करक्कू
बामा फ्युस्टीना मेरी के आत्माख्यान ‘करक्कू’ का प्रकाशन 1992 में हुआ जिसके अंग्रेजी अनुवाद (2000) को क्रासवर्ड पुरस्कार मिला. बामा पहली तमिल दलित लेखिका है जिसके आत्माख्यान को पाठकों ने बड़ी संख्या में सराहा. यह आत्माख्यान अपने समय की प्रामाणिक मीमांसा करता है,इसलिए आलोचकों ने दलित ‘टेस्टीमोनी’ के नज़रिए से इसे पढ़ने की सिफारिश की है. ’करक्कू’ की कथा अतीत से लेकर वर्तमान तक फैली हुई है जिसके केंद्र में बतौर ईसाई बामा के जीवन-संघर्ष और उसके समुदाय की कथा है. मदुरै के पास पुट्टूपत्ती में जन्मी बामा(1958) के माता–पिता धर्मान्तरित ईसाई थे. बामा ने बचपन से ही कब्र में दफनाये जाने के मुद्दे पर दलित ईसाई और सलियार जाति के आपसी संघर्ष देखे थे. बामा उन पुलिस वालों के बारे में भी लिखती है जो हमेशा ऊँची जाति वालों का पक्ष लेते हैं. दलित ईसाई, विशेषकर औरतें पुलिसिया दमन के साथ सवर्ण जातियों के दोहरे दमन का शिकार होती हैं. बामा अपने बचपन की घटनाओं को याद करते हुए बताती है कि किस तरह पुलिस के अत्याचार से बचने के लिए दलित ईसाई जंगलों और पहाड़ियों की तरफ भाग जाया करते ,पीछे बच रहती औरतें जो दैनंदिन के बलात्कार का सामना किया करतीं. इस तरह की घटनाओं से बामा को पता चला कि राज्य सत्ता का वास्तविक चरित्र क्या है और उसका जाति और वर्ग से कैसा गठबंधन है. घटना के बाद पुलिस दलित परियरों को गिरफ्तार करके ले गयी जबकि ऊँची जाति के चलियार बचे रहे
”शाम घिरने से पहले तक रोना और चिल्लाना जारी रहा और शाम घिरी तो सड़क पर श्मशान का सन्नाटा सा छा गया. एक भी पुरुष कहीं नज़र नहीं आ रहा था. केवल स्त्रियाँ इधर–उधर आ–जा रही थीं, आपस में फुसफुसाते हुए. मैं कुछ भी समझ नहीं पा रही थी. मेरे घर का कोई भी किसी बाहरी से कुछ नहीं पूछ रहा था. हम सब चुपचाप बैठे थे तब पात्ति (दादी) आई और जो हुआ था उसके बारे में हमें बताया. ऐसा लगता है चलियारों ने शिवकासी से कुछ जवानों को बुलाया और उनके लिए भेड़-भोज का आयोजन किया. हम यह कहाँ से कर पाते? हम तो दलिया–पानी के लिए ज़द्दोजहद कर रहे थे. पुलिस या सरकार हमारे पक्ष में कैसे आती?”
बामा अपने समुदाय की कथा कहती है और बताती है कि कैसे उनके समुदाय की स्त्रियाँ खुद को यौन–शोषण से बचाने के लिए ज़द्दोजहद करती हैं. स्वयं बामा ने, वयस्क होने के बाद बतौर नन एक चर्च में काम करना शुरू किया. जल्दी ही उसने चर्च में भी जाति भेद को महसूस किया, जहाँ बिना प्रश्न किये चुपचाप अगड़ी जाति के लोगों का आज्ञापालन करना था. दलित लड़की के रूप में बामा जिस जातिजन्य भेदभाव से गुजरी उसने उसके दिलोदिमाग पर गहरी छाप छोड़ी. आगे चलकर वह शिक्षिका बनी और जातिजन्य असमानता से मुक्त–स्थल की तलाश में चर्च से जुड़ी लेकिन वहां भी उसे निराशा ही हाथ लगी. अंततः उसने चर्च छोड़ दिया और आज भी सम्मान के साथ जीने की राह की खोज में लगी हुई है.
’करक्कू’ दरअसल भारतीय समाज और शिक्षा व्यवस्था का क्रिटीक है जो चर्च और नौकरशाही के बीच के जटिल गठबंधन और भारत के विभिन्न समुदायों में फैली जाति व्यवस्था की सड़ांध को पाठकों के सामने खोल कर रख देता है. बामा अपनी बात प्रथम पुरुष में प्रारंभ करती है और अपनी तुलना दोहरी धार वाले नुकीले पत्ते ‘करक्कू से करती है. जंगल में लकड़ी बीनते हुए जिन कंटीले धारदार पत्तों की चुभन उसने महसूस की वह अभाव और हिंसा के भय की दोहरी पीड़ा का प्रतीक है. उसका कहना है कि अपने समुदाय के लोगों की व्यथा और दंश को अभिव्यक्त करने के लिए उसने अपने विचार और शब्द करक्कू की तरह पैने कर लिए हैं, जो दमनकर्ताओं को तीक्ष्णता से दंश की अनुभूति करवाएं. वह अपने जीवन के विभिन्न प्रसंगों का ज़िक्र करती है, अन्यायकारी, गैर-समतावादी समाज व्यवस्था के बारे में बताती है जिसके कारण उसके समुदाय को अज्ञानता के अँधेरे में रहना पड़ा. भूमिका के दूसरे ही अवतरण में उसका स्वर बदल जाता है और वह ‘मैं से हम पर आ जाती है
‘मेरी तरह कई अन्य दलित ह्रदय हैं’ यह कहकर वह यह घोषणा कर देती है कि वह सिर्फ़ अपने बारे में नहीं कह रही बल्कि अपने समूचे समुदाय की कथा कह रही है– “वे जो उत्पीड़ित हैं दरअसल स्वयं दोहरी धार वाले करक्कू की तरह हैं ‘इसलिए ‘करक्कू’ को निजी और सामुदायिक आख्यान के रूप में पढ़ने की सिफारिश करती है. वह जब अपनी बात कह रही है तब भी अपने समूह की ही बात कर रही है मसलन करक्कू की पहली पंक्ति में ही कहती है
‘हमारा गाँव बहुत सुन्दर है’, अपने समुदाय का परिचय लिखती है- ‘हमारे अधिकांश लोग कृषि मजदूर हैं’. पाठक के समक्ष प्रारंभ से ही यह स्पष्ट कर देना चाहती है कि वह जिस विधा में लिख रही है वह निज का आख्यान भर नहीं है बल्कि यातना की स्मृति का सामूहिक दस्तावेज़ है जिसका उद्देश्य है- दलित और ईसाई समुदायों की पीड़ा और दमन को सामने लाना. बामा उनमें से है जो बचपन से ही अपनी दलित स्थिति के बारे में जान गयी-
“जब मैं तीसरी कक्षा में थी, मैंने लोगों को खुलेआम छुआछूत के बारे में बात करते नहीं सुना था लेकिन मैंने खुद देखा, महसूस किया, झेला और इसकी वजह से अपमानित अनुभव किया था.”
दलित होने के कारण भेदभाव के अनुभव बचपन में ही बड़ा बना देते हैं. बामा ने बचपन से ही अपनी दादी(पात्ति ) के साथ नायकर जाति की सवर्ण स्त्रियों को छूत और अस्पृश्यता बरतते देखा,तब वह इसके बारे में समझ नहीं पाती थी लेकिन इन असामान्य स्थितियों ने उसके अवचेतन का निर्माण करना अवश्य शुरू कर दिया था. बामा ने कृषि श्रमिक के रूप में पात्ति की कठोर श्रमचर्या का भी वर्णन किया है-
“सभी के मुंह से यही सुनती कि पात्ति एक सच्ची और सही सेविका है. वह एक नायकर परिवार के यहाँ काम करती थी. इसके साथ ही, वह उनके लिए श्रमिकों का जुगाड़ करती, उन्हें काम करवाने के लिए लाती, अपनी निगरानी में काम करवाती और उन सबको उचित मजदूरी दिलवाती. इतवार का दिन छोड़कर बाकी सभी दिन वह काम पर जाती थी. कभी–कभी जब नायकर जोर करते तो वह रविवार को भी एकदम तड़के चली जाती थी. वह हर रोज़ सुबह मुर्गे की बांग से पहले ही उठ जाती,पानी भरती, घर के काम काज देखती और अँधेरा होने पर घर लौटकर अपने लिए थोड़ा-सा दलिया बनाती.”
कक्षा के सभी बच्चों के सामने पुजारी द्वारा सार्वजनिक तौर पर जाति के कारण अपमानित होने का अनुभव उसे शर्म से भर देता है-
“जब मैं कक्षा में घुसी तो सारे बच्चे मुड़कर मुझे देखने लगे, मैं अपने आप में सिकुड़ जाना चाहती थी,जाकर चुपचाप अपनी बेंच पर बैठ गयी, रोती हुई.”
अस्पृश्यता के ये प्रसंग दलित शरीर पर जाति को हमेशा के लिए उकेर देने का काम करते हैं. ये निर्भर करता है कि दलित मन इसे किस रूप में ग्रहण करता है. यह चोट और इस तरह की अनेक पीड़ाएं, समुदाय की पीड़ा बन जाति हैं जब कई लोगों के अनुभव एक जैसे हो जाते हैं. बामा अपने समुदाय के बूढ़े, थके, गरीब, थरथराते पांवों को सँभालते, सवर्णों के डर से कांपते लोगों का वर्णन करती है, जिन्हें सार्वजनिक तौर पर अपशब्दों से नवाज़ा जाता है, लेकिन वे सिर उठा कर कुछ कहते नहीं. आत्माख्यान में वह कई बार जाति-आधारित हिंसा की घटनाओं का वर्णन करती है इस तरह की घटनाओं और प्रसंगों ने उसके मन पर गहरा प्रभाव डाला. उसके बड़े भाई ने समझाया था कि शिक्षा प्राप्त करना कितना ज़रूरी है– मैंने पढ़ाई में खूब परिश्रम किया,जितना मैं कर सकती थी. एक जुनून की तरह मैं पढ़ा करती. कक्षा में प्रथम आई. उसी की वजह से बहुत- सी सहेलियां बनीं बावजूद इसके कि मैं परीची जाति की थी. आगे चलकर वह फिर लिखती है–
“रोज़ का नया दिन कोई ताज़ा घाव लेकर आता है. . . मैंने इस समाज का जुनूनी, बर्बर और कुरूप चेहरा देखा है. ”
अपनी बेरोज़गारी के बारे में वह लिखती है–
“आज मैं एक दोगले कुत्ते की तरह हूँ, बिना किसी स्थायी नौकरी के इधर उधर भटकती हुई. कपड़े-लत्ते और भोजन का ठिकाना नहीं. मेरी हालत वही है जो अधिकांश गरीब असहाय दलितों की होती है. मैं भी उसी तरह की गरीबी का सामना कर रही हूँ जो चिलचिलाती धूप और मूसलाधार बारिश में भीगते हैं. जब आप गरीब होते हैं तो ज़िन्दगी बहुत मुश्किल हो जाती है, अगर आप ऊँची जात के हैं तब भी. जब हमारी यह हालत है तो परया समुदाय के लोगों का क्या होता होगा जो दलितों में भी दलित हैं, उनके बारे में क्या कहा जा सकता है”
इसलिए बामा अपनी दलित स्थिति के बारे में समुदाय के लोगों को जगाने का उपक्रम करते हुए कहती है –
“हममें से जो लोग अब भी सोये हुए हैं उन्हें अपनी आँखें खोलनी चाहिये, अपनी हालत देखनी चाहिए. हमें सारा अन्याय अपना भाग्य समझकर बर्दाश्त नहीं कर लेना चाहिए,ऐसे जैसे हमारी कोई सच्ची संवेदना ही नहीं है. हमें बदलाव के पक्ष में ज़रूर खड़ा होना चाहिए.”
अपने समुदाय की कथा लिखकर बामा निज के गर्हित कहे जाने वाले अनुभवों को सार्वजनिक कर देती है, दूसरों के साथ अपनी कहानी को बाँट लेती है. शरीर और आत्मा के अपमान की व्यथा-कथा को कितना और किस सीमा तक सार्वजनिक कर दिया जाये, इसकी कोई सीमा नहीं होती. इसलिए दलित-अपमान के चित्रण पाठक को दुःख और अवसाद से भर देते हैं. बच्चों का शोषण और यौन शोषण जैसी घटनाएँ कितनी और किस सीमा तक आख्यान में चित्रित की जाए यानी क्या कहा जाये और क्या छोड़ दिया जाये इसके बारे में दलित आख्यान चुप हैं. ’करक्कू’ के सन्दर्भ में मिनी कृष्णन ने चेतावनी दे दी है कि पाठकों को बामा के कुछ खुलासे सदमे में डाल सकते हैं. इसी तरह ‘करक्कू’ की अनुवादक लक्ष्मी होम्स्त्रोम भी लिखती हैं कि इसे पढ़ना सुकूनदेह नहीं है यहीं पर करक्कू एक नया सौंदर्यशास्त्र तैयार करता है, और आत्मकथा से ऊपर उठकर बतौर ‘टेस्टीमोनियो ‘या समुदाय के साक्ष्य के तौर पर पढ़े जाने की मांग करने लगता है. यहीं पर निज और सार्वजनिक का अन्तराल ख़त्म हो जाता है,पीड़ा की लहर आख्यानकर्ता से उठकर उसके समुदाय की ओर प्रवाहित होने लगती है, जिन बातों को कहा नहीं जा सकता उन्हें लिख कर संप्रेषित किया जा सकता है. बामा लिखकर भारतीय समाज का गर्हित चेहरा सबके समक्ष ले आती है वह ईसाई धर्म जहाँ बच्चों के लिए करुणा और समानता के गीत गाये जाते हैं उसके बारे में लिखती है–
“जिस कान्वेंट में मैं गयी वहां गरीब बच्चों की तरफ कोई आँख उठाकर भी नहीं देखता था. बामा की कल्पना के अनुरूप कान्वेंट की जीवनशैली वैसी सीधी-सादी नहीं थी. ईसाईयों के तमाम दावों के बावजूद वहां पर सादगी और अभाव का लेश न था. . . ऊँची जाति के ईसाई, चर्च के सारे लाभ और आराम लिया करते थे. यदि कोई दलित, नन या पादरी बनता था तो उसे सबसे पहले हाशिये पर धकेल दिया जाता था. बामा यह भी लिखती है कि कान्वेंट में प्यार कहीं नहीं था. . . नम्र और गरीब लोगों के लिए कोई प्यार नहीं था. . दरअसल वे ईसा के नाम पर गरीबों से रुपये लूटते थे.”
बामा इस पुस्तक में कई असुविधाजनक खुलासे करती है, चर्च, बिरादरी, पुलिस के पक्षपातपूर्ण रवैये को सार्वजनिक कर देती है. जाति दमन पर आधारित सभी समीकरणों को निजी अनुभव से जोड़कर पाठक के अनुभव का हिस्सा बना देती है. बामा पाठक को चर्च से, आम आदमी की अपेक्षाओं के बारे में बताती है,साथ ही जब जाति आधारित भेदभाव को झेलती है तो चर्च छोड़ देती है और अपने समुदाय के उत्थान के लिए कार्य करती है. पढ़ाई के लिए खूब परिश्रम करना और चर्च छोड़कर सामुदायिक कार्यों में लग जाना उसे एक अभिकर्ता के तौर पर स्थापित कर देने के लिए काफी हैं. वह अपने निर्णय खुद लेती है फलत: अपने समुदाय के लिए आदर्श प्रस्तुत करती है. यह भी गौरतलब है कि बतौर कार्यकर्त्ता बामा अपनी उपलब्धियों को पूरे आख्यान में रेखांकित करती चलती है जिससे यह पता चलता है कि आत्मकथाकार अपने जीवन और कार्यों को दूसरों के सामने बतौर आदर्श प्रस्तुत कर रही है-
“मुझमें साहस है, आत्मसम्मान है मुझे अपने ऊपर विश्वास है कि मैं जी सकती हूँ, और जीने की इच्छा भी. . मैं खुद को समझती हूँ कि झूठी मुस्कान ओढ़कर जीने की बनिस्पत दूसरों के आंसू पोंछकर जीना बेहतर है”
यहीं आकर बामा का आत्मकथ्य दलित अनुभव का साक्ष्य बन जाता है. यदि हम ‘करक्कू’ को आत्मकथा, टेस्टीमोनी, दलित मुखपत्र की मिली-जुली विधा के रूप में देखें तो इस पुस्तक के भीतर से झांकते भारतीय समाज और जाति व्यवस्था को बेहतर ढंग से विश्लेषित कर पायेंगे.
बहुत ही विस्तृत आलेख। दलित जीवन का खण्ड-खण्ड सच-एक आत्मकथात्मक साक्ष्य । तीन तरफा मार झेलती स्त्री- एक तो स्त्री, वह भी दलित और उस पर से पितृसत्ता के अधीन।अभी समयाभाव से इसे आद्योपांत नहीं पढ़ पाया। लेकिन अत्यंत पठनीय एक जरूरी आलेख।
साहित्य का भूगोल हो या इतिहास इन दलित महिला कथाकारों की आत्मकथाओं की उपस्थिति को दर्ज किए बिना कभी मुक्कमल आकार ग्रहण नहीं कर सकता। बेबी हालदार की आत्मकथा पढ़ते हुए अविस्मरणीय कहानी आखेट के कथाकार प्रबोध कुमार और विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी स्वर्गीय अशोक सेकसरिया का स्मरण न आना असंभव है। हमेशा की तरह इस बार भी अपने गंभीर और सुचिंतित आलेख को पढ़वाने के लिए गरिमा श्रीवास्तव जी का और अरुण देव जी का अभिवादन।
गरिमा श्रीवास्तव का यह भी एक सुचिंतित आलेख है। भारत में दो तरह के स्त्री लेखन होते रहे हैं। एक खाए-अघाए या सवर्ण स्त्रियों का लेखन, और दूसरा दलित-बहुजन स्त्रियों का लेखन। सवर्ण स्त्रियों के यहां दलित-बहुजन स्त्रियां उसी तरह से गायब हैं जिस तरह से सवर्ण पुरुषों के लेखन से जाति समस्या या दलित-बहुजन समाज। इतना ही नहीं सवर्ण लेखिकाएं दलित-बहुजन स्त्रियों से अकूत घृणा भी करती हैं। लेकिन दलित स्त्री लेखन की यह खासियत है कि एक तरफ यदि वह द्विजवाद से लड़ता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही समाज की मर्दवादी सोच और विचार से। दलित-बहुजन स्त्रियों के लेखन में हम कई-कई मोर्चों पर संघर्ष और अभिशापों को पाते हैं। इसीलिए उसे भारत के प्रमुख स्वर के रूप में पहचान मिल रही है। ईमानदारी, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और स्वाभाविकता उसकी विशेषता है। तभी मल्लिका अमरशेख जैसी महान दलित लेखिका अपने पति नामदेव ढसाल की कलई को खोलकर रख पाती हैं। तहमीना दुर्रानी और तसलीमा जैसी लेखिकाओं ने भी ऐसा साहस दिखाया है। लेकिन हिंदी की सवर्ण लेखिकाओं के पास ऐसा साहस कहां? वह तो फैशन में लिखते चलती हैं। वे भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का नाम नहीं लेंगी लेकिन वर्जीनिया वुल्फ और जर्मन ग्रीयर का नाम लेते नहीं अघाएंगी।
अच्छा आलेख है। कई महत्वपूर्ण संदर्भों से संपन्न।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी घटिया-सी आत्मकथा लिख दी थी। वहीं दूसरी ओर तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएँ और कष्ट तो वयक्त किए, लेकिन अपनी पत्नी के बारे में बिल्कुल भूल ही गए। स्त्री दलितों में भी सबसे दलित है। पितृसत्तात्मक समाज की बन्दिशें दलित स्त्रियों को भी झेलनी पड़ती हैं। उनका दोहरा शोषण होता है। ऊँची जातियों के द्वारा और ख़ुद अपने ही समाज के मर्दों के द्वारा।
सही है
सशक्त भाषा के साथ गंम्भीर विश्लेषण करते हुए गरिमा जी ने दलित स्त्रियों के आत्मकथ्यों से दिखाई देने वाले गहरे दंश को साहित्य जगत के सामने लाकर अन्याय के खिलाफ दस्तावेज प्रस्तुत करने का श्लाघनीय कार्य किया है। उन्हें और अरुण देव को अभिवादन।
शुक्रिया शुभा जी