जिण आमुच्या
बेबी कोंडिबा काम्बले (1929 )की आत्मकथा ‘जिण आमुच्या’ सबसे पहले मराठी पत्रिकाओं में धारावाहिक रूप में छपी जिसके बाद महाराष्ट्र संस्कृति मंडल की ओर से 1986 में इसका प्रकाशन पुस्तकाकार हुआ, जिसका हिंदी अनुवाद ‘जीवन हमारा’ शीर्षक से सामने आया. बेबी ताई काम्बले परचून की एक छोटी दुकान चलाती थी जहाँ वह छपे कागजों की पुड़िया में सामान बेचती थी. छपे शब्द से उनका सम्बन्ध बस इतना ही था. ‘जिण आमुच्या’ उन्होंने सुबह के वक्त में लिखना शुरू किया. वे दलित स्त्री पर लागू सेंसरशिप के दबावों की चर्चा करती हैं कि जब उनके पति दुकान के लिए राशन खरीदने जाते तब बेबी अपने जीवन के बारे में कागज के ठोंगों पर लिखा करतीं और किसीको दिखाती नहीं. वे अपना लिखा हुआ अक्सर छिपा कर रखती थी. मेक्सीन बेरस्टीन ने उन लिखे शब्दों को पढ़ा और मराठी पत्रिका ‘स्त्री’ में छपने भेज दिया और इस तरह यह आत्मकथा पाठकों के सामने आई. भूमिका में ही बेबी ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह अपने समुदाय की स्थिति बताने के लिए अपने जीवन के पिछले पचास वर्षों का लेखा-जोखा लिख रही है. इस पुस्तक के हिंदी अनुवाद की भूमिका में मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है –
“जीवन हमारा (जिण आमुच्या) मराठी की महत्वपूर्ण दलित लेखिका बेबी काम्बले की मशहूर रचना है, जिसके प्रकाशन से मराठी–साहित्य–संसार में काफी हलचल पैदा हुई थी. . . मराठी में यह आत्मचरित्र या आत्मकथा के रूप में विख्यात है. लेकिन यह केवल एक व्यक्ति की आत्मकथा नहीं है. इसमें एक दलित समुदाय की कठिन सामाजिक स्थिति, उसके जीवन की भीषण वास्तविकताओं और उसके रोमांचकारी सांस्कृतिक अनुभवों का उपन्यास जैसा विशद चित्रण है. इसलिए इसे आत्मकथात्मक उपन्यास कहना गलत न होगा. अगर यह आत्मकथा है तो एक व्यक्ति की नहीं बल्कि एक समुदाय की आत्मकथा है.”
बेबी काम्बले की आत्मकथा शीर्षकहीन बारह अध्यायों में विभक्त है. यह आत्मकथा अन्य दलित आत्मकथाओं की तरह बहुत ही व्यवस्थित ढंग से उनके बचपन की स्मृतियों से शुरू होती है जो महार समुदाय के रहन -सहन के बारे में पाठक को नई,वास्तव में पाठक को उस जीवन के दृश्य बेचैन और संत्रस्त कर देते हैं. सवर्ण और ऐसे समुदाय जो हाशिये के जीवन को नहीं जानते यह आख्यान उन्हें ग्लानि से जकड़ डालता है. महारवाड़ा के जीवन के प्रामाणिक चित्र इस आत्मकथा में मिलते हैं. 1920 के दशक में गाँव के सीमान्त पर बसी दलित बस्ती के घर मिट्टी के थे, जिन के बारे में बेबी लिखती हैं-
“करीब–करीब कुल मिलकर पंद्रह–सोलह घर थे. उनमें दो –तीन घर ही आर्थिक रूप से थोड़ा संपन्न थे. बाकी सारे घर चिर -दरिद्र. कीचड़ –मिट्टी से लिपे छोटे–छोटे घर,दरवाज़े पर पानी पीने के लिए मिट्टी का बड़ा घड़ा,लेकिन उसका मुंह एकदम छोटा होता था, इसलिए उसे ‘केली’ कहते थे. उस केली के मुंह पर नारियल की खोपड़ी का आधा टुकड़ा होता. उस खोपड़ी में तीन छेद बने होते. दो छेदों को उंगली से बंद कर तीसरे छेद पर अंगूठा लगाकर वहीं से गटागट पानी पीते थे वे. दरवाज़े के पास टूटा –फूटा चूल्हा. चूल्हे के पास दो मिट्टी के बरतन. लकड़ी का चमचा,बीच में से फूटा हुआ लोहे का तवा. आटा गूंथने के लिए लकड़ी की परात. रोटी पलटने के लिए लोहे का लम्बे हाथ जैसा पतरा. एक कोने में आटा पीसने की चक्की. चूल्हे के ऊपर रस्सी. यह रस्सी हमारे लिए जनेऊ की तरह पवित्र होती. यह हमारे जन्म की निशानी होती. उस पर मरे हुए जानवरों की खाल सुखाने के लिए डालते थे. दूसरे कोने में मैला–कुचैला,फटा हुआ बिस्तर. . . . मैले चीकट शरीर,बिना तेल लगे,गंदे उलझे बाल–किसी झाड़ी की तरह कंधे पर फैले हुए. देखने वालों को लगता कि ये बाल मानों किसी चूहे ने जगह-जगह कुतर दिए हैं. इन उलझे बालों में जूँ और लीखों की भरमार होती. बच्चों की नाक हर वक़्त नल की तरह बहती रहती. इन बच्चों के शरीर पर कपड़े का एक टुकड़ा तक नहीं होता.
ऐसे नंग–धड़ंग बच्चे एक–एक घर में आठ-आठ,दस–दस होते. कहीं कहीं पंद्रह तक होते. ख़ास बात यह कि सबसे बड़ा बेटा माँ-बाप द्वारा छोड़ा हुआ होता (भगवान के नाम पर)उस लड़के को ‘पोतराज’ के नाम से जाना जाता. आठ–नौ वर्ष तक तो बच्चे एकदम नंगे ही रहते. लड़की जब सयानी होने लगती तो घर के फटे चीथड़ों में से ढूंढ–ढांढकर उसके लिए कपड़ा सिलाया जाता. कपड़ा भी क्या ?कमर में कपड़े की गाँठ मारकर लंगोट जैसी बना दी जाती. घर में मरी देवी को चढ़ाया हुआ जो कपड़ा होता,उसी की चोली बड़े–बड़े टाँके लगाकर सिल दी जाती. जवान होती लड़की का यही पहनावा था. ”
दलितों के अभावग्रस्त जीवन में आषाढ़ का महीना सुकून से भरा होता क्योंकि साल के इसी महीने में उन्हें भरपेट खाने को मिलता,मांस मिलता क्योंकि आषाढ़ अमावस्या को बलि दिए जाने का रिवाज़ था–
राई भर सुख की आस में ये लोग पहाड़ जितना दुःख उठा लेते. बारहों महीने सुख से रहने वालों को भी शायद आनंद की वह अनुभूति नहीं हो सकती जितनी ये लोग इस एक महीने (आषाढ़)में महसूस कर लेते. इस एक महीने में इनके लिए जैसे आनंद का सोता–सा झरता रहता. विश्व रचयिता ने पृथ्वी के इन दीन–हीन गुलामों के लिए भी सुख की यह व्यवस्था कर दी थी मानो. जिसने चोंच दी है वह चारा भी देगा,इस सिद्धांत के तहत भगवान् ने बारह में से यह एक महीना इन्हें भी बक्शा होगा. आषाढ़ का महीना यानी बिना भोजन के सूख गयी आँतों के लिए अप्रत्याशित वरदान. यानी जीभ को नए–नए स्वाद दिला पाने का पर्व. इस आनंद की लहर सबसे पहले स्त्रियों के भीतर जागती. आषाढ़ उनके निर्धन समय में स्वर्णकाल बनकर उतरता. यह धर्म का, देवता का महीना होता. जिसके शरीर में देवता आते हैं,उसके लिए तो अपनी कला का कौशल दिखाने का यह सर्वश्रेष्ठ समय होता. इस महीने में टूटी–उधड़ी दीवारों को गोबर–मिट्टी से अच्छी तरह लीप दिया जाता. घर का सारा सामान संवारा जाता. सारा सामान यानी उतरंडी (मटके के ऊपर मटका )और घर-भर में फैले सारे मटके.
जगह–जगह से टूटे–फूटे हुए लेकिन सुघड़ गृहणियां द्वारा दो पीढ़ियों से संभालकर रखे हुए मटकों में चूहों द्वारा बनाये गए बिल. चूहा अन्दर न जाने पाए,इसके लिए महिलायें फटे-पुराने कपड़े उनके बिल में ठूंस देतीं. चीथड़ों के भीतर बबूल के कांटे भर देतीं,ताकि चूहा उन चीथड़ों को कुतर न पाए. छोटे–छोटे मटकों के ऊपरी,मुंह वाले हिस्से टूटे हुए होते. यही,पीढ़ियों से संजोया हुआ उनका संसार. . . . . आषाढ़ महीने का मंगलवार,शुक्रवार और अमावस्या तथा पूर्णिमा,यह सारा ही समय हम लोगों का व्यस्ततम समय होता. इस समय का एक भी क्षण बर्बाद न होने पाए,इसका ध्यान रखा जाता. हिन्दू धर्मानुसार हम लोगों को बाहर कर दिया था. समाज से बहिष्कृत थे हम लोग. देह से हम अछूत थे– मानो कूड़ा–करकट का ढेर हों– लेकिन अंत:करण से हम भी हिन्दू ही थे और हिन्दू धर्म को अपने प्राणों से भी अधिक मानते थे. हमारी गरीब,लाचार औरतों के लिए हल्दी–रोली का पात्र हीरे जवाहरात से ज्यादा कीमती था. हिन्दू संस्कृति को बचाए रखने का हम लोग जी–जान से प्रयास करते रहे हैं, फिर भी न हमें कोई समझ पाया और न ही जानने–समझने की कोई कोशिश ही की गई.
बेबी काम्बले का आत्मकथ्य ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक विचारों के दलित जातियों पर नियंत्रण और प्रभाव के बारे में बताता है कि तमाम शोषण और मनुष्यता विरोधी कायदों के साथ धर्म का डर किस कदर निम्न कही जाने वालों की जीवन–शैली को नियंत्रित करने की साजिश रचता है. धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करके ये जातियां स्वयं को हिन्दू धर्म का अविच्छिन्न अंग समझने का भ्रम पाले रहती हैं,जिसका लाभ सवर्ण जातियां लेती चली आई हैं.
बेबीताई काम्बले ने अपने समुदाय में प्रचलित पर्दा–प्रथा का वर्णन भी किया है. उनके गाँव में बेबी के पिता यानी पंढरीनाथ मिस्त्री की पत्नी का चेहरा भी किसी ने नहीं देखा, यानी वह असूर्पश्या है, इस बात से पिता को काफी गर्व महसूस होता था. वे लिखती हैं –
“मेरे पिता ने मेरी मां को मैना पक्षी की तरह पिंजरे में बंद करके रखा हुआ था. वे अपनी सारी कमाई दूसरों को दान कर देते.”
समुदाय में प्रचलित दहेज़–प्रथा का घिनौना रूप भी बेबी ने चित्रित किया है. विवाह अक्सर बचपन में ही हो जाया करते थे, लड़के का पिता लड़की के घरवालों को दहेज़ देता था जिससे विवाह की व्यवस्था, भोज इत्यादि का खर्च निकल जाता था. शादी के तुरंत बाद ही दुल्हन के जीवन का कठिन दौर शुरू हो जाता था. अक्सर पति के घर जाने के लिए दुल्हन को दो या तीन दिन की पैदल यात्रा करनी होती थी, किसी तरह के परिवहन का खर्च उठाने की शक्ति दोनों में से किसी पक्ष के पास नहीं होती थी. बेबीताई चिकित्सा सुविधाओं की नितांत कमी का ज़िक्र करते हुए कहती हैं कि उन दिनों और गरीबों के लिए तंत्र–मन्त्र और झाड़-फूंक के रास्ते ही खुले हुए थे. भूख और गरीबी के प्रसंग इस आत्मकथा में भरे पड़े हैं. जिन दिनों भोजन की कमी रहती जंगली बेरियों से बच्चों की भूख मिटाई जाती. विडम्बना ही थी कि जब जानवरों में महामारी फैलती तो समुदाय के लोग खुश होते क्योंकि महामारी फैलने का अर्थ था उनके लिए ढेर से मांस का अपने–आप प्रबंध हो जाना.
हालांकि बीमार मृत जानवर का शरीर कभी-कभी सड़ा हुआ भी होता ऐसे में उसके शरीर के कुछेक भाग ही खाने के काम में आते. महार अक्सर अकेले चरने वाले जानवर की फिराक में रहते और उसे चुपचाप जहर खिला देते जिससे वह एकाध दिन में मर जाता. जानवर के मरने से पहले ही वे जानवर-मालिक के घर के आसपास पहुंचे रहते ताकि मरे जानवर को ढो कर ला सकें. बस्ती में मरा जानवर आते ही हलचल मच जाती, औरतें पंक्ति में खड़े होकर जानवर के मांस के अपने हिस्से का इंतज़ार किया करतीं. कभी-कभी मांस पकाने के लिए जलावन की लकड़ी भी कम पड़ जाती. ऐसे में लोग लगभग कच्चा मांस ही खा डालते. बचे मांस के टुकड़े,खाल और हड्डियों को सुखा कर मिट्टी के बर्तनों में भर कर बंद कर दिया जाता.
समुदाय में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ ज्यादा काम किया करतीं. स्त्री श्रम- विभाजन पर टिप्पणी करते हुए बेबी काम्बले बताती हैं कि महार समुदाय में अलग-अलग उम्र की औरतों के लिए श्रम के प्रकार स्पष्ट रूप में विभाजित हुआ करते थे. आम तौर पर युवा स्त्रियाँ भाखरी बनाया करती थीं. सास अपनी बहू के काम के तरीकों में नुक्स निकालती थी- मसलन भाखरी के लिए अनाज अच्छी तरह नहीं पिसा. तब विवाह बचपन में ही हो जाते थे, किशोरी होते-होते बहू पर सास का शासन कड़ा हो जाता था जिससे घर में झगड़े शुरू होते थे. सास अपनी बहू के खिलाफ बेटे के कान भरती थी. बेबीताई बताती हैं कि कम से कम सौ में एक बहू तो ऐसी मिल ही जाती थी जिसका चेहरा बिगड़ा और चोटिल रहता था, या नाक कटी रहती थी.
बेबीताई काम्बले की आत्मकथा महार समुदाय के उन दिनों की कथा है जब बाबा साहब अम्बेडकर का आगमन नहीं हुआ था. अम्बेडकर के आने और उनके द्वारा दलित-चेतना के प्रसार के बाद और पहले की स्थिति और इन दोनों के बीच के संक्रमण काल पर यह आत्मकथा बहुत बेहतर ढंग से टिप्पणी करती है. इसकी विशेषता यह है कि इसमें महार जाति की दुर्दशा के कारणों की पड़ताल करते हुए सिर्फ़ सवर्णों को उत्तरदायी नहीं ठहराया गया है बल्कि समुदाय के भीतर प्रचलित पितृसत्तात्मक अभ्यासों और अपने घर परिवार की स्त्रियों का उत्पीड़न और शोषण करने वाले महार पुरुष वर्ग के बारे में भी कड़ी टिप्पणी की गयी है.
उर्मिला पवार का कहना है कि पुरुष जितना चाहे लिख सकते हैं क्योंकि उन्हें तैयार भोजन मिल जाता है और जब वे लिखते हैं तो उन्हें प्रशंसा भी मिल जाती है. जबकि ऐसा स्त्रियों के साथ नहीं होता. वे यदि दिन भर लिखें तो शिकायत होती है कि वे घर के कामों की ओर ध्यान नहीं दे रही हैं. स्वयं बेबी काम्बले को पति के सामने अपने बारे में लिखने की आज़ादी नहीं थी. पुराने रद्दी कागज और सामान रखने वाले ठोंगे पर उन्होंने पति से छुपा कर लिखा. अपने ऊपर पति के बेजा नियन्त्रण के बारे में बेबी ने आत्मकथा में कई जगह टिप्पणी की है. बेबी का विवाह तेरह वर्ष की उम्र में ही हो गया था,तब भी समुदाय के प्रचलन के हिसाब से उनकी उम्र ज़रूरत से ज्यादा समझी गयी. एक किशोरी के लिए विवाह कई नयी जिम्मेदारियों और मुसीबतों की खान था.
यद्यपि बेबी की सास अच्छे स्वाभाव की थी लेकिन बेबी के पति ने बेबी पर बहुत नियंत्रण रखा. बेबी को अपनी इच्छा से कुछ भी करने की आजादी नहीं थी. जब भी वह अपने अनुसार कुछ करने की कोशिश करतीं, उन्हें पति की निर्मम पिटाई का शिकार बनना पड़ता. वे ऐसे कई प्रसंगों को भूल नहीं पातीं जहाँ उन्हें बिना किसी अपराध के निर्ममता से पीटा गया. वे निरन्तर घरेलू हिंसा की शिकार रहीं,जिसके बारे में उनके परिवार के सदस्य हमेशा चुप रहे,किसी ने न्याय का पक्ष नहीं लिया,ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि महार समुदाय में आम तौर पर स्त्रियाँ दैनंदिन मार–पीट, गाली–गलौच का शिकार हुआ करती थीं.
बेबीताई का पति बेरोजगार होते हुए भी अपने पुरुषत्व की परीक्षा जब-तब बेबी की देह पर किया करता था. आत्मकथा के अंग्रेजी रूपांतर में बेबीताई से अनुवादक माया पंडित का साक्षात्कार संकलित है जिसमें उन्होंने पति के दुर्व्यवहार और हिंसा का वर्णन किया है –
“एक बार हम लोग एक मीटिंग में भाग लेने के लिए मुम्बई गए,हम जिस डब्बे में बैठे उसमें काफी भीड़ थी. मेरे पति को अचानक शक हुआ कि कुछ लड़के मेरी ओर लगातार देख रहे हैं. फिर क्या था उसने मुझे इतनी जोर से मारा कि मेरी नाक से धारोंधार रक्त बहने लगा. . . उसी शाम हम लौट गए और वह मुझपर इतना नाराज़ था कि ट्रेन में, रास्ते भर मुझे मारता रहा. ”
दलित स्त्रियों के त्रिस्तरीय शोषण की तरफ बेबी संकेत करती हैं. तेजस्विनी नारायणकर ने ठीक ही कहा है कि –
“दलित स्त्रियों की आत्मकथाएं पुरुष सत्ता के दमन के खिलाफ़ हैं. वे दलित स्त्रियों की मनोसामाजिक स्थिति के बारे में बताती हैं और उनका अंत: सामाजिक संबंधों के वर्णन से होता है. . . लेखन को,दलित स्त्रियाँ अपने दमित अस्तित्व के खिलाफ पहचान स्थापित करने के लिए एक औज़ार के तौर पर इस्तेमाल करती हैं. अम्बेडकरवादी आन्दोलन के विविध पड़ाव. अस्तित्व के लिए संघर्ष,अम्बेडकरवादी आन्दोलन में उनकी शिरकत स्त्री –पुरुष सम्बन्ध,अवमाननायें,कष्ट और बतौर स्त्री उनका निम्नजीवन स्तर –ये सब दलित स्त्रियों की आत्मकथाओं का केन्द्रीय भाव है. इन आत्मकथाओं ने न सिर्फ़ दलित साहित्य बल्कि क्षेत्रीय भाषाओँ के साहित्य को भी समृद्ध किया है “.
बेबी काम्बले की आत्मकथा अन्य स्त्री आत्मकथाओं से विशिष्ट है क्योंकि इसमें बेबी दलित समाज के भीतर की लैंगिक राजनीति पर बेबाक ढंग से टिप्पणी करती हैं. वे दलित स्त्रियों के दैहिक और मानसिक हिंसा,जिसका सामना दलित स्त्रियाँ करती हैं,उसके बारे में लिखती हैं “यदि महार समुदाय ब्राह्मणों के लिए ‘अन्य’ है तो महार स्त्रियाँ,महार पुरुषों के लिए ‘अन्या’ हैं बेबीताई काम्बले ने अपने जीवन में अम्बेडकरवाद का अनुकरण किया, उन्हें गर्व है कि वे अम्बेडकरवादी आन्दोलन की उपज हैं. बेबी के पिता ‘दैनिक केसरी’,’दैनिक सकाळ’ और डाक्टर अम्बेडकर द्वारा प्रकाशित ‘बहिष्कृत भारत‘ घर लाया करतेथे,वे समुदाय के लोगों को सुनाने के लिए ऊँची आवाज़ में इन अखबारों को पढ़ते थे,बेबी काम्बले ऐसे ही माहौल में पली- बढ़ीं.
युवा कार्यकर्ताओं के बीच बेबी की चेतना का भी विकास हुआ,उन्होंने अनपढ़ लोगों के लिए प्रौढ़- शिक्षा केंद्र खोले. बेबी का आत्मकथ्य एक युवा संवेदनशील स्त्री की विकास- यात्रा को बताता है. उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया था इस बात के प्रमाण नहीं मिलते लेकिन वे अम्बेडकर की भक्त थीं इसलिए जब 1956 में अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाया तो बेबी ने भी हजारों अन्य दलितों की तरह उनका अनुकरण किया.
बेबी ने ‘बुद्ध प्रार्थना ‘’बुद्धचा पालना’ शीर्षक कवितायेँ भी लिखीं, जिनमें बौद्ध धर्म की प्रशंसा मिलती है. आत्मकथा के अंतिम भाग में बेबी काम्बले वर्तमान समाज के प्रति सामाजिक उत्तरदायित्व की बात करती हैं. हाशिये पर पड़े लोग कभी भी समाज में मर्यादित स्थान नहीं पा सकते जब तक वे संघर्ष न करें और संघर्ष के मार्ग में आने वाले कष्टों के लिए प्रस्तुत न हों. वे सामाजिक परिवर्तन को बाहरी परिवर्तन से जोड़ कर देखती हैं और सामाजिक समूहों के अंत:करण में होने वाले परिवर्तनों पर विशेष बल देती हैं. वे भीमराव अम्बेडकर की शिक्षा के प्रकाश में अपने समाज के लिए प्रकाश और आशा की नयी किरण देखती हैं.
बहुत ही विस्तृत आलेख। दलित जीवन का खण्ड-खण्ड सच-एक आत्मकथात्मक साक्ष्य । तीन तरफा मार झेलती स्त्री- एक तो स्त्री, वह भी दलित और उस पर से पितृसत्ता के अधीन।अभी समयाभाव से इसे आद्योपांत नहीं पढ़ पाया। लेकिन अत्यंत पठनीय एक जरूरी आलेख।
साहित्य का भूगोल हो या इतिहास इन दलित महिला कथाकारों की आत्मकथाओं की उपस्थिति को दर्ज किए बिना कभी मुक्कमल आकार ग्रहण नहीं कर सकता। बेबी हालदार की आत्मकथा पढ़ते हुए अविस्मरणीय कहानी आखेट के कथाकार प्रबोध कुमार और विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी स्वर्गीय अशोक सेकसरिया का स्मरण न आना असंभव है। हमेशा की तरह इस बार भी अपने गंभीर और सुचिंतित आलेख को पढ़वाने के लिए गरिमा श्रीवास्तव जी का और अरुण देव जी का अभिवादन।
गरिमा श्रीवास्तव का यह भी एक सुचिंतित आलेख है। भारत में दो तरह के स्त्री लेखन होते रहे हैं। एक खाए-अघाए या सवर्ण स्त्रियों का लेखन, और दूसरा दलित-बहुजन स्त्रियों का लेखन। सवर्ण स्त्रियों के यहां दलित-बहुजन स्त्रियां उसी तरह से गायब हैं जिस तरह से सवर्ण पुरुषों के लेखन से जाति समस्या या दलित-बहुजन समाज। इतना ही नहीं सवर्ण लेखिकाएं दलित-बहुजन स्त्रियों से अकूत घृणा भी करती हैं। लेकिन दलित स्त्री लेखन की यह खासियत है कि एक तरफ यदि वह द्विजवाद से लड़ता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही समाज की मर्दवादी सोच और विचार से। दलित-बहुजन स्त्रियों के लेखन में हम कई-कई मोर्चों पर संघर्ष और अभिशापों को पाते हैं। इसीलिए उसे भारत के प्रमुख स्वर के रूप में पहचान मिल रही है। ईमानदारी, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और स्वाभाविकता उसकी विशेषता है। तभी मल्लिका अमरशेख जैसी महान दलित लेखिका अपने पति नामदेव ढसाल की कलई को खोलकर रख पाती हैं। तहमीना दुर्रानी और तसलीमा जैसी लेखिकाओं ने भी ऐसा साहस दिखाया है। लेकिन हिंदी की सवर्ण लेखिकाओं के पास ऐसा साहस कहां? वह तो फैशन में लिखते चलती हैं। वे भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का नाम नहीं लेंगी लेकिन वर्जीनिया वुल्फ और जर्मन ग्रीयर का नाम लेते नहीं अघाएंगी।
अच्छा आलेख है। कई महत्वपूर्ण संदर्भों से संपन्न।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी घटिया-सी आत्मकथा लिख दी थी। वहीं दूसरी ओर तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएँ और कष्ट तो वयक्त किए, लेकिन अपनी पत्नी के बारे में बिल्कुल भूल ही गए। स्त्री दलितों में भी सबसे दलित है। पितृसत्तात्मक समाज की बन्दिशें दलित स्त्रियों को भी झेलनी पड़ती हैं। उनका दोहरा शोषण होता है। ऊँची जातियों के द्वारा और ख़ुद अपने ही समाज के मर्दों के द्वारा।
सही है
सशक्त भाषा के साथ गंम्भीर विश्लेषण करते हुए गरिमा जी ने दलित स्त्रियों के आत्मकथ्यों से दिखाई देने वाले गहरे दंश को साहित्य जगत के सामने लाकर अन्याय के खिलाफ दस्तावेज प्रस्तुत करने का श्लाघनीय कार्य किया है। उन्हें और अरुण देव को अभिवादन।
शुक्रिया शुभा जी