नानी वाली गइया
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उन दिनों मैं दर्जा चार में पढ़ता था, जब न जाने कैसे ऐसा हुआ कि घर में कोई गाय नहीं रह गयी थी, जब कि कम से कम दो-तीन गायें तो हमेशा रहती ही थीं– कभी तो पाँच-छह भी. होश सम्हालते ही मुझे याद है कि दो गायें थीं– बुढ़िया और नइकी. बुढ़िया थी धवल व नइकी लाल थी, जिससे उसे ललकी भी कहते थे. दोनो ने दो-चार दिनों के आगे-पीछे साथ में ही बछड़ा (बच्चा) जना था, जो सुबह हमारे साथ खेलते भी थे और कलेवा (ब्रेकफास्ट) के समय खाते भी थे. हमारे घर के भीतर आँगन के चारो तरफ़ ओसारी (बरामदा) है, जिसके दक्षिणी-पूर्वी कोने पर मैं और मेरी दोनो बड़ी बहने पीढ़े पर बैठ के खाते थे. वे दोनो बछड़े ओसारी की परिक्रमा करते और हमारे पास आके खड़े हो जाते. हम तीनो अपने-अपने कटोरे में से दाल-रोटी या दाल-भात का कौर उनके मुँह में डाल देते- भाजी देने की मनाही थी. और वे खाते-खाते अगले फेरे के लिए चल देते…. हमें बड़ा मज़ा आता. उस जीवन की याद आज भी फिर-फिर जीने के लिए मन में बड़ी कचोटती है…. बहरहाल,
दर्जा चार में पढ़ने के दौरान घर में गाय के अकाल के उन्हीं दिनों अपने गाँव के ठाकुर राणा प्रताप सिंह की शादी मेरे बड़के बाबू ने ही मेरे ननिहाल के गाँव (ऊँचेगाँव) में तय करा दी. उन दिनों हमारे यहाँ बच्चों के लिए दूसरा घर होता था ननिहाल. कितने बच्चे तो ननिहाल में ही पलते थे. और मुझे तो नानी का घर बहुत भाता था. सो, अक्सर वहाँ लम्बे-लम्बे समय तक रहता था, लिहाज़ा इस बारात में मेरा जाना तय था. जाते हुए तो बड़के बाबू के साथ गया- मकुनवाँ (बच्चा) हाथी पर चढ़ के, लेकिन बारात के साथ लौटा नहीं– रह गया नानी के पास.
नानी अकेले थी, इसलिए उसके यहाँ गाय-वाय बहुत कम ही देखने की याद है मुझे, लेकिन उस बार बारात में गया, तो देखा कि जाने किस दैवयोग से नानी के पास एक लोही (लाल रंग की) गाय थी. शायद किसी यजमान ने दान में दे दिया था– ‘गोदान’ तो साहित्य में कितना मशहूर है और उसके पीछे छिपी धार्मिक आस्था भी. लेकिन गोदान बिन ब्याई गाय का ही होता है- अक्सर गाय की छोटी बच्चियों का, जिसे बछिया (बचिया) कहते हैं. कहने का चलन था– ‘गोदान के लिए बछिया चाहिए’. यह भी दान के वक्त बच्ची ही रही होगी, पर अब तक बड़ी हो गयी थी. लेकिन असल में गर्भाधान के पहले तक उसे कलोर (किशोरी) कहते हैं. गाय की संज्ञा उसके बाद मिलती है. सो, ‘नानी की गइया’ कलोर थी.
यह सब चलन-ब्योरा तो तब मुझे मालूम न था– बस, घर में गाय देखके मुझे बहुत अच्छा लगने की याद है. शायद हमेशा गायों वाले घर में रहने की आदत और इधर गायों के न होने के सूनेपन की क्षतिपूर्त्ति का सुख रहा हो…. फिर तो उस गाय को मैं हमेशा सहलाते-लाड़ करते रहता…और वह इतनी सुद्धी (सीधी) थी कि जब खड़ी होती, तो गरदन झुका के माथा मेरे आगे कर देती– जैसे सहलाने का आमंत्रण हो. उसके माथे पर गदोरी भर का एक आयताकार सफ़ेद स्थल था– गोया विधाता ने लाल देह पर एक बड़ा धवल टीका लगा के भेजा हो. सींगें तो तब उसकी निकली नहीं थीं, बस अँखुवाई थीं…. लेकिन बाद में जब बढ़ीं, तो सीधी और पतली हुईं. कुल मिलाकर नानी की गइया ख़ूब सुघर थी. सींगों के बीच सहलाना पशुओं को अच्छा लगता है, यह मुझे मालूम पड़ा कुछ बड़े होने पर, जब उसी स्थल पर बैलों को सहलाते व कभी-कभार तेल रखकर हल्की मालिश करते बड़के बाबू-काका को देखा और बड़े होकर तो खुद भी किया. और जब वह नानी की गइया बैठी होती, तब तो पूरे बदन पर हाथ फेरता– कभी तो उसकी पीठ-पेट पर अधलेटा हो जाता. गरज ये कि नानी के यहाँ गाय के साथ रहने की मीठी याद आज तक मौजूद है और टीसती भी है….
लेकिन हुआ यह कि उसी सुखात्मक मनोदशा के बचपने में कब मेरे मुँह से निकल गया होगा- ‘नानी, ई गइया हमके दे देतू, हमरे घरे गाय ना हौ’. और कहके मैं तो भूल गया, लेकिन जब कुछ दिनों बाद बड़के काका मुझे लेने आये, तो नानी ने बात बनाकर यूँ कहा– बाबू, ई गइयो तू लेहले जाता– हमसे एके खियाइब-पियाइब संपरत ना (बाबू, यह गाय भी तुम लेते जाओ- इसका खिलाना-पिलाना मुझसे होता नहीं). यूँ ससुराल-ननिहाल से लेने-पाने की परम्परा है हमारे यहाँ, फिर नानी ने तो अपनी सम्पत्ति माँ के नाम कर दी थी. तो, सब अपना ही था. फिर काका ठहरे पक्के गृहस्थ– खेतिहर. गाय-गोरू रखने-पालने के जिउकिया. और इन दिनों शायद गाय ख़रीद पाने की उनकी आर्थिक स्थिति न थी. सो, सुनते ही उनका अभाव जाग उठा होगा…. मन लरज गया होगा, लेकिन दुनियादारी के नाते दो-चार बार ना-ना किया और अंत में गाय लेके जाने की बात पक्की हो गयी.
तब समस्या खड़ी हो गयी कि मैं और गाय दोनो कैसे जाएंगे. गाय को जाना था चलके और १०-११ कोस (२५-२६ किमी) की दूरी थी. इधर मैं था ९ साल का बच्चा– इतना लम्बा सफ़र कैसे तय कर पाता…!! काका ऊहापोह में कि मुझे पहुँचा के आयें, तब गाय को ले जायें या गाय को पहुँचा के फिर आयें मुझे ले जाने. यही सब चल रहा था कि मैं ही खुद गाय के साथ चल के चलने के लिए तैयार हो गया– शायद मेरी गाय-प्रियता जाग उठी होगी… शायद साथ-साथ चलने के मज़े की कल्पना हुई होगी…. और उधर दो बार आने-जाने से बचने की मजबूरी में काका ने भी मान लिया होगा, वरना मुझे फूल की तरह सेते हुए रखने वाले वे ऐसी कष्टप्रद यात्रा की हामी न भरते. और मुझे तो उन व्यावहारिक व तथ्यगत कठिनाइयों का पता ही न था कि भान भी हो. सो, साथ चलना तय हो गया.
अथ गाय-यात्रा- सूर्योदय के पहले हम निकल पड़े. ब्राह्मण लोग तब तक बाहर याने होटेल-दुकान का कुछ खाते-पीते न थे– आपातकाल में मीठे के सिवा. और पूरे दिन की सम्भावित यात्रा थी. सो, नानी ने काका के लिए लाई-चना-गुड़ गठिया के (कपड़े की पोटली में बांध के) दे दिया. इसे हमारे ब्राह्मण घरों में ‘पाथेय’ ही कहा भी जाता– अब तो सबकुछ ‘टिफ़िन बॉक्स’ में बंद हो गया. बड़े होकर मालूम पड़ा कि वह संस्कृत का विशुद्ध शब्द है. रास्ते में गाय का पगहा (गले से बँधी ५-६ फ़िट लम्बी रस्सी) पकड़े काका आगे-आगे चले. बीच में गाय और पीछे एक छोटा-सा डण्डा लिये मैं…. कालांतर में दर्जा ११ में पढ़ते हुए संस्कृत के पाठ्यक्रम में ‘कालिदास काव्यामृतम्’ था. उसमें ‘रघुवंश’ से लिये गये ‘दिलीपस्य गो-सेवा’ प्रसंग में पुत्र-प्राप्ति के निमित्त पत्नी सुदक्षिणा के साथ राजा दिलीप ऋषि-आश्रम में गोसेवा करते हैं. नंदिनी को जंगल की तरफ़ चराने ले जाते हुए का दृश्य पढ़ने को मिला –
पुरस्कृता वर्त्मनि पार्थिवेन प्रत्युद्गता पार्थिव धर्मपत्न्या:l
तदंतरे सा विरराज धेनु: दिन-क्षपा मध्यगतेव संध्या ll
याने आगे-आगे राजा और पीछे चलती रानी के बीच में नंदिनी ऐसे सुशोभित होती, जैसे दिन व रात के बीच संध्या. पहली बार इसे पढ़ते हुए मुझे अचानक काका और मेरे बीच चलती इस गाय के दृश्य की याद आ गयी और श्लोक का मज़ा बहुगुना हो गया…. फिर तो तभी से इस श्लोक के साथ ‘नानी की गइया’ की संगति ऐसी जुड़ी कि जितनी बार इसे पढ़ता, याद करता हूँ, अपनी यात्रा का वह दृश्य बरबस आँखों में उभर आता है.
तीन-चार किमी पर बाजार आयी– रानी की सराय. वहीं एक दुकान पर पहली रुकान हुई– सिर्फ़ ५-७ मिनट की. दुकानदार काका का परिचित था. मुझे छोटा वाला बतासा खिलाया और पानी पिलाया. वहीं काका ने मुझसे कहा कि तुम्हें बस में बिठा देता हूँ. कंडक्टर से कह दूँगा- ठेकमा (अपने घर की बाज़ार) उतार देगा. तुम वहाँ से चले जाना– आख़िर रोज़ पढ़ने तो आते ही हो- रोडवेज़ तो स्कूल के पास ही है…. लेकिन बस में अकेले जाने के मुक़ाबले मुझे साथ में पैदल चलना ही मनभावन व आसान लगा…. तब सड़क के दोनों किनारे बड़े-बड़े वृक्ष होते, जिनकी छाया में चलना काफ़ी आरामदेह व सुहावना लग रहा था. अब तो महामार्ग बन गये. इस योजना में सारे वृक्ष कट गये हैं. बीच के विभाजक (डिवाइडर) में लगा रहे हैं, पर न छाया के, न फल के- सिर्फ़ शोभा (शो) के. शुक्र है कि अब पैदल किसी को चलना नहीं है. सड़कें पहले की चार गुना चौड़ी व अफाट लम्बी होकर भी नंगी व अनाथ-सी लगती हैं.
दूसरी रुकान लगभग चार-पाँच किमी पर पड़ने वाली छोटी सी बाज़ार लहवरिया में इसलिए हो गयी कि वहां मिल गये काका के मौंसेरे बड़े भाई पंडित व मेरे बड़के बाबू कुंजबिहारी तिवारी, जिनका घर वहां से दो-तीन किमी पूरब अंदोईं गाँव में था. अत: वे हमारे मेज़बान ठहरे… पहले तो अपने घर ले जाने के लिए बहुत आग्रह किया कि बाछी और बच्चा बहुत थक गये हैं. आज रात आराम कर लें, तो कल तारो-ताज़ा होके जायें. और सच यह था कि मैं सचमुच थक रहा था, लेकिन काका से कहता न था, वरना वे बस में बिठा देते. और बड़के बाबू का वो कहना तब औपचारिकता न थी. लोग इसी तरह रिश्तेदारियों में आते-जाते व रहते थे. बहरहाल, काका तैयार न हुए. तब हारकर उन्होंने वहीं आतिथ्य किया. उस दिन उन्हीं से मुझे मालूम पड़ा कि लहवरिया में एक दुकान की अमिरती बड़ी मशहूर है. उन्होंने चार दोने (पत्ते का बना प्लेट कह लें) मंगाई– एक गाय के लिए भी. गाय को भी पानी पिलाया गया. फिर हम विदा हुए. अमिरती वाक़ई अच्छी थी. स्वाद अब तक बिलकुल याद है. फिर तो नवीं-दसवीं में पढ़ते हुए जब हम सायकल से ननिहाल या आज़मगढ़ जाते, तो अमिरती-कार्यक्रम अनिवार्य होता, जिसके लिए इधर-उधर से पैसे भी बचाते रहने की याद खूब है.
तब बाज़ारों में मित्रों-रिश्तेदारों के मिलने और उनकी आवभगत करने की एक संस्कृति हुआ करती थी. अपनी बाज़ार में हमें भी रिश्तेदार-मित्र मिलते थे. बाज़ार में सभी दुकान वाले परिचित होते थे. कुछ दुकानों पर तो रोज़ की हमारी नियमित बैठकें होती थीं. वे दुकान वाले बात-व्यवहार से समझ जाते थे और बिना कहे भी दोने में कोई अच्छी मिठाई और पानी आ जाता था. पैसे होने, न होने की फ़िक्र न दुकान वाले को होती थी, न माँगे जाने का डर हमें होता था- उधारी चलती थी. चाय का रवाज तब कम था. अधिकांश लोग पीते ही न थे. सबकी आदत व पसंद का भी प्राय: सबको पता होता था. उसके मुताबिक़ चाय व उसके बाद पान खिलाने की संस्कृति खूब प्रचलित थी– प्रायः अनिवार्य. उस दौरान एक दूसरे के घर-गाँव के सारे हालचाल होते थे. इस तरह फ़ोन-मेसेज के बिना भी उस जमाने में समाज एक दूसरे से कहीं ज़्यादा वाक़िफ़ और अधिक गहरे जुड़ा होता था.
बहरहाल, वहाँ से चलने के बाद काका मेरी थकान का हवाला देके अगली बाज़ार मुहम्मदपुर में मुझे किसी इक्के पर बिठाने की बात करने लगे कि धीरे-धीरे चलके तुम वहाँ रुको. आधा रास्ता तय हो गया है. मैं जल्दी पहुँच आऊँगा. लेकिन मैंने हुंकारी न भरी. मुहम्मदपुर आया, पर मैं न बैठा. यूँ भी चले, तो सूरज निकला न था और अब दोपहर हो गया था. गाय और मेरी दोनो की गति धीमी हो गयी थी. अब काका चिंता व सोच में पड़ गये थे. गाय के साथ मुझे लाके शायद पछता रहे थे. इसी दशा में ३-४ किमी पर स्थित अगली बाज़ार आ गयी– गंभीरपुर. बाज़ार शुरू होते ही काका सड़क छोड़ बायें मुड़े और दो-तीन घर छोड़के एक बड़े-से घर के सामने खड़े हुए. यह मेरे स्वर्गीय पिता के सहपाठी का घर था. सम्बंध पारिवारिक थे. उस वक्त की याद इतनी ही है कि वे हमें देखके बड़े ख़ुश हुए. काका ने उन्हें प्रणाम किया और अपना आज का सारा हाल थोड़े में सुना दिया. सुनते ही उन्होंने किसी को बुला के गाय को दाना-पानी देने के लिए कहा और खुद मुझे घर में लिवा ले गये. वहाँ एक गोरी-स्वस्थ सी महिला को मुझे सौंपते हुए कहा– ‘बचवा, ई तोहार बड़की माई हईं’. मै कुछ समझूँ, तब तक उस भद्र महिला ने मेरे सर पे ममता भरा हाथ फिराते हुए मुझे पीढ़े पर बिठाके मेरा हाथ-मुँह धोना शुरू किया. फिर बड़े लाड़ के साथ आँचल से पोंछा और मिनट भर में कटोरे में दाल-भात मिला के खाने को दे दिया. यह सब इतने झटके से हुआ कि ‘पलक झपकते भर में’ कहना ही फ़िट लग रहा है. उस सेवा-दुलार को सोचकर मन आज भी हुड़कने लगता है. उन्हें पता था कि उस दिन के बाद शायद फिर कभी हमारा मिलना न होगा…फिर भी अनायास, निष्प्रयोजन अपने बेटे-सा अपनत्व!! कहाँ चली गयी हमारे जीवन व समाज से वह संस्कृति, वह भाव, वह मानुषिकता…?
घर में सोके आराम करने के उनके मनुहार को मेरे बचपने ने न माना. मै बाहर आ गया काका के पास. देखा कि वे ढेर सारा लाई-चना कुरुई में लिए खाते-खाते बड़ी-सी तपीली में रखा शर्बत पी रहे हैं और दोनों भाई बात भी किये जा रहे हैं. यह हमारे प्रांतर का सबसे उत्तम व सहज-सुलभ नाश्ता-पानी (रेडीमेड रेफ़्रेश्मेंट) हुआ करता था, जो दो-चार घंटे के लिए भूख को मारकर काम की ताक़त देता था और मेरे काका का तो सबसे पसंदीदा आहार था. सामने गाय भी खा रही थी. काका ने अपना खान-पान पूरा करके मुझे अपनी खाट पर बुलाके लिटाया और मेरे पाँव दबाने लगे. मै कब सो गया, मुझे पता नहीं. जब काका ने उठाके मुँह धुलाया, तो देखा– गाय भी खाके बैठी थी. धूप थोड़ी ही रह गयी थी– शाम के ५ बजते रहे होंगे. वहाँ से हमारा बाज़ार ठेकमा ६ किमी रह जाता है. फिर तीन किमी गाँव…. लेकिन इसके बाद कहीं रुकना न हुआ. मैं, गाय और काका… सभी काफ़ी तारो-ताज़ा हो गये थे. अब उस दिन के बारे में सोचते हुए काका की प्रत्युत्पन्न बुद्धि के साथ तब की ऐसी सहयोगी व मानवीय संस्कृति के समक्ष भी सर झुक जाता है कि कष्ट के बावजूद घर जैसी सुख-सुविधा के साथ पूरा रास्ता तय हो गया और नानी के दिए पाथेय की गठरी खुली ही नहीं….
घर पहुँचे, तो दो घंटे रात चली गयी थी. हम तीनों ही थक के चूर-चूर थे, पर गाय को लेके पहुँच जाने की ख़ुशी ज्यादा थी. मां हल्दी पीस के लायी, बड़ी बहन ने गाय के माथे पर टीका लगा के अभ्यर्थना की. इति गो-यात्रा…
जब घर में गाय के बच्चे होते हैं, उनका नामकरण किया जाता है, लेकिन गाय-गोरू जब बाहर से आते हैं खरीद के या दान-दहेज में, तो प्राय: उस गाँव के नाम या किसी घटना या उनके रंग़ व आकार …आदि पर कोई न कोई नाम पड़ जाता है. फिर यह तो नानी के यहाँ से आयी है, यही उसकी सबसे बड़ी पहचान बन गयी और बात-बात में जो ‘नानी की गइया’ कह-कह के चर्चा हुई, वही बिना कुछ कहे ही सर्वसम्मत से उसका नाम पड़ गया. उसका सारा सुख हमने भोगा, यहीं रही वह ७-८ साल, लेकिन– ‘नानी की गइया’ के नाम से. जहां हमारे दो बैल खाते थे, वहीं बीच में एक और के खाने की व्यवस्था थी. कभी हमारी बुढ़िया (सबसे बड़ी- सीनियर) गाय बांधी जाती. बाक़ी के लिए सामने अस्थायी व्यवस्था रहती. उसी जगह इसे बांधा गया, तो यह मारे डर के चिल्लाने लगी. हालाँकि बैल भी दोनों सुद्धे थे, पर इस नए प्राणी को क्या मालूम. लेकिन दस-पाँच दिनों में जब उनके आसपास रहते-रहते हिल गयी, तो उसी में बांधी जाने लगी. चारा डाल दिया जाता और जब तीनों खाते, तो मुझे दूर पीछे खड़े होकर देखने में बड़ा मज़ा आता. बाएँ करियवा बैल, दाएँ उज़रका और बीच में लाल रंग़की यह गइया…दृश्य बड़ा नयनाभिराम होता…. जब ये तीनों घर के भीतर से खाते और सिर्फ़ तीनों का मुँह ही दिखता, तो उज़रके की बड़ी-बड़ी सींगे, प्रशस्त माथे को मिलाकर लंबोतरा चेहरा और करियवा की छोटी-छोटी सींगों के बीच ज़रा भारी भरकम काला चेहरा तथा बीच में गाय के लाल चेहरे पर सटा वह हथेली भर का सफ़ेद टीका…देखते ही बनता. कुल मिलाकर गोशाला में मंसायन बढ़ गया- एक प्रीतिकर दुनिया बस गयी.
मेरी व्यक्तिगत पहल पर वह आयी थी, इसलिए सभी लोग उस पर मेरे निजी अधिकार की चर्चा काफ़ी दिनों तक करते रहे– ‘भई, यह गाय तो ‘बचवा’ (बचपन में पुकारने का मेरा नाम) की है’. फिर इसी से मेरा कर्तव्य भी जोड़ दिया गया, जो स्थिति की माँग भी थी. लिहाज़ा उसे रोज़ चरने के लिए गाँव के गोरुओं तक पहुँचाना मेरा काम हो गया, जो मुझे अच्छा भी लगता. पूरे गाँव के लोग अपनी-अपनी गायों को पहुँचाते. चरवाहिनें (चरते हुए देख-भाल करने वाली) थीं- भरवट (भर जाति की बस्ती) की दस-दस बारह-बारह साल की दो लड़कियाँ– धरमदेइया और सेवतिया. यही पूरे गाँव की गाएँ चरातीं. गर्मी के दिनों में दोपहर को और बाक़ी मौसमों में शाम को जब गोरू लौट के आते, प्राय: हर घर से उन्हें कुछ न कुछ खाने को मिलता– रोटियाँ-भात और साथ में गुड़ या भाजी…कभी कुरमरा-चना …आदि. त्योहारों के दिन थाली भर के अच्छा खाना. विजय दशमी के दिन मेला देखने के लिए चवन्नी के अलावा उन्हें पैसे देने की याद नहीं आती. मज़दूरी के रूप में दोनों फसलों पर कुछ अनाज दिया जाता. भरवट है गाँव से पूरब और चरने की सिवान थी गाँव के पश्चिम. तो वे अपनी बस्ती की गायों को लेके आने-जाने की खोर (कुछ चौड़ा रास्ता) पकड़तीं और गाँव के दक्षिण से घूम के गाँव के पश्चिम आतीं…फिर कुछ दूर उत्तर दिशा में चलकर पश्चिम की तरफ़ जाने वाले मोड़ तक हमें अपनी गायों को पहुँचाना होता था. यह मोड़ हमारे घर से पौना किमी दूर है. वहीं से आगे का पूरा सिवान साल में ८ महीने खाली रहता. यह धनखेत थे– ‘कियारी’ कहते, जिसमें सिर्फ़ बारिश में धान की खेती होती.
कुछ दिन तो नया-नया था, तो प्रेम से पहुँचाने जाता. गाय के साथ जाने के मज़े लेता. लेकिन धीरे-धीरे यह रोज़ का रमना हो गया…. फिर चौथी-पाँचवीं में पढ़ते हुए बच्चे के लिए इस कार्य के प्रयोजन व उपयोगिता का भान तो था नहीं, इसलिए बोझ जैसा लगने लगा, तो बोरियत होने लगी. तब मैं पढ़ने का बहाना करके देर से ले जाने उठता और जल्दी पहुँचने के लिए गाय को दौड़ाते हुए ले जाता. मेरी देरी के कारण कभी गोरू आगे निकल जाते, तो दौड़ बढ़ भी जाती. लेकिन मुझे तो बचपन में शुरू से ही दौड़ने-दौड़ के चलने-की आदत थी. यही देखकर प्राथमिक विद्यालय के मेरे अध्यापक बाबू रामधनी सिंह ने मुझे दौड़ में शामिल कर लिया था और १०० मीटर की दौड़ में कोई मुझसे आगे नहीं जा पाता था. सो, गाय के साथ दौड़ने में मन ही मन अपनी दौड़ के अभ्यास का उद्देश्य शामिल हो जाता. उधर हमारी ‘नानी की गइया’ बहुत शांत थी. जिधर बुलाओ, आ जाती, इतनी अज्ञाकारी थी. लेकिन मेरे दौड़ाने पर रोज़-रोज़ दौड़ते हुए उस कलोर को दौड़ने की आदत पड़ गयी. फिर वह भागने की लत में बदल गयी. दौड़ना मंज़िल के लिए होता है, भागना स्वच्छंद है. स्वच्छंदता में पशु-स्वभाव जुड़ गया, तो वह मौक़ा पाकर कभी हरी-भरी फसलों वाले खेतों में हेल गयी और दो-चार गाल खा लिया. हरी फसल का अच्छा स्वाद मिल गया, तो फिर चरवाहिनों की रुकावटों के बंधनो को तोड़ के फलाँगते हुए खेतों में खाने के लिए भागने लगी. बंधन तोड़के कुछ अपने मन की करने का भी एक आनन्द होता है, जो प्राणि मात्र को अच्छा लगता है– वह तो निरी पशु ही ठहरी. सो, यह मनोवैज्ञानिक सुख भी शामिल हो गया.
मैं तो अपने दौड़ने की आदत के कारण उसे क़ाबू में (कंट्रोल) कर लेता था, लेकिन वे चरवाहिन बच्चियाँ तो कैसे कर पातीं!! लिहाज़ा उन्हें धता बताकर फसलें खा पाने में ज़ायक़े के साथ उसे अपने दौड़ने की ताक़त का अहसास भी हो गया. सो, भागने के साथ फसलें खाने की भी लत पड़ गयी…. वह दोनों ही का फ़ायदा उठाने लगी. चरते-चरते कब भौंकी मार के (छिपे तौर पर मुड़के) खेतों में चली जाती और चरवाहिनें लौटाने के लिए वहां पहुँचें, तो कुलाँचे मारके दूसरी ओर भाग जाती…. बस, बाक़ी गाय-गोरुओं के साथ, उनकी भीड़-भरी संगति का पशु-सुलभ अहसास था कि झुंड में जाती-आती, वरना यदि यह भी छोड़ देती, तो उसे खूँटे पे बँध के ही रहना पड़ जाता. तब कितना भी खिलाते-पिलाते वह ‘तिरपित’ (तृप्त, पर उसके आगे सुखी) न हो पाती. कहतूत बन गयी थी– ‘गाय-गोरू चरने-चराने की चीज़ हैं’. वे खूँटे से बँध के सिठा जाते हैं. क्योंकि उनका ‘चरना’ तो चलना भी होता है न. लेकिन आज तो न चारागाह रहे, न खेत ही कभी ख़ाली रहते.
चारागाह ख़त्म होने के प्रयोजन व प्रक्रिया को प्रेमचंदजी ने ‘रंगभूमि’ में बखूबी बताया भी है और एक सूरदास बनाके उसे बचाया भी है. सूरदास भीख माँग के खा लेगा, पर वह ज़मीन मिलमालिक को न बेचेगा, क्योंकि तब जानवर चरेंगे कहाँ और बच्चे खेलेंगे कहाँ? तब शायद ऐसे सूरदास रहे भी हों, लेकिन अब तो नहीं रहे. अदम गोंडवी के शब्दों में –
खेत जो सीलिंग के थे, सब चक में शामिल हो गए, हमको पट्टे की सनद मिलती भी है, तो ताल में.
और खेत खाली न रहने का कारण नयी खेती है- हर खेत में दो-फसलें उगायी जाने लगी हैं, वरना धान के खेत अगहन से लेकर जेठ (नवम्बर से लेकर जून) तक ६-७ महीने चरने के लिए ख़ाली रहते थे. शायद इसीलिए अब ऐसी गाएँ (जर्सी) आ गयी हैं, जो बिना चरे ही रह लेती हैं और उनको देखकर देसी गायों ने भी बिना चरे रहने की प्रकृति बना ली है.
लेकिन उन दिनों चरने के साथ एक और प्राकृतिक काम सहज में ही हो जाता था. गोरुओं में बछड़े भी होते थे और गाएँ प्राय: चरने व एक दूसरे के साथ खेलने-लड़ने के दौरान कब धना जाती (गर्भ धारण कर लेती) थीं, कोई जान ही न पाता था. अब खूँटे पर बंधी गायें जब उत्तेजित होती हैं, चिल्लाती हैं, तब डॉक्टर को बुलाते हैं, जो आके सूई (इंजेक्शन) से वीर्य चढ़ा देता है. इस तरह एक प्राकृतिक क्रिया एकदम यांत्रिक (मैकेनिकल) हो गयी है, जिससे पशुओं की सहजात वृत्तियाँ बदल गयी हैं, वरना इनके गर्भाधान व प्रजनन के समय (महीने) तय होते थे. गाएँ वैशाख-ज्येष्ठ (मई-जून) में बरदातीं (धनातीं) व फागुन चैत्र (मार्च-अप्रैल) में बच्चा जनतीं. और भैसें कार्त्तिक-अगहन (अक्तूबर-नवम्बर) में भैंसातीं (धनातीं) और सावन-भादों (अगस्त-सितम्बर) में बच्चा देतीं. लेकिन अब सब कुछ अनिश्चित-असहज हो गया है…. कभी भी होता है. प्रकृति के साथ एक बड़ी छेड़-छाड़ यह भी है. बहरहाल,
नानी की गइया भी उसी सहज प्रक्रिया में धनायी और एक सुंदर सी बाछी को जन्म दिया, जो थी तो लाल रंग की संगति में ही, पर गुलाबी लाल थी. तब मैं छह में पढ़ता था. जाने किसने हमें बता दिया था कि जिस साँड़ से वह धनायी है, वह सफ़ेद था. इसलिए मां के गाढ़े लाल और बैल के सफ़ेद से मिलकर गुलाबी (हल्का लाल) हो गया. इसकी जैविक-कायिक सचाई का तो पता नहीं, लेकिन यह बिलकुल सच है कि उसका दूध अन्य गायों से गाढ़ा होता था, इसलिए पीने में स्वादिष्ट था. मुझे तो अपने लाये हुए के बचकाने अहसास से कुछ और ही मीठा लगता और उसी का स्वाद है, जो आज भी याद है. मां कहती कि इसके दूध में भैंसों के जैसा घी पड़ता है. लेकिन बच्चा जन के गाय का शरीर बिलकुल खंखड़ (ढीला-ढाला– उजड़ा-सा) हो गया. पूछने पर काका कहते– यह तो होता है. कुछ दिन में खा-पीके फिर पहले जैसी ठीक हो जायेगी. इस चक्कर में उसका चरने जाना लगभग महीने भर बंद रहा…बच्चा जनने के २-३ दिनों पहले से १५-२० दिनों बाद तक. जब जाने के लिए छोड़ा गया, तो भाग-भाग के अपनी बच्ची के पास लौट आती. कुछ दिन बाद डाँट-डपट के ले ज़ाया गया, तो जाने लगी. लेकिन जब मन होता, भाग आती. यह सब सामान्य बातें हैं– सभी गायें करती हैं. हाँ, भैंसों को ज़रूर इतनी पड़ी नहीं रहती…. इसीलिए तो भैंसों की मोट-मर्दी, बेफ़िक्री पर ढेरों मुहावरे बने हैं….
मुझे इस बात की उम्मीद थी, बल्कि निरंतर इसकी प्रतीक्षा रही कि अब इतने दिनों बाद गाय भागना व खेतों में जाके खाना भूल जाएगी. उसकी यह आदत बंद हो जायेगी– इन फ़ंदो से वह बाज आ जायेगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जिन दिनों बच्ची घर रहती, वह अकेले चरने जाती, तब भी जिभ-लपाकी (जिह्वा-स्वाद के लिए लप-झप) करती, लेकिन उस तरह की दबंगई न करती. लेकिन जब दूध देना बंद किया, बच्ची भी साथ में चरने जाने लगी, तो दो-एक महीने बाद बच्ची से पहचान तो रही, पर वह लगाव न रहा…. बाबा तुलसी ने मनुष्य के लिए भी लिखा है– ‘प्रौढ़ भये तेहि सुत पर माता, प्रीति करइ नहिं पाछिलि बाता’.
लेकिन पशु-स्वभाव तो यह भी है कि गाय अपने ही जने बच्चे से ही २-३ साल बाद गर्भवती हो सकती है. गरज यह कि बच्ची से वह जैविक लगाव ख़त्म होते ही गाय पहले जैसी निर्द्वंद्व हो गयी. तो फिर उसी तरह तरफ़ भागने लगी– खेतों में जाके खाने लगी. मेरा बचपना अपनी ‘नानी की गइया’ के इस दौड़ने और खेतों में खाने का कौशल देख-देख के मगन भी होता…. कभी भेलख पड़ जाने (पता न लग पाने) पर एक-दो लाठी खाके भी आती. उसकी त्वचा इतनी नरम थी कि पतली संटी भी लग जाये, तो दाग पड़ जाता. लाठी की तो इतनी मोटी साट पड़ जाती कि देखते न बनता…. सहलाते, तो उसे ऐसा दुखता कि गनगना (झटके से काँप) के उछल जाती…. लेकिन छूटते ही फिर खेतों में जाने से बाज न आती…. मुझे तब भी ऐसा लगने की याद है कि चलो, अच्छा-अच्छा खाती तो है. इसी को कहते हैं पशु-स्वभाव और बालबुद्धि.
लेकिन उसका यह कारनामा बढ़ता गया. आसपास के खेतों में खाती, तो चरवाहिनों को बड़ी डाँट पड़ती. फिर वे आके घर पे उलाहना देतीं. कुछेक बार कोई ग़ुस्सैल खेत-मालिक गाय को न पाता, तो चरवाहिनों को ही एक-दो थप्पड़ दे देता. ऐसे में चरवाहिनों के घर वाले भी उलाहना लेके हमारे घर आते…. इन सबसे हमारे टोले-मुहल्ले में गाय-चर्चा शुरू हो गयी…. ऐसे भागने-पराने याने बदमाशी करने वाली गायों के लिए ख़ास शब्द है – हरही, जो होगा तो ‘चरही’ व ‘चलही’ के अतिरेक वाला नकारात्मक शब्द, पर अब मुझे इसमें ‘हैरान करने वाली’ का अर्थ भी समाया दिखने लगा है– शब्द-महिमा अपरम्पार !! ख़ैर, तब इतनी सुद्धी गाय के ऐसी हरही हो जाने पर विचार होने लगे. मेरी कारस्तानी फफुसाहट में बाहर आते हुए मुखर होने लगी. धीरे-धीरे चर्चा पास-पड़ोस तक में फैली, जिन्होंने देखा ही था मुझे रोज़ ज़बरदस्ती दौड़ाते हुए…. फिर तो प्राय: घुमंतू और ‘क्षणे रुष्टा, क्षणे तुष्टा’ (शॉर्ट टेम्पर्ड) मेरे बड़के बाबू कभी एक दिन घर पर थे और उलाहना आ गया. बस, पिल पड़े मुझ पर…एक मारा नहीं, वरना डाँटों-बातों से जितनी लानत-मलामत हो सकती थी, किया. इसका असर मुझपर तो पड़ा– अपने किये का तीखा अहसास हुआ, ग्लानि हुई, पूरे गाँव के बीच सर नीचा हुआ…लेकिन अपनी गइया पर कोई असर न पड़ा. छूटते ही उसका प्रायोजित कार्यक्रम बदस्तूर जारी….
और फिर एक दिन ऐसा हुआ, जिसकी उम्मीद किसी को न थी…. ऐसा है कि हमारे गाँव के उत्तर एक चमटोल (हरिजन बस्ती) है– सामने वाले ‘इरनी’ गाँव की. उसमें हमेशा से कुछ ऐसे लोग मौजूद रहते, जिन्हें हम तब तो बदमाश कहते थे, लेकिन अब समझ में आता है कि अपने साथ और आसपास होती कुछ छोटी-मोटी ज्यादतियों के ख़िलाफ़ जवाबी कार्यवाही का वह उनका सोचा-समझा कदम होता. ऐसे ही समूह ने एक बार मेरे कुत्ते (शिकारी) को भी घेर के भाले से मार डाला था, क्योंकि शिकारी उनकी चरती हुई बकरियाँ तोड़ डाला करता था. उस बस्ती वालों के कुछ खेत वहां थे, जिनमे जाके खाने के लिए परक गयी थी हमारी गइया और इतनी कुख्यात हो गयी थी कि खोजना-पहचानना था ही नहीं. वही लोग बार-बार खेतों का नुक़सान होते देखकर गाय के पीछे पड़ गये. सो, एक बार शाम को चर के लौटते समय यह खाने के लिए भागके गयी और उन लोगों ने लाठियाँ लेके घेर लिया. उनकी मंशा थी- पकड़ के मवेशी (पशुओं की जेल, जहां प्रेमचंद के हीरा-मोती बंद हुए थे) में बंद कराने की– याने क़ानूनी प्रक्रिया से इस नुक़सान को रोकने की. मारने और इस तरह मारने की तो कतई न थी, क्योंकि तब तक मूल्य व आस्थाएँ ज़िंदा थीं.
लेकिन उन्हें इसकी क्षमता का पता न था कि वे इसे इतनी आसानी से पकड़ न पाएँगे…. सो, सबको छका के भाग तो निकली पट्ठी, लेकिन थोड़ी ही दूर पर एक बाहा (बहने वाला याने छोटा नाला) पड़ गया. उसे भी वह कूदके पार तो हो गयी, लेकिन तब तक संयोग ऐसा बना कि जब वह हवा में बाहे के बीच थी– अगले दोनों पाँव उस पार पहुँचने ही वाले थे, लेकिन पिछले दोनो पाँव पीछे की ओर फैले हुए हवा में ही थे…कि इस पार से घुमाके मारी गयी एक नौजवान की लाठी गाय के पिछले दाहिने पैर में घुटने के नीचे और खुर के ऊपर लग ही तो गयी…. प्रहार इतना तेज था कि गाय नाला पार तो हो गयी, पर जो गिरी, तो उठ न सकी – एक भी कदम चलने की तो बात ही क्या!!
इस पूरे दृश्य-वितान पर -ख़ासकर नाले को लेकर- मुझे तब भी सुभद्रा कुमारी चौहान का वह छंद याद आया था– ५-६ में पढ़ते हुए ही अंत्याक्षरी जीतने के लिए याद कर डाला था, अब भी आता है. वही गाय के इस दुःख से कुछ हद तक ही सही, मेरे रेचन का माध्यम बना–
‘तो भी रानी मार-काटकर चलती बनी सैन्य के पार,
किंतु सामने नाला आया, था यह संकट विषम अपार.
घोड़ा अड़ा नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार, रानी एक शत्रु बहुतेरे होने लगे वार पर वार.
घायल होकर गिरी सिंहिनी उसे वीरगति पानी थी…बुंदेले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी…
लेकिन हमारी गाय को वीरगति नहीं पानी थी. उसे रानी की तरह वार पर वार न सहने पड़े थे, सिर्फ़ पाँव में एक मार लगी थी. और वहाँ शत्रुओं ने घेर रखा था, यहाँ मारने वाले गाय का हाल देख के भाग खड़े हुए थे. अवश्य पापबोध रहा होगा, जो बाद में सामने आया.
उस वक्त तो थोड़ी ही देर में खबर आ गयी. काका दौड़े. फिर हम भी पीछे-पीछे… और देखते ही देखते आधा गाँव जुट गया, जो उस जमाने की सहज सामाजिकता थी. बीमार या मरे पशुओं को ले जाने का सामान्य तरीक़ा है कि आगे-पीछे के दोनो पावों को अलग-अलग मज़बूती से बांध देते हैं. फिर आगे-पीछे के बंधे के नीचे से मज़बूत बांस डाल के दोनो तरफ़ से तीन-तीन चार-चार लोग कंधे से उठा लेते हैं- पीठ नीचे होती है, पाँव ऊपर. लेकिन इसका तो पाँव ही घायल था– बांधते कहाँ? तो काका ने अपनी बड़ी वाली पलंग (खाट का ही बड़ा आकार) मंगायी. ८-१० लोगों ने मिलकर उठाके गाय को पलंग पर लिटाया. पलट के गिर न पड़े, इसके लिए मोटी रस्सी से खाट के साथ उसे मज़बूती से बांध दिया गया. फिर सात-आठ लोगों ने चारों तरफ़ से मिलके कंधों पर उठा लिया– घर लाये.
तब तक आदमियों के अस्पताल भी ज़िलों पर ही रहे हों शायद, पशु-चिकित्सालयों की तो बात ही क्या!! हमारे लिए दो-एक निजी (प्राइवेट) डॉक्टर बाज़ार में अवश्य आ गये थे, पर चलन में गवईं वैद्यों का इलाज ही था. लेकिन पशु-रोगों के लिए एक-दो जानकार हर गाँव में हुआ करते थे- प्राय: पिछड़ी जाति के ही. हमारे गाँव की चमटोल में सूक्खू भइया थे और उस बस्ती से ५ मिनट चलकर पश्चिम जायें, तो वह चमटोल थी, जहां के लड़कों ने गाय को मारा था और उसी बस्ती के खरपत भइया थे– सूक्खू के जोड़ीदार. पशुओं के इलाज तथा तब के कच्चे घरों की छवाई (मरम्मत) में सरनाम कुशल यही दोनों थे. सूक्खू को बुलाया गया, लेकिन उसके पहले खरपत खुद आ गये– उन लड़कों ने बताया, तो वे अपने को रोक न सके– प्रेमचंद की ‘मंत्र’ कहानी को याद कर लीजिए, यह नैतिक दायित्व-बोध समझ में आ जाएगा– यहाँ तो अपनी बस्ती के बच्चों के किये का अतिरिक्त दाय भी उन पर था. बहरहाल, दोनो ने देखा, तो पैर पूरा टूटा न था, पर हड्डी बुरी तरह चटक गयी थी. पहले तो हल्दी डालके एक लोटा गर्म दूध पिलवाया और ऐसा दस दिनों तक रोज़ करने की हिदायत दी, जो ढरके (बांस के गुल्ले को कलम की जीभ (निब) के आकार में काट के बना सामान) से रोज़ पिलाया गया.
अब सलाह-मशवरा करके इलाज शुरू किया. आज जो मुझे याद है, पहले तो सहा-सहा के (याने कोमलता से कि दुखे न) दोनो ने घुटने के नीचे का पाँव घाव के साथ पानी में भिंगा-भिंगाके कपड़े से धोया…. गाय तो पाँव हिला भी न पाती थी– एकदम बुत पड़ी थी. फिर हल्दी-प्याज़ में जाने क्या-क्या डाल के कड़ू (राई के) तेल में चुराया गया और उसे घाव के ऊपर नीचे मिलाकर एक फ़िट के मान में छोपके कपड़े से मज़बूत बांध दिया गया. समुझ भइया लोहार को पहले ही बुलवा लिया गया था. उनसे बांस की एक-एक फ़िट की इतनी खपाचियाँ बनवायी गयीं कि उतनी दूर का पाँव ढँक सके. उन्हें रंदे से घिसकर कोमल कराया गया, ताकि पाँव में गड़े (चुभे) न. सारी खपाचियों को एक-एक करके पतली-मज़बूत रस्सी से एक में बांधा गया. फिर उससे घायल स्थल को घेरकर कपड़े के फ़ीतेनुमा टुकड़ों से बांधा गया और ऊपर से टाट (बोरे) के टुकड़े से चारो तरफ़ से ढँककर रस्सी से बांध दिया गया और हिदायत दी गयी कि एक महीना ऐसे ही रहेगा…. अब तक तो आप समझ ही गये होंगे कि यह एक महीने का देहाती पलस्तर (प्लास्टर) लगा.
इस बीच गाँव के सारे स्त्री-पुरुष आते-जाते रहे, लेकिन भीड़ बराबर बनी रही…. इसी में कब वे मारने वाले चारो-पाँचो बच्चे भी आके खड़े हो गये, जिन पर किसी का ध्यान ही नहीं गया और जाते हुए अगर वे सब काका के सामने हाथ जोड़कर माफ़ी माँगने न खड़े होते, तो कोई जानता भी नहीं. काका ने भी तब अपने ग़ुस्सैल स्वभाव के विपरीत यही कहा– कोई बात नहीं बेटा, गाय हरही हो गयी है, तो ऐसा सब होना ही था. तभी खरपत भइया ने वह बात बतायी कि इनकी मंशा मारने की नहीं, पकड़ के मवेशी ले जाने की थी. पर वाह रे तब का नैतिक-मानवीय बोध– कि उनसे रहा न गया– वे आये…. क्या तब की वह प्राय: अनपढ़ व्यवस्था आज की सारी देशी-विदेशी शिक्षा व प्रगति पर भारी नहीं है!! जाते हुए सबने गाय के भी पाँव छूए– शायद क्षमा-प्रार्थना की हो…. इसे तो आज की तथाकथित आधुनिक-वैज्ञानिक नाम की शिक्षा अंधविश्वास ही कहेगी, जो सीधे बताती है कि मनुष्य एक सामाजिक जानवर है– अ मैन इज अ सोशल एनीमल, तो वह आज आदमी बने कैसे!!
वह पूरा महीना बहुत त्रासद गुजरा– गाय के लिए. हमारे लिए तो फिर भी बस देखभाल-सँभाल व इसके लिए मेहनत की बात थी, साँसत तो उसी की हुई. सहना तो उसे ही पड़ा. पहले दिन ज़मीन पर मोटी चद्दर डाल के बायीं करवट लिटाया गया. उसी पर गोबर-मूत्र होता था, जिसे मां ही धोती थी और हर दिन चद्दर बदल दी जाती– ६-७ लोग मिलके इस से उस चद्दर पर करते. दो दिन तो कुछ नहीं खाया था उसने, तो सबसे देर तक बड़ी बहन उसके पास रहती और रोटी के कुछ टुकड़े या थोड़ा-मोड़ा भात खिला के छोड़ती– जो उसकी आदत रही हमारे लिए भी. फिर गरदन थोड़ा-सा उठा के रोटी-घास…आदि खाने लगी. तब घायल पैर की तरफ़ भी लिटाने की कोशिश की गयी, जिसमें उसने खूब सहयोग किया– शायद ३-४ दिनों से एक ही तरफ़ लेटे-लेटे थक गयी थी या वह पूरी अलंग बहुत दुख गयी थी. लेकिन ज्यादा रह नहीं पायी. २-४ घंटे बाद पलटने की कोशिश में ऊपर का बायाँ पैर पीटने लगी और हमें जाके बदलना पड़ा. लेकिन हर कुछ के बावजूद इस बात का पूरा ख़्याल रखा गया गया कि घायल पैर पर न तनिक भी ज़ोर जाये, न घायल हिस्सा ज़रा भी हिले– यही खरपत-सुक्खू ने कहा था– वही ‘नो मूवमेंट’ वाला एहतिहात.
१२-१५ दिनों बाद गाय बायीं तरफ़ को बैठने लगी. अब तक पड़ी थी, तो ठीक था– सेवा ज्यादा थी, लेकिन निगरानी कम. अब तो उल्टी स्थिति बनी सेवा कम होने लगी, क्योंकि खा-पी लेती थोड़ा बैठ के, लेकिन निगरानी बढ़ गयी, जो चौबीसो घंटे के हर मिनट का काम हो गया. डर था कि कुछ पुजते (हील होते) घाव से आ रही ताक़त वश वह उठने की कोशिश करेगी और सब किया-धरा चौपट हो जायेगा. दिन में तो कोई भी कर लेता, लेकिन रात को हम बच्चे जाग न सकते थे, सो काका-मां को ही झेलना पड़ता.
गाय की इस मर्मांतक पीड़ा और पूरे घर की इस परेशानी को देखकर मुझे अपने किये का अहसास बड़ी शिद्दत से हुआ, जिसमें बचपने की अबोध भावुकता भी मिल गयी होगी…. ज़मीन पर विवश लेटी वह प्यारी-सी गाय इतनी निरीह लगती कि कलेजा मुँह को आ जाता. कुलाँचे मारते उसके पाँव सुन्न पड़े थे. आँखें ऐसी पथराई कि आज भी मन की आँखों में अटक गयी हैं. पछतावे की पीड़ा का गहरा अहसास अब भी खुद को माफ़ नहीं कर पाता. यह संस्मरण भी मूलतः उसी पीड़ा के असह्य होते जाने की मन: स्थिति का परिणाम है. इस पीड़ा-पश्चात्ताप के दौरान तब के अपने बच्चे होने की सफ़ाई-दुहाई अपना मन कई बार देता है, पर मस्तिष्क का जज मन की इस दलील को ख़ारिज करके पीड़ा की स्थायी सजा मुक़र्रर कर ही देता है. अब तो इस पीड़ा के साथ ही मुझे रहना-जाना है…. तन-मन के इस अटूट जुड़ाव में तन का मामला रासायनिक है. मेरी रगों में उन दिनों जो खून दौड़ा, उसका एक अहम हिस्सा उस गाय की रक्त-मज्जा से पिस-छनकर निकले दूध से ही बना था. सो, मेरी देह के अंगों में उसकी भभूत ताक़त बनकर आज भी विद्यमान अवश्य है.
मन में उसकी यादें हैं और तन-मन मिलाकर जो मेरा मानस बना है, उसमें उसके अंश जीवंत हैं, इसका प्रमाण आप (पाठकों) को तो देने की ज़रूरत नहीं है. आज भी मेरे सामने जब कोई गाय आती है, वह हिस्सा जाग उठता है. इसीलिए उसमें सबसे पहले मुझे वही दिखती है…वह एक गाय मेरे मन के आईने में दुनिया भर की गायों में संतरित होके अनेक हो गयी है और उसी अनुपात में पीड़ा-पछतावा बढ़ गया है– एक मनमोहन तौ बसि के उजार्यो हमैं, हिय मां अनेक मनमोहन बसावौ ना….
महीन भर बाद सूक्खू भइया पलस्तर खोलने आए– बीच में कई बार आते-जाते देख जाते– छू-सहला के टोह लेते- उनके चेहरे पर संतोष का भाव होता. उनके तनिक तिर्यक होठों में बसे किंचित बड़े दाँतों से बनती छबि में सनातन मुस्कान छपी रहती…जब पलस्तर खुला, गाय को उठाया गया, उसने तीन पाँवों पर खड़े होकर आहिस्ता से घायल पाँव धरती पर रोपा, तो भचक के सहसा एक कदम आगे बढ़ चली…तब सूक्खू भैया की सनातन खुली मुस्कान विस्फारित होकर खिल उठी थी…. ५-६ कदम पर ही बढ़कर गाय को रोक लिया था…धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा चलाने की हिदायतें दीं…. पगहा पकड़ के रोज़-दर-रोज़ चलाते… ५-६ दिनों में चरने वाले मैदान तक पहुँचे थे– गोया वह फिर से बच्ची होके चलना सीख रही हो…. कुदरत का करिश्मा कहें या प्रकृति की रासायनिक प्रक्रिया, गाय अपना सारा नित्यकर्म पूर्ववत करने लगी, लेकिन फिर कभी वह दौड़ न पायी. मेरे दौड़ाने का इतना बड़ा दंड भोगा उस बिचारी ने. उसकी इस विवश दयनीयता पर बड़ा तरस आता- पश्चात्ताप और बढ़ जाता…. घायल स्थल पर स्थायी सूजन उस घाव के इतिहास की चिर साक्षी बन कर स्थापित हो गयी. लेकिन जीवन के सारे क्रम चले. फिर गर्भवती हुई…. बछड़ा जना. तब मैं दर्जा ९ में पढ़ने लगा था. एक और साल परिवार ने छक के दूध पीया….
और उसी के बाद मेरे दसवीं में पढ़ते हुए वह सबसे बड़ा मनहूस कातिक (अक्तूबर) आया, जब हमारे पिता स्वरूप पालक काका चल बसे. अब दसवीं की बोर्ड परीक्षा वाली पढ़ाई के साथ पूरी खेती और पशुओं की देखभाल व खिलाने-पिलाने का सारा भार मुझ पर. दोनो बैल अटाल्य थे. दान में मिली एक बाछी के साथ गोवंश के चार प्राणी हो गये थे. जीवन की क्या फ़ितरत है कि परम प्रिय नानी की गइया ही भारी पड़ी…. यहीं मन का एक चोर बता दूँ कि मेरा बचपन सदा से ही एक भैंस की दमित वासना का शिकार रहा…. जब गाँव के सारे हम-उम्र दोस्त अपनी भैंसों की पीठ पर चढ़के मचकते हुए चलते, तालाब में पीठ पर बैठ के तैराते…तो अपने ब्राह्मण होने पर मेरा मन विद्रोह करने लगता– ब्राह्मण भैंस क्यों नहीं रख सकता!! शायद यही विद्रोह भाव ही चार गायों के बदले एक भैंस रखने की सहूलियत का विचार बनकर फूटा होगा और इतना दुर्निवार हो गया होगा कि मैंने अपने से पूरब वाले यादवों, जो भैंसों के जिउकिया होते हैं, के बड़े गाँव मैनपुर में भैंस लेने की इच्छा ज़ाहिर कर दी होगी.
वह पूरा गाँव ही हमारा यजमान हुआ करता है और तब सचमुच का भक्तिभाव बहुत प्रबल हुआ करता था. लिहाज़ा सभी अपनी-अपनी भैंस लेने के प्रस्ताव देने लगे और पैसे न होने का सच बता-बताकर में टालने लगा…. लेकिन जब एक शाम खम्ही यादव अपनी ओसर (गाय की ‘कलोर’ ही भैंस में ‘ओसर’ होती है) का पगहा थामे आये. मेरे दरवाज़े पर खूँटे में बांधते हुए बड़ी-बड़ी मूँछों में मुसकाते हुए बोले– ‘इहै बान्हि के जात हई, बियाई त पैसा (२५०/) दीहा गुरुजी’ (यही बांध के जा रहा हूँ, बच्चा देगी, तब पैसा दीजिएगा गुरुजी). यह तब एक प्रकार का विनिमय था, जिसे ‘बिअइले के करारे’ (बच्चा होने के वादे पर) कहते थे. इस प्रकार मेरी बचपने की दमित हसरत और खम्ही यादव के भक्तिभाव का योग ही ‘नानी-गइया-परिवास’ के हटने का कारण बना. चारो को मैंने अपने से सटे पश्चिम बड़ेपुर गाँव के हरिजन परिवार को बेचा. उनके जाने के दुःख में भैंस के आने का सुख भी कहीं खो गया.
इस प्रकार उस वक्त ब्राह्मण के दरवाज़े पर भैंस बांधने और अपने खूँटे को ‘गोवंश-विहीन’ करने का दोहरा दाग मेरे माथे लगा. लेकिन वे सब बातें अब ख़त्म हो चुकी हैं. और इधर ७-८ सालों से अपनी बच्ची किरन ने गाय रखी है. संयोग से यह भी नानी की गइया के रंग की है– बस, हल्की लोही, लेकिन जैसे उसी की अनुहारि हो. इसके दो बेटे सरकार की योजना में छोड़े जा चुके हैं– तीसरी बच्ची अभी १५ दिनों पहले सुई से गर्भवती करायी गयी है…. अब फिर से घर का खूँटा आबाद हो गया है. बनारस रहते कभी घर जाने से आलस्य रोकता है, तो नानी की गइया की याद अपनी अनुहारियों से मिलने का उछाह जगा कर बरबस ही स्टेयरिंग पर बिठा देती है. वहाँ पहुँचते ही मां-बेटियों के पास खड़ा होता हूँ…दोनो अपनी गरदने फैलाके माथा सामने कर देती हैं. सहलाते हुए लगता है– ‘जनुक गइया जियतइ’…!!
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सम्पर्क
‘मातरम्’, २६-गोकुल नगर, कंचनपुर, डीएलडब्ल्यू, वाराणसी -२२१००४
९४२२०७७००६ एवं ९८१९७२२०७७
बेहतरीन संस्मरण। बचपन की तमाम यादें ताज़ा हो गयीं।
बहुत रोचक मार्मिक प्रस्तुति है , सबकुछ सहज , स्नेहिल कार्य-व्यवहार को प्रदर्शित करता हुआ । पढ़ते हुए गाँव हो आया ,,,बेहतरीन प्रस्तुति के लिए साधुवाद , बधाई
नाॅस्टेल्जिक। सुखद।
तुक्के से ब्राउज़र में ले गया और वहाँ टिप्पणी करते की जगह मिल गयी । सत्यदेव जी त्रिपाठी ने अपना संस्मरण लिखा है । यह कहानी मात्र है या उनके जीवन का संस्मरण, लेकिन ‘नानी वाली गइया’ ने मुझे पग पग पर रुला दिया । मुझ जैसे भावुक व्यक्ति की आँखें छलक जाती हैं । नानी के घर से लेकर आने के बाल सुलभ कौतूहल से मेरा मोर मन नाचने लगा । सँभालते और बरात सही शब्द हैं । मैंने पहली बार ग़ौर किया है कि इस या सभी लिंक्स में हिन्दी का पूर्णविराम नहीं बल्कि अंग्रेज़ी भाषा का फ़ुलस्टॉप है । बहरहाल, सत्यदेव जी के घर में पहले गायें हुआ करती थीं । उनकी बहनें गायों और बछड़ों की देखभाल करती थीं ।
नानी के घर से लायी गयी गइया से त्रिपाठी जी को स्नेह है । क्योंकि वे अपने बचपन में काका साथ 20-25 किलोमीटर पैदल चलकर अपने गाँव पहुँचे थे । उस ज़माने में अतिथि सत्कार का चलन था । मैं और छोटी बहन अपनी भाभी (हम माँ को भाभी कहते हैं) के साथ ननिहाल जाते थे । मैं 5वीं कक्षा का छात्र था । नानी के घर के आस-पड़ोस के परिवार हम तीनों को एक दिन का भोजन करने का निमंत्रण दे जाते । एक हफ़्ते तक हम नानी के हाथों से बना हुआ भोजन नहीं खा पाते ।
20-25 किलोमीटर के सफ़र में पत्तों के दोने में इमरती खाने का वर्णन सुंदर है । मेरे एक अज़ीज़ की मम्मी इमरती को अमृती कहती हैं । सचमुच इमरती में अमृत होता है । नगरों और महानगरों में कलेवा शब्द प्रचलन में नहीं है । हमारी गृह सहायिका एटा ज़िले की रहने वाली है और उसका पति शिवराम पल्लेदार है । गृह सहायिका दावत शब्द का इस्तेमाल करती है । यहाँ चलने वाले ऑटो रिक्शा को टेम्पो कहती है । वैसा ही मज़ा त्रिपाठी जी के संस्मरण में है । कभी वे थककर अनमने होते हैं और फिर कलेवा और आतिथ्य से ख़ुश और तरोताज़ा महसूस करते हुए अपने गाँव की यात्रा पूरी करते हैं । ‘नानी वाली गइया’ की टाँग को तोड़ने की दुर्घटना भी रुलाने वाली है । जब मैं बच्चा था तब एक लुहार बाँस की फचकियों से बाँह या टाँग पर बाँधकर ठीक कर देता था । यात्रा वृतांत विस्तार से लिखा गया है । सभी ने पढ़ लिया होगा । अंततः मैं अपनी टिप्पणी यहीं समाप्त कर रहा हूँ । धन्यवाद प्रोफ़ेसर अरुण देव जी ।
मर्मस्पर्शी संस्मरण, काफी रोचक कथात्मक विन्यास।इस सृष्टि में सबका हक बराबर है।जीने का अधिकार जितना मनुष्य का है उतना ही हर जीव का है। साहित्य में मनुष्येतर प्राणियों पर बहुत कम लिखा गया है। इस क्षेत्र में बहुत कुछ लिखा जा सकता है।
दो भाग में पढ़ा।उस समय गांव के सामाजिक परिवेष एंव पशु प्रेम का विस्तृत वर्णन ,बहुत अच्छा लगा।
सादर प्रणाम,
इस संस्मरण से मुझे पता चला कि मेरे नानाजी ही आपके मौसाजी थे।संबंध अनावरण से हृदय पुलकित हो उठा।संस्मरण सुंदर ही नहीं प्रवाहमय भी है।निवेदन है कि इस प्रकार की पुरानी बातों को बताकर हम जैसे अपेक्षाकृत नई पौध का ज्ञानवर्धन करते रहें।एक बार पुनः प्रणाम
अपना परिचय दें पूरा…
प्रकृति से दूरी बनाने के साथ-साथ पशु और पक्षी भी हमारी दुनिया से विस्थापित होते जा रहे हैं। ऐसे में सत्यदेव त्रिपाठी का यह संस्मरण महादेवी वर्मा का स्मरण करा देता है। हिंदी में दुर्भाग्य से ऐसा लिखने वाले कम होते जा रहे हैं।
अति सुंदर।
अगर आपको अपने सरीखे गायों के दोस्तोएव्स्की को पढ़ना है तो वाणी प्रकाशन से “दस समकालीन नॉरवीजी कहानियाँ” ज़रूर मंगवाएं। इसमें संकलित “गाय”कहानी के लेखक हैं Lars Amund Vaage। उनकी संगिनी (सुकवि)Hanne Elisabeth Bramness इत्तेफ़ाक से फेस बुक पर हैं।
अगर गाय संबंधी लेखन का कोई संकलन बनता है तो वर्तमान पाठ और Vaage की कहानी सहोदर पाठ होंगे और एक दूसरे का उद्दीपन करेंगे।।
गज़ब आनंद आया पढ़कर भावुक हुई , और आश्चर्य भी हुआ आपके करतब देखकर चाचा और अपने ऊपर तरस भी आया जिंदगी का असल मज़ा तो लिया ही नही आपने अपने बड़ों को इतना काम और संघर्ष करते देखा है हम लोगों ने भी आपमें यही देखा और सुना है…
इतना सरल सरस शानदार संस्मरण हिन्दी में हाल में नहीं लिखा गया| यह संस्मरण तत्कालीन समाज के बारे में उत्कृष्ट चित्र प्रस्तुत करता है| मानव के सामाजिक पशु से लेकर आधुनिक यंत्रीय पशु हो जाने के बीच यह मानवता के उदाहरण प्रस्तुत करता है|
फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारू लागी॥
यह भी मुग्ध कर देने वाला संस्मरण!
एक युग जो बीत गया, वह इस तरह जीवंत हो उठा।
विचार के कितने आयाम खुले।
बाजार पुल्लिंग शब्द है लेकिन यहाँ उसे संभवतः स्त्रीलिंग में प्रयुक्त किया गया है।
जिसे मवेशी कहा गया है उसे कांजी हाउस कहा जाता है।
नानी का निस्पृह त्याग और पिता जी के मित्र का आत्मीय आतिथ्य अविस्मरणीय है।
बेहद मार्मिक संस्मरण।बधाई आपको।
गाय के साथ यात्रा का वर्णन रोचक-रोमांचक है। आगे सारा प्रसंग बेहद मार्मिक हो जाता है। पशुओं की कौन कहे, अब तो इंसानों की भी ऐसी सेवा नहीं होती। गाय का पैर टूटने को लेकर बचपन की एक घटना याद आ गई। फुटबॉल खेलते हुए बड़े भाई साहब का पैर टूट गया था। उनकी चिकित्सा एक वैद्य ने की थी। प्लास्टर नहीं लगता था। वैसे ही बाँस के टुकड़ों को बांध दिया जाता और वे किसी तेल से मालिश करते थे। उनकी फीस महज एक नारियल और सवा रुपये होती थी। 15 दिनों में भाई साहब फिर से मैदान में पहुँच गए!
यह अद्भुत संस्मरण है यह। हिंदी में ऐसा कम ही लिखा जाता है।
संस्मरण पशु के माध्यम से समकालीन समाज ,संवेदनाओं , बाल्यावस्था की सहज प्रवृर्तियों का तो चित्र प्रस्तुत करता ही है, पूर्वांचल के सहज बोले जाने वाले शब्दों को उनकी अर्थ सामर्थ्य की गहराई से भी परिचित कराता है. कुल मिला कर एक अविस्मरणीय संस्मरण के लिए साधुवाद.