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समालोचन

Home » दलित स्त्री आत्मकथाएं: गरिमा श्रीवास्तव » Page 21

दलित स्त्री आत्मकथाएं: गरिमा श्रीवास्तव

धर्म, जाति, समाज, परिवार और लैंगिगता के कारण पीड़ित दलित स्त्रियों की इन आत्मकथाओं से संभव है आप परिचित हों- हर आत्मकथा दर्द की जैसे कोई नदी हो- लाइफ़ ऑफ़ एन अनटचेबल (वीरम्मा), करक्कू (बामा फ्युस्टीना मेरी), आलो आंधारि (बेबी हालदार), आमि केनो चांडाल लिखी (कल्याणी ठाकुर), रात्रादिन आम्हा (शांताबाई धानाजी दानी), मिटलेली कवाडे (मुक्ता सर्वगोंड), माझ्या जल्मांची चित्तरकथा (शांताबाई कृष्णाजी काम्बले ), जिण आमुच्या (बेबी कोंडिबा काम्बले), अन्तःस्फोट (कुमुद पावड़े), आयदान (उर्मिला पवार), मलाउद्ध्वस्त व्यायंचय (मल्लिका अमर शेख), दोहरा अभिशाप (कौशल्या बैसंत्री), शिकंजे का दर्द (सुशीला टाकभौरे), एक अनपढ़ कहानी (सुशीला राय), अपनी ज़मीं, अपना आसमां (रजनी तिलक), छूटे पन्नों की उड़ान (अनिता भारती), टुकड़ा–टुकड़ा जीवन (कावेरी), बवंडरों के बीच (कौशल पंवार) टूटे पंखों से परवाज़ तक (सुमित्रा महरोल). आलोचक गरिमा श्रीवास्तव ने अपने इस विशद आलेख में इन सभी आत्मकथाओं की अंतर-कथाओं का समावेश किया है. ये आत्मकथाएं अखिल भारतीय हैं. इस आलेख को पढ़ते हुए उस प्रतिनिधि दलित स्त्री का चेहरा सामने आता है जिसकी पीड़ा क्षेत्रीयता की सीमा लांघकर लगभग हर जगह एक जैसी है. गरिमा श्रीवास्तव ने बड़े श्रम, शोध और स्त्री-दृष्टि से इसे लिखा है. ज़ाहिर है यह विचार के साथ-साथ हस्तक्षेप भी है. इसकी प्रस्तुति भी समालोचन के लिए चुनौती थी, प्रत्येक आत्मकथा को अलग पृष्ठ दिया गया है, जिससे कि पढ़ने में सुविधा हो.

by arun dev
November 7, 2021
in आलेख, विशेष
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टुकड़ा–टुकड़ा जीवन

‘टुकड़ा–टुकड़ा जीवन’ झारखण्ड की रहने वाली दलित स्त्री कावेरी का आत्मकथ्य है जो 2017 में प्रकाशित हुआ.  वे दलित रचनाकार दयानंद बटोही की पत्नी हैं.  इस आत्मकथ्य में कावेरी ने पितृसत्ता और सवर्ण समाज की खुलकर आलोचना की है.  आत्मकथा उनके बचपन, यौन शोषण और नौकरी पाकर जीवन को स्वावलंबी बना  सकने की यात्रा का दस्तावेज़ है.  वे भूमिका में ही दर्ज करती हैं–

“आत्मघाती दंश की पीड़ा कहाँ से शुरू करूँ कहाँ, लोगों की मांग है अपनी आत्मकथा लिखूं. पीड़ा सहा हुआ मन, फिर उसे कुरेदा जाए तो क्या होगा.  एक बहुत बड़ा विस्फोट. . अस्पृश्यता का दंश बचपन में लगा, जिसके कारण मैंने विद्यालय जाना बंद कर दिया.  मेरा बचपना यह स्वीकार नहीं कर पाया कि सवर्णों के बच्चों का छुआ पानी शिक्षक पी ले और मुझसे बाल्टी छुआने पर मुझे चांटा जड़ दे. ”

पूरी आत्मकथा  में कावेरी, समाज में, पासवान समुदाय के भीतर और बाहर  बच्चियों और स्त्रियों के साथ होने वाले व्यवहार पर जगह-जगह टिप्पणी करती हैं, दरअसल ये टिप्पणियां उनके आत्मानुभव हैं.  वे अपने पति के भाई पर यौन-शोषण का आरोप लगाती हैं जिसके भय से उन्हें अपनी बेटी को उसके ननिहाल में रखना पड़ा–

“मैं अभी तक आर्तनाद करती हूँ बेटी की याद करके.  इस पीड़ा को मेरे पति ने नहीं समझा.  उल्टा आरोप मेरे माँ–पिताजी पर लगाया.  मेरी बेटी को तो तेरी डायन मां खा गयी.  अपने दरिन्दे गुंडे भाई को उन्होंने कभी नहीं कोसा.  जिसके भय से मैंने बेटी को मैके में छोड़ा था.  मेरे बेटों के सामने भी वही बातें दुहराते.  छोटा बेटा बाप का भक्त है.  अपने पिता को सही मानता है.  जैसे ये मुझे दुत्कारते हैं वैसे वो भी सीख गया है.  बड़ा बेटा सच्चाई जानता है. वह उस पापी को देखना नहीं चाहता है. जब बेटे के द्वारा अपमानित होती हूँ तो अन्दर से बिलबिला जाती हूँ. . . सबसे बड़ा आघात मुझे उस समय पहुँचता है.  जब अपने गुंडे भाई को बाबू कहकर बुलाते हैं.  मेरे पति अपने परिवार के लिए कितने क्षमाशील हैं.  बीत गयी वो बात गयी. अब क्या बेटी जीवित है.  जो जीवित है उसे कैसे छोड़ेंगे ?मेरे पति साहित्यिक विचारधारा के हैं.  दलित साहित्यकारों में अच्छा–खासा नाम है.  मुझे बराबर अहसास करवाते हैं.  मेरे कारण तुम्हारा भी नाम हुआ.”

आत्मकथा में कावेरी के आत्मनिर्भर होने, उनके परिवार और संतानों के दृश्य–चित्र पाठक के सामने उपस्थित हैं. अति सामान्य जीवन जीने वाली कावेरी के आत्मकथ्य का वैशिष्ट्य है बेहद बोल्ड ढंग से परिवार और कुनबे के भीतर स्त्री–पुरुष असमानता को उजागर करना.  इस प्रक्रिया में वे  समुदाय की उस कमज़ोर नब्ज़ पर उंगली रखती है जहाँ शारीरिक संपर्क के लिए नैतिकता की कोई अहमियत नहीं है.  वे पति के पक्ष के कई रिश्तेदारों को यौन- शोषणकर्ता के रूप में चिन्हित करती हैं.  आश्चर्य यह है कि इन सूचनाओं पर उनके पति प्रतिक्रियाहीन बने रहते हैं.  इस तरह यह आत्मकथा सवर्ण और दलित टकराहट के साथ समानांतर ढंग से समुदाय के भीतर स्त्री-पुरुष के लैंगिक विभेद और आर्थिक –शारीरिक शोषण के पहलुओं को उजागर करती है वे अपने ऊपर घटे वैवाहिक बलात्कार के बारे में लिखती हैं–

“पंद्रह वर्ष की उम्र में स्वच्छंद उड़ान भरने की चाह की जगह जबरन शरीर को रौंदा जाना.  मैंने पति की पाशविक प्रवृत्ति ही देखी, जो अभी तक मानस पटल पर छाई हुई है.  हमसफ़र प्यार भरी निगाहों से देखने वाले मितभाषी मित्र की चाह ने कई बार मुझे विचलित किया. . . महिला सशक्तिकरण का समाज में जोर है. पर यह प्रवंचना मात्र है.”

कावेरी की आत्मकथा निज से शुरू होकर निज पर ही ख़त्म हो जाती है.  इसमें एक चिंतित पर जागरूक स्त्री के अनुभव हैं जो जाति से ऊपर उठकर,पढ़ती,नौकरी करती है,समाज सेवा की इच्छा होते हुए भी निज की उलझनों से कभी उबर नहीं पाती.  निज की उलझनों की चर्चा इतनी ज्यादा है कि आत्मकथा कथ्य का अनुपात खो देती है और वह एक स्त्री का आर्तनाद बनकर रह जाती है. आत्मकथा की सीमा है इसकी भाषा, वाक्य संरचना और अभिव्यक्ति की त्रुटियाँ, जिसे पढ़ते हुए पाठक बार–बार रुकता और अटकता है. देशज मुहावरे इसकी शक्ति हैं तो व्याकरणिक भूलें कथ्य की संप्रेषणीयता में बाधक.

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Comments 8

  1. दया शंकर शरण says:
    4 years ago

    बहुत ही विस्तृत आलेख। दलित जीवन का खण्ड-खण्ड सच-एक आत्मकथात्मक साक्ष्य । तीन तरफा मार झेलती स्त्री- एक तो स्त्री, वह भी दलित और उस पर से पितृसत्ता के अधीन।अभी समयाभाव से इसे आद्योपांत नहीं पढ़ पाया। लेकिन अत्यंत पठनीय एक जरूरी आलेख।

    Reply
  2. अशोक अग्रवाल says:
    4 years ago

    साहित्य का भूगोल हो या इतिहास इन दलित महिला कथाकारों की आत्मकथाओं की उपस्थिति को दर्ज किए बिना कभी मुक्कमल आकार ग्रहण नहीं कर सकता। बेबी हालदार की आत्मकथा पढ़ते हुए अविस्मरणीय कहानी आखेट के कथाकार प्रबोध कुमार और विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी स्वर्गीय अशोक सेकसरिया का स्मरण न आना असंभव है। हमेशा की तरह इस बार भी अपने गंभीर और सुचिंतित आलेख को पढ़वाने के लिए गरिमा श्रीवास्तव जी का और अरुण देव जी का अभिवादन।

    Reply
  3. पंकज चौधरी says:
    4 years ago

    गरिमा श्रीवास्तव का यह भी एक सुचिंतित आलेख है। भारत में दो तरह के स्त्री लेखन होते रहे हैं। एक खाए-अघाए या सवर्ण स्त्रियों का लेखन, और दूसरा दलित-बहुजन स्त्रियों का लेखन। सवर्ण स्त्रियों के यहां दलित-बहुजन स्त्रियां उसी तरह से गायब हैं जिस तरह से सवर्ण पुरुषों के लेखन से जाति समस्या या दलित-बहुजन समाज। इतना ही नहीं सवर्ण लेखिकाएं दलित-बहुजन स्त्रियों से अकूत घृणा भी करती हैं। लेकिन दलित स्त्री लेखन की यह खासियत है कि एक तरफ यदि वह द्विजवाद से लड़ता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही समाज की मर्दवादी सोच और विचार से। दलित-बहुजन स्त्रियों के लेखन में हम कई-कई मोर्चों पर संघर्ष और अभिशापों को पाते हैं। इसीलिए उसे भारत के प्रमुख स्वर के रूप में पहचान मिल रही है। ईमानदारी, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और स्वाभाविकता उसकी विशेषता है। तभी मल्लिका अमरशेख जैसी महान दलित लेखिका अपने पति नामदेव ढसाल की कलई को खोलकर रख पाती हैं। तहमीना दुर्रानी और तसलीमा जैसी लेखिकाओं ने भी ऐसा साहस दिखाया है। लेकिन हिंदी की सवर्ण लेखिकाओं के पास ऐसा साहस कहां? वह तो फैशन में लिखते चलती हैं। वे भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का नाम नहीं लेंगी लेकिन वर्जीनिया वुल्फ और जर्मन ग्रीयर का नाम लेते नहीं अघाएंगी।

    Reply
  4. कुमार अम्बुज says:
    4 years ago

    अच्छा आलेख है। कई महत्वपूर्ण संदर्भों से संपन्न।

    Reply
  5. अनिल जनविजय says:
    4 years ago

    ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी घटिया-सी आत्मकथा लिख दी थी। वहीं दूसरी ओर तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएँ और कष्ट तो वयक्त किए, लेकिन अपनी पत्नी के बारे में बिल्कुल भूल ही गए। स्त्री दलितों में भी सबसे दलित है। पितृसत्तात्मक समाज की बन्दिशें दलित स्त्रियों को भी झेलनी पड़ती हैं। उनका दोहरा शोषण होता है। ऊँची जातियों के द्वारा और ख़ुद अपने ही समाज के मर्दों के द्वारा।

    Reply
    • Anonymous says:
      4 years ago

      सही है

      Reply
  6. शुभा माहेश्वरी says:
    4 years ago

    सशक्त भाषा के साथ गंम्भीर विश्लेषण करते हुए गरिमा जी ने दलित स्त्रियों के आत्मकथ्यों से दिखाई देने वाले गहरे दंश को साहित्य जगत के सामने लाकर अन्याय के खिलाफ दस्तावेज प्रस्तुत करने का श्लाघनीय कार्य किया है। उन्हें और अरुण देव को अभिवादन।

    Reply
    • Anonymous says:
      4 years ago

      शुक्रिया शुभा जी

      Reply

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