
एक अनपढ़ कहानी
जॉन स्टुअर्ट मिल ने कहा था: “एक सावधानी बरतते हुए हम यह मान सकते हैं कि जो ज्ञान पुरुष स्त्रियों से उनके बारे में हासिल करते हैं, भले ही वह उनकी संचित संभावनाओं के बारे में न होकर, सिर्फ़ उनके भूत और वर्तमान के बारे में ही क्यों न हो, तब तक अधूरा और उथला रहेगा, जब तक कि स्त्रियाँ स्वयं वह सब कुछ नहीं बता देतीं, जो उनके पास बताने के लिए है. ”
स्त्री पराधीनता की स्थिति समूचे विश्व में लगभग एक–सी रही है, लेकिन इस पराधीनता के हद और स्वरूप का निर्धारण सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारक करते रहे हैं, जिसके उदाहरण के रूप में ‘एक अनपढ़ कहानी’(2005) शीर्षक आत्मकथा को देखा जा सकता है. पुस्तक के अनुसार उत्तर बिहार के मधुबनी जिले की पिछड़ी जाति की निरक्षर स्त्री सुशीला राय काले रंग के कारण परिवार और समाज की गहरी उपेक्षा झेलती है. वह लिखती हैं-
“जब मैं अपने ससुराल पहुँची तो मैं पालकी में ही थी. मेरी सास ने मुझे डोली से निकाला नहीं. उसी में घूँघट उठाकर मुझे देखा और रोने लगी कि मेरे बेटे का गला काट लिया है. मेरे पति की एक बुआ ने मेरी शादी करवाई थी. उन्हें मेरी सास डांट-फटकार करने लगी कि मेरा बेटा राजकुमार की तरह है और बहू इतनी बदसूरत उठाकर ले आए हैं, जिससे कोई नहीं शादी करता उसको मेरे बेटे के गले में बाँध दिया है. मैं डोली से बहू को नहीं उठाऊँगी और अपने बेटे को पकड़कर रोने लगी कि क्या तुम्हारे भाग्य में यही लिखी थी. . . . ”
विवाह के दस वर्षों तक निःसंतान रहने पर सुशीला के पति ने उसे कहीं और विवाह करने का सुझाव दिया ताकि वह स्वयं बाँझ और काली–कलूटी पत्नी से मुक्त हो सके –
“पता नहीं, दूसरी शादी करने के लिए मेरे पति उस समय क्यों इतने उतावले हो गए थे. जब भी कहीं बाहर से आते थे तो मुझे कहने लगते थे कि तुम क्या करोगी ? इस तरह तुम हर समय दुखी रहती हो यह ठीक बात नहीं, तुम शादी करना मंजूर कर लो; अभी तुमको कुछ नहीं हुआ है बहुत समय बचा है, घर के लोग तुम्हारा मन रखने के लिए कहते हैं कि हम रखेंगे, हम रखेंगे लेकिन यह तुम मान लो कोई तुम्हारे काम नहीं आएगा. मैं जो कहता हूँ अच्छे के लिए कहता हूँ. तुम जहाँ शादी करोगी मैं तुम्हारा खर्च देने के लिए तैयार हूँ. . . .”
सुशीला ने पति का यह सुझाव नहीं माना, पति उसे छोड़कर कलकत्ता चला गया. पति द्वारा त्याग दिया जाना यहाँ वर्ग, जाति और लिंग के आपसी सम्बन्ध को बताता है. जिसके बारे में उमा चक्रवर्ती का कहना है–
“वर्ग, जाति और लिंग तीनों आपस में गुंथे हुए हैं, ये आपस में अंतर्क्रिया करते हुए एक-दूसरे का रूप निर्धारित करते हैं: विवाह के रूप, यौनिकता और प्रजनन जाति व्यवस्था का मूलभूत आधार है. विवाह–संस्था वर्ग और जाति दोनों ही आधारित स्तरीकरणों और प्रजनन सम्बन्धी कठोर कायदों के माध्यम से समूचे तंत्र का पुनरोत्पादन करती है. ”
वहां से उसके मकान मालिक “रमेश बाबू ने मुझे चिट्ठी भेजी कि तुम घबराओ नहीं. तुम धीरज धरो अविनाश को मैं समझा रहा हूँ. आशा है कि वह समझ जाएगा. मैं तुम्हारे लिए बहुत कोशिश कर रहा हूँ. मुझे आशा है कि तुम्हें बच्चा होगा. पत्र पर पत्र लिखने लगे. उनका पत्र मैं किसी दूसरे से पढ़ाकर सुनती थी क्योंकि अपने तो मूर्ख थी, काला अक्षर भैंस बराबर थी और रमेश बाबू की चिट्ठी सुनने का मुझे बार-बार मन करता था. लेकिन दूसरा आदमी तो बार-बार नहीं सुनाता. अब यह दुख भी मेरे सिर पर सवार हो गया कि यदि पढ़ी-लिखी होती तो मैं उनको हर पत्र का जवाब लिखकर भेजती. बारी-बारी करके सब परीक्षाएँ होने लगी. तब मैं पढ़नेवाले लोगों को देखकर तरसने लगी और यह सोचने लगी कि मैं दूसरे लोगों से चिट्ठी लिखाकर उन्हें भेजती हूँ. हर बात दूसरे आदमी को कही नहीं जा सकती है.
सुशीला ने घर और रसोई आदि के कार्यों से छुट्टी पाने पर रात-दिन किरासिन तेल जलाकर दीए की रोशनी में पढ़ाई की, पारिवारिक अपमान झेला और एक दिन बेबी हालदार की आत्मकथा ‘आलो आंधारि’ पढ़कर उसे अपनी कथा लिखने की प्रेरणा मिली. यह आत्मकथा पितृसत्ता और भारतीय जाति-व्यवस्था के भीतर स्त्री दमन के औजारों और साजिशों का पर्दाफाश करती है. वह अपने समुदाय में व्याप्त दहेज़ प्रथा पर टिप्पणी करती हुई कहती है–
“पिताजी लोहना गए तो लड़का देखकर खुश हो गए. वैसे घर कोई धनी नहीं था लेकिन लोगों का व्यवहार ठीक–ठाक था. पिताजी का खूब स्वागत हुआ. खाना–पीना हो जाने के बाद पिताजी ने लड़केवालों को कहा कि आप लोगों की क्या–क्या मांग है, बताईये, तो उन लोगों ने साईकिल, घड़ी, रेडियो तथा बर्तन–भांड़े और भैंस की मांग की. आज से बीस–पचीस साल पहले हमारी अमात्य जाति में रूपया नहीं, सामान ही माँगा जाता था. . ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहार जातियों में ही नगद दहेज़ दिया जाता था. इसलिए मेरे विवाह में सामान की ही मांग हुई. अब तो हमारी भी जाति में दहेज़ में लोग लाखों रुपये लेने –देने लगे हैं.”
अपने रंग के कारण सुशीला का शोषण बहुस्तरीय है, ससुराल में हुए अपमान से आहत होकर वह लिखती है-
“इस तरह का अपमान झेलकर जब मैं पीहर गई तो मैंने माँ को कहा कि माँ, तुमने मुझे सुंदर क्यों नहीं बनाया जो मेरा इतना अपमान हुआ. जन्म के समय तुमने मुझे मार क्यों नहीं दिया जो मेरे कारण तुम्हारा भी इतना अपमान हो रहा है कि कैसी माँ है जिसने ऐसी बेटी को जन्म दिया. ”
कुरूप लड़की से विवाह होने के कारण उसका पति कलकत्ते भाग जाता है और लौटने का नाम नहीं लेता. सुशीला अनपढ़ होने के दुःख को व्यक्त करते हुए कहती है-
“एक दिन मैंने रमेश बाबू को कहा कि बाबूजी अगर मैं शुरू से पढ़ी-लिखी होती तो मेरे बारे में पीहर और ससुराल के लोगों ने क्या-क्या सोचा और क्या नहीं बोला मैं सब लिख देती. ”
सुशीला अपने मां न बन पाने पर दुखी रहती है और हर आम स्त्री की तरह उसे लगता है कि संतान के अभाव में उसका जीवन व्यर्थ है-
“मन में मैं सोच रही थी कि आत्महत्या कर लूंगी. लेकिन उसी बीच मेरे भाई ने मुझे एक कहानी की किताब लाकर सुनाई कि देखो तुम कहती हो मैं मर जाऊँगी. यह कहानी सुनकर कुछ सोचो कि इतनी पढ़ी-लिखी स्त्री इतना दुख झेलकर जब रही तो तुम क्यों नहीं रह सकती. वह कहानी सुनकर मैंने अपने मन को शांत किया कि जब इतनी पढ़ी-लिखी स्त्रियों, इतनी बुद्धिमान स्त्रियों को भी इतना कष्ट और दुख हुआ और तब भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी तो मैं क्या हूँ. तीन बच्चों की माँ बनने के बाद भी जिसे पति ने घर से निकाल दिया और तीनों बच्चों की छीन लिया, तब भी उसने आत्महत्या नहीं की कि आत्महत्या करने से बढ़कर दुनिया में कोई बड़ा पाप है ही नहीं. यह सुनकर मेरी हिम्मत और बढ़ गई. ”
सुशीला रंग-रूप के कारण मिली उपेक्षा और प्रवंचना को साक्षरता से जीतने का प्रयास करती है. वह लिखती है–
“मैं अपनी जेठानी और देवरानी को देखकर दुखी रहती थी कि वे दोनों जब चाहती हैं तब अपने मन की बात लिख पाती हैं. और एक मैं ऐसी हूँ जिसे चिट्ठी लिखाने या पढ़ाने के लिए किसी दूसरे का मुँह जोहना पड़ता है. तब मैं सोचने लगी कि मैंने सुंदर न होने का उलाहना सुन लिया, इसके बाद बच्चा नहीं हुआ तो इसका भी उलाहना सुनकर बरदाश्त कर लिया, लेकिन पढ़ाई तो अपने परिश्रम से ही कर पाऊँगी. फिर पढ़ाई शुरू करने में देर क्यों करूँ. मैंने भाई को बुलाया और उससे कहा कि मुझे पढ़ा दो.”
सुशीला कोई कार्यकर्त्ता नहीं है न ही उसके पास जाति और स्त्री उत्थान की कोई वैचारिक पृष्ठभूमि ही रही है. लेकिन स्वयं साक्षर होकर उसने वह शक्ति अर्जित कर ली है जिसके बल पर वह अपने-आप अक्षर ज्ञान सीखती बीबी अशरफ और राशसुंदरी देवी की परंपरा में खड़ी दिखाई देती है. ’
एक अनपढ़ कहानी ‘का सबसे बड़ा वैशिष्ट्य है- कथन की प्रामाणिक शैली. जब कोई स्त्री अपनी कथा स्वयं कहती है, तो उसमें प्रामाणिकता होती है और अनुभवों की प्रत्यक्ष अनुभूति से ही प्रामाणिकता आती है. स्त्रियों की आत्मकथाएं उनके समुदायों की कथा के रूप में भी सामने आती हैं. आत्मकथा के माध्यम से वह स्वयं को ‘खोजती’ भी है क्योंकि
“पुरुष जगत में स्त्री प्रवेश नहीं कर सकती, क्योंकि उसके अनुभव उसे ऐसे तर्क और ज्ञान नहीं सिखाते जिनके साथ वह अग्रसर हो. साथ ही स्त्री क्षेत्र की सीमा पर पुरुष के शस्त्र भी शक्तिहीन हो जाते हैं. मानव स्वभाव का एक ऐसा भी क्षेत्र है, जिसकी पुरुष अवहेलना करता है. इसके बारे में वह सोचता भी, पर स्त्री को इस अनुभव को प्राप्त करना ही पड़ता है. ”
बहुत ही विस्तृत आलेख। दलित जीवन का खण्ड-खण्ड सच-एक आत्मकथात्मक साक्ष्य । तीन तरफा मार झेलती स्त्री- एक तो स्त्री, वह भी दलित और उस पर से पितृसत्ता के अधीन।अभी समयाभाव से इसे आद्योपांत नहीं पढ़ पाया। लेकिन अत्यंत पठनीय एक जरूरी आलेख।
साहित्य का भूगोल हो या इतिहास इन दलित महिला कथाकारों की आत्मकथाओं की उपस्थिति को दर्ज किए बिना कभी मुक्कमल आकार ग्रहण नहीं कर सकता। बेबी हालदार की आत्मकथा पढ़ते हुए अविस्मरणीय कहानी आखेट के कथाकार प्रबोध कुमार और विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी स्वर्गीय अशोक सेकसरिया का स्मरण न आना असंभव है। हमेशा की तरह इस बार भी अपने गंभीर और सुचिंतित आलेख को पढ़वाने के लिए गरिमा श्रीवास्तव जी का और अरुण देव जी का अभिवादन।
गरिमा श्रीवास्तव का यह भी एक सुचिंतित आलेख है। भारत में दो तरह के स्त्री लेखन होते रहे हैं। एक खाए-अघाए या सवर्ण स्त्रियों का लेखन, और दूसरा दलित-बहुजन स्त्रियों का लेखन। सवर्ण स्त्रियों के यहां दलित-बहुजन स्त्रियां उसी तरह से गायब हैं जिस तरह से सवर्ण पुरुषों के लेखन से जाति समस्या या दलित-बहुजन समाज। इतना ही नहीं सवर्ण लेखिकाएं दलित-बहुजन स्त्रियों से अकूत घृणा भी करती हैं। लेकिन दलित स्त्री लेखन की यह खासियत है कि एक तरफ यदि वह द्विजवाद से लड़ता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही समाज की मर्दवादी सोच और विचार से। दलित-बहुजन स्त्रियों के लेखन में हम कई-कई मोर्चों पर संघर्ष और अभिशापों को पाते हैं। इसीलिए उसे भारत के प्रमुख स्वर के रूप में पहचान मिल रही है। ईमानदारी, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और स्वाभाविकता उसकी विशेषता है। तभी मल्लिका अमरशेख जैसी महान दलित लेखिका अपने पति नामदेव ढसाल की कलई को खोलकर रख पाती हैं। तहमीना दुर्रानी और तसलीमा जैसी लेखिकाओं ने भी ऐसा साहस दिखाया है। लेकिन हिंदी की सवर्ण लेखिकाओं के पास ऐसा साहस कहां? वह तो फैशन में लिखते चलती हैं। वे भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का नाम नहीं लेंगी लेकिन वर्जीनिया वुल्फ और जर्मन ग्रीयर का नाम लेते नहीं अघाएंगी।
अच्छा आलेख है। कई महत्वपूर्ण संदर्भों से संपन्न।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी घटिया-सी आत्मकथा लिख दी थी। वहीं दूसरी ओर तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएँ और कष्ट तो वयक्त किए, लेकिन अपनी पत्नी के बारे में बिल्कुल भूल ही गए। स्त्री दलितों में भी सबसे दलित है। पितृसत्तात्मक समाज की बन्दिशें दलित स्त्रियों को भी झेलनी पड़ती हैं। उनका दोहरा शोषण होता है। ऊँची जातियों के द्वारा और ख़ुद अपने ही समाज के मर्दों के द्वारा।
सही है
सशक्त भाषा के साथ गंम्भीर विश्लेषण करते हुए गरिमा जी ने दलित स्त्रियों के आत्मकथ्यों से दिखाई देने वाले गहरे दंश को साहित्य जगत के सामने लाकर अन्याय के खिलाफ दस्तावेज प्रस्तुत करने का श्लाघनीय कार्य किया है। उन्हें और अरुण देव को अभिवादन।
शुक्रिया शुभा जी