लाइफ़ ऑफ़ एन अनटचेबल
एक लम्बे समय तक स्त्रियों ने अपने बारे स्वयं कुछ कहा ही नहीं, इस दृष्टि से वीरम्मा का आख्यान महत्वपूर्ण है जिसे उसने बोलकर लिखवाया. इसके अनुवाद और प्रकाशन से दलित स्त्री को देखने के नज़रिए में बदलाव आने के साथ–साथ प्रकाशन जगत पर सवर्ण पुरुष वर्चस्व की राजनीति का पर्दाफाश भी होता है. वीरम्मा ने इसमें अपने समुदाय ‘परया’ की कथा कही है. वह भूमिहीन मजदूरों के परिवार में पैदा हुई जहाँ उसके लड़की होने के कारण कोई खुश नहीं था. उसके जीवन में दुःख और अपमान जन्म के साथ ही आये. वह इस बात का उल्लेख करती है कि ऊँची जातियों के सामने परया जाति के लोग पेट के बल ज़मीन पर लेट जाते थे. वीरम्मा का विवाह बचपन में उस समय एक बड़ी उम्र के आदमी के साथ कर दिया गया था, जब वीरम्मा को विवाह के बारे में कुछ भी मालूम नहीं था. वीरम्मा का कहना है कि वह सिर्फ़ इतना जान पाई कि विवाह का मतलब है अपने लोगों से अलग हो जाना, ये मुझे अपहरण जैसा लगा. उस समय जो घटना हुई वह मुझे अपहरण जैसी लगी लेकिन अपहर्ताओं ने मुझे औरत बनाया.
वीरम्मा बताती है कि कैसे उसने परया समुदाय में श्रम के बल पर अपनी पहचान अर्जित की. बतौर ‘परया’ जाति की सदस्य होने के कारण उसने छुआछूत के कैसे कठिन दंश झेले. अपनी कहानी सुनाते हुए वह स्पष्ट कर देती है कि वह ऐसे लोगों को अपने समुदाय के बारे में बता रही है जो उसके अपने समुदाय से इतर हैं. यह आख्यान वीरम्मा जैसी दलित स्त्री के अनुभव की गहराई और हमारी अब तक की जानकारी के बीच की गहरी खाई को बताता है. वह बताती है कि कैसे रोज़गार के नाम पर वह रेड्डी (ऊँची जाति) के घरों में जाकर अपनी सास के साथ गोबर इकट्ठा करने का काम करती थी–
“एक नयी परया ‘चेरी के अलावा कुछ नहीं थी, उसकी पहचान जानने में किसीको रूचि भी नहीं थी. लेकिन मालिक रेड्डी जानते थे कि मैं मन्निकम की पत्नी हूँ. मैं अपनी सास के साथ उनके अस्तबल की सफाई करने और गोबर उठाने जाती थी. मेरी ससुराल के लोग पीढ़ियों से रेड्डी खानदान की सेवा कर रहे थे.”
अपनी जातिगत पहचान को लेकर वीरम्मा सचेत है, वह परिस्थितियों के सामने घुटने नहीं टेकती और निरंतर समाज में व्याप्त ऊँच-नीच की आलोचना करती रहती है, वह विद्रोह का झंडा न उठाकर भी अपने आख्यान के द्वारा शोषक व्यवस्था को पाठक के सामने खोल कर रख देती है, उसका आख्यान सुन–पढ़ कर यह पता चल जाता है कि दलित स्त्री कैसे जीती और सोचती है वह कहती है कि- कलियुग में दलित बच्चे स्कूल जा सकते हैं, अध्यापक भी बन सकते हैं, अध्यापकों से पढ़ भी सकते हैं जो उनकी जाति को लेकर कोई पूर्वग्रह नहीं रखते. ये लोग इस कलियुग में अस्पताल में इलाज़ करवा सकते हैं अब तो सरकार ही इस कलियुग को ले आई है. आत्माख्यान में वह चिन्नम्मा नामक काल्पनिक पात्र को संबोधित करके कहती है.
“तुम्हारे लिए तो पुराना ज़माना ही बेहतर था. तुम हमें एक–डेढ़ रुपये की मजदूरी पर रख लेती थी, और खेतों के किनारे जो कुछ उगता था उसे खाकर हम जिंदा रह लेते थे. अब इस कलियुग में हलवाहा दस से पंद्रह रुपये मांगता है, सरकार ही मजदूरी की दर तय कर देती है, क्या हमने कोई सरकार ऐसी पहले देखी थी जो हमारा ध्यान इतनी अच्छी तरह से रखे.”
यह कहते ही वीरम्मा का आख्यान सिर्फ़ उसका निजी आख्यान नहीं रह जाता वह उसके समुदाय का आख्यान, प्रत्येक दलित–उत्पीड़ित का साक्ष्य बन जाता है. वह एक एजेंसी के रूप में काम करने लगती है जब वह यह कहती है कि- लोग कहते हैं कि परया जाति के सब बड़े बूढ़े,बच्चे सभी कौवे जैसे होते हैं. ये सिर्फ़ रंग की बात नहीं है. हम कौवों जैसे ही हैं. हमेशा समूह में रहते हैं. खाने के लिए कुछ मिल जाये तो मिल- बाँट कर खाते हैं,ठीक वैसे ही जैसे अनाज देख कर कौवा कांव-कांव करके अपने समूह के सभी कौवों को बुला लेता है.
वीरम्मा के आख्यान का व्यंग्यात्मक लहजा विशिष्ट है. रेड्डीयार मालकिन ने वीरम्मा को अपने कमज़ोर बेटे को दूध पिलाने के लिए कहा क्योंकि वीरम्मा ‘परया’ जाति की है जो बड़े जानवरों का मांस खाती है, इसलिए उसके दूध में ज्यादा ताकत होगी. रेड्डी मालकिन, वीरम्मा की गोद में अपना बच्चा डाल देती है. वही बच्चा जब बड़ा हो जाता है तो वीरम्मा के साथ छुआछूत बरतता है,पानी मांगने पर अपनी मां से अनुमति लेता है–
“उसने मेरी छाती का दूध पीया था, अब वह मुझे थोड़ा- सा पानी देने में भी हिचक रहा था. वह मुझे कोई इज्ज़त नहीं देता था और अगर मैं उनके घर में घुसती तो कह उठता ‘अये! वहीं रुको,यहाँ परया की बदबू आती है.”
वीरम्मा के आख्यान में संवेदनशीलता और आंतरिक शक्ति का मिश्रण दिखाई पड़ता है. दरअसल उसके भीतर की शक्ति ही है जो उसे जाति के आधार पर बंटे समाज की आलोचना करने की क्षमता देती है. नीची जाति का दंश उसमें हीनता बोध नहीं भरता,बल्कि दलित -श्रम का शोषण करने वाली ऊँची जाति की रणनीति को वह अच्छी तरह समझती है. वह इसी शक्ति के बल पर शोषण के आख्यान को निसंकोच बताने का साहस करती है.
बहुत ही विस्तृत आलेख। दलित जीवन का खण्ड-खण्ड सच-एक आत्मकथात्मक साक्ष्य । तीन तरफा मार झेलती स्त्री- एक तो स्त्री, वह भी दलित और उस पर से पितृसत्ता के अधीन।अभी समयाभाव से इसे आद्योपांत नहीं पढ़ पाया। लेकिन अत्यंत पठनीय एक जरूरी आलेख।
साहित्य का भूगोल हो या इतिहास इन दलित महिला कथाकारों की आत्मकथाओं की उपस्थिति को दर्ज किए बिना कभी मुक्कमल आकार ग्रहण नहीं कर सकता। बेबी हालदार की आत्मकथा पढ़ते हुए अविस्मरणीय कहानी आखेट के कथाकार प्रबोध कुमार और विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी स्वर्गीय अशोक सेकसरिया का स्मरण न आना असंभव है। हमेशा की तरह इस बार भी अपने गंभीर और सुचिंतित आलेख को पढ़वाने के लिए गरिमा श्रीवास्तव जी का और अरुण देव जी का अभिवादन।
गरिमा श्रीवास्तव का यह भी एक सुचिंतित आलेख है। भारत में दो तरह के स्त्री लेखन होते रहे हैं। एक खाए-अघाए या सवर्ण स्त्रियों का लेखन, और दूसरा दलित-बहुजन स्त्रियों का लेखन। सवर्ण स्त्रियों के यहां दलित-बहुजन स्त्रियां उसी तरह से गायब हैं जिस तरह से सवर्ण पुरुषों के लेखन से जाति समस्या या दलित-बहुजन समाज। इतना ही नहीं सवर्ण लेखिकाएं दलित-बहुजन स्त्रियों से अकूत घृणा भी करती हैं। लेकिन दलित स्त्री लेखन की यह खासियत है कि एक तरफ यदि वह द्विजवाद से लड़ता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही समाज की मर्दवादी सोच और विचार से। दलित-बहुजन स्त्रियों के लेखन में हम कई-कई मोर्चों पर संघर्ष और अभिशापों को पाते हैं। इसीलिए उसे भारत के प्रमुख स्वर के रूप में पहचान मिल रही है। ईमानदारी, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और स्वाभाविकता उसकी विशेषता है। तभी मल्लिका अमरशेख जैसी महान दलित लेखिका अपने पति नामदेव ढसाल की कलई को खोलकर रख पाती हैं। तहमीना दुर्रानी और तसलीमा जैसी लेखिकाओं ने भी ऐसा साहस दिखाया है। लेकिन हिंदी की सवर्ण लेखिकाओं के पास ऐसा साहस कहां? वह तो फैशन में लिखते चलती हैं। वे भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का नाम नहीं लेंगी लेकिन वर्जीनिया वुल्फ और जर्मन ग्रीयर का नाम लेते नहीं अघाएंगी।
अच्छा आलेख है। कई महत्वपूर्ण संदर्भों से संपन्न।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी घटिया-सी आत्मकथा लिख दी थी। वहीं दूसरी ओर तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएँ और कष्ट तो वयक्त किए, लेकिन अपनी पत्नी के बारे में बिल्कुल भूल ही गए। स्त्री दलितों में भी सबसे दलित है। पितृसत्तात्मक समाज की बन्दिशें दलित स्त्रियों को भी झेलनी पड़ती हैं। उनका दोहरा शोषण होता है। ऊँची जातियों के द्वारा और ख़ुद अपने ही समाज के मर्दों के द्वारा।
सही है
सशक्त भाषा के साथ गंम्भीर विश्लेषण करते हुए गरिमा जी ने दलित स्त्रियों के आत्मकथ्यों से दिखाई देने वाले गहरे दंश को साहित्य जगत के सामने लाकर अन्याय के खिलाफ दस्तावेज प्रस्तुत करने का श्लाघनीय कार्य किया है। उन्हें और अरुण देव को अभिवादन।
शुक्रिया शुभा जी