
आयदान
उर्मिला पवार (1945) की आत्मकथा ‘आयदान’ का प्रकाशन 2003 में हुआ. ’आयदान’ में महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र की महार जाति की पृष्ठभूमि ग्रहण करते हुए अपने और महार समुदाय के जीवन के विषय में उन्होंने लिखा है. उनके समुदाय के लिए बांस ही आजीविका का मुख्य आधार है. ’आयदान ‘का अर्थ है बांस की टोकरी’-उर्मिला बांस की टोकरी बुनने की तकलीफ को अपनी आई (मां) के जीवन संघर्षों से जोड़कर देखती हैं,अतः आत्मकथ्य का शीर्षक रखती हैं ‘आयदान. आत्मकथा- लेखन की प्रेरणा स्वरुप वे उन स्त्रियों को याद करती हैं जिनके दैनंदिन जीवन -संघर्षों,बातचीत,रहन–सहन ने उर्मिला के अवचेतन का निर्माण किया. वे लिखती हैं –
“सन 2002 के ‘मिलन सान्याजणी’ पत्रिका में छपे,पहली रात के बेबाक अनुभव के कारण मेरे आत्मकथन के बारे में उत्सुकता जगी. पाठकों की अनुकूल प्रतिक्रिया के कारण मुझे भी प्रोत्साहन मिला. लेकिन रोज़मर्रा के जीवन की व्यस्तता में, पिछले जीवन को समेट कर लिखने के लिए वक्त नहीं मिल पा रहा था. कवयित्री उषा मेहता ने यह जाना और लगभग ज़बरदस्ती ही मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया. उन्हीं की,मीठी ज़बरदस्ती के कारण,साठ की उम्र के नज़दीक,मैं यह लिख सकी. आई द्वारा प्राप्त यह आयदान बुनकर पूरा कर सकी. . . . आयदान. . . प्लास्टिक युग से पहले हमारे घरों में बांस से बनी टोकरियाँ,डलिया,सूप एवं चलनियों की बहुतायत होती थी. इन सबको सामान्य रूप से‘आयदान’कहा जाता है. इसका दूसरा नाम ‘आवतं’ भी है. बांस छीलकर,आयदान बनाने का व्यवसाय महाराष्ट्र में बुरुड़ जमात के लोग करते हैं,किन्तु कोंकण प्रांत में यही व्यवसाय महार जाति के लोग किया करते हैं. आज भी यह व्यवसाय क्षीण रूप में क्यों न हो,पर टिका हुआ है. आई आयदान बनाती थी. आई का आयदान और मेरे लेखन की बुनाई मुझे एक–सी दिखाई देती है जो पीड़ा के धागे से बुनी हुई है.”
उर्मिला पवार ने अपनी दलित स्थिति को समझा और आगे चलकर वे अनेक दलित और स्त्री संस्थाओं से जुड़ीं. शोर –शराबे और पुरस्कार की राजनीति से अपने –आप को दूर रखने वाली उर्मिला पवार का जीवन संघर्षमय रहा है इसलिए वे लिखती हैं “. . . जब मैं सोचती हूँ कि दलित स्त्री कहाँ है,तब मुझे दलित जीवन की दो धाराएं दिखाई देती हैं. पहली धारा की दलित स्त्री,जो गरीबी की रेखा के नीचे रहती है,इसका जीवन चित्र डराने वाला है. झुग्गी बस्ती में,सड़क के किनारे,स्टेशन पर,गंद में बच्चों को लादकर भीख पर पलने वाली. गटर में,कूड़े के ढेर पर कचरा बीन कर जीने वाली. जी–तोड़ मेहनत करती,यह स्त्री अपने बच्चों को पढ़ाती-लिखाती है. . ऐसी कई स्त्रियाँ अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल भी भेजने का प्रयास करती हैं. दूसरी धारा की स्त्री,इससे ऊपर वाले स्तर की है. ये पढ़ –लिख कर नौकरी करने लगी हैं. नौकरियों के कारण आर्थिक स्तर भी ऊंचा हो चला है. इन्हीं स्त्रियों की वजह से दलित और गैर–दलित के बीच का लगभग सौ साल का अंतर अब करीब आधा रह गया है.
उर्मिला पवार अपने लेखन और सामाजिक कार्यों के लिए जानी जाती हैं,उन्होंने मराठी साहित्य में एम. ए. किया और सरकारी नौकरी भी की. वे आत्मकथा को ‘दलित जीवन’के आकलन के तौर पर, पढ़े जाने की वकालत करती हैं. सामाजिक कार्य करते हुए उन्होंने ‘दलित’ जीवन का अर्थ समझा और दलित आन्दोलन से जुड़कर स्वयं को पारिभाषित किया. सन 2004 में महाराष्ट्र साहित्य परिषद् ने ‘आयदान’को सर्वश्रेष्ठ आत्मकथा के पुरस्कार से सम्मानित करने का निर्णय लिया जिसे ग्रहण करने से उर्मिला पवार ने मना कर दिया. जिस असमानता और पितृसत्तात्मक जड़ -ब्राह्मणवादी मानसिकता का विरोध वे करती रही हैं उसी सिद्धांत की पक्षधरता के कारण उन्होंने यह पुरस्कार लेने से मना कर दिया.
’आयदान’ में उन्होंने बचपन, आई और पिता द्वारा अपने बच्चों को शिक्षा देने के लिए झेली कठिनाईयों के बारे में विस्तार से लिखा है.
”आई, नौ गज की चिथड़ी साड़ी पहने रहती जो केवल उसके घुटनों तक पहुँचती थी. आँगन के एक कोने में बैठ वह बड़ी,छोटी,चौड़ी,संकड़ी टोकरी बुना करती. सुबह उठती तब भी उसे पंखा या चलनी बुनते देखती और रात में सोने जाती तब तक उसे उसी में तल्लीन पाती. बीच में वह रसोई में भी हाथ चला आती. यदि पिताजी के पाँव कभी नहीं रुकते थे (उन्हें कहीं न कहीं जाना रहता ही था )तो आई के हाथ जो कभी विश्राम नहीं करते थे. ”
उनके पिता मास्टर थे लेकिन उनके आकस्मिक निधन से आई पर पूरे परिवार का उत्तरदायित्व आ पड़ा. उर्मिला पवार विस्तार से यह बताती हैं कि पति की मृत्यु के बाद टोकरियाँ बुनकर गुज़ारा चलाने को बाध्य आई का व्यवहार बहुत कठोर हो गया था. लेकिन वह यह ज़रूर जानती थी कि बच्चों को शिक्षित करना है. इसलिए वह अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए दृढ़-प्रतिज्ञ थी.
“बच्चों को पढ़ाना ज़रूर ‘यह थी पति की अंतिम इच्छा जिसे आई ने गाँठ बांध लिया था. उर्मिला जिसे स्कूल जाना बिलकुल पसंद नहीं था,उसे मां ज़बरदस्ती स्कूल भेजा करती. “
आई मुझे टोकरियाँ देने लोगों के घर भेजती. वे लोग ऐसे होते जो मुझे दरवाज़े के बाहर ही खड़ा रखते. टोकरियों और सूपड़ों को उठाने से पहले उन पर पर पानी छिड़कते और मेरी हथेली पर ऊपर से पैसा डालते. मैं हैरान होती,उनके हाथ अगर मेरे हाथ से छू गए तो क्या वे काले हो जायेंगे या जल जायेंगे?अगर मेरे स्कूल का कोई बच्चा उस घर में होता तो मुझे शर्म महसूस होती. यह शर्म मौत से भी बदतर थी,और मैं मन ही मन कहती,आज मैं अपनी मां को सबक सिखाऊँगी. आज मुझे स्कूल किसी हालत में नहीं जाना है. पर जैसे ही मैं घर पहुँचती,मां समझ जाती कि मेरे दिमाग में क्या है. मन को पढ़ने की ज़बरदस्त काबिलियत उसमें थी. मेरी हथेली पर गुड़ का धेला रखती हुई कहती,जा स्कूल जा,जब तू वापस आएगी तुझे चना खाने के लिए पैसे दूंगी. मैं उस पर हमेशा भरोसा कर लेती. पर वह एकदम झूठी थी. ’आज नहीं कल’ करते –करते वह कितने दिन निकाल देती. मैं जिद करती तो वह मुझसे नाराज़ हो जाती. मैं स्कूल न जाने के नए नए तरीके ढूँढने लगती. मैं स्कूल जाने की जगह मंदिर में जाकर बैठ जाती. ”
एक बच्ची की इस पीड़ा को वही समझ सकता है जिसने जातिदंश झेला हो. अम्बेडकर ने इसीलिए जाति रहित समाज की संकल्पना में अस्पृश्यता को सबसे बड़ी बाधा माना था . उर्मिला की मां स्कूल की शिक्षा के लिए कृतसंकल्प थीं लेकिन पेट की भूख मिटाने के लिए आयदान बुन कर लोगों को बेचना भी उतना ही ज़रूरी था. अपने सहपाठियों के घर जाकर आयदान बेचना उर्मिला के कोमल मन को संताप ही नहीं देता बल्कि शर्म से भी भर देता है. इसलिए वह स्कूल नहीं जाना चाहती. स्कूल में भी उसके पास टिफिन में खाने के लिए कुछ नहीं. टोकरियाँ बुन कर आई बमुश्किल अपने बच्चों का पेट पालती है. उर्मिला की उम्र की नासमझी और जीवन-संघर्ष की तनातनी में यह आत्मकथ्य व्यथा से दीप्त हो उठता है. ऐसे ही एक प्रसंग में बारह रुपये की छात्रवृत्ति मिलने पर अध्यापिका का कहना था कि इससे उर्मिला को दो फ्राकें खरीद लेनी चाहियें. जबकि आई उस रुपये का कहीं और उपयोग कर डालती है. चौथी कक्षा में उर्मिला को मिली बारह रूपए की छात्रवृत्ति और उसके उपयोग का दिलचस्प वर्णन ’आयदान’में है . स्कूल में बतौर दलित दूसरी लड़कियों से अपने -आप को अलग और हाशिये पर समझने का भाव आत्मकथा को मार्मिक बनाता है. सवर्णों के टिफिन के व्यंजन और अपनी सूखी भाखरी के बीच का अंतराल उस दलित लड़की को बचपन में ही समझ आ गया था–
“बिना किसी के बताये या सिखाये हमने यह समझ लिया था कि हमें अपनी जाति और उसी दशा में ही रहना है जिसमें हम पैदा हुए हैं”
बहुस्तरीय शोषण का शिकार रही दलित स्त्रियों को हमेशा से चुप रहने के लिए कहा गया,वे शारीरिक और मानसिक तौर पर रौंदी जाती रहीं कभी पितृसत्ता के नाम पर तो कभी जेंडर के नाम पर और कभी जाति के नाम पर. उच्च जाति के लोग,सवर्ण पुरुष,पितृसत्ता से अनुकूलित सवर्ण स्त्रियाँ और दलित पुरुष भी दलित स्त्रियों के शोषण और दमन में योगदान देते रहे. शिक्षा और मूलभूत सुविधाओं के अभाव ने दलित स्त्रियों को अपने पक्ष में सोचने और निर्णय लेने की क्षमता अर्जित करने में वर्षों का समय लगा दिया. लेकिन उर्मिला की मां जो बिलकुल अनपढ़ है,शुद्ध बोल नहीं सकती उसने संघर्षरत जीवन के भीतर से प्रतिरोध की ताकत पाई है. ’आयदान’ में उर्मिला ने आई के सात्विक प्रतिरोध का चित्रण बहुत यथार्थ ढंग से किया है. आई नहीं जानती कि केंद्र और हाशिया क्या होता है,जानती है तो केवल परिश्रम और पति की अंतिम इच्छा पूरा करने का संकल्प. उसने कोई दलित आन्दोलन या सभा नहीं देखी, उसने देखी है निर्धनता और विवशता.
इस विवश और अभावग्रस्त जीवन में शिक्षा ही कोई बदलाव ला सकती है– यह उसने जान लिया है. पेड़ के नीचे पतिविहीन जीवन काटती स्त्री के लिए अपने बच्चों को पढ़ाना ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है. इस लक्ष्य की उपलब्धि के लिए वह भूखी रह सकती है,अपने बच्चों को झूठा आश्वासन दे सकती है लेकिन पढ़ने के लिए भेजे गए बच्चे पर जातिगत अत्याचार नहीं देख सकती. यद्यपि आत्मकथ्य में बहुत -से मार्मिक प्रसंगों की भरमार है फिर भी उर्मिला की आई का यह प्रसंग रेखांकित करने योग्य है जो समूची आत्मकथा को प्रतिरोध के आख्यान में परिणत कर देता है –
”आई ने पूछा –गुरूजी ने मारा क्यों ?
‘मैं. . क्योंकि मैंने गोबर साफ़ नहीं किया.
‘तुझे गोबर उठाने को क्यों बोले वो ?
‘गुरूजी कहते हैं, कपिला वहां गोबर करती है !’
‘ठीक है,तू यहाँ बैठ और स्कूल की छुट्टी के बाद जब गुरूजी घर जाएँ तो मुझे बताना,मैं समझ लूंगी उसे !
कहकर आई बैठ गयी,मेरा रोना अचानक थम गया. आई गुरूजी को क्या कहेगी ?मुझे लगा,गुरूजी के सामने आते ही आई की जबान पर ताला पड़ जाएगा. उसके हाथ और उसकी ज़बान तो सिर्फ़ मेरे सामने ही चलते थे. मैं दोपहर को ऊंघने लगी. पर मैंने ज़बरदस्ती अपनी आँखों को खुला रखा. आई ने फिर से मेरे गालों पर हल्दी –फिटकरी का लेप लगाया. दोपहर बीत गयी. स्कूल का शाम का घंटा बजा. मेरा दिल धड़-धड़ करने लगा. जब मैंने हिर्लेकर गुरूजी को बच्चों के साथ आते देखा तो मुझे डर लगने लगा. मेरी जबान तालू से लग गयी पर किसी तरह मेरे मुंह से दो शब्द निकले –
‘आई,गुरूजी !”
जैसे ही आई ने सुना,अपनी आधी बुनी टोकरी हाथ से फेंक कर,साड़ी को सीधा करते हुए वह खड़ी हो गयी. . मादा अजगर की तरह अपना फ़न फैलाए हुए,डंक मारने को तैयार !जैसे ही वह सामने से गुजरने को हुए,आई ने अपने सर पर साड़ी को खींचा और बोली-
”ज़रा एक मिनट ठहरना गुरूजी !
गुरूजी ठिठके और आई को देखते हुए अहंकार भरे स्वर में बोले,’क्या है ?
‘मेरी बेटी आपके स्कूल में पढ़ती है,ठीक ? आज ऐसा क्या किया उसने ? मतलब,इस तरह मारा उसे आपने,देखिये बच्ची का गाल देखिये!उसने तीखी आवाज़ में कहा,फिर मुझे पुकारा और मेरा गाल घुमाकर उनकी तरफ कर दिया. मुझमें गुरूजी की ओर देखने की हिम्मत नहीं थी.
‘वो,वो. . तुम्हारी सफ़ेद गाय. . . स्कूल में गोबर कर देती है. . वह हकलाते हुए बोले !
‘हमारी गाय गोबर करती है,एं? आपने उसे देखा गोबर करते हुए ? गुरूजी आप इतने पढ़े–लिखे होकर कैसी बच्चों जैसी बातें करते हैं. मैं तो अनपढ़ गंवार औरत हूँ,लेकिन सड़क किनारे इस पेड़ के नीचे बच्चों को लेकर पड़ी हूँ. क्यों !मालूम है ?ताकि मेरे बच्चे पढ़ –लिखकर बड़े आदमी बनें,और आप मेरी बच्ची पर ऐसा अत्याचार करते हैं ?
आई गलत भाषा और अशुद्ध व्याकरण बोल रही थी. फिर जोश में आकर उसने गुरूजी को धमकाना शुरू किया,’देखिये,अब आज के बाद आपने इस बच्ची को एक उंगली से भी छुआ तो देखती हूँ,आप इस सड़क से कैसे जाते हैं !
“ठीक है,ठीक है,मैं भी देख लूँगा. . .” गुरूजी ने पीछे हटते हुए उत्तर दिया. फिर पलक झपकते ही वह गायब हो गए. अब तक काफी भीड़ जमा हो चुकी थी. लोग मां की हिम्मत और मेरे हनुमान जैसे सूजे हुए मुंह को घूर रहे थे.
उस दिन के बाद बहुत–सी चीजें आसान हो गईं. गोबर उठाना और गुरूजी से पिटाई खाना मेरे भाग्य और नियति का हिस्सा नहीं रह गया था. मैंने समय पर स्कूल जाना शुरू कर दिया. पर इससे भी ज्यादा अहम् घटना यह हुई कि कि मैंने अपनी मां को अपने लिए एक मज़बूत संबल की तरह देखना शुरू किया और मेरी ज़िन्दगी को एक दिशा मिली “
उच्च शिक्षा और गहन अध्ययन के बाद जब उर्मिला दलित आन्दोलन से जुड़ीं तब उन्होंने आन्दोलन के भीतर के पितृसत्तात्मक अनुशासन पर प्रश्न उठाये. मसलन वे ‘आयदान’ में बताती हैं कि दलित आन्दोलन में जो स्त्रियाँ शिरकत के लिए जाती थीं उन्हें कुर्सी पर बैठने या आन्दोलन में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने का अवसर नहीं मिलता था,जबकि पुरुषों के लिए कुर्सियों की व्यवस्था होती थी. यहाँ तक कि दलित स्त्रियों के लिए विशेष रूप से आयोजित सभाओं में पुरुष ही संचालक की भूमिका में रहते थे. एक सवर्ण स्त्रीवादी ने सार्वजनिक तौर पर इसपर टिप्पणी की जिसके उत्तर में पुरुष वक्ता का कहना था–
“हम तो हमेशा अपनी स्त्रियों के साथ ही रहते हैं. हमें ऐसा ही अभ्यास है. हमें पता नहीं कि आपके समुदाय में क्या किया जाता है. ”
सभा स्थल पर उपस्थित स्त्रियों ने ताली बजाकर इस वक्तव्य का स्वागत किया. उर्मिला पवार का कहना है कि क्या ये पुरुष, स्त्रियों को उनके अपने बारे में सोचने का अन्तराल वास्तव में देना चाहते थे या फिर उन्हें सिर्फ़ तालियाँ बजवाने के लिए सभा में लाये थे. वे इस बात को समझ गईं थीं कि दलित आन्दोलन की सफलता और जाति उन्मूलन के लिए स्त्री –पुरुष दोनों को एक साथ मिलकर काम करना होगा,आगे आना होगा. लेकिन दुखद यह था कि अधिकांश स्त्रियों ने इसे नहीं समझा. उर्मिला पवार बताती हैं कि शिक्षा और आगे चलकर अम्बेडकर –फुले के भाषणों को पढ़ने से उनके स्वयं के भाषण और लेख समृद्ध हुए और व्यापक स्तर पर प्रशंसित भी. उर्मिला पवार का योगदान इसलिए विशिष्ट है क्योंकि उन्होंने दलित आन्दोलन और स्त्री आन्दोलन की अन्योन्याश्रितता को व्याख्यायित किया–
“एक बात जो मैंने महसूस की,कि दलित आन्दोलन के बीच स्त्री प्रश्न कभी उठाया ही नहीं गया और ठीक इसी तरह स्त्री आन्दोलन भी दलित आन्दोलन से दूर छिटका रहा. आज तक इस स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है”.



बहुत ही विस्तृत आलेख। दलित जीवन का खण्ड-खण्ड सच-एक आत्मकथात्मक साक्ष्य । तीन तरफा मार झेलती स्त्री- एक तो स्त्री, वह भी दलित और उस पर से पितृसत्ता के अधीन।अभी समयाभाव से इसे आद्योपांत नहीं पढ़ पाया। लेकिन अत्यंत पठनीय एक जरूरी आलेख।
साहित्य का भूगोल हो या इतिहास इन दलित महिला कथाकारों की आत्मकथाओं की उपस्थिति को दर्ज किए बिना कभी मुक्कमल आकार ग्रहण नहीं कर सकता। बेबी हालदार की आत्मकथा पढ़ते हुए अविस्मरणीय कहानी आखेट के कथाकार प्रबोध कुमार और विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी स्वर्गीय अशोक सेकसरिया का स्मरण न आना असंभव है। हमेशा की तरह इस बार भी अपने गंभीर और सुचिंतित आलेख को पढ़वाने के लिए गरिमा श्रीवास्तव जी का और अरुण देव जी का अभिवादन।
गरिमा श्रीवास्तव का यह भी एक सुचिंतित आलेख है। भारत में दो तरह के स्त्री लेखन होते रहे हैं। एक खाए-अघाए या सवर्ण स्त्रियों का लेखन, और दूसरा दलित-बहुजन स्त्रियों का लेखन। सवर्ण स्त्रियों के यहां दलित-बहुजन स्त्रियां उसी तरह से गायब हैं जिस तरह से सवर्ण पुरुषों के लेखन से जाति समस्या या दलित-बहुजन समाज। इतना ही नहीं सवर्ण लेखिकाएं दलित-बहुजन स्त्रियों से अकूत घृणा भी करती हैं। लेकिन दलित स्त्री लेखन की यह खासियत है कि एक तरफ यदि वह द्विजवाद से लड़ता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही समाज की मर्दवादी सोच और विचार से। दलित-बहुजन स्त्रियों के लेखन में हम कई-कई मोर्चों पर संघर्ष और अभिशापों को पाते हैं। इसीलिए उसे भारत के प्रमुख स्वर के रूप में पहचान मिल रही है। ईमानदारी, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और स्वाभाविकता उसकी विशेषता है। तभी मल्लिका अमरशेख जैसी महान दलित लेखिका अपने पति नामदेव ढसाल की कलई को खोलकर रख पाती हैं। तहमीना दुर्रानी और तसलीमा जैसी लेखिकाओं ने भी ऐसा साहस दिखाया है। लेकिन हिंदी की सवर्ण लेखिकाओं के पास ऐसा साहस कहां? वह तो फैशन में लिखते चलती हैं। वे भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का नाम नहीं लेंगी लेकिन वर्जीनिया वुल्फ और जर्मन ग्रीयर का नाम लेते नहीं अघाएंगी।
अच्छा आलेख है। कई महत्वपूर्ण संदर्भों से संपन्न।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी घटिया-सी आत्मकथा लिख दी थी। वहीं दूसरी ओर तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएँ और कष्ट तो वयक्त किए, लेकिन अपनी पत्नी के बारे में बिल्कुल भूल ही गए। स्त्री दलितों में भी सबसे दलित है। पितृसत्तात्मक समाज की बन्दिशें दलित स्त्रियों को भी झेलनी पड़ती हैं। उनका दोहरा शोषण होता है। ऊँची जातियों के द्वारा और ख़ुद अपने ही समाज के मर्दों के द्वारा।
सही है
सशक्त भाषा के साथ गंम्भीर विश्लेषण करते हुए गरिमा जी ने दलित स्त्रियों के आत्मकथ्यों से दिखाई देने वाले गहरे दंश को साहित्य जगत के सामने लाकर अन्याय के खिलाफ दस्तावेज प्रस्तुत करने का श्लाघनीय कार्य किया है। उन्हें और अरुण देव को अभिवादन।
शुक्रिया शुभा जी