नौटंकी की लोक परम्परा और अतुल यदुवंशी का रंगकर्म
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साहित्य व कला अनुशासनों के गहन अध्यवसायी व मर्मज्ञ विद्वान डॉक्टर ज्योतिष जोशी की नयी किताब ‘नौटंकी : लोकपरंपरा और संघर्ष’ ‘सेतु प्रकाशन’ से आयी है. वैसे उनकी प्रभूत लेखन-वृत्ति से आती (अब तक प्रकाशित लगभग ढाई दर्जन) सबुद्ध कृतियों की गति इतनी त्वरित है कि यही उनकी नयी किताब है कहने में जोखम भी है– शायद इस बीच कोई और आ गयी हो या यह लेख छपते-छपते आ जाये!! लेकिन जो भी कृती कार्य सामने आता है, वह ज्योतिषजी की मेधा व लेखनी से निकला अपने ढंग का महत्वपूर्ण कार्य होता है, जिससे सम्बद्ध विषय की गरिमा बढ़ती है और सारस्वत संसार में उल्लेखनीय समृद्धि आती है. जोशीजी की ऐसी प्रतिभा के क़ायल लगभग सभी हैं.
किताब है नाट्य-संसार के विरासती लोक-नाट्य रुप नौटंकी पर, तो किताब की प्रस्तुति भी नाट्य-प्रस्तुति की तरह ही हुई है. आप नाटक देखने सभागार में बैठिए, तो पर्दा खुलते ही मंच देखकर जो धारणा बनती है, नाटक के दौरान कभी वह आमूल बदल भी जाती है, जिसका अपना सुख भी होता है. उसी तरह यहाँ भी जिल्द पर लिखे मूल नाम में जिल्द खुलते ही इज़ाफ़ा होता है– विशेष संदर्भ– अतुल यदुवंशी. और फिर पता चलता है कि यह किताब अतुल यदुवंशी के रंगकर्म पर ही आधृत है. विशेष ‘संदर्भ’ नहीं, वही सब कुछ है. तो फिर आश्चर्य होता है कि पुस्तक के इस नायक का नाम मुखपृष्ठ पर क्यों नहीं आता!!
अतुल यदुवंशी प्रयागराज की मूलभूमि से जुड़े एक नामचीन रंगकर्मी हैं. नौटंकी के क्षेत्र में उनके कार्य को ज्योतिषजी स्वतंत्र किताब लिखने जितना ज़हीन और प्रभावी पाते हैं. और विवेच्य किताब की गवाही में इस प्राचीन लोकनाट्य रूप को आधुनिक बनाने में अतुलजी के प्रयत्नों व कार्यों का विशेष -बल्कि एकमात्र- योगदान है, जिसका सम्यक् आकलन अच्छा बन पड़ा है. ध्यातव्य है कि ज्योतिषजी की खोजी नज़र कला-क्षेत्र के ऐसे कलाकारों व उनके कार्यों पर बराबर रहती है, जिसका प्रमाण है अभी कुछ सालों पहले गुजरात में आनंद के एक ऐसे ही युग-प्रवर्तक चित्रकार कनु पटेल की खोज और उनके चित्र-कर्म पर ‘बहुब्रीहि’ नाम से जोशीजी की महत्त्वपूर्ण पुस्तक. तो जिस तरह गुजरात में हो रहे चित्रकला-कर्म को हिंदी कला-संसार में लाना एक विरल योगदान है, उसी तरह हिन्दीभाषी क्षेत्र के इस प्रभावी नाट्यरूप के आधुनिक स्वरूप को सामने लाना भी कई दृष्टियों से उपयोगी व महत्त्वपूर्ण होगा. और यह कला-क्षेत्र को नौटंकी-विधा से परिचित कराने तक सीमित न रहकर तमाम लोक रंगकर्मियों के लिए अपने इलाक़ों में ऐसे लोक कला रूपों पर कार्य करने के लिए प्रेरक भी सिद्ध होगा.
पुस्तक की भूमिका (पूर्वरंग) पूरी किताब की ऐसी कुंजी (मास्टर की) है, जिसे पढ़कर आप पूरी पुस्तक का जायज़ा पा जाते हैं. यह जोशीजी जी की स्पष्ट दृष्टि और उसे खोलने वाली दृश्य-योजना का पक्का प्रमाण है. सबसे पहले वे स्वाधीनाता के बाद की स्थितियों से जोड़ते हुए इस अध्ययन की प्रासंगिकता को उचित ही रेखांकित करते हैं–
‘भारतीय रंगमंच ने जिस पश्चिमी रंग-पद्धति को अपनाया है. उसे देखते हुए अपनी पारंपरिक पद्धति के सर्जनात्मक सूत्रों को खोजना, संजोना, प्रकाश में लाना आज ज़रूरी हो गया है’. फिर इसकी उपादेयता को स्थापित करते हुए लिखते हैं –
‘यह पुस्तक मूलत: नौटंकी के उत्स खोजने से शुरू होती है, उसे भारतीय रंग़-चिंतन के शास्त्रीय आधारों में परखने का उपक्रम करती है. तदनंतर लोकधर्मी रूप में उसके होने के सूत्रों को थाहती (थहाती) हुई संस्कृत रंगमंच की शास्त्रीय परंपरा-क्षरण के बाद उसके पुनरोदय तथा उसकी लोक-व्याप्ति को समझने का प्रयत्न करती है. लम्बे कालखंड में राजनीतिक अस्थिरता के कारण मंदिरों की शरणागत हुई यह शैली परवर्ती समय में किंचित बदली हुई छवि के साथ प्रकट हुई, जिसमें नाना तरह के विजातीय प्रभाव और लोक-लुभावन तत्व आ जुड़े थे. यह वह समय था, जब लोक ने उसे हाथों हाथ लिया और अपने जीवन-व्यवहार में शामिल भी किया. पर बाद में उसकी लोक-लुभावन युक्ति ने ही उसे संकट में डाल दिया और भद्र समाज में वह अछूत की तरह देखी जाने लगी’.
और यहीं आते हैं अतुल यदुवंशी,
‘जिन्होंने पारम्परिक नौटंकी का नवाचार कर उसे न केवल शास्त्रीय विन्यास से जोड़े रखा, वरन उसे आधुनिक चेतना से सम्पन्न करते हुए आधुनिक रंग़-विधानो से भी सम्बद्ध कर दिया’.
कहना होगा कि यह भूमिका समूची पुस्तक के क्रमागत व्योरे और उसकी अर्थवत्ता तथा यथातथ्यता की आदमकद आईना ही है.
इस प्रकार एवं इस क्रम में भूमिका के बाद आता है पहला अध्याय- ‘पारम्परिक नाट्य नौटंकी : उद्भव और विकास’, जो किसी विषय को उसके आदि से क्रमश: सोपान-दर-सोपान विवेचित करने की भारतीय अध्ययन-परम्परा के अनुसार है. यह पूरा अध्ययन मूलत: नाट्य-शास्त्र पर आधारित है– बल्कि उस पर आधारित जगदीश चंद्र माथुर एवं नेमिचंद्र जैन आदि विद्वानों की पुस्तकों से संदर्भित है.
लेखक ने स्पष्ट कहा है – ‘पारम्परिक भारतीय नाट्यों की मीमांसा का उपजीव्य नाट्य शास्त्र ही है’. इस अध्याय के शुरुआती २८ पृष्ठों में भारतीय नाट्य याने संस्कृत क्लासिक के उदय एवं उत्कर्ष के समूचे सिलसिले के पूरे परिप्रेक्ष्य को, जिसमें भास पर विशेष ध्यान है, जोशीजी इतने संक्षेप में बता देते हैं कि ‘गागर में सागर’ भरता यह पूरा विवेचन जैसा पढ़ते-देखते बनता है – वैसा बखानते नहीं बन रहा.
फिर पारम्परिक नाट्य पर आते हैं, तो महज़ १२ पृष्ठों में उसका पूरा संभार खड़ा कर देते हैं. और उसी के साथ यह भी कि ‘११वीं शताब्दी के अंत से लेकर १२वीं तक संस्कृत नाट्य-प्रवाह के क्षीण होने का मूल कारण राज्याश्रय का समाप्त होना था, इसके बाद पारम्परिक नाट्यों ने इस क्षीण होती परम्परा को नया जीवन दिया. जोशीजी को संस्कृत व पारंपरिक नाट्यों की सोद्देश्यता की चर्चा करने की अपेक्षा इस पर विचार करना ज्यादा ज़रूरी लगता है कि ‘संस्कृत नाट्य की अवनति के बाद अचानक दृश्य में उभरीं और रंग़-मानकों पर विकसित हुईं ये पारम्परिक नाट्य शैलियाँ भारतीय नाट्य को जन-जीवन से जोड़ने में कितनी कारगर हुईं और सही मायनों में नाट्य को बचाने में कितनी समर्थ हो पायीं’.
फिर इन्हीं पारम्परिक नाट्य की श्रृंखला में नौटंकी पर आते हैं और शास्त्रीय एवं लौकिक (लोक-रूढ़ियों) मान्यताओं आदि सभी प्राप्त सूत्रों के आधार पर इसके उद्भव, विकास व नामकरण की समुचित चर्चा विधिवत होती है. इसके नामोद्भव के रीढ़-स्वरूप ‘अनेक का एक’ और ‘एक में अनेक’ की मानिंद ‘संगीतक’ की अर्गला का ख़ास उल्लेख समृद्धिकारक है– ‘संगीतक का उद्भव तो ईशापूर्व हुआ, लेकिन उल्लिखित हुआ- चौथी-पाँचवीं शताब्दी में वररुचि के उभयाभिसारिका ‘भाण’ में’. फिर जगदीश चंद्र माथुर के हवाले से ‘संगीतक’ ही वर्तमान आंचलिक शैलियों का मूल है’, जिसकी प्रतिध्वनि ‘सांग’ व ‘संगीत’ आदि में मौजूद है.
‘नौटंकी’ के शास्त्रीय आधार की खोज में जयशंकर प्रसाद द्वारा इसे ‘प्राचीन राग काव्य’ या ‘गीति नाट्य’ नाम देने का संदर्भ भी अपने किंचित विस्तार में बेहद सटीक सिद्ध होता है. इसे ज्योतिषजी ‘नौटंकी और गीति नाट्य’ शीर्षक के अंतर्गत अलग से भी विवेचित करते हैं. फिर तो विषयानुकूलता में सभी लोकनाट्यों के बरक्स नौटंकी का समानांतर व ख़ास विवेचन होना ही था. सभी लोक नाट्यों में प्रेम का आधार प्रमुख होने को लेकर नौटंकी के उद्भव के लिए मुलतान की ‘नौटंकी’ नाम्ना रूपसी नायिका व फूल सिंह की विख्यात प्रेम-कथा आनी ही थी, लेकिन इस नाम के पुर-लुत्फ़ संयोग के बावजूद ज्योतिषीय वैज्ञानिक दृष्टि इसे लोकापवाद मानती है, क्योंकि उन्हें इसका कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं मिलता. किंतु यह लोकापवाद नहीं, लोक की उद्भावना है, जो ऐतिहासिक नहीं, मार्मिक होती है और इस कथा का मर्म सनातन है और ऐसी उद्भावनाओं से बनता व ऐसे मर्मों से बुना जाता है लोक. बहरहाल,
ऐसी शुरुआतों से होकर असीम व्याप्ति के बाद नौटंकी व लोक नाट्यों के हाशिए पर जाने के सकारण विवेचन लेखक की समग्र दृष्टि के परिचायक हैं. इसी क्रम में नौटंकी के साथ सभी प्रमुख लोकनाट्य रूपों की तुलना इस अध्ययन की समृद्धि है. फिर भी दशरूपकों, नाट्य-वृत्तियों, अवस्थाओं, संधियों आदि की चर्चा बहव: विवेचित होने से छोड़ी भी जा सकती थी. नौटंकी में इसकी व्यावहारिक व्याप्ति भी उतनी नहीं व अति तकनीकी तो है ही.
इस पहले अध्याय का अंतिम शीर्षक है- नौटंकी का परवर्ती विकास, जो सबसे प्रासंगिक और महत्त्वपूर्ण है. इसमें मुग़ल काल में रंगशालाओं के नष्ट किये जाने और प्रदर्शनों पर भी प्रतिबंध लगने के दौरान मंदिरों में शरण लेने से लेकर नाम-रूप बदलकर अपने को बचाये रखने तक के विकास शामिल हैं. यह भाग भी है तो दस पृष्ठों में ही, पर कुछ बिखरा हुआ है. इसमें तथ्यों की संकुलता भी है और उन्हें समेटने की तेज गति में परिगणन-सा असर भी बन जाता है एवं कहीं किंचित दुहराव से भी बच नहीं पाता. उदाहरण के लिए
‘गीतिनाट्य के रूप में निबद्ध नौटंकी शैली की हज़ारों साल की परम्परा में नाना क़िस्म के परिवर्तन आये’ के संदर्भ में पृष्ठ ८१ व ८६ तथा कल्याणचंद्र की शिष्य-परम्परा में रामराज त्रिपाठी के होने और उन्हीं की नाट्य-धारा को अंतरिम रूप से आगे बढ़ाते हुए अतुल यदुवंशी के आगमन के उल्लेख भी पृष्ठ ८५ व ८९ पर दो बार आकर खटकते हैं. इक़बारगी अधिकाधिक तथ्यों को संदर्भित करने में औंजाने के ये नतीजे हैं. इसीलिए लगता है कि इस अंश को कुछ और चाक-चौबंद होना चाहिए था – चाहे भले इसे कुछ और विस्तार मिल जाता, जिससे विषय की पीठिका और खुलती व गरिमा और खिलती भी. बहरहाल,
उक्त विवेचन में जोशीजी की विरलता यह है कि वे नौटंकी के भिन्न नामों के केंद्रीय निहितार्थ भी देते हैं– ‘अलग-अलग नामों के होते हुए भी सबकी भावना मूलत: समान रही है’. इसके तहत यह नौटंकी मथुरा-वृंदावन-आगरा में ‘भगत’ व ‘रहस’ हुई, पंजाब में ‘ख़याल’ हो गयी और हाथरस, मेरठ, हरयाणा के विविध क्षेत्रों में ‘सांग’ या ‘स्वाँग’ बन गयी, राजस्थान में ‘तुर्रा-कलगी’, मालवा में ‘माच’ तथा लखनऊ-कानपुर-मेरठ व पंजाब आदि क्षेत्रों में अपना मूल नाम ‘नौटंकी’ भी बनाये रही. लेकिन नाम-भिन्नता के साथ किंचित प्रवृत्तिगत वैभिन्य भी आया, जो अपनी स्थितियों के मुक़ाबिल होने की प्रक्रिया का ही परिणाम रहा, जिसमें ‘अंग्रेज़ी शासन की कुदृष्टि’ एवं ‘पारसी नाट्य कम्पनियों के प्रभाव-दुष्प्रभाव’ के कारक बनने के वाजिब ज़िक्र भी है– काश इनके कुछ सनाम प्रमाण भी उपलब्ध होते. लेकिन यह कारगर उल्लेख मौजूद है कि ‘इन सबके बावजूद यदि नौटंकी खड़ी हो सकी, तो इसमें उसका वह लोकोन्मुख भाव ही था, जो जन्मकाल से ही उसके साथ रहा’.
इन सब कुछ को लक्ष्य करना व निबेर पाना जोशीजी की गवेषणात्मक वृत्ति का प्रमाण है. मसलन ‘कथानक बदले, तो मिज़ाज भी बदले. परंपरागत छंदों की जगह उर्दू-फ़ारसी के छंद आ गये’, जिन छंदों के पर्याप्त नामोल्लेख भी आगे जाके होते हैं!!
इस विकास के दौरान आती कठिनाइयों के साथ ही जोशीजी समय-समय पर इसे मिलते कर्णधारों के सार्थक आकलन भी करते चलते है, जिनमें अंग्रेज़ी शासन द्वारा नौटंकी पर प्रतिबंध लगाने के कारण व परिणाम दोनो दशाओं में इसके प्रतिरोधी स्वर को सिद्ध करते चलते हैं. इसी धारा में एक तरफ़ वाज़िद अली शाह जैसों का इसे सहारा देने के प्रमाण भी आकलित हैं, तो दूसरी तरफ़ ‘सांगीत रानी नौटंकी’ लिखने वाले ख़ुशीराम व इसे प्रस्तुत करने वाले प्रयाग-निवासी उस लाला कल्याण चंद्र के उल्लेख भी है, जिनकी ‘अपार लोकप्रियता को देखते हुए पंडित मोतीलाल नेहरू ने उनसे नौटंकी के माध्यम से स्वाधीनाता संघर्ष को गति देने की अपील की थी’. इस अर्गला में सबसे महत्त्वपूर्ण व अविस्मरणीय नाम नत्थाराम गौड़ का है, जिन्होंने शताधिक ‘स्वाँग’ खेले और इस नाट्यरूप को कई रूपों में लोकप्रिय बनाया. इनसे प्रेरणा लेकर ‘ख़याल व लावनी से जुड़े रहने वाले कानपुर के कलाकार कृष्णा पहलवान ने अपनी नौटंकी मंडली बनायी’ और इस विधा को नयी ऊँचाइयाँ प्रदान कीं. पहलवानजी की इस मंडली के संवर्धन में आगे चलकर कविवर गयाप्रसाद शुक्ल सनेही, भगवती चरण वर्मा, राधावल्लभ पांडेय एवं राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त के बहनोई श्री रतिकेंद्र जैसे मुख्य धारा के साहित्यकारों ने सक्रिय सहयोग प्रदान किये’. जोशीजी ने कानपुर में पहली बार महिला कलाकारों के नौटंकी से जुड़ने को भी इसकी विकास-यात्रा के महत्वपूर्ण सोपान के रूप में दर्ज़ करके अपनी स्वस्थ-प्रगतिशील दृष्टि का परिचय दिया है, जिसमें ‘कृष्णा बाई, गुलाब बाई की धूम मची, तो उनकी देखा-देखी या प्रतिस्पर्धा में अन्नो बाई, श्यामा बाई, चंदा, कृष्णा मुरारी आदि भी शामिल हो गयीं’.
नौटंकी के उक्त सारे विकासों-हासिलों के बाद इस ऐतिहासिक अध्याय के अंत में जोशीजी ने नौटंकी के उस उतार की स्थिति का भी आकलन किया है, जब
‘परम्परागत नौटंकी के पुराने केंद्र शिथिल हो गये या वे अपने को दुहराने लगे. तब एक समय में जन-जन में देशप्रेम का राग पैदा करने, आज़ादी के आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने व ग्राम-सुधार के साथ शिक्षा और संस्कार की सीख देने तथा सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध जनभावनाओं को जगाने वाली नौटंकी कला पर सस्ते और भड़कीले मनोरंजन के साधन बनने एवं अश्लीलता-उत्तेजना फैलाने के आरोप लगे और यह कला भद्र समाज से बहिष्कृत हो गयी’.
यह आकलन ऐतिहासिक सच ज़रूर होगा, लेकिन काश, इसे ऐसी किसी नौटंकी या उनके करने वालों के उल्लेख से प्रमाणित व पुष्ट तथा उस विशिष्ट कालावधि का लगभग में ही सही, स्पष्ट अंकन कर दिया जाता!! बहरहाल,
इन विविधरूपी विकासों के बीच, जैसा कि ऊपर कहा गया, – दो शीर्ष रहे हैं– नत्थाराम गौड़ और लाला कल्याण चंद्र. कल्याणजी की ही शिष्य-परंपरा में आगे चलकर प्रयागराज में रामराज त्रिपाठी नामक नौटंकी-कर्मी हुए, जिन्होंने अपनी ‘श्रीराम सांगीत मंडली’ के माध्यम से नौटंकी-परम्परा में उल्लेख्य योगदान किया और बक़ौल ज्योतिषजी इन्हीं की
‘समकालीन परम्परा को आगे बढ़ाते हुए अतुल यदुवंशी ने सर्वथा नयी पहल की’ और अपने नौटंकी-कर्म से इस विधा को ‘गीतिनाट्य की उस पुरानी परम्परा से जोड़ दिया’. पुनः ध्यातव्य है कि जिस तरह पुस्तक के नायक (अतुल यदुवंशी) का नाम जिल्द उलटने के बाद आता है, उसी तरह ९० पृष्ठों के पहले अध्याय में इस नायक का प्रवेश ८५वें पृष्ठ पर होता है, जो पारम्परिक अध्ययन-पद्धति के अनुसार लिखी इस पुस्तक की विधि-सम्मत कार्य-योजना का अनिवार्य व संगत परिणाम है. इसे पुस्तक के रचना-विधान का कमाल भी कह सकते हैं और अतुल को इस तरह तबील परिप्रेक्ष्य के साथ पेश करने की जोशीजी की धमाल भी.
इस प्रकार इस अध्याय के ज़रिए हज़ारों वर्षों की रंग़-परम्परा इस पुस्तक की व्यापक व ठोस पृष्ठभूमि बनती है और यह अध्याय नौटंकी के वृहत्तर इतिहास के प्रमुख पड़ावों से गुजरते हुए उसकी पूरी पीठिका पर अपने नायक अतुल यदुवंशी के प्रवेश का सुविचारित सबब बनता है, जो लेखक के सुनियोजित विधान-कौशल का प्रमाण है.
पहले अध्याय में उक्तोद्धृत विषय की पृष्ठभूमि और विषय-प्रवेश के रूप में नायक के आगमन के बाद दूसरा अध्याय शुरू होता है और अतुल यदुवंशी के बचपन-जीवन आदि की रूटीन तफ़सील में न जाकर सीधे उनके रंगकर्म पर आना भी विषय के प्रति लेखक की निराबानी प्रतिबद्धता का सूचक बनता है. बस, कारण-कार्य की संगति में इलाहाबाद के सेंट जोसेफ कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई करने और उस दौरान अपने गुरु श्री शांति स्वरूप प्रधान के साथ व उनके निर्देशन में नाट्यकर्म में खूब सक्रिय रहने, पुरस्कारादि पाने के मुख़्तसर-से ज़िक्र भर हैं. और पढ़ाई के बाद उन्हीं अध्यापक की प्रेरणा से नाट्य-कर्म में प्रवृत्त होते हुए २४-२५ साल की उभरती हुई उम्र में १९९६ में ‘स्वर्ग रंगमंडल’ की स्थापना करते हैं, जिसका निहितार्थ हो सकता है – नौटंकी विधा को स्वर्गिक ऊँचाइयों तक पहुँचाना. तब से २०२१ तक के उनके ढाई दशकों के रंगकर्म पर लिखी हुई इस पुस्तक का सबसे प्रमुख हिस्सा है यह अध्याय, जिसे सीधे-सीधे कहना हो, तो होगा – ‘अतुल यदुवंशी का नौटंकी-कर्म’. लेकिन जोशी-कृत नामकरण ‘नौटंकी में नवाचार की सार्थक पहल’ सप्रयोजन है, जिसमें निहित है यह भाव कि नौटंकी का ऐसा पुनराविष्कार हो कि वह पुरानी रहते हुए भी नयी हो जाये. और इसे सही कर दिखाया था अतुलजी ने, तभी तो जोशीजी को यह शब्द सूझा. और इस तरह ‘नवाचार’ एक पारिभाषिक शब्द हो जाता है, जिसकी सप्रमाण-सव्याख्या तस्दीक़ की गयी है पूरे अध्याय में, जिसे यहाँ देखना तो रोचक होगा ही, पढ़ने वालों के लिए भी सदा प्रिय रहेगा.
अध्याय को मुख्यत: दो भागों में बाँटा गया है. पहला है- वर्तमान नौटंकी के वास्तुकार की भूमिका. पुनः-पुनः उल्लेख्य है कि जोशीजी हर विचार-धारणा को मथ कर उसे मक्खन के रूप में पेश कर देते हैं. इसी प्रक्रिया में यदुवंशी के ‘नौटंकी-वास्तुकार रूप’ को गढ़ने वाले आयामों को सुनियोजित रूप से श्रेणीबद्ध करके हमारे समक्ष रख देते हैं, जो इस प्रकार हैं –
- नौटंकी के मूल (पारम्परिक) रूप को सुरक्षित रखना.
- समयानुकूल बदलाव की पक्षधरता
- नाट्य शैली में भारतीय के समक्ष देसी रूप की प्रतिष्ठा
- सस्ते मनोरंजन के समावेश से दृढ़ता पूर्वक बचना
- नौटंकी को अत्याधुनिक तकनीक से जोड़ना
- पारंपरिक पाठों को प्रासंगिक बनाना
- वर्तमान के ज्वलंत प्रश्नों को नौटंकी से जोड़ना
- पारम्परिक शास्त्रीयता को साथ-साथ निभाना
- ‘कहानी का रंगमंच’ के वजन पर ‘कहानी की नौटंकी’ की सफल स्थापना
- सांगीतिक वाचिकता के साथ अभिनय में पद-संचालन व गति आदि को साधना
- नृत्य व अभिनय की समानुपातिक संगति बिठाना
- मनोरंजन, शृंगार-रति व शौर्य वाली नौटंकी को यथार्थ से टकराने में सक्षम बनाना
इस मुहिम में नौटंकी के उक्त नवाचारों को लेकर उसे बिगाड़ने के ढेरों आरोपों का डटकर मुक़ाबला करना और अपने कर्म से विरत या विमुख कदापि न होना भी अतुलजी की नाट्य-चेतना की एक पुरज़ोर प्रवृत्ति बनकर उभरा है. इन दर्जनाधिक नवाचारों का सोदाहरण व सहमतिदायक विवेचन पुस्तक में उपलब्ध है, जो अपेक्षाकृत संक्षिप्त भी है. अस्तु,
दो
इस अध्याय का अब तक का विवेचन यदि सैद्धांतिक रहा है, तो इसका दूसरा भाग ‘रंग़ प्रस्तुतियों का नया संसार’ इसके व्यावहरिक प्रतिफलन का लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है. इसमें ‘स्वर्ग रंगमंडल’ द्वारा मंचित नाटकों की क्रमवार चर्चा है, जो देखकर नहीं, पढ़-सुनकर लिखे जाने का सर्वथा अहसास कराती है. पुस्तक की गवाही में पहली प्रस्तुति ‘बँटवारे की आग’ का मंचन ‘पूर्वांचल महोत्सव’ में २००१ – याने रंगमंडल की स्थापना के पाँचवें साल में और फिर २००२ में ‘भारंगम’ के लिए दिल्ली के मशहूर ‘मेघदूत’ थिएटर में हुआ, जहां श्याम बेनेगल व सतीश कौशिक की सराहना के भी उल्लेख हैं. विनोद रस्तोगी लिखित इस नाटक का प्रदर्शन आगे चलकर उत्तर प्रदेश संस्कृति संस्थान के प्रायोजन में लाहौर में भी हुआ. ऐसा उल्लेख है कि दो किसान भाइयों के बँटवारे पर आधारित इस नाटक को वहाँ हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बँटवारे के प्रतीक रूप में भी लिया गया. लेकिन जब नाटक के अंत में नौरंगी का षड्यंत्र खुल जाने पर दोनो भाई एक हो जाते हैं, तो यह भारत-पाक एकता का प्रतीक कैसे बना होगा!!
इसी के साथ ही दूसरा नाटक ‘पलटी धारा’ भी तैयार हुआ, जिसके ‘कपिलवस्तु महोत्सव’ में मंचित होने का उल्लेख है. दहेज की कुप्रथा पर आधारित इस नाटक की प्रकृति प्रहसन जैसी है. भारी दहेज के मोह में लड़के का बाप अपने बेटे को दूल्हन की तरह व्याह के लड़की के घर ले जाने पर राज़ी हो जाता है. यही पलटी धारा है, जो नौटंकी की प्रकृति में है. असल में जीवन के ऐसे हास्य-विद्रूप को ही नौटंकी कहते हैं. और यह आइडिया तो सच ही इतना ढाँसू है कि ज़ाहिर है – पुरलुत्फ़ हुआ ही होगा. इसके बाद के दो नाटकों ‘नया सूरज’ (२००३) और ‘बजे ढिंढोरा’ (२००५) के उल्लेख हैं, पर इनके विवरण उपलब्ध नहीं होते.
इस क्रमवार चर्चा से अलग शेष नाटकों की चर्चा तीन वर्गों में विभाजित करके करना ज्यादा उपयुक्त होगा. इसमें नाटकों के नौटंकी रूपांतर में दो नाटक हैं – ‘अंधेर नगरी’ और ‘दीप दान’. पारम्परिक व पुराण जैसा प्रचलित एवं मशहूर प्रहसन के रूप में आदृत – ‘अंधेर नगरी’, को नौटंकी प्रारूप में ढाला राजकुमार श्रीवास्तव ने. कहना होगा कि श्रीवास्तवजी ही ‘स्वर्ग रंगमंडल’ के स्थायी लेखक हैं. नये के लेखन या पुराने के परिसंस्कार का सारा काम यही करते हैं, जो कलागत संगति की दृष्टि से पुनः एक वाजिब व सराहनीय प्रवृत्ति है. ‘अंधेर नगरी’ का पहला प्रदर्शन गृह नगर इलाहाबाद में ही हुआ, लेकिन इसके बाद तो अनेक शहरों में इसके ढेरों मंचन हुए और बक़ौल श्रीमान जोशीजी इस प्रहसन को क्लासिक का दर्जा प्राप्त हुआ. चंडीगढ़ में हुए इसके प्रदर्शन में हबीब साहब मौजूद थे. ‘उन्होंने नाटक की युक्तियों को सराहा तथा इस नये प्रयोग को नियमित रूप से करते रहने की सलाह दी’. यह सचमुच बड़े पैमाने पर कई-कई नवाचारों के साथ किया गया प्रयोग था, जिसने नौटंकी को नये संस्कार व विकास दिये तथा अतुल के रंगकर्म को नयी गरिमा प्रदान की.
नाट्य से नौटंकी की इसी श्रृंखला में आगे चलकर पन्ना दाई के पुत्र-बलिदान पर आधारित रामकुमार वर्मा के नाटक ‘दीपदान’ का मंचन भी बहुत मक़बूल हुआ – ‘इतिहास को उसी समय में देखते हुए प्रस्तुति के समूचे विन्यास को उसी रूप में ढाला गया.॰॰॰नाटक का प्रत्येक दृश्य मंचीय व्यवस्था के दर्शनीय आकल्पन के अनुरूप था, जिसमें राजमहल के भीतर के षडयंत्र, विद्रोह’ से भरी कुत्सित राजनीति के बीच पन्ना धाय अपनी मिट्टी के प्रति आकंठ प्रेम-स्वरूप कुंवर को राजभवन से निकाल कर अपने बेटे चंदन का ‘दीपदान’ कर देती है. इन अवसरों पर नौटंकी के गीत तो बहुत हैं, पर मुझे तो उसका मानक छंद ‘बहरत’ ही उद्धरणीय लगता है
एक क्षत्राणी व्रत-धर्म पर है खड़ी, इसकी मर्यादा की लाज रख लीजिए.
दीजिए बज्र का मेरा हिरदय बना, स्रोत ममता का अब बंद कर दीजिए.
इस वर्ग में बिलकुल अलग ही क्लासिक नाटक भी आता है– ‘मालविकाग्निमित्रम्’, जो ‘स्वर्ग रंगमंडल’ के नाट्य-संसार में अनूठा और इकला तो है ही, जोशीजी के शब्दों में सिद्ध करता है कि नयी नौटंकी में जिस तरह यथार्थवादी प्रस्तुतियाँ संभव हैं, उसी तरह शास्त्रीय नाटकों में भी. हाँ, ‘इनमे यति-गति-आहार्य और उसके भाव समुच्चय को ठीक से साधने की चुनौती होती है, जिसे यदुवंशी ने ‘अनुकूल बर्ताव और कल्पनाशील सूझबूझ के साथ स्वीकार करके सफलता पूर्वक प्रस्तुत किया है.
‘स्वर्ग रंगमंडल’ के नाटकों का दूसरा वर्ग है- ‘कहानी की नौटंकी’, जो अतुल यदुवंशी की विशेष ख्याति का सबब रही. इसमें प्रेमचंद की तीन कहानियो के मंचन हुए – ‘पंच परमेश्वर’, ‘बूढ़ी काकी’ और ‘कफ़न’. रंग़-पटल पर अतुल के उद्भव के समय नाट्य-जगत की मुख्य धारा ‘कहानी का रंगमंच’ अपने उरोज पर था, जिससे उन्हें आइडिया व प्रेरणा भी मिली होगी, फिर भी कहना होगा कि यह एक अभिनव उद्भावना रही, जिसने यदुवंशी, उनके समूह एवं नौटंकी विधा को अलग तरह की ख्याति अता की. ‘अंधेर नगरी’ आदि तो फिर भी नाटक थे, ‘कहानी की नौटंकी’ का लुत्फ़ ही अलग सिद्ध हुआ. ज्योतिषजी ने सोदाहरण व विस्तृत सटीक विश्लेषण किया है. एक उदाहरण दूँ ‘पंचपरमेश्वर’ से- कहानी सबको याद होगी.
अपनी खाला की ज़मीन हड़प रहे थे जुम्मन शेख़ और ठीक से उनकी परवरिश भी नहीं कर रहे थे. आजिज़ आकर खाला ने पंचायत बुलायी- बीसवीं सदी के दूसरे दशक में आम आदमी के लिए गाँव की पंचायत ही उच्च न्यायालय हुआ करती थी. और खाला ने अपने भतीजे व फ़रीक जुम्मन के ही ख़ास दोस्त अलगू चौधरी को फ़ैसला देने वाला पंच (न्यायाधीश) चुनने का प्रस्ताव रखा. तब की नैतिकता ऐसी थी या प्रेमचंद उसकी शव परीक्षा ले रहे थे और उसमें ईमान व नैतिकता के मूल्यों की स्थापना कर रहे थे. उधर सच का फ़ैसला देने से अलगू अपनी मित्रता टूट जाने के दबाव में जज बनने से इनकार कर रहे थे. तभी खाला के ज़रिए कहानी व जीवन तथा दोनो की मूल्यवत्ता को वहन व व्यक्त करने वाला वह आप्त वाक्य आता है – ‘बिगाड़ के डर से क्या ईमान की बात नहीं कहोगे’? इसे नौटंकी ने कहा –
बोलोगे न ईमान की, क्या दोस्ती के डर से तुम? विपदा अपनी कह दिया, मानो न मानो मन से तुम.
इन दोनों पंक्तियों में पूर्वार्ध को खींच के (आरोह) उत्तरार्ध पर अर्थों के गिराने (अवरोह) या गिरा के अदाओं से अर्थाने का अच्छा मौक़ा है, जो खूब असर डालता है. लेकिन पढ़ते हुए मेरे मन से ‘नौटंकी की जान’ वाला ‘बहरत’ छंद फूट पड़ा तो सुनिए- मोह मान नहीं रहा–
दोस्ती के बिगड़ने से डर करके तुम, बात ईमान की क्या कहोगे नहीं?
डर के दुनिया-जहां से तो रह जाओगे, क्या ख़ुदा के क़हर से डरोगे नहीं?
इसमें पहले चरण के अर्धांश को पहली बार बोल के उसके पहले शब्द को दुहराने और फिर रुक जाने (पॉज देने) का चलन है, जो नौटंकी की अपनी निजी ख़ासियत है– दोस्ती के बिगड़ने से डर कर के तुम – दोस्ती केss॰॰॰. इससे बात पहुँचती ज्यादा है, तो असर भी ज्यादा पड़ता है और सवालिया बंध होने तथा बीच में रुकने पर इशारों आदि से ज़ोर डालने, अलगू को आँखें चुराने और दर्शकों की ज़ुबाँ पे उत्तर आने का मौक़ा बनता है. बहरहाल,
तीन कहानियों के चयन में प्रेमचंद की वैचारिक विविधता की नुमाइंदगी का गुर भी शामिल है. आदर्शवादी ‘पंच परमेश्वर’, मनोवैज्ञानिक ‘बूढ़ी काकी’ और धुर यथार्थवादी ‘कफ़न’, लेकिन मेरा सवाल है, जिसे जोशीजी को भी उठाना था कि यह धारा तो अजस्र थी, तो तीन पर ही रुक क्यों गयी? प्रेमचंद से चलकर रेणु, शिवप्रसाद सिंह और इलाहाबादी समूह के ग्राम कथाकर मारकंडेय व शेखर जोशी आदि तक क्यों नहीं पहुँच रही? ख़ैर.
तीन
तीसरा बड़ा वर्ग है– असली नौटंकियों के अभिनव पुनर्निर्माण व प्रदर्शन का. कहानी की ही तरह ये भी तीन हैं – बहुरूपिया, अमर सिंह राठौर और दास्ताने लैला मजनूँ. कहना है कि ‘स्वर्ग-रंगमंडल’ के जोशी-वर्णित नाट्य-कर्म की अवधि के उरोज काल में मैं थोड़ी ही दूरी पर बनारस में ही था और रंगालोचन में सक्रिय भी, लेकिन यह मेरी साधन-सम्पर्क की कमी रही या अतुल-नाट्यकर्म के प्रचार-प्रसार की सीमा कि तब जान न पाया, वरना यदि नाटक देखने मुम्बई से कोल्हापुर और गोवा से रत्नागिरी जा सकता हूँ, तो बनारस से इलाहाबाद तो काफ़ी समीप है – खूब देख लेता. फिर भी जोशीजी के चलते ही जो एकमात्र देख पाया, वह ‘बहुरूपिया’ ही है. कहूँगा कि ऐसी समृद्ध प्रस्तुतियाँ कम ही देखने को मिलती हैं. ऐसा सजा दृश्य व सांकेतिक मंच, ऐसी दृश्य-योजना, समूह में हो या इकला – ऐसा सधा अभिनय, लोक व गीत-संगीत का ऐसा लहकता संभार, अतुलजी के निर्देशन की ऐसी लचीली छूट व मज़बूत पकड़ कि तह तक का मज़ा आ गया था. इसी से अपेक्षाकृत जटिल व जादुई कथानक भी आईने की तरह साफ़ दिख-बूझ सका और अपनी नाट्यमयता में आह्लाद से भर गया.
‘अमरसिंह राठौर’ राजपूती वीरता के साथ मुग़लिया सल्तनत के छल व अत्याचार की कथा है. जोशीजी इसे ‘प्रति नायकों का महिमा-गायन’ कहते हैं और ऐसे घिसे हुए कथानकों से बचने की सलाह देते हैं. यह सच भी है, लेकिन मुग़ल-अधीनता में आकर भी राजपूती शान व तेवर का बने रहना, धोखे से मारे गये चाचा अमर सिंह के शव को भतीजे राम सिंह द्वारा लड़कर ले जाने जैसी राजपूती वीरता की कथा इतनी भी त्याज्य नहीं. और ‘लैला मजनूँ’ तो इतना मशहूर है कि दोनो नाम ही प्रेम की दीवानगी के मुहावरे बन गये हैं. इसकी प्रस्तुति पर जोशीजी का कथन – ‘नयी नौटंकी में ढली इस पुरानी नौटंकी का चर्चित खेल जमाने की जगह हृदय को छूने में सफल रहा’. ये दोनो ही मेरे इलाक़े में बहुत मशहूर रहे कि धुर बचपन में ही कई-कई शोज़ देख सके और इनकी पंक्तियाँ गा-गा के ही हमारी किशोरावस्था परवान चढ़ी है. ऐसे में काश अतुलजी वाला आज देख पाते, तो तुलनात्मक मज़ा भी आता.
इस प्रकार उक्त अध्याय ही पूरी किताब का प्राण तत्त्व है और इसी रूपक को आगे बढ़ायें, तो इसका शरीर है तीसरा अध्याय – ‘लोक-परम्परा के संरक्षण-संवर्धन का प्रयत्न’. इसमें आये ‘का प्रयत्न’ को ‘के प्रयत्न’ कर देना ज्यादा सही होता, क्योंकि प्रयत्न इकला तो है नहीं॰॰॰. इस लेखन में पोषित होकर अब तक घोषित हो चुकी जोशी-वृत्ति के अनुसार ५० पृष्ठों के इस अध्याय के भी ठीक आधे-आधे के दो प्रमुख भाग हैं. पहले आधे में लोक व लोक परंपरा को खूब विस्तार से विवेचित किया गया है. ‘लोक से अभिप्राय’ से शुरू होकर ‘लोक और शास्त्र’ एवं ‘लोक और परम्परा’ के विवेचनों के बाद ‘लोक अभिव्यक्ति के रूप’ के अंतर्गत ‘लोक कथा’, ‘लोकगाथा’, ‘लोकगीत’, ‘लोक शिल्प’ व ‘लोक नाट्य’आदि के पुनः वैसे ही विवेचन हैं, जो बहव: सुलभ हैं.
हाँ, परवर्ती आधे विवेचन के २५ पृष्ठों में अध्याय के शीर्षक में आये ‘संरक्षण-संवर्धन’ के विविध उद्यमों की गहन चर्चा हुई है. इसे उन्होंने ‘विरासत और प्रवाह’ के माध्यम से भी स्पष्ट किया है – विरासत के दाय को संजोते हुए प्रवाह में कुछ जीर्ण-शीर्ण को छोड़ते व तमाम नये को अपनाते हुए चलने का सिलसिला॰॰॰. अध्याय की सारी बातों को सही ढंग से श्रेणीबद्ध नहीं किया सका है. स्थूल क़िस्म के किंचित दुहराव यहाँ भी हैं, लेकिन इसके बावजूद चर्चा मुकम्मल है. इसमें लेखक ने अतुलजी की चिंताओं व निरीक्षणों के आलोक में उत्तर भारत में लोक कलाओं की दयनीय स्थिति को उसके तमाम कारणों के साथ खूब उजागर किया है और उसे दूर करने के प्रयत्नों की ज़रूरत की वाजिब स्थापना की है. फिर इसी सोच-सरोकार से उद्वेलित होकर अतुल यदुवंशी के बहुमुखी प्रयत्नों का आकलन हुआ है.
इसके अंतर्गत ‘कला की दयनीयता कलाकार की दयनीयता का कारण भी है और परिणाम भी’, की प्रमुख नब्ज के संधान के तहत उन्होंने २००५ में शुरुआत की – ‘तंगहाली के शिकार कलाकारों की पहचान से और देखते ही देखते एक पूरी श्रृंखला खड़ी हो गयी’. इसमें बक़ौल लेखक “लाखों की बड़ी संख्या में कलाकारों की उपस्थिति थी. कहना चाहिए कि २०११ तक कलाओं के संरक्षण-संवर्धन की यह मुहिम राष्ट्र व्यापी हो गयी. फिर इस भारी जन कलाकार समूह की बलवती माँग के चलते राष्ट्रीय स्तर पर ‘भारतीय लोक कला महासंघ’ का विधिवत पंजीकरण २०१३ में हुआ, जो अपने लक्ष्य के लिए निरंतर कार्यरत है. इसमें ढाई लाख के आसपास सक्रिय सदस्य हैं. यह संघ देश के १८ राज्यों में कार्य कर रहा है”. हर राज्य व वहाँ के प्रभारियों के नामों की पूरी सूची उस काम व इस लेखन की समृद्धि का परिचायक है.
अतुलजी के बड़े परिश्रम से जुटाये तथ्यों को जोशीजी ने आकलित किया है– ‘भारत के २९ राज्यों, ९ केंद्र-शासित प्रदेशों, ६४० जनपदों, ५७६७ तहसीलों और ७७४२ विकास खंडों यानी प्रखंडों में फैले साढ़े छह लाख गाँवों में कलाकारों की संख्या भी लाखों-लाखों में है. इनकी कलाएँ विविधवर्णी हैं. इन्हें जानना ही भारतीय लोक को समग्रता में समझना है. ये ही भारतीय संस्कृति की पहचान हैं और उसको कृषि-संस्कृति की प्राचीन परम्परा से जोड़ती हैं. इन्हें भूलना उस लोक की हत्या के बराबर है, जिसने हमें सिरजा है’. बक़ौल लेखक ‘इस मुहिम को छह वर्ष लगे – इस स्वरूप को प्राप्त करने में, जहां वह आज है’. यदि इस आज का मतलब किताब लिखे जाने के समय (२०२२) से है, तो इन ११ सालों में विकास के सोपानों के कुछ सोदाहरण उल्लेख भी अपेक्षित थे. बहरहाल,
इस मुहिम का ‘बड़ा ध्येय है – इन कलाओं को संरक्षित करने के लिए सरकार आवश्यक कदम उठाये, जिससे कलाकरों को आर्थिक सुरक्षा मिले’. इनका गरज भरा सवाल है कि शिष्ट कलाओं की तरह लोक कलाओं की भी राष्ट्रीय व प्रांतीय स्तर पर अकादमियाँ क्यों नहीं बनतीं, ताकि उनके लिए भी कार्यक्रम व अनुदान राशि आबंटित हो. इनके लिए अलग से एक राष्ट्रीय अकादमी बनाने की भी माँग शामिल है. लेकिन यदुवंशी के इस महासंघ को पता भी है कि ‘कलाएँ सिर्फ़ सरकारी संरक्षण के भरोसे ज़िंदा नहीं रह सकतीं’; अतः पूरा ज़ोर भी क़ायम है – एक व्यापक आंदोलन की ज़रूरत पर.
इस विवेचनका दूसरा चरण स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद की स्थितियों से बावस्ता है. इस कालावधि में पश्चिम के अंधानुकरण से प्रेरित-संचालित विकास के तहत देसी सभ्यता-संस्कृति के साथ भित्तिचित्र, कठपुतली, जादूगर-मदारी, चारण, सिंहा-शंख-बीन वादन, कहंरवा-नट-बेड़ियाँ॰॰॰आदि के गायन-नृत्य जैसी ढेरों कलाओँ का हाशिए पर चले जाना भी इनके ध्यान में खूब-खूब है, जिन्हें पुनरुज्जीवित करना इस आंदोलन का अनिवार्य भाग है. इसी के समानांतर ‘अपसंस्कृति फैलाने वाले मनोरंजन-माध्यमों का तिरस्कार’ भी इस मुहिम में शामिल है, जिसके बिना अपनी लोक-समृद्धि को लाना आसान न होगा.
इन बातों को लोगों तक पहुँचाने के लिए यदुवंशीजी नियमित अंतराल पर गोष्ठियाँ व चितन-शिविरआदि आयोजित करते हैं, जिनमे लोक-परम्परा की बुनियादी कलाओं की वास्तविक स्थितियों व समस्याओं से लोग परिचित होते हैं. फिर उन्हें दूर करने के विश्वस्त तरीक़ों पर विचार-विमर्श होते हैं और उनके क्रियान्वयन की पक्की योजनाएं बनती हैं तथा उसके अमल को सुनिश्चित करते हैं. अमल व उसके परिणामों के अंकन का इंतजार है.
इस प्रकार तीन अध्यायों में ही मुख्य बात पूरी हो गयी है, जो पुनः विषय के ग्रहण-मन्थन-अभिव्यक्ति के विधान का खरा मानक है, लेकिन लेखक ने पूरक रूप में चौथा अध्याय भी रखा है – ‘नौटंकी, लोक परम्पराओं की उपादेयता और सम्भावनाएँ : एक संवाद’, जिसमें अतुल यदुवंशी से सीधे बातचीत है. यह भी सब कुछ को ‘फ़्रॉम हॉर्सेज माउथ’ सामने लाने की अपनी सोच में बहुत कारगर विधान है. और भर पुस्तक की जोशी-वृत्ति में इसे भी विषय में निहित प्रवृत्तियों के अनुसार ग्यारह भागों में विभाजित करके कुल चालीस प्रश्नोत्तरों में बांधा गया है. लेकिन इन सब कुछ को देखकर जैसी आस बंधती है, वैसा मामला बनता नहीं. सबसे बड़ी बात कि प्रश्न कर्त्ता के सारे के सारे प्रश्नों के आकार बड़े-बड़े हैं – कई बार तो उत्तर ही छोटे बन गये हैं. वस्तुत: वे प्रश्न कम, विवेचन व मान्यताएँ अधिक हैं, जिनकी कर्त्ता द्वारा पुष्टि जैसी करायी जाती है दाता से. उनसे कुछ नया जानने का उपक्रम कम है. पुष्ट उन्हें करना ही है, क्योंकि वे मानक उन्हीं के काम पर बने हैं– बहुधा पीछे विवेचित हैं. फिर इतना बड़ा काम होने के दौरान होती ढेरों बातों के बीच दोनो में एक समरसता बनी होगी, तो विषय को लेकर मत-वैभिन्य व रुचि वैभिन्य जाता रहा होगा. लिहाज़ा मतैक्य होने से तर्क-प्रतितर्क न रहे, तो विमर्श बना नहीं. कर्त्ता-दाता की समरसता साक्षात्कार-प्रकृति के लिए मुफ़ीद नहीं.
बात की स्पष्टता के लिए एक विमर्शात्मक प्रश्न का उदाहरण दूँ नौटंकी मूलत: लोक-विधा रही है. फिर अपने अंतरिम रूप में वह शहरोन्मुख भी हो, तो कोई हर्ज नहीं. लेकिन अपने मूल आधार (जन्म-स्थली) को तो बनाये ही रखना होगा. अतुलजी से पूछा जा सकता था कि क़स्बों-गाँवों में जाकर नौटंकी के शोज़ करने की योजना क्यों नहीं है? क्या वे आज के अभिजात नाटकों की तरह नौटंकी को निगम-दुनिया (कॉरपोरेट वर्ल्ड) की मंज़िल तक ले जाना चाहते हैं? क्योंकि आज हर काम की मंज़िल कोरपोरेट है – चाहे शिक्षा हो या कला, वहीं जाके पर्यवसित हो रही है – ‘अचल भये जीमि जिव हरि पाई’ की तरह. वहां अंग्रेज़ी बोलने वाले सौ लोग हज़ारों रुपए देकर हिंदी नाटक देखते हैं और उनमे निहित फ़िल्मी जैसी या बोल्ड बातों पर वंडरफुल, यूनिक, सुपर्ब कहकर तारीफ़ करते हैं.
इसी तरह विवेच्य किताब में नाट्यशास्त्र से लेकर आज तक के लिखित-मुद्रित (किताबी) विवेचन तो काफ़ी हुए, लेकिन ग्राम-जीवन में नौटंकी के ह्रास व ख़ात्मे की व्यावहारिक बातें नहीं आयी. भूमिका में ज्योतिषजी मानते हैं – ‘हमारे स्वत्व व अर्थ की पहचान अपनी जड़ों (याने लोक) से होती है’. लेकिन पुस्तक में उस लोक की किसी स्थिति से साबका नहीं होता, जिसके लिए थी नौटंकी और जिसमें अवसित थी यह मूलत: लोक-विधा इससे पुस्तक जीवनरक के बदले शैक्षणिक व शास्त्रीय ज्यादा हो गयी है.
उत्तरप्रदेश के गाँवों में नौटंकियों का खूब प्रचलन उसी प्रकार था, जैसे आज डीजे का है. डीजे के तो पुरानी पीढ़ी के कुछ विरोधी भी हैं, जिसके चलते मार-पीट, क़त्ल तक हो जा रहे हैं, लेकिन नौटंकी तो सबकी चहेती थी. उसे तवायफ़ों के नाच ने सबसे पहले धक्का दिया, जब उच्च वर्ग से उठकर तवायफ़-नाच का प्रवेश मध्य वर्ग में भी हुआ. लेकिन नौटंकी को जन जीवन से उजहाने (समूल नष्ट करने) का काम १९८० के दशक में वीडियो के शोज़ ने किया, जिसमें तीन-तीन, चार-चार फ़िल्में एक रात में दिखायी जाती थीं. नौटंकी तो गाँव के बाहर कहीं तम्बू में मंच लगाकर होती, जहां कुलीन घरों की स्त्रियों का जाना ही नहीं हो पाता था, लेकिन वीडियो को किसी मंच की ज़रूरत न थी. कहीं भी किसी बाकड़े-चौकी पर रखकर शुरू हो जाता और आबालवृद्ध सभी देख पाते. उसी के बाद नौटंकी जो गयी जन-जीवन से, फिर कभी न आयी. अतुल जैसों के प्रयत्नों का इंतज़ार उन्हें भी है!
और अंतिम बात, पर आख़िरी नहीं- इतने ही कामों के बाद इतनी मुकम्मल किताब लिख दिया जाना भी समय के अनुसार आधुनिक प्रगत चेतना का परिचायक है, वरना तो पहले ये मान्यताएँ इतनी कड़क थीं कि कई दशकों के बाद ही हबीब तनवीर जैसे रंगकर्मी पर कोई किताब आयी. सत्यदेव दुबे पर तो हिंदी में शायद अब तक नहीं आयी- अंग्रेज़ी में अवश्य आयी है, पर वैसी माकूल भी नहीं. इसके लिए भी जोशीजी का इस्तकबाल करना होगा और ‘स्वर्ग रंग़-मंडल’ के लिए अतुल यदुवंशी के सुविचारित व सुनियोजित नाट्य-कर्म के लिए बधाइयाँ व शुभकामनाएँ कि नौटंकी को वे उस वांछित मंज़िल तक पहुँचा पायें, जिसके मुंतज़िर हैं हम सभी.
सत्यदेव त्रिपाठी सम्पर्क |
सत्यदेव त्रिपाठी जी ने लगभग सारे पहलुओं को छूते हुए यह बेहद सारगर्भित समीक्ष्य आलेख लिखा है ।
इतनी मुकम्मल किताब लिख दिया जाना भी समय के अनुसार आधुनिक प्रगत चेतना का परिचायक है, वरना तो पहले ये मान्यताएँ इतनी कड़क थीं कि कई दशकों के बाद ही हबीब तनवीर जैसे रंगकर्मी पर कोई किताब आयी।
बहुत बहुत शुभकामनाएँ Jyotish Joshi जी को भी जिन्होंने इस कला को यूँ सामने लाने में अपनी दक्षिता का परिचय दिया ।
सत्यदेव जी ने बहूत सटीक तरीके से किताब का और अतुल जी के रंगकर्म का आकलन किया है ।
बहुत ही सुंदर आलेख वा आकलन है,लोक परम्परा और लोक विधा का एक प्रमुख आयाम है आपकी पुस्तक हार्दिक बधाई
नौटंकी में हाथरस घराना और कानपुर घराना के बारे में काफी पढ़ा। दीप्ति प्रिय मेहरोत्रा द्वारा लिखी किताब ” द क्वीन ऑफ नौटंकी थिएटर” से गुलाब बाई और उस समय की महिला नौटंकी कलाकार की मुश्किल को भी जाना। सत्यदेव त्रिपाठी जी की समीक्षा से एक बार फिर नौटंकी विधा एवं अतुल यदुवंशी जी के काम को जानने का मौका मिला। सर्वज्ञता का बोध कराती इस जीवंत विधा को संरक्षण और सम्मान मिलना चाहिए। प्रो0 ज्योतिष जोशी जी को बधाई एवं शुभकामनाएं।
नौटंकी विधा पर ज्योतिष जोशी जी की किताब की समीक्षा करते हुए आचार्य सत्यदेव त्रिपाठी ने अतुल यदुवंशी के कलाकर्म पर विस्तार से प्रकाश डाला है और इस नाट्यविधा का अतीत वर्तमान सब एक साथ प्रस्तुत किया है।
ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए लेखक-समीक्षक दोनों को बधाई ।
बहुत प्रभावशाली आलेख। सादर अभिवादन।