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Home » कर्फ़्यू की रात : फ़रीद ख़ाँ

कर्फ़्यू की रात : फ़रीद ख़ाँ

‘कर्फ़्यू की रात’ कथाकार शहादत का दूसरा कहानी संग्रह है. उन्होंने उर्दू शायर ज़हीर देहलवी की आत्मकथा ‘दास्तान-ए-1857’, मकरंद परांजपे की किताब ‘गांधी: मृत्यु और पुनरुत्थान’, और उर्दू अफ़सानानिगार हिजाब इम्तियाज़ अली के कहानी संग्रह ‘सनोबर के साये’ का हिंदी अनुवाद भी किया है. इन दिनों वे अपने पहले उपन्यास ‘मुहल्ले का आख़िरी हिंदू घर’ पर जुटे हुए हैं. उनके इस कहानी संग्रह की चर्चा कर रहे हैं फ़रीद ख़ाँ.

by arun dev
July 16, 2025
in समीक्षा
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कर्फ़्यू की रात : फ़रीद ख़ाँ
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कर्फ़्यू की रात
दहशत की रातें
फ़रीद ख़ाँ

कर्फ़्यू की रात बड़ी भयानक होती है. सुविधा संपन्न लोग इसे सिनेमा या साहित्य के माध्यम से जानते हैं. उन पर बातें करते हैं, शोध करते हैं और रोमांच से भर जाते हैं. पर कुछ लोग, विशेषकर अल्पसंख्यक समुदाय में जन्म लेने वाले लोग इसका जीवंत अनुभव करते हैं और कई बार तो वे पूरा जीवन ही ऐसे जीते हैं मानों ‘कर्फ्यूं की रात’ हो.

चारों तरफ़ अनिश्चितता और भय, विषाद और दबाव, अकेलापन और निराशा में जीने को अभिशप्त लोगों की कहानियों का एक प्रासंगिक संग्रह है – ‘कर्फ़्यू की रात’.

कथाकार ‘शहादत’ ने इन कहानियों में मुस्लिम समुदाय का बहुआयामी चित्रण किया है. पाठकों को इसमें सांप्रदायिक दंगों की पृष्ठभूमि में संवेदनशील कहानियाँ भी मिलेंगी और ‘डार्क ह्यूमर’ भी मिलेगा. इसमें मज़हब से विद्रोह भी मिलेगा तो मज़हब और समुदाय के अन्तर्विरोध भी मिल जाएंगे. इस तरह यह पूरा संग्रह मुस्लिम समुदाय पर केन्द्रित एक प्रासंगिक आख्यान है, जो एक अपवाद भी है.

ऐसी कहानियों में इस बात का ख़तरा रहता है कि यह कहीं सामुदायिक पहचान की कहानी बन कर न रह जाएँ. पर लेखक बड़ी बारीकी से एक तरफ़ मुस्लिम समुदाय पर हो रहे सांप्रदायिक हमले से लोहा लेता है तो दूसरी तरफ़ वह ख़ुद भीतर की लड़ाई में शामिल दिखाई देता है. यह उसके अंदाज़े बयान से साफ़ साफ़ ज़ाहिर होता है.

इस किताब में समर्पण के पन्ने पर लेखक ने लिखा है ;

इंसान की पहचान उसके मुल्क से होती है, मज़हब से नहीं.

आज़ादी के लिए….

इसके बाद पहली ही कहानी जो आप पढ़ते हैं उसका शीर्षक है ; “आज़ादी के लिए”. असल में यह कहानी की अंतिम पंक्ति भी है और उस महिला का संवाद भी जो किसी ज़माने में बड़ी दीनदार रही है, हमेशा बुर्के में रही है. लेकिन अंत में वह बिल्कुल विपरीत ध्रुव पर जाकर, अपने ‘दीनदार’ शौहर को छोड़ कर, एक ‘बे-दीन’ व्यक्ति से शादी कर लेती है, वजह – “आज़ादी के लिए”. इस कहानी में लेखक ने नायक की माँ (अन्य महिला पात्र))के मुँह से कहलवाया है –

ज़रूरत से ज़्यादा दीनदारी इंसान को पालतू कुत्ते में तब्दील कर देती है. जिनकी ज़ंजीर मौलानाओं के हाथों में होती है. वे जिस तरफ़, जिधर चाहें अपने फ़ायदे के लिए इन कुत्तों को दौड़ा देते हैं. मैं पालतू कुत्तों की भीड़ में शामिल होना नहीं चाहती.
(आज़ादी के लिए, पृष्ठ 15)

‘शाहीन बाग़ विरोध प्रदर्शन’ के बाद, विशेषकर मुस्लिम औरतों में एक अलग तरह का आत्मविश्वास देखा जा रहा है. अब कोई उन्हें दबा कर नहीं रख सकता, धर्म भी नहीं. धर्म को उनके साथ रहना है तो उसे औरतों के लिहाज़ से बदलना होगा वरना वक़्त उन धर्मों को अप्रासंगिक साबित कर देगा. इसलिए शहादत की महिला पात्र इस अर्थ में बड़ी सशक्त हैं.

शिया-सुन्नी वगैरह ये सब मौलानाओं के झगड़े हैं. एक मुसलमान को चाहिए कि जहाँ तक हो सके इन सब झगड़ों से दूर रहे. क्या यह काफ़ी नहीं कि हम एक ख़ुदा के बंदे और पैग़म्बर मोहम्मद के उम्मती हैं. फिर ख़िलाफ़त किसे मिली और किसे नहीं, इससे हमें क्या लेना देना. इससे न तो हमें दुनिया में कामयाबी मिलेगी और न ही आख़िरत में.
(‘आज़ादी के लिए’ के नायक का संवाद, पृष्ठ 19)

इस दौर में जब किसी की बात सुनने वाला कोई नहीं है, हर कोई शोर मचा मचा कर बहरा हो चुका है, इस कहानी का नायक लोगों की कहानियाँ सुनता है. क्योंकि उसमें धैर्य है. लोग उसे अपनी कथा सुनाते हैं. उसके एवज़ में उसे पैसे भी मिल जाते हैं. यह लेखक (शहादत) का एक अनूठा प्रयोग है. एक ऐसे अनजाने अनदेखे समय का रूपक है यह, जब लोगों के मन का ‘कैथार्सिस’ हो सकेगा. नायक लोगों के ‘कैथार्सिस’ का माध्यम बनता है. इस क्रम में वह उन लोगों से जो वास्तव में अपनी ही कहानी के पात्र बन जाते हैं, उनसे बातें भी करता है और अपनी तरफ़ से कुछ कहता भी है मानो उनकी कहानियों में कुछ तरमीम कर रहा हो. उपरोक्त पंक्तियाँ वह अपने एक पात्र (व्यक्ति) से ही कहता है जिनकी कहानी सुनने के लिए पात्र (व्यक्ति) ने उसे अपने घर बुलाया है. ऐसा लगता है जैसे वह इस्लामी दुनिया की कहानी दुरुस्त करना चाहता है. तो अनुभव होता है कि सुनने वाला भी कुछ कहता है या वही कुछ कह सकता है जो सुन सकता है.

एक तरफ़ लेखक मज़हबी अंतर्विरोध को उभारता है तो दूसरी ही कहानी, ‘अभिनेता’, में उसका एक पात्र भारत में मुसलमानों पर हो रहे ‘बहुआयामी’ हमले से लड़ता है. अमेरिका में घटी ग्यारह सितंबर (9/11) की घटना के बाद दुनिया भर के मुसलमानों की ब्रांडिंग अमेरिका ने आतंकवादी की कर दी, इसका भारत के दक्षिणपंथी राजनीति ने भरपूर फ़ायदा उठाया और ऐसा माहौल बना दिया कि हर मुसलमान को हमेशा अपनी देशभक्ति का सुबूत देना पड़ता है और बार बार यह बताना पड़ता है कि वह आतंकवादी नहीं है. हर बार भारत पाकिस्तान के क्रिकेट मैच के सन्दर्भ में उसे बताना पड़ता है कि वह भारत की तरफ़ है या पाकिस्तान की तरफ़. आख़िर क्यों हर बम विस्फोट के बाद पुलिस सिर्फ़ मुसलमानों के घरों पर छापे मारती है ? मुस्लिम छात्रों को बिना कारण बताए जेल में रखा जाता है आदि आदि. कहानी का वह पात्र हिंदी सिनेमा में मुस्लिम पात्रों के चित्रण पर भी सवाल उठाता है. एक वक़्त था जब फ़िल्मों में मुस्लिम पात्र नायक या सह-नायक हुआ करते थे. लेकिन बदले हुए समय में वे केवल आतंकवादी हुआ करते हैं. सिनेमा की कहानियों और पात्रों के चित्रण में इस बदलाव को कहानी का पात्र भली भांति अनुभव करता है और सवाल उठाता है कि सिनेमा में

क्या कभी इन्होंने ये दिखाया है कि एक मुसलमान को आज अपनी पहचान बताते हुए कितना डर लगता है और दहशत महसूस होती है?
(अभिनेता, पृष्ठ 35).

लेखक अपनी अगली कहानी (इमरान भाई) में एक कदम और आगे बढ़ता है – कि किस तरह सत्ता व्यवस्था किसी प्रगतिशील और ऊर्जावान समुदाय के नौजवानों को सांप्रदायिकता की तरफ़ धकेल देती है. एक रौशन ख़याल छात्र जो वाद – विवाद प्रतियोगिता का सुपर स्टार है, सांप्रदायिक शासन व्यवस्था उसकी ऊर्जा, उसके विचार और उसके संघर्ष की ऐसी छवि बनाती है जिससे पूरा राष्ट्र इस बात पर सहमत हो जाता है कि वह राष्ट्र विरोधी है और उसका एनकाउंटर होना ही चाहिए. एक हत्या को व्यवस्था द्वारा डिज़ायन किया जाता है, उसका आख्यान है – इमरान भाई.

इस पृष्ठभूमि में अब लोगों को, ख़ास कर अल्पसंख्यक समुदाय के “लोगों को अंदाज़ा हो गया था कि चुनाव होंगे तो दंगे भी होंगे” – (कर्फ़्यू की रात, पृष्ठ – 49). यह इस समय के भारत का ‘न्यू नॉर्मल’ है. मुस्लिम समुदाय को अपने मारे जाने का अभ्यास हो चुका है. ऐसी ही स्थिति में ‘डार्क ह्यूमर’ की रचना होती है. ग़रीब और कर भी क्या सकता है – हँस सकता है तो हँसता है. ‘कर्फ़्यू की रात’ कहानी में कर्फ़्यू के दौरान जब एक बच्चे की मौत हो जाती है तो लोग उसे दफ़नाने के लिए जब कब्रिस्तान जा रहे होते हैं तभी एक तरफ़ से पुलिस के सायरन की आवाज़ आती है और दूसरी तरफ़ से दंगाईयों की कि “मारो साले मुल्लों को”, इतना सुनते ही सभी लाश को वहीं छोड़ कर अपने अपने घर भाग जाते हैं.

पिछले दिनों देश के धर्मनिरपेक्ष समूहों ने यह महसूस किया कि बढ़ती प्रायोजित सांप्रदायिकता ने विभिन्न समुदायों के बीच अपरिचय को बहुत बढ़ा दिया है. इसलिए इसके विरुद्ध एक मुहीम चलाई गई जिसका नाम था – हमारे घर आकर देखो – जिसमें लोग विभिन्न समुदायों के लोगों के घर जाते हैं, उनसे बातें करते हैं और चाय पानी पीते हैं. इससे ग़लत धारणाएं, मिथ और पूर्वग्रहों को ख़त्म करने का मौका मिलता है. ठीक उसी तरह शहादत अपनी कहानी ‘कुर्बान’ में एक मुस्लिम परिवार के भीतर लेकर चलते हैं और बताते हैं कि हर बकरीद के अवसर पर एक झुण्ड मुसलमानों को जिस तरह हत्यारा और निर्दयी साबित करने के लिए प्रचार तंत्र का इस्तेमाल करता है वह कितना और किस तरह ग़लत है. उनके मन में भी किसी जानवर के लिए उतनी ही दया है जितनी नफ़रत फैलाने वाले दावा करते हैं कि उनमें नहीं है जबकि आरोप लगाने वाले ख़ुद ‘मॉब लिंचिंग’ में लिप्त रहते हैं. पहली कहानी ‘आज़ादी के लिए’ की माँ का किरदार जिस तरह रौशन ख़याल और संतुलित है, वही माँ आगे चलकर ‘कुर्बान’ में बहुत भावुक दिखाई देती है, उस बकरे के लिए जिसे उसने अपने बच्चे की तरह पाला है.

इसके बाद लेखक पाठक को घर से बाहर लेकर चलता है. ‘क्रिकेट और हम हिन्दुस्तानी’ का अब्दुल जो भारतीय बल्ले बाज़ सचिन तेंदुलकर का दीवाना है. वह पाकिस्तान से भारत की जीत पर ख़ुश होता है लेकिन उसके दफ़्तर के बॉस की एक बात जो सांप्रदायिकता के ज़हर में लिपटी थी, उसके दिमाग़ पर इस तरह असर करती है कि वह चेखव की कहानी ‘छींक’ के पात्र की तरह बार बार यह बताने की कोशिश करता है कि मुसलमान भी भारतीय टीम के जीतने पर उतने ही ख़ुश होते हैं जितने आप. वे पाकिस्तान के जीतने पर आख़िर क्यों ख़ुश होंगे. दुनिया को, बॉस जिसका रूपक है, उसकी बात कभी समझ में नहीं आती और एक दिन अब्दुल इसी दुःख में इस दुनिया से कूच कर जाता है. जिस पर लेखक का कहना है कि यह स्वाभाविक मृत्यु नहीं बल्कि हत्या है. बिना किसी के हथियार के हत्या की यह एक मार्मिक कहानी है.

तुमने कभी यहाँ, इस मोहल्ले में या इसके जैसे दूसरे मोहल्ले में कोई काम होते देखा है ? नहीं न ? ये मुसलमानों के मोहल्ले हैं, यहाँ कभी काम नहीं होगा. चाहे तुम किसी को ही वोट दे लो, जिता लो
(चुनाव और प्रत्याशी, पृष्ठ 95).

अब तक इतिहास से यही पता चलता है कि ग़रीबों के हालात कभी नहीं बदलते. बल्कि हर तरह की जनहित योजनाओं के बावजूद ग़रीब और ग़रीब, अमीर और अमीर होता जाता है. फिर इसको बड़े सूक्ष्म ढंग से देखें तो पाएंगे कि दुनिया के हर देश में जो कमज़ोर समुदाय है, जो ग़रीब भी है, उसके हालात भी कभी नहीं बदलते. कहीं यह जाति के रूप में उजागर होता है और कहीं संप्रदाय के रूप में. उपरोक्त उद्धरण उसी राजनीति की तरफ़ इशारा ही नहीं साफ़ साफ़ इंगित करके कह रहा है कि हमारी व्यवस्था ही सांप्रदायिक हो चुकी है और उस सांप्रदायिक (फ़ासिस्ट) व्यवस्था ने कभी तुष्टिकरण का आरोप लगा कर और कभी राष्ट्रवाद के नाम पर इन कमज़ोर समुदायों पर हमला ही किया है. कभी कोई बिरादर बन कर आता है कभी दोस्त बन कर लेकिन हालात नहीं बदलते. एक मोहल्ले में वार्ड के चुनाव का रूपक लेते हुए लेखक ने पूरे देश की वर्तमान राजनीति का चित्रण किया है कि आपस की लड़ाई में अक्सर बाहर वाला अंजान व्यक्ति जीत जाता है.

कई कहानियाँ स्त्री विषयक हैं जो संवेदना के स्तर पर परिपक्व तो हैं ही विचार के स्तर पर भी झकझोर देने वाली हैं. ‘बांझपन’ विडंबनाओं से भरपूर ऐसी ही एक कहानी है. यह कहानी सवाल उठाती है कि कौन बाँझ है, वह मर्द जो बच्चे के लिए शादी पर शादी किये जाता है, बिना अपनी पत्नी की भावना का ख़याल किये या वह औरत जो मर्द को ठेस नहीं पहुंचाना चाहती इसलिए चुप रहती और कभी कह नहीं पाती कि तुम ज़्यादती कर रहे हो ?

लेखक मुस्लिम समुदाय में ‘मदरसा शिक्षा’ को लेकर उस दुविधा को भी रेखांकित करता है जो मज़हबी शिक्षा बनाम आधुनिक शिक्षा की है. निश्चित रूप से लेखक आधुनिक शिक्षा के पक्ष में है लेकिन इसके साथ साथ एक सूक्ष्म प्रेम की कथा भी चलती है. वह प्रेम समलैंगिक है या केवल एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के प्रति स्नेह है, इसके बारे में निर्णय पाठकों पर छोड़ा गया है. इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए कहानी ‘बेदीन’ का अनीस वह सब कुछ करता है जो किसी मुसलमान के लिए वर्जित है जैसे सूअर को नापाक समझना और वह सूअर के ख़ूबसूरत बच्चे को अपने घर ले आता है. उसे मदरसे से निकाल दिया जाता है. वह अपने ऊपर लगाए गए हर मज़हबी बंदिश को तोड़ता जाता है पर उसे कहीं से कोई समर्थन न मिलने के कारण वह इतना अकेला पड़ जाता है कि ख़ुद ही टूट जाता है.

हालांकि पूरे संग्रह में सांप्रदायिक दंगों का वर्णन कई बार आता है पर – आख़िरी स्टेशन – में लेखक ने सांप्रदायिक दंगों की ‘एनाटमी’ का चित्र खींच कर रख दिया है. अक्सर दंगा प्रभावित इलाकों के लोग यह कहते हुए देखे गए हैं कि दंगाई बाहर से आते हैं. लेखक ने उस व्यवस्था पर से पर्दा उठाया कि कैसे चुनाव से पहले कार्यकर्ताओं को तैयार किया जाता है कि वे चुनाव होने वाले इलाके में जाएँ और लोगों को ‘संगठित’ करें और ऐन चुनाव के पहले दंगे भड़क जाते हैं. लेकिन उन कार्यकर्ताओं का क्या होता है ? क्या वे उन ‘लाभार्थियों’ की तरह लाभ में रहते हैं जो लाशों पर चढ़ कर सत्ता तक पहुँचते हैं ? लेखक का स्पष्ट जवाब है – नहीं. वे भी कभी न कभी उसी तरह मारे जाते हैं जिस तरह निर्दोष लोग. पर यहाँ लेखक सांप्रदायिकता की आड़ में छिपे जातिवाद को भी उजागर करता है और बताने की कोशिश करता है कि जो कमज़ोर तबके के समुदाय को निशाना बनाते हैं वे अपने ही समुदाय के दलितों को भी ‘बहती गंगा में हाथ धोने’ की तरह निशाना बना लेते हैं. इस अर्थ में इसका शीर्षक – आख़िरी स्टेशन – बड़ा मानीख़ेज़ है.

अगर आप ‘क्रोनोलौजी’ समझते हैं तो पता ही होगा कि दंगे के बाद चुनाव की बारी आती है. इसलिए इस किताब – कर्फ़्यू की रात – में भी अगली कहानी चुनाव पर है.

आज जब हम बिहार में नई वोटर लिस्ट बनाने की कवायद देख रहे हैं जिसमें लोगों से अपनी नागरिकता साबित करने वाले काग़ज़ात मांगे जा रहे हैं और अब तक की सूचना के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इससे करोड़ों लोग प्रभावित होने वाले हैं. इसका मकसद मुसलमानों, दलितों और पिछड़ों को वोटर लिस्ट से बाहर करना है क्योंकि राजनीति का यह समीकरण फ़िलहाल केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में नहीं है. शहादत के संग्रह की अंतिम कहानी ‘पहला मतदान’ पढ़ते हुए ऐसा आभास होता है कि उन्होंने पहले यह कहानी लिख दी और हकीकत में वोटर लिस्ट से लोगों को बाद में बाहर किया जा रहा है.

कहानी ‘पहला मतदान’ का नायक लोगों को वोट देने के लिए प्रेरित करता है लेकिन उसका ख़ुद का नाम वोटर लिस्ट से ग़ायब है. एक महिला पात्र उससे कहती है – “अगर हमें वोट देने दिया जाता तो क्या हमारी यह हालत होती ?” (पृष्ठ 157). यह वह किरदार है जिसका परिवार और समुदाय दंगे के बाद बनाए गए राहत शिविर में रह रहा है.

एक अन्य पात्र नायक से कहता है कि बदलाव तो वोट देने के पहले ही हो गया है. बसे बसाए घर उजड़ गये. लोगों का क़त्ल हो गया. अब इससे ज़्यादा बदलाव क्या होगा ? फिर वह आगे कहता है कि वोट दो या न दो जीत किसकी होगी यह पहले ही तय हो चुका है. नायक को उसकी बात उचित लगती है और वह इस बात से राहत महसूस करने लगता है कि उसका वोटर लिस्ट से नाम कट गया है, बिल्कुल “भला हुआ मोरी गगरी फूटी, मैं पनिया भरन से छूटी” (कबीर) के भाव में. जैसे ‘पूस की रात’ (प्रेमचंद) का नायक अंत में राहत महसूस करता है.

ऐसे संग्रह हिंदी में कम हैं जो अलग-अलग कोण से किसी एक समुदाय का चित्रण करते हों. इसलिए लेखक बधाई का पात्र है.

 

यह संग्रह यहाँ से प्राप्त करें.


फ़रीद ख़ाँ मुंबई में रहते हैं और टीवी तथा सिनेमा के लिए पट कथाएं आदि लिखते हैं.  ‘गीली मिट्टी पर पंजों के निशान’ (कविता-संग्रह); ‘मास्टर शॉट’ (कहानी-संग्रह); ‘अपनों के बीच अजनबी’ (कथेतर गद्य) आदि प्रकाशित.
kfaridbaba@gmail.com
Tags: कर्फ़्यू की रातफ़रीद ख़ाँशहादत
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स्त्री-भाषा : रोहिणी अग्रवाल

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