• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » दलित स्त्री आत्मकथाएं: गरिमा श्रीवास्तव » Page 17

दलित स्त्री आत्मकथाएं: गरिमा श्रीवास्तव

धर्म, जाति, समाज, परिवार और लैंगिगता के कारण पीड़ित दलित स्त्रियों की इन आत्मकथाओं से संभव है आप परिचित हों- हर आत्मकथा दर्द की जैसे कोई नदी हो- लाइफ़ ऑफ़ एन अनटचेबल (वीरम्मा), करक्कू (बामा फ्युस्टीना मेरी), आलो आंधारि (बेबी हालदार), आमि केनो चांडाल लिखी (कल्याणी ठाकुर), रात्रादिन आम्हा (शांताबाई धानाजी दानी), मिटलेली कवाडे (मुक्ता सर्वगोंड), माझ्या जल्मांची चित्तरकथा (शांताबाई कृष्णाजी काम्बले ), जिण आमुच्या (बेबी कोंडिबा काम्बले), अन्तःस्फोट (कुमुद पावड़े), आयदान (उर्मिला पवार), मलाउद्ध्वस्त व्यायंचय (मल्लिका अमर शेख), दोहरा अभिशाप (कौशल्या बैसंत्री), शिकंजे का दर्द (सुशीला टाकभौरे), एक अनपढ़ कहानी (सुशीला राय), अपनी ज़मीं, अपना आसमां (रजनी तिलक), छूटे पन्नों की उड़ान (अनिता भारती), टुकड़ा–टुकड़ा जीवन (कावेरी), बवंडरों के बीच (कौशल पंवार) टूटे पंखों से परवाज़ तक (सुमित्रा महरोल). आलोचक गरिमा श्रीवास्तव ने अपने इस विशद आलेख में इन सभी आत्मकथाओं की अंतर-कथाओं का समावेश किया है. ये आत्मकथाएं अखिल भारतीय हैं. इस आलेख को पढ़ते हुए उस प्रतिनिधि दलित स्त्री का चेहरा सामने आता है जिसकी पीड़ा क्षेत्रीयता की सीमा लांघकर लगभग हर जगह एक जैसी है. गरिमा श्रीवास्तव ने बड़े श्रम, शोध और स्त्री-दृष्टि से इसे लिखा है. ज़ाहिर है यह विचार के साथ-साथ हस्तक्षेप भी है. इसकी प्रस्तुति भी समालोचन के लिए चुनौती थी, प्रत्येक आत्मकथा को अलग पृष्ठ दिया गया है, जिससे कि पढ़ने में सुविधा हो.

by arun dev
November 7, 2021
in आलेख, विशेष
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

शिकंजे का दर्द

जाति व्यवस्था और जेंडर के समीकरणों से टकराने का काम हिंदी में  जिन दलित रचनाकारों ने किया उनमें सुशीला टाकभौरे  को देखा जा सकता है जिनकी आत्मकथा ‘शिकंजे का दर्द’ (2011) दलित स्त्री आत्मकथ्यों में इसलिए विशिष्ट है क्योंकि इसमें अत्यंत सचेतन ढंग से स्त्री का नैरेटिव तैयार किया गया है, जिसके माध्यम से लेखिका एक विशेष किस्म का सामाजिक और राजनीतिक निहितार्थ व्यंजित करने में समर्थ हुई है. पुस्तक के ब्लर्ब पर ही शीर्षक का स्पष्टीकरण कर दिया गया है–

“शिकंजा, यानी पंजा, जिसकी जकड़न में रहकर कुछ कर पाना कठिन हो.  शिकंजा यानी कटघरा जिसमें कैद होकर उसके बाहर जाना कठिन हो. . . जिस तरह किसी ताकतवर को शिकंजे में कसकर उसकी पूरी ताकत को नगण्य बना दिया जाता है, उसी तरह मुझे भी सामाजिक जीवन की मनुवादी विषमता ने, वर्णवादी समाज व्यवस्था ने शिकंजे में जकड़कर रखा, जिसका परिणाम पीड़ा–दर्द, छटपटाहट के सिवा कुछ नहीं है. . . शिकंजे का दर्द’ में संताप है दलित होने का.  इसमें शोषित, पीड़ित, अपमानित अभावग्रस्त दलित जीवन की व्यथा है.  स्त्री होना ही जैसे व्यथा की बात है.  चाहे हमारा देश हो या विश्व के अन्य देश, हर जगह शोषण उत्पीड़न की शिकार स्त्री ही रही है.  जिस देश में वर्णभेद, जातिभेद की कलुषित परम्पराएं हैं वहां दलित स्त्री शोषण की व्यथा और भी गहरी हो जाती है.  सदियों से तिरस्कृत और अभावग्रस्त परिस्थितियों में रहने के लिए मजबूर किये गए दलित–जीवन की व्यथा–कथा का दर्द ‘शिकंजे का दर्द’ में समाहित है. ”

इस तरह सुशीला टाकभौरे प्रारंभ में ही अपने आख्यान के उद्देश्य को ठीक कौशल्या बैसंत्री की तर्ज़ पर ही स्पष्ट कर देती हैं.  यह आत्मकथा महाराष्ट्र के  दलित एक्टिविज़्म के चेहरे और सार्वजनिक संस्कृति के बारे में  प्रामाणिक सूचनाओं से परिपूर्ण है.  इसे ‘अस्पृश्य’ कही जाने वाली स्त्री की कलम से लिखा  ‘सबाल्टर्न जीवनानुभव’ का  साहित्यिक दस्त्तावेज़ कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी.  इसे दलित स्त्री के संघर्ष और उपलब्धियों के प्रामाणिक दस्तावेज़ के तौर पर पढ़ा जाना चाहिए.  वे बचपन में ही शिक्षा ग्रहण करने और स्कूल  जाने की तीव्र इच्छा को अभिव्यक्त करती हैं, शिक्षा के लिए अपनी मां और नानी  के सहयोग की बात करती हैं.  उन दोनों और स्वयं के अनुभवों से सुशीला इस निष्कर्ष पर पहुँचती हैं कि शिक्षा ही एकमात्र वह औजार है जिसके द्वारा सामाजिक भेदभाव और उत्पीड़न के खिलाफ लड़ सकती हैं.  वे  पुस्तक में दर्ज करती हैं-

“उस समय कक्षा में अपनी जाति की सिर्फ़ मैं ही एक लड़की थी.  मेरे बड़े भाई सिवनी मालवा के हाईस्कूल में पढ़ रहे थे.  छोटा भाई मोहन एक साल पीछे था.  स्कूल में ढीमर, पासी, खटिक, कंजर, चमार, बसोर, बलाई आदि अनुसूचित जाति के बच्चे पढ़ते थे मगर उन सबमें निम्न अछूत मुझे ही माना जाता था.  ये एस. सी.  बच्चे भी मुझे अपने से निम्न मानते थे मैं सबसे नीचे के पायदान पर थी.”

वे अपने समुदाय के बारे में लिखती हैं–

“हम सम्मानित समाज से अलग काटे–छांटे हुए लोग थे.  हमें लोग उपेक्षा, तिरस्कार और घृणा की नज़र से देखते थे.  हमारे लोग अपनी ही दुनिया में खुश रहते जैसे उन्हें किसी की भी परवाह नहीं.  अपने जीवन को, पूर्वजों से विरासत में मिली ज़िन्दगी मानकर वे जी रहे थे. . पीढ़ी दर पीढ़ी शिक्षा से वंचित रहकर वे ऐसा जीवन जी रहे थे.   वे अपनी नानी के पेशे से नाखुश और शर्मिंदा हैं, लेकिन नानी जब मैला उठाने का काम करके आतीं तो उन्हें नहलाती–धुलाती, तेल लगाकर उसके बाल भी बाँध देती हैं.  वे घृणा करके भी घृणा कर नहीं पातीं. अपनी कहानी कहने के साथ–साथ नानी की कहानी कहना भी उन्हें ज़रूरी लगता है क्योंकि नानी की वजह से ही उन्होंने बेहतर भविष्य के स्वप्न देखे, नानी के संघर्ष के कारण ही बेटी  और नातिन दोनों जी पायीं, और नानी के कारण ही वह शिक्षित हो कर बेहतर मनुष्य बन पायीं.”

हमेशा  से समाज की मुख्यधारा में  रहते चले आने वालों के लिए यह आख्यान नयी जानकारियों से युक्त हो सकता है. सवर्ण दृष्टि से पाठ्यपुस्तकों का चुनाव और अब तक बनाए गए पाठ्यक्रमों में  ‘शिकंजे का दर्द’ जैसी आत्मकथा स्वयं अपना स्थान नियत करने को प्रस्तुत है. परिधि पर धकेल दी गयी स्त्रियों के जाति-दंश, शोषण और अपमान के सुदीर्घ इतिहास को अपनी प्रामाणिकता से न सिर्फ़ सम्पन्न करता है बल्कि ऐसे  तीव्र घोष  के साथ उठ खड़ा होता है जिसे अनसुना करना और  संभव नहीं हो पाता.  यह आत्मकथ्य अपने नए पाठक तैयार करता है साथ ही दलित साहित्य सैद्धांतिकी के निर्माण में भी  योगदान करता  है.  यह पर्याप्त सचेतनता के साथ निर्मित स्त्री–आख्यान है, जो जेंडर की सीमाओं को लांघकर  साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान बनाता है.  इसके पन्नों से, अपने पूरे समुदाय के साथ जागरूक, राजनैतिक और शैक्षिक दृष्टि से चेतस स्त्री  झांकती है.  इस आत्मकथा में नीचे से ऊपर उठी आवाज़ों का शामियाना तना हुआ है.  आवाजों के शोर में सबसे सशक्त आवाज़ है सुशीला की जिसने बचपन से चुप रहकर सदियों से अनसुनी आवाजों को प्रतिनिधित्व दिया.  बचपन से अभाव और जातिदंश झेलने वाली सुशीला का विवाह अपने से उम्र में काफी बड़े व्यक्ति के साथ हुआ, सामाजिक पाबंदियों के कारण–

“विवाह के समय टाकभौरे जी को पहली बार अपने नज़दीक बैठे देखा था तब मुझे बहुत अजीब लगा था–

“इतने प्रौढ़ व्यक्ति से मेरी शादी हो रही है? तब भय की झुरझुरी सी आई थी.  मन में अनेक शंका और प्रश्न उठे थे– मेरा जीवन कैसा होगा? मेरा भविष्य कैसा होगा? ससुराल के लोग मेरे साथ कैसा व्यवहार करेंगे?”

जिस समुदाय से सुशीला आती हैं उसमें पढ़ा–लिखा दूल्हा मिलना कितना कठिन रहा होगा कि सुशीला का विवाह पित्त के रोगी, मिडिल स्कूल के प्रौढ़ मास्टर से कर दिया गया.  ससुराल क्या था नयी बहू  के शोषण का कारखाना था.  सुशीला लिखती हैं–

“हमारी जाति में शिक्षित और अच्छी नौकरी वाले लड़के नहीं मिलते थे.  बड़े परिवारों में घर का पूरा काम बहू से करवाना, छोटे गाँवों में जीवन की सुविधाएँ ही नहीं मिलना, पानी दूर से भरकर लाना, जलावन की लकड़ी जंगल से लाना, दिशा–मैदान के लिए दूर जंगल में जाना, सास ननद, देवरानी–जेठानी के झगड़े– इसके साथ घूंघट और रीति परम्पराओं की बातें भी गाँवों में बहुत रहती हैं.  यह सब सोचकर ही मां ने मुझे बड़े शहर में भेजने का निर्णय लिया होगा.  यहाँ परिवार भी छोटा था.  शायद मेरी शादी के बाद मां अपने निर्णय पर पछताई भी होगी, या इसे मेरी किस्मत मानकर तटस्थ रही होगी. . . मैं भी ससुराल के लोगों की बातों को तटस्थ भाव से सुनती थी.

टाकभौरे जी ‘आदर्श ज्ञान प्रकाश हाईस्कूल’, गांधीबाग़ में मिडिल स्कूल के शिक्षक थे.  गंभीर स्वभाव के साथ, न मेरे पास बैठते, न मुझसे बातें करते, न कोई हँसी-मज़ाक की ही बात करते.  जब बहन उनके पास बैठती, वे खूब हँस-हँस कर बातें करते, बहन के बच्चे को लाड़-प्यार करते रहते.  उनकी मां भी उनके साथ बैठकर खुश होती.  मैं चूल्हे के पास बैठी, चुपचाप सबको देखती रहती. ”

ससुराल में मिले अपमान और उपेक्षा को वे विस्मृत नहीं कर पातीं.  स्वयं को स्वच्छंद तब अनुभव करती हैं, जब उन्हें नौकरी मिलती है लेकिन नौकरी करने और निजी आमदनी के बावजूद घर के फैसलों पर पुरुष-सत्ता हावी है, जिसका सविस्तार वर्णन वे करती हैं.  दलित आत्मकथ्य कैसे प्रतिरोध के साहित्य के रूप में अपनी पहचान स्थापित करते हैं इसे सुशीला की आत्मकथा पढ़कर जाना जा सकता है. प्रतिरोध का साहित्य स्वयं ही लोगों का ध्यान आकर्षित करता है, सामान्य साहित्य की तुलना में यह एक तरह का राजनीतिपरक लेखन है. अस्मितामूलक संघर्ष से सीधे जुड़कर, अपने हक़ और हुकूक की लड़ाई की पृष्ठभूमि यह साहित्य तैयार करता है.  मुख्यधारा की प्रचलित विचारधाराओं और सांस्कृतिक निर्मितियों को चुनौती देकर एक नया पाठ तैयार करता है.  इस प्रतिरोधी चेतना को ‘शिकंजे का दर्द’ में देखा जा सकता है, जहाँ सभी चुनौतियां झेलकर सुशीला संघर्ष की सीढ़ियाँ पार कर अपने जातिगत समुदाय के साथ-साथ लैंगिक समुदाय की राजनीतिक आवाज़ बन जाती हैं.  वे अपने जातिगत समुदाय के विषय में चोटिल टिप्पणी करती हैं–

“पैंतीस साल से अपने समाज के शुभचिंतकों और नेताओं को देख रही हूँ.  उनकी कार्यप्रणाली को समझ रही हूँ.  मुझे उनके काम और सोच विचार में समाज की प्रगति की आशा नज़र नहीं आती.  सच यह है कि उन्हें प्रगति और परिवर्तन की सही दिशा की जानकारी ही नहीं है.  हमारे लोग गांधीजी को मानते हैं.  डा.  भीमराव अम्बेडकर को और उनकी विचारधारा को जाने–समझे बगैर वे प्रगति और समाज –परिवर्तन की बात नहीं समझ सकेंगे, इसके बिना स्थिति–परिवर्तन की कल्पना भी निरर्थक है.  उत्तर भारत और महाराष्ट्र में वाल्मीकि जाति के लोग साल में एक बार अक्टूबर माह की पूर्णिमा को महर्षि वाल्मीकि–जयंती मनाते हैं. इसी प्रकार नागपुर में सुदर्शन जाति के लोग नवम्बर माह की पूर्णिमा को सुदर्शन महाराज की जयंती मनाते हैं.  वाल्मीकि, सुदर्शन, डुमार एक ही जाति की उपजातियां हैं, मगर वे अलग–अलग रहते हैं.  इसी तरह हेला और मखियार भी उपजातियां हैं.  कुछ लोग जो शिक्षित हो गए, अच्छे पदों पर मान–सम्मान के साथ नौकरी कर रहे हैं, वे समाज के ऐसे जयंती–कार्यक्रमों में कम ही जाते हैं. . . जहाँ हमारे लोग खुद को वाल्मीकि कहकर वाल्मीकि पर गर्व करते हैं, वहीं अन्य दलित हम लोगों से ऊंचे दलित होने का गर्व करते हैं. ”

दलित समाज के अंतर्विरोधों की तरफ खुल कर टिप्पणी करना परिवर्तनकामी चेतना के प्रति रुझान की ओर संकेतित करता  है.  अन्य स्त्री-आत्मकथाओं में सामाजिक सन्दर्भों की इस व्यापकता का अंशतः अभाव दिखाई देता है, जिनमें स्त्रियाँ अपने जीवन के बारे में कहते हुए  बहुत ही छोटे प्रसंग चित्रित करके रह जाती हैं, वहीं सुशीला टाकभौरे आत्माख्यान को व्यापक फलक प्रदान करती हैं.  वे निजी प्रसंगों को उठाते हुए भी उनकी मनो-सामाजिक पृष्ठभूमि की पड़ताल निरंतर करती चलती हैं और इस तरह रचना को अपेक्षाकृत व्यापक फलक प्रदान करने में सक्षम होती हैं.  सुशीला टाकभौरे सामजिक संरचना में जाति की उत्पत्ति और उसकी अवस्थिति के बारे में विस्तार से विचार करती हैं साथ ही स्त्री-श्रम के प्रति उपेक्षा को भी रेखांकित करती हैं.  यद्यपि कई जगह घटनाएं और प्रसंग दोहराए गए हैं फिर भी हर बार वे एक नया आयाम लेकर सामने आते हैं.  पारिवारिक जीवन के झगड़ों को वे अपने ऊपर हावी नहीं होने देतीं और खुलकर अपने समाज के उत्थान के लिए निरंतर कार्य कर रही हैं.  वे स्वीकारोक्ति करती भी हैं कि–

“मां अक्सर मुझसे कहती है- अपने लोगों की वे सब बातें बताना शर्म की बात है. वे कोई बताने लायक अच्छी बातें नहीं हैं.  तुम ऐसी बातों को अपनी किताबों में क्यों लिखती हो ? पढ़–लिखकर पागल हो गयी हो? जात–पांत,छुआछूत और गाली–अपमान की बातें बताकर तुम अपना कौन-सा सम्मान बढ़ाती हो ?शर्म नहीं आती है तुम्हें ?”

अपने भूतकाल पर मुझे शर्म ज़रूर आती है मगर इस तरह नहीं कि मैं उसे छिपाऊं.  क्रोध के साथ मैं उसे सबको दिखाना चाहती हूँ, ताकि हिन्दू समाज व्यवस्था का कलंक सबको मालूम हो.  अन्यायी वर्ग को दंड मिले और शोषकों को सजा.  धर्म के नाम पर हमारा शोषण और अपमान करने वालों का भंडाफोड़ होना चाहिए. . . दलितों में भी दलित अपनी जाति का भान और अपमान मैंने हर जगह पाया.  उच्च शिक्षित और ऊँचे पदों पर कार्यरत अछूतों के साथ, सवर्ण समाज के लोग समता सम्मान का ऊपरी व्यवहार करते हैं, लेकिन ह्रदय से भेदभाव की बात शायद ही कोई भूल पाता है.  किसी न किसी रूप में उनकी बातों और व्यवहार से यह बात प्रकट हो ही जाती है, तब मन को बहुत ठेस लगती है.

Page 17 of 23
Prev1...161718...23Next
Tags: अनिता भारतीअन्तःस्फोटअपनी ज़मीं अपना  आसमांआयदानआलो आंधारिउर्मिला पवारएक अनपढ़ कहानीकरक्कूकल्याणी ठाकुरकावेरीकुमुद पावड़ेकौशल पंवारकौशल्या बैसंत्रीगरिमा श्रीवास्तवछूटे पन्नों की उड़ानजिण आमुच्याटुकड़ा–टुकड़ा जीवनटूटे पंखों से परवाज़ तकदलित स्त्री आत्मकथाएंदोहरा अभिशापबवंडरों के बीचबामा फ्युस्टीना मेरीबेबी कोंडिबा काम्बलेबेबी हालदारमलाउद्ध्वस्त व्यायंचयमल्लिकाअमर शेखमाझ्या जल्मांची चित्तरकथामिटलेली कवाडेमुक्ता सर्वगोंडरजनी तिलकरात्रादिन आम्हालाइफ़ ऑफ़ एन अनटचेबलवीरम्माशांताबाई कृष्णाजी काम्बलेशांताबाई धानाजी दानीशिकंजे का दर्दसुमित्रा महरोलसुशीला टाकभौरेसुशीला राय
ShareTweetSend
Previous Post

दिल्ली: मुल्क-ए-हिजरत: प्रियंका दुबे

Next Post

नानी वाली गइया: सत्यदेव त्रिपाठी

Related Posts

चुप्पियाँ और दरारें : रवि रंजन
समीक्षा

चुप्पियाँ और दरारें : रवि रंजन

निर्मला जैन : मेरी टीचर : गरिमा श्रीवास्तव
आत्म

निर्मला जैन : मेरी टीचर : गरिमा श्रीवास्तव

आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा :  प्रेमकुमार मणि
आलेख

आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा : प्रेमकुमार मणि

Comments 8

  1. दया शंकर शरण says:
    4 years ago

    बहुत ही विस्तृत आलेख। दलित जीवन का खण्ड-खण्ड सच-एक आत्मकथात्मक साक्ष्य । तीन तरफा मार झेलती स्त्री- एक तो स्त्री, वह भी दलित और उस पर से पितृसत्ता के अधीन।अभी समयाभाव से इसे आद्योपांत नहीं पढ़ पाया। लेकिन अत्यंत पठनीय एक जरूरी आलेख।

    Reply
  2. अशोक अग्रवाल says:
    4 years ago

    साहित्य का भूगोल हो या इतिहास इन दलित महिला कथाकारों की आत्मकथाओं की उपस्थिति को दर्ज किए बिना कभी मुक्कमल आकार ग्रहण नहीं कर सकता। बेबी हालदार की आत्मकथा पढ़ते हुए अविस्मरणीय कहानी आखेट के कथाकार प्रबोध कुमार और विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी स्वर्गीय अशोक सेकसरिया का स्मरण न आना असंभव है। हमेशा की तरह इस बार भी अपने गंभीर और सुचिंतित आलेख को पढ़वाने के लिए गरिमा श्रीवास्तव जी का और अरुण देव जी का अभिवादन।

    Reply
  3. पंकज चौधरी says:
    4 years ago

    गरिमा श्रीवास्तव का यह भी एक सुचिंतित आलेख है। भारत में दो तरह के स्त्री लेखन होते रहे हैं। एक खाए-अघाए या सवर्ण स्त्रियों का लेखन, और दूसरा दलित-बहुजन स्त्रियों का लेखन। सवर्ण स्त्रियों के यहां दलित-बहुजन स्त्रियां उसी तरह से गायब हैं जिस तरह से सवर्ण पुरुषों के लेखन से जाति समस्या या दलित-बहुजन समाज। इतना ही नहीं सवर्ण लेखिकाएं दलित-बहुजन स्त्रियों से अकूत घृणा भी करती हैं। लेकिन दलित स्त्री लेखन की यह खासियत है कि एक तरफ यदि वह द्विजवाद से लड़ता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही समाज की मर्दवादी सोच और विचार से। दलित-बहुजन स्त्रियों के लेखन में हम कई-कई मोर्चों पर संघर्ष और अभिशापों को पाते हैं। इसीलिए उसे भारत के प्रमुख स्वर के रूप में पहचान मिल रही है। ईमानदारी, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और स्वाभाविकता उसकी विशेषता है। तभी मल्लिका अमरशेख जैसी महान दलित लेखिका अपने पति नामदेव ढसाल की कलई को खोलकर रख पाती हैं। तहमीना दुर्रानी और तसलीमा जैसी लेखिकाओं ने भी ऐसा साहस दिखाया है। लेकिन हिंदी की सवर्ण लेखिकाओं के पास ऐसा साहस कहां? वह तो फैशन में लिखते चलती हैं। वे भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का नाम नहीं लेंगी लेकिन वर्जीनिया वुल्फ और जर्मन ग्रीयर का नाम लेते नहीं अघाएंगी।

    Reply
  4. कुमार अम्बुज says:
    4 years ago

    अच्छा आलेख है। कई महत्वपूर्ण संदर्भों से संपन्न।

    Reply
  5. अनिल जनविजय says:
    4 years ago

    ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी घटिया-सी आत्मकथा लिख दी थी। वहीं दूसरी ओर तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएँ और कष्ट तो वयक्त किए, लेकिन अपनी पत्नी के बारे में बिल्कुल भूल ही गए। स्त्री दलितों में भी सबसे दलित है। पितृसत्तात्मक समाज की बन्दिशें दलित स्त्रियों को भी झेलनी पड़ती हैं। उनका दोहरा शोषण होता है। ऊँची जातियों के द्वारा और ख़ुद अपने ही समाज के मर्दों के द्वारा।

    Reply
    • Anonymous says:
      4 years ago

      सही है

      Reply
  6. शुभा माहेश्वरी says:
    4 years ago

    सशक्त भाषा के साथ गंम्भीर विश्लेषण करते हुए गरिमा जी ने दलित स्त्रियों के आत्मकथ्यों से दिखाई देने वाले गहरे दंश को साहित्य जगत के सामने लाकर अन्याय के खिलाफ दस्तावेज प्रस्तुत करने का श्लाघनीय कार्य किया है। उन्हें और अरुण देव को अभिवादन।

    Reply
    • Anonymous says:
      4 years ago

      शुक्रिया शुभा जी

      Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक