माझ्या जल्मांची चित्तरकथा
शांताबाई कृष्णाजी काम्बले (1923)की आत्मकथा ‘माझ्या जल्मांची चित्तरकथा’(मेरे जीवन की चित्रकथा) का प्रकाशन सन 1988 में हुआ. जिसका हिंदी अनुवाद ‘नाजा’ शीर्षक से रजनी तिलक ने 2009 में किया. शांताबाई सोलापुर जिले की पहली अध्यापिका थी जो दलित थी. उन्होंने 1981 में नौकरी से अवकाशप्राप्त करने के बाद आत्मकथा लिखना शुरू किया, जो ‘पूर्वा’ पत्रिका में सन 1983 में धारावाहिक रूप में छपी और 1990 में उसपर मुम्बई दूरदर्शन ने भी धारावाहिक बनाया. सन 1980 के आसपास बहुत-से दलित पुरुषों की आत्मकथाएं प्रकाश में आयीं जिन्होंने शांताबाई काम्बले को भी आत्मकथा लेखन की प्रेरणा दी. पुस्तक के समर्पण में उन्होंने लिखा–
“मेरे मां–पिता के लिए,जिन्होंने पूरे दिन चिलकती धूप में,भूखे–प्यासे, कठिन परिश्रम, भूख से ऐंठती आँतों के साथ मुझे पढ़ाया और अँधेरे से प्रकाश का रास्ता दिखाया.”
आख्यान में शान्ताबाई अपनी मां के सुनाये अतीत का जिक्र बार–बार करती हैं कि कैसे भूख और गरीबी के साथ दूसरों के खेतों पर जी-तोड़ परिश्रम के बाद उन्हें मिले ज्वार के दानों को कितना संभालना पड़ता था,साथ ही यह भी कि मां कहा करती थी कि पढ़ना-लिखना ही सारे अभावों को दूर करने का एकमात्र उपाय है. बचपन में झेले कष्टों और अतीत की कष्ट गाथाओं ने शांताबाई के अवचेतन का निर्माण किया. मां के मरने के बाद शान्ता बाई की बड़ी बहन ने अपने छोटे भाई–बहनों के लिए मां की भूमिका निभायी. शांताबाई लिखती हैं, कि कैसे भूख लगने पर वे बहन की ससुराल जाकर भोजन मांग कर खा लेते थे और बड़ी बहन अपनी भूख को सिर्फ़ पानी पीकर दबा लिया करती थी.
शांताबाई के आत्मकथ्य में दलित समुदाय में प्रचलित अभ्यासों का विस्तार से वर्णन किया गया है. अन्धविश्वास का कारण अशिक्षा है, तंत्र-मन्त्र के अभ्यास इसी का परिणाम होते हैं. अपने समुदाय में बच्चों की रक्षा के लिए किये जाने वाले तांत्रिक अभ्यासों के बारे वे लिखती हैं–
अगले दिन हम लोग अपने दादा के घर गए. महारों के रहने की जगह पर एक औरत ने पूरी जगह साफ़ करके गोबर से लीप दी थी. बच्चे और बड़ों ने नए कपड़े पहने थे. अब पोतराज आया, वह अलग तरह के कपड़े पहने माथे पर हल्दी लगाये हुए था. उसने अपने अंगूठे पर धातु के लच्छे पहन रखे थे जो उसका हाथ हिलने पर खूब आवाज़ करते थे. बाजा बजना शुरू हुआ और सुहागिनें मिलकर झरने से पानी लाने के लिए पवित्र गीत गाते हुए आगे बढ़ीं(इसमें विधवाओं का शामिल होना मना था) पोतराज ’हलगी’ की धुन पर नाच रहा था. सारा गाँव इकठ्ठा हो गया था. औरतों ने अपने घड़े पानी से भर लिए और सर पर रखकर लौटने लगीं. पोतराज औरतों के कान में मन्त्र फुसफुसाने लगा और उनपर देवी आ गयी. वे नाचने लगीं, अजीबोगरीब आवाजें निकालने और ज़मीन पर रेंगने लगीं. चाचा ने मुझे एक थाली में दही चावल दिए कि मैं चारों ओर बिखेरूं. एक गर्भवती भेड़ लायी गयी जिसकी बलि दी जानी थी.
पोतराज ने सबसे कहा कि ‘सब लोग सारे रीति –रिवाजों पर ध्यान दें. धार्मिक काम करते हुए कोई भी गलती अगर हुई तो देवता का शाप लगेगा. पोतराज ने फिर प्रार्थना की और सभी सुहागिनों ने कहा– सब अच्छा होगा. फिर वे घर आ गए. तब भेड़ की खाल छीली गयी उसके टुकड़े किये गए. उसकी आंतें एक बर्तन में डाल कर अलग पकने के लिए रख दी गईं. मांस के टुकड़ों को अलग पका दिया गया. सूखी भाखरी और तेल से मसादेवी की पूजा की गयी. अलग ढँक कर रखे गए भोजन से देवी की पूजा की गयी. तब सभी सुहागिनों और बच्चों ने प्रसाद पाया,पुरुषों ने उनके बाद खाया. अगले दिन भेड़ के बचे हुए हिस्से, जैसे सर को पकाया गया और सबने उसे खाया.
आख्यान में बहुत बार गाँव वालों और परिवार के पंढरपुर की यात्रा पर जाने के प्रसंग आते हैं. बच्चों की बीमारी ठीक करने के लिए भांग पीना,बलि चढ़ाना,औरतों पर देवी आना जैसे अंधविश्वासों की चर्चा आत्मकथ्य में भरी पड़ी है. सातवीं कक्षा के बाद काम्बले मास्टर के साथ विवाह तय होने का रोचक प्रसंग शांताबाई ने लिखा है- ”विवाह साठ रूपए और एक साड़ी में तय हुआ. काम्बले मास्टर ने एक साड़ी और ब्लाउज खरीदकर सगाई के दिन के लिए मेरी ननद के घर में रख दिया”. . ”
शादी का समारोह एक छोटे पंडाल में हुआ जहाँ औरतें पूरणपोली बना रही थीं,जबकि मर्द सब्जी बना रहे थे. समुदाय के सभी लोगों को, नए दंपत्ति को शुभकामना देने, उनपर अक्षत छींटने और सामूहिक-भोज के लिए बुलाया गया था. अगले दिन एक बकरी को काट दिया गया. चारों ओर हंसी –खेल और कोलाहल था. अंतत: उन दोनों को दो घोड़ों पर बिठा कर जुलूस निकाला गया. शादी का जुलूस गाँव की सीमा पर ही घूमता रहा क्योंकि गाँव के बीच से जुलूस निकलने की इजाज़त महारों को नहीं थी. शादी के बाद शांता काम्बले मास्टर के घर गईं जहां गरीबी का साम्राज्य था. कुछ ही दिन के बाद काम्बले मास्टर ने अपनी एक विधवा रिश्तेदार लड़की से दूसरी शादी कर ली जिसका विरोध शांताबाई ने किया. लेकिन उस विधवा के माता–पिता ने काम्बले मास्टर को अच्छा दहेज़ दिया जिससे दबाव में आकर काम्बले ने दूसरी शादी की. इस घटना से आहत होकर शान्ताबाई अपने मां–बाप के घर लौट आई. काम्बले मास्टर बीच–बीच में वापस चलने का अनुरोध लेकर आते रहे. जब शांता पिता के घर आईं वह पांच महीने की गर्भवती थीं. रोज़गार के लिए उन्होंने कुर्दुवादी स्कूल में नौकरी कर ली थी और पति से अलग रहने के कारण बहुत से सामाजिक अपवादों का सामना भी किया. एक प्रसंग में अपना पीछा करने और दूसरे विवाह का प्रस्ताव लाने वाले की पिटाई चप्पल से करना भी उन्होंने लिखा है.
कुछेक दिनों में ही काम्बले मास्टर की अपनी दूसरी पत्नी से अनबन हो गयी,वह अपने मायके चली गयी तब वह शांताबाई के पास आकर उसे ज़बरदस्ती अपने साथ ले आये. लेकिन शांताबाई को जैसा भय था वही हुआ,दूसरी पत्नी जल्द ही लौट आई और अब गृह कलह शुरू हुआ. इस दौरान शांताबाई स्कूल में नौकरी करती रहीं लेकिन मास्टर काम्बले से पीछा छुड़ाना मुश्किल ही था.
शांताबाई बचपन में अभाव और भूख के अनुभव पाठक से साझा करती हुई लिखती हैं कि उनकी मां दूसरी औरतों के साथ खेत में चरने वाले जानवरों के गोबर को इकठ्ठा करके उसमें से अनाज के दाने अलग कर लिया करती थी. उन दानों को धो–सुखा और पीस कर घर के सदस्यों का पेट भर लेती थीं. अपने पति और लड़के के लिए अच्छे अनाज को पीस कर रोटी बना लेती थीं और घटिया श्रेणी के अनाज की रोटी घर की लड़कियों और औरतों के हिस्से आती थी. वह इसी सन्दर्भ में लालू महारिन को भी याद करती हुई लिखती हैं–
लालू महारिन ने अभी-अभी प्रसव किया था. घर में खाने को कुछ भी नहीं था. प्रसव को 12 दिन बीत चले थे, वह लगातार भोजन ढूंढ रही थी और बहुत भूखी थी. वह अचानक उठी,बच्चे को गुदड़ी में सुलाया उसे पुरानी साड़ी से ढँक कर झोपड़ी के बाहर निकल गयी. पास में ही रामा चौघले का खेत था, जिसमें उसने मकई उगा रखी थी. लालू खेत में गयी और कच्ची मकई तोड़–तोड़ कर खाने लगी तभी रामा चौघले ने पुकारा–कौन है वहां खेत में ?
लालू ने कहा– “मैंने 12 दिन पहले ही बच्चा पैदा किया है, बहुत भूखी हूँ,पेट जल रहा है क्या करूँ ?आपके भुट्टे खा रही हूँ. जो करना है कर लो”
रामा ने माथा पीट लिया –“लालू तू मर जाएगी ! तेरा पति क्या कर रहा है ?”
“घर में निठल्ला बैठा है. उसे कोई काम नहीं है. ”इस जवाब ने चौघले को चुप करवा दिया. लालू कच्ची मकई भरपेट खाकर लौट गयी.
जब मेरी मां ने लालू के बारे में यह सुना तो वह लालू को देखने उसके झोपड़े में गयी – “ये क्या लालू ?तुम ऐसे कैसे कच्ची मकई खा सकती हो ?तुम्हारे नवजात शिशु का क्या होगा ?”
“अरे क्या ग्वालाबाई, इससे क्या हुआ, पहले भी तो हमने भूख में कच्चा अनाज खाया है. हम भूख में और कर भी क्या सकते हैं ‘
शांताबाई उत्पीड़न के लैंगिक पक्ष पर भी लिखती हैं. घर में भोजन या अनाज आने पर स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों की आवश्यकता को तरजीह दी जाती. नौकरी कर अध्यापिका बनने के बाद भी वह अक्सर भूखी रहती क्योंकि घर के लोगों की ज़रूरतें बहुत ज्यादा थीं और तनख्वाह कम. सन 1959 तक शांताबाई ने कई स्कूलों की नौकरियां कीं, जातिदंश झेले,क्षमता से अधिक श्रम किया,संतान –वियोग झेला लेकिन साथ ही अपने समुदाय में शिक्षा के अभाव के कारणों को समझा. इसके लिए काम्बले मास्टर के साथ वयस्क पाठशालाओं की स्थापना भी की. शांताबाई की वयस्क पाठशाला में 40 से अधिक औरतों ने भाग लिया. वे पाठशाला में गीत, नृत्य, भाषण इत्यादि का अभ्यास किया करतीं.
शांताबाई के इस स्कूल की सराहना दूर–दूर तक हुई. शांताबाई बाबासाहब अम्बेडकर के प्रभाव को रेखांकित करती हुई लिखती हैं –
“कुर्दड़ी जाने के बाद मैं अक्सर सोलापुर में बाबा साहेब के भाषणों को सुनने जाया करती. कई कामगार बाबासाहेब के विचारों और भाषणों के प्रचार–प्रसार का काम करते – “मृत जानवरों का मांस मत खाओ,किसी के मरने पर बिना पारिश्रमिक के लकड़ियाँ काटने का काम मत करो’ सगे–सम्बन्धियों की मौत की खबर देने के लिए हरकारे का काम मत करो,”
अछूतों, नींद से जागो, गाँव में गंदे काम मत करो, अपने बच्चों को स्कूल भेजो. अशिक्षा को बढ़ावा मत दो” शांताबाई ने बाबासाहेब अम्बेडकर के भाषणों का जनता पर पड़े सीधे प्रभाव का विवेचन करते हुए इस बात का उल्लेख किया है कि वे अपने भाषणों से दलितों में चेतना भर दिया करते–
“मैं पोतराज की तरह गाँव–गाँव नहीं घूमता. . अपने बच्चों को पढ़ाओ.मरे जानवरों का मांस खाना बंद करो. . मरे जानवरों से सम्बंधित कोई भी काम करना बंद करो ‘ऐसा लगा मैं उनको हमेशा सुनती रहूँ.’
बहुत ही विस्तृत आलेख। दलित जीवन का खण्ड-खण्ड सच-एक आत्मकथात्मक साक्ष्य । तीन तरफा मार झेलती स्त्री- एक तो स्त्री, वह भी दलित और उस पर से पितृसत्ता के अधीन।अभी समयाभाव से इसे आद्योपांत नहीं पढ़ पाया। लेकिन अत्यंत पठनीय एक जरूरी आलेख।
साहित्य का भूगोल हो या इतिहास इन दलित महिला कथाकारों की आत्मकथाओं की उपस्थिति को दर्ज किए बिना कभी मुक्कमल आकार ग्रहण नहीं कर सकता। बेबी हालदार की आत्मकथा पढ़ते हुए अविस्मरणीय कहानी आखेट के कथाकार प्रबोध कुमार और विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी स्वर्गीय अशोक सेकसरिया का स्मरण न आना असंभव है। हमेशा की तरह इस बार भी अपने गंभीर और सुचिंतित आलेख को पढ़वाने के लिए गरिमा श्रीवास्तव जी का और अरुण देव जी का अभिवादन।
गरिमा श्रीवास्तव का यह भी एक सुचिंतित आलेख है। भारत में दो तरह के स्त्री लेखन होते रहे हैं। एक खाए-अघाए या सवर्ण स्त्रियों का लेखन, और दूसरा दलित-बहुजन स्त्रियों का लेखन। सवर्ण स्त्रियों के यहां दलित-बहुजन स्त्रियां उसी तरह से गायब हैं जिस तरह से सवर्ण पुरुषों के लेखन से जाति समस्या या दलित-बहुजन समाज। इतना ही नहीं सवर्ण लेखिकाएं दलित-बहुजन स्त्रियों से अकूत घृणा भी करती हैं। लेकिन दलित स्त्री लेखन की यह खासियत है कि एक तरफ यदि वह द्विजवाद से लड़ता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही समाज की मर्दवादी सोच और विचार से। दलित-बहुजन स्त्रियों के लेखन में हम कई-कई मोर्चों पर संघर्ष और अभिशापों को पाते हैं। इसीलिए उसे भारत के प्रमुख स्वर के रूप में पहचान मिल रही है। ईमानदारी, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और स्वाभाविकता उसकी विशेषता है। तभी मल्लिका अमरशेख जैसी महान दलित लेखिका अपने पति नामदेव ढसाल की कलई को खोलकर रख पाती हैं। तहमीना दुर्रानी और तसलीमा जैसी लेखिकाओं ने भी ऐसा साहस दिखाया है। लेकिन हिंदी की सवर्ण लेखिकाओं के पास ऐसा साहस कहां? वह तो फैशन में लिखते चलती हैं। वे भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का नाम नहीं लेंगी लेकिन वर्जीनिया वुल्फ और जर्मन ग्रीयर का नाम लेते नहीं अघाएंगी।
अच्छा आलेख है। कई महत्वपूर्ण संदर्भों से संपन्न।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी घटिया-सी आत्मकथा लिख दी थी। वहीं दूसरी ओर तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएँ और कष्ट तो वयक्त किए, लेकिन अपनी पत्नी के बारे में बिल्कुल भूल ही गए। स्त्री दलितों में भी सबसे दलित है। पितृसत्तात्मक समाज की बन्दिशें दलित स्त्रियों को भी झेलनी पड़ती हैं। उनका दोहरा शोषण होता है। ऊँची जातियों के द्वारा और ख़ुद अपने ही समाज के मर्दों के द्वारा।
सही है
सशक्त भाषा के साथ गंम्भीर विश्लेषण करते हुए गरिमा जी ने दलित स्त्रियों के आत्मकथ्यों से दिखाई देने वाले गहरे दंश को साहित्य जगत के सामने लाकर अन्याय के खिलाफ दस्तावेज प्रस्तुत करने का श्लाघनीय कार्य किया है। उन्हें और अरुण देव को अभिवादन।
शुक्रिया शुभा जी