टुकड़ा–टुकड़ा जीवन
‘टुकड़ा–टुकड़ा जीवन’ झारखण्ड की रहने वाली दलित स्त्री कावेरी का आत्मकथ्य है जो 2017 में प्रकाशित हुआ. वे दलित रचनाकार दयानंद बटोही की पत्नी हैं. इस आत्मकथ्य में कावेरी ने पितृसत्ता और सवर्ण समाज की खुलकर आलोचना की है. आत्मकथा उनके बचपन, यौन शोषण और नौकरी पाकर जीवन को स्वावलंबी बना सकने की यात्रा का दस्तावेज़ है. वे भूमिका में ही दर्ज करती हैं–
“आत्मघाती दंश की पीड़ा कहाँ से शुरू करूँ कहाँ, लोगों की मांग है अपनी आत्मकथा लिखूं. पीड़ा सहा हुआ मन, फिर उसे कुरेदा जाए तो क्या होगा. एक बहुत बड़ा विस्फोट. . अस्पृश्यता का दंश बचपन में लगा, जिसके कारण मैंने विद्यालय जाना बंद कर दिया. मेरा बचपना यह स्वीकार नहीं कर पाया कि सवर्णों के बच्चों का छुआ पानी शिक्षक पी ले और मुझसे बाल्टी छुआने पर मुझे चांटा जड़ दे. ”
पूरी आत्मकथा में कावेरी, समाज में, पासवान समुदाय के भीतर और बाहर बच्चियों और स्त्रियों के साथ होने वाले व्यवहार पर जगह-जगह टिप्पणी करती हैं, दरअसल ये टिप्पणियां उनके आत्मानुभव हैं. वे अपने पति के भाई पर यौन-शोषण का आरोप लगाती हैं जिसके भय से उन्हें अपनी बेटी को उसके ननिहाल में रखना पड़ा–
“मैं अभी तक आर्तनाद करती हूँ बेटी की याद करके. इस पीड़ा को मेरे पति ने नहीं समझा. उल्टा आरोप मेरे माँ–पिताजी पर लगाया. मेरी बेटी को तो तेरी डायन मां खा गयी. अपने दरिन्दे गुंडे भाई को उन्होंने कभी नहीं कोसा. जिसके भय से मैंने बेटी को मैके में छोड़ा था. मेरे बेटों के सामने भी वही बातें दुहराते. छोटा बेटा बाप का भक्त है. अपने पिता को सही मानता है. जैसे ये मुझे दुत्कारते हैं वैसे वो भी सीख गया है. बड़ा बेटा सच्चाई जानता है. वह उस पापी को देखना नहीं चाहता है. जब बेटे के द्वारा अपमानित होती हूँ तो अन्दर से बिलबिला जाती हूँ. . . सबसे बड़ा आघात मुझे उस समय पहुँचता है. जब अपने गुंडे भाई को बाबू कहकर बुलाते हैं. मेरे पति अपने परिवार के लिए कितने क्षमाशील हैं. बीत गयी वो बात गयी. अब क्या बेटी जीवित है. जो जीवित है उसे कैसे छोड़ेंगे ?मेरे पति साहित्यिक विचारधारा के हैं. दलित साहित्यकारों में अच्छा–खासा नाम है. मुझे बराबर अहसास करवाते हैं. मेरे कारण तुम्हारा भी नाम हुआ.”
आत्मकथा में कावेरी के आत्मनिर्भर होने, उनके परिवार और संतानों के दृश्य–चित्र पाठक के सामने उपस्थित हैं. अति सामान्य जीवन जीने वाली कावेरी के आत्मकथ्य का वैशिष्ट्य है बेहद बोल्ड ढंग से परिवार और कुनबे के भीतर स्त्री–पुरुष असमानता को उजागर करना. इस प्रक्रिया में वे समुदाय की उस कमज़ोर नब्ज़ पर उंगली रखती है जहाँ शारीरिक संपर्क के लिए नैतिकता की कोई अहमियत नहीं है. वे पति के पक्ष के कई रिश्तेदारों को यौन- शोषणकर्ता के रूप में चिन्हित करती हैं. आश्चर्य यह है कि इन सूचनाओं पर उनके पति प्रतिक्रियाहीन बने रहते हैं. इस तरह यह आत्मकथा सवर्ण और दलित टकराहट के साथ समानांतर ढंग से समुदाय के भीतर स्त्री-पुरुष के लैंगिक विभेद और आर्थिक –शारीरिक शोषण के पहलुओं को उजागर करती है वे अपने ऊपर घटे वैवाहिक बलात्कार के बारे में लिखती हैं–
“पंद्रह वर्ष की उम्र में स्वच्छंद उड़ान भरने की चाह की जगह जबरन शरीर को रौंदा जाना. मैंने पति की पाशविक प्रवृत्ति ही देखी, जो अभी तक मानस पटल पर छाई हुई है. हमसफ़र प्यार भरी निगाहों से देखने वाले मितभाषी मित्र की चाह ने कई बार मुझे विचलित किया. . . महिला सशक्तिकरण का समाज में जोर है. पर यह प्रवंचना मात्र है.”
कावेरी की आत्मकथा निज से शुरू होकर निज पर ही ख़त्म हो जाती है. इसमें एक चिंतित पर जागरूक स्त्री के अनुभव हैं जो जाति से ऊपर उठकर,पढ़ती,नौकरी करती है,समाज सेवा की इच्छा होते हुए भी निज की उलझनों से कभी उबर नहीं पाती. निज की उलझनों की चर्चा इतनी ज्यादा है कि आत्मकथा कथ्य का अनुपात खो देती है और वह एक स्त्री का आर्तनाद बनकर रह जाती है. आत्मकथा की सीमा है इसकी भाषा, वाक्य संरचना और अभिव्यक्ति की त्रुटियाँ, जिसे पढ़ते हुए पाठक बार–बार रुकता और अटकता है. देशज मुहावरे इसकी शक्ति हैं तो व्याकरणिक भूलें कथ्य की संप्रेषणीयता में बाधक.
बहुत ही विस्तृत आलेख। दलित जीवन का खण्ड-खण्ड सच-एक आत्मकथात्मक साक्ष्य । तीन तरफा मार झेलती स्त्री- एक तो स्त्री, वह भी दलित और उस पर से पितृसत्ता के अधीन।अभी समयाभाव से इसे आद्योपांत नहीं पढ़ पाया। लेकिन अत्यंत पठनीय एक जरूरी आलेख।
साहित्य का भूगोल हो या इतिहास इन दलित महिला कथाकारों की आत्मकथाओं की उपस्थिति को दर्ज किए बिना कभी मुक्कमल आकार ग्रहण नहीं कर सकता। बेबी हालदार की आत्मकथा पढ़ते हुए अविस्मरणीय कहानी आखेट के कथाकार प्रबोध कुमार और विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी स्वर्गीय अशोक सेकसरिया का स्मरण न आना असंभव है। हमेशा की तरह इस बार भी अपने गंभीर और सुचिंतित आलेख को पढ़वाने के लिए गरिमा श्रीवास्तव जी का और अरुण देव जी का अभिवादन।
गरिमा श्रीवास्तव का यह भी एक सुचिंतित आलेख है। भारत में दो तरह के स्त्री लेखन होते रहे हैं। एक खाए-अघाए या सवर्ण स्त्रियों का लेखन, और दूसरा दलित-बहुजन स्त्रियों का लेखन। सवर्ण स्त्रियों के यहां दलित-बहुजन स्त्रियां उसी तरह से गायब हैं जिस तरह से सवर्ण पुरुषों के लेखन से जाति समस्या या दलित-बहुजन समाज। इतना ही नहीं सवर्ण लेखिकाएं दलित-बहुजन स्त्रियों से अकूत घृणा भी करती हैं। लेकिन दलित स्त्री लेखन की यह खासियत है कि एक तरफ यदि वह द्विजवाद से लड़ता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही समाज की मर्दवादी सोच और विचार से। दलित-बहुजन स्त्रियों के लेखन में हम कई-कई मोर्चों पर संघर्ष और अभिशापों को पाते हैं। इसीलिए उसे भारत के प्रमुख स्वर के रूप में पहचान मिल रही है। ईमानदारी, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और स्वाभाविकता उसकी विशेषता है। तभी मल्लिका अमरशेख जैसी महान दलित लेखिका अपने पति नामदेव ढसाल की कलई को खोलकर रख पाती हैं। तहमीना दुर्रानी और तसलीमा जैसी लेखिकाओं ने भी ऐसा साहस दिखाया है। लेकिन हिंदी की सवर्ण लेखिकाओं के पास ऐसा साहस कहां? वह तो फैशन में लिखते चलती हैं। वे भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का नाम नहीं लेंगी लेकिन वर्जीनिया वुल्फ और जर्मन ग्रीयर का नाम लेते नहीं अघाएंगी।
अच्छा आलेख है। कई महत्वपूर्ण संदर्भों से संपन्न।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी घटिया-सी आत्मकथा लिख दी थी। वहीं दूसरी ओर तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएँ और कष्ट तो वयक्त किए, लेकिन अपनी पत्नी के बारे में बिल्कुल भूल ही गए। स्त्री दलितों में भी सबसे दलित है। पितृसत्तात्मक समाज की बन्दिशें दलित स्त्रियों को भी झेलनी पड़ती हैं। उनका दोहरा शोषण होता है। ऊँची जातियों के द्वारा और ख़ुद अपने ही समाज के मर्दों के द्वारा।
सही है
सशक्त भाषा के साथ गंम्भीर विश्लेषण करते हुए गरिमा जी ने दलित स्त्रियों के आत्मकथ्यों से दिखाई देने वाले गहरे दंश को साहित्य जगत के सामने लाकर अन्याय के खिलाफ दस्तावेज प्रस्तुत करने का श्लाघनीय कार्य किया है। उन्हें और अरुण देव को अभिवादन।
शुक्रिया शुभा जी