दोहरा अभिशाप
हिंदी में स्त्री दलित आत्मकथा-लेखन के सन्दर्भ में पहली आत्मकथा कौशल्या बैसंत्री (1926 -1909) की ‘दोहरा अभिशाप’ (1999)पर हमारा ध्यान सबसे पहले जाता है. अन्य मराठी आत्मकथाकारों की तरह कौशल्या बैसंत्री भी अम्बेडकरवादी आन्दोलन की उपज हैं. वे अपने जीवन के दोहरे अभिशाप–अर्थात दलित के साथ स्त्री होने की नियति को अभिशाप के तौर पर व्याख्यायित करती हैं. यद्यपि उनकी मातृभाषा मराठी है लेकिन पुस्तक की भूमिका में उन्होंने दलित स्त्री आत्मकथाओं के रिक्त स्थान को भरने के लिए हिंदी को अपनाते हुए लिखा है-
“मेरी मातृभाषा मराठी है, परन्तु मैंने अपना कथ्य हिंदी में लिखा है. हिंदी और मराठी की लिपि एक ही है (देवनागरी) इसलिए हिंदी में लिखने में ज्यादा दिक्कत नहीं आई. फिर भी मात्रा और व्याकरण की गलतियाँ हो सकती हैं. मातृभाषा मराठी होते हुए हिंदी में लिखने का प्रयोजन क्यों ? क्योंकि हिंदी में दलित महिलाओं के आत्मकथा साहित्य का अभाव है. ”
निश्चय ही हिंदी में आत्मकथा लेखन के क्षेत्र में दलित स्त्रियों की अनुपस्थिति से कौशल्या बैसंत्री इस दिशा में प्रवृत्त हुई हैं. इससे पहले हिंदी में दलित पुरुषों ने आत्मकथा लेखन किया था जिनमें मोहनदास नैमिशराय (1995) ओमप्रकाश वाल्मीकि (1997) और सूरजपाल चौहान (2002)की रचनाओं को देखा जा सकता है. कौशल्या बैसंत्री की आत्मकथा भले ही हिंदी की पहली दलित स्त्री आत्मकथा है लेकिन इससे पहले अनुवाद के माध्यम से मराठी की आत्मकथाओं का बड़ा पाठक वर्ग निर्मित हो चुका था. कौशल्या बैसंत्री के पहले जिन मराठी आत्मकथाओं की चर्चा की गयी है उनमें अधिकांश से हिंदी पट्टी का पाठक परिचित हो चुका था. एक विधा के रूप में दलित आत्मकथाओं को सीधे तौर पर मराठी (जहाँ आत्मकथा विधा को पाठकों ने हाथों–हाथ लिया) से ही प्रभावित नहीं माना जा सकता. बल्कि इस विधा के विकास में, दलित लेखकों और चिंतकों द्वारा लिखे लेखों, भाषणों और अनुसन्धान की बड़ी भूमिका है, जहाँ उन्होंने मराठी तथा तमिल के साथ बंगला में लिखी दलित आत्मकथाओं का ज़िक्र किया, उनसे उद्धरण सुनाये, लिखे और कुछेक अंशों का अनुवाद भी किया. इन चिंतकों द्वारा दलित आत्मकथ्यों को निज से ऊपर उठकर दलित चेतना के घोषणा–पत्र(मेनिफेस्टो) के रूप में पढ़े जाने की वकालत की गयी है. भूमिका में ही कौशल्या बैसंत्री अपने लेखन के लिए प्रेरणादायी तत्वों में बहुत सी दलित कार्यकर्त्ता,लेखिकाओं और अन्य कई आत्मीयों का उल्लेख करती हैं. मीनाक्षी मून, उर्मिला पवार, श्योराजसिंह बेचैन उन्हीं में शामिल हैं. अपने बारे में लिखने के चयन के पीछे कौशल्या बैसंत्री के अपने तर्क हैं-
“मैं लेखिका नहीं हूँ, न साहित्यिक लेकिन अस्पृश्य समाज में पैदा होने से जातीयता के नाम पर जो मानसिक यातनाएं सहन करनी पड़ीं इसका मेरे संवेदनशील मन पर गहरा असर पड़ा. मैंने अपने अनुभव खुले मन से लिखे हैं. पुरुष प्रधान समाज औरतों का खुलापन बर्दाश्त नहीं करता. पति तो इस ताक में रहता है कि पत्नी पर अपने पक्ष को उजागर करने के लिए चरित्रहीनता का ठप्पा लगा दे. पुत्र, भाई, पति सब मुझपर नाराज़ हो सकते हैं परन्तु मुझे भी तो स्वतंत्रता चाहिए कि अपनी बात समाज के सामने रख सकूं. मेरे जैसे अनुभव और भी महिलाओं को आये होंगे परन्तु परिवार और समाज के भय से अपने अनुभव अपने अनुभव समाज के सामने उजागर करने से डरती और जीवन–भर घुटन में जीती हैं. समाज की आँखें खोलने के लिए ऐसे अनुभव सामने आने की ज़रूरत है.”
कौशल्या यह बता देती हैं कि वे यह आत्मकथा दलित चेतना के विकास के लिए लिख रही हैं, दरअसल भूमिका में ही कौशल्या बैसंत्री ने यह स्पष्ट कर दिया है कि बतौर दलित स्त्री पर किस तरह के दबाव काम करते हैं जिनका प्रतिरोध करने के लिए यह आत्मकथा लिखी जा रही है. वह अपने ऊपर सेंसरशिप के दबावों को महसूस करते हुए लिखती हैं-
“मैं अतीत की यादों के साथ अपना जीवन जी रही थी. अपने भोगे हुए यथार्थ को शब्दों में उतारने के द्वंद्व की पीड़ा में जीवन के 68 वर्ष बीत गए”.
कौशल्या स्वयं को बाबासाहेब अम्बेडकर की अनुयायी के रूप में चित्रित करती हैं. दस वर्ष की उम्र में सुना उनका पहला भाषण याद करती हैं. अम्बेडकर उनके लिए मार्गदर्शक हैं जिसके आलोक में वे अपने अस्पृश्य होने के अनुभवों को पाठक से साझा करती हैं. अपने बचपन के दिनों के बारे में लिखती हैं–
“मेरे मां, बाबा नागपुर की एम्प्रेस मिल में काम करते थे. मां धागा बनाने वाले विभाग में काम करती थी और पिताजी मशीनों में तेल डालने का काम करते थे. . . . मां हमेशा बाल धोते समय बड़बड़ाती रहती थी– देवा! मैंने ऐसा कौन –सा पाप किया था कि मेरे नसीब में लड़कियां ही लिखी हैं ? मां ने लगातार पांच बेटियों को जन्म दिया. . . ”
स्पष्ट है कि कौशल्या जिस समुदाय में पैदा हुई थीं वहां किसी भी अन्य भारतीय समुदाय की तर्ज़ पर, लैंगिक विभेद का ग्राफ़ बहुत ऊंचा था. बैसंत्री अपने जीवन में घटी घटनाओं का वर्णन सिलसिलेवार ढंग से नहीं करतीं, बल्कि वे अतीत की स्मृतियों को लिखकर पुनर्जीवित करती चलती हैं जिसमें क्रमवार ब्यौरे भले न हों लेकिन उनके परिवार के सदस्यों का इतिहास और पारिवारिक सम्बन्ध चित्रित हुए हैं.
अपने बचपन की अच्छी–बुरी स्मृतियों को कहने के दौरान आत्मकथा में आनुपातिक व्यवस्था भी अस्तव्यस्त हो जाती है और पुस्तक का लगभग नब्बे प्रतिशत भाग विवाह-पूर्व जीवन की झलकियों से भर जाता है जबकि उनके विवाह के सैंतालिस वर्षों का विस्तार पुस्तक में सिर्फ़ दस प्रतिशत स्थान ही ग्रहण कर पाया है. स्पष्ट है कि कौशल्या अपने विवाह पूर्व जीवन को बहुत-सी कल्पनाओं के साकार होने से जोड़ती हैं. युवावस्था में उन्होंने दलित उत्थान के लिए खूब कार्य किया. वे अनुसूचित जाति छात्रसंघ की संयुक्त सचिव भी रहीं. वे अपनी युवावस्था को आदर्श मानती हैं. दरअसल उनका वैवाहिक जीवन सुखद नहीं रहा, वहां अशांति, संदेह और शोषण था. पति ने कौशल्या को दलित उत्थान के उद्देश्यों से विमुख भी किया, संभवतः इसीलिए वे जीवन के उस दौर को आत्मकथा में बहुत स्थान नहीं दे पायीं. वे युवावस्था में दलित आन्दोलन में सक्रिय भाग लेती रहीं, बाबा–मां की स्मृतियाँ, बचपन का जीवन, उसके बाद पढ़ाई-लिखाई– ये सब उनके वर्तमान पर हावी है. विवाह से लेकर संतान-जन्म देने की घटनाएँ उन्हें याद आती हैं तो सिर्फ़ इसलिए कि इन घटनाओं से पीड़ा का सीधा सम्बन्ध है.
पति देवेन्द्र का अजीबोगरीब व्यवहार, प्रसव के लिए कौशल्या का अकेले अस्पताल जाना, पति द्वारा उनकी आर्थिक जिम्मेदारी को उठा न कर पाना- ये सब उनके आख्यान के अंग हैं. 68 वर्ष की अवस्था में एक घृणित विवाद और कोर्ट केस के दौरान वे पितृसत्ता के खिलाफ अपने पक्ष में निर्णय लेती हैं और बदसूरत वैवाहिक जीवन से मुक्ति पा लेती हैं. वे आत्मकथा में विभिन्न मुद्दों पर संघर्ष करती दिखाई देती हैं मसलन पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य और गैरबराबरी. इसके लिए वे अपने आस–पड़ोस के विभिन्न लोगों से जुड़े प्रसंगों के वर्णन के साथ अपने प्रयासों का ज़िक्र भी करती हैं. इस आत्मकथा का वैशिष्ट्य है बहुत छोटे वाक्यों में वर्णित घटनाओं का बाहुल्य. जो पाठक को आकर्षित करता है. वे दलितों की उपजातियों, उनमें प्रचलित प्रथाएं, अंधविश्वास और उनके प्रभाव का विस्तृत विवेचन करती हैं. ऐसा कर के वे स्वयं और प्रत्येक दलित स्त्री के पक्ष में खड़ी दिखाई देती हैं. वे आत्मकथा को सिर्फ निज की कथा न कहकर अपने-अपने समय की दलित-कथा कहती हैं. उनकी शब्दावली दैनिक व्यवहार में आने वाले शब्द और प्रयोगों से बनी है जिसका सहज प्रयोग आत्मकथा को पठनीय बनाता है.
साहित्य में पूरी तरह एक नयी संवेदना के साथ दलित लेखन का आगमन हुआ, जिसमें ऐसे जीवनानुभव और संवेदना का चित्रण किया गया जो नए सामाजिक सन्दर्भों में व्याख्यायित होते हैं, मसलन श्रम की नयी छवि के साथ श्रम का जातिवादी आयाम. इन आयामों पर मुख्यधारा का साहित्य अधिकतर मौन है. इसतरह, जीवन के वे क्षेत्र, परिवार, सामाजिक जो अब तक अनछुए थे– उनपर दलित रचनाकारों ने कलम चलाने का साहस किया. जहाँ मुख्यधारा का साहित्य जाति, अस्पृश्यता और श्रम के मुद्दों पर मौन था वहीं दलित विशेषकर स्त्री-आत्मकथाकार जाति और जेंडर के समीकरणों को स्त्री के नज़रिए से व्याख्यायित करने लगीं. अब दलितों का संघर्ष केवल संसाधनों के लिए न रहकर उनके बारे में रची सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों, परिभाषाओं से भी होने लगा.
बहुत ही विस्तृत आलेख। दलित जीवन का खण्ड-खण्ड सच-एक आत्मकथात्मक साक्ष्य । तीन तरफा मार झेलती स्त्री- एक तो स्त्री, वह भी दलित और उस पर से पितृसत्ता के अधीन।अभी समयाभाव से इसे आद्योपांत नहीं पढ़ पाया। लेकिन अत्यंत पठनीय एक जरूरी आलेख।
साहित्य का भूगोल हो या इतिहास इन दलित महिला कथाकारों की आत्मकथाओं की उपस्थिति को दर्ज किए बिना कभी मुक्कमल आकार ग्रहण नहीं कर सकता। बेबी हालदार की आत्मकथा पढ़ते हुए अविस्मरणीय कहानी आखेट के कथाकार प्रबोध कुमार और विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी स्वर्गीय अशोक सेकसरिया का स्मरण न आना असंभव है। हमेशा की तरह इस बार भी अपने गंभीर और सुचिंतित आलेख को पढ़वाने के लिए गरिमा श्रीवास्तव जी का और अरुण देव जी का अभिवादन।
गरिमा श्रीवास्तव का यह भी एक सुचिंतित आलेख है। भारत में दो तरह के स्त्री लेखन होते रहे हैं। एक खाए-अघाए या सवर्ण स्त्रियों का लेखन, और दूसरा दलित-बहुजन स्त्रियों का लेखन। सवर्ण स्त्रियों के यहां दलित-बहुजन स्त्रियां उसी तरह से गायब हैं जिस तरह से सवर्ण पुरुषों के लेखन से जाति समस्या या दलित-बहुजन समाज। इतना ही नहीं सवर्ण लेखिकाएं दलित-बहुजन स्त्रियों से अकूत घृणा भी करती हैं। लेकिन दलित स्त्री लेखन की यह खासियत है कि एक तरफ यदि वह द्विजवाद से लड़ता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही समाज की मर्दवादी सोच और विचार से। दलित-बहुजन स्त्रियों के लेखन में हम कई-कई मोर्चों पर संघर्ष और अभिशापों को पाते हैं। इसीलिए उसे भारत के प्रमुख स्वर के रूप में पहचान मिल रही है। ईमानदारी, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और स्वाभाविकता उसकी विशेषता है। तभी मल्लिका अमरशेख जैसी महान दलित लेखिका अपने पति नामदेव ढसाल की कलई को खोलकर रख पाती हैं। तहमीना दुर्रानी और तसलीमा जैसी लेखिकाओं ने भी ऐसा साहस दिखाया है। लेकिन हिंदी की सवर्ण लेखिकाओं के पास ऐसा साहस कहां? वह तो फैशन में लिखते चलती हैं। वे भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का नाम नहीं लेंगी लेकिन वर्जीनिया वुल्फ और जर्मन ग्रीयर का नाम लेते नहीं अघाएंगी।
अच्छा आलेख है। कई महत्वपूर्ण संदर्भों से संपन्न।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी घटिया-सी आत्मकथा लिख दी थी। वहीं दूसरी ओर तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएँ और कष्ट तो वयक्त किए, लेकिन अपनी पत्नी के बारे में बिल्कुल भूल ही गए। स्त्री दलितों में भी सबसे दलित है। पितृसत्तात्मक समाज की बन्दिशें दलित स्त्रियों को भी झेलनी पड़ती हैं। उनका दोहरा शोषण होता है। ऊँची जातियों के द्वारा और ख़ुद अपने ही समाज के मर्दों के द्वारा।
सही है
सशक्त भाषा के साथ गंम्भीर विश्लेषण करते हुए गरिमा जी ने दलित स्त्रियों के आत्मकथ्यों से दिखाई देने वाले गहरे दंश को साहित्य जगत के सामने लाकर अन्याय के खिलाफ दस्तावेज प्रस्तुत करने का श्लाघनीय कार्य किया है। उन्हें और अरुण देव को अभिवादन।
शुक्रिया शुभा जी