नब्बे के दशक और उसके बाद के वर्षों में हमें स्त्री अन्य भारतीय भाषाओं के साथ-साथ हिंदी में भी स्त्री आत्मकथा लेखन के क्षेत्र में समृद्धि दिखाई देती है. यद्यपि पुरुष आत्मकथाओं के अनुपात में अब भी उनकी संख्या कम है फिर भी समकालीन परिदृश्य पर ये आत्मकथाएं अपनी पहचान बनाने लगी हैं. दलित स्त्री आत्मकथाओं को सामुदायिक अनुभव की कथाओं के साथ-साथ जीवन के वैयक्तिक आख्यान के नज़रिए से देखा जाना इनके विश्लेषण का एक नया नजरिया पैदा कर सकता है. दलित लेखकों ने जाति–आधारित शोषण के अनुभवों को अपने–अपने ढंग से अभिव्यक्त किया है, जिनमें लेखिकाओं की स्थिति जेंडर के मसले के कारण कुछ और विशिष्ट है. यूँ तो प्रत्येक आत्मकथाकार अपने आप में विशिष्ट है, फिर भी उन्हें मोटे तौर पर दो श्रेणियों में रखा जा सकता है एक तो वे जो अपने बारे में खुलकर बोलने–बताने के लिए आकुल हैं, दूसरी वे जो निजी अनुभवों को खुलकर बताने में संकोच करती हैं, वे समुदाय के बारे में तो बोलती–लिखती हैं लेकिन जेंडर सम्बन्धी निजी अनुभवों को छुपा ले जाति हैं.
यद्यपि दूसरी श्रेणी के अंतर्गत सामाजिक सेंसरशिप की शिकार सवर्ण स्त्रियाँ (पुरुष भी) अपेक्षाकृत ज्यादा आती हैं. इसके साथ भी यह भी देखना महत्वपूर्ण है कि प्रत्येक आत्मकथा दूसरी से अलग होती है, एक ही समुदाय में रहते हुए व्यक्ति के अनुभव कैसे अलग-अलग हो सकते हैं इसे रेखांकित किया जा सकता है. कई बार बतौर ‘लेखक’ और ‘भोक्ता’ भी आत्मकथा में अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ करते हैं. दलित आत्मकथ्य सामाजिक परिवर्तन की मांग करने, दलन और शोषण की सांस्थानिक परंपरा का विरोध करने के लिए लिखे जाते हैं.
शरण कुमार लिम्बाले ने कहा है कि दलितों के बारे में, दलित चेतना के साथ. दलित लेखकों का लिखना ही दलित साहित्य है, इसके साथ ही वे दलित शब्द की व्याख्या करते हुए उसे हरिजन, नव बौद्ध के अतिरिक्त गाँव की सीमा के बाहर रहने वाली सभी अछूत जातियों, आदिवासी, भूमिहीन, खेत मजदूर, श्रमिक जनता और यायावर जातियों तक विस्तृत करते हैं. इसी बात को आगे बढ़ाते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि कहते हैं कि
“सभी वर्गों की स्त्रियाँ दलित हैं. बहुत कम श्रम मूल्य पर चौबीसों घंटे काम करने वाले श्रमिक बंधुआ मजदूर दलित की श्रेणी में आते हैं.”
इन दमित, शोषित वर्ग की वास्तविक स्थिति का ज्ञान दलित आत्मकथ्य करवाते हैं क्योंकि “दलित और स्त्रियाँ, खासकर निम्न जाति की स्त्रियाँ जिस सांस्कृतिक शोषण को झेलती हैं वह आर्थिक शोषण से कहीं ज्यादा अमानवीय और पीड़ाजनक होता है जातिजन्य असमानता की वजह से निम्न जातियों के लिए भौतिक संसाधनों के द्वार का खुद-ब-खुद बंद हो जाना उनके वर्ग आधारित शोषण यानी उनके शरण के अधिशेष की उगाही से ज्यादा दर्दनाक है. ”
‘सत्ता पर नियंत्रण और नेतृत्वकारी भूमिका से ही शक्ति- केन्द्रों में परिवर्तन आ सकता है. सत्ताहीनता या अधिकारहीनता की स्थिति में कोई भी विमर्श समाज परिवर्तन नहीं कर सकता. इन स्त्रियों के आत्मकथ्य यह बताते हैं कि सत्ता की व्यवस्था के रूप में जाति किस तरह हमारे जीवन से अभिन्न है. कौशल्या बैसंत्री से लेकर सुमित्रा महरोल तक लगभग नौ दशकों के विस्तार में फैले ये सात आत्मकथ्य हमें समाज के विषय में अपनी अनभिज्ञता से परिचित भी कराते हैं. इन स्त्रियों द्वारा शिक्षा के लिए किया गया संघर्ष, चाहे वह किसी भी विचारधारा की प्रेरणा से हो और शिक्षा प्राप्त कर सत्ता की संरचना का अंग बन जाना– कभी किसी वैचारिक आन्दोलन का हिस्सा बनकर कभी सरकारी और गैर–सरकारी पदों पर नियुक्ति लेकर, अपनी आर्थिक स्थिति को सबल बनाना, अपने परिवार का जीवन–स्तर ऊपर उठाना और हाशिये पर पड़े समुदाय के हितों में कार्य करना– वस्तुतः सत्ता प्राप्त कर हाशिये से केंद्र में आने के लिए प्रतिरोधी औज़ार हैं.
ये सभी स्त्रियाँ अपने–अपने ढंग से, अपनी जीवन स्थितियों से विद्रोह करती हैं, इस विद्रोह में अक्सर उनके परिवार के सदस्य उनकी सहायता करते हैं. सत्ता में हस्तक्षेप करने का प्रयास और अपनी सामाजिक- आर्थिक स्थिति से असंतुष्टि इन आत्मकथ्यों को अपनी जगह ढूँढने और दलित–शक्ति को एकत्र कर समाज परिवर्तन की ओर उन्मुख करती है. उमा चक्रवर्ती जाति को बुनियादी तौर पर हमारे जीवन में विद्यमान मानते हुए जाति/वर्ग और लिंग के समीकरण पर टिप्पणी करते हुए कहती हैं–
“जाति/वर्ग और लिंग के बीच के जुड़ाव और इनकी आपसी क्रिया–प्रतिक्रिया की तफतीश का प्रयास सरल नहीं है, खासकर तब जबकि चाहे–अनचाहे अथवा जाने–अनजाने हम सभी के जीवन में इसकी गहरी पैठ हो. इसकी जटिलता का इसके पदानुक्रम, भौतिक आधार और हिंसा के साथ के जुड़ाव पर नज़र जाना और भी कठिन है, खासकर उनके लिए जो ऊपरी पायदानों पर स्थित हैं. जबकि जाति के पदानुक्रम में निम्न स्थितियों पर विद्यमान स्त्रियों और पुरुषों के लिए जातिजन्य अभाव और पीड़ा बचपन से ही दिन–प्रतिदिन के जीवनानुभव का ठोस हिस्सा होते हैं. उनके लिए जो एकदम प्रत्यक्ष और जीवंत अनुभव की बातें हैं उनका विश्लेषण फिजूल बौद्धिक जुगाली सा प्रतीत होता है.”
इसके बावजूद अपने विशिष्ट दलित अनुभव, समाजालोचन और उत्पीड़न तथा आशा की राजनीति के साथ निरंतर अपनी बात कहते जाना साहसिक प्रयास है. ये आत्मकथाएं बहुत सी साहित्यिक विधाओं को अपने भीतर समेटे हुए ये आत्मकथाएं इसी साहसिकता के प्रामाणिक आख्यान हैं.
बहुत ही विस्तृत आलेख। दलित जीवन का खण्ड-खण्ड सच-एक आत्मकथात्मक साक्ष्य । तीन तरफा मार झेलती स्त्री- एक तो स्त्री, वह भी दलित और उस पर से पितृसत्ता के अधीन।अभी समयाभाव से इसे आद्योपांत नहीं पढ़ पाया। लेकिन अत्यंत पठनीय एक जरूरी आलेख।
साहित्य का भूगोल हो या इतिहास इन दलित महिला कथाकारों की आत्मकथाओं की उपस्थिति को दर्ज किए बिना कभी मुक्कमल आकार ग्रहण नहीं कर सकता। बेबी हालदार की आत्मकथा पढ़ते हुए अविस्मरणीय कहानी आखेट के कथाकार प्रबोध कुमार और विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी स्वर्गीय अशोक सेकसरिया का स्मरण न आना असंभव है। हमेशा की तरह इस बार भी अपने गंभीर और सुचिंतित आलेख को पढ़वाने के लिए गरिमा श्रीवास्तव जी का और अरुण देव जी का अभिवादन।
गरिमा श्रीवास्तव का यह भी एक सुचिंतित आलेख है। भारत में दो तरह के स्त्री लेखन होते रहे हैं। एक खाए-अघाए या सवर्ण स्त्रियों का लेखन, और दूसरा दलित-बहुजन स्त्रियों का लेखन। सवर्ण स्त्रियों के यहां दलित-बहुजन स्त्रियां उसी तरह से गायब हैं जिस तरह से सवर्ण पुरुषों के लेखन से जाति समस्या या दलित-बहुजन समाज। इतना ही नहीं सवर्ण लेखिकाएं दलित-बहुजन स्त्रियों से अकूत घृणा भी करती हैं। लेकिन दलित स्त्री लेखन की यह खासियत है कि एक तरफ यदि वह द्विजवाद से लड़ता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही समाज की मर्दवादी सोच और विचार से। दलित-बहुजन स्त्रियों के लेखन में हम कई-कई मोर्चों पर संघर्ष और अभिशापों को पाते हैं। इसीलिए उसे भारत के प्रमुख स्वर के रूप में पहचान मिल रही है। ईमानदारी, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और स्वाभाविकता उसकी विशेषता है। तभी मल्लिका अमरशेख जैसी महान दलित लेखिका अपने पति नामदेव ढसाल की कलई को खोलकर रख पाती हैं। तहमीना दुर्रानी और तसलीमा जैसी लेखिकाओं ने भी ऐसा साहस दिखाया है। लेकिन हिंदी की सवर्ण लेखिकाओं के पास ऐसा साहस कहां? वह तो फैशन में लिखते चलती हैं। वे भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का नाम नहीं लेंगी लेकिन वर्जीनिया वुल्फ और जर्मन ग्रीयर का नाम लेते नहीं अघाएंगी।
अच्छा आलेख है। कई महत्वपूर्ण संदर्भों से संपन्न।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी घटिया-सी आत्मकथा लिख दी थी। वहीं दूसरी ओर तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएँ और कष्ट तो वयक्त किए, लेकिन अपनी पत्नी के बारे में बिल्कुल भूल ही गए। स्त्री दलितों में भी सबसे दलित है। पितृसत्तात्मक समाज की बन्दिशें दलित स्त्रियों को भी झेलनी पड़ती हैं। उनका दोहरा शोषण होता है। ऊँची जातियों के द्वारा और ख़ुद अपने ही समाज के मर्दों के द्वारा।
सही है
सशक्त भाषा के साथ गंम्भीर विश्लेषण करते हुए गरिमा जी ने दलित स्त्रियों के आत्मकथ्यों से दिखाई देने वाले गहरे दंश को साहित्य जगत के सामने लाकर अन्याय के खिलाफ दस्तावेज प्रस्तुत करने का श्लाघनीय कार्य किया है। उन्हें और अरुण देव को अभिवादन।
शुक्रिया शुभा जी