• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » दलित स्त्री आत्मकथाएं: गरिमा श्रीवास्तव » Page 12

दलित स्त्री आत्मकथाएं: गरिमा श्रीवास्तव

धर्म, जाति, समाज, परिवार और लैंगिगता के कारण पीड़ित दलित स्त्रियों की इन आत्मकथाओं से संभव है आप परिचित हों- हर आत्मकथा दर्द की जैसे कोई नदी हो- लाइफ़ ऑफ़ एन अनटचेबल (वीरम्मा), करक्कू (बामा फ्युस्टीना मेरी), आलो आंधारि (बेबी हालदार), आमि केनो चांडाल लिखी (कल्याणी ठाकुर), रात्रादिन आम्हा (शांताबाई धानाजी दानी), मिटलेली कवाडे (मुक्ता सर्वगोंड), माझ्या जल्मांची चित्तरकथा (शांताबाई कृष्णाजी काम्बले ), जिण आमुच्या (बेबी कोंडिबा काम्बले), अन्तःस्फोट (कुमुद पावड़े), आयदान (उर्मिला पवार), मलाउद्ध्वस्त व्यायंचय (मल्लिका अमर शेख), दोहरा अभिशाप (कौशल्या बैसंत्री), शिकंजे का दर्द (सुशीला टाकभौरे), एक अनपढ़ कहानी (सुशीला राय), अपनी ज़मीं, अपना आसमां (रजनी तिलक), छूटे पन्नों की उड़ान (अनिता भारती), टुकड़ा–टुकड़ा जीवन (कावेरी), बवंडरों के बीच (कौशल पंवार) टूटे पंखों से परवाज़ तक (सुमित्रा महरोल). आलोचक गरिमा श्रीवास्तव ने अपने इस विशद आलेख में इन सभी आत्मकथाओं की अंतर-कथाओं का समावेश किया है. ये आत्मकथाएं अखिल भारतीय हैं. इस आलेख को पढ़ते हुए उस प्रतिनिधि दलित स्त्री का चेहरा सामने आता है जिसकी पीड़ा क्षेत्रीयता की सीमा लांघकर लगभग हर जगह एक जैसी है. गरिमा श्रीवास्तव ने बड़े श्रम, शोध और स्त्री-दृष्टि से इसे लिखा है. ज़ाहिर है यह विचार के साथ-साथ हस्तक्षेप भी है. इसकी प्रस्तुति भी समालोचन के लिए चुनौती थी, प्रत्येक आत्मकथा को अलग पृष्ठ दिया गया है, जिससे कि पढ़ने में सुविधा हो.

by arun dev
November 7, 2021
in आलेख, विशेष
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

अन्तःस्फोट

कुमुद पावड़े (1938) की आत्मकथा अन्तःस्फोट का प्रकाशन 1981 में हुआ.  वे लेखिका,दलित –नारीवादी विदुषी,एक्टिविस्ट तथा संस्कृत की प्रोफ़ेसर रही हैं. कुमुद पावड़े ने महार परिवार में जन्म लिया लेकिन विवाह मोतीराम पावड़े  के साथ हुआ. सतीश देशपांडे का मानना है कि –

“टेस्टीमोनियो’ (यानी साक्षी अथवा स्वानुभूति –प्रेरित गवाही) के एक दावेदार के तौर पर अन्तःस्फोट केवल (या मात्र) कुमुद पांवड़े की आत्मकथा  ही नहीं है– यह एक समुदाय के भोगे हुए जीवन का आत्मकथात्मक या प्रामाणिक दस्तावेज़ है. अपने मिजाज़ में टेस्टीमोनियो ‘प्रतिरोध के साहित्य ‘का अंग है जो अब तक खामोश और दमित रहे समुदाय के अनुभवों को वाणी देता है. वह अपनी नुमाईंदगी के ज़रिये साहित्य की वर्चस्वी रूढ़ियों को चुनौती देता है और समुदाय की नैतिक दावेदारी इस नुमायन्दगी को जायज़ ठहराती है”

कुमुद पावड़े ने संस्कृत की शिक्षा ली तथा वैदिक स्मृतियों और शास्त्रीय साहित्य पर आलोचना लिखी. महाराष्ट्र में फुले –अम्बेडकर आन्दोलन से जुड़ी कुमुद पावड़े ने आत्मकथ्य के प्रारंभ में ही यह स्पष्ट कर दिया है कि अंत:स्फोट शीर्षक  का सम्बन्ध भावात्मक विस्फोट से न होकर समुदाय में व्यक्ति के निजी और सार्वजनिक अनुभवों के स्फोट से है. इनमें से कई अनुभव आक्रोश और क्रोध उत्पन्न करते हैं और कई प्रसन्नता प्रदान करने वाले भी होते हैं. आत्मकथा में बतौर दलित और बतौर स्त्री वे अपने जीवनानुभवों की अभिव्यक्ति करती हैं. कुमुद पावड़े का यह भी मानना है कि अंत:स्फोट एक आत्मकथा भर नहीं है बल्कि उनके अनुभवों का आलोचनात्मक आख्यान है. दरअसल उनका मानना है कि सभी दलित जीवन कथाएं  आत्मकथाएं न होकर ‘आलोचनात्मक आख्यान’ होती हैं.

जातिदंश  के अनुभव कुमुद को भी हुए. विवाह के बाद वे जिस मोहल्ले में गईं वह ब्राह्मणों का मोहल्ला था,जिसमें छुआछूत का पालन किया जाता था. प्रतिरोध की चेतना के फलस्वरूप कुमुद ताई ने भोज के लिए आये निमंत्रणों को ठुकराना शुरू किया,उन्हें जब कोई बुलाता वह कहतीं –मैं आऊँगी नहीं क्योंकि दूसरों की साफ़-सफाई पर मुझे आस्था  नहीं. ‘ ऐसा कह कर उनके साथ जिस छूत का बर्ताव ब्राह्मणों और सवर्ण -जातियों ने किया था,उसका बदला कुमुद ने लिया क्योंकि वे जानती थीं कि ऐसा कहने से उन लोगों पर क्या बीतती है,उनके चेहरे बुझ जाया करते और आँखों में क्रोध झलक जाता. अंतरजातीय विवाह के सोलह साल बाद भी लोग उसकी तरफ घूरते तो वह जवाब दे देती –क्या इससे पहले तुमने किसी स्त्री को नहीं देखा है “सवर्ण परिवार के आयोजनों में भी वह कड़ाई से पूछ बैठती –“मेरे यहाँ बैठ कर भोजन करने से आपका उत्सव भ्रष्ट तो नहीं हो जाएगा.” एक बार एक सभा में कुमुदताई ने कहा था –

“क्या सिर्फ़ ब्राह्मणों को कोसने से हम ज्योतिबाफुले के महान कार्यों को जिंदा रख सकते हैं ? फुले ने शूद्रों और अतिशूद्रों की पारस्परिक एकता पर बल दिया था. लेकिन हम,जो शूद्र हैं ब्राह्मणों से भी ज्यादा अतिशूद्रों की आलोचना करते हैं,इसका कोई उत्तर है क्या ? जाति के प्रश्नों के साथ –साथ कुमुद पावड़े स्कूल कालेजों में आरक्षण और उसकी विरोधी मानसिकता का विमर्श प्रस्तुत करती चलती हैं. अपनी शिक्षा और संस्कृत पढ़ने की इच्छा के बारे में उन्होंने अन्तःस्फोट के तीसरे अध्याय को  मेरी ‘संस्कृत’ की कहानी(मराठी में ‘माइया संस्कृत ची कथा )शीर्षक दिया. कुमुद पावड़े ने बचपन से ही संस्कृत शिक्षक बनने का स्वप्न देखा था. वे आत्मकथा में बताती हैं कि संस्कृत सीखने की प्रक्रिया में किस तरह जातिगत पूर्वग्रहों का सामना करना पड़ा. उस समय नागपुर में किसी महार जाति के व्यक्ति के लिए संस्कृत सीखना एक निषिद्ध कार्य था. ”

उस समय  संस्कृत केवल भाषा,अकादमीय अनुशासन या व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं हुआ करती थी. बमुश्किल दस पन्नों के उस छोटे से निबंध में पांवड़े  बचपन में उपनयन संस्कार के समय सुने गए मन्त्रों की विस्मयकारी ध्वनि से लेकर संस्कृत में विशिष्ट प्रवीणता के साथ एम.  ए.  करने और अंतत:केन्द्रीय सरकार के कैबिनेट मंत्री तथा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के हस्तक्षेप के बाद एक राजकीय कालेज में प्रवक्ता का पद  हासिल करने का सफ़र बयान करती हैं. यह उथल –पुथल और अवरोधों से भरी एक ऐसी कहानी है जिसमें गैर –दलित जातियों,खासतौर पर ब्राह्मणों द्वारा किये गए उपहास और हिकारत की बदनुमा यादें भी शामिल हैं. संघर्ष की इस गाथा में विश्वविद्यालय के एक प्रसिद्ध प्रोफ़ेसर की जहरीली भद्रता भी खास जगह रखती है. लेकिन इस कथा में उन्होंने स्कूल में पढ़ाने वाले एक अन्य ब्राह्मण अध्यापक के सक्रिय प्रोत्साहन,स्नातक स्तर पर अध्यापकों की निष्पक्षता और ईमानदारी,बहुत से गैर दलित लोगों की शुभेच्छाओं तथा अपने परिवार व समुदाय के सहयोग का भी उल्लेख किया है . . . ’मेरी संस्कृत-गाथा’का देशकाल संस्कृत के बजाय जाति पर केन्द्रित है. सचाई यह है कि अपने राजनीतिक मंतव्य के अनुरूप कुमुद पांवड़े अपनी दलित अस्मिता तथा ‘संस्कृत’में निहित ब्राह्मणवादी तात्विकता के दरमियाँ मौजूद उस तनाव पर उंगली रखती हैं और इस प्रक्रिया में एक ऐसा सशक्त पाठ रचती हैं जो जातिगत भेदभाव की आँखों में आँखें डालकर सवाल करता है.

अपनी  संस्कृत शिक्षा  के बारे में वे अन्तःस्फोट में दर्ज करती हैं –

“शूद्रों में भी दलित स्त्री द्वारा संस्कृत का अध्ययन करना और बाद में अध्यापन करना सामाजिक विसंगति ही मानी जाएगी लेकिन यह कहा जा सकता है कि ऐसा व्यक्ति आकर्षण का विषय भी होगा. इस आकर्षण में स्वीकार और नकार का सम्मिलित भाव है. मेरी अपनी जाति से स्वीकृति और प्रशंसा मिलना स्वाभाविक ही था. उनके लिए तो यह असंभव सिद्धि –प्राप्ति की बात थी. हज़ारों वर्षों तक अस्पृश्यता झेलने वाले व्यक्ति ने,असाध्य को सहज साध्य बना दिया जिसे धर्म ने कीड़े- मकोड़े से अधिक कुछ नहीं समझा था. ”

वे आगे  लिखती हैं –

“लेकिन दूसरी ओर से आने वाला दूसरा स्वर ह्रदय को छलनी करने वाला था. लगता था जैसे जहर बुझी सुइयां चुभोई जा रहीं हैं. प्रशंसा में भी हिकारत,यह सब किसी संवेदनशील व्यक्ति को व्यथित करने वाला था. उनकी प्रशंसा भाले की तरह चुभने वाली होती. यह उनका भ्रम था कि नीच जाति में उनकी अपमानित करने वाली भाषा समझने की हैसियत नहीं होती. कईयों का उद्देश्य ही प्रशंसा की आड़ में अपमान करना होता था जिससे मेरा मनोबल टूटे. अक्सर कोई सवर्ण प्रशंसा करता –“

यह तो बड़े ही आश्चर्य की बात है कि आप शासकीय महाविद्यालय में संस्कृत पढ़ाती हैं. हमें बहुत ख़ुशी है.

”शब्द तो सरल ही होते. लेकिन उनका व्यंग्यात्मक व्याख्यान मैं ही समझती. कुछ तो सीधे तौर पर अपना मंतव्य व्यक्त करते –‘किस जन्म का पाप है कि हमें आपसे संस्कृत पढ़नी पड़ रही है. हमारे तो सभी पवित्र ग्रन्थ अब भ्रष्ट हो चुके हैं. उनके चेहरे के बदलते भाव मैं बड़ी आसानी से पढ़ सकती थी,जैसे वे कह रहे हों ‘कलियुग है भाई,ये शासन के दामाद जो ठहरे,अब इन्हीं की मनमानी चलेगी. लिखने की प्रक्रिया में जाति का अहसास तीव्र होता जाता है. स्थिति यह है कि कोशिश करने पर भी मेरे लिए अपनी जाति भुला पाना संभव नहीं है. और तब मुझे यह बात याद आती है जिसे मैंने कहीं सुना था –‘जन्मना चिपकी जाति मरने के बाद भी नहीं छूटती. ”

आचार और व्यवहार दोनों स्तरों पर कुमुद पावड़े जाति –व्यवस्था की पड़ताल करती दिखाई देती हैं. कुमुदताई ने विवाह और संतान के बाद भी जाति- दंश झेला और यही वह समय था जब उन्होंने निर्णय लिया कि वे अन्तर्जातीय विवाह के पक्ष में समाज में चेतना जगाएँगी. विवाह के वर्षों बाद भी उनके पति के पिता ने कुमुद और उनकी संतान से छुआछूत बरती और छोटे बच्चे ने जब दादा के पैर छुए तो सवर्ण अहंकार ने उन्हें अपने पैर पीछे कर लेने के लिए प्रेरित किया. उन्होंने बच्चे को पांच रुपये का नोट हाथ में दिया. कुमुद को बच्चे से छुआछूत का यह व्यवहार आहत कर गया और वे कह बैठीं  –

“अप्पू !दादा से रुपये मत लो,हम भी इस रुपये को हाथ लगाने से प्रदूषित हो जायेंगें. ”

इस घटना के अठारह वर्ष बाद उनके श्वसुर ने कुमुद के  व्यवहार और देखभाल से प्रसन्न होकर कहा कि उनकी अपनी जाति में भी इससे अच्छी बहू नहीं मिल सकती थी. कुमुदताई ने श्वसुर की देखभाल की और उन्हें शिकायत का कोई अवसर नहीं दिया. उनका आत्मकथ्य जाति- आधारित अनुभवों को प्रमुखता से रेखांकित कर अब तक प्रचलित दृष्टिकोणों से भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है.

Page 12 of 23
Prev1...111213...23Next
Tags: अनिता भारतीअन्तःस्फोटअपनी ज़मीं अपना  आसमांआयदानआलो आंधारिउर्मिला पवारएक अनपढ़ कहानीकरक्कूकल्याणी ठाकुरकावेरीकुमुद पावड़ेकौशल पंवारकौशल्या बैसंत्रीगरिमा श्रीवास्तवछूटे पन्नों की उड़ानजिण आमुच्याटुकड़ा–टुकड़ा जीवनटूटे पंखों से परवाज़ तकदलित स्त्री आत्मकथाएंदोहरा अभिशापबवंडरों के बीचबामा फ्युस्टीना मेरीबेबी कोंडिबा काम्बलेबेबी हालदारमलाउद्ध्वस्त व्यायंचयमल्लिकाअमर शेखमाझ्या जल्मांची चित्तरकथामिटलेली कवाडेमुक्ता सर्वगोंडरजनी तिलकरात्रादिन आम्हालाइफ़ ऑफ़ एन अनटचेबलवीरम्माशांताबाई कृष्णाजी काम्बलेशांताबाई धानाजी दानीशिकंजे का दर्दसुमित्रा महरोलसुशीला टाकभौरेसुशीला राय
ShareTweetSend
Previous Post

दिल्ली: मुल्क-ए-हिजरत: प्रियंका दुबे

Next Post

नानी वाली गइया: सत्यदेव त्रिपाठी

Related Posts

चुप्पियाँ और दरारें : रवि रंजन
समीक्षा

चुप्पियाँ और दरारें : रवि रंजन

निर्मला जैन : मेरी टीचर : गरिमा श्रीवास्तव
आत्म

निर्मला जैन : मेरी टीचर : गरिमा श्रीवास्तव

आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा :  प्रेमकुमार मणि
आलेख

आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा : प्रेमकुमार मणि

Comments 8

  1. दया शंकर शरण says:
    4 years ago

    बहुत ही विस्तृत आलेख। दलित जीवन का खण्ड-खण्ड सच-एक आत्मकथात्मक साक्ष्य । तीन तरफा मार झेलती स्त्री- एक तो स्त्री, वह भी दलित और उस पर से पितृसत्ता के अधीन।अभी समयाभाव से इसे आद्योपांत नहीं पढ़ पाया। लेकिन अत्यंत पठनीय एक जरूरी आलेख।

    Reply
  2. अशोक अग्रवाल says:
    4 years ago

    साहित्य का भूगोल हो या इतिहास इन दलित महिला कथाकारों की आत्मकथाओं की उपस्थिति को दर्ज किए बिना कभी मुक्कमल आकार ग्रहण नहीं कर सकता। बेबी हालदार की आत्मकथा पढ़ते हुए अविस्मरणीय कहानी आखेट के कथाकार प्रबोध कुमार और विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी स्वर्गीय अशोक सेकसरिया का स्मरण न आना असंभव है। हमेशा की तरह इस बार भी अपने गंभीर और सुचिंतित आलेख को पढ़वाने के लिए गरिमा श्रीवास्तव जी का और अरुण देव जी का अभिवादन।

    Reply
  3. पंकज चौधरी says:
    4 years ago

    गरिमा श्रीवास्तव का यह भी एक सुचिंतित आलेख है। भारत में दो तरह के स्त्री लेखन होते रहे हैं। एक खाए-अघाए या सवर्ण स्त्रियों का लेखन, और दूसरा दलित-बहुजन स्त्रियों का लेखन। सवर्ण स्त्रियों के यहां दलित-बहुजन स्त्रियां उसी तरह से गायब हैं जिस तरह से सवर्ण पुरुषों के लेखन से जाति समस्या या दलित-बहुजन समाज। इतना ही नहीं सवर्ण लेखिकाएं दलित-बहुजन स्त्रियों से अकूत घृणा भी करती हैं। लेकिन दलित स्त्री लेखन की यह खासियत है कि एक तरफ यदि वह द्विजवाद से लड़ता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही समाज की मर्दवादी सोच और विचार से। दलित-बहुजन स्त्रियों के लेखन में हम कई-कई मोर्चों पर संघर्ष और अभिशापों को पाते हैं। इसीलिए उसे भारत के प्रमुख स्वर के रूप में पहचान मिल रही है। ईमानदारी, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और स्वाभाविकता उसकी विशेषता है। तभी मल्लिका अमरशेख जैसी महान दलित लेखिका अपने पति नामदेव ढसाल की कलई को खोलकर रख पाती हैं। तहमीना दुर्रानी और तसलीमा जैसी लेखिकाओं ने भी ऐसा साहस दिखाया है। लेकिन हिंदी की सवर्ण लेखिकाओं के पास ऐसा साहस कहां? वह तो फैशन में लिखते चलती हैं। वे भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का नाम नहीं लेंगी लेकिन वर्जीनिया वुल्फ और जर्मन ग्रीयर का नाम लेते नहीं अघाएंगी।

    Reply
  4. कुमार अम्बुज says:
    4 years ago

    अच्छा आलेख है। कई महत्वपूर्ण संदर्भों से संपन्न।

    Reply
  5. अनिल जनविजय says:
    4 years ago

    ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी घटिया-सी आत्मकथा लिख दी थी। वहीं दूसरी ओर तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएँ और कष्ट तो वयक्त किए, लेकिन अपनी पत्नी के बारे में बिल्कुल भूल ही गए। स्त्री दलितों में भी सबसे दलित है। पितृसत्तात्मक समाज की बन्दिशें दलित स्त्रियों को भी झेलनी पड़ती हैं। उनका दोहरा शोषण होता है। ऊँची जातियों के द्वारा और ख़ुद अपने ही समाज के मर्दों के द्वारा।

    Reply
    • Anonymous says:
      4 years ago

      सही है

      Reply
  6. शुभा माहेश्वरी says:
    4 years ago

    सशक्त भाषा के साथ गंम्भीर विश्लेषण करते हुए गरिमा जी ने दलित स्त्रियों के आत्मकथ्यों से दिखाई देने वाले गहरे दंश को साहित्य जगत के सामने लाकर अन्याय के खिलाफ दस्तावेज प्रस्तुत करने का श्लाघनीय कार्य किया है। उन्हें और अरुण देव को अभिवादन।

    Reply
    • Anonymous says:
      4 years ago

      शुक्रिया शुभा जी

      Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक