छूटे पन्नों की उड़ान
अब तक विश्लेषित दलित स्त्री हिंदी आत्मकथ्य वे हैं जिनमें पीड़ा यातना और जातिदंश के अनुभवों का दुहराव है एवं उन स्त्रियों द्वारा लिखे गए हैं जो स्वतंत्रता प्राप्ति के आसपास जन्मीं, जिनमें शहरी जीवन के साथ–साथ ग्राम्यता के संस्कार और अनुभव थे. जिन्होंने शिक्षा ग्रहण करने के लिए उत्तर भारत या महाराष्ट्र में जद्दोजहद की. ये भी देखने में आया कि अम्बेडकरवाद के सीधे प्रभाव के साथ–साथ परिवार का कोई एक व्यक्ति उनकी शिक्षा में सहयोगी भूमिका निभाता रहा. इसी श्रृंखला में हमारे सामने कुछ ऐसे आत्मकथ्य हैं जो अपनी समकालीनता में अपने अनुभवों की अभिव्यक्ति में विशिष्ट हैं और भले ही पाठक को इनकी अभिव्यक्ति में दुहराव नज़र आये पर ये अपने विशिष्ट अनुभवों के माध्यम से ही अपनी विशिष्ट पहचान निर्मित करने की वकालत करते हैं. प्रकाशन की सुविधा और आर्थिक स्वावलंबन ने इन समकालीन आत्मकथाकार दलित आत्मकथाओं के छपने की सहूलियत दी है.
वे स्वयं को समझने के दरवाज़े खोलती दिखाई देती हैं और पाठकों के नज़रिए में परिवर्तनकामिता की अपेक्षा करती हैं. इनमें अनिता भारती की आत्मकथा ‘छूटे पन्नों की उड़ान’(2018) को देखा जा सकता है. दरअसल इसे आत्मकथा की संज्ञा न देकर यदि संस्मरण कहा जाए तो बेहतर होगा क्योंकि इसमें लेखिका के बचपन से लेकर विवाह की घटनाओं के ज़िक्र के साथ व्यक्ति चित्र–विशेषकर स्त्रियाँ अपने रेखाचित्र के साथ उपस्थित हैं. अनिता पेशे से शिक्षक हैं और दलित चेतना से सम्पन्न सक्षम लेखिका के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बनायी है. इस पुस्तक के कुछ अंश पहले भी ‘अपेक्षा’, स्त्रीकाल, संवेद, मंतव्य जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं. वे भूमिका में लिखती हैं –
“मेरे लिए शिक्षक मेरा समाज ही है जो मुझे अपने अनुभवों से पीट–पीटकर मेरा आकार गढ़ रहा है. मैं अपने-आपको उस कच्चे घड़े के समान मानती हूँ जिसको अभी और अनुभवों की आंच पर सिकना है,पक्का होना है. पककर पक्का होने के बाद ही इस पर रंग–बिरंगे बेल–बूटे सजेंगे. अभी मेरे जीवन के कुछ छूटे पन्ने आपके सामने हैं. समय–समय पर इनमें और भी पन्ने जुड़ते जायेंगे”
अनिता भारती भी अन्य आत्मकथाकारों की तर्ज़ पर अपने बचपन की स्मृतियों से पुस्तक का प्रारंभ करती हैं और बताती हैं कि माता–पिता और भाई-बहनों में सबसे छोटी होने के कारण उन्हें खूब स्नेह मिला और नियमित पढ़ने की सुविधा भी. घर की आर्थिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए उनकी मां अपने सभी बच्चों के सहयोग से लिफ़ाफ़े बनाती थीं जिसका जिक्र सविस्तार रजनी तिलक ने भी आत्मकथ्य में किया है. अनीता लिखती हैं–
“घर में मेरी मां व सभी भाई–बहन चाँद मोहल्ला जो कि गांधीनगर में है, से रद्दी वाले लाला से रद्दी लाकर उसके लिफ़ाफ़े बनाते थे. अक्सर उस रद्दी में धर्मयुग, नंदन, चंदामामा और अन्य ज्ञानवर्धक पत्रिकाएं होती थीं, जिन्हें हम लिफ़ाफ़े बनाने से पहले उन्हें पढ़ने बैठ जाते थे. लिफ़ाफ़े बनाने की प्रक्रिया बड़ी मज़ेदार होती थी. . . इस रोज़गार से घर में थोड़ा-बहुत पैसा तो आता ही था जो घर के खर्च और हमारी पढ़ाई पर खर्च होता था, परन्तु इससे ज्यादा फायदा यह हुआ कि घर में लिफ़ाफ़े बनाने के लिए आई किताबों से हम सभी भाई–बहनों को पढ़ने–लिखने का चस्का लग गया. लिफ़ाफ़े बनाने से पहले हम सब बच्चे अपनी –अपनी उम्र के अनुसार किताबों को खोलकर पढ़ने बैठ जाते, उस समय हमारा घर किसी लाइब्रेरी से कम नहीं लगता था. ”
अनिता अपने बचपन की स्मृतियों में बच्चों की शिक्षा के प्रति जागृत माता–पिता की भूमिका बताती हैं. उनके पिता एक उद्यमी थे जो बार–बार आगे बढ़ने की कोशिश करते थे, वे परिश्रमी कारीगर थे और अपने परिवार के लिए समर्पित भी. अनिता विस्तार से अपनी मां की मानसिक बीमारी का ज़िक्र करती हैं जिसके कारण उनके बचपन को कुछ चोटें लगीं. वे बचपन के लैंगिक उत्पीड़न का भी जिक्र करना भी नहीं भूलतीं, जब बिलकुल कुछ न समझ में आने वाली उम्र में परिवार से अच्छी तरह परिचित बुज़ुर्ग आदमी अपनी कामेच्छा से बच्ची को अपनी गोद में बिठाने का खेल खेलता है. जब बच्ची अनिता इस बारे में अपनी मां को बताती है तो मां, बीमार होने के बावजूद उस आदमी को बुरी तरह डांटकर भगा देती है–
आज मैं सोचती हूँ मेरी मानसिक रूप से बीमार मां हम बच्चों की सुरक्षा के लिए किस तरह दीवार की तरह खड़ी हो गयी थी और वही बीमार मां जब अस्पताल में पड़ी थी तो उसी के घर में, उसी के बच्चों पर, कितना भी अत्याचार हो रहा हो, उसको न कोई देखने वाला न सुनने वाला और न कोई मना करने वाला था. सच में मां तो मां ही होती है. माँ के जैसी संवेदनशीलता का धरातल अन्यत्र नहीं होता. अभावग्रस्त जीवन ने अनिता के बचपन पर भी ग्रहण लगाया, वे बचपन से ही आर्थिक दिक्कतों का सामना करती रहीं. आर्थिक अभाव की स्मृतियाँ ताजिंदगी विस्मृत नहीं होतीं. अनिता लिखती हैं –
“पढ़ाई अपनी गति से चल रही थी और अभाव अपनी गति से ताल से ताल कदम से कदम मिलाकर साथ–साथ चल रहा था. न पहनने के लिए ठीक से वर्दी, न जूते, न पढ़ने के लिए किताब–कापी. छठी कक्षा में एक सुबह देर से पहुँचने पर आधे घंटे हाथ ऊपर करके खड़े रहने की सजा मिली. सजा के दौरान ही टीचर की नज़र मेरी चप्पलों पर पड़ी. टीचर द्वारा बिना पूछे कि बच्चे आप चप्पल पहनकर क्यों आते हो, मेरी चप्पल उतरवा ली. लगभग एक सप्ताह तक रोज़ मुझे बिना चप्पल के स्कूल जाना पड़ा, नंगे पैर. एक सप्ताह बाद जब पिताजी को तनख्वाह मिली तब मुझे स्कूल के जूते मिले. दलित होने के कारण उन्हें कक्षा में अपमानित भी होना पड़ता था.”
एक अध्यापिका के साथ हुए एक अनुभव को दोहराते हुए अनिता कहती हैं–
“उन्हें सर्वश्रेष्ठ अध्यापिका का राष्ट्रीय अवार्ड भी मिला था. लेकिन उनका क्लास में आना हमारे लिए बड़ा खौफनाक होता था. वे साफ़–सुथरे और पढ़े–लिखे घर के बच्चों को तो बहुत प्यार करती थीं, और जो देखने में काले, गरीब व दलित हों, उनको वे बच्चे फूटी आँख न भाते थे. उनको तो वे नमूना कहकर पुकारती थीं. जब भी वे इंग्लिश का कोई पाठ पढ़ातीं, या फिर प्रश्न–उत्तर सुनतीं, और कोई गरीब–दलित बच्चा उत्तर नहीं दे पाता, उससे जोर से कहतीं– ऐ चमारिन खड़ी हो जा. ऐसे शब्द सुनकर बच्चे न केवल भयभीत हो जाते वरन अपमान और लज्जा से उनकी बोलती बंद हो जाती. केवल चमारिन कह देने से ही उनका पेट नहीं भरता था. वे अपने पास बुलाकर उन बच्चों के बाल पकड़–पकड़ कर खूब मारतीं, उनके इस पशुतापूर्ण व्यवहार का मेरे मन पर ऐसा भयंकर असर पड़ा कि मुझे इंग्लिश समझ में आनी व याद होनी बंद हो गयी. . . आज भी अंग्रेजी पढ़ाने वाले शिक्षकों के मन में यह ब्राह्मणवादी पूर्वग्रह होता है कि अंग्रेजी गरीब, दलित और कालों की भाषा नहीं है. यह तो दुनिया चलाने वालों की भाषा है. भला दलित व मेहनतकश बच्चों को इस भाषा की क्या आवश्यकता ?उन्हें तो आखिरकार मजदूरी ही करनी है. इन जमातों के बच्चों को चुन–चुनकर अंग्रेजी सीखने से हतोत्साहित किया जाता है. यह तो शुक्र मनाएं कि बाज़ार में आजकल पिघला सीसा नहीं मिलता है इसलिए इन ब्राह्मणवादी शिक्षकों को मात्र बाल खींचकर और थप्पड़ मार के काम चलाना पड़ता है. . . .”
इस तरह के आख्यानों को हमें किस दृष्टि से पढ़ना चाहिए, क्या ये सिर्फ़ अपनी पीड़ा का आख्यान हैं या इन्हें सामाजिक अन्याय के खिलाफ आक्रोश के दस्तावेजों के रूप में पढ़ा जा सकता है. आजादी के इतने वर्षों बाद भी एक स्त्री बतौर दलित अपने मन पर लगे घावों पर खुरंड नहीं जमने देती. अनिता भारती की इस पुस्तक से गुज़रते हुए कुमुद पांवड़े की आत्मकथा ‘अंत:स्फोट की याद आनी स्वाभाविक है जहाँ संस्कृत सीखने के लिए उन्हें ब्राह्मणवादी जड़ता से टकराना पड़ता है, और संस्कृत शिक्षिका बन जाने के बाद भी लोग उनपर टीका–टिप्पणी करने से बाज नहीं आते. अनिता भारती आत्मकथा में अपने अंतरजातीय विवाह के रास्ते में आई कठिनाईयों का वर्णन करती हैं. राजपूत परिवार में विवाह होने के बाद भी अपनी उपनाम नहीं बदलतीं और सुदीर्घ पारिवारिक जीवन जीने में सफल होती हैं. वे अपने व्यक्तित्व के विकास में अपने समुदाय के अतिरिक्त सवर्ण समुदाय के लोगों के योगदान का उल्लेख करना नहीं भूलतीं. स्वचेतनता और समाजोन्मुखी दृष्टि पूरी पुस्तक में आद्योपांत व्याप्त है जो इसे एक बौद्धिक स्त्री की आत्मकथा बनाती है.
बहुत ही विस्तृत आलेख। दलित जीवन का खण्ड-खण्ड सच-एक आत्मकथात्मक साक्ष्य । तीन तरफा मार झेलती स्त्री- एक तो स्त्री, वह भी दलित और उस पर से पितृसत्ता के अधीन।अभी समयाभाव से इसे आद्योपांत नहीं पढ़ पाया। लेकिन अत्यंत पठनीय एक जरूरी आलेख।
साहित्य का भूगोल हो या इतिहास इन दलित महिला कथाकारों की आत्मकथाओं की उपस्थिति को दर्ज किए बिना कभी मुक्कमल आकार ग्रहण नहीं कर सकता। बेबी हालदार की आत्मकथा पढ़ते हुए अविस्मरणीय कहानी आखेट के कथाकार प्रबोध कुमार और विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी स्वर्गीय अशोक सेकसरिया का स्मरण न आना असंभव है। हमेशा की तरह इस बार भी अपने गंभीर और सुचिंतित आलेख को पढ़वाने के लिए गरिमा श्रीवास्तव जी का और अरुण देव जी का अभिवादन।
गरिमा श्रीवास्तव का यह भी एक सुचिंतित आलेख है। भारत में दो तरह के स्त्री लेखन होते रहे हैं। एक खाए-अघाए या सवर्ण स्त्रियों का लेखन, और दूसरा दलित-बहुजन स्त्रियों का लेखन। सवर्ण स्त्रियों के यहां दलित-बहुजन स्त्रियां उसी तरह से गायब हैं जिस तरह से सवर्ण पुरुषों के लेखन से जाति समस्या या दलित-बहुजन समाज। इतना ही नहीं सवर्ण लेखिकाएं दलित-बहुजन स्त्रियों से अकूत घृणा भी करती हैं। लेकिन दलित स्त्री लेखन की यह खासियत है कि एक तरफ यदि वह द्विजवाद से लड़ता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही समाज की मर्दवादी सोच और विचार से। दलित-बहुजन स्त्रियों के लेखन में हम कई-कई मोर्चों पर संघर्ष और अभिशापों को पाते हैं। इसीलिए उसे भारत के प्रमुख स्वर के रूप में पहचान मिल रही है। ईमानदारी, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और स्वाभाविकता उसकी विशेषता है। तभी मल्लिका अमरशेख जैसी महान दलित लेखिका अपने पति नामदेव ढसाल की कलई को खोलकर रख पाती हैं। तहमीना दुर्रानी और तसलीमा जैसी लेखिकाओं ने भी ऐसा साहस दिखाया है। लेकिन हिंदी की सवर्ण लेखिकाओं के पास ऐसा साहस कहां? वह तो फैशन में लिखते चलती हैं। वे भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का नाम नहीं लेंगी लेकिन वर्जीनिया वुल्फ और जर्मन ग्रीयर का नाम लेते नहीं अघाएंगी।
अच्छा आलेख है। कई महत्वपूर्ण संदर्भों से संपन्न।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी घटिया-सी आत्मकथा लिख दी थी। वहीं दूसरी ओर तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएँ और कष्ट तो वयक्त किए, लेकिन अपनी पत्नी के बारे में बिल्कुल भूल ही गए। स्त्री दलितों में भी सबसे दलित है। पितृसत्तात्मक समाज की बन्दिशें दलित स्त्रियों को भी झेलनी पड़ती हैं। उनका दोहरा शोषण होता है। ऊँची जातियों के द्वारा और ख़ुद अपने ही समाज के मर्दों के द्वारा।
सही है
सशक्त भाषा के साथ गंम्भीर विश्लेषण करते हुए गरिमा जी ने दलित स्त्रियों के आत्मकथ्यों से दिखाई देने वाले गहरे दंश को साहित्य जगत के सामने लाकर अन्याय के खिलाफ दस्तावेज प्रस्तुत करने का श्लाघनीय कार्य किया है। उन्हें और अरुण देव को अभिवादन।
शुक्रिया शुभा जी