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Home » दलित स्त्री आत्मकथाएं: गरिमा श्रीवास्तव » Page 22

दलित स्त्री आत्मकथाएं: गरिमा श्रीवास्तव

धर्म, जाति, समाज, परिवार और लैंगिगता के कारण पीड़ित दलित स्त्रियों की इन आत्मकथाओं से संभव है आप परिचित हों- हर आत्मकथा दर्द की जैसे कोई नदी हो- लाइफ़ ऑफ़ एन अनटचेबल (वीरम्मा), करक्कू (बामा फ्युस्टीना मेरी), आलो आंधारि (बेबी हालदार), आमि केनो चांडाल लिखी (कल्याणी ठाकुर), रात्रादिन आम्हा (शांताबाई धानाजी दानी), मिटलेली कवाडे (मुक्ता सर्वगोंड), माझ्या जल्मांची चित्तरकथा (शांताबाई कृष्णाजी काम्बले ), जिण आमुच्या (बेबी कोंडिबा काम्बले), अन्तःस्फोट (कुमुद पावड़े), आयदान (उर्मिला पवार), मलाउद्ध्वस्त व्यायंचय (मल्लिका अमर शेख), दोहरा अभिशाप (कौशल्या बैसंत्री), शिकंजे का दर्द (सुशीला टाकभौरे), एक अनपढ़ कहानी (सुशीला राय), अपनी ज़मीं, अपना आसमां (रजनी तिलक), छूटे पन्नों की उड़ान (अनिता भारती), टुकड़ा–टुकड़ा जीवन (कावेरी), बवंडरों के बीच (कौशल पंवार) टूटे पंखों से परवाज़ तक (सुमित्रा महरोल). आलोचक गरिमा श्रीवास्तव ने अपने इस विशद आलेख में इन सभी आत्मकथाओं की अंतर-कथाओं का समावेश किया है. ये आत्मकथाएं अखिल भारतीय हैं. इस आलेख को पढ़ते हुए उस प्रतिनिधि दलित स्त्री का चेहरा सामने आता है जिसकी पीड़ा क्षेत्रीयता की सीमा लांघकर लगभग हर जगह एक जैसी है. गरिमा श्रीवास्तव ने बड़े श्रम, शोध और स्त्री-दृष्टि से इसे लिखा है. ज़ाहिर है यह विचार के साथ-साथ हस्तक्षेप भी है. इसकी प्रस्तुति भी समालोचन के लिए चुनौती थी, प्रत्येक आत्मकथा को अलग पृष्ठ दिया गया है, जिससे कि पढ़ने में सुविधा हो.

by arun dev
November 7, 2021
in आलेख, विशेष
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बवंडरों के बीच

‘बवंडरों के बीच’ (2020) कौशल पंवार द्वारा लिखित आत्मकथा है जो अपनी बुनावट और कसाव में अन्य दलित स्त्री आत्मकथ्यों में विशिष्ट है.  हरियाणा के राजौंद में जातिदंश झेलकर बड़ी हुई अभाव और श्रम के तनाव के बीच उच्च शिक्षा ग्रहण कर अपने पैरों पर खड़ी होकर समुदाय की उन्नति के प्रयास करने वाली कौशल पंवार ने यह आत्मकथ्य चालीस वर्ष की उम्र के आसपास लिखा है.  जाति का लैंगिक अनुभव कौशल्या ने लगभग 43 उपशीर्षकों के अंतर्गत बाँधा है.  भाषा की रवानगी, छपाई की सुगढ़ता और छोटे वाक्यों में बहुत कुछ कह देने की कला इस पुस्तक को श्रेष्ठ बनाती है.  आत्मकथा का लेखन वे ख़ास उद्देश्य से कर रही हैं और इसके लिए उन्होंने जो ढांचा बनाया है उसमें अपनी मां की मृत्यु के प्रसंग से शुरू करके अपने बचपन और जीवन के उत्तरोत्तर अनुभवों के बारे में वे लिखती चलती हैं.  वे अपने सामान्या से विशिष्ट होने की कथा कहती  हैं.  अपने समुदाय के प्रति सवर्ण लोगों की घृणा  और उपेक्षा कौशल में हीन भाव पनपने नहीं देती, क्योंकि उनके पिता जिन्हें वह चाचा कहती हैं उनका अकुंठित  वात्सल्य कौशल को निरंतर  मिलता रहा है.  प्राक्कथन में वे लिखती हैं

“जैसे-जैसे दलित साहित्य को पढ़ने और समझने का मौका मिला, तो लगा कि दलितों की आत्मकथाएं इसलिए नहीं लिखी गयीं कि उन्हें अपने–आपको समाज के सामने खोलकर रख देने से कोई ख़ुशी मिलती है या उन्हें कोई रसानुभूति होती है, बल्कि उनके सौंदर्यशास्त्र के मापदंड उनके अपने कड़वे अनुभव ही बने हैं, आत्मकथाएं इसलिए लिखी गयी हैं ताकि दलितों द्वारा भोगे गए यथार्थ से भारतीय सामाजिक संरचना की बुनावट उघड़ सके और समतावादी मूल्यों की स्थापना हो सके. . . आत्मकथा लिखना इतना आसान नहीं है.  उन सारे दुखों, तकलीफों, शोषणों और हर दिन की ज़िल्लत को एक बार फिर से जीना होता है.  अपने अतीत को एक बार फिर से अपने सामने रखना होता है.  पर मुझे मंजूर है अगर इससे भारतीय समाज की सामाजिक संरचना जरा भी दरकती हो तो? मुझे अपने अतीत को दुबारा याद कर उसे शब्दों में पिरोना मंज़ूर है. ”

इससे दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं,  कि वे समाज चेतना से प्रेरित होकर आत्मकथा लेखन में प्रवृत्त हो रही हैं, दूसरे वे इसी उद्देश्य के लिए दुखद अतीत के पन्नों को एक बार फिर से पलटने का काम कर रही हैं.  एक चेतना संपन्न स्त्री की आत्मकथा जीवन के अभाव,प्रेम,सुख–दुःख के अनुभवों से अपने पाठक को रु-ब-रू कराती चलती है.  कौशल अपने अभावग्रस्त बचपन के बारे में लिखती हैं–

“सभी घरों की हालत बहुत ही दयनीय थी, खाने के लाले पड़े रहते थे.  कुछ ढंग का खाने को नहीं मिलता था.  मैं अपनी कुछ सहेलियों के साथ माता के मंदिर में चली जाती थी और वहां से भीख में प्रसाद मांगकर लाती.  कुछ वहीं खा लेतीं तो कुछ अपने घर पर ले आती.  उस समय तक ये समझ  नहीं परिपक्व हुई थी कि भीख मांगना अपने स्वाभिमान को गिरवी रखने जैसा होता है.  सभी करतीं तो मैं भी ऐसे ही हाथ फैलाकर प्रसाद मांगती.  सब कुछ सामान्य जैसा ही था. . . एक बार मैं प्रसाद मांगने के लिए एक औरत के पीछे–पीछे जा रही थी, उसने अपने- आपका बचाव करते हुए मुझे झिड़कते हुए कहा- ‘दूर खड़ी होकर मांग प्रसाद, सिर के ऊपर मत चढ़, जाकर नहाना पड़ेगा. ’ मुझे बहुत दुःख हुआ.  इतना अपमानित होकर भी मेरे जैसी लड़कियां यूँ ही प्रसाद मांगकर खाती रहीं. ”

अभाव, यातना और अपमान के प्रसंग पूरी आत्मकथा में बिखरे पड़े हैं.  कौशल संस्कृत विषय पढ़ना चाहती थीं.  इस प्रसंग में  लिखती हैं–

“मैं आठवीं में संस्कृत विषय लेकर पढ़ना चाहती थी इसलिए मैंने मास्टर सुरेन्द्र शास्त्री की कक्षा में जाना चाहा, जो संस्कृत पढ़ाते थे, तो मेरे मास्टरजी ने मुझसे कहा– “संस्कृत तुम्हारे बस की नहीं है और वैसे भी तुम्हें घरों का गोबर एवं कूड़ा–कचरा ही तो उठाना है, जितना पढ़ रही है उतना बहुत है, मैं तेरे बाप से बात करूँगा.  मैंने ठान लिया था कि एक दिन मैंने भी संस्कृत में सबसे ऊंची डिग्री न ली तो! फिर ख्याल आया कि मास्टरजी तो शाम को आयेंगे.  दुबारा से मैंने कक्षा में बैठने की सोची, ये सोचते हुए कि जो होगा देखा जायेगा.  अगले दिन समयानुसार कक्षा में पहुँच गयी.  हमारा छठवां घंटा संस्कृत का होना था लेकिन पांचवे पीरियड तक आते–आते मैं बहुत डर गयी थी.  पूरा ध्यान शास्त्री मास्टर की ओर था.  जैसे ही घंटी बजी मेरा दिल बहुत बुरी तरह धड़कने लगा था, वही हुआ जिसका डर था.  मास्टरजी ने मुझे देखते ही दहाड़ना शुरू कर दिया और आगे की ओर बुलाया, मैं डरी सहमी मास्टर की कुर्सी की ओर गयी और उसने कहते हुए कि तुम्हें कुछ समझ नहीं आता, तुम मेरे मना करने पर के बाद भी कक्षा में संस्कृत पढ़ने के लिए बैठ गयी, सीधे मुंह से बात समझ नहीं आई, तेरे बाप से बात की थी, हाथ जोड़ कर माफ़ी मांगी थी उसने, इसलिए तुम्हें पढ़ने दिया है, वरना तुम्हें कौन-सा कलेक्टर बनना है, हमारे घरों का गंद ही ढोना है इस सिर पर पर.  मेरी चोटी को पकड़कर, झटकते हुए कहा, मेरे थोड़े से बोलने पर कि मैं पढ़ लूंगी, मेरे मुंह पर ज़ोरदार तमाचा जड़ दिया जिसकी गूँज से पूरी कक्षा सहम गयी थी.  मुझे समझ ही नहीं आया कि मास्टर मुझे क्यों मार रहा है ?क्यों नहीं बैठने दे रहा, सभी तो पढ़ रही थीं, जो पढ़ाई में मुझसे कमज़ोर थी, लेकिन मुझे इसका जवाब देने वाला कोई नहीं था. ”

ऐसे माहौल में बढ़ते हुए,  कौशल ने अपने पिता से जीवन मूल्य ग्रहण किये.  पिता ने  कौशल को सिखाया कि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता.  संभवतः इसीलिए माता–पिता के प्रति अपने दायित्व का बोध होते ही–

“मैंने गोबर बटोरना और मंदिर में मांगकर प्रसाद खाना बंद ही कर दिया था. स्कूल के बाद मैंने कालेज में दाखिला ले लिया था.  साथ ही साथ मां और चाचा के कामों में हाथ बंटा दिया करती थी.  अपने मां–बाप के साथ सड़क पर बजरी आदि बिछाने की दिहाड़ी पर भी जाने लगी थी.  कई बार पूरा परिवार काम पर जाता– भाई, मां,चाचा और खुद बतेरी भी.  ऐसे में वह पहले घर पहुँचती और घर पर खाना बनाती.  जिसमें रोटी के साथ दाल तो कभी खाली लाल मिर्च की चटनी होती थी. कभी-कभी हम भट्टे से ईंटें निकालने का काम भी करते.”

दलित वर्ग की स्त्रियाँ श्रम की चक्की में जीवन भर पिसती रहती हैं.  उमा चक्रवर्ती ने कांचा इलैय्या के मत का उल्लेख करते हुए कहा है कि

“ऊंची जाति की स्त्रियाँ और निम्न जाति की स्त्रियों के बीच मूलभूत अंतर भौतिक संसाधनों (खासकर संपत्ति )पर अधिकार होने या न होने में है.  सम्पत्तिहीनता की वजह से दलितों में स्त्री, पुरुष और बच्चे सभी को श्रम करना पड़ता है. ये बने–बनाये ढाँचे ही दलित स्त्रियों के श्रम व्यवस्था में समावेशन के स्वरुप को तय करते हैं.  वहीं ऊंची जाति की स्त्रियों के केवल प्रजनन कार्य को ही तवज्जो दी जाती है जिससे वे महज यौन श्रमिकों के रूप में विघटित होकर रह जाती हैं. . . . दलितों के लिए श्रम उनके अस्तित्व का केन्द्रीय तत्व है लेकिन जाति व्यवस्था उसका अवमूल्यन करती है. ”

कौशल के लिए कालेज की पढ़ाई  के साथ आर्थिक अभाव के कारण मजदूरी का काम कितना कठिन रहा होगा इसे आत्मकथ्य पढ़कर  ही जाना जा सकता है.  श्रमिक स्त्री के शोषण के अन्य आयामों की तरफ भी कौशल पाठक का ध्यान ले जाती  हैं.  दलित के साथ स्त्री और वह भी युवा, सवर्ण ठेकदार की वासना लोलुप निगाहों की भाषा को समझ–बूझ कर अनदेखा करते हुए दिन-रात मेहनत के अनुभव पाठक की अन्तःश्चेतना को झकझोर देते हैं.  पिता के अस्वस्थ होने की दशा में कालेज जाने वाली छात्रा सड़क पर बजरी गिराने और कोलतार बिछाने की दिहाड़ी पर जाती है-

“जी तबियत ख़राब है उसकी, आज उसकी जगयाँ उसकी बेटी आई है”. उसने तुरंत जवाब दिया– अच्छा उसकी बेटी बड़ी हो गी, वा पढ़न-लिखण वाली,(मेरी ओर देखकर बोला था )टोकरी उठा लेगी !ख़राब नज़रों से देखा उसने मुझे ऊपर से नीचे तक और हाजरी लगा दी. . . मैं अच्छी तरह जान गयी थी कि ठेकेदार का लड़का क्या चाहता था.  वह मेरा हाथ पकड़ना चाहता था.  उसने फिर मेरी तरफ की रॉड.  पहले तो मुझे समझ नहीं आया कि क्या करूँ ?लेबर कुछ दूर भी थीं.  बचने का कोई साधन भी नहीं था मेरे पास.  वह इसी बहाने छूना चाहता था.  लेकिन जो वह चाहता था उसे हरगिज़ पूरा नहीं होने दूंगी, निर्णय कर चुकी थी.  उसने गर्म–गर्म भाप निकालती हुई रॉड को देखा.  वह अपना हाथ मेरी तरफ किये खड़ा था कि मैंने झट से किनारे से ही रॉड को पकड़ लिया, दर्द के मारे चीखी मैं.  मेरी चीख हवा में गूँज उठी.  तड़प उठी थी मैं जलन से. मेरा दायाँ हाथ बुरी तरह से जल उठा था.  हाथ में बड़े–बड़े फफोले पड़ गए थे. दर्द और पीड़ा के मारे मैं बिलख गयी थी. मेरे लिए बहुत बड़ा सबक बन गया था.  लड़की होने की सजा अब मैं भुगतने लगी थी.  अब इन नज़रों से मेरा सामना होने लगा था.  मेरे समाज की बहुत सी औरतें ज़मींदार घरों में काम करती थीं.  बड़े लोग उन्हें भी अपनी जागीर समझते थे.  जब जी चाहा छेड़ दिया.  जो मन किया, कर दिया.  सभी महिलाओं की हालत ऐसी ही थी. ”

अपने समुदाय की स्त्रियों के मानसिक–शारीरिक शोषण के बारे यह मंतव्य बहुत ही साहसिक है. ऐसी कहानियों के बाहर आने से शोषक वर्ग को शर्म और ग्लानि दोनों होती है, जिसका ज़िक्र गोपाल गुरु ने किया है.  दलित स्त्रियों का संयुक्त शोषण सिर्फ यौन उत्पीड़न के रूप में ही नहीं होता.  दैनंदिन के जीवन में सवर्ण कही जाने वाली जातियों के लोग या दलितों में ही ऊँचे पायदान पर खड़े लोग अपने संपर्क में आने वाली दलित स्त्री (पुरुष भी )का अपमान करते हैं.  कौशल पंवार जहाँ ऊँची जातियों में से कुछ व्यक्तियों के अपमानजनक व्यवहार को भूल नहीं पातीं वहीं वे जवाहरलाल नेहरु विश्विद्यालय के अपने शोध निर्देशक एवं अगड़ी जाति से सम्बद्ध अध्यापकों का सद्व्यवहार भी विस्मृत नहीं करतीं.  कौशल पंवार का आत्मकथ्य दलित लड़की के संघर्ष का रोजनामचा है, जिसमें बचपन से लेकर जेएनयू के छात्रावास में जाति–उत्पीड़न के अनुभव के प्रसंग बिखरे पड़े हैं.   जीवन और वैचारिक यात्रा के पड़ावों को दर्ज़ करने वाली यह मारक भाषा उन्होंने अपने परिश्रम से अर्जित की है. सगे–सम्बन्धी रिश्तेदार, उत्सव, राग–द्वेष, भूख, गरीबी और विवाह से नौकरी तक की उपलब्धियां– ये सभी उस यात्रा के विभिन्न पड़ाव हैं जिनको पढ़कर पाठक हाशिये के समाज, उसकी कठिनाईयों और सवर्ण समाज की ठस संरचना के प्रति स्वभावतः आलोचक  की भूमिका निभाने लगता है.  यही इस तरह की आत्मकथाओं का उद्देश्य भी है.

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Tags: अनिता भारतीअन्तःस्फोटअपनी ज़मीं अपना  आसमांआयदानआलो आंधारिउर्मिला पवारएक अनपढ़ कहानीकरक्कूकल्याणी ठाकुरकावेरीकुमुद पावड़ेकौशल पंवारकौशल्या बैसंत्रीगरिमा श्रीवास्तवछूटे पन्नों की उड़ानजिण आमुच्याटुकड़ा–टुकड़ा जीवनटूटे पंखों से परवाज़ तकदलित स्त्री आत्मकथाएंदोहरा अभिशापबवंडरों के बीचबामा फ्युस्टीना मेरीबेबी कोंडिबा काम्बलेबेबी हालदारमलाउद्ध्वस्त व्यायंचयमल्लिकाअमर शेखमाझ्या जल्मांची चित्तरकथामिटलेली कवाडेमुक्ता सर्वगोंडरजनी तिलकरात्रादिन आम्हालाइफ़ ऑफ़ एन अनटचेबलवीरम्माशांताबाई कृष्णाजी काम्बलेशांताबाई धानाजी दानीशिकंजे का दर्दसुमित्रा महरोलसुशीला टाकभौरेसुशीला राय
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Comments 8

  1. दया शंकर शरण says:
    4 years ago

    बहुत ही विस्तृत आलेख। दलित जीवन का खण्ड-खण्ड सच-एक आत्मकथात्मक साक्ष्य । तीन तरफा मार झेलती स्त्री- एक तो स्त्री, वह भी दलित और उस पर से पितृसत्ता के अधीन।अभी समयाभाव से इसे आद्योपांत नहीं पढ़ पाया। लेकिन अत्यंत पठनीय एक जरूरी आलेख।

    Reply
  2. अशोक अग्रवाल says:
    4 years ago

    साहित्य का भूगोल हो या इतिहास इन दलित महिला कथाकारों की आत्मकथाओं की उपस्थिति को दर्ज किए बिना कभी मुक्कमल आकार ग्रहण नहीं कर सकता। बेबी हालदार की आत्मकथा पढ़ते हुए अविस्मरणीय कहानी आखेट के कथाकार प्रबोध कुमार और विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी स्वर्गीय अशोक सेकसरिया का स्मरण न आना असंभव है। हमेशा की तरह इस बार भी अपने गंभीर और सुचिंतित आलेख को पढ़वाने के लिए गरिमा श्रीवास्तव जी का और अरुण देव जी का अभिवादन।

    Reply
  3. पंकज चौधरी says:
    4 years ago

    गरिमा श्रीवास्तव का यह भी एक सुचिंतित आलेख है। भारत में दो तरह के स्त्री लेखन होते रहे हैं। एक खाए-अघाए या सवर्ण स्त्रियों का लेखन, और दूसरा दलित-बहुजन स्त्रियों का लेखन। सवर्ण स्त्रियों के यहां दलित-बहुजन स्त्रियां उसी तरह से गायब हैं जिस तरह से सवर्ण पुरुषों के लेखन से जाति समस्या या दलित-बहुजन समाज। इतना ही नहीं सवर्ण लेखिकाएं दलित-बहुजन स्त्रियों से अकूत घृणा भी करती हैं। लेकिन दलित स्त्री लेखन की यह खासियत है कि एक तरफ यदि वह द्विजवाद से लड़ता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही समाज की मर्दवादी सोच और विचार से। दलित-बहुजन स्त्रियों के लेखन में हम कई-कई मोर्चों पर संघर्ष और अभिशापों को पाते हैं। इसीलिए उसे भारत के प्रमुख स्वर के रूप में पहचान मिल रही है। ईमानदारी, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और स्वाभाविकता उसकी विशेषता है। तभी मल्लिका अमरशेख जैसी महान दलित लेखिका अपने पति नामदेव ढसाल की कलई को खोलकर रख पाती हैं। तहमीना दुर्रानी और तसलीमा जैसी लेखिकाओं ने भी ऐसा साहस दिखाया है। लेकिन हिंदी की सवर्ण लेखिकाओं के पास ऐसा साहस कहां? वह तो फैशन में लिखते चलती हैं। वे भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का नाम नहीं लेंगी लेकिन वर्जीनिया वुल्फ और जर्मन ग्रीयर का नाम लेते नहीं अघाएंगी।

    Reply
  4. कुमार अम्बुज says:
    4 years ago

    अच्छा आलेख है। कई महत्वपूर्ण संदर्भों से संपन्न।

    Reply
  5. अनिल जनविजय says:
    4 years ago

    ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी घटिया-सी आत्मकथा लिख दी थी। वहीं दूसरी ओर तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएँ और कष्ट तो वयक्त किए, लेकिन अपनी पत्नी के बारे में बिल्कुल भूल ही गए। स्त्री दलितों में भी सबसे दलित है। पितृसत्तात्मक समाज की बन्दिशें दलित स्त्रियों को भी झेलनी पड़ती हैं। उनका दोहरा शोषण होता है। ऊँची जातियों के द्वारा और ख़ुद अपने ही समाज के मर्दों के द्वारा।

    Reply
    • Anonymous says:
      4 years ago

      सही है

      Reply
  6. शुभा माहेश्वरी says:
    4 years ago

    सशक्त भाषा के साथ गंम्भीर विश्लेषण करते हुए गरिमा जी ने दलित स्त्रियों के आत्मकथ्यों से दिखाई देने वाले गहरे दंश को साहित्य जगत के सामने लाकर अन्याय के खिलाफ दस्तावेज प्रस्तुत करने का श्लाघनीय कार्य किया है। उन्हें और अरुण देव को अभिवादन।

    Reply
    • Anonymous says:
      4 years ago

      शुक्रिया शुभा जी

      Reply

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