• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » दलित स्त्री आत्मकथाएं: गरिमा श्रीवास्तव » Page 2

दलित स्त्री आत्मकथाएं: गरिमा श्रीवास्तव

धर्म, जाति, समाज, परिवार और लैंगिगता के कारण पीड़ित दलित स्त्रियों की इन आत्मकथाओं से संभव है आप परिचित हों- हर आत्मकथा दर्द की जैसे कोई नदी हो- लाइफ़ ऑफ़ एन अनटचेबल (वीरम्मा), करक्कू (बामा फ्युस्टीना मेरी), आलो आंधारि (बेबी हालदार), आमि केनो चांडाल लिखी (कल्याणी ठाकुर), रात्रादिन आम्हा (शांताबाई धानाजी दानी), मिटलेली कवाडे (मुक्ता सर्वगोंड), माझ्या जल्मांची चित्तरकथा (शांताबाई कृष्णाजी काम्बले ), जिण आमुच्या (बेबी कोंडिबा काम्बले), अन्तःस्फोट (कुमुद पावड़े), आयदान (उर्मिला पवार), मलाउद्ध्वस्त व्यायंचय (मल्लिका अमर शेख), दोहरा अभिशाप (कौशल्या बैसंत्री), शिकंजे का दर्द (सुशीला टाकभौरे), एक अनपढ़ कहानी (सुशीला राय), अपनी ज़मीं, अपना आसमां (रजनी तिलक), छूटे पन्नों की उड़ान (अनिता भारती), टुकड़ा–टुकड़ा जीवन (कावेरी), बवंडरों के बीच (कौशल पंवार) टूटे पंखों से परवाज़ तक (सुमित्रा महरोल). आलोचक गरिमा श्रीवास्तव ने अपने इस विशद आलेख में इन सभी आत्मकथाओं की अंतर-कथाओं का समावेश किया है. ये आत्मकथाएं अखिल भारतीय हैं. इस आलेख को पढ़ते हुए उस प्रतिनिधि दलित स्त्री का चेहरा सामने आता है जिसकी पीड़ा क्षेत्रीयता की सीमा लांघकर लगभग हर जगह एक जैसी है. गरिमा श्रीवास्तव ने बड़े श्रम, शोध और स्त्री-दृष्टि से इसे लिखा है. ज़ाहिर है यह विचार के साथ-साथ हस्तक्षेप भी है. इसकी प्रस्तुति भी समालोचन के लिए चुनौती थी, प्रत्येक आत्मकथा को अलग पृष्ठ दिया गया है, जिससे कि पढ़ने में सुविधा हो.

by arun dev
November 7, 2021
in आलेख, विशेष
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

इतिहास गवाह है कि प्रत्येक समय और समाज में सत्ता–संरचनाएं हमेशा से रही हैं  जिन्होंने  हाशिये की अस्मिताओं को हमेशा दूर रखा है. अतीत में औपनिवेशिक सत्ता केंद्र में थी और अब भी यह स्थिति बदली नहीं है, क्योंकि औपनिवेशिक शासन न होने पर भी सत्ता-संरचनाएं अब भी मौजूद हैं, जिसमें समाज का निम्न  कहा जाने वाला वर्ग हाशिये पर रहा है, दरअसल यह वर्ग जब भी केंद्र में आने की कोशिश करता है, इसे हाशिये पर धकेल दिया जाता है.  नतीजतन यह परिधि पर रहकर ही अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता रहता है.  केंद्र में आने का प्रयास और बार–बार हाशिये पर धकेल दिए जाने की नियति  से ही प्रतिरोध की संस्कृति पैदा होती है.  इस दृष्टि से देखने पर समूचा दलित साहित्य हमें प्रतिरोध का साहित्य नज़र आता है.

अपनी चुप्पियों के साथ सदियों से हाशिये पर रहने के एकत्रित असंतोष का प्रतिफलन ही है– अन्य किसी विकल्प के अभाव में स्वयं को अस्पृश्यता  से दृश्यता  की ओर, परिधि से केंद्र की ओर ले जाने की जद्दोजहद कर प्रतिरोध की संस्कृति के निर्माण का प्रयास.  एक ऐसे समाज में जहाँ सदियों से दलितों की कोई आवाज़ ही सुनाई नहीं दी, या सुनने नहीं दी गयी, वहां मानवता की इस सबसे बड़ी ज़रूरत को उपेक्षित करके मुख्यधारा का साहित्य प्रकाशित–प्रसारित हुआ.  बहुस्तरीय शोषण का शिकार रही दलित स्त्रियों को हमेशा से चुप रहने के लिए कहा गया, वे शारीरिक और मानसिक तौर पर रौंदी जाती रहीं कभी पितृसत्ता के नाम पर तो कभी जेंडर के नाम पर और कभी जाति के नाम पर.  उच्च-जाति के लोग, सवर्ण पुरुष, पितृसत्ता से अनुकूलित सवर्ण स्त्रियाँ और दलित पुरुष भी दलित स्त्रियों के शोषण और दमन में योगदान देते रहे.  शिक्षा और मूलभूत सुविधाओं के अभाव ने दलित स्त्रियों को अपने पक्ष में सोचने और निर्णय लेने की क्षमता अर्जित करने में वर्षों का समय लगा दिया.  सत्ताहीनता और अपनी इयत्ता के बारे में अज्ञानता ने उन्हें शोषण का शिकार बनाये रखा और कुछ अपवादों को छोड़कर आज भी दलित स्त्रियों की स्थिति में मामूली बदलाव ही आये हैं.  सत्ता की शोषणकारी संरचना, लैंगिक विभेद और जाति-दंश उन्हें उनकी स्थिति से ऊपर उठने नहीं देता.

दलित स्त्री आत्मकथाएं स्त्रीवादी दृष्टि से पढ़ने और विश्लेषण किये जाने  की मांग करती हैं और इस तरह वे एक तरह की सम्भावना की तलाश करती हैं कि क्या यह संभव है कि पुरुष केन्द्रित चेतना की जगह स्त्रीवादी राजनीति के तहत स्त्रियों की छवियों में ज्यादा बेहतर और आत्मीय ढंग से बदलाव किये जाएँ.  इस प्रक्रिया में स्त्रियों की आत्मकथाएं एक तरह के वैकल्पिक इतिहास का अंग बन सकती हैं. जब हम दलित स्त्री आत्मकथाकारों  को देखते हैं तो इनमें समानता और असमानता के कुछ बिंदु परिलक्षित होते हैं पहली बात तो यह है कि इनमें से प्रत्येक आत्मकथाकार  ‘मातृभाषा’ में लिखती है. अधिकांश आत्मकथाएं अंग्रेजी और हिंदी अनुवाद के माध्यम से बृहत्तर पाठक वर्ग तक पहुँचती हैं इसलिए इन रचनाकारों को दोहरा पाठकवर्ग मिलता है. इन आत्मकथाओं से एक्टिविस्ट और आलोचकों (साहित्यकारों) में एक विशेष प्रकार का संवाद कायम हुआ है.  इनके आत्मकथ्यों को ‘साक्ष्य’ या ‘टेस्टीमोनी’ कहने की सिफारिश कई विद्वानों ने की है.

लातिनी अमेरिका के भयावह आख्यानों को ‘टेस्टीमोनियो’  की संज्ञा दी गयी.  जान बेवरली  ने इसे पारिभाषित करते हुए कहा है कि ऐसी उपन्यासिका या आख्यान जिसमें किसी ने प्रथम पुरुष में अपनी कथा कही हो, जो वास्तव में उन घटनाओं का स्वयं नायक हो जिनका स्मरण उस आख्यान में किया जाता हो, ये आख्यान दरअसल उसका महत्वपूर्ण जीवनानुभव होता है. अधिकतर यह देखा गया है कि टेस्टीमोनियो में यातना और पीड़ा की स्मृतियाँ और आंकड़े होते हैं जो पाठक को प्रामाणिकता के साथ उत्पीड़ित के नज़दीक ला देते हैं.  टेस्टीमोनियो  वह है जो दूसरों के हित में अपनी आवाज़ उठाता है, इसमें हाशिये की अस्मिताएं अपनी आवाजों के साथ उपस्थित रहती हैं, जो सामाजिक, भाषिक और साहित्यिक रूप से हाशिये पर छूट गईं हैं.

अपने जीवनानुभवों से दूसरों को प्रामाणिक तौर पर परिचित करने का भाव टेस्टीमोनियो में रहता है इसलिए दलित आत्मकथाओं को सिर्फ़ आत्माख्यान के तौर पर नहीं समझा जा सकता, बल्कि ये अपने समुदाय की कथाएं हैं.  दलित कथाएं अपने ऊपर हुए  शोषण और अतिचार की दास्तान कहती हैं.  इन आत्मकथ्यों  में, आत्म पर चोट, घाव और उत्पीड़न- जिसमें विखंडन है,विनाश है लेकिन मूल रूप में  अपने अस्तित्व को पाने की उलझन ही अभिव्यक्त होती है. दलित लेखन  जातिदंश से उत्पीड़ित शोषक वर्ग के प्रतिरोध की दास्तानें हैं,जिनमें आत्म के पुनर्निर्माण का प्रयास दिखाई देता है.

दलित आत्मकथाकार अपने अनुभवों की अभिव्यक्ति में विशिष्ट होते हैं और भले ही पाठक को इनकी अभिव्यक्ति में दुहराव नज़र आये पर ये अपने विशिष्ट अनुभवों के माध्यम से अपनी विशिष्ट पहचान निर्मित करने की वकालत करते हैं. प्रस्तुत आलेख भारतीय परिप्रेक्ष्य  में दलित स्त्री आत्मकथाओं के विश्लेषण के उद्देश्य से लिखा गया है यह लेख सभी भारतीय भाषाओँ में लिखी दलित स्त्री आत्मकथाओं को अपने भीतर समाहित करने का दावा नहीं करता,इसके अंतर्गत तमिल, बंगला,मराठी और हिंदी भाषा की चुनिन्दा आत्मकथाओं पर विचार किया गया है.

भारत  में 1980 के आसपास उभरे स्त्री आंदोलनों ने समाजविज्ञान और साहित्य को स्त्रीवादी नज़रिए से देखने में प्रमुख भूमिका निभाई. यही वह दौर था जब स्त्रियों ने विभिन्न विधाओं में प्रचुर लेखन आरंभ किया फलस्वरूप कथा एवं  कथेतर विधाओं में स्त्रियाँ सामने आयीं. निजी, सरकारी एवं गैर–सरकारी प्रयासों से छोट–छोटी पुस्तिकाओं में कविता,कहानी,नाटक इत्यादि प्रकाशित होने शुरू हुए जिन्होंने बड़े प्रकाशन संस्थानों को अंगूठा दिखाते हुए एक नया पाठक वर्ग तैयार किया. ये पुस्तिकाएं सस्ती और सहज उपलब्ध थीं जिनके  प्रकाशन और वितरण के लिए किसी तरह के अनुबंध या अन्य औपचारिकताओं की आवश्यकता नहीं थी.

स्त्रियों और दलित स्त्री–पुरुष के लेखन को मुख्यधारा से अलग रखने की रणनीति में सेंध लगाने का काम इन आत्मकथाकारों ने किया जिसकी तरफ शर्मिला रेगे ने ध्यान  दिलाया. वे बताती हैं कि देश में अधिकाँश संस्थानों की पाठ्यचर्या से दलित साहित्य को एक खास रणनीति के तहत अलग रखा गया,जबकि कुछ वर्ष पहले तक ‘जाति’ का अध्ययन समाजशास्त्रीय अध्ययन के अंतर्गत ही किया जाता था,ये गौरतलब है कि

“पुराने पाठ्यक्रमों में जाति को गैर ब्राह्मणवादी नज़रिए से पढ़ाने और व्याख्यायित करने के प्रयास का अभाव परिलक्षित होता है. सत्यशोधक या अम्बेडकरवादी आंदोलनों को पाठ्यक्रम में कोई स्थान नहीं दिया गया और जब पाठ्यक्रमों का नवीकरण  किया  भी गया तो उसमें स्वातंत्र्योत्तर दलित,आदिवासी और स्त्री आंदोलनों को एक ही इकाई में  रखकर उनके अलग विशिष्ट गहन अध्ययन की सम्भावना से मुक्ति पा ली गयी. शिक्षा संस्थानों, क्षेत्रीय अध्ययन एवं उच्च शोध-संस्थानों में हमेशा ऊँची जातियों का बोलबाला और दबदबा रहा, इसके साथ ही वर्ग के साथ जाति के प्रश्नों पर विचार करने से भी बचा गया. मसलन स्त्री प्रश्नों पर बहस के दौरान जाति का प्रश्न हमेशा हाशिये पर ही रहा.”

दरअसल स्त्री प्रश्न पर विचार करने के पहले जाति के प्रश्न को देखना अनिवार्य है. अक्सर ‘सभी स्त्रियाँ दलित होती हैं,क्योंकि वे परिवार और परिवार के बाहर लैंगिक विभेद का शिकार होती ही हैं ‘जैसे साधारणीकृत विचार जाति के सांस्थानिक प्रश्न को हाशिये पर रख देते हैं. दलित स्त्रियों को देखने की दृष्टि भी इसी वजह से धुंधली हो जाती है. सामाजिक संरचना और समसामयिक सामाजिक परिवर्तनों  से सामाजिक संस्था का आपसी सम्बन्ध इसलिए अनदेखा रह जाता है. भारत की ग्राम्य व्यवस्था में जाति का प्रश्न केंद्र में था लेकिन नगर केन्द्रित स्त्री आंदोलनों में जाति का यह प्रश्न हाशिये पर था. अस्सी के दशक में जाति का यह प्रश्न केंद्र में आ गया,मथुरा बलात्कार काण्ड जैसे मुद्दों पर नगर और ग्राम दोनों जगहों के स्त्रीवादी मिलकर आवाज़ उठाने लगे.  दलित स्त्रीवादियों का लेखन केवल अंग्रेजी के माध्यम से एक खास पढ़े–लिखे तबके तक ही संप्रेषित हो पाता था वहीं भारतीय भाषाओँ में इनके अनुवाद से इस तरह के साहित्य को पहले की अपेक्षा बड़ा पाठक वर्ग मिलना शुरू हो गया,साथ ही दलित स्त्रियों को अपनी पूर्व -छवियों से निकलने में भी मदद मिली.

इन छवियों पर चारू गुप्ता ने विस्तार से विचार किया है. भारत में उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में साहित्य में दलित  स्त्री  की छवियों को मलिन किया गया. इससे विशेषकर स्त्रियों के बारे में हिन्दू सवर्णों के व्यवहारों,मूल्यों और विचारों को  मजबूती मिली. सवर्ण पुरुषों ने डर और दुश्चिंता के कारण दलित स्त्रियों की छवि की सामूहिक निर्मिति में योगदान दिया. वर्चस्वशाली सवर्ण जातियों ने अपने साहित्य में दलित स्त्रियों के बारे में जैसा चाहा वैसा लिखा. चारू गुप्ता  का कहना है कि इन चित्रणों को कई प्रकार से सृजित और निर्मित किया गया जिससे सवर्ण जातियों के हित और गहरे रूप में स्थापित हो सकें.

हाल के वर्षों के दलित लेखन पर दृष्टि डालने से इसका आत्मकथात्मक स्वरुप सामने आता है,मराठी,हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओँ में बड़े पैमाने पर दलितों ने आत्माख्यान लिखकर अपनी अलग पहचान बनाने का प्रयास किया, जिनका  उद्देश्य है पाठकीय अभिरुचि में परिवर्तन करना,उनके परंपरागत नजरिये में बदलाव लाकर  अपेक्षाकृत ज्यादा विवेकी और प्रगतिशील बनाना. इन आत्माख्यानों को पढ़ने और लिखने  के उद्देश्य को निम्नलिखित बिन्दुओं के अंतर्गत  देखा जा सकता है –

  1. दलित आत्मकथाओं को पढ़ने और पढ़ाने से पाठकों के नज़रिए में कैसे परिवर्तन हो सकता है ?
  2. पाठक पीड़ा और यातना के इन आख्यानों के दस्तावेजों को किस रूप में ग्रहण करता है ?
  3. क्या इन आख्यानों का दलित राजनीति  और अम्बेडकरवादी सैद्धांतिकी से कोई सम्बन्ध है ?
  4. क्या ये आत्मकथाएं सिर्फ़ अपनी पीड़ा का आख्यान हैं या इन्हें सामाजिक अन्याय के खिलाफ आक्रोश के दस्तावेजों के रूप में पढ़ा जाना चाहिए?
  5. क्या ये आख्यान गैर -दलितों के मन में सहानुभूति जगाने का काम करते हैं?
  6. क्या इन कथाओं को ‘आत्मचरित कहा जाना चाहिए?
  7. क्या दलित आख्यान राजनीतिक आंदोलनों के लिए एक तरह का नैतिक स्रोत बन सकते हैं ? या वे घृणास्पद अतीत की स्मृति–कथाएं मात्र हैं.
  8. क्या इन्हें मानव मुक्ति की ऐतिहासिक प्रक्रिया को बताने वाले ज़रूरी दस्तावेजों के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है ?
  9. दलित आख्यान सिर्फ़ अपनी कथा कहते हैं या वे अपने समुदाय के  सामूहिक स्वरों की अभिव्यक्ति करते हैं ?
  10. क्या दलित स्त्रियों के अनुभव जातिदंश के साथ-साथ लैंगिक विभेद के कारण पुरुष आत्मकथ्यों से अलग हैं ?

उपर्युक्त बिन्दुओं पर विचार करने क्रम में  यदि दलित स्त्री आत्मकथ्यों को देखें तो जो सबसे पहला तमिल आत्मकथ्य हमारे समक्ष अपनी पीड़ा और यातना के दस्तावेज के रूप में सामने आता है वह है ‘वीरम्मा’ का  ‘लाइफ़ ऑफ़ एन अनटचेबल (1997) इसे जोसैन रेसिन ने तमिल से फ्रेंच में  सुनकर लिखा, जिसका प्रकाशन 1995 में पहली बार हुआ. अंग्रेजी में इसका अनुवाद विल होब्सन ने किया.

Page 2 of 23
Prev123...23Next
Tags: अनिता भारतीअन्तःस्फोटअपनी ज़मीं अपना  आसमांआयदानआलो आंधारिउर्मिला पवारएक अनपढ़ कहानीकरक्कूकल्याणी ठाकुरकावेरीकुमुद पावड़ेकौशल पंवारकौशल्या बैसंत्रीगरिमा श्रीवास्तवछूटे पन्नों की उड़ानजिण आमुच्याटुकड़ा–टुकड़ा जीवनटूटे पंखों से परवाज़ तकदलित स्त्री आत्मकथाएंदोहरा अभिशापबवंडरों के बीचबामा फ्युस्टीना मेरीबेबी कोंडिबा काम्बलेबेबी हालदारमलाउद्ध्वस्त व्यायंचयमल्लिकाअमर शेखमाझ्या जल्मांची चित्तरकथामिटलेली कवाडेमुक्ता सर्वगोंडरजनी तिलकरात्रादिन आम्हालाइफ़ ऑफ़ एन अनटचेबलवीरम्माशांताबाई कृष्णाजी काम्बलेशांताबाई धानाजी दानीशिकंजे का दर्दसुमित्रा महरोलसुशीला टाकभौरेसुशीला राय
ShareTweetSend
Previous Post

दिल्ली: मुल्क-ए-हिजरत: प्रियंका दुबे

Next Post

नानी वाली गइया: सत्यदेव त्रिपाठी

Related Posts

चुप्पियाँ और दरारें : रवि रंजन
समीक्षा

चुप्पियाँ और दरारें : रवि रंजन

निर्मला जैन : मेरी टीचर : गरिमा श्रीवास्तव
आत्म

निर्मला जैन : मेरी टीचर : गरिमा श्रीवास्तव

आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा :  प्रेमकुमार मणि
आलेख

आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा : प्रेमकुमार मणि

Comments 8

  1. दया शंकर शरण says:
    4 years ago

    बहुत ही विस्तृत आलेख। दलित जीवन का खण्ड-खण्ड सच-एक आत्मकथात्मक साक्ष्य । तीन तरफा मार झेलती स्त्री- एक तो स्त्री, वह भी दलित और उस पर से पितृसत्ता के अधीन।अभी समयाभाव से इसे आद्योपांत नहीं पढ़ पाया। लेकिन अत्यंत पठनीय एक जरूरी आलेख।

    Reply
  2. अशोक अग्रवाल says:
    4 years ago

    साहित्य का भूगोल हो या इतिहास इन दलित महिला कथाकारों की आत्मकथाओं की उपस्थिति को दर्ज किए बिना कभी मुक्कमल आकार ग्रहण नहीं कर सकता। बेबी हालदार की आत्मकथा पढ़ते हुए अविस्मरणीय कहानी आखेट के कथाकार प्रबोध कुमार और विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी स्वर्गीय अशोक सेकसरिया का स्मरण न आना असंभव है। हमेशा की तरह इस बार भी अपने गंभीर और सुचिंतित आलेख को पढ़वाने के लिए गरिमा श्रीवास्तव जी का और अरुण देव जी का अभिवादन।

    Reply
  3. पंकज चौधरी says:
    4 years ago

    गरिमा श्रीवास्तव का यह भी एक सुचिंतित आलेख है। भारत में दो तरह के स्त्री लेखन होते रहे हैं। एक खाए-अघाए या सवर्ण स्त्रियों का लेखन, और दूसरा दलित-बहुजन स्त्रियों का लेखन। सवर्ण स्त्रियों के यहां दलित-बहुजन स्त्रियां उसी तरह से गायब हैं जिस तरह से सवर्ण पुरुषों के लेखन से जाति समस्या या दलित-बहुजन समाज। इतना ही नहीं सवर्ण लेखिकाएं दलित-बहुजन स्त्रियों से अकूत घृणा भी करती हैं। लेकिन दलित स्त्री लेखन की यह खासियत है कि एक तरफ यदि वह द्विजवाद से लड़ता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही समाज की मर्दवादी सोच और विचार से। दलित-बहुजन स्त्रियों के लेखन में हम कई-कई मोर्चों पर संघर्ष और अभिशापों को पाते हैं। इसीलिए उसे भारत के प्रमुख स्वर के रूप में पहचान मिल रही है। ईमानदारी, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और स्वाभाविकता उसकी विशेषता है। तभी मल्लिका अमरशेख जैसी महान दलित लेखिका अपने पति नामदेव ढसाल की कलई को खोलकर रख पाती हैं। तहमीना दुर्रानी और तसलीमा जैसी लेखिकाओं ने भी ऐसा साहस दिखाया है। लेकिन हिंदी की सवर्ण लेखिकाओं के पास ऐसा साहस कहां? वह तो फैशन में लिखते चलती हैं। वे भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का नाम नहीं लेंगी लेकिन वर्जीनिया वुल्फ और जर्मन ग्रीयर का नाम लेते नहीं अघाएंगी।

    Reply
  4. कुमार अम्बुज says:
    4 years ago

    अच्छा आलेख है। कई महत्वपूर्ण संदर्भों से संपन्न।

    Reply
  5. अनिल जनविजय says:
    4 years ago

    ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी घटिया-सी आत्मकथा लिख दी थी। वहीं दूसरी ओर तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएँ और कष्ट तो वयक्त किए, लेकिन अपनी पत्नी के बारे में बिल्कुल भूल ही गए। स्त्री दलितों में भी सबसे दलित है। पितृसत्तात्मक समाज की बन्दिशें दलित स्त्रियों को भी झेलनी पड़ती हैं। उनका दोहरा शोषण होता है। ऊँची जातियों के द्वारा और ख़ुद अपने ही समाज के मर्दों के द्वारा।

    Reply
    • Anonymous says:
      4 years ago

      सही है

      Reply
  6. शुभा माहेश्वरी says:
    4 years ago

    सशक्त भाषा के साथ गंम्भीर विश्लेषण करते हुए गरिमा जी ने दलित स्त्रियों के आत्मकथ्यों से दिखाई देने वाले गहरे दंश को साहित्य जगत के सामने लाकर अन्याय के खिलाफ दस्तावेज प्रस्तुत करने का श्लाघनीय कार्य किया है। उन्हें और अरुण देव को अभिवादन।

    Reply
    • Anonymous says:
      4 years ago

      शुक्रिया शुभा जी

      Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक