे खड़ी कर दी है. जिसमें उनसे बच निकलने या अपनी पूर्व की व्यस्तताओं के व्यस्त रहने का कोई अवसर नहीं छोड़ा है. आपको अपने बारे में अपनी समझ के बारे में विचार करना ही होगा. आज दुनिया जिस स्थिति और विकट परिस्थिति में घिर चुकी है. उमसे क्या खोया, क्या पाया जैसी चीजों के बारे में मनुष्य जाति को सोचना ही पड़ेगा. इस महामारी के बाद बची हुई दुनिया में हमें कैसे चलना चाहिए यह फिर से तय किए बिना कोई मूर्ख या अंधा ही फिर से वैसा का वैसा जीवन चाहेगा. हम सब आने वाली पीढ़ियों के लिए कुछ बेहतर करना चाहते हैं तो फिर सिर्फ पुनर्विचार ही इस वक्त का कुल हासिल सबक और तकाजा है.
इस लॉक डाउन के समय घर में रहते-रहते पिछले वर्षों से रुकी हुई मेरी ड्राइंग और पेंटिंग फिर से शुरू हो गई. लगातार दिन और रात अनवरत अपने मन मस्तिष्क और एहसास को तुरंत कागज पर दर्ज कर रहा हूँ. दुनिया भर की जो स्थिति परिस्थिति निर्मित हो रही है उसे देखने समझने के दुर्भाग्यवश विकट बेचैनी दिन रात बनी हुई है, उस बेचैनी को रूप देने के अलावा मेरे पास कोई विकल्प नहीं है. विकल्पहीनता की इस मानसिक स्थिति में पिछले कुछ वर्षों से पूरी तरह बंद मेरा रचनाकर्म फिर से शुरू हो गया.
इस बीच जो भी रचा है वह कभी ना कभी आपसे साझा करूंगा. अभी तो बस इतना ही कि यह गुस्सा और बेचैनी ठीक उसी तरह की है जिस तरह भोपाल गैस कांड के बाद मैंने भुगती और महसूस की थी. उस वक्त की बेचैनी को भी मैंने कागज पर चित्रित किया था. आप कल्पना करें कि जब एक शहर में ही हजारों लोगों का मरना दुनिया की सबसे बड़ी भीषण त्रासदी गिना जा रहा था, अब जब दुनिया के हर देश में व हर शहर में गैस कांड की तरह लोगों का मरना आप भाषा के किन शब्दों में व्यक्त करेंगे, क्योंकि भीषण और त्रासदी जैसा शब्द उन दिनों भोपाल पर खर्च हो चुका है. इस भीषण त्रासदी व महामारी के बाद विकास के हमारे रोल मॉडल और इच्छित जीवन पध्दति व भोग की असीम इच्छा के साथ दुनिया को जीत लेने के मूर्ख उत्साह पर फिर से सोचना ज़रूरी है.
६.
अमित कल्ला
II अनदेखे, अनसुने, अनछुए का इंतज़ार II
कोरोना संक्रमण के मद्देनज़र देश दुनिया में किया गया यह लम्बा लॉकडाउन अधिकतर लोगों के लिए तकलीफों भरा सबब बना हुआ है. हमारे चारों तरफ कहने को तो सब कुछ ठहरा हुआ है और हम पर शासन का गहरा पहरा भी है, लेकिन लगातार कितना कुछ अलग-अलग उन नामरूपों में हमारे इर्दगिर्द रचा बुना जा रहा है, जाने अनजाने कितना कुछ घट भी रहा है, जो आज हमारी नज़रों से ओझल है, लेकिन आने वाले समय में निश्चित ही जिसकी बड़ी प्रासंगिकता होगी. मेरे लिए एकांत यानी, खुद को तलाशना exploring self है. अपने आप को सही-सही अर्थों में जानना है, स्वयं से सच्चा संवाद करना है. वास्तव में जो जीवन की सबसे बड़ी और सार्थक खोज भी है. एकांत में वह ताकत है जो सहज रूप से हमें अपने स्वरुप को जानने में सहायता करती है जिसके पीछे इस मुक़द्दस दुनिया से ज्यादा बेहतर जुड़ने का मर्म छिपा है.
व्यापक तौर पर अगर हम अगर एकांत के दार्शनिक पहलुओं को खंगालें, तो हमारे तमाम धर्म, सम्प्रदाय और मजहबों में न केवल एकांत रूपी इस तत्व का भरपूर गुणगान किया गया है, अपितु इसे साधने की नाना प्रकार की विधियाँ भी विस्तार से बतलायी गयी हैंl लिहाज़ा जिसके कई आयाम और मायने हैं, जो किसी एक स्थान पर रहने से ज्यादा बड़ा मसला है, जिसका मूल स्वभाव संधानात्मक है. यथासंभव उसका अभ्यास करने के लिए मन और शरीर दोनों ही स्तरों पर सघनता से तैयार होना होता है. मैं अपने आपको इस पूरी दशा में एकदम अलग ही मुकाम कर खड़ा पाता हूँ, यक़ीनन देश और दुनिया में हो रही जनहानि मुझे चिंता में डालती है. आसपास के माहौल को देखने पर सामने आ रही बुनियादी वस्तुओं की भारी कमी और तमाम मुश्किलात मन को ठिठकाते भी हैं. कभी कभी ज़ज्बाती भी हो जाता हूँ, लेकिन इन सभी हालातों के बावजूद मेरे लिए बड़ी बात यह है कि मैं निरंतर अपने स्टूडियो में कला की संगति में हूँ. अपने बाहरी परिवेश में हुए बदलावों के अलावा अमूमन जीवन पहले जैसा ही महसूस कर रहा हूँ. निसंदेह आज जिस टाइम और स्पेस में हम मौजूद हैं, उसकी गति में कहीं ज्यादा ठहराव ज़रूर दिखता है . समय के इन बिम्बों की मेरे लिए तो असंख्य भौतिक, भौगोलिक और दार्शनिक उपमाएं हैं .
पिछले दो दशकों के यायावरी जीवन में पहली बार मैं इतने लम्बे समय के लिए अपने घर में हूँ, या फिर यूँ कहूँ कि किसी एक जगह पर हूँ. अन्यथा हमेशा ही किसी न किसी प्रयोजन को लेकर यात्राओं का सिलसिला ज़ारी रहता है. कभी-कभी लम्बी यात्राओं के दौरान निसर्ग की संगति में भी मैं उस एकांत को सहज अनुभव करता रहा हूँ, जो मन को बाहरी मार्ग से अंतर मार्ग पर लाने का माध्यम है. जिससे वह विचारों और वस्तु स्थितियो के दरमियान अनेक पहलुओं पर कनटमप्लेट किया जा सके, जिसके मार्फ़त आत्मशक्ति को बढाकर मन का सहज निग्रह संभव हो सके. लेकिन इन दिनों एक अलग किस्म की यात्रा के मुकम्मल मंजरों को देख पा रहा हूँ. जहाँ मेरे लिए किसी रचना के परिपक्व होने के चारों और होने वाली जीवन सरीखी यात्रा है, जो उस अनागत अनंत को अपने भीतर ही कहीं बूँद-बूँद पा लेने को आतुर है, किसी सूक्ष्म बिम्ब के सहसा विस्तार में तब्दील हो जाने की.
यक़ीनन उसी विराट की सलवटों में सिमटकर अनकहे को कहने और अपने ही भीतर एक नयी दुनिया को गहकर सलामती से उसमें बने रहने की यात्रा. जिसके दरमियाँ अनेकों स्तरों पर अभिव्यत होना ही उसका असल प्रयोजन है. कला उस सनातन मौन को संजीदगी से कहकर संभावनाओं के दरिया जैसी, लहर दर लहर अविरल बहते रहने का नाम है. जहाँ अनुभव ही उसका मुकम्मल मंसब मालूम पड़ता है जिसे यथासंभव पा लेना उस अनामी इबादत का एक अभिन्न हिस्सा है .
यह बात सही है कि आज का यह एकांत हम पर आरोपित है. लेकिन उसके बावजूद हमारा समूचा समाज बड़ी ही ज़िम्मेदारी से सहेजता हुआ उसकी लय में रमता जा रहा है. वैसे हमारे यहाँ एकांत की संकल्पना का एक सुन्दर संस्कार भी रहा है, जो किन्ही जोगी, महात्मा, फकीरों, कलाकारों या आध्यात्मिक साधकों के लिए ही नहीं, बल्कि हर उस सामान्य इंसान के लिए कई मायनों में अमृतफल है. मन में जिसकी चाहना हो, उस घट की अंत: चेतना के ऊपर की ओर उठने के अनन्य संकेत हैं. दुनियादारी में मोटे तौर पर इस एकांत को अस्वीकृत किया जाता रहा है, उन्मुक्तता में बंधन जैसा मानकर उसे भय का पर्याय करार दिया गया है.
बहरहाल इन दिनों मैंने कलाविद रूपनारायण बाथम के आग्रह पर इंडियन आर्ट हिस्ट्री के स्कल्पचर सेक्शन को एक नए सरल तरीके से लिखने की शुरुआत की है. जिसमें उसके ऐतिहासिक पक्ष के साथ उसमें व्याप्त सौंदर्य के अभिन्न पहलुओं को उजागर किया जा सके, उन्हें मुकम्मल ढंग से जाना जा सके. लिहाज़ा सिन्धु काल से लेकर मौर्य, शुंग, कुषाण, गुप्त, सातवाहन, गुर्जर-प्रतिहार, चंदेल-परमार, पाल-सेन, चालुक्य-होयसेल, दक्षिण भारत के चेर, चोल, पंड्या से लेकर नोलाम्बा-नायकों इत्यादि पर लिखने का क्रम बदस्तूर जारी है. इसी बीच दो बड़े आकार के कैनवास भी पेंट किए हैं. जिनमें फॉर्म और स्पेस को लेकर काम किया है और साथ ही कुछ पेपर शीट्स पर ड्राइंग का अभ्यास चल रहा है. मेरे लिए उन कैनवासों की सतहों पर अनेकानेक रंगबिरंगे फॉर्म्स को अनवरत इंटरलॉकिंग किया जाना ही सबसे बड़ा अवधान साबित हो रहा है, जिसमें लगातार गोते लगाना, स्वयं को परत दर परत खोलते जाने की स्वभाविक ढंग से अभिन्न संवाद की ही एक खूबसूरत प्रक्रिया है. जिसमें मुझे अनागत संगीत के स्वर, ब्रश के अनगिनत स्ट्रोक्स में सुनाई देते हैं .
वैसे स्टूडियो में हमेशा ही रंगों की भरमार रहती है लेकिन इस बार सफ़ेद रंग की किल्लत है, जिसे मैं कई तरह की रंगतें बनाने के काम में लेता हूँ. वैसे अपने चित्रों में मैं सफ़ेद रंग ज्यादा नहीं लगाता, लेकिन स्टूडियो में उसकी अनुपस्थिति इन दिनों मेरी चेतना में बनी रहती है. जिसे अगले कई दिनों तक लाना संभव नहीं है.
इन बड़े चित्रों को उकेरते हुए मुझे लगातार स्पेस को लेकर भी कई किस्म के विचार आ रहे हैं. जो तह ब तह उसके तमाम कायदों के बारे में सोचने को मजबूर करते हैं. वस्तुतः जो मेरे अपने अनुमानों पर ही आधारित हैं. स्वाभाविक रूप से जो फिजिकल और मेंटल दोनों स्तरों पर व्याप्त हैं. लिहाज़ा एकांत के इस दौर में उसकी प्रासंगिकता मन पर कहीं ज्यादा प्रभाव डालती है, जिन्हें मैं अपनी स्केच बुक में मिनिएचर फॉर्म में उतारने की कोशिश करता हूँ. जो किसी सब्जेक्ट में पर्सनल इन्वोल्वमेंट से भी ज्यादा बड़ा मसौदा जान पड़ता है, जिसके कई पक्ष हैं और उन पर मुझे संजीदगी से काम करने की ज़रूरत महसूस होती है. ऐसा लगता है कि अपने-अपने स्पेस की सही समझ होने में शायद अधिकांश समस्याओं का निदान छिपा हो, इसी कड़ी में पिछले कई दिनों से मैं अपने स्टूडियो की छत और वहाँ से दिखाई देने वाले सूर्यास्त को एक नए नजरिये से देख पा रहा हूँ. जिसमें मुझे भविष्य की किसी संभावित कृति का भान होता है, जो शाम होते ही हर रोज़ अपना आकर लेने लगती है. जहाँ मूर्त और अमूर्तता के दृष्टिकोण से भरेपूरे रूपक अपनी पूर्णता के साथ अपने होने को जग ज़ाहिर करते हैं .
बीते सप्ताह इस्टर्न आर्ट एंड कल्चर फाउंडेशन संस्था द्वारा एक अखिल भारतीय ऑन लाइन आर्ट कैंप का आयोजन किया गया, चित्रकार मित्र मनोज सांधा के कहने पर मैंने भी पेंटिंग बनायी, जो एक रोचक अनुभव रहा. सोशल मीडिया के माध्यम से संपन्न हुए इस कैम्प से देश भर के कलाकार समाज में एक नवाचार दिखाई दिया है. जिसके फलस्वरूप अब कई राज्यों के छोटे-छोटे कला समूहों द्वारा ऐसे वर्चुअल मीडियम में आयोजन किये जा रहे हैं, जिनके लिए मैं उनकी आधारभूत मदद कर रहा हूँ
कलादर्शन में रूचि होने के कारण इन दिनों भरपूर विषय सम्मत प्रमाणिक चिंतन मनन भी हो रहा है. कलामर्मज्ञ उदयन वाजपेयी के वक्तव्य की एक पंक्ति से उपजे भाव को यथासंभव समझने की चेष्टा में हूँ, जहाँ वे अविश्वास को स्थगित करने की बात करते हैं, जो आगे चलकर कलाकर्म के अनुभव आधारित दर्शन के दिगंत विस्तार के बारे में बतलाती है. भीतर मन में अनुभव की महत्वता और उसके मानकों के बारे में बेहतर समझ को बनाने की जुम्बिश चल रही है. यक़ीनन यह सच ही जान पड़ता है कि अनुभव से भरे धुंधलके के बिना कोई भी कला, कला नहीं हो सकती. उसमें छिपा रहस्य ही उसका मूल सौन्दर्य तत्व होता है, जो एक नए अंदाज़े बयां में किसी भी कलाकार के मार्फ़त उसे इस दुनिया के सामने लाता है. जहाँ बहुत सारा अनदेखा, अनसुना, अनछुआ है जिसे किसी सहृदयी का इंतज़ार है. लिहाज़ा हमारे मन की सक्रिय भागीदारी ही किसी भी कृति के कला होने का संज्ञान करवाती है, ये दोनों ही ओर से परस्पर होने वाली खूबसूरत प्रक्रिया का नाम है, जिसके बहाव से गुज़रकर वह सर्जना अपने होने के असल रूपाकारों को पाकर गहरे शब्दार्थों में समा जाती है.
पिछले दिनों अपने मोबाईल से आभासी दूरी बनांने के बावजूद समय-समय पर कला और साहित्य से सम्बंधित कई महत्वपूर्ण व्यक्तियों से विभिन्न विषयों पर बातचीत हो ही जाती है जिनमें शिक्षाविद रमेश थानवी, ब्रजरतन जोशी, आर बी गौतम, डेनियल कॉनेल, संदीप मील, राघवेन्द्र रावत, अक्षय आमेरिया, हिमांशु महापात्रा, हिमांशु व्यास, यतीश कासरगोड, अशोक आत्रेय, प्रदीप्त कुमार दास, गोपाल सिंह, अशोक दर्द, चित्रकार मित्र विजेंद्र एस विज, जयप्रकाश चौहान के अलावा नितिन कुलकर्णी, इमरान, फिल्मकार अभिषेक कुमावत और रविशेखर शामिल रहे हैं.
कलाकारों द्वारा इस लम्बे एकांत में बिताए समय के बावजूद मुझे लगता है कि कला कभी भी एकांतिक नहीं हो सकती, चाहे वह किसी भी स्वरूप में क्यों न हो. उसकी अपनी सामाजिकी जरूर होती है, अपने परिवेश से जुड़ते संस्कार और सरोकार अवश्य होते हैं, जो कि कलाकार के माध्यम से अनेक रूपाकारों में अभिव्यक्त होते हैं. इस सन्दर्भ में प्रभाकर कोल्ते और स्वर्गीय उमेश वर्मा को नहीं भूल सकता, जिनके लिए मनचाहा एकांत किसी रवायत जैसा रहा है. रचना की प्रायोगिक भिन्नता, व्यक्तिगत अभिव्यक्ति का उसका एक दूसरे से अलग होना इस पूरे क्रम में सौंदर्य का पर्याय है. जिसके मर्म की संवेदनशीलता को जल्द से जल्द समझ जाना और उस भिन्नता का सम्मान करना एक संवेदनशील समाज के लिए भी बेहद जरुरी है. इस लिहाज़ से बरसों से मैं हमारे समय के मौजूदा लेखक-चिन्तक नंदकिशोर आचार्य को प्रेरणा सा देखता रहा हूँ. चेतन-अचेतन रूप से जिसकी सुनिश्चित अभिव्यक्ति उसके काम में साफ़ नज़र आती है जिसका आधार कहीं न कहीं गहरे एकांत का आस्वादन है, जो बेहद प्रेरणादायी है.
दरअसल आज बहुत कुछ सहने का भी समय है. कहते हैं, जो सहता है वही रहता है. एक कलाकार के जीवन में इस सहने के कई अर्थ होते हैं, जिससे गुज़र कर उसके विचार और उसकी कृति असल पकाव को पाते हैं. यक़ीनन सहने का दौर अनंत तकलीफों के साथ-साथ बड़ा रोचक भी होता है. बारम्बार जहाँ खुद को गढ़ना और बिखेरना एक सतत प्रक्रिया का हिस्सा हो जाता है और क्रमशः उसकी जिन्दगी का भी अंतरंग हिस्सा. आज पूरी दुनिया को यह दिखने लगा है कि विज्ञान न केवल अपने अंतिम पड़ावों पर है, बल्कि इस महामारी के सामने चारों खाने चित हुआ बैठा है. मानवीय सभ्यता उसकी संगति की सीमाओं को छूकर अपने मूल नैसर्गिक स्वरूप में लौटना चाहती है. जिसे अपने दामन में ठहराव लिए कलाओं के सहारे की ज़रूरत होगी, सच्चे लेखक, कवि, कलाकारों की ज़रूरत होगी. जो जीवन में फैले बेरुख़ी के बारूद को बेअसर करके कल्पना और यथार्थ के बीच साँस लेने की गुंजाईश पैदा करे. उन अंतरालों को गढ़े, जहाँ इस दौड़ती भागती दुनिया में कोई भी कुछ देर ठहर सके, अपने भीतर उठते उन स्वरों को सुन सके, अपने मन की कह सके, जहाँ अधूरे में चाह के पूरा होने के लिए ताउम्र भटकता रहे.
अपने आध्यात्मिक संस्कारों की वज़ह से ऐसे समय में मुझे कृष्ण, क्राइस्ट, हज़रत मोहम्मद, गौतम बुद्ध, भगवान महावीर, गुरुनानक देव से लेकर संत अंटोनी, संत पॉल, जांग दोंगलिंग, मिलरेपा, गुरु गोरख, भर्तहरी, रामकृष्ण परमहंस, लाहिड़ी महाशय, रमण मह्रिषी, निसर्ग दत्त महाराज, आचार्य तुलसी और श्री अरविन्द जैसे तमाम पूरब और पश्चिम के सिद्ध और संतों की याद आती है जिन्होंने अपने अपने अनुभवों से हमेशा ही इस गहन एकांत की सिफारिश की है. यह एक संयोग की बात है कि इन दिनों विनोबा भावे की एक पुस्तक गीता-प्रवचन पढने के दौरान मैंने पाया कि वहाँ भी एकान्तिक व्यक्तिव को स्थितप्रज्ञ होने की लक्षणा दी है. “आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते” जो स्वयं के भीतर बसता है और संतुष्ट रहता है, वही वास्तव में योगी है. जिसके लिए एकांत में रहना सबसे बड़ा सुख है और जिसका अभ्यास स्वाभाविक रूप से करना ही उसकी असल प्रणति है.
७.
भारती दीक्षित
II धीरे-धीरे ही सम्भव है गूंथना, बुनना, रचना को II
कलाकार होने और पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के कारण बाज़ दफे खींचतान होती है कलाकार और ज़िम्मेदारियों में. कई दफ़े ज़िम्मेदारियों के आवरण में जाना होता है पर तब भी विचारों का बुनना जारी रहता है और फ़ारिग होते ही आतुर कलाकार अपने कला कर्म में रम जाता है. चूँकि घर से ही कला सृजन करती हूँ, इसलिए मुश्किल नहीं आती. सिर्फ समय को समायोजित करना होता है.
अभी जो वक़्त है जब थमा हुआ है सब कुछ. सीमित हैं ज़िंदगियाँ अपने-अपने घरों की चारदीवारी तक. पेट भरने की मशक्कत में कहीं बेख़ौफ़ भी हैं जिंदगियाँ, क्योंकि भूख का पलड़ा भारी है. एकांत के साथ है दहशत का विलाप. महामारी के आंकड़ों का गणित है. चाहे बढ़ते मरीज़ों के आंकड़ों हो या मृत व्यक्तियों के. ये गणित ही भय का कारण है. अपनों की फ़िक्र भी इस पर हावी हो जाती है लेकिन सकारात्मक सोच, उसकी आशा, रचना कर्म में कायम रहती है. क्योंकि सृजन तो सीमित नहीं है न, नया कुछ सीखना, विचार करना, शब्दों की दुनिया में डूबना, यही सब उथल-पुथल मन-मस्तिष्क में अपनी धमाचौकड़ी मचाए रहते हैं. किसी अपरिचित राग के आरोह-अवरोह की मानिंद.
इस वक्त…मेरी रोजमर्रा की जिंदगी में परिवर्तन ज़रूर आया है. परिवार के सभी सदस्य भी घर पर हैं, इससे ज़िम्मेदारियाँ बढ़ीं और समय कम हुआ. मेरे स्वयं के समय में कमी आई. पर रचना प्रक्रिया में नहीं. सोचती हूँ तो लगता है सबसे ऊपर है स्वास्थ्य, साथ ही सकारात्मक और रचनात्मक सोच. बाहरी जगत का वर्तमान एकांत, इससे कलाकार अपरिचित नहीं. ऐसे ही एकांत में तो हम रमते हैं, क्योंकि वो तो हमेशा स्वतः के एकांत में रहता आया है, विचारों की दुनिया में जो पृष्ठभूमि है उसके सृजन की और जो वर्षो- वर्ष चलती रहती है. इन दिनों मैं मिट्टी-धागे से बने शिल्प निर्माण का काम कर रही हूँ. सृजन कोई भी हो धैर्य, समय और विश्वास मांगता है. आपस में तालमेल मांगता है.
मिट्टी में काम करना और उसे बुनना भी. शनैः शनैः बुनता हुआ धागा अपने लिए रास्ता बनाता जाता है, हर अगले चरण के लिए, ताकि पूर्णता प्राप्त कर पाए. एक-एक तार स्वतः अगले तार के लिए समर्पित. पकी हुई मिट्टी धागे के लिए अड़चनें डालती है, पर धागा मार्ग खोज ही लेता है. धागा ढल जाता है मिट्टी के अनुसार. आत्मसात कर लेते हैं दोनों एक दूसरे को, जैसे हैं वैसे ही, जस के तस. कहीं कोई अहं नहीं. मैं नहीं होता, हम हो जाते वहाँ. मिट्टी में काम करना एक अलग अनुभूति है कि कैसे गीली मिट्टी उंगलियों और हथेलियों की ऊष्मा ,दाब और दुलार पा कर बदल जाती है, एक अलग ही आकार में जो हर बार से भिन्न होता जाता है. उसका बदलता हुआ रंग और स्वरूप, डाल देता है हैरत में.
धीरे-धीरे
गूंथती और बुनती हुई
माटी की देह पर
धागे से बुनी कहानी
भोग चुके अतीत के साथ
अनदेखे भविष्य की ओर
जीते हुए इस एकांत में
कुछ काम पहले से बने हुए थे, पके हुए. मिट्टी शिल्पों पर बुनने का भी काम किया. हरे और सफ़ेद रंग के साथ और कुछ बुनना अभी शेष है. अभी उनकी पृष्ठभूमि तैयार हो रही है, मेरे साथ उत्साहित हैं वे सभी भी.
अभी इन्हीं दिनों कुछ रेखांकन किए, काले रंग का बदलता अक्स लिए हुए, बिंदुओं का संसार लिए हुए. कलाकार का एकालाप रंगों, रेखाओं और आकार के माध्यम से बिखर जाता है कैनवास या कागज़ पर. रंग उसका भाव पढ़ बहने लगते हैं. रेखाएं उसे धीरे-धीरे आकार दे विस्तार दे देती हैं. उनका आपस का वार्तालाप उसे चित्र में बदल देता है.
पढ़ने का काम भी जारी है. पढ़ना मेरे एक और काम से अनायास जुड़ गया है. चूँकि मैं किस्सागो भी हूँ और मंच पर दास्तानगोई भी करती हूँ, साथ ही you tube पर मेरा कहानियों का चैनल भी है ‘कहानी के झरोखे से‘. जिसमें कई प्रतिष्ठित कहानीकारों की कहानियों का वाचन कर चुकी हूँ. जिनमें निर्मल वर्मा, चेखव इत्यादि की कहानियां शामिल हैं. फेहरिस्त लम्बी है. कई कहानियों का वाचन कर चुकी हूँ अभी तक…यात्रा जारी है. आने वाले समय में मंच पर भारत के कुछ व्यक्ति विशेष पर दास्तानगोई की योजना है. उस पर भी काम कर रही हूँ यानी शोध जारी है. मीना कुमारी पर दास्तानगोई करने की बेहद तमन्ना है. इन दिनों तस्नीम खान की किताब ‘दास्तानें ए हज़रत‘ की कई कहानियों को पढ़ा, वे बेहतरीन कहानीकार हैं. उन्हीं की एक कहानी “खामोशियों का रंग नीला है” का वाचन मैंने इन्हीं लॉक डाउन के दिनों अपने चैनल पर किया भी है. इसके अलावा भीष्म साहनी, प्रियंवद, चेखव, ध्रुव शुक्ल, पियूष दैय्या, निर्देश निधि और अन्य की कहानियाँ पढ़ीं. मुझे लगता है कि लिखे हुए शब्द हमें खुद में ही डुबो देते हैं, भीगा देते हैं वे मन के भीतर तक. फिर स्मृति में कैद हो जाते हैं हमेशा के लिए. निःसंदेह किताबें और संगीत मेरे एकांत को विस्मयकारी तरीके से समृद्ध करते हैं.
आम दिनों से अलग इस वक़्त प्रसार के साधनों का भरपूर प्रयोग हो रहा है जैसे मोबाइल और इंटरनेट. अब अपनों से कई बार बात हो रही है, जो पहले इतनी नहीं होती थी. सभी चिंतित हैं, चाहते हैं कि सभी स्वस्थ रहें. अपनों से की गई बातें चाहे लिखित रूप में हों या मौखिक, वे ढ़ाढ़स देती हैं. सुकून मिलता है कि सब कुशल है. ऐसे समय सामाजिकता की भूमिका का एहसास होता है, भले ही थोड़ी देर के लिए ही सही.
एक बात और महसूस कर रही हूँ कि अवकाश के समय जब भी छत पर बैठती हूँ, तो देखती हूँ आसमान साफ हो गया है. वो छोटे-छोटे टिमटिमाते तारे पहले इतने स्पष्ट नहीं दिखते थे, जितने अब दिखते हैं. यह शायद हमारे देखने मे बदलाव आया है. पहले इतने एकांत में रहते हुए हम उन्हें इस तरह नहीं देख पाते थे. खामोशियों में गाते ये झींगुर बरबस याद दिला देते हैं अजंता में बिताई हुई वह रात. तब वहां भी रात्रि में अद्भुत, महान और कालजयी कला की सांध्य आरती, ये झींगुर इसी तरह गा रहे थे और चाँद अपनी तारों रूपी पूरी मंडली के साथ हर रोज़ उस आरती में उपस्थित होता. वहां जैसी शांति थी, वैसी ही अब यहाँ शहर में है, जो सुखद है. इन दिनों चिड़ियों की चहचहाहट, उनका उन्मुक्त गगन में उड़ना, रंग बदलता हुआ आसमान सब कुछ नया है, प्रदूषण मुक्त और ऊर्जा से भरा हुआ. पर अब लगता है कि हम इन्सान इस पर्यावरण की भाषा को, उसकी संस्कृति को क्या केवल इस लॉक डाउन की अवधि में ही देख-समझ पाएंगे? क्या इस धरोहर को बचाने के लिए थोड़ा अनुशासन ला पाएंगे?
ये मौका है सँभलने का, खुद को निखारने का, पुनः व्यवस्थित करने का. ये वक़्त अवसाद, पीड़ा, भय, तनाव लेकर आया तो है किंतु इसे तब्दील किया जा सकता है सकारात्मक सोच से…. तो खंगालें अपने -अपने झोले को और देखें कि क्या रह गया करने को शेष अभी, क्या कोई ऐसा काम रह गया जों समय की दौड़ में पीछे छूट गया. वक़्त और काम की आपाधापी में क्या कोई रिश्ता छोड़ आएं हैं कहीं…या छोटा सा लम्हा जो दब गया है कहीं बोझ तले. तो निकालें उन्हें बाहर और बिखेर दें अपने आस-पास. फिर देखें कैसे महकेंगे ये सब. समेट लें वक़्त में बिखरी सारी ऊर्जा और रच दें नई अनूठी रचना. हम फिर से सामाजिकता की कश्ती पर सवार होंगे.
८.
सफदर शामी
II एकांत नहीं अनेकांत II
मेरा कमोबेश ये ही ख्याल है कि पूरे मुल्क में, जो यक-ब-यक तालाबंदी करना पड़ी है, उस से उपजी परिस्थितियां कलाकारों के लिए अलग और कोई ऐसा नया माहौल ले कर नहीं आई है जिस से भारतीय कलाकारों की आर्टिस्टिक क्रिएटिविटी में बड़ी उथल पुथल या कोई नया बदलाव पैदा हो. अपनी ज़रूरत का अकेलापन हर कलाकार के पास होता है या अपने ढंग से अर्जित कर ही लेता है. वैसे उसके बिना भी काम असंभव हो, ऐसा भी नहीं है. क्योंकि अंततः एक कलाकार भी सामाजिक प्राणी ही है और वह अपने समय और समाज के बीच ही सांस लेता है. जहां तक रचनात्मक एकांत की बात है, वह अधिक से अधिक कलाकार की सुविधा हो सकती है शर्त नहीं.
कला समाज का ही परावर्तन है. वही उसमे परिलक्षित होता है. इसलिए मुझे कहने दीजिये कि
मानव रहित एकांत कलाकार की कल्पना नहीं. चाहत भी नहीं. कलाकार एक हद तक अपने सृजन के लिए, कुछ ही समय के लिए, निर्विघ्न एकांत चाहता है. जिसे पर्सनल ब्रूडिंग कह सकते हैं. पर जनशून्य एकांत, एक कलाकार क़तई नहीं चाहता, वह एक संन्यासी की ज़रूरत है, कलाकार की नहीं. वह शून्य में प्रवेश नहीं करता. हालांकि महामारी की इस वैश्विक तालाबंदी ने मानव रहित एकांत का आभास अवश्य करवा दिया है.
जिस तरफ़ देखो सड़कें, गलियां, मुहल्ले, बाज़ार सब कुछ निर्जन. देश की सीमाओं के बाहर तक फैले हुए ख़ौफ़नाक सन्नाटे ने प्रकृति को हमारे बहुत क़रीब कर दिया है. इंसानों और वाहनों के शोर में हमारे आसपास के पक्षियों के वजूद का एहसास पहले कभी नहीं हुआ लेकिन अब कहीं दूर पैड़ों पर बैठे हुए पक्षियों के चहचहे भी निस्तेज मौन को चुनौती देते हुए हम तक पहुंचते रहते हैं. शहरी पशु पक्षियों की मौजूदा नस्ल ने पहली बार इतनी ख़ामोश और वीरान बस्तियां देखी होगी.
जब मुझे एकांत के बारे में लिखने को कहा गया तो मैं थोड़ी उलझन में पड़ गया. एकांत में ‘अंत‘ शामिल है. एकांत को क्या ‘एक‘ का अंत मान लिया जाए…? अगर ऐसा है, तो फिर वह ‘एक‘ कौन है..? कौन है, ‘एक‘ जो अंत से दूर रह जाएगा और इस कोरोना के क़हर में तो सब कुछ ‘अंत‘ के निकट-सा दिखाई देता है. सिर्फ़ दिखाई देता है, लेकिन अंत हो जाएगा ऐसा मैं तो बिल्कुल ही नहीं मानता.
यह एक प्रलय जैसा जान पड़ता है क्योंकि पृथ्वी की सभ्यता के उदय के बाद से ऐसा पहली बार हो रहा है, जब सब कुछ स्थगित है. परन्तु प्रलय की जो भारतीय अवधारणा है उस में भी ‘एक‘ बचा रहता है अक्षय वट वृक्ष के पत्ते पर. यानी यदि प्रलय को देखें तो उस में भी ‘लय‘ है. वह ‘लय‘ सृजन की ही है. मैं कुछ रूपकात्मक ढंग से अपनी बात रख रहा हूँ. और एकांत के प्रश्न का सरलीकरण भी नहीं कर रहा हूँ. मौजूदा समय की जो अवांछित देन है वो एकांत से अधिक फ़ुरसत है. ये फ़ुरसत हमारी खोजी हुई फ़ुरसत नही है.
फ़ुरसत किसी भी तरह की, कोई भी हो, वह निर्विघ्न नहीं होती. किसी अन्य महत्वपूर्ण कार्य की चिंता या संभावना से पूरी तरह ख़ाली नहीं होती. मगर यह तालाबंदी की प्रदत्त लंबी अवधि की विवश फ़ुरसत है. दूसरे शब्दों में कहूँ कि ये थोपी हुई फ़ुरसत है. बाहरी कार्य के दबाव से मुक्त नितांत फ़ुरसत. जिस में जीवन की हलचल की हत्या हो गई है. हलचल न हो तो जीवन ही कैसा…?
मैं सोचता था कि इस नज़रबंदी के दौरान बहुत कुछ करने का अवसर मिलेगा. इस बहुत कुछ के विचार ने लंबी फ़ुरसत की अनुभूति को भी व्यस्तता में बदल दिया. रोज़मर्रा के जीवन की कमर तोड़ दी. इसे मैं एकांत जैसे शब्द के पड़ोस में भी रखना नहीं चाहता. कलाकार एकांत नही, अनेकांत रचता है.
मैं दुनियादारों की तरह इस एकांत के उपयोग और उपभोग की बात को अच्छा नहीं समझता. क्षमा चाहूंगा इसके लिए. क्योंकि ऐसे एकांत में, जिसमें मृत्यु का भय, दुर्दान्त आतंकवादी की तरह पूरी दुनिया में दहशत गर्दी मचाए हुए है, तब इस एकांत के उपयोग और उपभोग की बात को कुछ शर्म के साथ देखता हूँ. दरअसल यह मनुष्य विरोधी हो जाना है. जब हज़ारो लाखों लोगों को मृत्यु निगल रही हो और कलाकार समाधिष्ट मुद्रा में अपने रचने के एकांत पर गिद्ध दृष्टि जमाये बैठा रहे, ये उसकी युगदृष्टा होने के दावे को खोखला सिद्ध करती है.
नियमित रूप से पढ़ना न हो पाने के सबब काफ़ी कुछ ऐसा है जिसे पढ़ने के लिए लंबा अंतराल प्रतीक्षित था. पेंटिंग करने के भी अपने तक़ाज़े हैं. घर में अरसे से पड़ी बेतरतीब वस्तुएं भी तवज्जो की हक़दार हैं. परिवार जनों की अपनी अपेक्षाएं अलग. महाप्रकोप की तनावपूर्ण परिस्थितियों में नागरिकों में संक्रमण ढूंढने की बजाय धर्म ढूंढने की सियासत पर लिखने का नैतिक दबाव भी था. वर्तमान में सब से ‘निगेटिव‘ शब्द ‘पॉज़िटिव‘ होना है लेकिन फिर भी सूचना माध्यमों का ‘निगेटिव‘ होना देश के लिए अत्यंत घातक लगा, इसलिए लिखा भी. कुल मिलाकर ज़हन में इतने सारे कामों की क़तार किसी एक काम में भी निरंतरता बरक़रार नहीं रहने देती.
आज जब दुनिया का बड़ा हिस्सा इसलिए बंद कर दिया गया है ताकि इंसानों की सांसें चलती रहें. ऐसे अवसादित समय से कलाकार का संवेदनशील मन प्रभावित हुए बिना कैसे रह सकता है. वैसे भी कलाकार के अंतस् में एकांत का वास नहीं होता. हो भी नहीं सकता. विचारों और भावनाओं का मुसलसल कोलाहल रहता है. यही कोलाहल उसे रचना कर्म के लिए संचालित करता है. हाँ, कभी कभी इक ख़ास मनःस्थिति रचना कर्म से रोकती भी है लेकिन यह ख़ला भी रचना काल ही होता है. अकस्मात मिल गए इस पर्याप्त मगर संकट के समय में मनोदशा आम दिनों से बिल्कुल भिन्न है.
यह समय पहली बार महाविनाश का एक भयभीत प्रतीक बन कर समूचे संसार के सामने है. मुझे ऐसे में कीनेथ रेक्ज़ार्थ की बात याद आती है “Against the destruction of the world, there is only one answer, and that is the creation” इसलिए मुझे लगा कि विनाश के विरुद्ध सिर्फ़ सृजन ही सर्वाधिक शक्तिशाली है. कोरोना को बहुत शक्तिशाली माना जा रहा है लेकिन मुझे लगता है कि हम विनाशकारी को ही शक्तिशाली मानने की एक ग़लत धारणा बना चुके हैं. जबकि विनाशी नष्ट कर सकता है रच नहीं सकता. जो रच सकता है उसे ही सब से शक्तिशाली मानना चाहिए.
कोरोना कारावास में साधन की सीमाओं से उपजी रिक्तता ने स्मृति का विस्तृत मैदान खोल दिया है. बहुत छोटी और अनावश्यक लगने वाली घटना भी स्मृति पटल पर उभर आती है. दरअसल अतीत जैसा भी हो, स्मरणीय होता है. चूंकि यह उचित समय है उन सारी अच्छी बुरी यादों को लिखने का, लिहाज़ा जब पेंटिंग नहीं कर रहा होता हूं तो पीछे छूटे हुए समय को लिखने का प्रयास करता हूं. पुश्तैनी गांव भौंरासा से लेकर देवास में अफ़ज़ल साहब के सान्निध्य तक और इंदौर से लेकर मुंबई में टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस आदि के लिए कार्य करते हुए संघर्ष करने तक बहुत कुछ है जिसे लिखना चाहता हूं. ये आत्मान्वेषण का समय है और जवाबदेही का भी.
निश्चित ही वर्तमान परिस्थितियों में यह विचार एक सुखद अनुभूति है कि जब सारी दुनिया थम गई हो, तब भी कला कर्म ही है जो जारी रह सकता है और शायद अधिक शिद्दत के साथ. इस चौतरफ़ा निराशा के मौसम में ‘रचने‘ से ही ‘बचने‘ की आशा को क़ूवत मिलती है. लेकिन किस क़ीमत पर, ये हमें नहीं भूलना चाहिए.
कोरोना ने निश्चय ही एक बहुत बड़ा सबक़ दिया है लेकिन अभी तक का सबक़ यही है कि हम किसी सबक़ से कोई सबक़ नहीं लेते. मैं नहीं जानता कि कोरोना का कारावास हटेगा तो हम सब बहुत ज्ञानी हो जाएंगे और प्रकृति के विरुद्ध जारी विनाश की युक्तियां हम फिर से नहीं खोजेंगे. क्यों कि हम इस अकाट्य विश्वास के साथ जीते हैं कि अंत नहीं होगा. हम सब एनलाइट्मेंट के केंद्रीय आशावाद में विश्वास रखते हैं.
ये अकेलापन ऐसा अकेलापन है जिसमें सब अकेले हैं. ये सामुहिक अकेलेपन का दौर है. बड़ी संख्या ऐसे ग़ैर कलाकार वर्ग की है जिनके लिए इतने लंबे समय घर में रहना पहला अनुभव होगा और अवांछित भी. फ़ोन पर बतियाने के लिए हर किसी के उपलब्ध होने में उन्हें संदेह भी नहीं. अपनी उबाऊ परिस्थितियों के मद्देनज़र औरों को भी फ़ोन पर बात करने के इच्छुक मान लेना स्वभाविक है. नतीजतन समय का एक बड़ा हिस्सा फ़ोन के सुपुर्द हो जाता है. चाहे अनचाहे दूसरों के एकाकीपन को दूर करने का माध्यम भी बनना पड़ता है. शायद ये वक़्त की ज़रूरत भी है. फ़ोन के दूसरे छोर पर कोई हमारा अपना ही होता है. उनकी भावनाएं भी अपने साथ अपनों के अकेलेपन को दूर करने की होती है.
हालात कितने ही कठिन हों, उसका एक उजला पहलू होता ही है. इस दीर्घकालिक तालाबंदी ने व्यस्तताओं में घिरे लोगों को भी अपनों की मिज़ाज पुरसी का अवसर दे दिया है. सामाजिक दूरी (social distancing) ने भावनात्मक निकटता पैदा कर दी है. बहुमूल्य वस्तुओं ने अपनी हैसियत खो दी है. समाज में भी उच्च और निम्न वर्ग का अंतर मिट गया है. मजबूरियों और सीमाओं के स्तर पर सब समान हैं. धर्म का आडंबर अस्थाई तौर पर ही सही, पूरी तरह बंद है. इस आपात स्थिति ने विश्व स्तर पर भी कुछ समानताएं पैदा कर दी हैं. सभी की समस्याएं, चुनौतियां, ख़तरे, सावधानियां, उपाय सब कुछ समान हैं.
आज नहीं तो कल इस समस्या का उपाय इंसान खोज ही लेगा. कोरोना का रोना भी समाप्त हो जाएगा, लेकिन दुनिया शायद पहले जैसी नहीं रहेगी. कला परिदृश्य भी भिन्न होगा. इस विपदा से चमत्कारिक रूप से बाहर निकलना तो संभव लगता नहीं, लंबा समय दरकार है. लेकिन इस विनाशकारी सन्नाटे में सृजन ही हमें उम्मीद और साहस दे सकता है और वही हमारे बस में भी है.
घर में मैं भी औरों की तरह मृत्यु बोध से घिरा हुआ हूँ और अगर डूब ही रहा है सब कुछ, तो भी हम कुछ बचाने के लिए दौड़ने के संकल्प को न भूलें, इसलिए अपने ढंग से काम कर ही रहा हूँ.
फ़्रांसिस ब्राउन के लिखे का एक टुकड़ा याद आ रहा है…”पृथ्वी का अंतिम मनुष्य कमरे में अकेला था- और ठीक उस समय दरवाज़े पर दस्तक हुई”.इसलिए मुझे मेरा आत्मसजग मन कहता है कि अगर एकांत में अंत शामिल है, तो निराशा में भी आशा मौजूद है.
९.
विनय अम्बर
II गिरते हुए पुलों पर रेल का गुजरना II
ग्वालियर में एक सामंती ठाकुर किन्तु रागात्मक और कलात्मक परिवार में सारे अंधविश्वासों के बीच जन्म लिया. गीता का पाठ, रामायण की लय, आल्हा की टेर सुनने के साथ ही जादू-टोना, अघोरी, तंत्र-मंत्र की जो दौड़ हो सकती है, 14 साल की उम्र में ही देख ली थी. ग्वालियर की तानसेन कला वीथिका अपना अड्डा हुआ करती थी. मिस हिल स्कूल से भाग कर अपना बचपन यहीं बिताया. यहीं तय हुआ कि चित्र बनाना जीवन का पहला और अंतिम उद्देश्य होगा. जबकि चित्र बनाना जंजाल लगता था.
जबलपुर आकर पुराने फ़िल्मी गीतों के माध्यम से संगीत से जो रिश्ता बना, वह आज भी वाइलिन बजाते हुए सम्पूर्ण शास्त्रीयता के साथ मौजूद है. पंद्रह साल अखबारनवीसी की. उसी दौरान उस समय के लगभग सभी मूर्धन्य कलाकारों को सामने से सुना और गंभीरता से लिखा. इनमें भीमसेन जोशी, मल्लिकार्जुन मंसूर, मालिनी राजुरकर, किशोरी अमोनकर, अली अकबर खां, विलायत खां, पन्नालाल घोष, कुमार गन्धर्व, एन. राजम को सुनना अद्भुत लगता है. पत्रकारिता के प्रारम्भ में ही धन-बल की महिमा और ताकत से सामना हो चुका था, सो जी ऊब चूका था. अच्छी-खासी रोबदार दुनिया छोड़ कर राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलनों में सक्रिय हो गया. रंगकर्म में रूचि होने के कारण उसके साथ मजबूत रिश्ता बना. कविताओं से प्रेम है, वे जीने का साहस देती हैं.
इसी ताकत को विस्तार देने, कविता के काम को समझते हुए कविता पोस्टर जैसे गुरिल्ला कला पर खूब काम किया. लगभग पाँच हजार के ऊपर कविता पोस्टर बनाये, बाँटे, शायद ही कोई महत्त्वपूर्ण कवि बचा हो, वह देश का हो या विदेश का.
आप सब सोच सकते हैँ कि ये सब लिखने की क्या जरूरत थी. सही भी है, पर मुझे कवि विष्णु खरे की एक बात याद है कि किसी भी व्यक्ति की रचनात्मकता को देखना हो तो उसका जीवन, जीवन जीने के ढंग को सबसे पहले सम्पूर्णता में देखना चाहिए. उसके संघर्ष, विचार और उद्देश्य की भी पड़ताल करना चाहिए. वह जिस तरह जीता है, सोचता है, वैसा ही रचता भी है.
अमूमन रोजमर्रा की जिंदगी में जो काम करता हूँ, वही इन लॉक डाउन के दिनों में भी जारी है. मजेदार बात यह है कि मुझे घर का काम करते देख, जो महिलाएं पहले हँसती थीं और मर्द तंज कसते थे, वे महिलाएं अपने मर्दों को अब मेरा उदाहरण देती हैं और वे मर्द मुझे कोसते हैं. आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मैं कौन-कौन से काम करता हूँ.
जैसे मैं कार ड्राइव नहीं करता. ड्राइविंग सुप्रिया करती है. मैं उसे धोता-पोंछता हूँ. इस लॉक डाउन में घर पर रहना मेरे लिए सामान्य ही है. इस दिनचर्या में प्रवृतिनुसार कुछ खोजबीन करते हुए कई इंटरव्यू, रिपोर्ट, जवानी की यादें, टूटी और छूटी मोहब्बतों के ख़त और तस्वीरें, जिंदाबाद कहते हुए सामने आकर खड़ी हो जाती हैं. सारे गिरते हुए पुलों से रेल गुजरने लगती है और रेतीले जजीरे हरे भरे से हो जाते हैं. गले तक पिये गये इश्क़ का नशा एक बार फिर तारी होने लगता है.
उस्ताद अमजद अली खां के सबसे बड़े भाई उस्ताद मुबारक अली खां का इंटरव्यू और मेरे द्वारा लिए गये ब्लैक एंड व्हाइट फोटो के निगेटिव भी इस तालाबंदी में मिल गए, जो अब तक रहस्यमयी तरीके से छुपे हुए थे. ये तीन दशक पहले लिये थे. अमज़द-मुबारक की कहानी कमाल है. आगे फिर कभी.
तो बात व्यक्ति, उसकी रचनात्मकता और उसके जीवन पर चल रही थी. जब मेरे और मेरी रचनात्मकता पर बात आती है तो मै निःसंदेह विचलित हो जाता हूँ, विचलित रहता हूँ. वैसे भी दुनिया को देखने का मेरा अपना ढंग मुझे विचलित ही रखता है. मैं अपने स्वतः के सुख के लिए चित्र नहीं बना पाता, मेरे अंदर वह एकांत ही नहीं है, वह आत्मा ही नहीं है, जो सब कुछ सुन्दर और सापेक्ष देख सके. जो स्वतः के सुख की योजना बना सके. वह खुद ही अमूर्त है. आदिम लोग उसे रक्त-माँस और साँस जैसी भौतिक वस्तु मानते थे और धर्म उसे (यानि आत्मा को) अशरीर और अमर अभौतिक शक्ति मानता है. विज्ञान इसे astrial body मानता है. यह तीनो स्तर पर मेरी चेतना को प्रभावित नहीं कर पाती.
हो सकता है मैं यूटोपियन हूँ. किसी दुसरी ही दुनिया के बारे में सोचता हूँ,
जो होना चाहिए थी,
बनाई जा सकती थी,
नहीं बना पाए,
पर संभव तो थी,
और शायद है भी.
जो है उसमें यही देखने मिलता है कि मानव सभ्यता के विकास और धर्म की उत्पत्ति ने मनुष्य को एक तरफ असीम मानवीय मूल्यों एवं संबंधों का सुन्दर आकाश दिया, वहीं दूसरी तरफ सत्ता की क्रूरता को भी मानव जीवन का हिस्सा बनाया. देवता और डर को पर्यायवाची बना दिया. डर ने सत्ता और सत्ताधारी को देवता बना दिया. देवता क्रूरता की हदें पार करने लगा.
इसी बीच अमूर्त देवता मूर्त रूप लेने लगा. मनुष्य के उर्वर दिमाग़ ने कहानियाँ रचना शुरू की. कहानियाँ गुफाओं की दीवारों पर चित्र के रूप में और मूर्ति शिल्पों का रूप लेकर पत्थरों में से उद्घाटित होने लगीं. मनुष्य का यह हूनर, सभ्यता और संस्कृति का नाम रखकर दुनिया में शासन और शोषण करने के हथियार बन गए. धर्म और संस्कृति ने सभ्यता का राजनीतिकरण कर दिया. यदि गौर से देखें तो गुजरी सदियाँ मनुष्यता का शोषण करते दिख जाएंगी. वर्तमान समय ही मनुष्यता के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है. ये उन्हीं गुजरी शताब्दियों की देन है, जिनमें हम हर तरफ लगातार रात-दिन तरक्की कर वाह-वाही लूट रहे थे.
मनुष्य की चेतना ने अपने हक को लेकर सवाल किये और दासता का विरोध किया, तो फिर से उसे धर्म के रास्ते की ओर तमाम मुक्ति के प्रलोभनों के साथ भीड़ बनाकर ले जाया गया. उसके भावुक मनोविज्ञान के साथ खेला गया. मतलब यह कि मनुष्यजनित हर उस चीज का… जैसे जाति, वर्ग, भाषा, रंग, पहनावा, शक्ल, त्यौहार और काम का राजनीतिकरण हुआ. उसी तरह व्यापक तौर पर कला का भी राजनीतिकरण हुआ. मनुष्य के जीवन में कला की भी राजनीति है, कला भी एक औजार है राजनीति का. नहीं होती तो, रंगो का बटवारा न हुआ होता. उदाहरण बतौर पहले रामचंद्र अपनी पत्नी सीता, भाई लक्ष्मण और सेवक हनुमान के साथ मुसकुराते हुए न विराजे होते और न बाद में, समुद्र के बीच गुस्से में धनुष ताने खड़े हुए न दिखाये जाते. श्रीकृष्ण गोपियों, गायों के साथ, पर्वत उठाये हुए या युद्ध क्षेत्र में उपदेश देते रथ पर न बैठे होते… और न बाद में अकेले सुदर्शन चक्र लिए दौड़ रहे होते. ये भी कला के ही नमूने हैं. कलाकार के द्वारा ही बनाये गये हैं. ऐसे असंख्य उदाहरण हैं.
कला वही नहीं है जो कैनवास पर है, कागज पर है,मूर्त है या अमूर्त है. जो कला कागज पर या कैनवास पर है, उसकी भी अपनी राजनीति है. यहाँ राजनीति से मतलब किसी राजनीतिक पार्टी की राजनीति से नहीं है, बिल्कुल नहीं है. बल्कि उसके मानवीय पक्ष से है. उसके मनोविज्ञान के अपहरण से है. उसकी अशिक्षा से, गरीबी से है. संभवतः अगले साल तक मेरी किताब “कला की राजनीति “आपके पास होगी. पिछले दो वर्ष से उस पर काम जारी है.
चित्रकला की दुनिया में 95 प्रतिशत युवा मध्यम वर्ग से आता है. यह वही मध्यम वर्ग है जो विरोध और विद्रोह का परिचायक है. जिसके पास सपना है, नई और खूबसूरत दुनिया बनाने का. अभाव ही तो सपने की जरूरत बनते हैं.
मैं तमाम नीले रंगों के सामने अनगिनत हरे रंग स्थापित कर देता हूँ और उन नीले और हरे रंगों के सामने एक छोटा चुटकी भर लाल रंग गिरा देता हूँ, तो हाहाकार मच जाता है. सारे पीले, सफ़ेद, नारंगी रंग हैरान हो जाते हैं. इनके लिए इंसानी दिमाग की कीमत क्या है, ये सब जानते हैं.
मेरे भीतर एक कोलाहल है. असंख्य आवाजें हैं. इन आवाजों में जीवन जीने की लालसा है. जीवन के प्रति भरोसा है, जीवन के असंख्य गीत है.
प्रेम है..
त्रासदी है..
मृत्यु है..
उसका उत्सव है..
ग़रीबी है..
भूख है..
मैं इस समय तीसरे और शायद चौथे विश्वयुद्ध के दौर में हूँ. ऐसा युद्ध जिसमें कोई बन्दूक नहीं, कोई मिसाइल नहीं, कोई अणु परमाणु बम नहीं, धमाका नहीं, परन्तु मृत्यु है. मृत्यु का भय है. जीवन की अनिश्चितता है. जहाँ व्यक्ति का व्यक्ति पर भरोसा नहीं है. विज्ञान और मनोविज्ञान जनित यह युद्ध मुझे दुनिया को नए राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से देखने के लिए विवश भी कर रहा है और उत्साहित भी.
मेरी कोई शैली नहीं है, न कोई मुहावरा है जिसे देख आप पहचान सकें कि यह चित्र मेरा है. फिर भी, मेरे कुछ चित्र बहुत समय लेते है, सबसे बतियाने में. छोटी-छोटी बारीक लकीरों से मेरे चित्रों के जिस्म की खाल बनती है. बिलकुल वैसे ही जैसे हमारी खाल होती है और उसमें जीवन जीने की लालसा संघर्ष करती रहती है. कुछ चित्र बहुत जल्द बन जाते हैं, जबकि वे आकार में बड़े होते हैँ. वे एकाएक बन जाते हैं, लगभग किसी प्रेम की तरह.
रंग और लकीरें यहाँ भी गुत्थम गुत्था नहीं हो पाते, पर साथ रहते हैं. फिर अचानक बगावत होती है और दोनों आपस में ऐसे लिपट जाते हैं, जैसे दो प्रेमी अरसे बाद लिपटते हैं. अपने अपने सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ.
चित्र को लेकर मेरा मानना है कि चित्र मेरी पहली भाषा है. यह मेरी मातृ भाषा है. मैं अपनी भाषा में जीवन की हर घटना को आसानी से संजोकर रख सकता हूँ. मेरी भाषा विगत, वर्तमान और भविष्य की सामाजिकता एवं संस्कृति की अबूझ वर्णमाला में समय की स्लेट पट्टी पर लिखे जाने का प्रयास है. मैं चित्र की भाषा को इसी तरह बरतता हूँ .
अपने आप को मजदूर ही मानता हूँ. 8 से 10 घंटे काम करता हूँ. मजदूरी से जितना गहरा गड्ढा खोदता हूँ, मेरा ठेकेदार उतना मेहनताना मुझे दे देता है. इन दिनों मजदूरी तो उतनी ही कर रहा हूँ पर ठेकेदार मुनासिब मजदूरी दे, ये मुमकिन नहीं है. चूंकि मेरी पत्नी कोई नौकरी नहीं करती, वह भी मेरी तरह मजदूर है. एक बेटा है, मुझे मालूम है कि आने वाले समय में पेट भरना मुश्किल होगा, मित्रों से कोई छोटी मोटी सही, मजदूरी वाली नौकरी तलाशने के लिए निवेदन कर रहा हूँ. वे मेरी बातों पर गम्भीर नहीं, जबकि मैं बहुत परेशान हूँ.
लॉक डाउन है, ब्लैक आऊट नहीं है. यानी रात में अंधेरा नहीं होता, यही अंतर है बस… सो रात भी दिन जैसी ही लगती है. इन दिनों मैंने दो नए चित्र बनाए. रात में ज्ञान रंजन जी की नई किताब ‘उपस्थिति का अर्थ‘ पढ़ी. मोपासा की कहानियाँ पढ़ना जारी है. एक बड़ा कैनवास सुप्रिया ने स्ट्रेच कर दिया है. वे भी अपने काम में तल्लीन हैँ. बेटा बिगुल भी समय को चित्रित कर रह है, थोड़ा चिंतित है.
हम कुदरत का करिश्मा देख रहे हैं. पेड़ की पत्तियों से धूल गायब है. कभी जो परिंदे नहीं देखे, वे घर के सामने के दरख्तों पर देख पा रहे हैं. उनकी आवाजें सुन पा रहे हैं. 1970-72 का समय कुछ कुछ इसी तरह का था. सन्नाटे की ध्वनि रात को जल्दी ले आती है. मनुष्य की अति को घर के कोनो में दुबके देख आनंद आना स्वाभाविक है.
हम शताब्दियों बाद यह अनुभव ले रहे हैं और शायद शताब्दियों तक ये अनुभव आने वाली पुश्तों को न मिले… आखिर में यही कह सकता हूँ
मुझे मालूम है
मछलियों पर कोई अपना
हुकुम नहीं चला सकता…
परिंदो का कोई नेता नहीं
हो सकता है
यही रहस्य हो
इस जीवन की
सुंदरता का
१०.
वाज़दा खान
II ठहरकर भीतर की यात्रा करना II
आसमान ज्यादा नीला और शफ्फाक है, सूरज ज्यादा चमकीला. पेड़, पत्तियां, पौधे ज्यादा ताजे हरे हैं. परिन्दों की चहकती आवाज़ में शहद घुला प्रतीत हो रहा है. ढेर सारा हरा रंग हवा के साथ लहराता, बल खाता, नीले, सफेद, आसमानी आसमान को रह रहकर स्पर्श करता हुआ, सूखी-पीली पत्तियां हवा में नृत्य करती ज़मीन पर गिरती-बिखरतीं. पत्ती विहीन शाखें जैसे जश्न मनाती हों अपने निर्वाण का. कई शाखों पर शिशु पत्तियों का आगाज़, जैसे कुछ शुभ आगमन की सूचना. क्या आजकल मुझे ऐसा अधिक दिखाई दे रहा है या हमेशा से ऐसा था, पर मुझे नहीं दिखा. क्या यही एकांत में जीना है?
सुबह-सुबह चिड़ियों की चहचहाहट की मीठी ध्वनि से मानों कानों में संगीत घुल जाता है. मन जैसे तरोताजा हो जाता है, पूरे दिन के लिये. सड़क पर इक्का दुक्का वाहन की आवाज़, घर के सामने हरित पार्क में पसरा सन्नाटा. पर सन्नाटा कहाँ? किस्म किस्म की चिड़ियों की चहकार, प्यारी गिलहरियों की नाजुक आवाज़ें, फिजा में बिखरती हवा के संग इधर-उधर डोलतीं. उनकी आवाज़ें सुनती हूँ तो सोचती हूँ पेड़ों की हरी पीली पत्तियों में कुछ छुपे, कुछ दिखायी देते ये सभी पक्षी, क्या बातें करते होंगे आपस में, इन फुर्सत के पलों में. शायद अपना दुख-सुख साझा करते होंगे? निश्चय ही उन्हें आश्चर्य हो रहा होगा कि आजकल मानव लोक कहां लोप हो गया. जरूर आपस में चर्चा करते होंगे कि सारी सड़कें सूनी क्यों हैं? कोई शोर नहीं सुनाई देता, किसी तरह का कोई प्रदूषण भी नहीं. क्या उन्हें समझ में आता होगा यह सब? कितने खुश होते होंगे वे खुले चमकीले नीले आकाश के नीचे, पृथ्वी पर उगे हरे पेड़ों की टहनियों, शाखों पर फुदकते, कुहुकते, चहकते. क्या वे इस तरह के सुन्दर जीवन की कल्पना नहीं करते होंगे? आह, कैसी कर्णप्रिय स्वर लहरियां हैं उनकी. मानों सारा संगीत उन्हीं की बोली से उपजा हो.
कैसी शान्त चमकीली सड़कें हैं. वह शोर जिसे न सुनने की आदत इतनी जल्दी पड़ गयी हमें, जब पुन: शुरू हो जायेगा तो कैसे सहन होगा. हालांकि इस खूबसूरत सन्नाटे और सुकून के पीछे कितनी भयानक सच्चाई छिपी है कि याद करने को जी नहीं चाहता. इन्सान की फितरत है कि अपनी गलतियों से कोई सबक न लेते हुए सब कुछ सामान्य होते ही ये आकाश, सड़कें, पेड़-पत्तियां, फिजा सभी कुछ धूल, धुएं, वाहनों की कर्कश ध्वनि से पुन: भर जायेंगे. सारे खूबसूरत मासूम पंछी न जाने कहाँ लोप हो जाएंगे. कहाँ पनाह पाते होंगे आखिर पेड़ों की अंधाधुन्ध कटाई में.
इटली, अमेरिका, फ्रांस इत्यादि देशों में कोरोना से उपजे विनाश को देख सुनकर मन इतना द्रवित है कि किसी काम पर ध्यान ही नहीं केंद्रित हो पा रहा और पश्चाताप अलग से कि अचानक मिले इस समय का सदुपयोग मैं नहीं कर पा रही हूँ. इतना क्रूर और भीषण वक्त हम पहली बार देख रहे हैं. सारी दुनिया का समय एक साथ जैसे एक जगह रुका हुआ है. क्या पृथ्वी को प्रदूषण मुक्त करने, पर्यावरण में सन्तुलन बनाये रखने के लिये इतनी बड़ी कीमत देनी होगी? अब भी मनुष्य न चेता तो?
परन्तु धीरे धीरे खुद को सान्त्वना देती हूँ. हर घटित का अच्छा और बुरा पक्ष होता है. यह बुरा वक्त भी बीत जाएगा. मगर इस बुरे दौर का अच्छा पक्ष ये है कि हम खुद अपने साथ हैं अपने भीतर. हमारे अलावा कोई नहीं, न भीड़, न कोलाहल, न कोई भागमभाग और न किसी से मेल मुलाकात. हम खुद अपने में अवस्थित अपने एकांत के साथ हैं. देखा जाए तो यह खुद के विश्लेषण करने का समय है, खुद से कन्फेशन करने का समय है, आत्म स्वीकृति का समय है. वैसे तो कलाकार अपने मन के एकांत में ही रहता है. एकांत में रचता है, गुनता है. इसीलिये कुछ अतिरिक्त एकांत या समय उपलब्ध हो रहा हो, मुझे ऐसा नहीं लगता. चित्र निर्मिति वैसे भी बहुत समय लेती है, मन के भीतर चलती है तब भी, और कैनवास पर उतरती है, तब भी. यह रचना प्रक्रिया दोनों तरह के एकांत, मन के और भौतिक एकांत में ही सम्भव है. हां, व्यर्थ की भागदौड़ से या जरूरी काम की भागदौड़ से भी जो ऊर्जा बच रही है, वह निश्चित ही इस एकांत समय में अतिरिक्त है, जो रचनात्मकता से जुड़ रही है.
दिल्ली की तेज रुखी रफ्तार व कोलाहल में मन जो कहीं खोया हुआ था, आजकल ठहरकर जैसे आत्म मंथन की प्रक्रिया में अपने भीतर लौटा हो. ऐसा नहीं कि किताबें पहले नहीं पढ़ी हैं, कविता पहले नहीं लिखी है या रंगों रेखाओं से पहली बार मुखातिब हूँ. बस, जो ये इतना सुकून फिजाओं में पसरा हुआ है वह इतना नया है कि उसके साथ जैसे मैं अपनी समस्त रचनात्मकता को पुनर्नवा कर रही हूँ ठहर कर.
आजकल का एकांत मुझे उस समय की याद में ले जाता है, जो इलाहाबाद में छूट गया. छोटा सा घर, उसी में स्टूडियो मगर खूबसूरत पेड़ों के झुरमुटों, लतरों से घिरा, तितली, गौरैया, तोता, कौआ, कोयल, जुगुनू, गिलहरी, गुलाब, गेंदा, डहेलिया, गुलमेंहदी, दाऊदी, पलाश और जाने क्या क्या. चारों ओर छायी शान्ति और खुशबू के बीच में बैठकर बहुत सा कालजयी साहित्य पढ़ा. उन्हीं के बीच ईज़ल लगाकर बहुत से चित्र रचे. खूबसूरत रंगों में ढली शामें, नर्म ओस की सुबह, बाग बगीचे, सब वहीं छूट गए दिल्ली आने के बाद. इलाहाबाद में घर प्रयाग रेलवे स्टेशन के बहुत पास था. अक्सर हम सुबह जाकर वहाँ बैठते, प्लेटफॉर्म खाली रहता, घंटों रेखांकन बनाते चुपचाप बैठकर, सूरज को उगता देखते. इसके साथ ही याद आता है मुझे दिल्ली की गढ़ी कला कुटीर का एकांत.
दिल्ली आते ही ललित कला अकादमी के रीजनल सेन्टर गढ़ी आर्टिस्ट स्टूडियो में काम करने का अवसर मिला. वैसे तो वहाँ बहुत सारे स्टूडियो हैं, मगर सबकी अपनी अपनी निजता है. उस वक्त दिल्ली के मकान जिसे जनता फ्लैट कहा जाता है, के कमरे इतने छोटे होते कि लेटो तो पैर सामने वाली दीवार से जा टकराये. वे कमरे कम, दड़बे ज्यादा लगते, मुझे उनमें घबराहट होती. मगर फाके के दिनों में सिर छुपाने के लिये थोड़ी सी जगह भी बहुत लगती है. ऐसे में गढ़ी का सुरम्य वातावरण, हरसिंगार, आम, अशोक, जामुन आदि तमाम वृक्ष. तरह तरह के रंग बिरंगे फूल व लॉन में बेन्च पर अकेले बैठकर उन्हें घंटों देखना, रेखांकन करना मेरा शगल था. प्रथम तल पर स्थित स्टूडियो की खिड़की से आकाश में बादलों का आपस में बातें करते देखना, उनका तेजी से इधर उधर भागना, जैसे सब मेरे भीतर के एकांत में रच बस जाते. जो अनेक रंग, आकार और शब्दों का रूप ले लेते कई बार, तो कुछ स्मृति कोष में संचित हो जाते. दड़बेनुमा घर से निकलकर प्रदूषण से भरी सड़कों को पार करते गढ़ी में पहुंचते ही मुर्झाया कलाकार मन जैसे खिल उठता. कई बार सहसा छूट जाता यहां कि तेज रफ्तार, भीड़ और बेगानेपन में मेरा एकांत. तब सोचती कि मेरी रचनात्मकता कैसे जीवित रहेगी. बहरहाल, मेरा यह सब लिखने का तात्पर्य इतना है कि एक बार फिर से उसी तरह की निजता व शान्तचित्त होकर काम में रम जाने की अनुभूति हो रही है. भले ही इसकी वजह कुछ और है.
घर की बालकनी में नीम के पेड़ के सानिध्य में बैठकर जस्टिन गार्डर की पुस्तक ‘सोफी का संसार‘ (अनुवाद सत्यपाल गौतम) को आज पढ़कर खत्म किया. साढ़े चार सौ पन्ने की इस पुस्तक को किसी न किसी वजह से पढ़ पाना सम्भव नहीं हो पा रहा था, सो अब जाकर सम्भव हो पाया. दर्शन के अमूर्त प्रश्नों पर आधारित यह पुस्तक दर्शनशास्त्र में रुचि रखने वालों के लिये अच्छी पुस्तक है. किताब की लेखन शैली अत्यन्त रोचक व पठनीय है. जब तक मैं इस घर में शिफ्ट नहीं हुई थी, उस वक्त इसके पास वाले मकान में रहना होता था. मैं रोज दूर से इस नीम के पेड़ को देखा करती और सोचती, काश.. इसके सानिध्य में बैठकर कुछ रचने गुनने को मिले तो क्या बात हो? जैसे इलाहाबाद में पेड़ों की झुरमुटों के बीच पेन्टिंग बनाती या पुस्तकें पढ़ती थी. और जब मुझे इस घर में शिफ्ट होने का अवसर मिला तो कनफोड़ू ट्रैफिक की वजह से एक दिन भी बालकनी में बैठकर लिखना, पढ़ना, रचना नहीं हो पाया, वह तमन्ना अब जाकर पूरी हुई.
परन्तु जहाँ ये खूबसूरत सन्नाटा, पंछियों की आवाजें, गिलहरियों का शाखों पर उछलना, कूदना, जमीन पर गिरती पीली पत्तियों व उनके ढेर, जिसमें अनेक मूर्त-अमूर्त आकार परिकल्पित होते, मन को सौन्दर्यात्मक भाव व प्रसन्नता से भरते, वहीं रात में जब कुत्ते व सियारों के समवेत स्वर में विलाप करने की तेज आवाजें आती तो यह समय, यह एकांत का सन्नाटा बेहद डरावना प्रतीत होने लगता है. मन पर एक अजीब किस्म की उद्विग्नता छा जाती है. कितनी आशंकायें मन में जन्म लेने लगती हैं. तब लगता है कि कैसा है यह समय कि हम बहुत खुश भी नहीं हो पा रहे हैं और उदास भी नहीं हो पा रहे हैं.
मैं जिस घर में रहवासी हूं उसके मकान मालिक यानी अंकल को रोज मैं मकान के गेट के पास चहलकदमी करते व लगातार फोन पर बातें करते हुए देखती हूँ. उनकी अपनी एक संस्था है जिसके द्वारा इस विपत्त समय में लोगों की सहायता करने में जी जान से जुटे हैं. वे फोन पर बराबर संस्था के लोगों को ठीक प्रकार से काम करने का निर्देश देते रहते हैं. उनकी यह आजकल रोज की दिनचर्या है सैकड़ों जरूरतमन्द लोगों के लिये खाना बनवाकर उनकी बस्तियों में बंटवाना, जिन्हें एक वक्त का भी खाना नसीब नहीं हो रहा है. इस निर्मम समय में एक जिम्मेदार नागरिक की तरह अपने उत्तरदायित्व समझते हुए, अपने संस्था के सदस्यों के साथ अंकल दाल, चावल के पैकेट तथा अन्य रोजमर्रा की सामग्री का भी वितरण दूर दूर तक करवाते हैं. खबरों में पढ़ती हूं कि दूरदराज में कितने लोग भूखे पेट सोने के लिये बाध्य हैं, मन बहुत आहत होता है, यह सब पढ़ सुनकर. दूर ही क्यों घरों में काम करने वाली बाइयां इस समय कितनी क्राइसिस में जूझ रही हैं. मेरे पास बाई का एक दिन फोन आया कि दीदी बहुत परेशानी है. न खाने को कुछ है और पैसा भी नहीं है, क्या करूं. किसी तरह से कॉलोनी के गेट तक आयी वह. कॉलोनी के अन्दर आने वाले सभी रास्ते इस समय बन्द कर दिये गये हैं. कुछ पैसे और अंकल से दाल चावल का पैकेट लेकर साथी गोकर्ण उसे वहां बाहर के गेट तक देने गये, तब मन को थोड़ा तसल्ली हुई.
कभी कभार फोन पर बातें करते हुए अंकल के कुछ शब्द मुझे सुनायी पड़ जाते हैं. ‘लकड़ियां कम पड़ रही हैं‘, ‘अन्तिम निवास‘ जैसे शब्द मेरे कानों में पड़े. कितनी असहाय स्थिति है. संसार की नि:सारता का बोध होने लगता है. जिस वजह से यह शांति, यह समय हमें मिला है. वह इतना क्रूर क्यों है. प्रकृति इतनी कठोर कैसे हो गई. कभी कभार मन को परेशान करने वाले ख्याल तीव्रतर होते जाते हैं. आखिर क्या है हमारा पृथ्वी पर जन्म लेने का उद्देश्य? क्या करने आए हैं हम और क्या कर रहे हैं? एक क्षण भी न लगे इस नश्वर देह को मिट्टी में बदलने में. फिर भी लोभ, लालच, हिंसा, नफरत से पटा पड़ा है इंसान का मन. फिर लौटती हूँ अपने रंगों-रेखाओं पर. बार बार लौटती हूँ, जहां शायद अपने होने की सार्थकता पा सकूं, अंशमात्र ही सही, क्षणिक खुशी ही सही. मगर वही उदासी घर करने लगती है. आने वाला समय और विकट होने वाला है. इसके बाद क्या होगा? इतने दिनों तक पृथ्वी के बन्द होने पर क्या होगा लोगों के भविष्य का. आने वाले समय में आर्थिक मंजर कितना भयंकर हो सकता है, ये सब ख्याल भी इस एकांत समय में मन में चक्कर काटते रहते हैं.
बहरहाल, इस घोषित एकांत का अब तक का कुल जमा हासिल इतना ही है कि अपनी बिखरी पड़ी सारी कविताओं को एक जगह एकत्र कर पाण्डुलिपि की शक्ल प्रदान कर दी है. कुछ नई भी रच डालीं पाण्डुलिपि बनाते बनाते. दो एक किताबें पढ़े जाने के इंतजार में लगी हैं. निर्मल वर्मा की ‘लेखक की आस्था‘, हालांकि मैं इसे पढ़ चुकी हूं. परन्तु काफी पहले, अब पुन: नई दृष्टि, नए विचारों के साथ पढ़ना चाहती हूँ. मेरी राय में हर कलाकार को यह किताब पढ़नी चाहिये. इससे उनकी सृजनात्मक सोच को धार मिलेगी. इसके अलावा ‘भारतीय रहस्यवाद‘ पर एक पुस्तक और लुडवन विटगेन्स्टाइन की ‘ट्रेक्टेटस लॉजिको- फिलोसॉफिकल्स‘ (अनुवाद अशोक वोहरा) पाश्चात्य दर्शन पर आधारित है. ये सब क्रम में लगी हैं पढ़ने के लिये. स्टूडियो में कई नये कैनवास चित्र शुरू करने के लिए सामने रखे हैं. परन्तु वे अभी कोई रूप-अरूप लेने की प्रक्रिया के बीच में हैं. अभी मैं उनके बारे में कुछ नहीं कह सकती.
मुझे अपनी रचना प्रक्रिया के लिये बेहद धीमा एकांत मुफीद होता है. अलबत्ता पहले के दो अधबने चित्र (3x4 फीट) जरूर पूरे किये हैं. जब भी कोई पेन्टिंग पूर्ण होती है, मुझे बेहद खुशी का अनुभव होता है. कम से कम यह खुशी दूसरे चित्र के शुरू होने तक तो बनी ही रहती है. यही हैं हमारे भाव, यही है हमारी संवेदना. मन, वचन और कर्म से रचनात्मक बने रहना. स्टूडियो में चारों तरफ नए पुराने बने चित्र एक साथ निकाल कर रखे हैं. बराबर उन्हें निरखती परखती हूँ कि उसमें क्या कमी बेसी है, और है तो क्यों है. कैसे उन्हें और अच्छे ढंग से और सकारात्मक तथा सौन्दर्यात्मक रूप में विकसित किया जा सकता है. सोते-जागते उन्हीं के बीच में रहते यह प्रक्रिया भी निरन्तर चलती रहती है. जैसा कि मैंने पहले कहा कि यह निरीक्षण का समय है. रचना में डूबे रहने का समय है.
बालकनी में नीम के पेड़ के सानिध्य में बैठने और पढ़ने व रेखांकन करने का सिलसिला, सामने बने पार्क के घने पेड़ों की हरियाली को महसूस करते, पंछियों का संगीत सुनते और पेड़ों की पत्तियों से छन छन कर आते चन्द्रमा के प्रकाश में डूबे डूबे लगता है जैसे मैं प्रकृति और अपनी रचनात्मक अनुभूति के बहुत करीब आ गयी हूँ.
११.
रवीन्द्र व्यास
II मैं चित्र की देहरी पर ठिठका एक रंग हूँ II
खाली जगहें हैं, खाली आवाज़ें हैं. इतनी खाली जगहें मुझे कभी दिखाई नहीं दीं. इतनी आवाज़ें मुझे कभी सुनाई नहीं दीं.
यह खाली मटके के तल में लोटे के टकराने की आवाज़ है. मैं उस पर कान धरता हूँ, वह आवाज़ देर तक गूंजती लगती है. यह आवाज़ माँ की याद से लिपट कर आती है. मैं जब भी माँ के बारे में सोचता हूँ, मुझे मटके में पानी भरने की आवाज़ सुनाई देती है. वह सब सुन लेती थी, सब देख लेती थी. माँ अक्सर सोने से पहले हमारे सिरहाने ठंडे पानी की सुराही रख देती थीं. हमें विश्वास था कि जब आधी रात को हमारे कंठ सूख रहे होंगे, तो हम अंधेरी रात में हाथ बढ़ाकर सुराही को छू लेंगे और अपनी प्यास बुझा लेंगे. मां कभी नहीं भूलती हमारे सिरहाने ठंडे पानी की सुराही रखना. गर्मी में आधी रात को मां हमारे लिए हमेशा एक सुराही में बदल जाती थी. फिर एक दिन ऐसा आया कि वह सुराही हमारे सिरहाने से चली गई. उसकी हमें इतनी आदत हो गई कि हम मां के जाने के बाद भी आधी रात को प्यासे कंठ की प्यास बुझाने हाथ बढ़ाते रहे. हम हाथ बढ़ाते तो वहां सिर्फ हवा हाथ आती. हम अंधेरे में सुराही का आकार ढूंढ़ते रहते. जब हम सुबह उठते थे, वहां सुराही रखने का एक भूरा और गोल सुंदर आकार बन जाया करता था. अब बरसों हो गए, वैसा आकार मैंने अपने घर में नहीं देखा. अब उस गोल भूरे निशान की जगह एक खाली जगह है. उस खाली जगह में स्मृति रहती है. माँ सब सुन लेती थी, सब देख लेती थी….मैंने उस पर कविता लिखी :
एक दिन मां बिना कुछ कहे कहीं चली गई
सुबह जब उठे तो हमें किसी ने नहीं देखा
फिर एक पेड़ हिला, उस पर चिडि़या बैठी, एक फूल झरा
एक गाय आई, एक कुत्ता
इनको भी किसी ने नहीं देखा
रात की रोटी दूसरे दिन दोपहर तक सूखती रही
बिल्ली दूध पीकर चली गई
मैं बारिश में भीगता हूँ
छींकता हूँ
मुझे भी किसी ने नहीं देखा
मैंने माँ को ढूंढ़ा
वह जहां सोयी थी, वहाँ बच्चे अकेले हैं
हमारे सिरहाने ठंडे पानी की सुराही रखी हुई थी
खाली जगहें हैं. खाली आवाज़ें हैं. इनके बीच मैं यादों से घिरा हूँ. पिता के जाने के बरसों बाद मुझे लगा कि मेरी पीठ के पीछे एक खाली जगह बन गई है. इस खाली जगह में पिता की आवाज़ रहती है. घर में वहाँ पहले एक पलंग था. पिता थे. पलंग से लगी एक दीवार थी. दीवार पर उनके सिर टिकाने से बन गया एक धब्बा था. वे गर्मी के दिनों में संतरे के छिलके सुखाकर, पीसकर, खोपरे के तेल में डाल लेते थे. फिर छानकर सिर में लगाते थे. दीवार पर धब्बा इसी तेल का था. उनके पलंग के नीचे खून से लाल हो गई पेशाब की बूंदों के निशान थे. उन्हें कैथेटर लगा था. वे उठकर चलते तो, कैथेटर को अपने धूजते हाथों से थामकर चलते थे. दर्द में कराहते थे. माँ उनका हाथ पकड़कर बैठी रहती, उन्हें सहलाती, उनका दर्द कम करने की कोशिश करती रहतीं. फिर एक दिन ऐसा आया कि पलंग खाली हो गया. दीवार पर सिर टिकाने से बना वह धब्बा मिट गया. पलंग के नीचे खून मिली पेशाब की बूंदों के निशान भी मिट गए.
अब वह जगह खाली है. आज भी घर में एक कमरे से दूसरे कमरे में जाते हुए वह खाली जगह बार-बार दिखाई देने लगती है.. पिता जब बीमार पड़े, तो मैंने अपना बनाया एक चित्र उन्हें दिखाया. मैं सुबह सरसों के तेल से उनकी मालिश करता और उन्हें नहलाने के बाद बरामदे की धूप में कुर्सी पर बैठा देता. वे मेरे चित्र देखकर खुश होते. मैं उनकी खुशी देखकर ज़्यादा खुश होता. उन दिनों मैंने चित्रों को गंभीरता से बनाना शुरू ही किया था. मुझे याद है, मैंने पहला चित्र हरे रंग का बनाया था. उसे देख उनकी आंखों में चमक थी. तब मैंने लगातार रोज़ चित्र बनाए. हरे, नीले और पीले, ज़्यादातर हरे. रोज़ धूप में उनको नया चित्र दिखाता. मैं सिर्फ पिता को दिखाने के लिए चित्र बनाने लगा. मेरे चित्र पिता के लिए थे. उनकी आंखों में चमक लाने के लिए थे. मुझे लगा वे ठीक हो रहे हैं. मैं शुद्ध रंग लगाता था, उन दिनों कलर मिक्सिंग नहीं करता था. बस, रंग लगाता था.
मैं नौकरी के लिए जब भी घर से निकलता, पिता कुछ न कुछ फरमाइश करते- बेटा आज अमरूद ले आना. बेटा आज पाइनएपल ले आना. बेटा आज जामुन ले आना. यह फेहरिस्त लंबी होती. मैं जब भी घर से निकलता, मुझे लगता मेरी पीठ के पीछे पिता की आवाज़ आकर बैठ जाएगी. कई बार वे सोए होते और मैं घर से निकलता तो लगता, पिता ने कुछ कहा है लेकिन मुझे सुनाई नहीं देता. बस महसूस होता कि पिता ने कुछ कहा है. पिता की जगह खाली है लेकिन मेरी पीठ के पीछे उनकी आवाज़ की जगह बन गई है. इन दिनों वह आवाज़ अब भी सुनाई देती है.. वह खाली जगह दिखाई देती है. और मेरी पीठ के पीछे बनी खाली जगह में पिता की आवाज़ गूंजती रहती है. मैं सुनता रहता हूं.. उनकी तस्वीरें देखता रहता हूँ.
मैं लगातार बरसों सिर्फ हरे रंग में चित्र बनाता रहा. जैसे सात रंगों का इंद्रधनुष होता है, मैं सिर्फ हरे का इंद्रधनुष रचना चाहता था. उसके हर टोन को समझना चाहता था. हरे की ओट में छिपे हरे को देखना चाहता था. हरे की चोट में छिपे हरे को महसूस करना चाहता था. हरे का मतलब मेरे लिए पिता की आंखों की चमक था. मैं पिता की आंखों की चमक को पेंट करना चाहता रहा. धूप में बैठे वे अक्सर आंगन में लगे अमरूद, मीठी नीम, पारिजात और गुड़हल के पेड़ों को निहारते रहते थे. उनकी आंखें चमकती रहती थीं, कोई पारदर्शी चीज़ की तरह.ये पेड़ अब भी हैं और मैं इन दिनों इन पेड़ों को कुछ ज़्यादा ही ध्यान से देख रहा हूँ. हरे की आवाज़, हरे की लय, हरे की हर हरी रंगत, हर हरकत, हरे के पीछे छिपे हर हरे को देखने की कोशिश.
हिलती पत्तियों को देखता हूँ. हरा धीरे से करवट लेकर पहले पीले और फिर भूरे में बदल जाता है. वह भूरा पत्ता हवा में उड़कर मेरी दहलीज पर आ जाता है. उस भूरे में भी मैं हरा ढूंढने की कोशिश करता हूँ.
इन दिनों माँ की तस्वीर पर ध्यान जाता है. पिता के जाने के बाद मैंने पहली बार जब माँ का भाल बिना बिंदी के देखा तो स्तब्ध रह गया. माँ के भाल पर बिंदी की जगह गोल खाली जगह बन गई थी. माँ के भाल पर मुझे वह खाली जगह अमावस्या का एक ऐसा चंद्रमा लगता, जो ना घटता है ना बढ़ता है. बस, अपनी जगह हमेशा के लिए स्थिर. मैं अक्सर अपनी माँ का वह भाल देखा करता, जिस पर अमावस्या का चंद्रमा है. मैं जब भी माँ का चेहरा देखता, मुझे वही खाली सफ़ेद जगह ही दिखाई देती . एक दिन मैंने गौर किया कि मेरे चित्रों में गोल सफ़ेद आकार अपने आप आने लगे हैं. कई में एक, कई में दो और कई में बहुत सारे. छोटे-बड़े सफ़ेद गोल आकार. इन दिनों मैंने माँ के फोटो को ग़ौर से देखा. उसमें भी उसके भाल पर वही सफ़ेद गोल खाली जगह बनी हुई है.
मेरे चित्रों में हरे के साथ यह सफ़ेद अपने आप आने लगा. मेरे बनाए लगभग हर हरे चित्र में ये सफ़ेद गोल आकार दिखाई देते हैं. ये कैसे आ गए, मैं ठीक ठीक बता नहीं सकता. मेरे जीवन में हरे की चमक और सफ़ेद की उदासी साथ साथ चलती दिखाई देती है.
इन दिनों मैं रोज़ ही चित्र बना रहा हूँ. पहले रात में बनाता था लेकिन अब सुबह बनाता हूँ. मैं सफ़ेद पर हरा रंग लगाता हूँ, ताकि कोई पारदर्शी चीज़ की चमक पैदा हो सके. लेकिन सफ़ेद में छिपा अदृश्य गोल आकार मुझे उदास कर देता है. दोनों जीवन में इतना घुले-मिले हैं कि कभी सफ़ेद और हरा अलग नहीं हो पाता. यह एकांत मेरा हमेशा की तरह बहुत निजी एकांत है. इसमें मृत्यु की आहटें भी हैं और समय का कोलाहल भी. कभी कभी यह सब इतना क़रीब लगता है कि घर में ही होता लगता है. इस एकांत ने मुझे फिर से काग़ज़ दे दिए हैं, ब्रश और रंग दे दिए हैं. मैं चित्र बना रहा हूँ. चित्र बनाते हुए मैं चित्र के ज़रिए अपनी देहरी से बाहर निकल रहा हूँ. दूसरों के क़रीब पहुंच रहा हूँ. मैं इस अंधेरे से भरे समय में लोगों की आंखों में हरे की चमक देखना चाहता हूँ.
मैं इंदौर के श्रीकृष्ण टॉकीज के सामने प्राथमिक स्कूल में पढ़ा. उसके बाद देवलालीकर कला वीथिका के पीछे माध्यमिक स्कूल में. हमारा स्कूल फाइन आर्ट्स कॉलेज की बिल्ड़िंग में ही था. सीढ़ियों से पहली मंजिल पर जाकर लड़के-लड़कियों को चित्र और मूर्तियां बनाते देखना मेरे लिए रोमांचक और रहस्यभरा था. वहाँ जाने में डर लगता था. कोई वहां से निकलकर नीचे आता तो मैं भाग जाता था. पता नहीं था, एक दिन मैं भी चित्र बनाने लगूंगा.
पहली बार इतने लंबे समय के लिए घर में हूँ. खिड़की से धूप आती है. हरे-पीले पत्तों से छनकर जब वह मेरे सफ़ेद पजामे पर बैठती है तो किसी तितली के पंखों में बदल जाती है. मैं देर तक उसे बैठा रहने देता हूँ. छाया में पेड़ की डाली हिलती है. इस एकांत ने मुझे अपनी लय हासिल करने में मदद की है. यह समय मेरे लिए सफ़ेद काग़ज़ में बदल गया है. लेकिन एक गहरे संकोच से ब्रश उठाता हूँ और सफ़ेद काग़ज़ को देख काँप जाता हूँ. मुझमें चित्रकार का आत्मविश्वास नहीं आया अभी. बहुत देर ठिठका रहता हूँ. मन में हूक उठती है.
मैं चित्र की देहरी पर ठिठका एक रंग हूँ.
इस बंद वातावरण में ठंडी हवा का झौंका भी आता है तो लगता है, यही जीवन का सबसे बड़ा सुख है. पत्रकारिता की नौकरी ऐसी है कि सुबह जल्दी नहीं उठ पाता था, सूर्योदय बहुत कम देखने को मिला. आजकल सुबह जल्दी नींद खुल जाती है. उगता सूरज अच्छा लगता है. देर तक निहारने की इच्छा बनी रहती है. पंछी और गिलहरियां देहरी पर आ जाते हैं. अच्छा लगता है.
किसी की आंखें अच्छी लगती हैं. उसकी चमक अच्छी लगती है. किसी की आवाज़ अच्छी लगती है, किसी के भाल पर बिंदी.
किसी को ढूंढना अच्छा लगता है, पुकारना भी.
मैं पुकारता हूँ हरे को. उसकी हर रंगत को, ताकि हरे में किसी की आंखों की चमक पेंट कर सकूं…
१२.
सुमन कुमार सिंह
II कुछ ना कुछ बदलेगा जरूर II
कमोबेश इस विश्वव्यापी कोरोना महामारी ने जो लॉकडाउन की स्थिति पैदा की हैं, वह अभूतपूर्व है. क्योंकि जब हम इतिहास के पन्नों में जाते हैं तो इतना तो पता चलता है कि इससे पहले प्लेग जैसी महामारी ने व्यापकता में संसार को प्रभावित किया था. पन्द्रहवीं सदी से लेकर क्रमशः उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक कई महामारी का असर बरकरार रहा. खासकर पंद्रहवीं सदी से लेकर सत्रहवीं सदी तक के इसके प्रकोप ने यूरोप के कला एवं सांस्कृतिक जगत को बेहद प्रभावित किया था. इस युग के भयानक आघात ने लेखकों और कलाकारों की कल्पना को दशकों तक चिंता और अनिश्चितता में डाले रखा. अपने अस्तित्व पर आई इस असुरक्षा ने कलाकारों को जीवन के विषयों से दूर ले जाकर नर्क व शैतान जैसे विषयों को चित्रित करने को प्रेरित कर दिया. कहा तो यहाँ तक जाता है कि उस दौर के कई चित्रकारों ने केवल यह मानते हुए कलाकर्म से नाता ही तोड़ लिया कि इस नारकीय दुनिया में सुंदरता लाने की कोशिश करने या सौंदर्यबोधक चित्र बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है.
यहाँ तक कि महान कलाकार रेम्ब्रां भी इससे अप्रभावित नहीं रह पाए. उनके द्वारा अपनी पत्नी हेंडरिकजे स्टॉफल्स के बनाए गए व्यक्ति चित्र को उनकी महत्वपूर्ण कृतियों में स्थान दिया जाता है. स्टॉफल्स भी इसी महामारी की भेंट चढ गयी थी, माना जाता है कि उनके इस आकस्मिक निधन ने रेम्ब्रां के कलाकर्म को बेहद प्रभावित भी किया. उनकी इस मृत्यु से उपजे अवसाद को रेम्ब्रां द्वारा बनाए गए आत्म चित्रों में भी देखा जा सकता है.
किसी त्रासदी के अंकन की बात भारतीय संदर्भ में करें तो बंगाल के भीषण अकाल ने कई कलाकारों के कलाकर्म पर प्रभाव डाला था. पिछले दिनों कला समीक्षक अशोक भौमिक के सौजन्य से चित्तोप्रसाद द्वारा इस विषय पर बने कुछ चित्र और रेखांकन भी देखने को मिले. वहीं दिल्ली जैसे महानगरों से दिहाड़ी मजदूरों के पलायन के क्रम में सोशल मीडिया पर एक चित्र बार-बार दिखायी दिया. जिसमें लहूलुहान ब्लेड की धार पर चलते हुए मजदूरों को दिखाया गया था, इंटरनेट पर पड़ताल से पता चला कि यह चित्र अमेरीका में रह रहे सीरियाई कलाकार मुस्तफा जैकब की कृति है. जिसे उन्होंने सीरिया संकट के दर्द को उजागर करने के उद्देश्य से बनाया था. बहरहाल दूर अमेरीका में बैठे इस कलाकार की उक्त कृति ने अपने देश के उस पलायन को जुबां दी, जिस पर हमारा कला जगत लगभग मौन ही रहा.
अब इतिहास से हटकर अगर वर्तमान की बात करें, मैं यह स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि यहाँ मेरी स्थिति थोड़ी भिन्न है. जिसका एक कारण तो मीडिया से जुड़ी अपनी नौकरी का होना है, दूसरा कतिपय अन्य कारणों से भी समकालीन कला जगत की गतिविधियों में मेरा आना-जाना कुछ खास नहीं हो पाता है. बमुश्किल साल भर में दर्जन भर कला प्रदर्शनियां ही देख पाता हूँ. अभी तो एक सच यह है कि प्रत्येक दूसरे दिन हमें अपने दफ्तर भी जाना पड़ता है. गाजियाबाद स्थित वैशाली के अपने आवास से नोएडा स्थित दफ्तर के लगभग आठ से दस किलोमीटर के सफर में आते-जाते लॉकडाउन से पसरे सन्नाटे का गवाह भी बनता हूँ. हालांकि इसी आने-जाने की वजह से पलायन के उस दौर को भी नजदीक से देखने का दर्द भी झेलना पड़ा, जो उन बदहवास लोगों के चेहरे पर झलक रहा था. इससे भी ज्यादा अफसोस इस बात का है कि हम सिर्फ तमाशबीन की हैसियत से यह सब कुछ सिर्फ देखते ही रहे. इस मूकदर्शक की भूमिका की ही परिणति रही कि लगभग एक सप्ताह से अधिक समय तक मन उचाट ही रहा. बमुश्किल दफ्तर के कामकाज के अलावा अपने नियमित ब्लॉग और कॉलम लेखन को अंजाम दे पाया.
विगत कुछ वर्षों से पेंटिग तो नियमित नहीं ही कर पा रहा हूं, किन्तु समय मिलने पर कुछ स्केच या ड्राइंग कर लिया करता था. अपने अखबार के दफ्तर में भी यदा-कदा स्केचिंग वगैरह हो जाती थी, किन्तु इस बीच सब कुछ बाधित सा ही रहा. शुरूआत में कोशिश रही कि सोशल मीडिया पर पुरानी या संदर्भ से इतर तस्वीरों के जरिये जो भ्रांतियां पैदा की जा रहीं हैं, उसका तथ्य पूर्ण खंडन करता रहूँ. सोशल मीडिया के लिए कुछ चुनिंदा कलाकृतियों के मेल से घर में रहने के संदेश वाले कुछ पोस्टर भी बनाए और उसके साथ महान रचनाकारों की कुछ चुनिंदा पंक्तियां भी डाली. इसी बीच यह भी कोशिश रही कि अमेरीका और यूरोप के कुछ समकालीन कलाकारों से जुड़े लेखों का हिन्दी अनुवाद अपने ब्लॉग पर लगाता रहूँ, यह क्रम कमोबेश अभी भी जारी है. लेकिन नियमित नहीं हो पा रहा है. तब भी कोशिश रहती है कि कोरोना संकट से कला जगत में उत्पन्न स्थितियों से जुड़ी वैश्विक खबरों का हिन्दी अनुवाद करता रहूँ.
इन सबके साथ कुछ स्केच और रेखाचित्र बनाने का क्रम चलता ही रहता है. वैसे बता दूं कि अपना स्टूडियो एक कंप्यूटर टेबल, किताबों की दो-एक अलमीरा और ढेर सारी स्केच बुक के पन्नों तक ही सीमित है. पहले भी वर्ष 1996 से लेकर 2014 तक के एक ऐसे दौर से गुजर चुका हूँ, जब अपनी कला का वास्ता सिर्फ नौकरी तक सीमित होकर रह गया था. हालिया वर्षों में दो-चार सामूहिक प्रदर्शनियों में भागीदारी के अलावा नौकरी से इतर अगर कुछ कर पा रहा हूं, तो वह है नियमित कला विषयक अध्ययन और लेखन. लॉकडाउन के इस ‘स्टे एट होम’ का आने वाले दिनों में कला जगत पर क्या असर दिखता है,यह अनुमान लगाना मुश्किल ही है. अभी तो यही ज्ञात हो पा रहा है कि हमारे फ्रीलांस कलाकारों से लेकर लोक चित्रकारों तक को इस लॉकडाउन और इससे उपजने वाली मंदी की आशंका ने अंदर तक हिला रखा है. वैसे हम यह भी कह सकते हैं कि जान है तो जहान है. लेकिन कहीं ना कहीं हमें इस बात पर भी गौर करना ही पड़ेगा कि उपभोक्ता वाद और पूंजीवाद के पीछे भागती हमारी यह दुनिया क्या अपने पिछले निर्णयों पर पुनर्विचार करेगी.
हम जानते हैं कि विश्व युद्ध की भयावहता ने जहां गुएर्निका जैसी कालजयी रचना को जन्म दिया था, वहीं तत्कालीन परिस्थितियों से उद्वेलित कलाकारों के एक समूह ने दादावाद जैसे प्रयोगों को भी अपनाया था. वैसे जिस उपभोक्तावाद की हम बात कर रहे हैं, उसके प्रतिरोध में कला में एंडी वारहोल जैसे कलाकारों ने पॉप आर्ट जैसे प्रयोग पहले ही कर रखे हैं. इसलिए इतना तो कहा जा सकता है कि कुछ ना कुछ बदलेगा जरूर, बस कामना करें कि जो भी बदलाव आए वह मानवता के लिए सकारात्मक हो.
१३.
जयप्रकाश
Il अपना ही जन्म होते देखना II
जब इस विकट परिस्थिति का पूरी तरह प्रभाव नहीं था, तब भी कागज पर रेखांकन और केनवास पर कुछ आकृतियां उभर रही थीं. शायद इसलिए भी कि हमारे जैसे स्वतंत्र चित्रकार इसके आदी हो चुके होते हैं. सफेद या खाली सतह को देख मन उसमें कुछ करने को उत्साहित हो ही जाता है. एकाग्रता बढ़ने पर अंतःकरण का संवाद इन एकांत क्षणों में मौन की गूँज का पर्याय बन जाता है. एकांत में बनते चित्र के साथ मौन के वार्तालाप का संबंध बहुत गहरा होता है. खाली फलक के साथ रंग-आकारों का समागम उस फलक के शांत चित्त धरातल को जीवंत कर देता है. मैंने अपने अमूर्त चित्रों में एक साथ कई रंगों के मिश्रित होने के बाद उनमें आकारों का एक होना देखा, मानो उनके खोने के बाद ही वे अस्तित्व में होने का सुख देते हैं. क्या इस भीषण समय में मैं भी खुद को खोकर अपने को नया आकार दे पा रहा हूँ? उसी तरह जैसे आकाश में स्वछंद उड़ते पक्षी की चहचहाहट के संगीत को अन्य दूसरी संगत की आवश्यकता नहीं होती, क्या मुझे भी उस संगत की आवश्यकता नहीं, जो मेरा अतीत था?
जो आकार रंगों के साथ उभरता जाता है उसके साथ काम करने लगता हूँ. उन फॉर्म्स का रंगों के साथ अबाधित फैलाव ही मुझे वहाँ मौजूं लगता है, जो यकीनन स्थिर तो कतई नही है. सौंदर्य को निहारने के लिए शब्दों की उपमा आवश्यक नही होती, उसी प्रकार प्रकृति में होने वाली हलचल की भी अपनी ध्वनियाँ होती हैं, जो मूलतः एकांत में मौन होकर सुनी जा सकती हैं. मेरे अमूर्त चित्रों में रंग और आकार निर्भय होकर विचरते हैं, जिसकी ध्वनियों को मैं मौन होकर सुनता हूँ. यह मौन तो एकांत की ही संगत से उपजता है जो किसी बांहय रूप से बाध्य नही है. इस अमूर्तता में अंतर्मन का गहरा संवाद है जो जीवन को प्रकृति की तरह ही मौन किन्तु जीवन को सरलता, सहजता से जीना सीखाता है. इस क्रम में यह एकांतिक संवाद निःशब्द हो परस्पर बना रहता है. मेरे कुछ चित्र इस तरह “साउंड ऑफ साइलेंस” सीरीज़ पर बने हैं.
इस दौरान कागज पर रेखांकनों के अतिरिक्त 5x5 फ़ीट के कैनवासो को किया और उनमें उन्मुक्त होते हुए रंगों-रेखाओं की स्वतंत्र लहरों की गूँज महसूस की. जिसे शब्दों के साथ कविता बद्ध भी किया. यहाँ कविता का आना भी सायास ही हुआ. ऐसा हो ही जाता है अक्सर. चूंकि संवाद की निरंतरता में कभी-कभी शब्दरूपी विचार मन पर अंकित हो जाते हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि शब्द एकांत के साथ अपना आनंद ढूंढ ही लेते हैं.
रंग-आकारों के साथ संवाद का क्षण तो एकांत में ही मिल सकता है जो इस समय भी मिला. एकांत भी उन्हीं क्षणों की भांति है जो मुझे अक्सर अपने कला कार्य को करते हुए महसूस होता है. हाँ, इन दिनों थोड़ा ज्यादा वक्त मिला है ये भी सोचता हूँ.
कभी-कभी विश्वव्यापी हो चुके इस संकट में मिल रहे इस एकांत में वक्त के साथ जूझ रहे सभी उन मित्रों, कलाकारों और आमजनों के प्रति चिंता भी होती है जो शायद इस समय बहुत सी असुविधाएँ झेल रहे होंगे. एक कला साधक का एकांत में कला में साधनारत रहना कठिन तो नही है किंतु उसके पास भी अपनी जरूरत की चीजें हो, तो बेहतर है. खासतौर से वे, जो पूरी तरह कला पर निर्भर हो. ऐसे माहौल में इस विचार का आना स्वाभाविक ही है. अपने सभी प्रियजनों की तरह हम भी घर में ही हैं. घर और स्टूडियो फिलहाल तो एक ही जगह है. मेरी पत्नी सोनाली सिरेमिक और चित्र दोनों में काम करती है. हम दोनों के लिए घर पर कार्य करना ही बेहतर हो पाया. यह भी अच्छा रहा कि कला सामग्री जैसे मिट्टी, केनवास, रंग आदि पर्याप्त मात्रा में फिलहाल घर पर ही मौजूद हैं. नहीं भी होता तो कुछ और सृजनात्मक होता. क्योंकि मिक्स-मीडिया में काम करना मुझे पसंद है.
मुझे नहीं पता कि मुझमें एक चित्रकार बनने की इच्छा कब हुई होगी. लेकिन ऐसी अनुभूति मुझे होती रही कि यही वह सुखद सृजन की यात्रा है जिसे मुझे निरंतर करते रहना है. चित्र बनाने की तरफ मेरा झुकाव मुझे बचपन में अपने पिताजी को देख कर हुआ. वे साइन बोर्ड, पोस्टर बनाते थे. इस कारण घर में रंग बिखरे होते थे. जिससे रंगों के प्रति मेरा आकर्षण बढ़ा. उस समय सूखे रंगों को मिश्रित कर दीवारों पर किरम-कांटे करना बहुत भाता था. इसी वजह से चित्रकला के प्रति रुचि उत्पन्न हुई. उस समय मैं पिताजी के साथ काम में हाथ बंटाता था. इन अनुभवों ने आगे जाकर मुझे असुविधाओं में भी स्वयं पर निर्भर होना सिखाया. वास्तव में जब हम अपनी जरूरतों पर धैर्य से काबू पाना सीख जाते हैं, तब ऐसे संकट काल से लड़ना भी सीख जाते हैं.
देवास को पहचानकर आध्यात्मिक व कला-साधना के लिए अनेक कलासाधकों ने एकांत के लिए उत्तम माना. माँ चामुण्डा की नगरी से विख्यात, सिद्ध स्थान शीलनाथ की तपोभूमि के तप का प्रताप तथा कुमार जी (प. कुमार गंधर्व) का साधना स्थल “भानुकुल” आज भी संगीत के अमरत्व से सबको अपनी और खींचता है . संगीत सम्राट रज्जब अली खां साहब, अरमान अली खां साहब जैसे मूर्धन्य कलाकारों की स्मृति में संगीत सभाओं की लहरें आज भी यहाँ गूँजती हैं. जिसको देखने, सुनने देश के दूरस्थ शहरों से अनेक श्रोता जुटते हैं. अन्य कला साधकों की भांति चित्रकला के विद्वान चित्रकारों के लिए भी यह भूमि उनकी कला साधना के लिए प्रेरणा बनी.
यह उन कला साधकों की साधना का ही परिणाम है जो यहाँ कभी एकांत की खोज में साधना के लिए आए और अपनी साधना में, तप से इस स्थान को पावन करते रहे. एकांत में कला का स्वरूप कलाकार की साधना के लिए वृहत हो सकता है. एकांत होकर भी जहाँ चेतना है वहीं जीवन होता है जिसके प्रभाव से सभी चेतन्य हो उठते हैं.
जीवन में ऐसे पलों का अनुभव भी होता है जब एकांत के क्षणों को ना चाहते हुए भी जीना होता है. कभी-कभी लगता है कि ऐसा समय किसी विशेष कार्य की पूर्ति के लिए भी आता है. ऐसा कार्य, जो हम करना चाहते थे, लेकिन कर नहीं पाए थे. ऐसा भी होता है जो कभी आपने सोचा न हो, वह भी संभव हो जाए. वायु में वायु से, जल में जल से और माटी में रहकर माटी से यदि प्रेम न हो तो मानव को मानवता से अपनत्व कैसे मिलेगा. किसी का भी कला से जुड़ाव केवल कलाकार बनकर ही नहीं हो पाता. वह व्यक्ति जो अपने ढंग से जानने समझने की जिज्ञासा रखता हो, वह भी कला से जुड़ा ही होता है. यहाँ मन की बात करें, तो जिस काम में हमारा मन नहीं होता, उसे करके कोई संतुष्टि नही होती. यूँ रोजमर्रा में पढ़ना और लेखन अपनी तरह से होता ही था किंतु इस एकांत के दौरान कुछ अधिक पढ़ने-लिखने की इच्छा बनी. इन दिनों समकालीन कला में मालवा का परिवेश पर लिखना हुआ, जो अभी जारी है.
मालवा में लोक गीतों की भी अपनी परंपरा रही है. मालवा के लिए कहा भी गया है –‘मालव भूमि गहन गंभीर, पग-पग रोटी, डग-डग नीर.‘ कलाओं के परिप्रेक्ष्य में संगीत के साथ-साथ साहित्य का भी खासा जुड़ाव प्रारब्ध से ही मालवा में रहा है. वर्तमान स्थिति में लोक-जीवन से जुड़ी कलाओं में आधुनिक संसाधनों- सुविधाओं का प्रभाव उसकी अपनी मौलिकता पर दिखाई देने लगा है, जो चिन्तनीय है. इसकी वर्तमान स्थिति को लिखने का प्रयत्न कर रहा हूँ . यहाँ की संझा, मांडना इत्यादि लोक कलाओं में अपने क्षेत्र की पहचान दिखती है. ये कला को कला की तरह देखना नहीं सिखाती बल्कि भावों को अभिव्यक्ति से जोड़ना सिखाती है.
इस एकांत में मैंने अपनी पिछली यात्राओं पर भी कुछ लिखा, जिनमें रूस और बांग्लादेश की यात्रा प्रमुख हैं. यात्रा मेरे लिए खुद को परिष्कृत करना ही होती है. आनंदित होना यात्रा का पहला चरण है और अचंभित होना अंतिम. बीच का अंतराल ही शायद हमारा जीवन है, हमारी कला है और मानव होने के नाते हमारी सन्तुष्टि भी.
अचानक आई इस आपदा ने हमारे जीवन में उथल-पुथल जरूर मचा दी है, जिससे पूरी दुनिया में मनुष्य होने के मायने भी बदल गए हैं. हम अपनी दिनचर्या में जो आसपास देखने के आदी रहे हैं, अचानक उसमें ठहराव सा महसूस करने लगे हैं. कलाकार भी कोई अलग प्राणी नही है कि उसका जीवन प्रभावित न हो. बल्कि सबसे अधिक ही हुआ है. रचनात्मक स्तर पर इस खालीपन से भरे बदलाव ने मेरे लिए व्यापक रिक्तता भर दी है. मैं इसे धीरे-धीरे ही भरने की कोशिश करूँगा. यह समय किसी पुनर्जन्म से कमतर नहीं है. इसीलिए शायद में इन दिनों नए सिरे से अपना ही जन्म होते देख रहा हूँ. मैं अपने नए चित्रों के साथ खुद को भी नए सिरे से जन्म दे रहा हूँ, खुद को भी रच रहा हूँ. यही इस समय की मेरी उपलब्धि है और शायद कुल जमा हासिल भी.
१४.
अनिरुद्ध सागर
II होना किसी पहाड़ की तरह II
इन दिनों का समय यानी लॉक डाउन मुझे अपनी स्मृतियों में बरबस ही ले जाता है. मेरे लिए यह वक़्त जैसे भागते-दौड़ते अचानक रुककर पीछे की तरफ टकटकी लगाए देखने का हो गया है. जब भी मैं अपने अतीत को याद करता हूँ, उन यादों में पापा (नवीन सागर) सबसे पहले याद आते हैं. वे हमेशा मुझे उस याद में अपने स्कूटर पर भोपाल के रोशनपुरा की घाटी उतरते हुए, हवा उनके मखमली बालों को उड़ाती हुई और वे गुनगुनाते हुए मेरी ओर आ रहे होते हैं. यहाँ मुझे मेरी एक कविता याद आ रही है —-
पापा के कुछ पुराने मित्र
जिनसे आज तक मैं मिला नहीं
और जिन्होंने
मुझे इस उम्र में अभी तक देखा नहीं
वे मुझे देखकर कहते हैं क्या तुम नवीन के पुत्र हो
जिस उम्र में मैं अभी हूँ
कहीं ना कहीं उस उम्र में
जिस उम्र में पापा हुआ करते थे
मैं अगर कहीं ना कहीं
उनकी शक्ल लिये हुए हूँ
तो मैं अपने आप को आईने में देख
अपने भीतर
अपने पिता को ढूंढता हूँ
कोशिश करता हूँ जीने की
उस उम्र को
जिस उम्र में “मैं” अभी
और
“वे” कभी हुआ करते थे
पर हर बार असफल होता हूँ
इस उम्मीद में दोहराता हूँ बार बार खुद को
मेरे जीवन में कोई तो ऐसा समय होगा
जिसमें जी लूंगा मैं उनको
पापा हमेशा से स्वतंत्र रूप से काम करना चाहते थे. वे कहानी लिखते, कविता लिखते, और कभी कभी चित्र बनाया करते. देर रात तक नुसरत को सुनते थे. रामकुमार के चित्र उन्हें पसंद थे. उन्हें इस तरह से कला के किसी भी रूप में डूबे रहना पसंद था और यही वो अपने परिवार से भी अपेक्षा रखते थे. इसीलिए उन्होंने अपने तीनों बच्चों की रुचि को देखते हुए उनके आस पास कला संसार रच दिया.
मेरा मन पढ़ाई लिखाई में कतई नहीं लगता था. परीक्षा पास आते ही मेरे तो होश उड़ जाते थे. इसलिए मम्मी और पापा को काफी खासी चिंता रहती थी मेरे भविष्य को लेकर. तब पापा ने निर्णय लिया कि मेरी पढ़ाई छुड़वा कर मिट्टी का काम सिखाया जाए . पर उनके इस फैसले का कड़ा विरोध उनके आस पास के लगभग सभी लोगों ने किया, लोगों का मानना था कि इस तरह मेरी ज़िन्दगी खराब हो जाएगी और मैं बड़ा होकर पापा को दोष दूंगा, पर पापा की दूरदर्शिता ही थी कि उसी समय उन्होंने मेरे आज को देख लिया था. वे अपने फैसले पर जमे रहे और लोगों को समझाया.
आज पूरी दुनिया में क्या हो रहा है. बहुत बड़ा वर्ग अपने बच्चों की स्कूली पढ़ाई पर इतना जोर नहीं देते, जितना वे बच्चों की रुचि पर देते हैं. बचपन से ही उन्हें उनकी रुचि के साथ तैयार करते हैं. वरना पूरी ज़िन्दगी निकल जाती है और हम लोगो को पता ही नहीं होता कि हम किसमे ज्यादा अच्छे हैं. हम पूरी उम्र कुछ और ही करते हुए बिता देते हैं. पापा की इस दूरदर्शिता को मेरा सलाम.
इस तरह 1990 में जब 15 वर्ष का हुआ, मुझे याद है कि अप्रैल की एक सुबह मेरा परिचय भारत भवन के सेरेमिक कार्यशाला में पापा ने मिट्टी से करवाया. इस तरह से मेरे जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ और भारत भवन जाने का सिलसिला भी.
उन दिनों सेरेमिक कार्यशाला में शंपा शाह को काम करते हुए देखने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ और उनसे ही सेरेमिक की शिक्षा प्राप्त की. अब इतनी छोटी उम्र से ही ऐसी जगह जाना जहाँ कला, कलाकारों, ओर कला रसिकों का जमावड़ा होता हो तो ना चाहते हुए भी व्यक्ति के व्यक्तित्व में निखार आ ही जाता है.
भारत भवन का किनारा बड़े तालाब के किनारे से मिलता है. जब मैं इस संगम पर बैठता था और दोनों की विशालता का अनुभव लेता था, तब मन कविता कहने लगता था. मैं आंनद से भर जाता. दोनों की ऊर्जा को भरकर वापिस मिट्टी में मिट्टी हो जाता, मैं का नामोनिशान मिट जाता. जो दिन ऐसा बीत जाए, उस दिन लगता जैसे वह सब मिल गया जिसकी ज़िन्दगी में चाह थी. भारत भवन आकर हम खुद के बहुत करीब होते हैं इसलिए क्योंकि उसे बनाया ही इस तरह से गया है कि आपको अगर उसके भीतर जाना है तो अपने भीतर उतरना होगा और इसी समय आप एक साथ दो जगह उतर रहे होते हैं एक खुद में और दूसरा भारत भवन में.
खैर, अब जीवन का ज्यादातर हिस्सा मिट्टी के साथ गुजरने लगा. पापा ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी. मुझे रोज नये नये आइडिया देते. मिट्टी में काम करने के, चित्र बनाने के लिए रंगो के पहाड़ खड़े कर देते, कला संबंधी किताबों का अंबार लगा देते और फिर उन किताबों पर लंबी बातचीत होती, आकारों पर बातचीत, किसी बड़े गायक के जीवन पर बातचीत जो हम लोगों को प्रेरित करे और कभी कभी तो अपने साथ अपनी कल्पनाओं में उड़ा ले जाते, जहाँ से हम कभी वापिस नहीं आना चाहते. आज भी हम लोग उन्हीं कल्पनाओं में उनके साथ उड़ रहे हैं.
वर्ष 1995 में दिसंबर में मैं दिल्ली आ गया, मेरे दूसरे गुरु पी. आर. दरोज के पास. उनके पास मैं दो तक रहा और सेरेमिक की दूसरी अन्य बारीकियों को सीखा. 14 अप्रैल 2000 को पापा अचानक चले गए. मुझे घर संभालने के लिए वह सब करना पड़ा, जो पापा खुद के लिए भी कभी नहीं चाहते थे. उन्हीं के दफ्तर में
नौकरी. उन्हीं की मेज के सामने मेरी मेज.
वर्ष 2010 तक मै उस नौकरी में रहा. उसके बाद से स्वतंत्र रूप से काम करने लगा. 2013 में सेरेमिक कला शिविर में 18 भारतीय कलाकारों के साथ चीन की यात्रा की. 2015 में पुनः भोपाल से दिल्ली आया और संस्कृति दिल्ली ब्लू पॉटरी में बतौर शिक्षक जुड़ गया. यहाँ दो साल तक सेरेमिक के अपने अनुभव को लोगों के साथ साझा किया. अब एक बार फिर स्वतंत्र रूप से अपना काम कर रहा हूँ. अपने स्टूडियो दिल्ली में और अपने अनुभव बाँट रहा हूं लोगों के साथ. मैं अपनी पहचान मेरे पिता नवीन सागर और माँ छाया सागर से मानता हूँ. इसीलिए मैंने अपने स्टूडियो का नाम “नवीन छाया सेरेमिक स्टूडियो” रखा है.
बचपन से ही मुझे पहाड़ और पहाड़ में बनी गुफायें और गुफा में बने चित्र अपनी ओर आकर्षित करते रहे हैं. उत्साह में, रहस्य से भरा, रोमांचित होता, कुछ नया खोज लेने की चाह में पहाड़ों पर घूमता. देखता कि पहाड़ के पीछे क्या है.पर हर बार पहाड़ के पीछे पहाड़ या दूर तक बहती नदी या दूर दूर तक फैले हरे हरे खेत या खुले मैदान या पानी की लहरों की तरह बहते हुए दिखते छोटे छोटे असंख्य पहाड़.
मैं मध्य प्रदेश से हूं. जहां विंध्याचल की कहानी बहती है. जहाँ सतपुड़ा की रानी प्राचीन नदी नर्मदा बहती है.
बचपन में मैंने इन पहाड़ों को रेल की खिड़की से देखा है. कभी रात में उन्हें रात होते हुए देखा है, कभी दिन में हरे हरे गुदगुदे रूप में देखा है तो कभी नदी में नदी होते हुए देखा है. वे बचपन से ही आकार ले रहे थे मेरे भीतर, पर उन्हें कहने के लिए कभी शब्दों की कमी खली, तो कभी मिट्टी की कमी.
जैसे जैसे मैं बड़ा होता गया, शब्द भी बढ़ने लगे और मिट्टी भी हाथों में चढ़ने लगी. फिर एक दिन मेरी मुलाकात राजस्थान के अरावली पहाड़ों की श्रृंखला से होती है और मैं इनसे इतना अधिक प्रभावित होता हूँ कि वहीं खड़े खड़े मेरे भीतर के शब्द, एक कविता रचते हैं और ये सिलसिला लंबा चलता है. फिर एक दिन अचानक मेरे हाथों की मिट्टी भी पहाड़ का रूप रचने लगती है.
मैं दंग था !
आश्चर्यचकित !
मेरा यहाँ खुद से खुद का परिचय होना होता है और यहीं से मेरा दूसरा जन्म भी, अनिरुद्ध सागर का जन्म !
पहाड़ों पर लिखी कविताओं में से एक कविता की कुछ पंक्तियां —
शायद यही प्रतिबिंब है
इन पहाड़ों के पीछे मेरा
बीते जन्म में
“मैं” भी कभी
इन्हीं पहाड़ों के आस पास
“पहाड़” हुआ करता था
मुझे जब यह सब लिखने के लिए कहा गया, तब से रोज सोचता रहा कि थोड़ी देर में लिखता हूँ, आज लिखता हूँ, कल लिखूंगा, पर कमबख्त ये तीनों समय आ ही नहीं रहे थे. और दिन-ब-दिन बीतते चले जा रहे थे. अब लिख रहा हूँ, तब लगता है कि यह समय अब मोबाइल का हो चुका है. सब कुछ मोबाइल हो गया है, जीवन भी और विचार भी. इस मोबाइल में तो सारा संसार बसा हुआ है. इस संसार से बाहर आकर अपने आस पास के संसार में इन लिखे जा रहे शब्दों से प्रवेश कर पा रहा हूँ. जब सब कुछ मोबाइल पर ही मिल रहा तो क्यों कर उससे बाहर आया जाए, क्यों ना कोरोना को मोबाइल पर ही हराया जाए.
खैर ! ये तो एक बचने का तरीका है, लिखने से.
अभी जब लॉकडाउन शुरू ही हुआ था तब ही मैंने अपना पूरा स्टूडियो नयी जगह पर शिफ्ट किया था.
अब नई जगह पर पूरे स्टूडियो का सामान अस्त-व्यस्त पड़ा हुआ है. सब व्यवस्थित करना है, पर कोरोना ने सब कुछ रोक दिया. कभी-कभी ऐसा लगता है कि सब कुछ बिखर सा गया है.मैं, मेरा जीवन, मेरे विचार, लगभग आधे-अधूरे हो गए लगते हैं. लगने लगा है कि अब अपनी अंगुली भी हिलाऊंगा तो मुझे कोरोना हो जायेगा, ये भय सताने लगा है. एक और भय साथ में जुड़ गया बाज़ार का भय, कला बाज़ार का भय ? अब मैं और मेरे जैसे कितने ही, क्या कला को निरंतर कर पाएंगे ? हम अपनी सोच में तो कला को निरन्तर रख सकेंगे पर अपने माध्यम में ?
मेरा स्टूडियो मेरा विचार है
स्टूडियो का सामान एक एक शब्द है
और ये सारे शब्द अस्त व्यस्त हैं अभी
पहले इनको व्यवस्थित करूँगा
फिर खुद को
अभी मेरे भीतर शब्दों का बहुत शोर गुल है
एकांत से बहुत दूर
इस लॉक डाउन के बाद कहाँ से शुरू करूँगा, ये समझ पाना बहुत मुश्किल है. क्योंकि अभी तक खुद मेरी शुरुआत वहाँ से नहीं हो पाई, जहाँ से मैं चाहता हूँ, या चाह सकता हूँ. असमंजस में हूँ.
जब से हम सब अपने अपने घरों में प्रतिबंधित हुए हैं, तब से मैं ठीक वैसे नहीं सोच पा रहा, जैसे मैं सोचता हूँ या सोचता आया हूँ या सोच सकता हूँ.
असल में अक्षरों की भीड़ है भीतर और ये सब मिलकर लगातार शब्द बनाते रहते हैं, अब शब्दों की भीड़ है भीतर और ये सब मिलकर लगातार वाक्य पर वाक्य बनाते रहते हैं. ये वाक्य मिलकर जैसे ही एक विचार के रूप में पूर्ण होने की प्रक्रिया में होते हैं तभी दूसरा विचार आ कर पहले विचार को तोड़ देता है और ये प्रक्रिया जारी रहती है, इसी तरह लगातार मेरे भीतर. वहीं एक तरफ लगता है कि लगातार एक ही प्रक्रिया से सोचते रहने से मैं नया क्या सोचूंगा ?
जैसे भी सोचना हो, पर जरूरी ये है कि कुछ तो सोचा जाए. रोजमर्रा से कुछ अलग. उसके लिए जरूरी हैं जीवन में कुछ घटित होना और वह तब ही संभव है जब मैं बाहर निकलूंगा और बाहर निकलने के लिए लॉकडॉउन नहीं होगा. लाकडाउन को हटाने के लिए कोरोना को हराना होगा और उसके लिए मुझे अपने घर में ही प्रतिबंधित होकर रहना होगा. मतलब साफ है कि कोरोना एकांत लेकर तो आया है. सवाल है कि एकांत किसके लिए. जवाब है हम सबके लिए. हम सबका अंत एकांत में. मानव जाति का अंत एकांत में.
और तो और हमारे शरीर का अंत भी एकांत में होना तय किया है इस कोरोना ने . मतलब मनुष्य जाति ने हजारों वर्षों में अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक के जिन कर्म कांड की व्यवस्था की थी उस पर इस कोरोना ने कुछ ही महीनों में पानी फेर दिया. वहीं एक तरफ लगता है मनुष्य धर्म और कर्म काण्ड के नाम पर एक दूसरे को डराता आया है. पर लगता है मृत्यु के भय ने सबके विश्वास को हिला कर रख दिया है. तभी तो कोरोना संक्रमित व्यक्ति के अंत समय में उसके अपने भी साथ नहीं होते. इस तरह के अंत की कल्पना से ही मेरी घबराहट और बैचेनी बढ़ जाती है और बढ़ जाता है भय, भय से भरा गुस्सा.
भय मृत्यु का नहीं. भय है तो एकांत में होने वाली मृत्यु से. शायद खुद से ही गुस्सा हूँ, भयभीत हूँ खुद से, खुद पर ही खुद की झुंझलाहट है, खुद से ही चिढ़ गया हूँ इतना कि खुद को ही नहीं देखना चाहता खुद के घर में.
एक तरफ खुद से ही खुद को कहता हूँ- क्यों भयभीत होते हो, क्यों झुंझलाते हो खुद पर, क्यों चिढ़ते हो खुद से, तुम क्यों नहीं यह सब मिट्टी से कह देते. मिट्टी तुम्हें वो आकार देगी, जो शब्दों के रूप में तुम्हारे भीतर उमड़ घुमड़ रहे हैं. उसके आकार रूपी शब्दों में वो ऊर्जा है जो तुम्हें इस दलदल से बाहर निकाल लाएगी.
कभी कभी शब्दों में वो ताकत नहीं होती
जो आकार में होती है
कभी कभी हम शब्द से शब्द ही समझते हैं
और आकार से आकार
और कभी कभी आकार से शब्द
और शब्द से आकार निकलते हैं
तुमको तो पता है तुम जब मिट्टी को छूते हो तुम्हारे भीतर एक लहर दौड़ती है. तब तुम सब भूल जाते हो और मिट्टी के साथ मिट्टी हो जाते हो. तब तुम उस प्रकृति का हिस्सा होते हो. तुम्हें अपने अस्तित्व के बारे में पता चलता है कि तुम मिट्टी को नहीं, मिट्टी तुमको आकार दे रही होती है. तब तुम्हारा घमंड टूटता है और तब ही पृथ्वी के बचे रहने की उम्मीद बनती है.
१५.
अशोक भौमिक
II चित्रकार बनने का ‘लोभ‘ II
एकांत का मैं आदी नहीं हूँ. इसलिए कोरोना काल का यह थोपा हुआ एकांत मेरे लिए बिलकुल नया अनुभव है. ‘मेरे लिए नया अनुभव है‘ यह लिख कर मैं कुछ रुक जाता हूँ, क्योंकि मुझे शायद यह कहना था कि यह हम सब के लिए नितान्त नया अनुभव है. दिल्ली के फुटपाथ पर अपनी छह महीने की बच्ची को लिटा कर उत्तराँचल से आयी मजदूर की बीवी महक बिलख बिलख कर रो रही है, “बाबू, तीन दिनों से खाना नहीं नसीब हुआ. बेटी भूख से तड़प रही है क्योंकि मुझे दूध नहीं उतर रहा है.” बेटी की हालत देख कर पिता भी रो रहा है. आसमान में जरा भी प्रदूषण नहीं है, पेड़ों की हरी पत्तियों को मानों किसी ने अभी अभी पोछा है. मैं स्ट्रेचर पर नया कैनवास चढ़ाता हूँ.
आगरा की काली सड़क पर फैले दूध का रंग और भी सफ़ेद लग रहा है, जिसे कुत्ते चाट रहे हैं. एक आदमी अंजुलि में सड़क से दूध बटोर कर कटोरी भर रहा है. मेरे हाथ में फ्लैक व्हाइट का पिचका हुआ ट्यूब है. आज वाकई सफ़ेद रंग की कमी खल रही है.
सोचता हूँ, लॉकआउट तोड़ कर महक से जाकर पूछूँ कि बच्चे को दूध न पिला पाने का यह अनुभव नया है क्या ?
कुत्ते के बगल में दूध बटोरते उस आदमी से पूछूँ, कि इस मटमैले रंग के दूध को पी लेने का अनुभव नया है क्या ?
मैं अपने से ही पूछता हूँ- “किस देश में लोग एक जुट होकर थाली पीटते हैं ताकि महक की बेटी जैसे करोड़ों भूखे बच्चों की कहीं आँखें न लग आएँ ? किस देश में सड़क से दूध बटोरते मजदूर का उत्साह बढ़ाने के लिए एक जुट होकर ताली बजाते हैं लोग ? किस देश के लाखों-लाख ‘प्रवासी‘ मज़दूर 900 किलोमीटर दूर अपने घरों की ओर पैदल चल देते हैं? सड़क के दोनों ओर अमराइयों में कोयल कूकती है, गिलहरी आँखें फाड़े एक खामोश जुलूस को देखती रहती है. और हम उनसे सोशल डिस्टेंस बनाये रखते हुए गर्म कॉफी की चुस्कियाँ लेते हुए कविता लिखते हैं और यह जुलूस लम्बा होता रहता है, और लम्बा होता रहता है.
वैसे इस जुलूस के दिल्ली की दहलीज़ पार करने के पहले ही दर्जनों कविताएँ लिख कर फेसबुक-व्हाट्सएप् की दीवारें चमका भी देते हैं कविगण. और हम जो चित्रकार हैं, या तो ‘ऑनलाइन आर्टिस्ट कैम्प‘ में नाम शामिल करवाने की जुगत भिड़ा रहे हैं या फिर एकांत और सृजन के अन्तर सम्बन्धों पर आध्यात्मिक किस्म की बयान बाज़ी में मस्त हैं.
किन्तु… यह सच है कि भारतीय चित्रकला अपने सबसे संकट के दौर से गुज़र रही है. महामारी के पहले से ही हर चित्रकार इस गहराते संकट को अनुभव कर रहा है और यह संकट केवल आर्थिक ही नहीं है. नोटबंदी और जी एस टी के बाद चित्रों की बिक्री में व्यापक असर पड़ा है और ऐसे में , लगभग सभी छोटी बड़ी गैलरियों ने अपनी-अपनी दूकान बढ़ा कर चादर तान ली है. बावजूद इसके, मुझे लगता है कि चित्रों का न बिकना उतना गंभीर विषय नहीं है जितना कि समाज का चित्रकला के प्रति उदासीन हो जाना! इक्कीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों से (कम से कम महानगरों के) चित्रकारों ने जनता से कट कर रहना शुरू कर दिया था. हमारे अधिकांश पूर्वज चित्रकारों ने जनता से कटे रहना ही पसंद किया. लिहाज़ा, आम लोगों की समझ से बाहर, आज़ादी के बाद की भारतीय चित्रकला का संसार ऐसा है जहाँ चित्रकार बनने के ‘लोभ‘ ने हमें इंसान नहीं बने रहने दिया. किसी समाज में जितनी मूर्खताओं और धूर्तताओं की कल्पना की जा सकती है, भारतीय चित्रकला का वर्तमान जगत अपने में उससे कहीं ज्यादा समेटे हुए है.
झूठ की ऐसी दुनिया में बाज़ार के हाथों महज़ कठपुतली ही क्यों न हो ; हम मौका पाते ही समाज में कलाकार होने की ‘विशिष्ट‘ मुद्रा में तन जाते हैं. हमारी भाषा बदल जाती है और हम दुरूहतम शब्दों के प्रयोग से जनता को आतंकित कर उनसे दूरी बढ़ाने में सक्षम हो जाते हैं. हम राष्ट्रीय कला अकादमी में भारतीय होने का दवा करते हैं पर अपने प्रदेश में दूसरे प्रदेश के कलाकारों (या अपने ही प्रदेश के) से घृणा करते हैं. हम विदेशी कलाकारों की निर्लज्ज नक़ल कर, अपनी कला में भारतीयता का दावा पेश करते हैं. कलाओं के अन्तर्सम्बन्ध पर बात करते हुए हमने रंगकर्मियों, कवियों, संगीतकारों के परिश्रम और रचनाशीलता को जानने की कोशिश नहीं की. हमने अपने आप से ये नहीं पूछा कि हज़ारों घोड़े बनाने वाला चित्रकार और ‘अँधेरे में‘ के कवि की रचनाशीलता का फर्क क्या है और क्यों है.
क्यों एक चित्रकार फरारी गाड़ी में नंगे पाँव इतराते हुए, जीते जी किंवदन्ती बनने का सपना देखता है, जबकि दो वक़्त की रोटी के लिए संघर्षरत कवि, पूरी जिंदगी एक क्षण के लिए भी जनता का साथ नहीं छोड़ता. चित्तप्रसाद जैसे चित्रकार के चित्रों में, कश्मीर से लेकर महाराष्ट्र और बंगाल से लेकर तेलंगाना तक की जनता का सुख-दुःख दिखाई देता है, किन्तु विदेश में समूची ज़िन्दगी बिता कर ‘कला में भारतीयता‘ की खोज करने वाला चित्रकार विशिष्ट बन जाता है. हमारी संकीर्णताएँ हमें अपने सादे से पोर्ट्रेट पर ‘बिहारी‘ लिख कर प्रांतीयता का ज़हर फ़ैलाने का तर्क तो देती हैं पर भारत के अमरोहा में जन्मे कलाकार सादेकैन को हम नहीं पहचानते हैं और न ही 1943 के अकाल पर ऐतिहासिक चित्रों को रचने वाले चित्रकार ज़ैनुल आबेदीन को ही हम जानते हैं.
यकीन मानिये, मैं अपनी पीढ़ी और उसके बाद की पीढ़ी के सभी कलाकारों से प्यार करता हूँ (और ये बात उनमें से बहुतों को यकीनन मालूम होगी) और उनकी इन तुच्छताओं के लिए उन्हें बुरा-भला कहने के लिए ये लेख नहीं लिखा गया है. मैं उनकी मजबूरियों को जानता हूँ -समझता हूँ. जानता हूँ कि हम एक ऐसे वक़्त में जी रहे हैं जहाँ अच्छे बुरे का मानदंड ही नहीं रह गया है और चित्र ‘किसे कहते हैं‘ इसकी जिम्मेदारी उन लोगों ने हथिया ली है, जिनका चित्रकला से कोई लेना देना नहीं है. सरकारी अकादमियों और अन्य कला संस्थानों को चलाने वाले प्रशासनिक सेवा के तमाम अधिकारियों ने कलाकारों को चलते फिरते भिक्षा पात्रों में तब्दील कर दिया है और वे अधिकारी स्वयं को चित्रकला के बारे में अंतिम राय देने में सक्षम मान बैठने की ग़लतफ़हमी में जी रहे हैं. आने वाला कल, निश्चय ही कला और कलाकारों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार इन लोगों के कर्मों को बेहतर चिन्हित कर सकेगा.
आज भारतीय समकालीन चित्रकला शुद्ध रूप से नव-धनिकों के उस वर्ग की रूचि (या कुरुचि) द्वारा संचालित हो रही है, जिसका आगमन इक्कीसवीं सदी की शुरूआत में रातों रात दलाली और सट्टेबाजी से कमाई गई अकूत पूँजी के साथ हुआ. इस वर्ग की दृष्टि में अनैतिकता और भ्रष्टाचार जैसे शब्दों का कोई अर्थ नहीं था और इन्होंने भारतीय कला गैलरियों को अपने मौसेरे भाई के रूप में पाया. कालेधन के निवेश, सट्टेबाजी, नीलामी में फिक्सिंग, नकली चित्रों का बाज़ार, पैसे देकर दूसरों से अपने चित्र बनवाना, चित्रकारों पर मोटे मोटे ग्रंथाकार प्रकाशनों में मिथ्या, लोभ और मूर्खता का प्रदर्शन, आदि ऐसी बातें हैं जिसे हम केवल समकालीन भारतीय चित्रकला में ही देख सकते हैं.
इन सब के बावजूद, जब हम चित्रकार समाज में अपने को ‘विशिष्ट‘ प्रमाणित करने के लिए आध्यात्मिक शब्दावलियों का हास्यास्पद प्रयोग करते हैं या अपने दिशाहीन चित्रों को केवल पुनरावृत्ति के माध्यम से महान साबित करते हैं, तब हम वास्तव में अपनी परंपरा का ही अनुसरण कर रहे होते हैं. आज़ाद हिन्दुस्तान में ‘सफल‘ हुए हमारे पूर्वज चित्रकारों ने इन्हीं तरीकों से अपना धंधा जमाया था.
कोरोना काल के इस एकान्त में हम चित्र तो बनाएंगे ही, पर इसी एकांत में हमें अपने भीतर झाँक कर देखना और आम जनता की आँखों में अपनी परछाइयों को भी पहचानना होगा. आज़ादी के बाद भारतीय कला बड़े पैमाने पर दो महाशक्तियों के बीच चल रहे ‘शीत-युद्ध‘ की शिकार होकर अपनी दिशा खो बैठी और कई मौकापरस्त कलाकारों को आदर्श के रूप में स्थापित करने की कोशिश की गई. आज इक्कीसवीं सदी के दो दशकों में यह कला पूरी तरह से कुछ बड़े दलाल पूँजीपतियों और उनके पैसों पर पल रहे क्यूरेटरों के कार्य-व्यापार के रूप में संकुचित हो गयी है. ऐसे क्यूरेटर और कला समीक्षक कैनवास पर कूँची द्वारा रंग लगाने वाली कला को निरर्थक सिद्ध करते हुए कृति से ज्यादा कृति के कांसेप्ट की भाषाई व्याख्या को महत्व दे रहे हैं.
उत्तर कोरोना काल में यह बेलगाम प्रवृत्ति निश्चय ही जनता से चित्रकला को हमेशा के लिए दूर कर देने का प्रयास करेगी, इसलिए मौजूदा एकान्त में चित्रकारों को अपने अपने ख्वाबगाहों से बाहर निकल कर इस साज़िश को समझना होगा. इसे समझने में हालाँकि ज्यादा कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि मौजूदा कला बाज़ार दिवंगत कलाकारों के चित्रों की खरीद फरोख्त को ही समर्पित है, जहाँ जिन्दा कलाकारों की कोई जगह नहीं है. जीवित कलाकारों के लिए कुछ वज़ीफ़े, पुरस्कार, चंद सरकारी आवास और कुछ पद्म सम्मान आदि ही बचे हैं, जिनसे आम जनता का कोई लेना देना नहीं है. इस कठोर यथार्थ से रू ब रू होने का यही सबसे सही समय है. अगर आज हम यह सवाल अपने आप से नहीं करते है, तो किसी ऐसे ही आने वाले दुःसमय में चित्रकारों से शायद ही कोई पूछेगा कि–
“आप समाज से कट कर इस एकान्त में कैसे जी रहे हैं?”
१६.
महावीर वर्मा
lI मेरे चित्रों में मेरा ही अंश है II
जीवन में एकांत की महत्ता यूँ तो हर किसी को आत्म-विश्लेषण, आत्ममंथन के लिए होती है, लेकिन कलाकार अपनी समस्त शारीरिक एवं मानसिक क्षमताओं को एकाकार कर बेहतर रचने व गढ़ने का प्रयास करते हैं.
किसी भी सृजनधर्मी के जीवन में यह एकांत संजीवनी की तरह होता है, जहाँ वह अपनी संवेदनाओं को साकार करने का प्रयास करता है. एकांत भी उसको अनुभवों की स्नेहिल थपथपी से कल्पनाओं की ऐसी अंतहीन यात्राओं पर ले जाता है, जहाँ जाना वास्तविक यात्राओं में सम्भव नहीं.
यही एकांत जब अवांछित तरीके से किसी चित्रकार की दिनचर्या में प्रवेश करता है, चाहे वह कानूनन आक्षेपित हो, परिस्थितिजन्य प्रदाय हो या सामाजिक रूप से आरोपित, चित्रकार के उस कालखंड को पूरी तरह से प्रभावित कर देता है. साथ ही उसकी अभिव्यक्ति में यह एक मुहूर्त बनकर उपस्थिति पाता है. चित्रकार समय व परिस्थितियों के साथ कदमताल कर जीवन के महत्वपूर्ण सबक हासिल करता हुआ अभिव्यक्ति के जरिए अपनी कृति को अपने समाज से जोड़ने का प्रयास करता है. जैसा कि इटालियन दार्शनिक और साहित्यकार नोबेल पुरस्कार विजेता डारियो फो ने भी कहा है कि “अभिव्यक्ति का कोई भी रूप- थिएटर, साहित्य, या कला जो अपने वक्त के बारे में कुछ नहीं कहता, अप्रासंगिक है.”
कहना मुनासिब होगा कि कलाकार के कलाकर्म में समय, संघर्ष और समाज की अभिव्यक्ति तो होनी ही चाहिए. मैं भी इसी के सापेक्ष रचता हूँ. रचना वही कालजयी हो पाती है जो अपने अंदर अपने समय को सहेजे हुए होती है. यही समय हमारी रचनात्मक उर्वरा को विकसित कर व्यक्तित्व का निर्माण करता है. विश्व के ऐसे अनेक व्यक्तित्व हमारे ज़हन में उतर आते हैं, चाहे वह महान अभिनेता चार्ली चैपलिन हो या चित्रकार फ्रांसिस्को गोया, पाब्लो पिकासो, विंसेंट वैन गॉग, एडवार्ड मुंख या भारत से चित्तप्रसाद, रवींद्रनाथ टैगोर, अमृता शेरगिल ,मकबूल फिदा हुसैन या गणेश पाइन जैसे समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले चित्रकार हों. इन सब का निर्माण इनके समय, संघर्ष और समाज ने हीं किया है. चित्रों में समय की इसी अभिव्यक्ति के कारण इनकी कृतियां कालजयी बनी और ये सब कलाकार अक्षय बन पाए हैं.
एकांत ने जीवन में मुझको बहुत कुछ दिया है. बचपन में कभी-कभी अनायास ही कुछ बोलने की इच्छा ना होना, मैं जहाँ पला-बढ़ा, राजस्थान के बूंदी जिले का वह छोटा सा नगर (लाखेरी) भी पहाड़ियों और पत्थरों का ही तो था. उन पहाड़ियों के भ्रमण और पत्थरों की सतही बनावट को देखते-देखते समय बीतता था. मेरे चित्रों में भी यही टेक्सचर प्रमुखता पाता रहा है. मेरा माध्यम स्याही व पेन रहा है और मुझे स्वीकारने में संकोच नहीं होता कि इस माध्यम का चुनाव मैंने फैशन में नहीं, बल्कि यह समय और संघर्ष के चलते किया था. पिता पत्थरों की खान में मजदूरी करते थे. इसलिए आवश्यक सामग्री की अनुपलब्धता के चलते बॉल पेन और शर्ट में लगने वाला बकरम ये ही मेरा माध्यम बने थे.
जब अपनी शिक्षा पूरी कर रहा था, उस समय पैसों की तंगी के चलते मैं पोट्रेट चित्रण की ओर बढ़ने लगा था. क्योंकि यहाँ रंगों की खुशबू के साथ अर्थ अर्जन भी होने लगा था. बूंदी जैसे छोटे शहर में जीवन आसानी से चल पा रहा था. ऐसा करते मैंने व्यक्ति चित्रण में अपना नाम बना लिया था. लेकिन रचना का सुख यहाँ नहीं था. मन में अपने स्वतंत्र चित्रण की छटपटाहट बढ़ती जा रही थी, ऐसे में बीच-बीच में थोड़ा हिम्मत कर स्वतंत्र चित्र बनाने की कोशिश भी करता रहता था. इस तरह पोर्ट्रेट बनाते हुये मैंने अपना फॉर्म भी विकसित कर लिया था, जो राजस्थानी माण्डना (लोक चित्रों) से प्रेरित था.
यह समय मेरे सीखने का समय था. चित्रण के इस दौर में मुझे बार-बार यह समझ आ रहा था कि बिंबों की पुनरावृत्ति होने लगी थी. चित्रण में पुनरावृत्ति की संभावना होनी नहीं चाहिए, यह बात मैं जानता तो था, लेकिन काम करते हुए दिल्ली और जयपुर जैसे बड़े शहरों के चित्रकारों की तरफ जब भी ध्यान जाता, तो यह समझता कि चित्रों में परंपरा और लोक बिंबो की उपस्थिति, कला बाजार में कुछ हद तक उनके विक्रय की संभावनाओं को बढ़ा देती है. परिवार की आर्थिक हालात भी इस मोह से उबरने नहीं दे रही थी, सो जानते हुए भी मेरे चित्रण में पुनरावृत्ति की संभावना बनी रहती थी.
वर्ष 1999 के मध्य में समय ने करवट ली और मेरा चयन भारतीय रेल शिक्षा सेवा में बतौर कला अध्यापक हो गया, अब मेरी समस्त चिंताएं खत्म हो गई थी. मैंने तय कर लिया था कि निर्वाह करने के बोझ से मुक्त होकर अपना नया रास्ता खोजना है. धीरे-धीरे मैं बाजार और अकादमिक शिक्षा बंधनों को छोड़ अपनी चित्र भाषा की तलाश में लग गया. बूंदी में बिताए समय के अनुभव साथ थे, जिन्होंने मुझे सचेत करना शुरू किया कि पुराने को कैसे भुलाया जाकर नए की तरफ बढ़ना है. चित्र में अब आकार अपने आप को ज्यामितीय लय में ढालने लगे थे, इसी ज्यामितीय लय ने मुझे चित्र में प्रवाहिता के बारे में समझने में मदद की थी.
मैं अब ऐसी यात्रा का मुसाफिर बन गया था, जिसका गंतव्य मुझे नहीं मालूम था. लेकिन आने वाले पड़ावों के साथ चित्रों में होने वाले परिवर्तन मुझे तैयार कर रहे थे. नए कलाकार मित्रों से मित्रता होने लगी थी, कुछ हमउम्र, कुछ वरिष्ठ मित्रों के साथ होने वाले संवादों ने चित्रण के विषय में मेरी अवधारणाओं पर जमी पूर्व की गर्द को हटाना शुरू कर दिया.
मेरी पहली एकल प्रदर्शनी भारत भवन भोपाल में आयोजित हुई, इसमें प्रदर्शित श्याम-श्वेत चित्रों में रूपों की संरचना ज्यामितीय थी. प्रदर्शनी को भरपूर प्रशंसा मिली, लेकिन यह मेरी शुरुआत भर थी. मैं अपनी चित्र भाषा को लेकर और ज्यादा सचेत तथा संवेदनशील हो गया तथा लगातार प्रयासरत रहने लगा कि अपना आकार विकसित करूँ. नौकरी से घर लौटने के बाद अपनी पारिवारिक भूमिका का निर्वहन कर बाकी समय मैं अपने आप को देने लगा था.
मुझे घर, अपना स्टूडियो और अपना एकांत तीनों अच्छे लगने लगे और चित्र बनाना मेरी दिनचर्या में शरीक हो गया. यहाँ इसका आशय यह नहीं कि मैं बाहरी दुनिया से पूरी तरह से कट जाता, ऐसा नहीं कि बाहरी आवाजें सुनाई ना दे, आवाज़े अंदर आती भी थी, लेकिन रचना सुख ने मुझे समस्त झंझावतों से मुक्त कर दिया था. अब न तो चित्रों के बाज़ार का मोह बचा ,ना ही अच्छे और बुरे चित्रों की चिंता, क्योंकि चित्र कभी अच्छे या बुरे होते ही नहीं हैं. चित्रकार अपने भावों की अभिव्यक्ति ही कर सकता है, वही मैं करने लगा. इस एकांत ने मुझे बाहरी दुनिया के रिश्तो के बनावटीपन, थोथे बंधनों और दिखावे के मोह से मुक्त कर दिया था. चित्रण प्रक्रिया एवं रचना के सुख ने मुझे पूरी तरह तैयार कर दिया था कि जरूरी नहीं, मैं बड़े शहरों की ओर पलायन कर बड़े चित्रकारों की तरह शहरों में रहकर ही चित्र रचना कर, वहाँ के कला जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज करूँ. मैं छोटे शहर में भी मौलिक और बेहतर चित्र बना सकता हूँ. यह सबक मैंने रतलाम के एक घर के छोटे से कमरे वाले स्टूडियो में काम करके अच्छी तरह सीख लिया था.
जब भी मुझे मौका मिला, मैं प्रदर्शनी भी करता. चित्रों को मैं बनाता हूँ, यह मुझे सही नहीं लगता. बल्कि चित्रों में मैं अपने को अभिव्यक्त करता हूँ. इन चित्रों को मैं अपना नहीं कह सकता क्योंकि उनमे केवल मैं ही हूँ. जब मैं प्रदर्शनी करता हूँ, वहाँ भी मैं स्वयं अपने को ही चित्रों में प्रदर्शित करता हूँ. प्रदर्शनी में प्रदर्शित यह समस्त चित्र मेरा ही अंश होते हैं. जिस तरह मैं प्रदर्शनी के दौरान मित्र बनाता हूँ, उसी तरह मेरे यह अंश भी दर्शकों से संवाद करते हैं. चित्रण की इस यात्रा में अब तक मैं जहाँ पहुंच पाया हूँ, उसके विभिन्न अनुभवों वाले पड़ावों ने मुझे निरंतर सिखाया और खुद से मुक्त किया है.
आज इस यात्रा में रोशनाई व कलम के साथ मैं मनचाहा कागज और कैनवास भी इस्तेमाल कर रहा हूँ. किसी दुश्चिंता के बिना रचना का भरपूर आनंद उठाते हुए अपनी संवेदनाओं को साकार कर रहा हूँ. मेरे चित्रों की विषय वस्तु भी मैं बिना किसी दबाव के अपने आसपास के समाज से चुनता हूँ. यही सामाजिक ताना-बाना लगातार मेरे चित्रों में प्रतिध्वनित भी होता है.
लॉक डाउन के इस समय में चित्र एवं साहित्य से जुड़े मित्रों से निरंतर हो रहे संवाद के साथ सोशल मीडिया में महामारी के प्रभाव से हो रही उथल-पुथल की तस्वीरों एवं सूचनाओं ने हमारी सामाजिक संरचना को हिला दिया है. बहुत कुछ आस-पास ऐसा घटित हो रहा है, जिसने मुझे और अधिक संवेदनशील बना दिया है.बार-बार यही प्रयास होता है कि विषाद हावी ना हो पाए, लेकिन कुछ ऐसा घटित हो ही जाता है, जो अंतरमन को उद्वेलित कर देता है. मैंने अपने जीवन काल में यह पहली बार अनुभव किया है कि किस तरह से चित्र अनायास ही बन जाते है, बनाए नहीं जा सकते. सोमनाथ होर जैसे कलाकार कैसे तेभागा डायरी रच डालते हैं, कैसे चित्तप्रसाद अकाल को चित्रित कर जाते हैं, कैसे फ्रांसिस्को गोया 3 मई बना देते हैं, कैसे विंसेंट वैन गॉग आलूभक्षी बनाते हैं और कैसे पाब्लो पिकासो ग्वेर्निका जैसे कालजयी चित्रों को रच पाते हैं, यह मेरे लिए किसी अचम्भे से कम नहीं हैं.
लॉक डाउन से पूर्व मेरे चित्रों में मेरे आस-पास का समाज, उसका समय और संघर्ष ही विषय के रूप में स्थान पाता रहा था. लेकिन लॉक डाउन के इस एकांत ने उसमें भी हस्तक्षेप किया है. पूर्व में किशोरों की मनःस्थिति जहाँ विषय के केंद्र में होती थी, वहीं अब एकांत ने उस को विस्तार देकर चित्रों को अधिक संवेदनशील और स्पर्शी बना दिया है. महामारी के इस कालखंड ने चित्रण को जिस तरह प्रभावित किया है, इस परिवर्तन को मैं चित्रकार ऑडोल्फ़ गोता लिएब (1930 से 1974) के विचारों के माध्यम से अभिव्यक्त करूँ, तो ऐसे कहूंगा “रंगों का सौंदर्य निरर्थक है यदि उसके साथ भावना का सौंदर्य नहीं है. चित्रकला रंगो, रेखाओं व आकारों की रचना मात्र है, यह विचार ही घृणास्पद है.”
एकांत का यह कालखण्ड मेरे जीवन में एक बदलाव लाया है. यहाँ न तो सुविधाओं की कमी खलती है, ना ही रंग-रोगन इत्यादि की. चिंता केवल यही होती है कि किसी भी स्थिति में अभिव्यक्ति होती रहे. इसने सिर्फ समय सापेक्ष चित्रण के लिए प्रेरित किया है. रचना प्रक्रिया में पेन की निब से उपजे संगीत ने मन को कभी बोझिल होने नहीं दिया. इस समय में कुछ नए नाटकों, कहानियों ने भी मेरे हर दिन को स्फूर्तिवान व ताजगी पूर्ण बनाया है.
मैं कह सकता हूँ कि एकांत एक कलाकार के जीवन में आगत हो, आरोपित हो या आमंत्रित हो, अभिनव रचना प्रक्रिया से गुजरते हुए समय सापेक्ष अभिव्यक्ति तो करवाता ही है. आज जो भी रचा गया है कालांतर में वह संदर्भों से मुक्ति पाकर विशुद्ध चित्र के रूप में कला जगत में अपनी छोटी सी उपस्थिति दर्ज करवा पाएगा, ऐसा मेरा विश्वास है.
१७.
सुप्रिया
II सारा समय भी कम लगता है II
मेरे एकांत में खबरें रोज़ मातम की तस्वीरें दिखा रही हैं. जो हमें ये अहसास दिला रही हैं कि हम कम से कम बेहतर हालातों में हैं. भले ही सड़क पर एक औरत अपने मरे हुए बच्चे को कंधे पर टाँगे बदहवास निकल रही हो. साइकिल के डंडे पर अपने जीवित बच्चे को, लाश की भांति टाँगे अपने गाँव लौटता भूखा मजदूर, इस कोरोना काल के एकांत की दुनिया की सबसे ऐतिहासिक तस्वीरों का अजीब खज़ाना होगा.
इस लॉक डाउन में मजदूरों के प्रति मीडिया की सहानुभूति मजदूरों से अधिक मीडिया की मजबूरियों की कहानी बता रही हैं. दर्शक हमेशा भावुक विषयों को अपने से जोड़ कर देखता है और कोरोना काल का सबसे मार्मिक दृश्य भारत के मजदूरों ने दिखाया है. मेरे चित्रों में आरम्भ से ही मजदूर जीवन, उनके श्रम से खड़ी की हुई इमारतों ने अपनी जगह बनाई. मैंने पाया कि उनके वस्त्रों में चटकीले रंगों को चुन कर ही शायद वे अपने जीवन को सहज शफ्फाक सफेद-काले होने से बचाते रहे हैं. कई बार सुबह सुबह अपने इलाके के नज़दीक फुटपाथ पर उनके बीच बैठ स्केचिंग करते हुए, उनको खुद से जोड़े रखने और सहज महसूस करवाने के लिए मैं उनकी साड़ियों की तारीफ कर दिया करती. मजदूरों का जीवन जेंडर समानता का बड़ा उदाहरण है. उनके समाज में पानी भरना, खाना पकाना, कपडे धोना, रेत और सीमेंट ढोना, जेंडर देख कर तय नहीं होता. मजदूरों का शरीर सौष्ठव इतना सख्त होता है कि डेढ़ दो हज़ार किलोमीटर अपने सर पर गृहस्थी लादे चल पड़ना उनको डराता नहीं. डरते तो हम हैं उनकी भीड़ से, जिसे देख उन पर हुए ज़ुल्म नहीं, बल्कि संक्रमण का खतरा पहले दिखता है. वे क्या करते, जिन्हें पता चला कि कल सुबह न फुटपाथ हमारा होगा, न कोई ठेकेदार हमें दिहाड़ी देगा. उनके पास जलाने के लिए नहीं था कोई दिया और नहीं थी बजाने कोई थाली. उनके सामने सैंकड़ों किलोमीटर लम्बी सड़क थी, जो उन्हें गांव तक पहुँचा सके शायद.
ऐसी ही किसी सड़क की यात्रा करते हुए मैं जम्मू कश्मीर से मध्यप्रदेश पहुँची होंगी. चार साल की थी मैं तब. मेरा जन्म कश्मीर में होने से कश्मीरी भी कहलाउंगी, माँ मिथिलांचल और पिता के भोजपुरी होने के नाते ठेठ बिहारी कहलाने में कोई झिझक नहीं है मुझे. बचपन का वक़्त जम्मू के रजौरी जिले में बीता, जिसकी स्मृतियाँ ज्यादा साफ़ नहीं हैं ज़ेहन में. कालाकोट नाम की जगह पर कोल् माइंस में काम करते थे पिता. वे कोयला खदानों में उत्पादन और सुरक्षा के काम देखते थे. फर्स्ट ऐड और रेस्क्यू में एक्सपर्ट होने के कारण देश की कई खदानों में जब कभी आग लगी तो वहाँ भी अपने अनुभव की वजह से कितनी ही जाने बचाई भी होंगी.
हमने जम्मू से जब पलायन किया तो अविभाजित मध्य प्रदेश, यानी वर्तमान छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले की वेस्ट झगराखंड कॉलेरी में, खोंगापानी नाम की जगह पर रहते हुए जीवन की लम्बी स्मृतियों को बटोरा. केंद्रीय विद्यालय झगराखंड की कक्षाओं की खिड़कियों से हसदेव नदी का किनारा साफ़ दिखता था. स्कूल से घर तक का रास्ता स्कूल बस से लगभग पंद्रह किलोमीटर रहा होगा. अगर आपका बचपन रोज़ ही तीस किलोमीटर घने जंगलों, खतरनाक और रोमांचक घाटियों के बीच से निकलता हो, तो उसकी छाप तो चढ़ ही गई होगी नाज़ुक मन पर कहीं. घर से स्कूल बस तक पहुँचने का रास्ता रोज़ ही कोयले से लदी माल गाड़ी के खिसकते डिब्बों के नीचे से बस्ता टाँगे दौड़ कर निकलने के अभ्यास का हिस्सा था. कभी कभार तो पटरियों पर खड़े इंजन के डिब्बे से उतर कर अपने घर पहुँचने का एडवेंचर आज रोमांच के सभी क्षणों पर भारी रहता है. इस घर में रहते हुए हम इतनी बड़ी ज़मीन के मालिक थे कि पापा सीढ़ीनुमा खेती भी कर लिया करते थे. गर्मी की छुट्टियां बीही के पेड़ पर लटकते हुए निकल जाती थीं.
अंडरग्राउंड माइंस में काम करने जाते मजदूर, कमर पर बॅटरी बांधे, गम बूट, टोपी, टॉर्च और एक लाठी के सहारे ही रोज आठ नौ सौ फ़ीट नीचे खानों में उतरते हुए इतने सहज रहते थे जैसे कि मॉर्निंग वाक पर निकले हों. हाँ, वे शायद मॉर्निंग वॉकर्स ही रहे होंगे, जो एक अंधी खाई में आँखों से नहीं, अपनी लाठी से अपना रास्ता टटोलते हुए उतरते थे. आठ दस घंटे में पचास-पचास किलोमीटर के इलाके में विस्फोट कर कोयला निकालते थे. क्या ये कोरोना उनको उतना ही डराता होगा जितना हमें डरा रहा है?
वहाँ मजदूरों में (जिनको लोडर्स कहते थे) ओवरटाइम का इतना उत्साह था कि रोज़ ही सोलह घंटे काम करने की होड़ लगी रहती थी. पगार तो उन्हें बहुत अच्छी मिल जाती थी लेकिन, शायद ही कोई मजदूर रहा हो जिसके बच्चों ने स्कूल में पैर रखा होगा. क्या अब वहाँ के लोग लॉक डाउन के नियमों को समझ रहे होंगे? मैं उन मजदूरों की प्रतिनिधि तो नहीं बन सकती, लेकिन मुझे उस जीवन को इतने नज़दीक से देखने और जीने का मौका मिला. 3 से 4 रिक्टर स्केल के भूकंप का झटका हमारे लिए नियमित दिनचर्या का हिस्सा था. कोलेरी के इलाके में लोगों का साफ़ रंग भी अच्छा खासा दब जाता था. दबे हुए सांवले रंग के लोगों के चेहरे पर कोयले की एक परत टेलकम पाउडर का काम करती रहती थी. मुझे इस कालिख के सौंदर्य को स्वीकारने में बहुत उम्र लग गई. क्योंकि लड़कियों में गोरे रंग के प्रति काम्प्लेक्स कूट कूट कर भरा जाता है. हमारा समाज गोरी लड़कियों को अब भी आश्चर्य चकित हो कर ही देखता है. गोरे रंग के लोगों के अंदर आत्मविश्वास बाई डिफ़ॉल्ट पाया जाता है.
रसोई गैस उस समय हमारे घर तक आई नहीं थी. लेकिन ईंधन के लिए कच्चा कोयला सभी को उपलब्ध था. कच्चा कोयला तब तक ईंधन नहीं बनता, जब तक उसको पकाया न जाए. पकाने के लिए मेरी माँ कोयले के होलिका जितने ऊँचे ढेर को आग में झोंक देती थी और फिर उसके बाद तैयार ईंधन को एक कोठरी में रख देती थी. इस तरह से हमें कोयले को घरेलु ईंधन बनाने का विज्ञान भी समझ आया. उन दिनों पिता के धैर्य को पर्वत की तरह अडिग देखा और माँ को सबसे सशक्त महिला की भूमिका में. बड़ी तलब है मुझमें सिगड़ी के जलते कोयले की खुशबू और खदान का तीनो टाइम बजने वाले सायरन को सुनने की. हमारी सड़कों पर धुल की काली धुंध देखने की ललक मुझ में बहुत बाकी है अभी. मैं क़ित-क़ित, कंचे, गिल्ली-डंडा, टीप रेस और पतंगें उड़ाने की प्रतियोगिता में मेरी बारी आने का इंतज़ार अब तक भी कर रही हूँ.
मेरे शहर जबलपुर में भी कोरोना के मरीज़ बढ़ते जा रहे हैं और समूचा विश्व जब लगभग लॉक डाउन से एक साथ प्रभावित हो गया है, तो न केवल मानव मन की असुरक्षाएं एक हो गईं हैं बल्कि वैश्विक समानता का वक़्त भी आ गया है. ऐसा भ्रम सा प्रतीत होता है शायद कि हथियारों की होड़ से इतर, हम जीवन को जीने का सही तरीका कविता, कहानी, चित्र, संगीत और किताबों में फिर ढूंढने लगे हैं.
ऐसे ही वक़्त में कुछ यूँ भी हो रहा है कि वे सभी सवाल रह-रहकर उभरते हैं, जो समाज अक्सर पूँछता रहा कि-
पेंटिंग तो अच्छी बनाती हो, पर काम क्या करती हो?
कहीं जॉब क्यों नहीं कर लेती?
या तुम्हारे पति ही कोई नौकरी कर लेते?
अब न जाने कब तक हम सब पेंटिंग करते रहेंगे! अब अपने घरों के अंदर बैठे चित्र ही तो बना रहे हैं. हालांकि इससे समाज में चित्र की भूमिका और चित्रकार के महत्व को समझने में कोई ख़ास मदद नहीं मिलेगी. चित्रकार का संघर्ष सदा से अनामंत्रित और गैरज़रूरी रहा है. ऐसे में आफत तब और बढ़ जाती है, जब चित्रकार बनने जैसा कोई ख्याल किसी लड़की के जेहन में आ जाए.
बारहवीं करते करते स्कूल की ही ड्राइंग टीचर (अनीता डोंगरे मैडम) ने बताया कि तुम जबलपुर जाओ और वहाँ पेंटिंग में ही पढ़ाई करो. जबलपुर पहुँच मानकुंवर बाई महिला महाविद्यालय से पेंटिंग की पढ़ाई करते हुए होम साइंस हॉस्टल में जिया जीवन सबसे यादगार सबक में से एक रहा. पेंटिंग में एम ए किया. यह सोच ही रही थी कि अब आगे क्या? तभी नियति ने विनय से मिलवाया और अठारह साल से हम साथ हैं. विनय से मिलने के बाद कुऍं के मेढक को बाहर निकल दुनिया देखने का मौका मिला. वह भी विनय जैसे खड़ूस, दढ़ियल लेकिन एक कमिटेड आदमी की संगत में.
ये आदमी इतना तल्ख़ आलोचक है कि आपको कभी चने के झाड़ पर चढ़ने नहीं देगा. बल्कि ऐसा आइना सामने रख देता है कि आप दुबारा से स्वर और व्यंजन पढ़ने लगते हैं. ऐसे में मेरे जैसी लड़की की छठी इंद्री अपना काम बहुत ईमानदारी से कर रही थी. विनय की संगत का जितना हो सकता है, उतना लाभ मिला. वर्ष 2002 में हबीब तनवीर के नाटकों के होर्डिंग्स मैंने पेंट किए. नाटक, गोष्ठियां, कविता, चित्र मेरी ज़िंदगी में अपना घर बनाते गए. एक साल बाद ही 2003 में मजदूर दिवस पर मेरे चित्रों की एकल प्रदर्शनी लगी जो कि विवेचना रंगमंडल और दादा अरुण पांडेय के सहयोग से सफल ही कही जा सकती है.
मैं और मेरी कलायात्रा दीवारों पर, कैनवास पर, कागज़ पर, कविता की किताबों के सहारे आगे बढ़ रही थी. सबसे पहली पुस्तक, जिसको मैंने एक रात में ही शुरू और ख़त्म कर दिया था, ‘कुफ्र‘ थी. मेरी नज़र में किसी भी विषय पर लिखा गया कोई भी साहित्य तब तक अधूरा होगा, जब तक की उसको किसी स्त्री की दृष्टि से न देखा गया हो. कुफ्र पढ़ने के बाद असर ये हुआ कि अब मैं कुछ भी पढ़ने को लेकर बहुत चुनिंदा हो गई हूँ. मुझे पाब्लो नेरुदा की रुकी पृथ्वी से माच्चु पिच्चू के पत्थर, बर्तोल्त ब्रेख्त की लघु कविताएं, सआदत हसन मंटो, कात्यायनी की चंपा, पाश की प्रेम, विद्रोह में डूबी कविताएं, रविंद्रनाथ टैगोर की ‘नौका डूबी‘ को बार बार पढ़ना अच्छा लगता है. जो फिल्में मुझे भावुक कर देती हैं, उनको भी एकांत में फिर देख लेने में चूकती नहीं.
मुझे ऐसा लगता है कि किसी भी मामूली विषय के महत्व को सबसे अच्छी तरह से स्थापित करने में फिल्मे अधिक निपुण होती हैं. मुझे तो फिल्में अपना किरदार ही बना लेती हैं. जो भी फिल्म मुझे प्रिय रहती है, मैं स्वयं उनके दृश्यों को अपने जीवन के कुछ पलों में जीने लगती हूँ. फिल्मों के बहुत सारे गीतों को गुनगुनाते हुए, बहुत से अप्रिय और बेहूदा मौसमों को तमीज से किनारे किया है. कई बार मुहावरों की जगह मैं फ़िल्मी गीतों की लाइन बोल पड़ती हूँ. अच्छी फिल्मे देखने का चस्का बहुत है पर आम तौर से मैं फिल्म तब तक नहीं देखती, जब तक कि एक ही सीटिंग में पूरी फिल्म देखने का वक़्त न निकले. (दबी हुई इच्छा तो एक फिल्म बनाने की है ही)
अंग्रेजी फिल्मे देखने का लालच मुझे इसलिए भी है कि हर दृश्य किसी वेल कंपोज्ड कैनवास की तरह नज़र आता है. उनमें प्रकाश का अचूक इस्तेमाल होता है. फिल्मों को लेकर मेरे बेटे बिगुल की असाधारण पसंद मुझे हैरान करती है. बिगुल बहुत पहले ही हिंदी सिनेमा के लिए पार्टिकुलेट हो गया था. आने वाले समय में कोरोना की विभीषिका को बेहतर तरीके से दर्शाने के लिए फ़िल्में बड़ा काम करेंगी, ऐसा लगता है मुझे.
मैंने लीगल जर्नलिज़म करते हुए मध्य प्रदेश उच्च न्यायलय की मर्यादाओं को भी करीब से समझा. जुडिशल रिपोर्टिंग करते हुए मैं समझ गई कि कानून अँधा ही होता है, वकील वह पढ़ा लिखा चश्मा होता है, जो न्यायाधीश को न्याय के लिए ज़रूरी बिंदुओं को दिखाता है और तब तक दिखाता है, जब तक न्याय की पट्टी न उतर जाए. साल साल भर से लापता लड़कियों को पुलिस तब झट से ढूंढ निकालती है, जब कोर्ट में हेबियस कार्पस (बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका) लग जाती है. कई वर्ष पूर्व चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया के इंटरव्यूज देखते हुए न्यायधीशों के नज़रिये को एकदम अलग पाया. जस्टिस के के लाहोटी की एक प्रेस कांफ्रेंस में मेरे साथी पत्रकारों ने उनसे पूछा कि आपको नहीं लगता कि महिलाओं के लिए बने कानूनों का बड़ा दुरूपयोग हो रहा है? उन्होंने कहा कि “यह सोचना कि क़ानून का दुरूपयोग हो रहा है उससे पहले यह सोचिए कि क्या अब तक कानून वाकई में ज़रूरतमंदों तक पहुँच पाया है.”
इस सब दुनियादारी के साथ मशक्कत करते हुए पेंटिंग करना कभी नहीं छूटा. प्रदर्शनियों का हिस्सा मैं बनी रही. एक दिन स्टूडियो में किताबों का शेल्फ ठीक करते हुए समकालीन कला की एक किताब के कवर पर ए रामचंद्रन की पेंटिंग देखी, तो थोड़ा सा विश्वास हो चला कि अमूर्तन से लदे-फदे चित्रों के इस भारतीय चित्रकला के युग में फूल, पत्तियों और मानव आकृतियों की कहानियां अब भी अपना महत्व रखती हैं. मुझे एब्स्ट्रैक्ट पेंटिंग करना भी कम रोचक नहीं लगता था. लेकिन मुझको छूने वाले पात्र और उनका जीवन कैनवास पर उतारने के लिए आकृतियों का पीछा करना मैं कभी छोड़ नहीं सकी. रामचंद्रन को और जानने की इच्छा ने पीएचडी स्कॉलर बना दिया. बहुत से शीर्ष और वरिष्ठ कलाकारों, लेखकों, कवियों और चर्चित हस्तियों की संगत उनके अनुभवों, सुझावों और निर्देशों को प्राप्त करना मुझे बहुत सरलता से मिल गया. मैं बहुत जल्दी ही कला की प्रशंसक बन जाती हूँ, बावजूद इसके मैं बार बार लौट कर रामचंद्रन के चित्रों को ही ताकती हूँ. मैं रामचंद्रन के जीवन और उनकी कला की यात्रा से जल्दी ट्यून्ड हो जाती हूँ. मुझे गाहे बगाहे उनका समय और निर्देश मिलना अपने लिए उपहार की तरह देखती हूँ. जल्द ही पीएचडी सबमिट करना होगा, ऐसा अलार्म बज चुका है.
विनय के साथ जितना जिया, उसमें यह तो समझ ही गई कि इस आदमी की जड़ें जितनी दिख रही हैं, उससे कहीं अधिक गहराई तक छूती हैं पृथ्वी को. अतुलनीय अभावों और सीमित संसाधनों के साथ आरम्भ हुआ इत्यादि आर्ट फाउंडेशन का रोमांचकारी सफर, जिसमें पिछले चार सालों से युवा कलाकार, कला विशेषज्ञ, समीक्षक, नाटक, संगीत, नृत्य, साहित्य, कविता, सामाजिक विषय पर संगोष्ठियां, थर्ड जेंडर को मुख्य धारा से जोड़ना और ज़रूरत पड़ने पर रैली और धरने पर भी बैठ जाना शामिल हो गया. जबलपुर आर्ट लिटरेचर एंड म्यूजिक फेस्टिवल कई मायनों में देश का प्रतिष्ठित आयोजन बन चुका है. इसका निष्पादन करते हुए कला और कलाकार का समाज में योगदान क्या हो सकता है, उसको लेकर कमोबेश मन को थोड़ी तसल्ली सी होती है.
अपने आरंभिक जीवन के अनुभवों ने मुझे जहाँ दृढ आकार दिया, वहीँ बाद के अनुभवों से दुःख और संघर्षों के महत्त्व को समझा. संवेदनाओं के रस को बूंद बूंद पीना सीखा. सबसे अधिक सीखा अगर तो लड़की होने की अतिरिक्त उलझनों से, जिनको जल्द ही ताकत भी बना लिया मैंने. अब मुझे कोई लाज नहीं आती यह सुन कर कि तुम लड़की हो, इसलिए तुम्हारा यह काम हो जाता है. वही लोग पहले कहा करते थे कि तुम लड़की हो, इसलिए तुमसे नहीं होगा. लडकियां बहुत उम्र तक मासूम रह जाती हैं. प्रेम में पगी लडकियां ताउम्र हसीन दिखती हैं. लड़कियों का मन आयल पेंट की तरह होता हैं, जल्दी सूखता नहीं. उनको बहुत इत्मीनान से हैंडल किया जाना चाहिए, उनके अंदर प्रेम कभी कम नहीं हो पाता. उसी तरह, जिस तरह बढ़ता है उनका साहस.
कोरोना काल में अपने और विनय की आरंभिक दिनों की प्रेम कहानियां याद करते हुए कई बार भावुक हो जाती हूँ. लौट कर बिगुल का चेहरा देखती हूँ, तो लगता है कि अब समाचार चैनलों का गलीज़ चेहरा देखने का वक़्त नहीं बचा है. सारा समय पेंटिंग, प्रेम, परिवार, किताबों और कविताओं में ही कम लगता है. मैं कोरोना की वजह से मिले इस एकांत को अपने नास्टैल्जिया को जीने के अवसर की तरह मान रही हूँ. इस कोरोना एकांत के पहले हम सब एकांत ही मांग रहे थे, अपने थके हुए वक़्त में. अब जब सबसे आगे दौड़ने की होड़ ही रुक चुकी है, तो हम कहाँ जाएंगे? हमने तो यूँ भी चित्र बनाने के लिए ही एकांत माँगा था. पूर्व कोरोना काल ने हमें भौतिक सुखों की मायावी दुनिया को जीना सिखाया और वर्तमान हमें भौतिकताओं से दूर करने के लिए तैयार कर रहा है. कोरोना काल से प्राप्त शिक्षा उत्तर कोरोना काल में कितनी बचेगी, यह कह सकना जल्दबाजी हो जाएगी.
१८
नरेंद्र पाल सिंह
II बनना नए मानव भूगोल का II
आज लगभग सभी देश एक अज्ञात संक्रमण से प्रभावित हैं, कहने को उसे नाम दे दिया गया है. समस्त मानव जाति इस बीमारी के कारण त्राहि त्राहि कर रही है. इस समय सिर्फ़ और सिर्फ एक ही रास्ता बच गया है, एकांत, एकांत और सिर्फ एकांतवास.
स्वयं को एकान्त में रखना ही इलाज है, पर दुर्भाग्य से इस तरह के इलाज की आदत अमूमन इंसानों को नहीं है. वे इस इलाज से ही छटपटा रहे हैं, गोया यह इलाज ही उनकी असल बीमारी हो. पहली बार लग रहा है कि हम सब कितने बेचारे और कितने निर्भर हैं. हम इस भागदौड़ और अव्वल रहने की धुन में केवल अपने साथ रहना ही भूल गए है. शायद यही सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी भी है. ग्रीक ट्रेजेडी से लाखों-लाख गुना बड़ी, समूचे विश्व में अचानक घट रही ट्रेजेडी.
इस वक़्त सिर्फ धैर्य रखना जरुरी है, संयम से एकाग्रचित्त होकर, कुछ भी कार्य करना उचित होगा. मैं अपनी आदत के तहत रंग रेखाओं से खेलने लगा. इंसानों के अन्दर जीवन के कई अनछुए पहलू होते हैं. जाने अनजाने में जो वक़्त ने निश्चय किया है, उसे हम सब को स्वीकार करना चाहिए. ना कि उतावलेपन में आकर अपना, अपने परिवार तथा समाज का अहित कर बैठें. समय की तेज चलती अंधड़ ने आज दुनियाभर के इंसानों को मौत की लहरों पर बैठा दिया है. संवेदनशील और रचनात्मक व्यक्तियों के लिए यह बड़ी जिम्मेदारी का वक़्त है. हम सबके रचनात्मक काम को आने वाला समय एक दूसरे इतिहास की तरह देखेगा. निश्चित ही हमारे सृजन में यह आमूल-चूल बदलाव का ठहराव है. हमें ठहरकर नए सिरे से सोचना होगा, इस जीवन को, इसकी क्षणभंगुरता को, रंगों को, लय को और समूची मानवीयता को.
इस भीषण दौर के पहले हम सब उन कार्यों के बारे में सोचते रहते थे कि थोड़ा समय होता तो ये किया जा सकता था. देखा जाए तो आज मानव जाति के पास और कुछ नहीं बचा है, सिवाए जीवित रहने तक के समय के. समय की इतनी सारी सम्पति इसके पहले मानव के पास कभी नहीं रही. अब मानव की अपनी इकाई ही उसकी पूरी दुनिया है. अपने से बाहर उसके पास अब क्या बचा है. जो बचा भी है, उसे छूने, उसका उपभोग करने में वह डरने लगा है. यह कोई मामूली दृश्य नहीं है. यह विश्वव्यापी नया मानव-भूगोल है.
इसी समय को पाने के लिये बड़े-बड़े ऋषि मुनि और ज्ञानी नाना प्रकार के उपाय करते रहें हैं. आज जब नियति ने यह सबकी झोली में डाल दिया है, तो पूरी व्यवस्था, वैज्ञानिक चेतना और मानवीय व्यवहार इस झोली को खाली करने के भरपूर प्रयासों में जी-जान से जुटी हुई है.
मैंने इन दिनों बहुत मित्रों से पूछा कि आपने अपने जीवन में केवल अपने साथ कितना समय पहले गुजारा था. अधिकांश लोगों को पहले इस स्वतः साथ का अर्थ ही नहीं पता था. अब वे इसे शायद नकारात्मक तरीके से महसूस कर रहे हों. पहले कुछ लोगों से मैंने यही सवाल उनके अंतिम वक़्त में पूछा था, तब उनकी आँखों में पश्चाताप एवं अफ़सोस के आँसू थे.
आम तौर पर हमारे आधुनिक कलाकार गाँव से आते हैं, लेकिन महानगरों की चकाचौंध में उनका गांव से रिश्ता लगभग सतही हो जाता है. एक कलाकार के रूप में जब भी मैं अपनी तीन दशकों की कला यात्रा का विश्लेषण करता हूँ, तो मुझे लगता है कि मेरा गांव से रिश्ता बहुत गहरा और अर्थपूर्ण है. भले मेरा स्टूडियो दिल्ली जैसे महानगर में है, पर मैं अपने बिहार के गांव कोनंदपुर से केवल आत्मीय रिश्ता ही नहीं ,बल्कि उससे सक्रिय रचनात्मक सम्बन्ध बनाये रखता हूँ. मैंने कुछ ऐसे ही साधन, औज़ार या यंत्र चुने हैं, जो कभी हमारे ग्रामीण जीवन का इतना महत्वपूर्ण हिस्सा रहे कि शायद उनके बिना रहने की कल्पना भी नहीं की गयी होगी. पर बाद में वे सब कब धूमिल होते गए, उसकी सुध भी किसी ने नहीं ली.
मेरे चित्र संसार में ग्रामीण जीवन केवल सजावटी आकार नहीं है. मेरी कोशिश रहती है कि आधुनिक उपकरणों के दबाव के बावजूद उस जीवन की सार्थक सचाइयों को सामने ला सकूँ. मैं गांव की धीरे-धीरे गायब हो चुकी और गायब हो रही संस्कृति को अपनी एक विशेष चित्र-सीरीज में प्रस्तुत करना चाहता हूँ. मैं एक आधुनिक कलाकार हूँ, पर मेरी रचनात्मकता का एक बड़ा स्रोत आज भी ग्रामीण यथार्थ है.
हमारा देश हमेशा से समृद्ध संस्कृति के लिए जाना जाता रहा है. सदियों से पूरी दुनिया में भारत, संस्कृति और सभ्यता का परिचायक रहा है. हाल के दशकों के आधुनिक दौर में सामाजिक सरोकार तथा जीवन मूल्यों मेँ बहुत ज्यादा बदलाव आया है. मैं एक कलाकार हूँ. मेरा दायित्व आम जन-जीवन, समाज तथा प्रकृति से जुड़े सभी बदलाव को देखने-परखने से ज्यादा बनता है. मैं अपने आस पास होने वाली सभी घटनाओं को आत्मसात करता हूँ. यही वज़ह है कि मेरी चित्रकला में आम जनजीवन से वास्ता रखने वाली घटनाओं का जीवन्त रूप दिखता है.
पहले घरों में इस्तेमाल होने वाले बर्तन मिट्टी, कांसा, पीतल के होते थे, आज प्लास्टिक तथा स्टील ने जगह ले ली है. जिससे इन रोजगार से जुड़े लोग, जैसे प्रजापति, कुम्हार अपना व्यवसाय छोड़ चुके हैं. इस आधुनिक दौर में आवागमन के साधन तथा संसाधन दोनों बदल गए. पहले डोली, पालकी, बैलगाड़ी, तांगा इत्यादि हुआ करते थे. किन्तु आज के दौर में सभी विलुप्त हो चुके हैं. इनकी जगह मोटर, कार, मोटरसाइकिल, रेलगाड़ी, हवाईजहाज जैसे संसाधन का दौर आ गया है. हमारे जीवन में बहुत प्रमुख स्थान हमेशा से मनोरंजन का रहा है. हम लोग बचपन से हमारे जीवन में नाटक, नौटकीं, बाइस्कोप या रेडियो के अभ्यस्त रहे हैं. अचानक यह सब बदल गया. तकनीकी विकास के दौर में खिलौने की तरह मोबाइल आ गया.
जीव जंतु, पशु, पंछी मेरा प्रिय विषय रहे हैं. इनके अतिरिक्त मिट्टी से जुड़े रोजगार, व्यवसाय तथा जीवन शैली में मेरी रुचि रही है. हमारी आने वाली पीढ़ियों को यहाँ की समृद्ध संस्कृति तथा इतिहास को देखने समझने के लिए बहुत कुछ धरोहर है. मैं अपनी कला यात्रा को अभी बहुत आगे तक जारी रखना चाहता हूँ. जिससे होने वाले बदलाव को अपने चित्रों में दर्ज कर सकूँ. मानव जाति, हमारी समृद्ध संस्कृति, आम जनजीवन और इस महामारी के बाद के बदल चुके जीवन को दिखा सकूँ.
१९
सुमित मिश्रा
II एकांत के हवन में सामग्री का अभाव II
लॉक डाउन शब्द नहीं, आतंक है, भय है और प्रहार है. अलग-अलग वर्ग और मनोदशा पर अलग-अलग तरह से. मैं जिस कार्यक्षेत्र से सम्बंधित हूँ (फ़िल्म और टेलीविजन) उसमें दो वर्ग हैं, एक जो रचनाशील हैं और एक जो मेहनतकश हैं. हमारी कल्पना को आकार देने वाले जो सबल कंधे हैं, वो अक्सर आर्थिक रूप से दुर्बल होते हैं. इनकी आमदनी का स्त्रोत रोज़ की दिहाड़ी होती है. ये लोग अथक परिश्रम करके भी इतना नहीं कमा पाते हैं कि एक महीना भी निश्चिन्त हो बैठ कर खा सकें. इस लॉक डाउन में अनायास ही उनके बारे में सोचने पर विवश हो जाता हूँ. हमारे लिए तो एक रचनात्मक जुनून है. लेकिन वह बड़ा वर्ग, जिनके लिए फ़िल्म निर्माण से जुड़ना सिर्फ़ एक मज़दूरी है, उनके लिए यह समय आर्थिक संकट का आतंक लेकर आया है. भविष्य की अनिश्चितता का भय है और रोज़गार पर प्रहार है. कब तक सब बंद रहेगा, नहीं मालूम. लेकिन खुलने के बाद भी स्थिति सामान्य होने में कितना वक़्त लगेगा, यह एक यक्ष प्रश्न है.
उनकी पीड़ा को सिर्फ़ अपने कमरे की खिड़की पर खड़े हो कर महसूस कर सकता हूँ. इस अपाहिज व्यथा का कोई हल नहीं है मेरे पास. असहाय महसूस करता हूँ खुद को, शायद पहली बार.
इस व्यथा के अलावा एक और व्यथा है, व्यक्तिगत और रचनात्मक व्यथा. सच कहूँ, अगर पाँव के नीचे ज़मीन और सर के ऊपर आसमान ना हो तो ख़ुद के होने का एहसास नहीं होता. शहर के होने का एहसास भी शहर में ही होना है. किसी के सर के ऊपर और किसी के पैरों के नीचे बने कमरे को में शहर नहीं मानता. अफ़सोस इन दिनों शहर में नहीं हूँ. अपने कमरे में हूँ और इस आरोपित एकांत की अवहेलना भी नहीं कर सकता. मेरे लिए एकांत एक मानसिक अवस्था है, जिसे मैं हमेशा अपने साथ लिए घूमता हूँ, भटकता हूँ.
मेरे लिए भीड़ का मतलब होता है भीड़ का हर एक चेहरा, एक मुकम्मल किताब और भटकना मेरे लिए एक अनुभव. अनुभव ख़ुद से खुद तक पहुँचने का. एकांत और अकेलेपन के फ़र्क़ को समझता हूँ. रचनाशील बने रहने के लिए एकांत चाहिए. अकेलापन अवसाद की तरफ़ ले जाता है और एकांत साक्षी भाव की तरफ़.
रचनाशीलता एक प्रक्रिया है, जिसके लिए विषय, भाव, रंग और आकार को आत्मसात् करना होता है. हर क्षण परिवर्तित होते हुए आसमान को देखना होता है. हवाओं के घटते-बढ़ते दबाव को महसूस करना होता है. हँसी और अट्टहास, शोर और कोलाहल के फ़र्क़ को समझना होता है. सच कहूँ तो कॉफ़ी हाउस में बैठ कर एक ही प्याली के हर घूँट का फ़र्क़ भी समझना होता है. इतना संवेदनशील और इतना अनुभवी बनना होता है एक रचनाकार को. और ये सभी अनुभव मुझे भीड़ में मिलते हैं. ये सब मुझे खुले आसमान के नीचे रेत या ज़मीन पर नंगे पाँव चलते हुए मिलते हैं. मुम्बई गुजरात हाईवे पर ड्राइव करते हुए और जितनी रफ़्तार से मैं आगे जा रहा होता हूँ, उतनी ही रफ़्तार में लहलहाते पेड़ो का हरापन पीछे की तरफ भागता रहता है. जीवन के अनुभव अमूमन विपरीत दिशा में ही भागते रहते हैं. उन्हीं के मध्य में कोई एक बिंदु, कोई एक रेखा, कोई एक रंग, कोई एक आकार, हमारे सृजन के लिए ठिठका हुआ रहता है. हम कभी समय चुराते हैं और उसे अपनी रचनात्मकता में दर्ज कर देते हैं. एकांत में हवन किया जा सकता है लेकिन उसमें आहुति देने के लिए सामग्री तो इन्हीं सब अनुभवों से एकत्रित करना होती है.
सोच समग्र होनी चाहिए, किस्तों में नहीं. जैसे चित्र और धारावाहिक में फ़र्क़ होता है. वही फ़र्क़ समूचे आसमान को निहारने में और अलग-अलग कमरे की खिड़की से उस खिड़की भर आसमान को निहारने में होता है. मेरे लिए लॉक डाउन या सामाजिक दूरी बिलकुल रचनात्मक नहीं है, क्योंकि मैं कलाकार हूँ, शिल्पी नहीं. सबसे पहले हमें हुनर और कला के फ़र्क़ को समझना होगा. कला एक स्वभाव है जबकि हुनर एक तकनीक है. स्वभाव को बचाए रखने के लिए स्वभाव में ही बने रहना होगा. स्वभाव से अलग होना मतलब स्व का अभाव. इस अभाव में रचना नहीं हो सकती है.
बहुत पहले से,लगभग तब से जब आत्मपरिचय हुआ था, यह मेरे स्वभाव में है कि रचनात्मक बने रहने के लिए भीड़ में होना चाहिए, जिसमें एकांत की साधना कर सकूँ मैं. इंसानों की भीड़, चिड़ियों का झुंड, लहरों का सैलाब, नरम-गरम रेतीली ज़मीन, हवाओं का बवंडर…. सब चाहिए मुझे. वह भी सहज प्राकृतिक रूप में, कृत्रिम नहीं. इनसे गुज़र कर, इनमें भटक कर मैं रचनात्मकता तक पहुँच पाता हूँ.
बचपन से ही पढ़ना मुझे पसंद है. ख़ुद की समृद्ध लाइब्रेरी भी है. लेकिन किताब के ढेर के समक्ष बैठ कर या ख़ुद को कमरे में क़ैद करके नहीं पढ़ सकता हूँ. पढ़ते वक़्त भी मुझे पृष्ठभूमि में खुलेपन का विस्तार चाहिए होता है. मुझे याद है बीएचयू का विशाल पुस्तकालय. देख कर लगता था मानो ख़ज़ाना हो. वहाँ से किताब निकाल कर अपने संकाय में बने एक छोटे तालाब के किनारे या मधुबन के खुले माहौल में बैठ कर ना जाने कितनी ही किताबें पढ़ी मैंने.
रचने के लिए भटकने की आदत भी बहुत पुरानी है. बचपन से किशोरावस्था (१९९६) तक मुज़फ़्फ़रपुर में था. एक हरे रंग की हीरो साइकिल, कपड़े का एक झोला, उसमें जलरंग, ब्रश और पेपर लिए भटकते रहता था. कभी बेला तो कभी चक्कर मैदान, तो कभी गंडक के किनारे.. जहाँ मन किया बैठ गया और कुछ बनाने लगा. कुछ सोचने, चिंतन का मन करता तो भारत जलपान में अकेले बैठ कर चाय पीते हुए और ज़्यादा कल्पनाशील हो जाता. उसके बाद बनारस आ गया. भटकने की प्रवृति और बढ़ गयी. यहाँ बीएचयू का मैदान था. वक्र गलियाँ थीं, जो जाड़े की सर्द रातो में पीली बुझती हुई रोशनी और धूँध के साथ छायावादी कविता बन जाती थी. यहाँ गंडक की जगह गंगा के किनारे ने ले लिया था और इन सब में भटक कर, थकने के बाद बैठने के लिए मणिकर्णिका घाट था. जहाँ सामने जलती हुई चिता को देखते हुए, पीठ पीछे डूबते हुए सूरज की लाल गरमाहट अपनी पीठ पर महसूस करता था. आधी रात के बाद अपने होस्टल के कमरे में दिन भर इकट्ठा किये हुए अनुभव को इत्मीनान से साग के पत्ते की तरह छाँटता था. पिछली सदी के ठेठ अंत में मुम्बई आ गया.
अपनी कला को सिनेमा से जोड़ने. लेकिन भटकने की प्रवृति शांत नहीं हुई. यहाँ वक्र गलियों की जगह व्यस्त सड़कों ने ले ली और गंगा की जगह विशाल अरब महासागर. भटकने की इच्छा अभी भी शेष है. महानगरों में भटकता हूँ, खचाखच भीड़ में खोने के लिए और छोटे गाँव में ठहराव में होने के लिए. लगातार भटकता हूँ. मेरे लेखन, निर्देशन और मेरी कला के लिए मेरा भटकाव एक कसरत है, एक रियाज है. जीवित तो रह लूँगा, स्वस्थ नहीं रह पाऊँगा, भटकाव के बिना.
लेकिन अब…
अब थम सा गया हूँ.. बचत की प्रवृति नहीं रही शुरू से, भटकाव के दौरान जो भी अनुभव (राजनीतिक या भावनात्मक) इकट्ठे हुए, वे सब खर्च भी कर दिए. अब अगर ख़ाली हूँ तो खर्च भी नहीं कर सकता.
सच में थम गया हूँ मैं, थम गयी है मेरी रचनाशीलता. क्या करूँ, शिल्पी नहीं हूँ, कलाकार हूँ. भीड़ में भागने की आदत है. आसमान और ज़मीन के बीच रंगों, आकारों, ध्वनियों, भावनाओं में भटकने की भी आदत है. इन दिनों फेफड़े में थोड़ी अतिरिक्त हवा भर रहा हूँ और पंखों में अतिरिक्त जज़्बा…. एक नयी उड़ान के इंतज़ार में.
२०
शम्मा शाह
II बघवा रेंगाइले धीरे-धीरे II
यूं तो यह मृत्यु के बारे में कहा जाता है कि वह जब भी आती है, उसका आना अप्रत्याशित ही होता है. हम उसके लिए कभी तैयार नहीं होते. पर अभी कुछ दिनों से सोच रही हूँ, तो लग रहा है कि जिन भी घटनाओं, चीजों की हमारे भीतर स्मृति बनती है, वे सब की सब अचानक ही होती हैं- अच्छी, बुरी दोनों.
कभी कई-कई दिन एक दिन का ही दुहराव लगते हैं. कभी तो पूरी जिंदगी ही सिर्फ दोहराव लगती है. हालांकि हम लेखक कलाकार तबियत के लोग अक्सर एक रूटीन, नीरस दिनचर्या से नहीं बंधे होते. छोटी छोटी और ढेर सारी ऐसी चीजें हो सकती हैं, जो हमें रमा ले, भिगा दें, खुश कर दें या फिर अवसाद से भर दें. ख़ुद मेरे साथ ही कितनी बार ऐसा होता है कि लगता है जैसे मन किसी झूले पर सवार है. अभी किलकारी मारता आसमान छूने को है और अगले ही पल लगता है धरती का गहन अंधेरा खींच लेगा उसे अपने भीतर… मन की यह जो अस्थिर, चंचल गति है, उसी के लिए मोटी-बा यानी मेरी माँ की दादी मालवी में कहा करती थीं- “मन के मते मत चालजे, यह तो पल-पल में बदले!”
बहरहाल, जीवन की इस औचक धर-पकड़ पर लौटती हूँ. कोरोना नामक इस अदृश्य, ताजपोश, विश्व विजय पर निकले जीवाणु की आहट दिसंबर से चीन -सिंगापुर से आ रही थी. आज जब हर घड़ी, दुनिया भर के लोग एक दूसरे से कनेक्टेड हैं, खबरे आग से भी तेज़ गति से हम तक पहुंचती हैं, फिर भी, यह ताज़पोश दुनिया के जिस भी देश पहुंचा, उसने उन्हें औचक ही पकड़ा – सोता हुआ. हम कलाकारों को यह मौका तक ना मिला कि ‘ग़म को धुएं में उड़ाता चला गया‘ पंक्ति गाने का बंदोबस्त या शाम को कुछ ताज़ा अनुभव करने के लिए जरुरी चंद बूंदों का ही जुगाड़ बिठा पाते!
मुझे खैरागढ़, छत्तीसगढ़ की उमा बाई देवार (जो बहुत सुंदर गोदने गोदती थीं और गोदना बनाते हुए दर्द ज़रा कम हो, इसलिए साथ में गाना भी सुनाती थी) का सुनाया एक गाना अनायास याद आ रहा है, जो उन्होंने मुझे कभी मानव संग्रहालय में सुनाया था –
कर-गोरी भाजी रांधे, पढ़री मोर भाटा वो
सउरेंगी घेउ ला कड़काए, बोदेला डीरा
बघवा रेंगाइले धीरे धीरे, डोंगरी के तीरे
नई लगे माया वो शिकारी भैया?
बघवा रेंगाइले धीरे धीरे..
हिंदी में इसका अर्थ कुछ यूं होगा कि जो श्याम-वर्णी गोरी है, वह भाजी पका रही है, जो गौर वर्णी है, वह बैंगन बना रही है. जो सांवली है, वह घी तपा रही है. घर की छप्पर पर लौकी फल रही है. बाघ धीरे-धीरे पहाड़ी के किनारे-किनारे पानी पीने चला जा रहा है. ओ शिकारी, तुझे ज़रा भी माया-ममता नहीं? इस चित्र- सरीखे गाने में अचानक धर लिया जाएगा बाघ… या यह भी हो सकता है कि इस शिकारी पर कोई और निशाना साधे बैठा हो! कैसा बेलाग यह चक्र.., हर जीव, किसी अन्य जीव का भोजन!
मुझे लगता है कि जब-जब जीवन में हमारा सामना विकट परिस्थितियों से होता है, तो हम खुद को एक दोराहे पर पाते हैं. जहाँ से एक राह अपने भीतर की ओर मुड़ कर, पलटकर देखने की हो सकती है, कि जो हो रहा है,वह क्यों हो रहा है? उसका हमसे क्या नाता है? उसका इस सृष्टि से क्या नाता है, आदि को देखें और दूसरी राह वह, जो फौरन हमें इस स्थिति के लिए जिम्मेदार मुजरिम की जल्द से जल्द शिनाख्त करने को उकसाती है. एक तीसरी राह भी हो सकती है कि दुनिया में जो होता है, हो, मेरी बला से, किसी तरह से मैं अपने को सुरक्षित कर लूं. एक चौथा रास्ता भी हो सकता है कि, वही होगा जो मंजूरे खुदा होगा. आप हम कौन होते हैं कुछ करने वाले? सोचने पर हो सकता है और भी कई राहें दिखें. बात यह नहीं है कि इनमें से कौन सी राह सही है, कौन सी गलत. अलग-अलग परिस्थितियों में इन सभी राहों की अपनी कोई अहमियत हो सकती है. पर एक कलाकार के रूप में यदि मैं खुद को पहचानती हूँ, तब मेरी राह क्या हो सकती है?
बीमारी के दौरान लंबा समय अस्पताल में भर्ती रहने के बाद निर्मल जी (निर्मल वर्मा) घर लौटे थे. मेरी बहन राजुला उनसे मिली तो उन्होंने कहा था- “इन दिनों इसी बात को समझने की कोशिश कर रहा हूँ कि यह बीमारी मेरे पास क्यों आई? यदि मैं इसे नहीं समझ पाया तो फिर उसका मेरे पास आना ही व्यर्थ हो जाएगा. जो कुछ भी घटता है उसका महत्व सिर्फ इस बात में है कि हम उसका क्या बना पाते हैं.” निर्मल जी की यह बात तब भी हिला गई थी और आज भी झकझोरती है. लगभग अपनी मृत्यु शैय्या पर, हमारा एक लेखक, ख़ुद को मिले दर्द को, अज्ञात से मिली एक भेंट की तरह देख रहा है. वह उसे साधने, उससे कुछ गढ़ने की संभावना के बारे में सोच रहा है. यह कैसी अप्रतिम, कितनी ताकत देने वाली बात है. और साथ ही यह बात एक कलाकार, एक आत्म-चेतस व्यक्ति की ज़िम्मेदारी क्या होती है, उसका भी बोध कराती है.
मुझे निर्मल जी की यह बात इन दिनों लगातार याद आ रही है. जब राकेश जी ने इस लाक डाउन समय और उसके परिप्रेक्ष में एक कॉलम का ज़िक्र किया, तब मैं अपनी एक नितांत निजी उलझन का सामना करने की कोशिश कर रही थी. सोचा क्यों न इस कॉलम और इस अदृश्य आतंकी वायरस की घेरे बंदी के चलते मिले इस अवसर पर मैं आप सबके साथ इसका साझा करूं? शायद यहीं से मुझे कोई राह मिले. उलझन का स्वरुप कुछ यूं है कि, मेरा माटी और शब्द दोनों से ही बहुत करीबी नाता लम्बे समय से रहा आया है. यह दोनों मेरे लिए पहाड़ और समुद्र की तरह हैं. बचपन से ही मेरे लिए समुद्र का अर्थ था – ननिहाल और पहाड़ का अर्थ था- ददिहाल.
उन दिनों साल में दो बार लंबी छुट्टियां हुआ करती थी. एक, दीपावली की और दूसरी गर्मियों की. एक में हम समुद्र के पास यानी मुंबई जाते थे और दूसरी में हम ददिहाल यानी अल्मोड़ा जाते थे. दोनों यात्राएं मुझे रोमांचित करती थीं. लेकिन, जिस तरह वे दूर-दूर और अलग-अलग थे, कुछ वैसी ही मेरे भीतर शब्दों और मिट्टी के भी साथ न हो पाने की दिक्कत है. जिन दिनों मैं मिट्टी में काम कर रही होती हूँ, उन दिनों मेरा लिखना पढ़ना लगभग बंद सा हो जाता है. मेरा समूचा आत्म एक तरह से आकार- निराकार- आकार की धुन्ध से घिरा रहता है. जब यह समय लंबा चलता है, उन दिनों तो यदि मैं कोई वैचारिक गोष्ठी आदि में भी जाती हूँ, तो वहाँ भी मुझे अपने सुनने के अनुभव को प्रश्न के या टिप्पणी के रूप में रखने में दिक्कत सी होती है. दिमाग का जैसे एक हिस्सा ही शिथिल पड़ जाता है. वैसे ही जिन दिनों मैं कुछ गंभीरता से लिख पढ़ रही होती हूँ,
उन दिनों अक्सर मिट्टी में काम नहीं कर पाती. क्या आप यकीन करेंगें कि मेरी दादी और नानी आपस में कभी नहीं मिली और बचपन में आप समझ ही सकते हैं कि यह मेरे लिए इतना दुखदायी था. क्योंकि मैं तो एक ही समय पर दोनों जगह होना चाहती थी. अब तो दादा-दादी, नाना-नानी नहीं रहे. समुद्र को बेतहाशा प्यार करने वाली माँ भी नहीं रहीं. पर, अल्मोड़ा के पहाड़ और जुहू का समुद्र किनारा आज भी है. बचपन में इन्हें उठाकर एक दूसरे के पड़ोस में रख देने का ख्याल कितनी कितनी बार आता था. 1971 में जब पड़ोसी देश से हमारा युद्ध चल रहा था, तब मैं और माँ मुंबई में थे. मैं कोई पांच बरस की रही होंगी पर मुझे ब्लेक आउट, खिड़की के कांच पर पोते गए गहरे रंग, रह रह कर आती सायरन की आवाज और उड़ते लड़ाकू विमानों की गश्त हू-बहू याद है. मैं माँ की दादी की गोद में सिर छुपाकर कहती –‘मोटी-बा, कई वेगा?’ और वे कहती ‘कई वेगा? तमारा डरवा से कई दुश्मन का विमान भागी जाएगा के?’ मैं उन्हें कह नहीं पाती लेकिन मन में यही लगा रहता कि किसी तरह पापा और दादा दादी ,बाकी सब मुंबई आ जाएं.
कुल मिलाकर मेरे लिए समुद्र और पहाड़, दो ध्रुवों की तरह दूर-दूर रहे आए. कई फिल्मों में उन्हें साथ साथ देखा. लेकिन उनका साथ होना अवास्तविक और सिनेमा का हिस्सा ही बना रहा. दक्षिण कोरिया में संयोग से नाओरी नामक जगह, जहाँ पर सिरामिक के एक शिविर में 15 दिन रहना हुआ, वहाँ पहाड़ और समुद्र साथ साथ थे. मैं तो उनके इस असल में एक दूसरे के पड़ोस में होने से हतप्रभ रह गई थी. रात में लहरों के शोर से कभी नींद खुलती और उठ कर बैठो तो खिड़की के पार पहाड़ मां की तरह घुटने मोड़कर, पर सीधा सोता हुआ दिखता! अब जब कि मैं समुद्र और पहाड़ को असल में साथ-साथ देख चुकी हूँ, तब क्या शब्द और माटी को भी मेरे पास साथ-साथ नहीं आ जाना चाहिए?
दरअसल शब्द और माटी के आकार के बीच यह जो खाई सी खुदी हुई है, उसकी तह में और कई बातें भी होंगी. मसलन एक यही कि माटी में काम करने वाले अधिकांश कलाकारों का अव्वल तो पढ़ने-लिखने से ही नहीं के बराबर वास्ता है और यदि है भी तो वो अंग्रेजी भाषा के मार्फत है. दूसरी, जो शायद ज्यादा जटिल और बड़ी मुश्किल है, वह है जीवन के रोजमर्रा के छोटे-छोटे ब्योरे, मसलन, मछली वाले का छींकने की तरह आवाज लगाना, स्कूल बस के इंतज़ार में खड़ी बच्ची का अकेले नाचना और इन सब का मेरे मिट्टी के काम का हिस्सा नहीं बन पाना. मानव संग्रहालय और फिर बाद में मध्य प्रदेश ट्राइबल म्यूज़ियम बनने के दौरान दुर्गा बाई, खुमान सिंह, लोकनाथ जी, सहदेव भाई से जो कहानियां सुनीं वह भी जैसे मेरे मिट्टी के काम की दहलीज पर बैठी हैं, पर उस तरह मिट्टी में उतरती नहीं हैं. इसके चलते मैं अपने भीतर एक तरह की फाँक महसूस करती रहती हूँ. शब्