टूटे पंखों से परवाज़ तक
सुमित्रा महरोल ने ‘टूटे पंखों से परवाज़ तक’ शीर्षक आत्मकथा लिखी. विकलांगता का प्रश्न भारतीय शोध–अध्ययन केन्द्रों में समाज मनोवैज्ञानिक अध्ययन का विषय ज़रूर बना लेकिन जेंडर को विकलांगता से जोड़ कर देखने से विकलांगता के अनदेखे आयाम, जो प्रामाणिक रूप से किसी साहित्यिक कृति के माध्यम से हमें प्राप्त हो सकते थे, हिंदी में उसका अभाव खलता है. जाति, जेंडर और विकलांगता–ये त्रिस्तरीय दबाव किसी स्त्री को अपने अस्तित्व के विषय में सोचने–समझने की क्या दृष्टि देते हैं इसके बारे में तभी पता चल सकता है जब कोई विकलांग दलित स्त्री इसके बारे में स्वयं बताने के लिए आगे आये. यद्यपि अंग्रेजी में कई विकलांग स्त्रियों ने आत्मकथाएं लिखी, लेकिन हिंदी में इस तरह की अनुभव कथाओं को उँगलियों पर गिना जा सकता है. सुमित्रा महरोल पेशे से प्राध्यापक हैं जो आत्मकथ्य की भूमिका में लिखती हैं–
“स्त्री, दलित व शारीरिक विकलांग– इन तीन दशाओं को मैंने एक साथ झेला. दलित और स्त्री होने की वजह से विषमतामूलक स्थिति में पड़े रहने के कारणों का विश्लेषण कर समाज व व्यवस्था को उत्तरदायी ठहराया जा सकता है, पर विकलांगता के लिए किसे कटघरे में खड़ा किया जाये– नियति को,प्रकृति को या हालात को. बहुत मुश्किल होता है अपनी अपूर्णता के साथ जीना. अपनी जिजीविषा से आप विकलांगता पर विजय प्राप्त कर भी लें, पर समाज कभी आपको समानता का दर्जा नहीं देगा. क़दम–क़दम पर आईना दिखा कर कहता रहेगा कि आप अपूर्ण हैं उनके समान नहीं. अतीत में जाकर आत्मकथांश लिखना इतना आसान नहीं, क्योंकि उन त्रासपूर्ण पीड़ादायी स्थितियों को दुबारा जीना पड़ता है. अतीत में घटी वे दुखद घटनाएं आज भी उतनी ही पीड़ादायी हैं. कुछ प्रसंगों को लिखते हुए आज भी मेरी आँखें तब ही की भांति निरंतर बहने लगती हैं. सुखद यह है कि अंधड़ों से भरे तपते रेगिस्तान के समान उस समय को पार कर आज मैं हरी–भरी तलहटी में हूँ, इस परवाज़ में अपने टूटे पंखों को बाधा मैंने नहीं बनने दिया. ”
यह आत्मकथा पाठक के सामने एक प्रश्न की तरह खड़ी हो जाती है कि क्या हमारा समाज विकलांगों के लिए कभी अपनी मानसिकता बदल पायेगा. यदि समाज अपनी रूढ़ सोच में थोड़ा परिवर्तन कर ले तो एक विकलांग लड़की अपननी कमियों के बारे में सोचकर अपनी ऊर्जा गंवाने की बजाय समाज को रचनात्मक योगदान दे सकती है. विकलांगों के बारे में यह आम धारणा है कि चूँकि उनके पास किसी अंग का अभाव है या वह सामान्य लोगों की तरह स्वस्थ नहीं हैं तो ऐसे में उनके पास गहन विचार-विमर्श करने की शक्ति का भी अभाव है. अकसर हम चाहते हैं कि वे अन्य सभी लोगों को मिलने वाली सुविधाओं के बने–बनाए खांचे में ही अपने को अंटा लें, उन्हें सार्वजनिक जगहों पर विशिष्ट सुविधाएं न दी जाएँ. शिक्षण संस्थान, सार्वजनिक परिवहन, रास्ते, बाजारों में विकलांग-जन अपनी सीमाओं के साथ संघर्ष करते दीख जाते हैं.
सुमित्रा महरोल की आत्मकथा पाठक को देख कर भी अनदेखा किये संसार की ओर हाथ पकड़ कर ले जाती है. जहाँ पर एक विकलांग,दलित स्त्री के जीवनानुभवों के चित्र बिखरे पड़े हैं, जिनकी तरफ से आँखें मूँद कर बाहर चले आना संभव नहीं है. आत्मकथा सुमित्रा के बचपन की कथा से प्रारंभ होती है जब बहुत मासूम उम्र में उन्हें पोलियो हो गया. अशिक्षा और अभाव ने उनके तात्कालिक इलाज़ में बाधा डाली. उनकी अस्वस्थता दलित और पितृसत्तात्मक समाज की अंदरूनी कहानी भी कहती है साथ ही राज्य के गैर- लोककल्याणकारी स्वरुप को भी बताती है.
प्रारंभ में उनको अस्पताल ले जाया गया,लेकिन सरकारी अस्पताल की लम्बी प्रतीक्षा और समाज के पिछड़े वर्ग के स्वास्थ्य के प्रति उपेक्षा के भाव के कारण चिकित्सक रोग पकड़ने में असमर्थ रहे. परिवार की आर्थिक स्थिति भी ऐसी नहीं थी कि दो–ढाई साल की मासूम बच्ची के इलाज़ के लिए वह सब कुछ दांव पर लगा देता. सुमित्रा यदि एकलौती संतान होती तो शायद कहानी कुछ और होती क्योंकि एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि सांवली सूरत और पैर से लाचार घिसटकर चलने वाली बच्ची हमेशा रोती रहती थी और रुदन के कारणों की तरफ ध्यान देने की संवेदना किसी में नहीं थी.
“समय आने पर मेरी मां ने एक और बेटे को जन्म दिया. अब मां अति व्यस्त हो गयी. मेरी रही–सही गोद भी छिन गयी. हर वक़्त रिरियाती,रोती –झींकती मैं मां के पीछे लगी रहती. कभी- कभी झुंझला कर मां मुझे खूब मारती. पिता को बच्चों को दुलारने –पुचकारने या सँभालने से कोई सरोकार न था. उनके अनुसार घर,गृहस्थी और बच्चे संभालना औरतों का काम है. बच्चों को संभालने, गोद–वोद में लेने से उनके पुरुषोचित अहम् को ठेस लगती थी. ”
एक तो लड़की ऊपर से विकलांग– परिवार में उन्हें बहुत स्पेस मिला, उन्हें किसी बात के लिए रोका–टोका नहीं गया. सात वर्ष की उम्र में पार्षद के घर जाने से भी नहीं और बिना अभ्यास के कनाट-प्लेस में स्कूटर चलाने पर भी नहीं. यह एक तरह से परिवार द्वारा लड़की के प्रति उपेक्षा के भाव को दर्शाता है. यहाँ तक कि विवाह–योग्य उम्र हो जाने पर भी सुमित्रा के विवाह के लिए परिवार में कोई हलचल नहीं होती. तमाम सखी–सहेलियों के विवाह हो रहे हैं और सुमित्रा के भविष्य के लिए किसी को कोई चिंता नहीं. एक लड़की अपने-आप को कई मोर्चों पर अकेला पाती है,इसके बावजूद भी वह परिवार की आलोचना के लिए जितने कटु शब्दों का इस्तेमाल कर सकती थी, नहीं करती. उसके भीतर माता –पिता के प्रति आदर और सम्मान है –
“परम्परावादी संस्कारों को अपने में संजोये मेरे माता–पिता अपने बच्चों को प्राथमिकता देने के स्थान पर नाते–रिश्तेदारों, ब्याह–शादियों व् बिरादरी के उत्तरदायित्वों में ही उलझे रहते. उनके तईं बच्चों के भोजन, वस्त्र व पढ़ाई की व्यवस्था कर उन्होंने अपना उत्तरदायित्व पूरा कर दिया. बच्चों के अंतर्मन में क्या चल रहा है, उन्हें किस मानसिक खुराक की आवश्यकता है, माता–पिता के दुलार भरे संस्पर्श का क्या जादुई असर होता है, इसका उन्हें भान तक न था.”
वह भीतर से परम्परागत स्त्री है लेकिन पितृसत्ता के लिए अवांछित और उपेक्षणीय. परिवार में उसकी कोई उपयोगिता नहीं, विकलांग होने के कारण कौन सा पुरुष उसे जीवन संगिनी बनाना चाहेगा. वह इस प्रश्न से भी जूझती है लेकिन स्त्री का सशक्त आर्थिक आधार पुरुष को आकर्षित कर ही लेता है और अंततः विवाह हो जाता है. जन्म से नौकरी, विवाह और संतान तक की यात्रा के बारे में बताते हुए वह कई बार ठिठकती है, रूकती है. कई तरह की सेंसरशिप के दबाब अभिव्यक्ति को बाधित करते हैं. मसलन वे लिखती हैं–
“छुटपन में मैं अकेले ही आसपास के पार्कों में घंटों खेलती रहती,कभी रबर की बाल से,कभी सावन-झूलों पर, तब मेरी खोज-खबर लेने के लिए वो बेवजह हलकान नहीं होते थे. ”
यह ‘बेवजह हलकान’ न होना दरअसल स्वयं को मुक्त रखना है. माता–पिता के सामने विकलांग बेटी के अलावा और भी कई चुनौतियां रही होंगी. पेट भरने और शिक्षा के सवाल उनके लिए विकलांग बेटी से निश्चित रूप से ज्यादा महत्वपूर्ण रहे होंगे, संभवतः इसलिए–
“तब भी अनावश्यक रूप से मेरी सुरक्षा की चिंता उन्होंने नहीं की थी. . ”
अनावश्यक रूप से स्वयं को सुरक्षा की चिंता के योग्य न समझा जाना भाषा की दरार को दिखाता है, क्योंकि विकलांग बच्चे की सुरक्षा की चिंता सबसे महत्वपूर्ण विषय होना चाहिए था, जो कि नहीं है. यह परिवार और समाज में विकलांग के प्रति मानसिक अनुकूलन और उपेक्षा की ओर संकेत करता है.
हाल के वर्षों में विकलांगता या अपंगता को केंद्र में रखकर कई आत्मकथाएं लिखी गयीं. इन आत्मकथाओं ने शोध और अध्ययन की नयी चुनौतियां प्रस्तुत कीं. भारत में अपंग या विकलांग व्यक्ति की यौनिकता के बारे में कभी बात नहीं की गयी. सुमित्रा महरोल की आत्मकथा के माध्यम से हम उत्तर भारत में विकलांग स्त्री के जीवनानुभवों के बारे में जानने का अवसर पाते हैं. शारीरिक अपंगता को सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रवृति के आलोक में विश्लेषित किया जाना अपेक्षित है. विकलांगों के प्रति दया या करुणा के रवैये की जगह उनके अधिकारों पर बात करने का समय आ गया है.
‘टूटे पंखों से परवाज़ तक’ शीर्षक आत्मकथा विकलांग स्त्री की अस्मिता पर बात करती है. यह आत्मकथा एक स्त्री द्वारा अपने ‘स्वत्व’ की खोज की यात्रा है. यह कहानी आत्मनिर्भर होने की यात्रा मात्र नहीं है बल्कि अपनी पहचान बनाकर, जीवन को उसकी पूर्णता में जीने के ज़ज्बे की कहानी है. यह आत्मकथा यह भी बताती है कि कैसे शारीरिक रूप से स्वस्थ और सक्षम लोग अपंगता या विकलांगता को अपूर्णता या स्वायत्तहीनता से जोड़कर देखते हैं. समाज में विकलांगों के प्रति जो स्टीरियोटाइप या पूर्वग्रह पूर्ण दृष्टिकोण है उसकी ओर यह पुस्तक संकेत करती है. आत्मकथा यह भी बताती है कि विकलांग व्यक्ति अपनी पहचान और अपने स्वत्व के साथ कैसे जीता है, विशेषकर तब जब वह स्त्री हो,साथ ही वह जीवन जीने के लिए किस तरह की रणनीतियां अपनाता है.
हाल के वर्षों में विकलांग जनों की जीवन कथाओं के प्रति पाठकों और फिल्मकारों का रुझान बढ़ा है. विकलांगों के आत्मकथ्य उनके निज के आख्यान तो हैं ही साथ ही मनोसामाजिकी को जानने का माध्यम भी. आत्म–प्रतिनिधित्व के लिए आत्मकथा से बेहतर कोई विधा नहीं हो सकती. जितनी भी अन्य साहित्यिक विधाएं हैं– आत्मकथा में वे सब अंतर्भुक्त रहती हैं इसलिए इस सबसे ज्यादा लोकतांत्रिक विधा माना गया है. जहाँ तक विकलांगों द्वारा आत्मकथ्य लिखने का प्रश्न है– इस क्षेत्र में हाल के वर्षों में तेज़ी आई है. इस मुद्दे पर भी शोध हो रहे हैं कि विकलांगता का प्रभाव स्त्री और पुरुष पर अलग–अलग कैसे पड़ता है. भारत में विकलांगों की संख्या अच्छी–खासी है जिसके पीछे स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, सामाजिक–पारिवारिक उत्पीड़न, गरीबी, अशिक्षा और दुर्घटनाओं एवं आनुवांशिकी को देखा जा सकता है.
पितृसत्तात्मक समाज, जहाँ लड़का पैदा करने के लिए गर्भ परीक्षण करवाए जाते हैं वैसे समाज में लड़की और वो भी विकलांग– वह अनिवार्यतः पारिवारिक या सामाजिक उपेक्षा का शिकार होती है. प्रस्तुत आत्मकथा विकलांगता के लैंगिक और जातीय आयाम को विश्लेषित करती है. एक लड़की किस तरह विकलांग होने के कारण साथियों से उपेक्षित होती है, इसके अनुभव विशिष्ट हैं. सुमित्रा लिखती हैं–
“उपेक्षा और अजनबीपन के दंश कैम्पस में होने वाली साहित्यिक–सांस्कृतिक गतिविधियों के दौरान कुछ ज्यादा ही चुभन देते, जब कार्यक्रम में कुछ विराम के दौरान, सह्पाठिनें मेरी उपस्थिति को बिलकुल खारिज करती हुई बगैर मुझे बताये अथवा साथ लिए अचानक कैंटीन या और कहीं चल देतीं और उनमें शामिल होने के लिए उनके पीछे दौड़ती मैं यथासंभव तेज़ी से चलती, हांफती, उन्हें पकड़ कर भी न पकड़ पाती. इस तरह उस परिवेश में इतने लोगों की उपस्थिति में भी खुद को एकदम अकेली और उपेक्षित पाती. तब दो तरह के मन मुझमें एक साथ निवास करने लगे थे, एक वो मन जो बहुत टूटा हुआ बहुत हारा हुआ था,बहुत निराश था– हर दम जो एहसास दिलाता रहता कि तुम कितनी हीन और तुच्छ हो, तुम यह नहीं कर सकती, तुम वह नहीं कर सकती. . . हर्ष और आह्लाद के क्षणों में झूम –झूम कर नाच नहीं सकती, किसी विपत्ति के समय या खेलने के लिए खुद को शारीरिक तौर पर फिट रखने के लिए दौड़ नहीं सकती, मित्रों के साथ रोमांचक आउटडोर ट्रिप पर नहीं जा सकती, पर्वतारोहण, जंगल भ्रमण, पैराग्लाइडिंग नहीं कर सकती और क्या–क्या गिनाऊं, लिस्ट बहुत लम्बी है जो मैं नहीं कर सकती और ये सब कुछ दिन, कुछ वर्ष तक नहीं बल्कि उम्र भर नहीं कर सकती. . . ”
बतौर दलित सुमित्रा के अनुभव अन्य दलित स्त्रियों से अलग नहीं रहे हैं. जाति दंश और उपेक्षा उन्होंने भी झेली है. शहर में रहते हुए उनकी टिप्पणी रेखांकित करने योग्य है–
“शहरी परिवेश में दलित उत्पीड़न का स्वरूप वाह्य न होकर आंतरिक है, प्रत्यक्षतः दिखाई नहीं देता. शहर के तथाकथित शिक्षित सवर्ण जानते हैं कि जातिगत आक्षेप उन्हें मुसीबत में डाल सकते हैं. क्योंकि कानूनन जातिगत भेदभाव अपराध है, सो प्रकटत: कुछ भी करने से वे बचते हैं. पर दलितों के लिए सोच उनकी अभी भी पूर्ववत ही है. शिक्षित, नौकरीशुदा, अच्छी सोच–समझ रखने वाले दलित को भी वह अपने पूर्वाग्रहों के कारण अपने समान नहीं समझते, उनसे घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित नहीं करना चाहते. दलितों का मनोबल तोड़ने के लिए वह उन्हें अनदेखा करते हैं, दलित की कही अच्छी बात को या राय को अनसुना करने का नाटक करते हैं और बहुधा अपने व्यवहार से दलित व्यक्ति को समूह से बाहर होने का अहसास कराते हैं. . . विकलांग होने के बाद भी उन सब चुनौतियों को मैंने हँस कर पार कर लिया, जिनसे परिश्रम–लगन के बूते पर जूझा जा सकता है, पर एक चुनौती आज भी मेरे सामने मुंह बाए खड़ी है वह है सामाजिक स्वीकृति. चाहे पड़ोस हो चाहे कार्यस्थल हो, चाहे अन्य जगहें, प्रयास करने पर भी स्वयं को सदैव मैंने पानी पर तैरती तेल की बूँद के समान ही पाया है,पानी में पड़े दूध के समान खुद को दूसरों से एकाकार मैं कर ही नहीं पायी. जब स्कूल में थी तो इच्छा थी कि पढ़–लिख कर जब मैं अच्छी पद-प्रतिष्ठा हासिल कर लूंगी तो शायद सामाजिक स्वीकृति भी मुझे मिल जाए, पर जीवन के इस पड़ाव पर आकर समझ गयी हूँ कि वह स्वीकृति शायद मुझे आजीवन न मिले. ”
इतिहास गवाह है कि प्रत्येक समय और समाज में सत्ता संरचनाएं रही हैं, जिसमें केन्द्रीय स्थान से हाशिये की आवाजें अलग रही हैं. औपनिवेशिक शासन समाप्त होने के बावजूद आज भी स्थिति बदली नहीं है, आज भी समाज का निम्न वर्ग हाशिये पर ही है, उसे हाशिये पर ही धकेलने के सांस्थानिक प्रयास भी किये जाते रहे हैं, फलतः वह वर्ग कभी केंद्र में आता ही नहीं और परिधि पर रहकर ही अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता रहता है. हाशिये का यह वर्ग ‘चुप’ करा दिया जाता है और चुप कराने वालों को लगता है उन्होंने इसे हाशिये पर धकेल दिया लेकिन दरअसल होता यह है कि हाशिये की ये आवाजें केंद्र में आने के लिए निरंतर प्रयास करती रहती हैं. इसी ज़द्दोज़हद से प्रतिरोध की संस्कृति पैदा होती है.
इस दृष्टि से देखने पर समूचा दलित साहित्य प्रतिरोध के साक्ष्य के रूप में हमारे सामने आता है. सदियों से हाशिये पर रहने का ही यह परिणाम है कि स्वयं को अदृश्यता से दृश्यता की ओर, परिधि से केंद्र की ओर ले जाने का यह प्रयास दरअसल सदियों की चुप्पी को आत्म की पहचान से तोड़ना है. गुमनामी से पहचान की यह यात्रा निश्चित तौर पर यातनादायी है, क्योंकि प्रतिरोध के साथ–साथ समाज में अपने वास्तविक आत्म को बनाये रखना कठिन है, विशेषकर उस समाज में जहाँ सदियों से दलितों की कोई आवाज़ ही सुनाई नहीं दी, जबकि यह मानवता की सबसे बड़ी ज़रूरत होनी चाहिए थी. चुप रहने की बाध्यता के खिलाफ अपनी आवाज़ को उठाना दलितों विशेषकर दलित स्त्रियों के लिए कठिन है और था, क्योंकि उनका शोषण बहुस्तरीय है. स्त्रियाँ जो मानसिक और शारीरिक तौर पर रौंदी गईं.
पितृसत्ता और पितृसत्तात्मक मानसिक अनुकूलन की शिकार सवर्ण स्त्रियों ने भी उनके शोषक की भूमिका ही निभायी. उनके दमन के लिए बड़े पैने और बहुआयामी औजारों का इस्तेमाल किया गया. सदियों से दमन की शिकार दलित स्त्रियाँ अपने ‘आत्म’ के प्रति सजग नहीं रह सकीं. दमन का नैरन्तर्य कहीं उनके प्रतिरोध को भोथरा बनाता है कहीं नियति का दास. इन दलित स्त्री आत्मकथ्यों में कथ्य और शिल्प की दृष्टि से पारस्परिक समानता लक्षित की जा सकती है.
आत्मकथाकार अक्सर अपने परिवार-जनों और मित्रों को आत्मकथ्य लेखन का प्रेरणा स्रोत मानती हैं जिन्होंने बतौर स्त्री और दलित होने के अपने अनुभवों को लिपिबद्ध करने की प्रेरणा दी. इसके साथ ही वे अपने सार्वजनिक जीवन में लेखन के प्रेरणादायी व्यक्तित्वों और परिस्थितियों का उल्लेख करना नहीं भूलतीं. इसके बाद वे आत्मकथ्य– लेखन के लिए समाजशास्त्रीय परिस्थितियों को उत्तरदायी ठहराती हैं. वे किसी व्यक्ति या समुदाय विशेष को शोषक के रूप में रेखांकित करने से बचती हैं. इसे उनके लेखन की रणनीति के रूप में देखा जाना चाहिए जिसके पीछे बृहत्तर पाठक वर्ग की सहानुभूति के संभावित अभाव की आशंका को देखा जा सकता है. ज्यादा से ज्यादा पाठक और आलोचक उनके अनुभव के साक्षी बनें इसके लिए वे अपनी ‘कटुता ‘की अभिव्यक्ति में भी संयम से काम लेती हैं. इनमें कथ्य और घटनाओं का दुहराव भी देखने में आता है. अक्सर आत्मकथा के अंत में अपने साथ जीवन जीने वाले पालतू पशु–पक्षियों, मित्रों और आन्दोलनधर्मिता में सहयोगी चरित्रों के विषय में पुनर्चर्चा की जाती है.
अक्सर आत्मकथ्यों में विस्तार से अपने बचपन के साथ–साथ सामुदायिक जीवन का बृहत वर्णन होता है, जिसमें समुदाय के लोगों का चरित्र, बोली–बानी, कामकाज, सामुदायिक व्यवहार पर टिप्पणियाँ शामिल होती हैं, साथ ही अपनी रिहायश या बस्ती की जीवन शैली,यहाँ तक कि रहन–सहन के बारीक वर्णन भी आत्मकथ्यों में अनिवार्यतः मिलते हैं. इन वर्णनों का उद्देश्य है पाठक वर्ग (जो संभावित रूप से दलित समाज के रहन-सहन की बारीकियां नहीं जानता)को अपने सामुदायिक जीवन से परिचित करवाना. ये वर्णन आत्मकथ्यों को एक ओर सामुदायिक आख्यान में तब्दील करते हैं तो दूसरी ओर उन्हें प्रामाणिकता भी प्रदान करने में सक्षम होते हैं.
समुदाय में प्रचलित अंधविश्वासों के साथ धार्मिक विश्वासों और उत्सवों का भी वर्णन होता है. दैनंदिन के जीवन में अक्सर पशु की रखरखाव,पशु के मांस और चमड़े से सम्बंधित कार्यव्यापार, मुर्गी, बकरी-सूअर पालन के कायदे, किसी-किसी समुदाय में प्रचलित बलि प्रथा, बतौर मजदूर काम करने के दौरान पेश आने वाली दिक्कतें और कठिनाईयां, समुदाय में से किसी के शिक्षित निकल जाने पर शेष समुदाय का उस व्यक्ति–विशेष के प्रति रवैया, उसे आदर्श समझा जाना या उससे ईर्ष्या भी चित्रित होती है. शिक्षा और नौकरी के रास्ते में आने वाली कठिनाइयां– उस मार्ग में असहयोगी या सहयोगी व्यक्तित्वों की पहचान, आर्थिक समस्याएं, मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न का सविस्तार वर्णन इन सभी आत्मकथाओं में सामान्य तौर पर देखा जा सकता है.
अधिकतर स्त्रियाँ विवाह और प्रेम का भी ज़िक्र करती हैं लेकिन आर्थिक कठिनाईयों, उत्पीड़न और भूख का वर्णन इस के अनुपात में बहुत ज्यादा होता है. इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जहाँ सवर्ण स्त्रियों की आत्मकथाएं उनके मानसिक कार्यव्यापार के आसपास ज्यादा केन्द्रित रहती हैं वहीं दलित स्त्रियाँ जीवन के ठोस कार्य-व्यापारों और भौतिक समस्याओं से ज्यादा टकराती हैं. दलित स्त्री आत्मकथ्य स्त्री–श्रम पर विचार करने के लिए प्राथमिक साक्ष्यों का काम करते हैं. मजूरी या ठेके पर काम करते हुए उनके श्रम को पुरुषों से कम करके आंका जाता है, साथ ही कार्यस्थल पर उन्हें यौन–उत्पीड़न और जाति–दलन भी झेलना पड़ता है. इस तरह ये आत्मकथाएं अपने कथ्य और शिल्प में सिर्फ निज की कथा तक सीमित न रहकर अपने समुदाय के ‘प्रामाणिक आख्यान “के रूप में चिन्हित की जा सकती हैं.
ये आत्मकथ्य ‘अपनी जगह बनाने’ की स्वचेतनता से उद्भूत होती हैं, इसके लिए वे कई बार अंग्रेजी समेत अन्य भारतीय भाषाओँ में अनुवाद का सहारा भी लेती हैं. दलित आत्मकथा लेखक मानवाधिकारों और दलित चेतना आंदोलनों में अनिवार्य हस्तक्षेप करते हैं. ’दलित निज’ के बारे में प्रामाणिक जानकारी प्रदान करने इनकी आत्मकथाएं सक्षम होती हैं, दलित निज को उत्पीड़न का प्रतिनिधि दिखाकर दरअसल ये लोकतांत्रिक संरचनाओं का वास्तविक चेहरा मसलन मीडिया, पुलिस, अस्पताल, शैक्षिक संस्थानों में दलितों के साथ जो रवैया अपनाया जाता है उनपर भी टिप्पणी करते हैं. इसके द्वारा वे अपने लिए पूर्ण नागरिकता की मांग भी करते हैं.
शैली के स्तर पर भी दलित स्त्री आत्मकथाओं में परस्पर समानता देखने को मिलती है. आत्मकथा के पहले भाग में ही आगामी जीवन के बारे में पर्याप्त संकेत दे देना भी अधिकांश को समान भावभूमि पर ले आता है. इनमें से कोई भी आत्मकथाकार अपनी रचना को “साहित्यिक कृति’ बनाने का दावा नहीं करती, इसतरह वे अपने कथ्य के अनुरूप नैसर्गिक शैली का चुनाव कर लेती हैं. यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि ये आत्मकथ्य अक्सर छोटे–छोटे अध्यायों में प्रसंगानुसार बने हुए हैं, यानी वे पाठकों की सुविधा का पूरा ख्याल रखती हैं और अपने जीवन प्रसंगों के अनुरूप शीर्षकों का चुनाव भी तार्किक ढंग से करती हैं. आत्मकथा के पहले भाग में ही आगामी जीवन के बारे में पर्याप्त संकेत दे देना भी अधिकांश में समान है. इनमें से अधिकतर (कौशल्या बैसंत्री और सुशीला टाकभौरे) को छोड़कर अपनी मातृभाषा में लिखती हैं लेकिन आत्मकथाओं के भीतर के संवाद अकसर उनकी बोलियों में होते है.
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गरिमा श्रीवास्तव |
बहुत ही विस्तृत आलेख। दलित जीवन का खण्ड-खण्ड सच-एक आत्मकथात्मक साक्ष्य । तीन तरफा मार झेलती स्त्री- एक तो स्त्री, वह भी दलित और उस पर से पितृसत्ता के अधीन।अभी समयाभाव से इसे आद्योपांत नहीं पढ़ पाया। लेकिन अत्यंत पठनीय एक जरूरी आलेख।
साहित्य का भूगोल हो या इतिहास इन दलित महिला कथाकारों की आत्मकथाओं की उपस्थिति को दर्ज किए बिना कभी मुक्कमल आकार ग्रहण नहीं कर सकता। बेबी हालदार की आत्मकथा पढ़ते हुए अविस्मरणीय कहानी आखेट के कथाकार प्रबोध कुमार और विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी स्वर्गीय अशोक सेकसरिया का स्मरण न आना असंभव है। हमेशा की तरह इस बार भी अपने गंभीर और सुचिंतित आलेख को पढ़वाने के लिए गरिमा श्रीवास्तव जी का और अरुण देव जी का अभिवादन।
गरिमा श्रीवास्तव का यह भी एक सुचिंतित आलेख है। भारत में दो तरह के स्त्री लेखन होते रहे हैं। एक खाए-अघाए या सवर्ण स्त्रियों का लेखन, और दूसरा दलित-बहुजन स्त्रियों का लेखन। सवर्ण स्त्रियों के यहां दलित-बहुजन स्त्रियां उसी तरह से गायब हैं जिस तरह से सवर्ण पुरुषों के लेखन से जाति समस्या या दलित-बहुजन समाज। इतना ही नहीं सवर्ण लेखिकाएं दलित-बहुजन स्त्रियों से अकूत घृणा भी करती हैं। लेकिन दलित स्त्री लेखन की यह खासियत है कि एक तरफ यदि वह द्विजवाद से लड़ता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही समाज की मर्दवादी सोच और विचार से। दलित-बहुजन स्त्रियों के लेखन में हम कई-कई मोर्चों पर संघर्ष और अभिशापों को पाते हैं। इसीलिए उसे भारत के प्रमुख स्वर के रूप में पहचान मिल रही है। ईमानदारी, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और स्वाभाविकता उसकी विशेषता है। तभी मल्लिका अमरशेख जैसी महान दलित लेखिका अपने पति नामदेव ढसाल की कलई को खोलकर रख पाती हैं। तहमीना दुर्रानी और तसलीमा जैसी लेखिकाओं ने भी ऐसा साहस दिखाया है। लेकिन हिंदी की सवर्ण लेखिकाओं के पास ऐसा साहस कहां? वह तो फैशन में लिखते चलती हैं। वे भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का नाम नहीं लेंगी लेकिन वर्जीनिया वुल्फ और जर्मन ग्रीयर का नाम लेते नहीं अघाएंगी।
अच्छा आलेख है। कई महत्वपूर्ण संदर्भों से संपन्न।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी घटिया-सी आत्मकथा लिख दी थी। वहीं दूसरी ओर तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएँ और कष्ट तो वयक्त किए, लेकिन अपनी पत्नी के बारे में बिल्कुल भूल ही गए। स्त्री दलितों में भी सबसे दलित है। पितृसत्तात्मक समाज की बन्दिशें दलित स्त्रियों को भी झेलनी पड़ती हैं। उनका दोहरा शोषण होता है। ऊँची जातियों के द्वारा और ख़ुद अपने ही समाज के मर्दों के द्वारा।
सही है
सशक्त भाषा के साथ गंम्भीर विश्लेषण करते हुए गरिमा जी ने दलित स्त्रियों के आत्मकथ्यों से दिखाई देने वाले गहरे दंश को साहित्य जगत के सामने लाकर अन्याय के खिलाफ दस्तावेज प्रस्तुत करने का श्लाघनीय कार्य किया है। उन्हें और अरुण देव को अभिवादन।
शुक्रिया शुभा जी