अपनी ज़मीं, अपना आसमां
‘अपनी ज़मीं, अपना आसमां’ शीर्षक से दलित कार्यकर्त्ता रजनी तिलक(1958-2018) ने आत्मकथा का पहला भाग लिखा जिसका प्रकाशन 2017 में हुआ, इससे पहले कि आत्मकथा का दूसरा खंड प्रकाश में आता, रजनी तिलक का देहांत हो गया. उन्होंने ’सेंटर फार अल्टरनेटिव दलित मीडिया’ के कार्यकारी निदेशक के रूप में कार्य किया तथा स्त्री एवं दलित संगठनों से जुड़ी रहीं. दलित पैंथर की दिल्ली शाखा की स्थापना में उनका योगदान रहा है. लगभग चालीस वर्ष दलित उत्थान के लिए सक्रिय रहने वाली रजनी तिलक आत्मकथा में लिखती हैं–
“जाति की पहचान भारतीय समाज में पिस्सू की तरह चिपकी हुई है. भारत के किसी भी कोने में चले जाओ, यह पहचान साए की तरह आपसे चिपकी रहती है. आपकी पहचान जन्मगत जाति से होती है. जन्म से मिली जाति आपको विरासत में देती है– आपका पेशा. कोई भी बच्चा जिस जाति और जिस परिवार में पैदा होता है, उसी पारिवारिक पेशे के अनुरूप ही वह ढल जाता है. अंततः पारिवारिक पेशा ही उसका भविष्य बन जाता है. औरत होने के मामले में भी बिलकुल ठीक वैसा ही होता है. लड़की होने की भी एक पारंपरिक विरासत है, जो उसे देती है जन्मजात पेशा घरेलू काम जिसे वो जन्म से ही आत्मसात करती है. जैसे बर्तन-सफाई, कपड़े धोना,झाड़ू–पोंछा या खाना बनाना, घरेलू कामों के साथ घर की देखभाल करना. सच्चाई यह है कि देश समाज और घर, जाति और लिंग के कारण तय होती है, उसकी सामाजिक हैसियत. . . . एक दलित लड़की पैदा होते ही मां–बाप के श्रम की भागीदार हो जाती है.
घर के काम में मां के साथ जुट जाती है और अपने छोटे भाई–बहनों का ख्याल रखती है, अगर वह मजदूर की बेटी है, गरीब है तो वह समाज के लिए ‘वस्तु’ बन तृप्ति का माध्यम और ‘साधन’ बन जाना दोनों ही कृत्य उसके लिए ढांचागत स्वीकृति लिए हुए हैं. समाज में इस बर्बर कृत्य के विरुद्ध न ही कोई सवाल कल था न आज है. न ही कोई उलाहना, न कोई असंतोष. हमारे समाज के इस ढांचागत व्यवहार को न केवल स्वीकृति मिली है बल्कि इसे क्रमबद्ध लागू किया गया है. ”
आत्मकथा में रजनी तिलक ने सिलसिलेवार ढंग से अपने जन्म, परिवार से लेकर विवाह की घटनाओं का वर्णन किया है. आत्मकथा के पहले प्रकरण को ‘उगता हुआ सूरज ‘तथा अंतिम प्रकरण को ‘नए क्षितिज की ओर’ शीर्षक दिया गया है. एक सकारात्मक प्रभावान्विति को समेटे हुए यह आत्मकथ्य सिर्फ़ रजनी तिलक का आत्मकथ्य मात्र नहीं है बल्कि इसे छठे दशक से लेकर अस्सी के दशक की दिल्ली के जीवन में दलित और जाटव समीकरण को बताने वाले सामाजिक इतिहास के रूप में भी इसे देखा जा सकता है. रजनी तिलक जाटव परिवार से सम्बद्ध थीं, तमाम आर्थिक कठिनाईयों का वर्णन करते हुए वे अपने माता–पिता जिन्हें वे आत्मकथा में भाईजी और भाभी का संबोधन देती हैं– के बारे में, उनके संघर्षों और अपने जीवन स्तर को ऊपर उठाने के प्रयासों को बार–बार रेखांकित करती हैं.
उन्होंने बचपन से ही तमाम पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन किया. बड़ा भाई मनोहर जब अम्बेडकरवाद के संपर्क में आया तो वही परिवार में नयी रौशनी को लेकर आया. भाई के साथ उसके चेतना–संपन्न मित्रों का भी आना–जाना बढ़ा. मनोहर के माध्यम से जाति और उत्पीड़न के पारस्परिक सम्बन्ध पर सोचने का नया नजरिया रजनी को मिला. परिवार में बीमार मां और छोटे भाई बहनों के बोझ के साथ आर्थिक अभाव ने कई बार हिम्मत पस्त कर दी, लगा कि वे पढ़ाई जारी नहीं रख पाएंगी, लेकिन घर पर होने वाली बैठकियों के दौरान, मनोहर के चेतना-संपन्न मित्रों मसलन रमेश भोंसले, लेखराज, हबीब अख्तर से बातचीत और सहयोग ने पढ़ाई जारी रखने के लिए प्रेरित किया. शिक्षा ही एकमात्र वह द्वार था, जिससे गुज़रकर उन्होंने अपने सामाजिक कर्तव्यों की पहचान की. वे स्वयं इस बात को दोहराती हैं कि–
“रमेश कौन है ?मेरा गुरु, दोस्त, भाई या हमदर्द ?उसका मुझसे क्या वास्ता ? वह एक खुद्दार विधायक का बेटा था. प्रतिभावान चित्रकार, विचारवान एक सुन्दर नौजवान. पुराने विचारों को उतार फेंकने वाला विद्रोही. वह विद्रोही अपनी थोड़ी चिंगारी मुझे दे गया. मेरा दिल धड़कने लगा. मैं सोच में पड़ गयी. मैं कहीं उसके प्रति आकर्षित तो नहीं हो रही थी. मेरी ऊर्जा कई गुणा बढ़कर पिरामिड बन गयी. . . मैं अपनी पढ़ाई के लिए भाईजी से लड़ –लड़कर रोने लगती. मनोहर ने इसमें मेरा पूरा साथ दिया. रमेश से मुझे नैतिक बल मिला. ”
अपनी ज़मीं, अपना आसमां’ रजनी तिलक के जीवन संघर्ष की कहानी, अपने लिए एक मुट्ठी खुले आसमान की तलाश की कहानी है. बीमार मां और छोटे भाई-बहनों को सँभालते, सांध्य कक्षाएं पढ़ते, टाईपिंग सीखते–सीखते उन्होंने अपने पैरों के नीचे की ज़मीन बनायी. यह यात्रा आसान नहीं थी. उन्हें पग–पग पर ठोकरें खानी पड़ीं. कभी पारिवारिक परिस्थितियाँ आड़े आयीं तो कभी जाति और कभी साधारण रूप-रंग. रजनी बहुत खुल कर अपने आकर्षण, प्रेम–प्रसंग और प्रेम-भंग की दास्तानें पाठकों को बताती चलती हैं. यहाँ तक कि वे उस प्रसंग को भी बताने में संकोच नहीं करतीं जहाँ अमित नामक व्यक्ति पहले विवाह के लिए प्रस्ताव करता है फिर उसका वह प्रस्ताव ‘सहजीवन’(लिव इन) तक महदूद हो जाता है–
“कितनी आसानी से उसने हाथ झाड़ लिए. वह अपनी दी हुई जुबां से फिर गया. मैं क्या करती ? मैं वहां ठगी सी बैठी थी. मुझसे अब वहां न उठते बनता था न बैठते. मैं शर्म–लिहाज़ छोड़कर जोर से चिल्लाई. ‘तुम कहते हो, तुम मेरे टेस्ट की नहीं हो, माफ़ करना मैं मजबूर हूँ, मैं तुमसे शादी नहीं कर सकता. ’ हाँ, तुम मेरे साथ बिना शादी किये रह सकते हो. शादी के लिए अपना टेस्ट चाहिए और बिना शादी के साथ रहने में कोई टेस्ट नहीं. क्यों ? क्यों नहीं ? नदी आकर आँगन में बहने लगे तो मर्जी से गोता लगाने में आधुनिकता है, क्रान्ति है, समाज–परिवर्तन है !है न !मेरे तेवर को देख चारों तरफ सन्नाटा छा गया. ”
अपनी ज़मीं, अपना आसमां’ में एक ख़ास किस्म की नैतिकता का स्वर व्याप्त है स्त्री देह की शुचिता, विवाह–पूर्व सम्बन्ध, प्रेमाभिव्यक्ति का संकोच तो है ही, लेकिन लेखिका अपनी यौनिकता पर स्पष्ट बात करती हैं उसे छिपाती नहीं. जिस समाज में वे पली–बढ़ी हैं वहां दुपट्टा ओढ़कर रहना, नज़र झुका कर बात करना और कम उम्र में ही ज़िम्मेदार हो जाना सिखाया गया है. बचपन से ही उन्होंने आर्थिक स्तर पर परिवार की मदद का पाठ पढ़ लिया था-
“हमारे मोहल्ले की औरतें गोबर थापने जातीं थीं और साथ में अपनी लड़कियों को भी ले जाती थीं. लेकिन हमारी भाभी घर में ही रहकर कागज़ के लिफ़ाफ़े बनाती थी. हम सब बच्चों ने भी लिफ़ाफ़े बनाना सीख लिया था. हमारी मां मुंह-अँधेरे उठकर चूल्हा जलाती और सुबह सबको तैयार करके स्कूल भेजती. दोपहर का खाना बनाकर, कपड़े धोकर साफ़–सफाई के घरेलू काम निबटाकर काम करने बैठ जाती. हम स्कूल से आकर खाना खाकर उनके साथ लिफ़ाफ़े बनाने बैठ जाते. हमारे घर का हाल था आमदनी कम,खर्चा ज्यादा. घर की आमदनी बढ़ाने में हमारी मां भी अपनी भूमिका निभा रही थी. ”
दूसरी तरफ अपनी बस्ती के बारे में बताती हैं –
“हमारी बस्ती के ज़्यादातर मर्द बुरी आदतों के शिकार थे. अधिकाँश मर्दों को शराब पीने की बुरी लत थी. कोई शराब बेचता था, कोई जुआ खिलवाता था या कोई सट्टा लगवाता था. औरतें मुंह अँधेरे काम करने चली जातीं. ” यह बचपन से थोपी गयी नैतिकता ही थी कि रजनी तिलक विवाह के पहले कई वर्षों तक सोचती हैं और विवाह के निर्णय के बाद भी आने वाले दिनों के प्रति वे पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं–
“अपने घर की देहरी लांघ कर मैंने अपने ह्रदय से आनंद के परिवार को अपना लिया. मैं अपने साथ लेकर गयी थी अपना अपनापन, अपनी मेहनत, अपना प्यार, अपने विचार, समाज के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और साथ में बैरन खून में समायी मेरी स्त्री–पुरुष समानता की सोच. दो प्राणी समाज–परिवर्तन के वाहक कई परम्पराओं को तोड़कर एक नए ढाँचे की डोर में बंध गए. प्रेम की वो डोर. . . विश्वास की वो डोर. . . जो सभी ढांचों को लचीला कर दे, ऐसी डोर के साथ हम दोनों बंध गए. सुबह का उगता सूरज हमारा था. . . या हम अँधेरे की ओर बढ़ रहे थे इसका इल्म मुझे नहीं था. . . . ”
रजनी तिलक का यह आत्मकथ्य पूरा होते हुए भी अधूरा है क्योंकि इसमें जाटव समुदाय के दलितों का समूचा आख्यान है लेकिन व्यक्ति कथा के तौर पर यह अधूरा रह गया है. ठीक वैसे ही जैसे रजनी तिलक की जीवन-यात्रा असमय ही समाप्त हो गयी. यदि उन्होंने इस आत्मकथ्य का अगला भाग लिख रखा होगा (जिसके सूत्र इस आत्मकथ्य में मिल जाते हैं) तो उसे प्रकाश में लाने का दायित्व उनके मित्र और सम्बन्धियों का है क्योंकि पुस्तक के ब्लर्ब पर डा. कुसुम वियोगी ने आत्मकथ्य के बहुखंडी होने का दावा करते हुए लिखा है–
“पहला खंड उसी राहत की तलाश का सफ़र है, जो कई खण्डों में आपके सामने आएगा. नि:संदेह यह आत्मवृत्त गड्ढों में फंसी नारियों का मार्ग भी प्रशस्त करेगी. इन्हीं मंगल कामनाओं के साथ कि उनके भावी जीवन का मार्ग. . . और मुखर रहे और निखर कर सामने आये जो जनमानस को अँधेरे से लड़ने जूझने की प्रेरणा दे !”
एक व्यवस्थित ढंग से लिखी आत्मकथा होने के बावजूद पुस्तक में संपादन और टंकण सम्बन्धी भूलों की भरमार है, जो पुस्तक प्रकाशन की जल्दबाजी के परिणामस्वरूप प्रतीत होती है. जब हम दलित आत्मकथ्यों को विश्विद्यालयी पाठ्यक्रम में शामिल करने की पैरोकारी करते हैं तब इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि पुस्तकों की छपाई साफ-सुथरी हो एवं व्याकरणिक भूलों के अभाव के साथ वाक्य संरचना खटकने वाली न हो. प्रस्तुत आत्मकथ्य में, ब्लर्ब से लेकर, लेखक परिचय तक में पैबस्त व्याकरणिक भूलों को सुधार कर संपादन कर दिया जाए तो उचित रहेगा.
बहुत ही विस्तृत आलेख। दलित जीवन का खण्ड-खण्ड सच-एक आत्मकथात्मक साक्ष्य । तीन तरफा मार झेलती स्त्री- एक तो स्त्री, वह भी दलित और उस पर से पितृसत्ता के अधीन।अभी समयाभाव से इसे आद्योपांत नहीं पढ़ पाया। लेकिन अत्यंत पठनीय एक जरूरी आलेख।
साहित्य का भूगोल हो या इतिहास इन दलित महिला कथाकारों की आत्मकथाओं की उपस्थिति को दर्ज किए बिना कभी मुक्कमल आकार ग्रहण नहीं कर सकता। बेबी हालदार की आत्मकथा पढ़ते हुए अविस्मरणीय कहानी आखेट के कथाकार प्रबोध कुमार और विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी स्वर्गीय अशोक सेकसरिया का स्मरण न आना असंभव है। हमेशा की तरह इस बार भी अपने गंभीर और सुचिंतित आलेख को पढ़वाने के लिए गरिमा श्रीवास्तव जी का और अरुण देव जी का अभिवादन।
गरिमा श्रीवास्तव का यह भी एक सुचिंतित आलेख है। भारत में दो तरह के स्त्री लेखन होते रहे हैं। एक खाए-अघाए या सवर्ण स्त्रियों का लेखन, और दूसरा दलित-बहुजन स्त्रियों का लेखन। सवर्ण स्त्रियों के यहां दलित-बहुजन स्त्रियां उसी तरह से गायब हैं जिस तरह से सवर्ण पुरुषों के लेखन से जाति समस्या या दलित-बहुजन समाज। इतना ही नहीं सवर्ण लेखिकाएं दलित-बहुजन स्त्रियों से अकूत घृणा भी करती हैं। लेकिन दलित स्त्री लेखन की यह खासियत है कि एक तरफ यदि वह द्विजवाद से लड़ता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही समाज की मर्दवादी सोच और विचार से। दलित-बहुजन स्त्रियों के लेखन में हम कई-कई मोर्चों पर संघर्ष और अभिशापों को पाते हैं। इसीलिए उसे भारत के प्रमुख स्वर के रूप में पहचान मिल रही है। ईमानदारी, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और स्वाभाविकता उसकी विशेषता है। तभी मल्लिका अमरशेख जैसी महान दलित लेखिका अपने पति नामदेव ढसाल की कलई को खोलकर रख पाती हैं। तहमीना दुर्रानी और तसलीमा जैसी लेखिकाओं ने भी ऐसा साहस दिखाया है। लेकिन हिंदी की सवर्ण लेखिकाओं के पास ऐसा साहस कहां? वह तो फैशन में लिखते चलती हैं। वे भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का नाम नहीं लेंगी लेकिन वर्जीनिया वुल्फ और जर्मन ग्रीयर का नाम लेते नहीं अघाएंगी।
अच्छा आलेख है। कई महत्वपूर्ण संदर्भों से संपन्न।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी घटिया-सी आत्मकथा लिख दी थी। वहीं दूसरी ओर तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएँ और कष्ट तो वयक्त किए, लेकिन अपनी पत्नी के बारे में बिल्कुल भूल ही गए। स्त्री दलितों में भी सबसे दलित है। पितृसत्तात्मक समाज की बन्दिशें दलित स्त्रियों को भी झेलनी पड़ती हैं। उनका दोहरा शोषण होता है। ऊँची जातियों के द्वारा और ख़ुद अपने ही समाज के मर्दों के द्वारा।
सही है
सशक्त भाषा के साथ गंम्भीर विश्लेषण करते हुए गरिमा जी ने दलित स्त्रियों के आत्मकथ्यों से दिखाई देने वाले गहरे दंश को साहित्य जगत के सामने लाकर अन्याय के खिलाफ दस्तावेज प्रस्तुत करने का श्लाघनीय कार्य किया है। उन्हें और अरुण देव को अभिवादन।
शुक्रिया शुभा जी